कहानी- लेखक

प्रात:काल महाशय प्रवीण ने बीस दफा उबाली हुई चाय का प्याला तैयार किया और बिना शक्कर और दूध के पी गए। यही उनका नाश्ता था। महीनों से मीठी, दूधिया चाय न मिली थी। दूध और शक्कर उनके लिए जीवन के आवश्यक पदार्थों में न थे। घर में गए जरूर कि पत्नी को जगाकर पैसे माँगें, पर उसे फटे-मैले लिहाफ में निद्रामग्न देखकर जगाने की इच्छा न हुई। सोचा, शायद मारे सर्दी के बेचारी को रात-भर नींद न आई होगी, इस वक्त जाकर आँख लगी है। कच्ची नींद जगा देना उचित न था। चुपके से चले आए।

 चाय पीकर उन्होंने कलम-दवात सँभाली और वह किताब लिखने में तल्लीन हो गए, जो उनके विचार में इस शताब्दी की सबसे बड़ी रचना होगी, जिनका प्रकाशन उन्हें गुमनामी से निकालकर ख्याति और समृद्धि के स्वर्ग पर पहुँचा देगा।

 आधा घंटे बाद पत्नी आँखें मलती हुई आकर बोली, ‘क्या तुम चाय पी चुके? ’ 

प्रवीण ने सहास्य मुख से कहा, ‘हाँ, पी चुका। बहुत अच्छी बनी थी।’

 ‘पर दूध और शक्कर कहाँ से लाए? ’

 ‘दूध और शक्कर तो कई दिनों से नहीं मिलता। मुझे आजकल सादी चाय ज्यादा स्वादिष्ट लगती है। दूध और शक्कर मिलाने से उसका स्वाद बिगड़ जाता है। डॉक्टरों की भी यही राय है कि चाय हमेशा सादी पीनी चाहिए। यूरोप में तो दूध का बिलकुल रिवाज नहीं है। यह तो हमारे यहाँ के मधुर-प्रिय रईसों की ईजाद है।’

 ‘जाने तुम्हें फीकी चाय कैसे अच्छी लगती है। मुझे जगा क्यों न लिया? पैसे तो रखे थे।’ 

महाशय प्रवीण फिर लिखने लगे। जवानी ही में उन्हें यह रोग लग गया था और आज बीस साल से वह उसे पाले हुए थे। इस रोग में देह घुल गई, स्वास्थ्य घुल गया और चालीस की अवस्था में बुढ़ापे ने आ घेरा, पर यह रोग असाध्य था। सूर्योदय से आधी रात तक यह साहित्य का उपासक अंतर्जगत् में डूबा हुआ, समस्त संसार से मुँह मोड़े, हृदय के पुष्प और नैवेद्य चढ़ाता रहता था। पर भारत में सरस्वती की उपासना लक्ष्मी की अभक्ति है। मन तो एक ही था। दोनों देवियों को एक साथ कैसे प्रसन्न करता, दोनों के वरदान का पात्र क्योंकर बनता? और लक्ष्मी की यह अकृपा केवल धनाभाव के रूप में न प्रकट होती थी, उसकी सबसे निर्दय क्रीड़ा यह थी कि पत्रों के संपादक और पुस्तकों के प्रकाशक उदारतापूर्वक सहृदयता का दान भी न देते थे। कदाचित् सारी दुनिया ने उसके विरुद्ध कोई षड्‌यंत्र-सा रच डाला था। यहाँ तक कि इस निरंतर अभाव ने उसमें आत्मविश्वास को जैसे कुचल दिया था। कदाचित् अब उसे यह ज्ञात होने लगा था कि उसकी रचनाओं में कोई सार, कोई प्रतिभा नहीं है और यह भावना अत्यंत हृदय-विदारक थी। यह दुर्लभ मानव-जीवन यों ही नष्ट हो गया। यह तस्कीन भी नहीं कि संसार ने चाहे उसका सम्मान न किया हो, पर उसकी जीवनकृति इतनी तुच्छ नहीं। जीवन की आवश्यकताएँ घटते-घटते संन्यास की सीमा को भी पार कर चुकी थीं। अगर कोई संतोष था, तो यह कि उनकी जीवन-सहचरी त्याग और तप में उनसे भी दो कदम आगे थी। सुमित्रा इस दशा में भी प्रसन्न थी। प्रवीणजी को दुनिया से शिकायत हो, पर सुमित्रा जैसे गेंद में भरी हुई वायु की भाँति उन्हें बाहर की ठोकरों से बचाती रहती थी। अपने भाग्य का रोना तो दूर की बात थी, इस देवी ने कभी माथे पर बल भी न आने दिया।

