6. गुरु-शिष्य
आचार्य का रंग अत्यन्त काला था। डील-डौल के भी वे खूब लम्बे थे पर शरीर उनका कृश था। हड्डियों के ढाँचे पर चमड़ी का खोल मढ़ा था। गोल-गोल आँखें गढ़े में धंसी थीं। गालों पर उभरी हुई हड्डी एक विशेष भयानक आकृति बनाती थी। उनका लोकनाम शबर प्रसिद्ध था। वे भूत-प्रेत-बैतालों के स्वामी कहे जाते थे। मारण-मोहन-उच्चाटन तन्त्र-मन्त्र के वे रहस्यमय ज्ञाता थे। वे नीच कुलोत्पन्न थे। कोई कहता––वे जात के डोम हैं, कोई उन्हें धोबी बताता था। वे प्राय: अटपटी भाषा में बातें किया करते थे। लोग उनसे भय खाते थे। पर उन्हें परम सिद्ध समझकर उनकी पूजा भी करते थे। वज्रयान सम्प्रदाय के वे माने हुए आचार्य थे।
भिक्षु धर्मानुज को उन्हीं का अन्तेवासी बनाया गया। धर्मानुज को एक कोठरी रहने को, दो चीवर और दो सारिकाएँ दी गई थीं। एकान्त मनन करने के साथ ही वह आचार्य वज्रसिद्धि से वज्रयान के गूढ़ सिद्धान्त भी समझता था, परन्तु शीघ्र ही गुरु-शिष्य में खटपट हो गई। भिक्षु धर्मानुज एक सीधा, सदाचारी किन्तु दृढ़ चित्त का पुरुष था। वह तन्त्र-मन्त्र और उनके गूढ़ प्रभवों पर विश्वास नहीं करता था। अभिचार प्रयोगों से भी उसने विरक्ति प्रकट की। इसी से एक दिन गुरु-शिष्य में ठन गई।
गुरु ने कहा—सौम्य धर्मानुज, विश्वास से लाभ होता है। पर धर्मानुज ने कहा—”आचार्य, मैंने सुना था——ज्ञान से लाभ होता है।”
“परन्तु ज्ञान गुरु की भक्ति से प्राप्त होता है।”
“इसकी अपेक्षा सूक्ष्म विवेक-शक्ति अधिक सहायक है।”
“तू मूढ़ है आयुष्मान्।”
“इसी से मैं आपकी शरण में आया हूँ।”
“तो यह मन्त्र सिद्ध कर-किलि, किलि, घिरि, घिरि, हुर, हुर वैरोचन गर्भ संचित गस्थरियकस गर्भ महाकारुणिक, ओम् तारे ओम तुमतारेतुरे स्वाहा।”
“यह कैसा मन्त्र है आचार्य।”
“यह रत्नकूट सूत्र है। घोख इसे।”
“पर यह तो बुद्ध वाक्य नहीं है।
“अरे मूढ़! यह गुरुवाक्य है।”
“पर इसका क्या अर्थ है आचार्य?”
“अर्थ से तुझे क्या प्रयोजन है, इसे सिद्ध कर।”
“सिद्ध करने से क्या होगा?”
“डाकिनी सिद्ध होगी। खेचर मुद्रा प्राप्त होगी।”
“आपको खेचर मुद्रा प्राप्त है आचार्य?”
“है।”
“तो मुझे कृपा कर दिखाइए।”
“अरे अभद्र, गुरु पर सन्देह करता है, तुझे सौ योनि तक विष्ठाकीट बनना पड़ेगा।”
“देखा जाएगा। पर मैं आपका खेचर मुद्रा देखना चाहता हूँ।”
“किसलिए देखना चाहता है?”
“इसलिए कि यह केवल ढोंग है। इसमें सत्य नहीं है।”
“सत्य किसमें है?”
“बुद्ध वाक्य में।”
“कौन से बुद्ध वाक्य रे मूढ़!”
“सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीविका, सम्यक् प्रयत्न, सम्यक् विचार और सम्यक् ध्यान, ये आठ आर्ष सत्य है। जो भगवान् बुद्ध ने कहे हैं।”
“किन्तु, आचार्य तू की मैं?”
“आप ही आचार्य, भन्ते!’
“तो तू मुझे सिखाता है, या तू सीखता है?”
“मैं ही सीखता हूँ भन्ते!”
“तो जो मैं सिखाता हूँ सीख।”
“नहीं, जो कुछ भगवान् बुद्ध ने कहा, वही सिखाइए आचार्य।”
“तू कुतर्की है”
“मैं सत्यान्वेषी हूँ, आचार्य।”
“तू किसलिए प्रव्रजित हुआ है रे!”
“सत्य के पथ पर पवित्र जीवन की खोज में।”
“तू क्या देव-दुर्लभ सिद्धियाँ नहीं चाहता?”
“नहीं आचार्य?”
“क्यों नहीं?”
“क्योंकि वे सत्य नहीं हैं, पाखण्ड हैं।”
“तब सत्य क्या तेरा गृह-कर्म है?”
“गृह-कर्म भी एक सत्य है। इन सिद्धियों से तो वही अच्छा है।”
“क्या?”
“पति-प्राणा साध्वी पत्नी, रत्न-मणि-सा सुकुमार कुमार आनन्दहास्य और सुखपूर्ण गृहस्थ जीवन।”
“शान्तं पापं, शान्तं पापं!”
“पाप क्या हुआ भन्ते!”
“अरे, तू भिक्षु होकर अभी तक मन में भोग-वासनाओं को बनाए है?”
“तो आचार्य, मैं अपनी इच्छा से तो भिक्षु बना नहीं, मेरे ऊपर बलात्कार हुआ है।”
“किसका बलात्कार रे पाखण्डी!”
“आप जिसे कर्म कहते हैं उस अकर्म का, आप जिसे पुण्य कहते हैं उस पाप कर्म का, आप जिसे सिद्धियाँ कहते हैं उस पाखण्ड कर्म का।”
“तू वंचक है, लण्ठ है, तू दण्डनीय है, तुझे मनःशुद्धि के लिए चार मास महातामस में रहना होगा।”
“मेरा मन शुद्ध है आचार्य।”
“मैं तेरा शास्ता हूँ, तुझसे अधिक मैं सत्य को जानता हूँ। क्या तू नहीं जानता, मैं त्रिकालदर्शी सिद्ध हूँ!”
“मैं विश्वास नहीं करता आचार्य।”
“तो चार मास महातामस में रह। वहाँ रहकर तेरी मनःशुद्धि होगी। तब तू सिद्धियाँ सीखने और मेरा शिष्य होने का अधिकारी होगा।”
उन्होंने पुकारकर कहा–”अरे किसी आसमिक को बुलाओ।”
बहुत-से शिष्य-बटुक-भिक्षु इस विद्रोही भिक्षु का गुरु-शिष्य सम्वाद सुन रहे थे। उनमें से एक सामने से दौड़कर दो आसमिकों को बुला लाया।
आचार्य ने कहा–”ले जाओ इस भ्रान्त मति को, चार मास के लिए महातामस में डाल दो, जिससे इसकी आत्मशुद्धि हो और सद्धर्म के मर्म को यह समझ सके।”
आसमिक उसे ले चले।
7. महातामस
यह एक अँधेरा तहखाना था, जो भूगर्भ में बनाया गया था। एक प्रकार से विहार की यह काल कोठरी थी जहाँ दिन को भी कभी सूर्य के प्रकाश की एक किरण नहीं पहुँच पाती थी। वहाँ दिन-रात सूची-भेद्य अन्धकार रहता था। यहाँ अनेक छोटी-छोटी कोठरियाँ थीं। जिनमें अनेक ऐसे अभागे बन्द थे जो इन आचार्यों की स्वेच्छाचारिता में बाधा डालते या उनकी राह में रोड़े अटकाते थे। बहुत-से तो वहाँ से जीवित निकल नहीं पाते थे। जो निकल पाते थे, उनमें अनेक पागल हो जाते या असाध्य रोगों के शिकार बन जाते थे। कोठरियों में अन्धकार ही नहीं, सील भी बहुत रहती थी। ये काल-कोठरियाँ भूगर्भ में नदी के साथ सटी हुई थीं। बहुत-से जीवित तथा मृत अभागे बन्दी यहीं से जल-प्रवाह में फेंक दिए जाते थे।
भिक्षु धर्मानुज को एक कोठरी में धकेलकर आसमिक ने द्वार पर ताला जड़ दिया। बड़ी देर तक तो उसे कुछ सूझा ही नहीं। फिर धीरे-धीरे उसकी आँखें अन्धकार को सहन कर गईं। उसने देखा—कोठरी अत्यन्त गन्दी, सील-भरी और दुर्गन्धित है। उनमें अनेक कीड़े रेंग रहे हैं। जो उसके शरीर को छू जाने लगे पर धर्मानुज ने धैर्यपूर्वक अपने को इस विपत्ति के सहने के योग्य बना लिया। वह कोठरी के एक कोने में पड़े काष्ठ फलक पर जाकर बैठ गया और अपने भूत-भविष्य का विचार करने लगा। कभी तो वह अपने राजसी ठाट-बाट युक्त घर के जीवन को याद करता और कभी इन वज्रयानियों के पाखण्डों की कल्पना करता। अब तक उसने बहुत-सी बातें केवल सुनी ही थीं। पर अब तो वह प्रत्यक्ष ही देख रहा था। वह जानता था कि उसे बिना ही अपराध के ऐसा भयानक दण्ड दिया गया है। उसके पिता की सम्पत्ति हरण करने का यह सारा आयोजन है––यह वह जानता था। अब उसे सन्देह होने लगा कि वे लोग उसे जान से मारकर अपनी राह का कंटक दूर करना चाहते हैं, न जाने ऐसे कितने कंटक वे नित्य दूर करते हैं। बौद्ध सिद्धों की यह कुत्सित हिंसक वृत्ति देख वह आतंक से काँप उठा।
8. सुखानन्द का आगमन
प्रातःकाल का समय था। विहार का सिद्धिद्वार अभी खुला ही था। इस द्वार से नागरिक श्रद्धालु जन, श्रावक और बाहरी भिक्षु विहार के बहिरन्तरायण में आ-जा सकते थे, किन्तु विहार के भीतर नहीं प्रविष्ट हो सकते थे। इस समय बहुत-से गृहस्थ नागरिक देवी वज्रतारा के दर्शनों को आ-जा रहे थे। भिक्षु गण इधर-उधर घूम रहे थे। कोई सूत्र घोख रहा था। कोई चीवर धो रहा था। कोई स्नान-शुद्धि में लगा था। सुखदास भिक्षु वेश में धम्मपद गुनगुनाता दिवोदास की खोज में इधर-उधर घूम रहा था। दिवोदास का कहीं पता नहीं लग रहा था।
एक भिक्षु ने उसे टोककर कहा—”मूर्ख, विहार में गाता है? नहीं जानता, गाना विलास है, भिक्षु को मन्त्र-पाठ करना चाहिए।”
सुखदास ने आँखें कपार पर चढ़ाकर कहा—”मुझे मूर्ख कहने वाला ही मूर्ख है। अरे, मैं त्रिगुण सूत्र का पाठ कर रहा हूँ, जानता है?”
“त्रिगुण सूत्र?”
“हाँ-हाँ, पर वह कण्ठ से उतरता नहीं है। जानते हो त्रिगुण सूत्र?”
“नहीं जानता भदन्त, तुम कौन यान में हो?”
“बात मत करो, सूत्र भूला जा रहा है।” सुखदास गुनगुनाता फिर एक ओर को चल दिया। कुछ दूर जाकर उसने आप ही आप भुनभुनाते हुए कहा—”वाह, क्या-क्या सफाचट खोपड़ियाँ यहाँ जमा हैं, जी चाहता है दिन-भर इन्हें चपतियाता रहूँ। पर अपने राम को कुमार को टटोलना है। पता नहीं इस समुद्र से कैसे वह मोती ढूँढ़ा जाएगा। वह एक बूढ़ा भिक्षु जा रहा है, पुराना पापी दीख पड़ता है। इसी से पूछूँ।” सुखदास ने आगे बढ़कर कहा—”भदन्त, नमो बुद्धाय।”
“भदन्त, कह सकते हो, भिक्षु धर्मानुज कहाँ है?”
“तुम मूर्ख प्रतीत होते हो। नहीं जानते वह महातामस में आचार्य की आज्ञा से प्रायश्चित्त कर रहा है!”
