हिन्दी आलोचना का उद्भव और विकास

प्रस्तावना

हिंदी साहित्य में आलोचना का विकास एक दीर्घकालिक प्रक्रिया रही है, जो विभिन्न युगों, विचारधाराओं और सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों के प्रभाव में निरंतर विकसित होती रही है। आलोचना न केवल साहित्यिक कृतियों का मूल्यांकन करती है, बल्कि वह साहित्य और समाज के बीच सेतु का कार्य भी करती है। इस लेख में हिंदी आलोचना के उद्भव और विकास की यात्रा का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है।


1. प्रारंभिक आलोचना: संस्कृत काव्यशास्त्र की छाया

हिंदी आलोचना की जड़ें संस्कृत के काव्यशास्त्र में निहित हैं। भरतमुनि का ‘नाट्यशास्त्र’, आनंदवर्धन का ‘ध्वन्यालोक’, भामह, दंडी, वामन, और मम्मट जैसे आचार्यों के ग्रंथों ने काव्य के रस, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, और औचित्य जैसे सिद्धांतों की स्थापना की। इन सिद्धांतों का प्रभाव हिंदी साहित्य पर भी पड़ा, विशेषकर भक्तिकाल और रीतिकाल में, जहाँ कवियों ने इन सिद्धांतों के आधार पर रचनाएँ कीं।

  • भक्ति और रीतिकाल में हिंदी कवियों ने संस्कृत परंपरा को आधार बनाकर काव्य रचते हुए उसका प्रयोग किया। सूरदास की साहित्य लहरी, नंददास की रस मंजरी में नायिका–नायक भेद संस्कृत सिद्धांतों से प्रेरित दिखते हैं

  • केशवदास ने कविप्रिया और रसिकप्रिया जैसी कृतियों में काव्यशास्त्र के नियमों को ब्रजभाषा में लिखकर काव्यशास्त्र की शिक्षा दी


2. भारतेंदु युग (1875–1903): आधुनिक आलोचना की नींव

भारतेंदु युग (1875–1903) हिंदी साहित्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण कालखंड है, जिसे आधुनिक हिंदी आलोचना की नींव रखने वाला युग माना जाता है। इस युग में साहित्यिक चेतना, सामाजिक जागरूकता और आलोचनात्मक दृष्टिकोण का समन्वय हुआ, जिससे हिंदी आलोचना का आधुनिक स्वरूप विकसित हुआ।

  •  आधुनिक आलोचना की शुरुआत – भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी साहित्य में आधुनिक आलोचना की शुरुआत की। उन्होंने नाटकों की समीक्षा करते हुए उनके स्वरूप, विषयवस्तु और सामाजिक प्रभाव पर विचार किया। उनके निबंध ‘नाटक’ में नाट्यशास्त्र की उपयोगिता और समसामयिक जीवन की रुचियों के संदर्भ में नाटकों की आवश्यकता पर चर्चा की गई है।
  •  पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से आलोचना का विकास – इस युग में ‘कविवचनसुधा’, ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’, ‘हिंदी प्रदीप’, ‘भारत मित्र’, ‘ब्राह्मण’ और ‘आनंद कादम्बिनी’ जैसी पत्रिकाओं ने साहित्यिक आलोचना को मंच प्रदान किया। इन पत्रिकाओं में पुस्तकों की समीक्षाएँ प्रकाशित होती थीं, जो प्रारंभ में परिचयात्मक थीं, लेकिन धीरे-धीरे उनमें विश्लेषणात्मक गहराई आई।

  • व्यावहारिक आलोचना का आरंभ – भारतेंदु युग में व्यावहारिक आलोचना की शुरुआत हुई। बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ और बालकृष्ण भट्ट ने साहित्यिक कृतियों की गुण-दोष के आधार पर समीक्षा की। प्रेमघन ने ‘आनंद कादम्बिनी’ में बाणभट्ट की ‘कादंबरी’ की प्रशंसात्मक समीक्षा की, जबकि बालकृष्ण भट्ट ने ‘हिंदी प्रदीप’ में ‘संयोगिता स्वयंवर’ नाटक की आलोचना की।
  •  सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना – इस युग की आलोचना में सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। आलोचकों ने साहित्य को समाज सुधार का माध्यम माना और बाल-विवाह, पर्दा-प्रथा, नारी अशिक्षा जैसी कुरीतियों के विरोध में साहित्यिक रचनाओं की समीक्षा की। 

  • आधुनिक आलोचना के बीज – ने कविप्रिया और रसिकप्रिया जैसी कृतियों में काव्यशास्त्र के नियमों को ब्रजभाषा में लिखकर काव्यशास्त्र की शिक्षा दी