 सुमित्रा ने चाय का प्याला समेटते हुए कहा, ‘तो जाकर घंटा-आध घंटा कहीं घूम-फिर क्यों नहीं आते? जब मालूम हो गया कि प्राण देकर काम करने से भी कोई नतीजा नही, तो व्यर्थ क्यों सिर खपाते हो? ’

 प्रवीण ने बिना मस्तक उठाए, कागज पर कलम चलाते हुए कहा, ‘लिखने में कम-से-कम यह संतोष तो होता है कि कुछ कर रहा हूँ। सैर करने में तो मुझे ऐसा जान पड़ता है कि समय का नाश कर रहा हूँ।’

 ‘ये इतने पढ़े-खिले आदमी नित्यप्रति हवा खाने जाते हैं, तो अपने समय का नाश करते हैं? ’

 ‘मगर इनमें अधिकांश वही लोग हैं, जिनके सैर करने से उनकी आमदनी में बिलकुल कमी नहीं होती। अधिकांश तो सरकारी नौकर हैं, जिनको मासिक वेतन मिलता है, या ऐसे पेशों के लोग हैं, जिनका लोग आदर करते हैं। मैं तो मिल का मजूर हूँ। तुमने किसी मजूर को हवा खाते देखा है? जिन्हें भोजन की कमी नहीं, उन्हीं को हवा खाने की भी जरूरत है। जिनको रोटियों के लाले हैं, वे हवा खाने नहीं जाते। फिर स्वास्थ्य और जीवन-वृद्धि की जरूरत उन लोगों को है, जिनके जीवन में आनंद और स्वाद है। मेरे लिए तो जीवन भार है। इस भार को सिर पर कुछ दिन और बनाए रहने की अभिलाषा मुझे नहीं है।

 सुमित्रा निराशा में डूबे हुए शब्द सुनकर आँखों में आँसू भरे अंदर चली गई। उसका दिल कहता था, इस तपस्वी की कीर्ति-कौमुदी एक दिन अवश्य फैलेगी, चाहे लक्ष्मी की अकृपा बनी रहे। किंतु प्रवीण महोदय अब निराशा की उस सीमा तक पहुँच चुके थे, जहाँ से प्रतिकूल दिशा में उदय होने वाली आशामय उषा की लाली भी नहीं दिखाई देती। 

एक रईस के यहाँ कोई उत्सव है। उसने महाशय प्रवीण को भी निमंत्रित किया। आज उनका मन आनंद के घोड़े पर बैठा हुआ नाच रहा है। सारे दिन वह इसी कल्पना में मग्न रहे—राजा साहब किन शब्दों में उनका स्वागत करेंगे और वह किन शब्दों में उनको धन्यवाद देंगे, किन प्रसंगों पर वार्तालाप होगा और किन महानुभावों से उनका परिचय होगा। सारे दिन वह इन्हीं कल्पनाओं का आनंद उठाते रहे। इस अवसर के लिये उन्होंने एक कविता भी रची, जिसमें उन्होंने जीवन की एक उद्यान से तुलना की थी। अपनी सारी धारणाओं की उन्होंने आज उपेक्षा कर दी, क्योंकि रईसों के मनोभावों को वह अघात न पहुँचा सकते थे।

 दोपहर से ही उन्होंने तैयारियाँ शुरू कीं। हजामत बनाई, साबुन से नहाया, सिर में तेल डाला। मुश्किल कपड़ों की थी। मुद्‌दत गुजरी, जब उन्होंने अचकन बनवाई थी। उसकी दशा भी उन्हीं की दशा जैसी जीर्ण हो चुकी थी। जैसे जरा-सी सर्दी या गर्मी से उन्हें जुकाम या सिरदर्द हो जाता था, उसी तरह वह अचकन भी नाजुक-मिजाज थी। उसे निकाला तो झाड़-पोंछकर रखा।