“यह महातामस कहाँ है भदन्त?”
“शान्तं पापं, अरे, महातामस में तुम जाओगे? जानते हो वहाँ जो जाता है उसका सिर कटकर गिर पड़ता है। वहाँ चौंसठ सहस्र डाकिनियों का पहरा है।”
“ओहो हो, तो भदन्त, किस अपराध में भिक्षु धर्मानुज को महातामस दिया गया है?”
“नमो बुद्धाय।”
इतने में दो-तीन भिक्षु वहाँ और आ गए। उन्होंने सुखदास की अन्तिम बात सुन ली। सुनकर वे बोल उठे—”मत कहो, मत कहो, कहने से पाप लगेगा।”
उसी समय आचार्य भी उधर आ निकले। आचार्य ने कहा :
“तुम लोग यहाँ क्या गोष्ठी कर रहे हो?”
“आचार्य, यह भिक्खु कहता है…।”
“क्या?”
“समझ गया, तुम लोगों ने महानिर्वाण सुत्त घोखा नहीं।”
“आचार्य, यह भिक्खु पूछता है…।”
“क्या?”
“पाप, पाप, भारी पाप।”
“अरे कुछ कहोगे भी या यों ही पाप-पाप?”
“कैसे कहें, पाप लगेगा आचार्य।”
“कहो, मैंने पवित्र वचनों से तुम्हें पापमुक्त किया।”
“तब सुनिये, वह जो नया भिक्षु दिवोदास…।”
“धर्मानुज कहो। वह तो महातामस में है?”
“जी हाँ।”
“महातामस में, वह चार मास में दोषमुक्त होगा।”
“किन्तु यह भिक्खु कहता है कि मैं वहाँ जाऊँगा।”
“क्यों रे?” आचार्य ने आँखें निकालकर सुखदास की ओर देखा।
सुखदास ने बद्धांजलि होकर कहा—”किन्तु आचार्य, भिक्षु धर्मानुज ने क्या अपराध किया?”
“अपराध? अरे तू उसे केवल अपराध ही कहता है।”
“आचार्य, मेरा अभिप्राय पाप से है।”
“महापाप किया है उसने, उसका मन भोग-वासना में लिप्त है, वह कहता है, उस पर बलात्कार हुआ है। मन की शुद्धि के लिए संघ स्थविर ने उसे चार मास के महातामस का आदेश दिया है।”
“कैसी मन की शुद्धि आचार्य?”
“अरे! तू कैसा भिक्षु है विहार के साधारण धर्म को भी नहीं जानता?”
“किन्तु इसी बात में इतना दोष?”
“बुद्धं शरणं। तू निरा मूर्ख है। तुझे भी प्रायश्चित्त करना होगा?”
“क्या गरम सीसा पीना होगा?”
“ठीक नहीं कह सकता, विधान पिटक में तेरे लिए दस हजार प्रायश्चित्त हैं।”
“बाप रे, दस हजार?”
“जाता हूँ, अभी मुझे सूत्रपाठ करना है। देखता हूँ विहार अनाचार का केन्द्र बनता जा रहा है।”
आचार्य बड़बड़ाते एक ओर चल दिए। सुखदास मुँह बाए खड़ा रह गया।
9. वज्रतारा का मन्दिर
वज्रतारादेवी के मन्दिर के भीतरी आलिन्द में महासंघस्थविर वज्रसिद्धि कुशासन पर बैठे थे। सम्मुख वज्रतारा की स्वर्ण-प्रतिमा थी। प्रतिमा पूरे कद की थी। उसके सिर पर रत्न- जड़ित मुकुट था। हाथ में हीरक दण्ड था। मूर्ति सोने के अठपहलू सिंहासन पर पद्मासन से बैठी थी। मूर्ति के पीछे पाँच कोण का यन्त्र था। जिस पर नामाचार के अंक अंकित थे। मूर्ति सर्वथा दिगम्बर थी।
वज्रसिद्धि के आगे विधान की पुस्तक खुली पड़ी थी। वे उसमें से मन्त्र पढ़ते जाते तथा पूजा-विधि बोलते जाते थे। बारह भिक्षु, भिन्न-भिन्न पात्र हाथ में लिए पूजा-विधि सम्पन्न कर रहे थे। बहुत-से नागरिक भक्ति भाव से करबद्ध पीछे बैठे थे। मन्दिर का घण्टा निरन्तर बज रहा था। आचार्य पूजा-विधि तो कर रहे थे परन्तु उनका मन वहाँ नहीं था। वे बीच-बीच में व्यग्र भाव से इधर-उधर देख लेते थे।
इसी समय महानन्द ने मन्दिर में प्रवेश किया। वह चौकन्ना हो इधर-उधर देखता हुआ, धीरे-धीरे भीतर की ओर अग्रसर हुआ। और संघस्थविर के पीछे वाली खिड़की में जा खड़ा हुआ। किसी का ध्यान उधर नहीं गया। परन्तु वज्रसिद्धि को उसका आभास मिल गया। फिर भी उन्होंने आँख फेरकर उधर देखा नहीं। हाँ, कुछ सन्तोष की भावना उनके चित्त में अवश्य उत्पन्न हो गई।
महानन्द ने देखा—पूजा में सब सफेद फूल काम में लाये जा रहे हैं। उसने अवसर पा एक लाल फूल वज्रसिद्धि के आगे फेंक दिया। महानन्द की ओर किसी की दृष्टि न थी। उसके इस काम को भी किसी ने नहीं देखा। ऐसी ही उसकी मान्यता भी थी। परन्तु वास्तव में एक पुरुष की आँखों से वह ओझल नहीं हो सका। और वह था सुखदास।
सुखदास ने उसकी चाल और रंग-ढंग देखकर ही पहचान लिया था कि वह कोई रहस्यपूर्ण पुरुष है, इस प्रकार अपने को छिपाकर तथा चौकन्ने होकर चलने का दूसरा कारण हो भी क्या सकता था! अत: सुखदास ने छिपकर उसका पीछा किया। और अब यहाँ खम्भे की ओट में खड़ा हो उसकी गतिविधि देखने लगा।
लाल फूल देखते ही आचार्य चौंक उठे। मन्त्रपाठ के स्थान पर उनके मुँह से निकल पड़ा—”अरे! यह तो युद्ध का संकेत है!” उन्होंने नजर बचाकर एक बार महानन्द की ओर देखा। एक कुटिल हास्य उनके ओठों पर खेल गया। उसने फूल के चार टुकड़े कर उत्तर दिशा में फेंक दिए। उनके हिलते हुए ओठों से लोगों ने समझा, यह भी पूजाविधि ही होगी।
थोड़ी ही देर में एक भिक्षु कुछ वस्तु उठाने के बहाने उनके कान के पास झुक गया। आचार्य ने उसके कान में कहा—”देख एक आदमी उत्तर तोरण के चतुर्थ द्वार पर खड़ा है। उसे गुप्त राह से पीछे वाली गुफा में ले जा।”
भिक्षु नमन करके चला गया। संघस्थविर ने आचार्य बुद्धगुप्त को संकेत से पास बुलाकर कहा—”तुम यहाँ पूजा विधि सम्पन्न करो। मैं अभी जाकर जाप में बैठता हूँ। देखना मेरे जाप में विघ्न न हो।”
बुद्धगुप्त ने सहमति संकेत किया। संघस्थविर उठकर एक ओर चल दिए। बुद्धगुप्त आसन पर बैठकर पूजन विधि सम्पन्न करने लगे।
लोगों ने ससम्भ्रम आचार्यपाद को मार्ग दिया। वे भूमि में झुक गए। आचार्य ने मुस्कराकर, सबको दोनों हाथ उठाकर, कल्याण-कल्याण का आशीर्वाद दिया।
जिस भिक्षु को आचार्य ने महानन्द को ले आने का आदेश दिया था––उसका सुखदास ने पीछा किया। जब वह महानन्द को गुप्त राह से ले चला तो सुखानन्द अत्यन्त सावधानी से उनके पीछे ही पीछे चला। अन्त में वे एक छोटे-से द्वार को पार कर एक अन्धेरे अलिन्द में जा पहुंचे। वहाँ घृत के दीपक जल रहे थे। द्वार को पीछे से बन्द करने की सावधानी नहीं की गई, इससे सुखदास को अनुगमन करने में बाधा नहीं हुई।
वज्रसिद्धि ने आते ही कहा—”क्या समाचार है, महानन्द! तुमने तो बड़ी प्रतीक्षा कराई।”
“आचार्य, मैंने एक क्षण भी व्यर्थ नहीं खोया।”
“तो समाचार कहो।”
“काशिराज के दरबार में हमारी चाल चल गई।” उसने आँख से संकेत करके कहा।
“तो तुम सीधे वाराणसी से ही आ रहे हो।”
“महाराज काशिराज जो यज्ञ कर रहे हैं, उसमें आपको निमन्त्रित करने दूत आ रहा है।”
“वह तो है, परन्तु महाराज ने भी कुछ कहा?”
“जी हाँ, महाराज ने कहा है कि वे आचार्य की कृपा पर निर्भर है।”
वज्रसिद्धि हँस पड़े। हँसकर बोले—”समझा, समझा, अरे दया तो हमारा धर्म ही है, परन्तु धूत पापेश्वर का वह पाखण्डी पुजारी—?”
“सिद्धेश्वर?—वह आचार्यपाद से विमुख नहीं है।”
“तब आसानी से काशिराज का नाश किया जा सकता है। और इन ब्राह्मण के मन्दिर को भी लूटा जा सकता है। जानते हो कितनी सम्पदा है उस मन्दिर में? अरे, शत- शत वर्ष की संचित सम्पदा है।”
“तो प्रभु, सिद्धेश्वर महाप्रभु आपसे बाहर नहीं हैं।”
“तो वाराणसी पर सद्धर्मियों का अधिकार करने का जो मैं स्वप्न देख रहा हूँ वह अब पूर्ण होगा? इधर श्रेष्ठि धनंजय के पुत्र दिवोदास के भिक्षु हो जाने से सेठ की अटूट सम्पदा हमारे हाथ में आई समझो। इतने से तो हमें पचास हजार सैन्य दल और शस्त्र जुटाना सहज हो जाएगा?”
“अरे, तो क्या सेठ के पुत्र ने दीक्षा ले ली?”
“ले रहा है।”
“नहीं तो क्या?”
“किन्तु आचार्य, वह धोखा दे सकता है, मैं भली भाँति जानता हूँ, उसे सद्धर्म पर तनिक भी श्रद्धा नहीं है!”
“यह क्या मैं नहीं जानता? इसी से मैंने उसे चार मास के लिए महातामस में डाल दिया है। तब तक तो काशिराज और उदन्तपुरी के महाराज ही न रहेंगे।”
“परन्तु आचार्य, सेठ यह सुनेगा तो वह महाराज को अवश्य उभारेगा। यह ठीक नहीं हुआ।”
“बहुत ठीक हुआ।”
इसी समय एक भिक्षु ने आकर बद्धांजलि हो आचार्य से कहा—“प्रभु, काशिराज के मन्त्री श्री चरणों के दर्शन की प्रार्थना करते हैं।”
वज्रसिद्धि ने प्रसन्न मुद्रा से महानन्द की ओर देखते हुए कहा—”भद्र महानन्द, तुम महामन्त्री को आदरपूर्वक तीसरे अलिन्द में बैठाओ। और कहो कि आचार्य पाद त्रिपिटक सूत्र का पाठ कर रहे हैं, निवृत्त होते ही दर्शन देंगे।”
महानन्द “जो आज्ञा आचार्य” कहकर चला गया।
वज्रसिद्धि प्रसन्न मुद्रा से कक्ष में टहलते हुए आप ही आप कहने लगा, “बहुत अच्छा हुआ, सब कुछ आप ही आप ठीक होता जा रहा है। यदि काशिराज लिच्छविराज से सन्धि कर ले और सद्धर्मी हो जाय तथा धूत पापेश्वर की सब सम्पत्ति संघ को मिल जाय तो ठीक है, नहीं तो इसका सर्वनाश हो। यदि मेरी अभिलाषा पूर्ण हो जाय तो फिर एक बार सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में वज्रयान का साम्राज्य हो जाय।”
10. टेढ़ी चाल
काशी के महामात्य का नाम शिवशर्मा था। वे एक वृद्ध विद्वान् शैव ब्राह्मण थे। राजनीति और धर्मनीति में बड़े पण्डित थे। काशी राजवंश तक की इन्होंने अपनी विलक्षण बुद्धि तथा नीति से बहुत बार रक्षा की थी। इनका वैभव भी राजा से कम न था। वह समय ही ऐसा था। राजा और मन्त्री का गुट, क्षत्रिय और ब्राह्मण का गुट था। ये ब्राह्मण ही इन राजाओं की सत्ता को अखण्ड बनाए रखते थे। वे राजा को ईश्वर का आंशिक अवतार बताते और उनकी सभी उचित-अनुचित आज्ञा को ईश्वरीय विधान के समान सिर झुकाकर मानना सब प्रजा का धर्म बताते थे। इसके बदले इन्हें पुरोहिताई तथा मन्त्री के अधिकार प्राप्त हुए थे। राजा लोग इन ब्राह्मण मन्त्रियों पर अपने भाई-बन्धु से भी अधिक विश्वास रखते थे। इनका वैभव, महल, ऊपरी ठाट-बाट राजा से किसी अंश में कम न होता था। ये ही मन्त्री राजा की धर्मनीति और राजनीति के संचालक थे।
काशी के महामात्य आचार्य के लिए बहुत-सी भेंट-सामग्री साथ लाए थे। उसे देखकर वज्रसिद्धि ने प्रसन्न मुद्रा से कहा :
“अमात्यवर, काशीराज कुशल से तो हैं?”