3. द्विवेदी युग (1903–1920): आलोचना का सैद्धांतिक विकास

महावीरप्रसाद द्विवेदी के नेतृत्व में हिंदी आलोचना ने सैद्धांतिक आधार प्राप्त किया। उन्होंने ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से साहित्यिक मापदंड स्थापित किए और भाषा की शुद्धता, शैली की गंभीरता, और विषय की उपयोगिता पर बल दिया। द्विवेदी जी ने आलोचना को एक विधा के रूप में प्रतिष्ठित किया और साहित्यिक रचनाओं के गुण-दोषों का विश्लेषण करना प्रारंभ किया।

3.1 आलोचना के स्वरूप का विकास

द्विवेदी युग में आलोचना के निम्नलिखित प्रमुख स्वरूप विकसित हुए:

  • शास्त्रीय आलोचना: लक्षण ग्रंथों की परंपरा में काव्यांगों का विवेचन।

  • तुलनात्मक मूल्यांकन: कवियों और काव्यधाराओं की तुलना कर श्रेष्ठता का निर्धारण।

  • अनुसंधानपरक आलोचना: साहित्यिक स्रोतों का खोजपरक अध्ययन।

  • परिचयात्मक आलोचना: रचनाकारों और उनकी कृतियों का परिचयात्मक विश्लेषण।

  • व्याख्यात्मक आलोचना: रचनाओं की गहन व्याख्या और विश्लेषण।

इन पद्धतियों के माध्यम से आलोचना ने एक व्यवस्थित और वैज्ञानिक रूप प्राप्त किया।


4. शुक्ल युग (1920–1936): वैज्ञानिक और वस्तुनिष्ठ आलोचना

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी आलोचना को वैज्ञानिक और वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण प्रदान किया। उन्होंने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ जैसी कृति के माध्यम से साहित्य के विकास को सामाजिक-आर्थिक संदर्भों में देखा। शुक्ल जी ने साहित्य में ‘लोकमंगल’ की भावना को महत्वपूर्ण माना और रस, अलंकार, और शैली के साथ-साथ सामाजिक उपयोगिता पर भी बल दिया। उनकी आलोचना में गहन विश्लेषण, तर्कसंगतता, और व्यापक दृष्टिकोण दिखाई देता है।

4.1 वैज्ञानिक और वस्तुनिष्ठ आलोचना की विशेषताएँ

  • वस्तुनिष्ठता का आग्रह: शुक्ल जी ने आलोचना को व्यक्तिगत पसंद-नापसंद से मुक्त कर, तर्कसंगत और प्रमाणिक आधारों पर आधारित किया। उन्होंने साहित्यिक कृतियों का मूल्यांकन सामाजिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदर्भों में किया।
  • सैद्धांतिक आलोचना का विकास: शुक्ल जी ने भारतीय और पाश्चात्य काव्यशास्त्रों का समन्वय करते हुए ‘रसमीमांसा’, ‘कविता क्या है’, ‘काव्य में रहस्यवाद’ जैसे ग्रंथों के माध्यम से आलोचना के सिद्धांतों की स्थापना की।

  • लोकमंगल की अवधारणा: उन्होंने साहित्य को लोकमंगल का साधन माना और रचनाओं में सामाजिक उपयोगिता और नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा पर बल दिया।

  • कवियों की अंतर्वृत्ति का विश्लेषण: शुक्ल जी ने सूरदास, तुलसीदास और जायसी जैसे कवियों की कृतियों का विश्लेषण करते हुए उनकी मानसिक प्रवृत्तियों और रचनात्मक दृष्टिकोण को उजागर किया।

4.2  प्रमुख आलोचक और ग्रंथ

  • बाबू गुलाबराय: ‘सिद्धांत और अध्ययन’, ‘काव्य के रूप’ जैसे ग्रंथों के माध्यम से उन्होंने आलोचना को समृद्ध किया।

  • पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी: ‘विश्व साहित्य’ और ‘हिंदी कथा साहित्य’ पर उनके कार्य उल्लेखनीय हैं।

  • लक्ष्मीनारायण सुधांशु: ‘काव्य में अभिव्यंजनावाद’ जैसे ग्रंथों के माध्यम से उन्होंने आलोचना में नई दृष्टि प्रदान की।

  • डॉ. सत्येन्द्र: ‘प्रेमचंद और उनकी कहानी कला’ जैसे ग्रंथों से उन्होंने आलोचना में गहराई प्रदान की।


5. शुक्लोत्तर युग (1936–वर्तमान): विविध आलोचना प्रवृत्तियाँ

शुक्लोत्तर युग में हिंदी आलोचना में विभिन्न प्रवृत्तियों और विचारधाराओं का समावेश हुआ:

5.1 प्रगतिवादी आलोचना

प्रगतिवादी आलोचना ने साहित्य को सामाजिक परिवर्तन का उपकरण माना। रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध, और नामवर सिंह जैसे आलोचकों ने साहित्य को वर्ग-संघर्ष, शोषण, और सामाजिक न्याय के संदर्भ में देखा। रामविलास शर्मा ने ‘प्रेमचंद और उनका युग’ जैसी कृति में प्रेमचंद के साहित्य का समाजशास्त्रीय विश्लेषण प्रस्तुत किया।

5.2 प्रयोगवाद और नई कविता

1950 के दशक में प्रयोगवाद और नई कविता आंदोलन के प्रभाव से हिंदी आलोचना में नई प्रवृत्तियाँ आईं। अज्ञेय, विजयदेव नारायण साही, और नामवर सिंह ने साहित्य में आत्मान्वेषण, प्रतीकात्मकता, और भाषा की नवीनता पर बल दिया। नामवर सिंह की ‘कविता के नए प्रतिमान’ और ‘दूसरी परंपरा की खोज’ जैसी कृतियाँ इस दिशा में महत्वपूर्ण हैं।

5.3 मनोविश्लेषणात्मक और संरचनावादी आलोचना

मनोविश्लेषणात्मक आलोचना ने साहित्यिक पात्रों और रचनाओं के मनोवैज्ञानिक पहलुओं का विश्लेषण किया। संरचनावादी आलोचना ने रचना की संरचना, भाषा, और पाठ के अंतःसंबंधों पर ध्यान केंद्रित किया। इन प्रवृत्तियों ने हिंदी आलोचना को वैश्विक आलोचना सिद्धांतों से जोड़ा।


6. समकालीन आलोचना: बहुविध दृष्टिकोण

वर्तमान में हिंदी आलोचना बहुविध दृष्टिकोणों को समाहित कर रही है:

  • नारीवादी आलोचना: स्त्री अनुभवों, अधिकारों, और अभिव्यक्तियों पर केंद्रित।

  • दलित आलोचना: दलित अनुभवों, शोषण, और सामाजिक न्याय की मांग पर आधारित।

  • आदिवासी आलोचना: आदिवासी जीवन, संस्कृति, और संघर्षों को केंद्र में रखती है।

इन प्रवृत्तियों ने हिंदी आलोचना को विविधता और समावेशिता प्रदान की है।


निष्कर्ष

हिंदी आलोचना का विकास एक सतत प्रक्रिया रही है, जो समय, समाज, और विचारधाराओं के प्रभाव में निरंतर परिवर्तित होती रही है। प्रारंभिक संस्कृत काव्यशास्त्र से लेकर समकालीन बहुविध दृष्टिकोणों तक, हिंदी आलोचना ने साहित्य को समझने, मूल्यांकन करने, और समाज से जोड़ने का कार्य किया है। यह विकास न केवल साहित्यिक समृद्धि का प्रतीक है, बल्कि सामाजिक चेतना और परिवर्तन का भी द्योतक है।


♦️वस्तुनिष्ठ प्रश्न♦️

1➤ हिंदी आलोचना की जड़ें किस परंपरा में निहित हैं?





2➤ आधुनिक हिंदी आलोचना की नींव किस युग में रखी गई?





3➤ ‘नाटक’ नामक आलोचनात्मक निबंध किसने लिखा?





4➤ ’प्रेमघन’ ने किस ग्रंथ की प्रशंसात्मक समीक्षा की?





5➤ भारतेंदु युग की आलोचना में प्रमुख रूप से किस चेतना का प्रभाव था?





6➤ द्विवेदी युग की आलोचना में किस पत्रिका की प्रमुख भूमिका रही?





7➤ अनुसंधानपरक आलोचना का संबंध किससे है?





8➤ ‘कविता के नए प्रतिमान’ के लेखक कौन हैं?





9➤ शुक्ल युग में आलोचना किस विशेष दृष्टिकोण से विकसित हुई?





10➤ ‘प्रेमचंद और उनकी कहानी कला’ किस आलोचक की कृति है?





11➤ ‘काव्य में अभिव्यंजनावाद’ किसका ग्रंथ है?





12➤ ‘प्रेमचंद और उनका युग’ किस आलोचक द्वारा रचित है?





13➤ मनोविश्लेषणात्मक आलोचना मुख्यतः किस पक्ष पर केंद्रित होती है?





14➤ बहुविध आलोचना का अर्थ है—





15➤ हिंदी आलोचना की विकास यात्रा किस मूल उद्देश्य से जुड़ी रही है?





 

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