 सुमित्रा ने कहा, ‘तुमने व्यर्थ ही निमंत्रण स्वीकार किया। लिख देते, मेरी तबीयत अच्छी नहीं है। इन फटेहालों जाना और बुरा है।’

 प्रवीण ने दार्शनिक गंभीरता से कहा, ‘जिन्हें ईश्वर ने हृदय और परख दी है, वे आदमियों की पोशाक नहीं देखते, उनके गुण और चरित्र देखते हैं। आखिर कुछ बात तो है कि राजा साहब ने मुझे निमंत्रित किया। मैं कोई ओहदेदार नहीं, जमींदार नहीं, जागीरदार नहीं, ठेकेदार नहीं, केवल एक साधारण लेखक हूँ। लेखक का मूल्य उसकी रचनाएँ होती हैं। इस एतबार से मुझे किसी भी लेखक से लज्जित होने का कारण नहीं है।’ 

सुमित्रा उनकी सरलता पर दया करके बोली, ‘तुम कल्पनाओं के संसार में रहते-रहते प्रत्‍यक्ष संसार से अलग हो गए हो। मैं कहती हूँ राजा साहब के यहाँ लोगों की निगाह सबसे ज्यादा कपड़ों पर ही पड़ेगी। सरलता जरूर अच्छी चीज है, पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि आदमी फूहड़ बन जाए! ’ 

प्रवीण को इस कथन में कुछ सार जान पड़ा। विद्वज्जनों की भाँति उन्हें भी अपनी भूल को स्वीकार करने में कुछ विलंब न होता था। बोले, ‘मैं समझता हूँ, दीपक जल जाने के बाद जाऊँ।’ 

‘मैं तो कहती हूँ, जाओ ही क्यों? ’

 ‘अब तुम्हें कैसे समझाऊँ, प्रत्येक प्राणी के मन में आदर और सम्मान की एक क्षुधा होती है। तुम पूछोगी, यह क्षुधा क्यों होती है? इसलिए कि यह हमारे आत्मविकास की एक मंजिल है। हम उस महान सत्ता के सूक्ष्मांश हैं, जो समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। अंश में पूर्व के गुणों का होना लाजिमी है। इसलिए कीर्ति और सम्मान आत्मोन्नति और ज्ञान की ओर हमारी स्वाभाविक रुचि है। मैं इस लालसा को बुरा नहीं समझता।’ 

सुमित्रा ने गला छुड़ाने के लिए कहा, ‘अच्छा भाई जाओ। मैं तुमसे बहस नहीं करती लेकिन कल के लिए कोई व्यवस्था करते आना, क्योंकि मेरे पास केवल एक आना और रह गया है। जिनसे उधार मिल सकता था, उनसे ले चुकी और जिनसे लिया, उसे देने की नौबत नहीं आई। मुझे अब और कोई उपाय नहीं सूझता।’

 प्रवीण ने एक क्षण बाद कहा, ‘दो-एक पत्रिकाओं से मेरे लेखों के रूपए आने वाले हैं। शायद कल तक आ जाएँ और अगर कल उपवास ही करना पड़े तो क्या चिंता? हमारा धर्म है काम करना। हम काम करते हैं और तन-मन से करते हें। अगर इस पर भी हमें फाका करना पड़े, तो मेरा दोष नहीं। मर ही तो जाऊँगा हमारे जैसे लाखों आदमी रोज मरते हैं। संसार का काम ज्यों-का-त्यों चलता रहता है। फिर इसका क्या गम कि हम भूखों मर जाएँगे। मौत डरने की वस्तु नहीं। मैं तो कबीरपंथियों का कायल हूँ, जो अर्थी गाते-बजाते ले जाते हैं। मैं इससे नहीं डरता। तुम्हीं कहो, मैं जो कुछ करता हूँ, इससे अधिक और कुछ मेरी शक्ति के बाहर है या नहीं। सारी दुनिया मीठी नींद सोती है और मैं कलम लिए बैठा रहता हूँ। लोग हँसी-दिल्लगी, आमोद-प्रमोद करते रहते हैं; मेरे लिए वह सब हराम है। यहाँ तक कि महीनों से हँसने की नौबत नहीं आई। होली के दिन भी मैंने तातील नहीं मनाई। बीमार भी होता हूँ, तो लिखने की फिक्र सिर पर सवार रहती है। सोचो, तुम बीमार थीं और मैं वैद्य के यहाँ जाने के लिए समय न पाता था। अगर दुनिया नहीं कदर करती, न करे। उसका प्रकाश फैलता है या उसके सामने कोई ओट है, उसे इससे प्रयोजन नहीं।’ 