“आचार्य के अनुग्रह से कुशल है।”
“मैं नित्य देवी वज्रतारा से उनकी मंगल कामना करता हूँ। हाँ, महाराज यज्ञ कर रहे हैं?”
“उसी में पधारने के लिए मैं आपको आमन्त्रित करने आया हूँ। महाराज ने सांजलि प्रार्थना की है कि आचार्य भिक्षुसंघ सहित पधारें।”
“परन्तु महामात्य, यज्ञ में पशुवध होगा, गवालम्भन होगा, यह सब तो सद्धर्म के विपरीत है।”
“आचार्य, प्रत्येक धर्म की एक परिपाटी है। उसकी आलोचना से क्या लाभ? काशिराज आप पर श्रद्धा रखते हैं, इसी से उन्होंने आपको समरण किया है। फिर परस्पर धार्मिक सहिष्णुता तो उसी प्रकार बढ़ सकती है।”
“यह तो ठीक है, परन्तु काशिराज तो कभी इधर आए ही नहीं।”
“तो क्या हुआ, मैं उनका प्रतिनिधि देवी वज्रतारा का प्रसाद लेने आया हूँ।”
“साधु-साधु, मन्त्रिवर, देवी वज्रतारा का प्रसाद लो”, आचार्य ने व्यग्र भाव से इधर-उधर देखा। महानन्द अभिप्राय समझ बद्धांजलि पास आया।
आचार्य ने कहा—”भद्र महानन्द! अमात्यराज को देवी का प्रसाद दो।”
महानन्द ने “जो आज्ञा” कह, एक भिक्षु को संकेत किया। भिक्षु ने प्रसाद मन्त्री को अर्पित किया।
प्रसाद लेकर मन्त्री ने कहा—”अनुगृहीत हुआ आचार्य।”
“मन्त्रिवर, आपकी सद्धर्म में ऐसी ही श्रद्धा बनी रहे।”
“आचार्य काशिराज आप ही के अनुग्रह पर निर्भर हैं।”
“तो अमात्यराज, मैं उनकी कल्याण कामना से बाहर नहीं हूँ।”
“ऐसी ही हमारी भावना है, क्या मैं कुछ निवेदन करूँ?”
“क्यों नहीं?”
“क्या लिच्छविराज काशी पर अभियान करना चाहते हैं?”
“ऐसा क्यों कहते हैं मन्त्रिवर?”
“मुझे विश्वस्त सूत्र से पता लगा है।”
“तो उस राजनीति को मैं क्या जानूँ?”
“लिच्छविराज तो आपके अनुगत हैं आचार्य!”
“मन्त्रिवर, मैं केवल अपने संघ का आचार्य हूँ, लिच्छविराज का मन्त्री नहीं।”
“परन्तु आचार्य, वे आपकी बात नहीं टालेंगे।”
“क्या आप यह चाहते हैं कि मैं लिच्छविराज से काशिराज के लिए अनुरोध करूँ?”
“मैं नहीं आचार्य, काशिराज का यह अनुरोध है।”
“क्या काशिराज ने ऐसा कोई लेख आपके द्वारा भेजा है?”
“यह है आचार्य।”
लेख पढ़कर कुछ देर बाद वज्रसिद्धि ने गम्भीर मुद्रा से कहा :
“तो मैं काशिराज का अतिथि बनूँगा।”
“काशिराज अनुगृहीत होंगे आचार्य…”
“मैं यज्ञ में आऊँगा।”
“अनुग्रह हुआ आचार्य।”
“तो महामात्य, एक बात है, लिच्छविराज का आक्रमण रोक दिया जायेगा, पर लिच्छविराज का अनुरोध काशिराज को मानना पड़ेगा।”
“वह क्या?”
“यह मैं अभी कैसे कहूँ?”
“तब?”
“क्या काशिराज मुझ पर निर्भर नहीं है?”
“क्यों नहीं आचार्य?”
“तब उनकी कल्याण-कामना से मैं जैसा ठीक समझूगा करूँगा?”
“ऐसा ही सही आचार्य, काशिराज तो आपके शरण हैं।”
“काशिराज का कल्याण हो।”
मन्त्री ने अभिवादन किया और चले गए। आचार्य वज्रसिद्धि बड़ी देर तक कुछ सोचते रहे। इससे सन्देह नहीं कि सुखदास ने यह सब बातें अक्षरशः सुन लीं।
11. गूढ़ योजना
मन्त्री के जाते ही महानन्द ने सम्मुख आकर कहा :
“अब आचार्य की मुझे क्या आज्ञा है?”
“वाराणसी चलना होगा भद्र, साथ कौन जायेगा?”
“क्यों, मैं?”
“नहीं, तुम्हें मेरा सन्देश लेकर अभी लिच्छविराज के पास जाना होगा।”
“तब?”
“धर्मानुज, और ग्यारह भिक्षु और, कुल बारह।”
“धर्मानुज क्यों?”
“उसमें कारण है, उसे मैं यहाँ अकेला नहीं छोडूंगा। सम्भव है यज्ञ ही युद्धक्षेत्र हो जाय।”
“यह भी ठीक है, परन्तु उसका प्रायश्चित्त।”
“उसे मैं अपने पवित्र वचनों से अभी दोषमुक्त कर दूंगा।”
महानन्द ने हँसकर कहा—”आप सर्वशक्तिमान् पुरुष हैं।”
वज्रसिद्धि भी हँस दिए। उन्होंने कहा—”ग्यारह शिष्य छाँटो, मैं धर्मानुज को देखता हूँ।”
“जैसी आचार्य की आज्ञा।”
अँधेरे और गन्दे तलगृह में धर्मानुज काष्ठफलक पर बैठा कुछ सोच रहा था। वह सोच रहा था—”जीवन के प्रभात में महल-अटारी, सुख-साज त्याग कर क्या पाया? यह गन्दी, घृणित और अँधेरी कोठरी? बाहर कैसा सुन्दर संसार है, धूप खिल रही है। मन्द पवन के झोंके चल रहे हैं। पत्ती भाँति-भाँति के गीत गा रहे हैं। परन्तु धर्म के लिए इन सबको त्यागना पड़ता है। यह धर्म क्या वस्तु है? यहाँ जो कुछ है-यदि यही धर्म है, तब तो वह मनुष्य का कट्टर शत्रु दीख पड़ता है।”
इसी समय सुखदास ने वहाँ पहुँचकर झरोखे से झाँककर देखा। भीतर अँधेरे में वह सब कुछ देख न सका। परन्तु उसे दिवोदास के उद्गार कुछ सुनाई दिए। उसका हृदय क्रोध और दुःख से भर गया।
उसने बाहर से खटका किया।
धर्मानुज ने खिड़की की ओर मुँह करके कहा—“कौन है भाई?”
“भैयाजी, क्या हाल है? अभी आत्मा पवित्र हुई या नहीं?”
“धीरे-धीरे हो रही है, किन्तु तुम कौन हो?”
“मैं…मैं! सुखदास?”
“पितृव्य? अरे, तुम यहाँ कहाँ?”
“चुप! मैं सुखानन्द भिक्षु हूँ, तुम्हारी कल्याण कामना से यहाँ आया हूँ।”
“उसके लिए तो संघस्थविर ही यथेष्ट थे, इस अन्ध नरक में मेरी यथेष्ट कल्याण कामना हो रही है।”
“आज इस नरक से तुम्हारा उद्धार होगा, आशीर्वाद देता हूँ।”
“किन्तु अभी तो प्रायश्चित्त की अवधि भी पूरी नहीं हुई है।”
“तो इससे क्या? भिक्षु सुखानन्द का आशीर्वाद है यह?”
“पहेली मत बुझाओ यहाँ, बात जो है वह कहो।”
“तो सुनो, संघस्थविर जा रहे हैं काशी, उनके साथ 12 भिक्षु जाएँगे। उनमें तुम्हें भी चुना गया है।”
“काशी क्यों जा रहे हैं आचार्य?”
“समझ सकोगे? काशिराज और अपने महाराज का सर्वनाश करने का षड्यन्त्र रचने।”
“सर्वत्यागी भिक्षुओं को इससे क्या मतलब?”
“महासंघस्थविर वज्रसिद्धि त्यागी भिक्षु नहीं हैं। वे राज मुकुटों के मिटाने और बनाने वाले हैं।”
“फिर यह धर्म का ढोंग क्यों?”
“यही उनका हथियार है, इसी से उनकी विजय होती है।”
“और पवित्र धर्म का विस्तार!”
“वह सब पाखण्ड है।”
“तुम यहाँ क्यों आए पितृव्य?”
“तब कहाँ जाता? जहाँ बछड़ा वहाँ गाय।”
“समय क्या है? इस अन्धकार में तो दिन-रात का पता ही नहीं चलता।”
“पूर्व दिशा में लाली आ गई है, सूर्योदय होने ही वाला है। संघस्थविर आ रहे हैं। मैं चलता हूँ।”
“संघस्थविर इस समय क्यों आ रहे हैं?”
“तुम्हें पाप-मुक्त करने, आज का मनोरम सूर्योदय तुम देख सकोगे––यह भिक्षु सुखानन्द का आशीर्वाद है।”
सुखानन्द का मुँह खिड़की पर से लुप्त हो गया। इसी समय एक चीत्कार के साथ भूगर्भ का मुख्य द्वार खुला। आचार्य वज्रसिद्धि ने भीतर प्रवेश किया। उनके पीछे नंगी तलवार हाथ में लिए महानन्द था। आचार्य ने कहा :
“वत्स धर्मानुज, क्या तुम जाग रहे हो?”
“हाँ आचार्य, अभिवादन करता हूँ।”
“तुम्हारा कल्याण हो, धर्म में तुम्हारी सद्गति रहे। आओ, मैं तुम्हें पापमुक्त करूँ।”
उन्होंने मन्त्र पाठकर पवित्र जल उसके मस्तक पर छिड़का, और कहा—”तुम पाप मुक्त हो गए, अब बाहर जाओ।”
“यह क्या आचार्य, अभी तो प्रायश्चित्त काल पूरा भी नहीं हुआ?”
“मैंने तुम्हें पवित्र वचन से शुद्ध कर दिया। प्रायश्चित्त की आवश्यकता नहीं रही।”
“नहीं आचार्य, मैं पूरा प्रायश्चित्त करूँगा।”
“वत्स, तुम्हें मेरी आज्ञा का पालन करना चाहिए।”
“आपकी आज्ञा से धर्म की आज्ञा बढ़कर है।”
“हमीं धर्म को बनाने वाले हैं धर्मानुज, हमारी आज्ञा ही सबसे बढ़कर है।”
“आचार्य, मैंने बड़ा पातक किया है।”
“कौन-सा पातक वत्स?”
“मैंने सुन्दर संसार को त्याग दिया, यौवन का तिरस्कार किया, ऐश्वर्य को ठोकर मारी, उस सौभाग्य को कुचल दिया जो लाखों मनुष्यों में एक पुरुष को मिलता है।”
“शान्तं पापं। यह अधर्म नहीं धर्म किया। तथागत ने भी यही किया था पुत्र।”
“उनके हृदय में त्याग था। वे महापुरुष थे। किन्तु मैं तो एक साधारण जन हूँ। मैं त्यागी नहीं हूँ।”
“संयम और अभ्यास से तुम वैसे बन जाओगे।”
“यह बलात् संयम तो बलात् व्यभिचार से भी अधिक भयानक है!”
