क्रोचे का अभिव्यंजनावाद

प्रस्तावना

कला, विशेषकर साहित्य की व्याख्या में सौंदर्यशास्त्र की प्रमुख भूमिका रही है। साहित्य केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं है, इसमें मानवीय संवेदना, अनुभूति और विचारों को कलात्मक रूप में प्रकट किया जाता है। साहित्य की इसी प्रकृति को समझने हेतु अनेक विचारकों ने विभिन्न सिद्धांत प्रस्तुत किए। इन सिद्धांतों में से एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है “अभिव्यंजनावाद” (Expressionism), जिसके प्रमुख प्रवक्ता इटली के आधुनिक विचारक बेनेदेत्तो क्रोचे (Benedetto Croce) हैं। क्रोचे का यह सिद्धांत साहित्य के सौंदर्यात्मक विश्लेषण में अत्यंत प्रभावशाली सिद्ध हुआ। उन्होंने साहित्य को ‘आंतरिक अभिव्यक्ति’ (Inner Expression) के रूप में देखा और रचनाकार की अनुभूति को साहित्य का केन्द्रीय तत्व माना।

इस लेख में क्रोचे के अभिव्यंजनावाद सिद्धांत की गहन विवेचना, पृष्ठभूमि, विशेषताएँ, आलोचनात्मक दृष्टिकोण और इसके प्रभावों का सम्यक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।


क्रोचे का परिचय

बेनेदेत्तो क्रोचे (1866–1952) इटली के महान दार्शनिक, इतिहासकार और कला-समीक्षक थे। वे हेगेल के प्रभाव में थे, परंतु बाद में उन्होंने अपनी एक अलग सौंदर्यदृष्टि का विकास किया। उन्होंने “The Aesthetic as Science of Expression and General Linguistic” (1902) नामक ग्रंथ में अपने सौंदर्यशास्त्रीय विचार प्रस्तुत किए, जिसमें उनका अभिव्यंजनावाद स्पष्ट रूप से प्रतिपादित होता है। उन्होंने सौंदर्यशास्त्र को एक स्वतंत्र अनुशासन के रूप में स्थापित किया और कला को केवल भाव या मनोरंजन नहीं, बल्कि मानवीय आत्मा की सर्जनात्मक अनुभूति बताया।


अभिव्यंजनावाद का सिद्धांत

क्रोचे के अनुसार साहित्य या कला का उद्देश्य किसी बाहरी वस्तु की नकल (Mimesis) करना नहीं है, जैसा कि अरस्तू ने कहा था। न ही यह केवल भावोद्रेक है, जैसा कि भारतीय रस सिद्धांत में है। क्रोचे के अनुसार, साहित्यकार अथवा कलाकार अपने अंतर्मन की अनुभूतियों को रूप देता है, और यही प्रक्रिया कला का मूल स्वरूप है। यह “अभिव्यक्ति” (Expression) ही कला है।

वे कहते हैं:

“Art is expression. If it is not expression, it is not art.”

क्रोचे के अभिव्यंजनावाद की मूल अवधारणाएँ:

  1. कला = अभिव्यक्ति
    क्रोचे के अनुसार कला आत्मा की वह क्रिया है, जिसमें वह अपनी भीतरी अनुभूतियों को किसी बाह्य रूप में अभिव्यक्त करती है। वह रूप कोई मूर्ति, चित्र, कविता, कहानी या संगीत हो सकता है। परंतु उस रूप का मूल्य तभी है जब वह कलाकार की अंतरात्मा की सच्ची अभिव्यक्ति हो।

  2. कल्पना का महत्व
    क्रोचे के अनुसार कल्पना (Imagination) ही रचना की आत्मा है। वह तर्क या बौद्धिक विश्लेषण को कला की प्रक्रिया में गौण मानते हैं। उनके अनुसार कला का जन्म विचार से नहीं, अनुभूति से होता है।

  3. अभिव्यक्ति का अंतर्ज्ञानात्मक स्वरूप
    उन्होंने कला को “आत्मबोध की पहली अभिव्यक्ति” माना है। उनके अनुसार यह एक सहज और अंतर्ज्ञानात्मक प्रक्रिया है, जिसे शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता। वह इसे चेतना का पहला स्तर मानते हैं।