‘मेरा भी ऐसा कौन मित्र, परिचित या संबंधी है, जिसका मैं आभारी नहीं? यहाँ तक कि अब घर से निकलते शर्म आती है। संतोष इतना ही अच्छा है कि लोग मुझे बदनीयत नहीं समझते। मेरी कुछ अधिक मदद न कर सकें, पर उन्हें मुझसे सहानुभूति अवश्य है। मेरी खुशी के लिए इतना ही काफी है कि आज वह अवसर तो आया है कि एक रईस ने मेरा सम्मान किया! ’

 फिर सहसा उन पर एक नशा-सा छा गया। गर्व से बोले, ‘नहीं, मैं अब रात को न जाऊँगा। मेरी गरीबी अब रूसवाई की हद तक पहुँच चुकी है। उस पर परदा डालना व्यर्थ है। मैं इसी वक्त जाऊँगा जिसे रईस और राजे आमंत्रित करें, वह कोई ऐसा-वैसा आदमी नहीं हो सकता। राजा साहब साधारण रईस नहीं है। वह इस नगर के ही नहीं, भारत के विख्यात रईसों में हैं। अगर अब भी कोई नीचा समझे, तो वह खुद नीचा है।’

 संध्या का समय है। प्रवीण जी अपनी फटी-पुरानी अचकन और सड़े हुए जूते और बेढंगी-सी टोपी पहने घर से निकले। खामखाह, बाँगड़ उचक्के-से मालूम होते थे। डीलडौल और चेहरे-मुहरे के आदमी होते, तो इस ठाठ में भी एक शान होती। स्थूलता स्वयं रौब डालने वाली वस्तु है। पर साहित्य-सेवा और स्थूलता में विरोध है। अगर कोई साहित्य-सेवी मोटा-ताजा, डबल आदमी है, तो समझ लो, उसमें माधुर्य नहीं, लोच नहीं, हृदय नहीं। दीपक का काम है, जलना। दीपक वही लबालब भरा होगा, जो जला न हो। फिर भी आप अकड़े जाते हैं। एक-एक अंग से गर्व टपक रहा है।

 यों घर से निकलकर वह दुकानों से आँखें चुराते, गलियों से निकले जाते थे, पर आज वह गरदन उठाए, उनके सामने से जा रहे हैं। आज वह उनके तकाजों का दंदाशिकन जवाब देने को तैयार हैं। पर संध्या का समय है, हर एक दुकान पर ग्राहक बैठे हुए हैं। कोई उनकी तरफ नहीं देखता। जिस रकम को वह अपनी हीनावस्था में दुर्विचार समझते थे, वह दुकानदारों की निगाह में इतनी जोखिम न थी कि जाने-पहचाने आदमी को सरे बाजार टोकते, विशेषकर जब वह आज किसी से मिलने जाते हुए मालूम होते थे।

 प्रवीण ने एक बार सारे बाजार का चक्कर लगाया, पर जी न भरा। तब दूसरा चक्कर लगाया, पर वह भी निष्फल। तब वह खुद हाफिज समद की दुकान पर जाकर खड़े हो गए। हाफिजजी बिसाते का कारोबार करते थे। बहुत दिन हुए—प्रवीण इस दुकान से एक छतरी ले गए थे और अभी तक दाम न चुका सके थे। प्रवीण को देखकर बोले, ‘महाशय जी, अभी तक छतरी के दाम नहीं मिले। ऐसे सौ-पचास ग्राहक मिल जाएँ, तो दिवाला ही हो जाए। अब तो बहुत दिन हुए।’ 