“यह तुम्हारे विकृत मस्तिष्क का प्रभाव है, वत्स!”
“आपके इन धर्म सूत्रों में, इन विधानों में, इस पूजा-पाठ के पाखण्ड में, इन आडम्बरों में मुझे तो कहीं भी संयम-शान्ति नहीं दीखती और न धर्म दीखता है। धर्म का एक कण भी नहीं दीखता।”
“पुत्र, सद्धर्म से विद्रोह मत करो, बुरा मत कहो।”
“आचार्य, आप यदि जीवन को स्वाभाविक गति नहीं दे सकते तो संसार को सद्धर्म का सन्देश कैसे दे सकते हैं?”
“पुत्र, अभी तुम इन सब धर्म की जटिल बातों को न समझ सकोगे। मेरी आज्ञा का पालन करो। इस महातामस से बाहर आओ। और स्नान कर पवित्र हो देवी वज्रतारा का पूजन करो, तुम्हें मैंने अपने बारह प्रधान शिष्यों का प्रमुख बनाया है। हम वाराणसी चल रहे हैं।”
आचार्य ने उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की। वे बाहर निकले। सम्मुख होकर सुखानन्द ने साष्टांग दण्डवत् किया।
आचार्य ने कहा—”अरे भिक्षु!” जा उस धर्मानुज को महा अन्ध तामस के बाहर कर, उसे स्नान करा, शुद्ध वस्त्र दे और देवी के मन्दिर में ले आ।”
सुखदास ने मन की हँसी रोककर कहा—”जो आज्ञा आचार्य।”
उसने तामस में प्रविष्ट होकर कहा—”भैया, जो कुछ करना-धरना हो पीछे करना। अभी इस नरक से बाहर निकलो। और इन पाखण्डियों के भण्डाफोड़ की व्यवस्था करो।”
दिवोदास ने और विरोध नहीं किया। वह सुखदास की बाँह का सहारा ले धीरे-धीरे महातामस से बाहर आया। एक बार फिर सुन्दर संसार से उसका सम्पर्क स्थापित हुआ।
12. वाराणसी
वाराणसी शैवधर्म का पुरातन मूलस्थान है। यहाँ धूत पापेश्वर का मन्दिर बड़ा विशाल था। उसका स्वर्ण कलश गगनचुम्बी था। सम्पूर्ण मन्दिर श्वेत मर्मर का बना था। मन्दिर में बहुत पार्षद, पुजारी, देवदासी और वेदपाठी ब्राह्मण रहते थे। सौ फुट ऊँची शिवमूर्ति ताण्डव मुद्रा में थी। वह ठोस ताम्बे की थी। विशाल नन्दी की मूर्ति काले कसौटी के पत्थर की थी। पाशुपति आम्राय में मन्दिर का माहात्म्य अधिक था, वहाँ देश-देश के यात्रियों का ताँता-सा लगा रहता था।
एक बार काशिराज ने यज्ञ की घोषणा की थी, इससे देश-देश के भावुक जन बुलाए और बिना बुलाए काशी में आ जुटे थे। अनेक नरपतियों को आमन्त्रित किया गया था। और अनेक सेठ-साहूकार अपनी बहुमूल्य वस्तुओं को बेचने के लिए आ जुटे थे। मन्दिर में भव्य समारोह था। सहस्रों घृतदीप जल रहे थे। महाघण्ट के घोष से कानों के पर्दे फटे जाते थे। जनरव भी उसी में मिल गया था। वीणा, मृदंग आदि वाद्य बज रहे थे।
मन्दिर के प्रधान पुजारी का नमा सिद्धेश्वर था। वह कद में ठिगना, कृष्णकाय, अधेड़ वय का पुरुष था। उसका मुँह खिचड़ी दाढ़ी से ढका था। शरीर बलिष्ठ था, वह सदैव भगवा कौशेय धारण किए रहता था। वह आचार्य वज्रसिद्धि और काशिराज के साथ स्वर्ण सिंहासन पर बैठा था। बड़े-बड़े पात्रों में धूप जल रहा था, जिससे सारा ही वातावरण सुरभित हो रहा था। जड़ाऊ मशालों के प्रकाश में मन्दिर के खम्भों पर जड़े हुए रत्नमणि चमक रहे थे।
पूजा-विधि प्रारम्भ हुई। सोलह पुजारियों ने पूजा-आरती लिए मन्त्र-पाठ करते हुए आवेश किया। सब नंगे पैर, नंगे सिर, नंगे शरीर, कमर में पीताम्बर कन्धे पर श्वेत जनेऊ, सिर पर बड़ी चोटी। चार के हाथ में जगमगाते आरती के थाल थे। चार के हाथ में गंगाजल के स्वर्णपात्र थे। चार के हाथ में धूप, दीप और चार के हाथ में नाना विध फूलों से भरे थाल थे। आक-धतूरा और बिल्वपत्र भी उनमें थे।
उच्च स्वर में मन्त्रपाठ होने लगा।
कुछ काल तक रुद्र मन्त्रपाठ उच्च नाद के साथ हुआ। सैकड़ों कण्ठस्वरों ने मिलकर पाठ को गौरव दिया। मन्त्रपाठ समाप्त होते ही देवदासियों ने नृत्य प्रारम्भ किया। सब रंग- बिरंगी पोशाक पहने थीं। सिर पर मोतियों की माँग, कान में जड़ाऊ त्राटक, छाती पर जड़ाऊ हार, कटि प्रदेश पर रक्त पट्ट, पीठ पर लहराता हुआ उत्तरीय। हाथ में ढमरू और झाँझ।
सैकड़ों देवदासियों के नृत्य से, दर्शक विमुग्ध हो गए। आचार्य वज्रसिद्धि भी यह निषिद्ध दृश्य देखकर प्रसन्न हो रहे थे। एकाएक नृत्य रुक गया। सब नर्तकियाँ दो भागों में विभक्त हो गईं। मंजुघोषा धीरे-धीरे मंच पर आई। उसके सिर पर उत्कृष्ट जड़ाऊ मुकुट था। शरीर पर मोतियों का श्रृंगार था। अब केवल डमरू वादन होने लगा और मंजुघोषा ने ताण्डव नृत्य बिल्कुल शैव पद्धति पर करना प्रारम्भ किया। वातावरण एक विभिन्न कम्पन्न से भर गया। मंजुघोषा की नृत्य गति बढ़ती ही गई—वह तीव्र से तीव्रतर होती गई। उपस्थित समुदाय स्तब्ध रह गया। उस षोडशी बाला का भव्य रूप, अप्रतिम कला, दिव्य नृत्य, और उसका भावावेश इन सबने उपस्थित जनों की भावविमोहित कर दिया। नृत्य के अन्त में मंजुघोषा शिवमूर्ति के समक्ष पृथ्वी में प्रणिपात करने को लेट गई। सिद्धेश्वर ने कहा—”उठो मंजु, प्रसाद ग्रहण करो।”
मंजु धीरे-धीरे उठी। उसने पुजारी से प्रसाद ग्रहण किया।
वज्रसिद्धि अब तक जड़ बैठे थे। अब वे बोल उठे—”यह लड़की साक्षात् वज्रतारा प्रतीत होती है। अरे धर्मानुज, यह देवी वज्रतारा का गन्धमाल्य इस दासी को देकर कृतार्थ कर।”
उन्होंने कण्ठ के लाल फूलों की माला उतारकर आगे बढ़ाई, परन्तु धर्मानुज भी इस देवदासी के रूप सागर में डूब रहा था। उसने आचार्य की बात नहीं सुनी। दुबारा पुकारने पर वह चौंककर उठा-उसने माला दोनों हाथों में ले ली। मंजुघोषा के निकट पहुँचकर उसने काँपते हाथों से वह माला उस देवदासी के कण्ठ में डालना चाहा। पर मंजु ने अपने दोनों हाथ उसके लिए फैला दिए। दोनों के नेत्र मिले। दोनों बाहर की सुध भूलकर वैसे के वैसे ही खड़े रह गए। दोनों के नेत्र चमक उठे, उनमें एक लाज व्याप गई, होंठ काँपने लगे और शरीर कंटकित हो गया। दिवोदास ने साहस करके माला मंजु के कण्ठ में डाल दी। मंजु ठगी-सी खड़ी रह गई। दिवोदास अपने स्थान पर लौट आया। धीरे-धीरे मंजुघोषा अपने आवास को लौट गई। दिवोदास प्यासी आँखों से उसकी मनोहर मूर्ति को देखता रहा। महाराज महाआचार्य और पुजारी तथा सब लोग उठकर अपने-अपने स्थान को चल दिए। दिवोदास भी घायल पक्षी की भाँति लड़खड़ाता हुआ अपने आवास पर पहुँचा। उसकी भूख-प्यास जाती रही।
13. मनोहर प्रभात
बड़ा मनोहर प्रभात था। शीतल-मन्द समीर झकोरे ले रहा था। मंजुघोषा प्रातःकालीन पूजा के लिए संगिनी देवदासियों के साथ फूल तोड़ती-तोड़ती कुछ गुनगुना रही थी। उसका हृदय आनन्द से उल्लसित था। कोई भीतर से उसके हृदय को गुदगुदा रहा था। एक सखी ने पास आकर कहा :
“बहुत खुश दीख पड़ती हो, कहो, कहीं लड्डू मिला है क्या?”
मंजु ने हँसकर कहा—”मिला तो तुम्हें क्या?”
“बहिन, हमें भी हिस्सा दो।”
“वाह, बड़ी हिस्से वाली आई।”
“इतने में एक और आ जुटी। उसने कहा—”यह काहे का हिस्सा है बहिन!”
पहिली देवदासी ने कहा :
“अरे हाँ, क्या बहुत मीठा लगा बहिन?”
मंजु ने खीजकर कहा—”जाओ, मैं तुमसे नहीं बोलती।”
सबने कहा—”हाँ बहिन, यह उचित भी है। बोलने वाले नये जो पैदा हो गए।”
“तुम बहुत दुष्ट हो गई हो।”
“हमने तो केवल नजरें पहचानी थीं।”
“और हमने देन-लेन भी देखा था।”
“पर केवल आँखों-आँखों ही में।”
“होंठों में नहीं?”
“अरे वाह, इसी से सखी के होंठों में आनन्द की रेख फूटी पड़ती है।”
“और नेत्रों से रसधार बह रही है।”
मंजु ने कहा—”तुम न मानोगी?”
एक ने कहा—”अरी, सखी को तंग न करो। हिस्सा नहीं मिलेगा।”
दूसरी ने कहा—”कैसे नहीं मिलेगा, हम उससे माँगेंगी।”
तीसरी बोली––”किससे?”
“भिक्षु से।”
मंजु ने कोप से कहा—”लो मैं जाती हूँ।”
“हाँ-हाँ, जाओ बहिन, बेचारा भिक्षु…”
“कौन भिक्षु? कैसा भिक्षु?”
“अजी वही, जिससे रात में फूल-माला लेकर चुपचाप कुछ दे दिया था।”
“और हमसे पूछा भी नहीं!”
“तुम सब दीवानी हो गई हो।”
“सच है बहिन, हमारी बहिन खड़े-खड़े लुट गई तो हम दीवानी भी न हों।”
मंजु उठकर खड़ी हुई। इस पर उसे सबने पकड़कर कहा :
“रूठ गई रानी, भला हमसे क्या परदा? हम तो एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।”
“और देवताओं की दासियाँ हैं।”
“अजी देवताओं की क्यों? देवताओं के दासों की भी।”
“पर सखी, भिक्षु है एक ही छैला।”
“वाह, कैसी बाँकी चितवन कैसा रूप!”
“भिक्षु है तो क्या है? सैकड़ों नागरों से बढ़-चढ़कर है।”
“चल रहने दे, दुनिया में एक से एक बढ़कर भरे पड़े हैं।”
“अरी जा, हमने देखा है तेरा वह छैला, गधे की तरह रेंकता है।”
“अपने उस भैंसे को देख, सींग भी नापे हैं उसके?”
“अरी लड़ती क्यों हो, भिक्षु है किसी बड़े घर का लड़का।”
“सुना है बड़े सेठ का बेटा है।”
“होगा, अब तो भिक्षु है।”
मंजु ने कहा—”भिक्षु है तो क्या, हृदय का तो वह राजा है!”