  4. शुद्ध अभिव्यक्ति का विचार
    क्रोचे ने कला में ‘शुद्ध अभिव्यक्ति’ (Pure Expression) की बात की। उनके अनुसार सच्ची कला वही है जो किसी व्यावसायिक उद्देश्य, नैतिक संदेश या सामाजिक प्रयोजन से मुक्त होकर केवल आंतरिक अनुभूति को अभिव्यक्त करे।


अभिव्यंजनावाद और अन्य सिद्धांतों में अंतर

  1. अनुकरण सिद्धांत से भिन्नता
    जहाँ अरस्तू और प्लेटो ने कला को “अनुकरण” कहा (Mimesis), वहीं क्रोचे इसे नकल नहीं, बल्कि मौलिक ‘अभिव्यक्ति’ मानते हैं। उनके अनुसार कलाकार अपने अंत:करण की अनुभूतियों को रचता है, वह किसी वस्तु का प्रतिबिंब नहीं बनाता।

  2. प्रेरणा या रस सिद्धांत से अंतर
    भारतीय काव्यशास्त्र में रस को कला की आत्मा माना गया है, जो पाठक या श्रोता में ‘भावोद्रेक’ उत्पन्न करता है। क्रोचे इस परिघटना को द्वितीयक मानते हैं। उनके अनुसार पाठक की अनुभूति बाद की बात है; पहले तो कलाकार की अनुभूति की सच्ची और शुद्ध अभिव्यक्ति होनी चाहिए।

  3. नीतिवाद या उपयोगितावाद से भिन्नता
    कुछ विचारकों ने साहित्य को नैतिक शिक्षा या सामाजिक चेतना का उपकरण माना है। क्रोचे के अनुसार कला का ऐसा कोई उद्देश्य नहीं होता। वह आत्म-अभिव्यक्ति की प्रक्रिया है और उसका मूल्य उसकी कलात्मकता में है, न कि उसके सामाजिक उपयोग में।


क्रोचे के सिद्धांत की विशेषताएँ

  1. कला की स्वायत्तता
    क्रोचे ने कला को स्वतंत्र अनुशासन माना, जो किसी अन्य उद्देश्य से बंधा नहीं है।

  2. शुद्ध सौंदर्य की अवधारणा
    उन्होंने कला में सौंदर्य की व्याख्या ‘शुद्ध रूप’ में की। उनके अनुसार कला का सौंदर्य उसकी ‘अभिव्यक्त क्षमताओं’ में है, न कि उसके विषयवस्तु में।

  3. कलाकार की अंतर्ज्ञान शक्ति का महत्त्व
    क्रोचे के अनुसार कलाकार तर्क नहीं करता, वह ‘अनुभव करता है’ और फिर उसे ‘रूप’ देता है। यह रूप अंतर्ज्ञान से उत्पन्न होता है।

  4. कला में अभिव्यक्ति का ‘रूपात्मक’ स्वरूप
    क्रोचे ने कहा कि कला केवल भावना नहीं है, वह ‘रूप-धारण की प्रक्रिया’ है। बिना रूप के कोई भावना कला नहीं बन सकती।


आलोचना

क्रोचे के अभिव्यंजनावाद ने आधुनिक सौंदर्यशास्त्र को एक नई दिशा दी, परंतु इस पर कई आलोचनाएँ भी की गईं:

  1. कला को अत्यधिक आत्मकेन्द्रित बनाना
    आलोचकों का कहना है कि क्रोचे ने कला को अत्यधिक आत्मकेंद्रित और व्यक्तिगत बना दिया है, जिससे सामाजिक यथार्थ या सामूहिक चेतना की भूमिका उपेक्षित हो जाती है।

  2. भावना की प्रधानता से संरचना की उपेक्षा
    क्रोचे की दृष्टि में ‘अनुभूति’ प्रमुख है, परंतु इससे कला की तकनीकी, शिल्पगत या शैलीगत संरचनाओं की भूमिका गौण हो जाती है।