प्रवीण की बाँछें खिल गईं। दिली मुराद पूरी हुई। बोले, ‘मैं भूला नहीं हूँ हाफिज जी, इन दिनों काम इतना ज्यादा था कि घर से निकलना मुश्किल था। रूपए तो नहीं हाथ आते, पर आपकी दुआ से कदरशिनासों की कमी नहीं। दो-चार आदमी घेरे ही रहते हैं। इस वक्त राजा साहब-अजी वही जो नुक्कड़ वाले बँगले में रहते हैं, उन्हीं के यहाँ जा रहा हूँ। दावत है। रोज ऐसा कोई-न-कोई मौका आता ही रहता है।’ 

हाफिज समद प्रभावित होकर बोला, ‘अच्छा! आप राजा साहब के यहाँ तशरीफ ले जा रहे हैं! ठीक है, आप जैसे बाकमालों की कदर रईस ही कर सकते हैं, और कौन करेगा? सुभानअल्लाह! आप इस जमाने में यकता हैं, अगर कोई मौका हाथ आ जाए, तो गरीब को न भूल जाइएगा। राजा साहब की अगर इधर निगाह हो जाए, तो फिर क्या पूछना! एक पूरा बिसाता तो उन्हीं के लिए चाहिए। ढाई-तीन लाख सालाना आमदनी है।’

 प्रवीण को ढाई-तीन लाख कुछ तुच्छ जान पड़े। जबानी जमा-खर्च है, तो दस बीस लाख कहने में क्या हानि? बोले, ‘ढाई-तीन लाख! आप तो उन्हें गालियाँ देते हैं। उनकी आमदनी दस लाख से कम नहीं। एक साहब का अंदाज तो बीस लाख का है। इलाका है, मकानात हैं। दुकानें हैं, ठीका है, अमानती रूपए हैं और फिर सबसे बड़ी सरकार बहादुर की निगाह है।’ 

हाफिज ने बड़ी नम्रता से कहा, ‘यह दुकान आप ही की है जनाब, बस इतनी ही अरज है। अरे मुरादी, जरा दो पैसे के अच्छे-से पान तो बनवा ला। आपके लिए। आइए, दो मिनट बैठिए। कोई चीज पसंद हो तो दिखाऊँ। आपसे तो घर का वास्ता है।’

 प्रवीण ने पान खाते हुए कहा, ‘इस वक्त तो मुआफ करिए। वहाँ देर होगी। फिर कभी हाजिर हूँगा।’ 

यहाँ से उठकर वह एक कपड़े वाले की दुकान के सामने रुके। मनोहरदास नाम था। इन्हें खड़े देखकर आँखें उठाईं। बेचारा इनके नाम को रो बैठा था। समझ लिया, शायद इस शहर में हैं ही नहीं। समझा, रूपए देने आए हैं। बोला, ‘भाई प्रवीणजी, आपने तो बहुत दिनों से दर्शन ही नहीं दिए। रुक्का कई बार भेजा, मगर प्यादे को आपके घर का पता न मिला। मुनीमजी, जरा देखो तो आपके नाम क्या है? ’

 प्रवीण के प्राण तकाजों से सूख जाते थे; पर आज वह इस तरह खड़े थे, मानो उन्होंने कवच धारण कर लिया है, जिस पर किसी अस्त्र का आघात नहीं हो सकता। बोले, ‘जरा इन राजा साहब के यहाँ से लौट आऊँ तो निश्चित होकर बैठूँ। इस समय जल्दी में हूँ।’ राजा साहब पर मनोहरदास के कई हजार रूपए आते थे। फिर भी उनका दामन न छोड़ता था। एक के तीन वसूल करता। उसने प्रवीणजी को ऊँची श्रेणी में रखा, जिसका पेशा रईसों को लूटना है। बोला, ‘पान तो खाते जाइए महाशय! राजा साहब एक दिन के हैं। हम तो बारहों मास के हैं भाई साहब! कुछ कपडे़ दरकार हों तो ले जाइए। अब तो होली आ रही है। मौका हो, तो जरा राजा साहब के खजानची से कहिएगा, पुराना हिसाब बहुत दिन से पड़ा हुआ है, अब तो सफाई हो जाए! हम सब ऐसा कौन-सा नफा लेते हैं कि दो-दो साल हिसाब ही न हो? ’