सखी ने कहा—”अरे, हमारी सखी मंजु उसके हृदय की रानी है।”
“अच्छा, तो फिर?”
“बस तो फिर, हिस्सा।”
“जाओ-जाओ, मुँह धो रखो।” मंजु भागकर दूसरी ओर चली गई। सखियाँ खिलखिलाकर हँसने लगीं। मंजु एक गीत की कड़ी गुनगुनाती फिर फूल चुनने लगी। चुनते- चुनते वह सखियों से दूर जा पड़ी। उधर उद्यान में एक तालाब था। उसी तालाब के किनारे हरी-हरी घास पर दिवोदास और सुखानन्द बैठे बातचीत कर रहे थे। फूल तोड़ते-तोड़ते मंजु वहीं जा पहुँची। दिवोदास को देखा तो वह धक् से रह गई। दिवोदास ने भी उसे देखा। उसने कहा—”पितृव्य, यह तो वही देवदासी आ रही है।”
“तो भैया, यहाँ से भगा चलो, नहीं फँस जाओगे।”
परन्तु दिवोदास ने सुखदास की बात नहीं सुनी। वह उठकर मंजु के निकट पहुँचा और कहा :
“यह तो अयाचित दर्शन हुआ।”
“किसका?”
“आपका।”
“नहीं, आपका।”
“किन्तु आप देवी हैं।”
“नहीं, मैं देवदासी हूँ।”
“भाग्यशालिनी देवी।”
“अभागिनी देवदासी।”
अब सुखदास भी उठकर वहाँ आ गया। उसने पिछली बात सुनकर कहा :
“नहीं, नहीं, ऐसा न कहो देवी।”
दिवोदास ने कहा—”तुम प्रभात की पहिली किरण के समान उज्ज्वल और पवित्र हो।”
“मैं मिट्टी के ढेले के समान निस्सार और निरर्थक हूँ।”
“अरे, आँखों में आँसू? पितृव्य, यह इतना दुःखी क्यों?”
सुखदास ने कहा—”जो कली अभी खिली भी नहीं, सुगन्ध और पराग अभी फूटा भी नहीं, उसमें कीड़ा लग गया है?”
दिवोदास ने कहा—”बोलो, तुम्हें क्या दु:ख है?”
“मैं अज्ञातकुलशीला अकेली, असहाया, अभागिनी देवदासी हूँ, इसमें मेरा सारा दुःख-सुख है।”
“तो मेरे ये प्राण और शरीर तुम्हारे लिए अर्पित हैं।”
“मैं कृतार्थ हुई, किन्तु अब जाती हूँ।”
“इस तरह न जा सकोगी, तुमने अपने आँसुओं में मुझे बहा दिया है, कहो क्या करने से तुम्हारा दुःख दूर होगा। तुम्हारे दुःख दूर करने में मेरे प्राण भी जाएँ, तो यह मेरा अहोभाग्य होगा।”
सुखदास ने कहा—”अपने दिल की गाँठ खोल दो देवी, भैया बात के बड़े धनी हैं।”
“क्या कहूँ, मेरा भाग्य ही मेरा सबसे बड़ा दुःख है। विधाता ने जब देवदासी होना मेरे ललाट में लिख दिया, तो समझ लो कि सब दुःख मेरे ही लिए सिरजे गए हैं। जिस स्त्री का अपने शरीर और प्राणों पर अधिकार नहीं, जिसकी आत्मा बिक चुकी है, जिसके हृदय पर दासता की मुहर है, प्रतिष्ठा, सतीत्व, पवित्रता जिसके जीवन को छू नहीं सकते, जिसका रूप-यौवन सबके लिए खुला हुआ है, जो दिखाने को देवता के लिए श्रृंगार करती है, परन्तु जिसका श्रृंगार वास्तव में देवदर्शन के लिए नहीं, श्रृंगार को देखने आए हुए लम्पट कुत्तों के रिझाने के लिए हैं, ऐसी अभागिनी देवदासी के लिए अपने पवित्र बहुमूल्य प्राणों को दे डालने का संकल्प न करो भिक्षु।”
उसने चलने को कदम बढ़ाया। परन्तु दिवोदास ने आगे आकर और राह रोककर कहा—”समझ गया, परन्तु ठहरो। मुझे एक बात का उत्तर दो। तुम इस नन्हे-से हृदय में इतना दु:ख लिए फिरती हो, फिर तुम उस दिन किस तरह नृत्य करती हुई उल्लास की मूर्ति बनी हुई थीं?”
“इसके लिए हम विवश हैं, यह हमारी कला है, उसका हमने वर्षों अभ्यास किया है।”
उसने हँसने की चेष्टा की। पर उसकी आँखों से झर-झर आँसू गिरने लगे।
दिवोदास ने उसका हाथ थामकर दृढ़ स्वर में कहा—”देवी, मैं तुम्हें प्रत्येक मूल्य पर इस दासता से मुक्त करूँगा, मैं तुम्हारे हृदय को आनन्द और उमंगों से भर दूंगा।”
दिवोदास ने उसके बिल्कुल निकट आ स्नेहसिक्त स्वर में कहा—”मैं तुम्हारे जीवन की कली-कली खिला दूंगा।”
उसने एक बड़ा-सा फूल उसकी डोलची में से उठाकर, उसके जुड़े में खोंस दिया। और उसके कन्धे पर हाथ धरकर कहा :
“तुम्हारा नाम?”
“मंजुघोषा, पर तुम ‘मंजु’ याद रखना, और तुम्हारा प्रिय?”
“मैं भिक्षु धर्मानुज हूँ।”
“धर्मानुज?”
एक हास्यरेखा उसके होंठों पर आई और एक कटाक्ष दिवोदास पर छोड़ती हुई वह वहाँ से भाग गई।
सुखदास ने कहा—”भैया, यह बड़ी अच्छी लड़की है।”
“पितृव्य, तुम सदा उस पर नजर रखना, उसकी रक्षा करना, उसे कभी आँखों से ओझल नहीं होने देना, मुझे उसकी खबर देते रहना।”
सुखदास ने हँसकर कहा—”फिकर मत करो भैया, इसी से तुम्हारी सगाई कराऊँगा।”
सुखदास एक गीत की कड़ी गुनगुनाने लगा।
14. अभिसन्धि
महा संघस्थविर वज्रसिद्धि और महन्त सिद्धेश्वर एकान्त कक्ष में बैठे गुप्त मन्त्रणा कर रहे थे। दोनों दो पृथक् आसन पर बैठे थे। वज्रसिद्धि ने कहा—”अच्छा, उसके बाद?”
“उसके बाद क्या? लिच्छविराज ने काशिराज की प्रार्थना स्वीकार नहीं की। इस पर काशिराज ने सैन्य लेकर लिच्छविराज की राजधानी वैशाली को घेर लिया। लिच्छविराज भी दुर्बल न था। वह भी सैन्य लेकर सम्मुख आया। घनघोर युद्ध हुआ। परन्तु मेरी अभिसन्धि से लिच्छविराज का छिद्र मिल गया। काशिराज ने उनके प्रासाद में घुसकर लिच्छविराज को मार डाला और महल तथा नगर लूट लिया। पीछे उसमें आग लगा दी। सारा नगर जलकर खाक हो गया।
“परन्तु आपका काम?”
“वह नहीं हुआ। बहुत सिर मारने पर भी वह गुप्त धनकोष नहीं मिला। मेरी इच्छा लिच्छविराज को जीवित पकड़ने की थी––ऐसी ही मैंने काशिराज को सलाह भी दी थी। परन्तु काशिराज ने मेरी बात नहीं रखी, क्रोध में आ लिच्छविराज को तलवार के घाट उतार दिया। इससे उस गुप्त राजकोष का भेद भी लिच्छविराज के साथ चला गया।”
“फिर?”
“उस मार-काट और लूट-पाट में गुप्त राजकोष को ढूँढ़ते हुए एक गुप्त स्थान में छिपी एक दासी के साथ तीन वर्ष की बालिका मिली। दासी ने उस बालिका को छीन ले जाने से रोकने के लिए मेरे सेवकों को बहुत स्वर्ण-धन देना चाहा, परन्तु उन्होंने नहीं माना। वे उसे मेरे पास ले आए। बालिका के साथ उसकी धाय भी रोती-पीटती आई और बहुत कुछ अनुनय-विनय उस बालिका को छोड़ देने के लिए करने लगी। परन्तु जब मैंने उस बालिका को काशी ले जाने का संकल्प नहीं छोड़ा तो उसने रो-पीटकर उसके साथ स्वयं भी चलने की प्रार्थना की। बालिका बड़ी सुन्दर थी तथा वह उसकी दासी-धाय थी, इससे मैंने उसे भी बालिका के साथ रहने की अनुमति दे दी।”
“तो वह कन्या?”
“मन्दिर में लाकर मैंने उसे देवार्पण कर दिया और वह देवदासी बना ली गई। उसकी धाय को भी देवदासियों में रख लिया।”
“तो यही वह कन्या है? क्या नाम है इसका?”
“मंजुघोषा, यह नाम उस दासी ही ने रखा था।”
“और वह दासी अब कहाँ है?”
“वह अभी तक उसी कन्या के साथ देवदासियों में रहती है। उसका शील और नैपुण्य देख मैंने उसे सब देवदासियों का प्रधान बना दिया है।”
“उसका नाम क्या है?”
“सुनयना।”
“ठीक है। तो आपको यह भेद कैसे मालूम हुआ कि मंजुघोषा लिच्छविराज नृसिंहदेव की पुत्री है?”
“कन्या के कण्ठ में एक गुटिका थी, उसी से। उसमें उसकी जन्म-तिथि तथा वंशपरिचय था। पीछे उस दासी ने भी यह बात स्वीकार कर ली। इसी से उन दोनों के रहने की उत्तम व्यवस्था मैंने कर दी। तथा यह भेद भी मैंने अपने पेट में रखा।”
“तो महात्मन्, मैं आपको अब और एक भेद बताता हूँ कि यह सुनयना दासी वास्तव में लिच्छविराज नृसिंहदेव की राजमहिषी है। और मंजुघोषा की असल जन्मदात्री माता है।”
“अरे! यह कैसी बात?”
“यह सत्य बात है।”
“किन्तु इसका प्रमाण?”
“मैं स्वयं उसे जानता हूँ। इसी से मैंने उसे बुलवाया है। क्या वह आई है?”
“बाहर उपस्थित है।”
“तो उसे बुलवाइये। वही एक व्यक्ति इस समय जीवित है, जो लिच्छविराज के उस गुप्त कोष का ठीक पता जानता है।”
महाप्रभु ने ताली बजाई। माधव कक्ष में आ उपस्थित हुआ। महाप्रभु ने कहा :
“सुनयना दासी को यहाँ ले आओ।”
सुनयना ने आकर पृथ्वी पर गिरकर दोनों महात्माओं को प्रणाम किया। सुनयना की आयु कोई 40 वर्ष की होगी। कभी वह अप्रतिम रूप लावण्यवती रही होगी, इस समय भी रूप ने उसे छोड़ा नहीं था। वह निरवलम्ब थी––परन्तु उसका उज्ज्वल-शुभ्र-प्रशस्त ललाट और बड़ी-बड़ी आँखें उसकी महत्ता का प्रदर्शन कर रही थीं।
सुनयना ने बद्धांजलि होकर कहा—”महाप्रभु ने दासी को किसलिए बुलाया है?”
वज्रसिद्धि ने कुटिल हास्य करके कहा—”लिच्छविराज की महिषी सुकीर्ति देवी, तुम्हारा कल्याण हो! मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ।”
राजमहिषी ने घबराकर आचार्य की ओर देखा, फिर कहा—”आचार्य! मैं अभागिनी सुनयना दासी हूँ।”
वज्रसिद्धि जोर से हँस दिए। उन्होंने कहा—”अभी वज्रसिद्धि की आँखें इतनी कमजोर नहीं हुई हैं। परन्तु महारानी, तुम धन्य हो, तुमने विपत्ति में अपनी पुत्री की खूब रक्षा की।”
रानी ने विनयावनत होकर कहा—”आचार्य, आप यदि सचमुच ही मुझे पहचान गए हैं, तो इस अभागिनी विधवा नारी की प्रतिष्ठा का विचार कीजिए।”
‘महारानी, मैं तुम्हें और तुम्हारी कन्या को स्वतन्त्र कराने ही काशी आया हूँ। महाप्रभु ने ज्यों ही मेरे मुँह से तुम्हारा परिचय सुना––वे तुम्हें स्वतन्त्र करने को तैयार हो गए।”
“इस अभागिनी के भाग्य आपके हाथ में हैं।”
“मैं तुम दोनों को अपने साथ ले जाऊँगा, तथा लिच्छविराज को सौंप दूँगा। माता और भगिनी को पाकर लिच्छविराज प्रसन्न होंगे।”
“यह तो असम्भावित-सा भाग्योदय है, जिस पर एकाएक विश्वास ही नहीं होता।”
महाप्रभु ने धीमी तथा दृढ़ वाणी से कहा—”मैं तुम्हें छोड़ दूँगा, महारानी!”