  3. पाठक की भूमिका की उपेक्षा
    क्रोचे ने पाठक या दर्शक की संवेदना या प्रतिक्रिया को गौण माना, जबकि उत्तर आधुनिक विचारकों ने पाठक की भूमिका को केंद्रीय माना है।

  4. “शुद्ध कला” की अवधारणा पर प्रश्न
    मार्क्सवादी और उत्तर-आधुनिक आलोचक यह तर्क देते हैं कि कोई भी कला “शुद्ध” नहीं होती। वह अपने समय, समाज और राजनीति से प्रभावित होती है।


प्रभाव और महत्व

  1. आधुनिक कला की नई समझ
    क्रोचे ने जिस प्रकार आत्म-अभिव्यक्ति को कला का मूल बताया, उसने कला को व्यक्तिवाद और आधुनिकता की दिशा में अग्रसर किया।

  2. कला के मूल्यांकन की नई कसौटी
    उनके सिद्धांत ने यह स्पष्ट किया कि कला को उसकी अंतर्निहित भावनात्मक सच्चाई और अभिव्यक्ति की तीव्रता के आधार पर आँका जाना चाहिए, न कि केवल उसकी तकनीक, विषयवस्तु या सामाजिक उपयोगिता के आधार पर।

  3. कविता और रचनात्मक लेखन को नया दृष्टिकोण
    उनकी अवधारणाओं ने रचनात्मक लेखकों को इस आत्म-प्रश्न की ओर मोड़ा कि “मैं क्या कहना चाहता हूँ?” — यह प्रश्न ‘कैसे लिखूँ?’ से अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया।


भारतीय साहित्य में क्रोचे का प्रभाव

भारतीय साहित्य और आलोचना में भी क्रोचे के विचारों का अप्रत्यक्ष प्रभाव देखने को मिलता है। अज्ञेय, मुक्तिबोध और शमशेर जैसे कवियों की रचनाओं में अंत:प्रेरणा, आत्मसंघर्ष और गहन संवेदना की जो प्रमुखता है, वह कहीं-न-कहीं क्रोचे की अभिव्यक्ति-प्रधान सौंदर्य दृष्टि से प्रभावित है।


निष्कर्ष

क्रोचे का अभिव्यंजनावाद सिद्धांत आधुनिक साहित्यिक सौंदर्यशास्त्र की एक ऐतिहासिक उपलब्धि है। उसने कला को अनुकरण या प्रयोजन की जंजीरों से मुक्त कर उसे आत्म-अभिव्यक्ति की एक सर्जनात्मक प्रक्रिया के रूप में देखा। यह दृष्टिकोण कला की मौलिकता, कलाकार की संवेदना और कल्पना को केंद्र में लाता है। यद्यपि इस पर अनेक आलोचनाएँ भी हुई हैं, परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि क्रोचे का सिद्धांत आज भी साहित्यिक विमर्श को नई दृष्टि देने में सक्षम है।

अंततः, यह कहा जा सकता है कि:

“क्रोचे का अभिव्यंजनावाद कला को केवल देखने या सुनने की नहीं, बल्कि अनुभव करने की प्रक्रिया बनाता है — जो आत्मा की गहराइयों से उठकर सृजन के रूप में प्रकट होती है।”


वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1➤ क्रोचे का संबंध किस देश से था?





2➤ क्रोचे का सौंदर्यशास्त्र किस सिद्धांत पर आधारित है?





3➤ क्रोचे किस विचारक से प्रारंभ में प्रभावित थे?





4➤ क्रोचे के अनुसार कला का स्वरूप क्या है?





5➤ क्रोचे के अनुसार कला किसका साधन नहीं है?





6➤ क्रोचे की दृष्टि में रचना किससे जन्म लेती है?





7➤ क्रोचे के अनुसार, कलाकार का कार्य क्या है?





8➤ क्रोचे का अभिव्यंजनावाद किसको केंद्र में रखता है?





9➤ क्रोचे का दृष्टिकोण किसके विरुद्ध था?





10➤ क्रोचे ने अपने सौंदर्यशास्त्रीय विचार किस ग्रंथ में प्रस्तुत किए?





 

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