 प्रवीण ने कहा, ‘इस समय तो पान-वान रहने दो भाई, देर हो जाएगी। जब उन्हें मुझसे मिलने का इतना शौक है और मेरा इतना सम्मान करते हैं, तो अपना भी धर्म है कि उनको मेरे कारण कष्ट न हो। हम तो गुणग्राहक चाहते हैं, दौलत के भूखे नहीं। कोई अपना सम्मान करे, तो उनकी गुलामी करें। अगर किसी को रियासत का घमंड हो, तो हमें उसकी परवाह नहीं।’

 प्रवीण राजा साहब के विशाल भवन के सामने पहुँचे, तो दीये जल चुके थे। अमीरों और रईसों की मोटरें खड़ी थीं। वरदीपोश दरबान द्वार पर खड़े थे। एक सज्जन मेहमानों का स्वागत कर रहे थे। प्रवीणजी को देखकर वह जरा झिझके। फिर उन्हें सिर से पाँव तक देखकर बोले, ‘आपके पास नवेद है? ’

 प्रवीण की जेब में नवेद था। पर इस भेदभाव पर उन्हें क्रोध आ गया। उन्हीं से क्यों नवेद माँगा जाए? औरों से भी क्यों न पूछा जाए? बोले, ‘जी नहीं, मेरे पास नवेद नहीं है। अमर आप अन्य महाशयों से नवेद माँगते हों, तो मैं भी दिखा सकता हूँ। वरना मैं इस भेद को अपने लिए अपमान की बात समझता हूँ। आप राजा साहब से कह दीजिए, प्रवीण जी आए थे और द्वार से लौट गए।’ 

‘नहीं-नहीं, महाशय, अंदर चलिए। मुझे आपसे परिचय न था। बेअदबी माफ कीजिए। आप ही ऐसे महानुभावों से तो महफिल की शोभा है। ईश्‍वर ने आपको वह वाणी प्रदान की है कि क्या कहना! ’

 इस व्यक्ति ने प्रवीण को कभी न देखा था। लेकिन जो कुछ उसने कहा, वह प्रत्येक साहित्यसेवी के विषय में कह सकते हैं और हमें विश्वाश है कि कोई साहित्यसेवी इस दाद की उपेक्षा नहीं कर सकता। 

प्रवीण अंदर पहुँचे तो देखा, बारहदरी के सामने विस्तृत और सुसज्जित प्रांगण में बिजली के कुमकुमे अपना प्रकाश फैला रहे हैं। मध्य में एक हौज है, होज में संगमरमर की परी, परी के सिर पर फौवारा, फौवारे की फुहारें रंगीन कुमकुमों से रंजित होकर ऐसी मालूम होती थीं, मानो इंद्रधनुष पिघलकर ऊपर से बरस रहा है। हौज के चारों ओर मेजें लगी हुई थीं। मेजों पर सफेद मेजपोश, ऊपर सुंदर गुलदस्‍ते।

 प्रवीण को देखते ही राजा साहब ने स्‍वागत किया, ‘आइए, आइए! अब की ‘हंस’ में आपका लेख देखकर दिल फड़क उठा है। मैं तो चकित हो गया। मालूम ही न था कि इस नगर में आप जैसे रत्‍न भी छिपे हुए हैं।’ 

फिर उपस्थित सज्‍जनों से उनका परिचय देने लगे, ‘आपने महाशय प्रवीण का नाम तो सुना होगा। यह आप ही हैं। क्‍या माधुर्य है, क्‍या ओज है, क्‍या भाव है, क्‍या सूझ है, क्‍या चमत्‍कार है, क्‍या प्रवाह है कि वाह! वाह! मेरी तो आत्‍मा जैसे नृत्‍य करने लगती है! ’