“मेरी पुत्री सहित?”
“हाँ।”
“आप धन्य हैं महाप्रभु!”
“परन्तु एक शर्त है।”
“शर्त कैसी?”
“मुझे गुप्त रत्नागार का बीजक दे दो।”
“कैसा बीजक?”
“इतनी नादान न बनो महारानी। बस, बीजक दे दो और तुम तथा तुम्हारी कन्या स्वतन्त्र हो।”
“प्रभु, मैं इस सम्बन्ध में कुछ नहीं जानती, मैं लिच्छविराज की पट्टराजमहिषी सुकीर्ति देवी नहीं हूँ, सुनयना दासी हूँ, मैं कुछ नहीं जानती।”
“तुम्हें बीजक देना होगा महारानी!”
“मैं कुछ नहीं जानती।”
“सो अभी जान जाओगी।” उन्होंने क्रुद्ध स्वर में माधव को पुकारा। माधव आ खड़ा हुआ। महाप्रभु ने कहा—“इस स्त्री को अभी अन्धकूप में डाल दो।”
माधव ने रानी का हाथ पकड़कर कहा—”चलो।”
वज्रसिद्धि ने कहा—”ठहरो माधव।” फिर रानी की ओर देखकर मृदु स्वर से कहा—”बता दो महारानी, इसी में कल्याण है, मैं तुम्हारा शुभ चिन्तक हूँ!”
“तुम दोनों लोलुप गृद्धों को मैं पहचानती हूँ,” रानी ने सिंहिनी की भाँति ज्वालामय नेत्रों से उनकी ओर देखा––फिर सीना तानकर कहा—”जाओ, मैं कुछ नहीं जानती।”
सिद्धेश्वर ने गरजकर कहा—”तब ले जाओ माधव?”
परन्तु वज्रसिद्धि ने माधव को फिर ठहरने का संकेत करके सिद्धेश्वर के कान में कहा—”अन्धकूप में डालने को बहुत समय है, अभी उसे समय की ढील दो।” फिर उच्च स्वर से कहा—”जाओ महारानी, अच्छी तरह सोच-समझ लो। अन्धकूप कहीं दूर थोड़े ही है।”
उसने कुटिल हास्य करके सिद्धेश्वर की ओर देखा। सुनयना चली गई। और दोनों महापुरुष भी अन्तर्धान हुए। कहने की आवश्यकता नहीं, कि सुखदास ने छिपकर सारी बातें सुन ली थीं। उसने खूब सतर्क रहकर, माता-पुत्री की प्राण रहते रक्षा करने की मन ही मन प्रतिज्ञा की।
15. एकान्त मिलन
वैसा ही मनोरम प्रभात था। दिवोदास उसी पुष्करिणी के तीर पर उसी वृक्ष की छाया में बैठा, निर्मल जल में खेलती लहरों को देख रहा था। वह कोई गीत गा रहा था। और उसका मन प्रफुल्ल था। उसने प्रेमविभोर हो आप ही आप कहा—प्रेम-प्रेम-प्रेम, प्रेम के स्मरण से ही आत्मा कैसी हरी हो जाती है! हृदय में हिलोरें उठती हैं, जैसे नये प्राण शरीर में आ गए हों। वह जैसे प्रत्यक्ष मंजु की रूप-माधुरी को देखने लगा। उसके मुँह से निकला—”वाह, कैसी रूप-माधुरी है, कैसी चितवन है, वीणा झंकार के समान उसकी स्वरलहरी रक्त की बूँदों को उत्मत्त कर डालती है। परन्तु खेद है, मुझे और कदाचित् उसे भी इस विषय पर चिन्तन करने का अधिकार नहीं है। मैं भिक्षु हूँ और वह देवदासी। मेरे लिए संसार मिट्टी का ढेला है और उसके लिए अन्धेरा कुआँ।” वह कुछ देर चुपचाप एकटक लहरों को देखता रहा। फिर उसने आप ही आप असंयत होकर कहा—”क्या यही धर्म है? परन्तु इस धर्म का तो जीवन के साथ कुछ भी सहयोग नहीं दीखता? वह धर्म कैसा? जो जीवन से है-जीवन का विरोधी है, जो जीवन का पातक है। नहीं, नहीं, वह धर्म नहीं है––पाखण्ड है। प्यार ही सब धर्म से बढ़कर धर्म है।”
उसे दूर से मंजु की स्वर-लहरी सुनाई दी। वह उठकर इधर-उधर देखने लगा। मंजु फूलों से भरी टोकरी लिए उसी ओर गुनगुनाती आ रही थी। दिवोदास ने कहा—”आहा, वही स्वर्ग की सुन्दरी है। कैसी अपार्थिव इसकी सुषमा है! वन सज गया, संसार सुन्दर हो गया।” उसने आगे बढ़कर कहा…
“मंजु!”
“क्या तुम? भिक्षु धर्मानुज!”
“हाँ मंजु! किस शक्ति ने मुझसे तुम्हें इस समय यहाँ मिला दिया, कहो तो?”
“प्रेम की शक्ति ने प्रिय भिक्षु, क्या तुम प्रेम के विषय में कुछ जानते हो?”
“ओह, कुछ-कुछ, किन्तु तुम्हारा वह गान कैसा हृदय को उन्मत्त करने वाला था।”
“तुम्हें प्रिय लगा?”
“बहुत-बहुत, उसने मेरे हृदय की वीणा के तारों को छेड़ दिया है, वे अब मिलना ही चाहते हैं। देवी, कैसा सुन्दर यह संसार है, कैसा मनोहर यह प्रभात है, और उनसे अधिक तुम, केवल तुम।”
“क्या तुमसे भी अधिक भिक्षुराज?”
“मैं क्या तुम्हें सुन्दर दीख पड़ता हूँ?”
“तुम बहुत ही सुन्दर हो प्रिय,” मंजु ने निकट आकर उसका उत्तरीय छू लिया।
दिवोदास ने उसका आँचल पकड़कर कहा—”मंजु, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ––प्राणों से भी अधिक-क्या तुम जानती हो!”
मंजु का कण्ठ सूख गया––उसने भयभीत स्वर में कहा—”प्यार, नहीं-नहीं, यह असम्भव है।”
“नहीं प्रिये, यह खूब सम्भव है।”
मंजु ने दिवोदास का चीवर छूकर कहा—”भिक्षुराज, अपना यह चीवर देखो और मेरे कण्ठ का यह गलग्रह!” उसने कण्ठ में लटकती देवता की मूर्ति की ओर संकेत किया। फिर उसने टूटते स्वर में कहा—”हम दोनों नष्ट जीव हैं प्रिय, प्रेम के अधिकारी नहीं।”
दिवोदास ने आवेश में आकर कहा—”मेरा यह वेश और तुम्हारा गलग्रह झूठा आडम्बर है। सच्ची वस्तु हमारा हृदय है, और वह प्रेम से परिपूर्ण है। यदि हृदय-हृदय को खींचता है तो मैं कहूँगा, मेरी तरह तुम भी प्रेम का घाव खा गई हो।”
मंजु सिर नीचा किए खड़ी रही—दिवोदास ने कहा—”बोलो, क्या तुम भी मुझसे प्रेम करती हो?”
“यह प्रश्न तो भिक्षु के पूछने योग्य नहीं है प्रिय, और…।”
“और क्या?”
“अभागिनी देवदासी के सुनने योग्य भी नहीं। इसी से कहती हूँ, मुझे जाने दो-मैं जाती हूँ।”
“जाना नहीं। मेरे प्रश्न का उत्तर दो।”
परन्तु मंजु ने उत्तर नहीं दिया। वह भूमि पर दृष्टि गड़ाए खड़ी रही। दिवोदास ने आवेशित होकर कहा—”कहो, कहो, सच बात कहो।”
“कहती हूँ।” इन शब्दों के साथ ही मंजु की आँखों से टप-टप आँसू टपक पड़े। उसने कुछ कहना चाहा, पर उसके मुँह से बोल नहीं फूटा। वह वहाँ से चलने लगी। दिवोदास ने बाधा देकर कहा—”तब जाती कहाँ हो प्रिये, इस पृथ्वी पर कोई शक्ति नहीं, जो हमें पृथक् कर सके। आओ हम पति-पत्नी के पवित्र सूत्र में बँध जायँ। यह उर्ध्वोन्मुख सूर्य और यह पतित पावनी गंगा हमारी साक्षी रहेंगे।” उसने कसकर मंजु को आलिंगन-पाश में बाँध लिया।
मंजु ने छटपटाकर कहा—”भिक्षुराज!”
“कौन भिक्षुराज, मैं विक्रमशिला के महा सेट्ठि धनंजय का इकलौता पुत्र दिवोदास हूँ,” उसने अपना चीवर चीर-चारकर फेंक दिया।
मंजु हक्की-बक्की खड़ी देखती रह गई। उसके मुँह से बड़ी देर तक बोली न निकली। फिर उसने कहा—”प्यारे, जानते हो इस अपराध का दण्ड केवल मृत्यु है।”
“क्या मृत्यु से तुम डरती हो प्रिये?”
“मुझे मृत्यु से भय नहीं। मैं तुम्हारे लिए डरती हूँ, प्रिये।”
“मैं निर्भय हूँ। और सारे संसार के सामने मैं श्रेष्ठिराज धनंजय का पुत्र, आज से धर्मत: तुम्हारा पति हुआ।”
मंजु ने पुलकित गात होकर अस्त-व्यस्त स्वर में कहा—”और श्रेष्ठि पुत्र, मैं लिच्छविराज कुमारी भगवती मंजुघोषा आज से धर्मपूर्वक तुम्हारी पत्नी हुई।”
दिवोदास ने आश्चर्य से उछलकर कहा—”क्या कहा? फिर कहो? राजकुमारी भगवती मंजुघोषा?”
“किन्तु तुम्हारी चिरकिंकरी प्रियतमा।” उसने दिवोदास की छाती में सिर छिपा लिया। दिवोदास ने उसे कसकर छाती से लगा उसके मुख पर प्रथम चुम्बन अंकित किया। मंजुघोषा ने अपने आँचल से एक भव्य माला निकालकर कहा—”इसे मैंने नित्य की भाँति अपने देवता के लिए बनाई थी, सो उसे अपनी हार्दिक अभिलाषाओं के साथ हृदय के देवता को अर्पण करती हूँ।”
माला उसने दिवोदास के कण्ठ में डाल दी। दिवोदास ने माला को चूम कर और हँसकर कहा—”यह देव प्रसाद तो भगवान् ही पा सकता है। देखो, यह माला ही हमको एक कर देगी।”
उसने वही माला कण्ठ से उतारकर मंजुघोषा के गले में डाल दी। दोनों खिल- खिलाकर हँस पड़े, और गाढ़ालिंगन में बद्ध हो गए।
16. गुरु के सम्मुख
आचार्य वज्रसिद्धि ने एकान्त कक्ष में दिवोदास को बुलाकर कहा—”यह क्या वत्स, मैंने सुना है कि तुमने चीवर त्याग दिया—भिक्षु-मर्यादा भंग कर दी?”
“आपने सत्य ही सुना आचार्य।”
“किन्तु यह तो गर्हित पापकर्म है!”
“आप तो मुझे प्रथम ही पाप मुक्त कर चुके हैं आचार्य, अब भला पाप मुझे कहाँ स्पर्श कर सकता है!”
“पुत्र, तुम अपने आचार्य का उपहास कर रहे हो?”
“आचार्य जैसा समझें।”
“पुत्र, क्या बात है कि तुम मुझसे भयशंकित हो दूर-दूर हो। तुम्हें तो अपने प्रधान बारह शिष्यों का प्रधान बनाया है। तुम्हें क्या चिन्ता है! मन की बात मुझसे कहो। मैं तुम्हारा गुरु हूँ।”
“आचार्य, मुझे आपसे कुछ कहना नहीं है।”
“क्यों?”
“मैं कुछ कह नहीं सकता।”
“तुम्हें कहना होगा पुत्र!”
“तब सुनिए कि मैं भिक्षु नहीं हूँ-विवाहित सद्गृहस्थ हूँ।”
“ऐं, यह कैसी बात?”
“जैसा आचार्य समझें।”
“क्या तुम सद्धर्म पर श्रद्धा नहीं रखते?”
“नहीं।”
“कारण?
“कारण बताऊँगा तो आचार्य, अविनय होगा।”
“मैं आज्ञा देता हूँ, कहो।”
“तो सुनिए, आप धर्म की आड़ में धोखा और स्वार्थ का खेल खेल रहे हैं। बाहर कुछ और भीतर कुछ। सब कार्य पाखण्डमय हैं।”
“बस, या और कुछ?”
“आचार्य, आपने क्यों मेरा सर्वनाश किया? मुझे इस कपट धर्म में दीक्षित किया? आपने संयम, त्याग, वैराग्य और ज्ञान की कितनी डींग मारी थी, वह सब तो झूठ था न?”
“पुत्र, तुम जानते हो कि किससे बातें कर रहे हो?”
दिवोदास ने आचार्य की बात नहीं सुनी। वह आवेश में कहता गया—”मैंने देख लिया कि ये लोभी-कामी-दुष्ट और हत्यारे भिक्षु कितने पतित हैं। अब साफ-साफ कहिए, किसलिए आपने मुझे इस अन्धे कुएँ में ला पटका है? आपकी क्या दुरभिसन्धि है?”
आचार्य ने कुटिल हास्य हँसते हुए कहा—”तुम्हें सत्य ही पसन्द है सत्य ही सुनो- तुम्हारे पिता की अटूट सम्पदा को हड़पने के लिए।”
“यह मेरे जीते-जी आप न कर पाएँगे आचार्य।”
“तो तुम जीवित ही न रहने पाओगे।”
“आपने मुझे निर्वाण का मार्ग दिखाने को कहा था?”
“क्रोध न करो बच्चे, वह मार्ग मैं तुम्हें बताऊँगा। सुनो राजनीति की भाँति धर्मनीति भी टेढ़ी चाल चलती है। तुम जानते हो, हिन्दू धर्म जीव-हत्या का धर्म है। यज्ञ और धर्म के नाम पर बेचारे निरीह पशुओं का वध किया जाता है। यज्ञ के पवित्र कृत्यों के नाम पर मद्यपान किया जाता है। इस हिन्दू धर्म में स्त्रियों और मर्दो पर भी, उच्च जाति वालों ने पूरे अंकुश रख उन्हें पराधीन बनाया है। अछूतों के प्रति तथा छोटी जाति के प्रति तो अन्यायाचरण का अन्त ही नहीं है। वे देवदासियाँ जो धर्म बन्धन में बँधी हैं, पाप का जीवन व्यतीत करती हैं।”
दिवोदास सुनकर और मंजुघोषा का स्मरण करके अधीर हो उठा। परन्तु आचार्य कहते गए—”पुत्र, आश्चर्य मत करो, बौद्ध धर्म का जन्म इसी अधर्म के नाश के लिए हुआ है, किन्तु मूर्ख जनता को युक्ति से ही सीधा रास्ता बताया जा सकता है, उसी युक्ति को तुम छल कहते हो।”
“आचार्य, आपका मतलब क्या है?”
“यही कि मुझ पर विश्वास करो और देखो कि तुम्हें सूक्ष्म तत्त्व का ज्ञान किस भाँति प्राप्त होता है।”
“सूक्ष्म तत्त्व का या मिथ्या तत्त्व का?”
“अविनय मत करो पुत्र।”
“आप चाहते क्या हैं?”
“एक अच्छे काम में सहायता।”
“वह क्या है?”
“उस दिन उस देवदासी को तुमने देवी का गंधमाल्य दिया था न?”
“फिर?”
“जानते हो वह कौन है?”
“आप कहिए।”
“वह लिच्छविराज कुमारी मंजुघोषा है।”
“तब फिर?”
“उसकी माता लिच्छवि पट्टराजमहिषी नृसिंह देव की पत्नी, छद्मवेश में यहाँ अपनी पुत्री के साथ, सुनयना नाम धारण करके देवदासियों में रहती थी। उसे सिद्धेश्वर ने अन्धकूप में डलवा दिया है।”
“किसलिए?” दिवोदास ने उत्तेजित होकर कहा।
“लिच्छविराज का गुप्त रत्नागार का पता पूछने के लिए।”
“धिक्कार है इस लालच पर।”
“बच्चा, उसे बचाना होगा। परोपकार भिक्षु का पहला धर्म है।”
“मुझे क्या करना होगा?”
“आज रात को मेरा एक सन्देश लेकर बन्दी गृह में जाना होगा।”
“क्या छिपकर?”
“हाँ!”
“नहीं।”
“सुन लड़के, सिद्धेश्वर उस बालिका पर भी पाप दृष्टि रखता है। उसकी रक्षा के लिए उसकी माता का उद्धार करना आवश्यक है।”
“मैं अभी उस पाखण्डी सिद्धेश्वर का सिर धड़ से पृथक् करता हूँ।”
“किन्तु, पुत्र, बल प्रयोग पशु करते हैं। फिर हमें अपने बलाबल का भी विचार करना है।”
“आपकी क्या योजना है?”
“युक्ति।”
“कहिए।”
“कर सकोगे?”
“अवश्य।”
वज्रसिद्धि ने एक गुप्त पत्र देकर कहा :
“पहले, इसे चुपचाप सुनयना को पहुँचा दो। लेखन सामग्री भी ले जाना-इसके उत्तर आने पर सब कुछ निर्भर है।”
“क्या निर्भर है?”
“सुनयना का सन्देश पाकर लिच्छविराज काशी पर अभियान करेगा।”
“समझ गया, किन्तु प्रहरी?”
“लो, यह सबका मुँह बन्द कर देगी।” आचार्य ने मुहरों से भरी एक थैली दिवोदास के हाथों में पकड़ा दी। साथ ही एक तीक्ष्ण कटार भी।
“इसका क्या होगा?”
“आत्म-रक्षा के लिए।”
“ठीक है।”
यह सुनकर स्वस्थ हो आचार्य ने कहा-“तो पुत्र, तुम जाओ। तुम्हारा कल्याण हो।”
बाहर आकर दिवोदास ने देखा, सुखदास खड़ा है। उसने उसे देखकर प्रसन्न होकर कहा—”सुना?”
“सुना।”
“यह देखो, उसने मुहरों की थैली दी है।”
“देखी, और यह छुरी भी देखी।” सुखदास ने हँस दिया।
“मतलब समझे?”
“पहले ही से समझे बैठा हूँ। तुम चिन्ता न करो, चलो मेरे साथ।” दोनों एक ओर को चल दिए।
17. राजा का साला
उन दिनों राजा के सालों का भी बहुत महत्व था। विलासी राजा लोग नीच-ऊँच, जात-पाँत का बिना विचार किए सब जाति की लड़कियों को अपनी रानी बना लेते थे। विवाह करके और बिना विवाह के भी। आर्यों के धर्म में पुरानी मर्यादा चली आई है कि उच्च जाति के लोग नीच जाति की लड़की से विवाह कर सकते थे। यह मर्यादा अन्य जाति वालों ने इस काल में बहुत कुछ त्याग दी थी और वे अपनी ही जाति में विवाह करने लगे थे। पर राजा अभी तक जात-पाँत की परवाह न करते थे। छोटी जाति की सुन्दरी लड़कियों को खोज- खोजकर अपनी अंकशायिनी बनाते थे। बहुत लोग अपना मतलब साधने के लिए अपनी लड़कियाँ घूस दे-देकर राजा के रंग महल में भेजते थे। खास कर प्रधानमन्त्री की लड़की तो राजा की एक रानी बनती ही थी, जो उसके लिए चतुर जासूस और आलोचक का काम देती थी। इस प्रथा का एक परिणाम यह होता था कि राजा के सालों की एक फौज तैयार हो जाती थी। नीच जाति के दुश्चरित्र लोग किसी भी ऐसी लड़की से सम्बन्ध जोड़कर––जो किसी भी रूप में रंग-महल में राजा की अंकशायिनी हो चुकी हो-उसके भाई बन जाते और अपने को बड़ी अकड़ से राजा का साला घोषित करते थे। इन राजा के सालों की कहीं कोई दाद-फरियाद न थी। ये चाहे जिस भले आदमी के घर में घुस जाते, उसकी कोई भी वस्तु उठा ले जाते, हाट-बाजार से दूकानदारों का माल उठाकर चम्पत हो जाते। इन पर कोई मामला मुकदमा नहीं चला सकता था। ‘मैं राजा का साला’, इतना ही कह देने भर से न्यायालय के न्यायाधीश भी उनके लिए कुर्सी छोड़ देते थे। बहुधा इन सालों का प्रवेश राजदरबार में हो जाता था। और योग्यता की चिन्ता न करके इन्हें राज्य में बड़े-बड़े पद मिल जाते थे। वहाँ बैठकर ये लोग अन्धेर-गर्दियाँ किया करते थे। ऐसा ही वह सामन्ती काल था, जब बारहवीं शताब्दी समाप्त हो रही थी।
काशी के बाजार में काशिराज का साला शम्भुदेव मुसाहिबों सहित नगर भ्रमण को निकला। हाट-बाजार सुनसान था। दूकानें बन्द थीं। पहर रात बीत चुकी थी। सड़कों पर धुँधला प्रकाश छा रहा था। राजा का यह साला नगर कोतवाल भी था।
चलते-चलते उसने मुसाहिबों से कहा—”खेद है कि कामदेव के बाणों से घायल होकर रात-दिन सुरा-सुन्दरियों में मन फँस जाने से नगर का कुछ हाल-चाल महीनों से नहीं मिल रहा है।”
मुसाहिब ने हाथ बाँधकर कहा—”धन-धम-मूर्ति, आपको नगर की इतनी चिन्ता है!”
शम्भुदेव ने कपाल पर आँखें चढ़ाकर कहा—”नगर की चिन्ता मुझे न होगी तो क्या राजा को होगी! अरे, आखिर नगर कोतवाल मैं हूँ या राजा?”
सब मुसाहिबों ने हाथ बाँधकर कहा—”हाँ, महाराज, हाँ, आप ही नगर कोटपाल हैं धर्मावतार।”
“तब हमें ही राजा समझो। राजा के बाद बस…” उसने एक विशेष प्रकार का संकेत किया और हँस दिया।
सब मुसाहिबों ने बिना आपत्ति कोटपाल के मत में सहमति दे दी। इस पर प्रसन्न होकर शम्भुदेव ने कहा—”तब मुझे नगर की बस्ती की चिन्ता तो रखनी ही चाहिए। अरे चर मिथ्यानन्द, नगर का हाल-चाल कह।”
मिथ्यानन्द ने हाथ बाँधकर विनयावनत हो कहा—”जैसी आज्ञा महाराज, परन्तु अभयदान मिले तो सत्य-सत्य कहूँ।”
“कह, सत्य-सत्य कह। तुझे हमने अभयदान दिया। हम नगर कोटपाल हैं कि नहीं!”
“हैं, महाराज। आप ही नगर कोटपाल हैं।”
“तब कह, डर मत।”
“सुनिए महाराज! नगर में बड़ा गड़बड़झाला फैला हुआ है। वेश्यायें और उनके अनुचर भूखों मर रहे हैं। लोग अपनी-अपनी सड़ी-गली धर्म-पत्नियों से ही सन्तोष करने लगे। धुनियाँ-जुलाहे, चमार खुलकर मद्य पीते हैं, कोई कुछ नहीं कहता, पर ब्राह्मण को सब टोकते हैं। मद्य की बिक्री बहुत कम हो गई है, लोग रात-भर जागते रहते हैं, चोर बेचारों की घात नहीं लगती। वे घर से निकले—कि फँसे। सड़कों पर रात-भर रोशनी रहती है। भले घर की बहू-बेटियाँ अब छिपकर अभिसार को जाँय तो कैसे? और महाराज, अब तो ब्राह्मण भी परिश्रम करने लगे।”
चर की यह सूचना सुनकर कोटपाल को बहुत क्रोध आया। उसने कहा—”समझा- समझा, बहुत दिन से हमने जो नगर के प्रबन्ध पर ध्यान नहीं दिया, इसी से ऐसा हो रहा है। मैं सबको कठोर दण्ड दूँगा।”
सब मुसाहिबों ने हाथ बाँधकर कहा—”धन्य है धर्ममूर्ति, आप साक्षात् न्यायमूर्ति हैं।”
कोटपाल ने उपाध्यक्ष कुमतिचन्द्र की ओर मुँह करके कहा—”तुम क्या कहते हो कुमतिचन्द्र?”