 एक सज्‍जन ने, जो अँग्रजी सूट में थे, प्रवीण को ऐसी निगाह से देखा मानो वह चिडि़याघर का कोई जीव हों, और बोले, ‘आपने अँग्रजी के कवियों का भी अध्‍ययन किया है-बाइरन, शेली, कीट्स आदि।’ 

प्रवीण ने रूखाई से जवाब दिया, ‘जी हाँ, थोड़ा-बहुत देखा तो है।’

 ‘आप इन महाकवियों में से किसी की रचनाओं का अनुवाद कर दें तो आज हिंदी भाषा की अमर सेवा करें।’

 प्रवीण अपने को बाइरन, शेली आदि से जौ-भर भी कम न समझते थे। वे अँग्रेजी के कवि थे। उनकी भाषा, शैली, विषय-व्‍यंजना सभी अँग्रजों की रूचि के अनुकूल था। उनका अनुवाद करना वह अपने लिए गौरव की बात न समझते थे, उसी तरह जैसे वे उनकी रचनाओं का अनुवाद करना अपने लिए गौरव की वस्‍तु न समझते। बोले, ‘हमारे यहाँ आत्‍म-दर्शन का अभी इतना अभाव नहीं है कि हम विदेशी कवियों से भिक्षा माँगें। मेरा विचार है कि कम-से-कम इस विषय में भारत अब भी पश्चिम को कुछ सिखा सकता है।’ 

यह अनर्गल बात थी। अँग्रेजी के भक्‍त महाशय ने प्रवीण को पागल समझा।

 राजा साहब ने प्रवीण को ऐसी आँखों से देखा, जो कह रही थीं—ज़रा मौका-महल देखकर बातें करो! और बोले, ‘अँग्रजी साहित्‍य का क्‍या पूछना! कविता में तो वह अपना जोड़ नहीं रखता।’

 अँग्रेजी के भक्‍त महाशय ने प्रवीण को सगर्व नेत्रों से देखा, ‘हमारे कवियों ने अभी तक कविता का अर्थ ही नहीं समझा। अभी तक वियोग और नख-सिख को कविता का आधार बनाए हुए हैं।’ 

प्रवीण ने ईंट का जवाब पत्‍थर से दिया, ‘मेरा विचार है कि आपने वर्तमान कवियों का अध्‍ययन नहीं किया, या किया तो उतरी आँखों से।’ 

राजा साहब ने अब प्रवीण की जबान बंद कर देने का निश्‍चय किया, ’आप मिस्‍टर परांजपे हैं, प्रवीणजी! आपके लेख अँग्रेजी पत्रों में छपते हैं और बड़े आदर की दृष्टि से देखे जाते हैं।’

 इसका आशय यह था कि अब आप न बहकिए।

 प्रवीण समझ गए। परांजपे के सामने उन्‍हें नीचा देखना पड़ा। विदेशी वेशभूषा और भाषा का यह भक्‍त जाति-द्रोही होकर भी इतना सम्‍मान पाए, यह उनके लिए असह्य था। पर करते क्‍या?

 उसी वेश के एक दूसरे सज्‍जन आए। राजा साहब ने तपाक से उनका अभिवादन किया, ‘आइए, डाक्‍टर चड᳭ढा! कैसे मिजाज हैं? ’ 

डॉक्‍टर साहब ने राजा साहब से हाथ मिलाया और फिर प्रवीण की ओर जिज्ञासा भरी आँखों से देखकर पूछा, ‘आपकी तारीफ? ’

 राजा साहब ने प्रवीण का परिचय दिया, ‘आप महाशय प्रवीण हैं, आप भाषा के अच्‍छे कवि और लेखक हैं।’ 

डाक्‍टर साहब ने एक खास अंदाज से कहा, ‘अच्‍छा! आप कवि हैं! ’ और बिना कुछ पूछे आगे बढ़ गए। 

फिर उसी वेश के एक और महाशय पधारे। यह नामी बैरिस्‍टर थे। राजा साहब ने उनसे भी प्रवीण का परिचय कराया। उन्‍होंने भी उसी अंदाज से कहा, ‘अच्‍छा! आप कवि हैं! और आगे बढ़ गए। यही अ‍भिनय कई बार हुआ। और हर बार प्रवीण को यही दाद मिली-‘अच्‍छा! आप कवि हैं! ’

 यह वाक्‍य हर बार प्रवीण के हृदय पर एक नया आघात पहुँचाता था। उसके नीचे जो भाव था, उसे प्रवीण खूब समझते थे। उसका सीधा-सादा आशय यह था कि तुम अपने खयाली पुलाव पकाते हो, पकाओ। यहाँ तुम्‍हारा क्‍या प्रयोजन? तुम्‍हारा इतना साहस कि तुम इस सभ्‍य समाज में बेधड़क आओ! 

प्रवीण मन-ही-मन अपने ऊपर झुँझला रहे थे। निमंत्रण पाकर उन्‍होंने अपने को धन्‍य माना था, पर यहाँ आकर उनका जितना अपमान हो रहा था, उसके देखते तो वह संतोष की कुटिया स्‍वर्ग थी। उन्‍होंने अपने मन को धिक्‍कारा— ‘तुम जैसे सम्‍मान के लोभियों का यह दंड है। अब तो आँखें खुलीं, तुम कितने सम्‍मान के पात्र हो! तुम इस स्‍वार्थमय संसार में किसी के काम नहीं आ सकते, न उन्‍हें तुम्‍हारे द्वारा कोई मुकद᳭दमा पाने की आशा है। डाक्‍टर या हकीम तुम्‍हारा सम्‍मान क्‍यों करें? उन्‍हें तुम्‍हारे घर बिना फीस आने की इच्‍छा नहीं। तुम लिखने के लिए बने हो, लिखे जाओ। बस, और संसार में तुम्‍हारा कोई प्रयोजन नहीं।’ 

सहसा लागों में हलचल मच गई। आज के प्रधान अतिथि का आगमन हुआ। यह महाशय हाईकोर्ट के जज नियुक्‍त हुए थे। इसी उपलक्ष्‍य में यह जलसा हो रहा था। राजा साहब ने लपककर जल्‍द हाथ मिलाया और आकर प्रवीण से बोले, ’आप अपनी कविता तो लिख ही लाए होंगे? ’ 

प्रवीण ने कहा, ‘मैंने कोई कविता नहीं लिखी।’

 ‘सच! तब तो तुमने गजब ही कर दिया। अरे भले आदमी, अब तो कोई चीज लिख डालो। दो-ही चार पंक्तियाँ हो जाएँ। बस! ऐसे अवसर पर एक कविता का पढ़़ा जाना लाजिमी है।’ 

‘मैं इतनी जल्‍दी कोई चीज नहीं लिख सकता।’ 

‘मैंने व्‍यर्थ ही इतने आदमियों से आपका परिचय कराया? ’

 ‘बिलकुल व्‍यर्थ।’ 

‘अरे भाई जान, किसी प्राचीन कवि की कोई चीज सुना दीजिए। यहाँ कौन जानता है! ’

 ‘जी नहीं, क्षमा कीजिएगा। मैं भाट नहीं, न कत्‍थक हूँ।’ 

यह कहते हुए प्रवीण जी तुरंत वहाँ वे चल दिए। घर पहुँचे तो उनका चेहरा खिला हुआ था। 

सुमित्रा ने प्रसन्‍न होकर पूछा, ‘इतनी जल्‍दी कैसे आ गए? ’

 ‘मेरी वहाँ कोई जरूरत न थी।’ 

‘चलो, चेहरा खिला हुआ है, खूब सम्‍मान हुआ होगा।’ 

‘हाँ, सम्‍मान तो जैसी आशा न थी, वैसा हुआ।’

 ‘खुश बहुत हो।’

 ‘इसी से कि आज मुझे हमेशा के लिए सबक मिल गया। मैं दीपक हूँ और जलने के लिए बना हूँ। आज मैं इस तत्त्व को भूल गया था। ईश्‍वर ने मुझे ज्‍यादा बहकने न दिया। मेरी यह कुटिया ही मेरे लिए स्‍वर्ग है। मैं आज यह तत्त्व पा गया कि साहित्‍य-सेवा पूरी तपस्‍या है।’

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