कुमतिचन्द्र ने हाथ बाँधकर कहा—”श्रीमान् का कहना बिल्कुल ठीक है।”
परन्तु कोटपाल ने क्रुद्ध स्वर में कहा—”प्रबन्ध करना होगा, प्रबन्ध। सुना तुमने, नगर में बड़ा गड़बड़ हो रहा है!”
कोटपाल की डाँट खाने का उपाध्यक्ष अभ्यस्त था। उसने कुछ भी विचलित न होकर कहा—”हाँ, महाराज, हाँ।”
“तब करो प्रबन्ध।”
उपाध्यक्ष ने निर्विकार रूप से हाथ बाँधकर कहा—”जो आज्ञा महाराज। मैं अभी प्रबन्ध करता हूँ।”
कोटपाल उपाध्यक्ष के वचन से प्रसन्न और सन्तुष्ट हो गया। “तुम्हें पुरस्कार दूँगा— कुमति, तुम मेरे सबसे अच्छे सहयोगी हो। परन्तु देखो-वह गोरख ब्राह्मण इधर ही आ रहा है।”
कोटपाल ने ब्राह्मण के निकट आने पर कहा—”प्रणाम ब्राह्मण देवता।”
गोरख आदर्श ब्राह्मण था। घुटा हुआ सिर और दाड़ी-मूँछ, सिर के बीचोबीच मोटी चोटी। कण्ठ में जनेऊ। शीशे की भाँति दमकता शरीर, मोटी थल-थल तोंद। छोटी-छोटी आँखें, पीताम्बर कमर में बाँधे और शाल कन्धे पर डाले, चार शिष्यों सहित वह नगर चारण को निकला था। कोटपाल की ओर देख तथा उसके प्रणाम की कुछ अवहेलना से उपेक्षा करते हुए उसने कहा—”अहा, नगर कोटपाल है?” फिर शिष्य की ओर देखकर कहा—”अरे कलहकूट, शीघ्र कोटपाल को आशीर्वाद दे।” कोटपाल जाति का शूद्र था। राजा का साला अवश्य था-कोटपाल भी था––पर था तो शूद्र। इसी से श्रोत्रिय ब्राह्मण उसे आशीर्वाद नहीं दे सकता था। श्रोत्रिय ब्राह्मण तो राजा ही को आशीर्वाद दे सकता है। इसी से उसने शिष्य को आशीर्वाद देने की आज्ञा दी। शिष्य ने दूब जल में डुबोकर कोटपाल के सिर पर मार्जन किया। और आशीर्वाद दिया—
शत्रु बढ़े भय रोग बढ़े, कलवार की हाट पै ठाठ जुड़े।
भडुए रण्डी रस रङ्ग करें, निर्भय तस्कर दिन रात फिरे।
आशीर्वाद ग्रहण कर कोटपाल प्रसन्न हो गया। उसने कहा—”आज किधर सवारी चली? आजकल तो महाराज यज्ञ कर रहे हैं, नगर में बड़ी चहल-पहल है। ब्राह्मणों की तो चाँदी ही चाँदी है।”
गोरख ने असन्तुष्ट होकर कहा—“पर इस बार राजा मुझे भूल गया है। उसने मुझे इस सम्मान से वंचित करके अच्छा नहीं किया।”
“अरे ऐसा अनर्थ? तुम काशी के महामहोपाध्याय, श्रोत्रिय ब्राह्मण! और तुम्हें ही राजा ने भुला दिया!”
“तभी तो काशिराज का नाश होगा। कोटपाल, मैं उसे श्राप दूँगा।”
कोटपाल हँस पड़ा। हँसकर उसने कहा—”शाप, केवल इतनी-सी बात पर? पर मुझ पर कृपादृष्टि रखना देवता। और कभी इन चरणों की रज मेरे घर पर भी डालकर पवित्र कीजिए।”
फिर उसने ब्राह्मण का कन्धा पकड़कर कान के पास मुँह ले जाकर कहा—”बहुत बढ़िया पुराना मद्य गौड़ से आया है।”
गोरख श्रोत्रिय ब्राह्मण प्रसन्न हो गया। उसने हँसकर कहा—”अच्छा, अच्छा, कभी देखा जायगा।”
परन्तु कोटपाल ने आग्रह करके कहा—”कभी क्यों, कल ही रही।” फिर कान के पास मुँह लगाकर कहा—”हाँ उस सुन्दरी देवदासी का क्या रहा? क्या नाम था उसका?”
ब्राह्मण हँस पड़ा। उसने कहा—”उसे भूले नहीं कोटपाल, मालूम होता है––दिल में घर कर गई है। उसका नाम मंजुघोषा है।”
“वाह क्या सुन्दर नाम है। हाँ, तो मेरा काम कब होगा?”
“महाराज, सब काम समय पर ही होते हैं। जल्दी करना ठीक नहीं है।”
“फिर भी, कब तक आशा करूँ?”
इसी समय श्रेष्ठि जयमंगल ने आकर प्रथम ब्राह्मण को दण्डवत् की फिर कोटपाल को अभिवादन किया और हँसकर कहा—”मेरे मित्र महाराज शम्भुपाल देव हैं, और मेरे मित्र गोरख महाराज भी हैं।”
गोरख ने मुँह बनाकर कहा—”सावधान सेट्ठि, ब्राह्मण किसी का मित्र नहीं, वह भूदेव हैं, जगत्पूज्य है।”
जयमंगल ने हँसकर कहा—”ब्राह्मण देवता प्रणाम करता हूँ।”
गोरख ने शुष्क वाणी से शिष्य को सम्बोधन करके कहा—”दे रे आशीर्वाद।”
शिष्य ने घास के तिनके से, जलपात्र से जल लेकर सेठ के सिर पर छिड़ककर आशीर्वाद दिया।
कोटपाल का इस ओर ध्यान न था। उसने सेठ के निकट जाकर कहा-“कहो मित्र, कल तो तुम जुए में इतना रुपया हार गए पर चेहरे पर अभी भी मौज-बहार है।”
जयमंगल ने कहा-“वाह, रुपया-पैसा हाथ का मैल है मित्र, उसके लिए सोच क्या। जब तक भोगा जाय, भोगिए।”
गोरख ब्राह्मण ने बीच में बात काटकर कहा-“इसमें क्या सन्देह। संयम और धर्म के लिए तो सारी ही उम्र पड़ी है, जब इन्द्रियाँ थक जायेंगी तब वह काम भी कर लिया जायेगा।”
कोटपाल ने जोर से हँसकर कहा-“बस धर्म की बात तो गोरख महाराज कहते हैं। बावन तोला पाव रत्ती। अच्छा, भाई हम जाते हैं। नगर का प्रबन्ध करना है। परन्तु कल का निमन्त्रण मत भूल जाना।”
“नहीं भूलूँगा कोटपाल महाराज।”
कोटपाल के चले जाने पर उसने होंठ बिचकाकर कहा-“देखा तुमने सेट्ठि, कैसा नीच आदमी है। मूर्ख धन और अधिकार के घमण्ड में ब्राह्मण को निमन्त्रण का लोभ दिखाकर अपने नीच वंश को भूल रहा है। हम श्रोत्रिमय ब्राह्मण हैं। जानते हो सेट्ठि, इसकी जाति क्या है?”
सेठ ने इस बात में रस लेकर कहा-“नहीं जानता। क्या जाति है भला?”
“साला चमार है कि जुलाहा, याद नहीं आ रहा है।”
इसी समय सामने से चन्द्रावली को आते देखकर वह प्रसन्न हो गया। उसने सेठ के कन्धे को झकझोरकर कहा-“देखो सेट्ठि, बिना बादल के बिजली, पहिचानते हो?”
“कोई गणिका प्रतीत होती है।”
“अरे नहीं, चन्द्रावली देवदासी है।”
सेट्ठि ने हँसकर आगे बढ़कर कहा—”आह, चन्द्रावली, अच्छी तो हो?”
चन्द्रावली ने हँसकर नखरे से कहा—”आपकी बला से। आप तो एकबारगी ही अपने मित्रों को भूल गए।”
सेठ ने खींसे निपोर कर कहा—”वाह, ऐसा भी कहीं हो सकता है! यह मुख भी भला कहीं भुलाया जा सकता है।”
“आपसे बातों में कौन जीत सकता है!”
चन्द्रावली ने घातक कटाक्षपात किया। सेठ ने अधिक रसिकता प्रकट करते हुए कहा-
“इस मुख को देखकर तो गूँगा भी बोल उठे।”
चन्द्रावली ने हँसकर सेठ से कहा—”कहिए, अब कब श्रीमान् मेरे घर पधार रहे हैं?”
“कहो तो अभी-“
“अभी नहीं, कल।”
“अच्छा” सेठ ने हँसकर उत्तर दिया। चन्द्रावली ने गोरख की ओर मुँह करके कहा—”आप भी ब्राह्मण हैं?”
गोरख खुश हो गया। उसने कहा-“सिर केवल ब्राह्मण है।”
चन्द्रावली हास्य बखेरती हुई चली गई। गोरख कुछ देर उसी ओर देखता रहा। फिर उसने कहा—”बहुत सुन्दर है, क्यों सेट्ठि-क्या कहते हो?”
“है तो, परन्तु-“
“परन्तु क्या?”
“कहने योग्य नहीं।’
“कहो, कहो, क्या किसी ने तुम्हारा मन हरण किया है?”
“किया तो है।’
“वह कौन है?”
“है कोई अद्वितीय बाला।”
“वह है कहाँ भला?”
“मन्दिर में ही!”
“मन्दिर में?”
जयमंगल ने आनन्द में विभोर होकर कहा—”है, एक संन्ध्या समय मैं मन्दिर में गया था। आरती नहीं हुई थी। वहाँ सन्नाटा था। महाप्रभु भी नहीं आए थे। मैं भीतर चला गया। सहसा मुझे एक आहट सुनाई दी। देखा, एक फूल-सी सुकुमारी बैठी देवता का फूलों से श्रृंगार कर रही है। हम लोगों की आँखें चार हुईं। तभी से मेरे हृदय में वह बस गई। वाह, क्या सौन्दर्य था! विधाता ने सुन्दरता के कण सारे विश्व से समेटकर उसे रचा होगा। उसकी आँखों में आँसू थे, और उसके ओठ फड़क रहे थे।”
“क्या तुमने उसका नाम पूछा था?”
“जब मैंने उसके निकट जाकर पूछा—”सुन्दरी, तेरा नाम क्या है, और तुझे क्या दुःख है, तो वह बिना उत्तर दिये चली गई। परन्तु मुझे उस मोहिनी के नाम का पता चल गया था-वह मंजुघोषा थी।”
गोरख कुटिलतापूर्वक हँस दिया। उसने कहा—”समझा। जिसे देखो वही मंजुघोषा की रट लगा रहा है। सेट्ठी, उसकी आशा छोड़ दो।”
“यह तो न होगा मित्र, प्राण रहते नहीं होगा। भले ही प्राण भी देना पड़े।”
“ओ हो, यहाँ तक? तब तो मामला गम्भीर है। खैर, तो मैं तुम्हारी सहायता करूँगा।”
जयमंगल प्रसन्न हो गया। उसने मुहरों की एक छोटी-सी थैली ब्राह्मण के हाथ में थमाकर कहा: “मैं तुम्हें मुँह माँगा द्रव्य दूँगा देवता।”
गोरख ने थैली अपनी टेंट में खोसते हुए हँसकर कहा—”तब आओ मन्दिर में।”
जयमंगल ने ब्राह्मण का हाथ पकड़ लिया। और दोनों आगे बढ़कर एक गली में घुस गए।
सारी ही बातें सुखदास ने छिपकर सुन ली थी। उसने समझ लिया कि अवश्य ही मंजुघोषा पर कोई नई विपत्ति आने वाली है। वह सावधानी से अपने को छिपाता हुआ उनके पीछे चला।