प्रस्तावना
स्त्री विमर्श आधुनिक आलोचना और सामाजिक चिंतन का एक महत्वपूर्ण आयाम है, जो स्त्रियों के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और साहित्यिक अनुभवों की विश्लेषणात्मक व्याख्या करता है। यह विमर्श पितृसत्तात्मक संरचनाओं और उनके द्वारा बनाए गए स्त्री के अधीनस्थ स्थान को चुनौती देता है और समानता, स्वतंत्रता तथा आत्मनिर्भरता की मांग करता है। स्त्री विमर्श केवल लैंगिक असमानता को उजागर नहीं करता, बल्कि स्त्रियों की चेतना, संघर्ष, अधिकार और पहचान के प्रश्नों को भी सामने लाता है। साहित्य, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, इतिहास और राजनीति जैसे विविध क्षेत्रों में स्त्री विमर्श ने नई दृष्टियों को जन्म दिया है।
स्त्री विमर्श की अवधारणा
स्त्री विमर्श का मूल उद्देश्य स्त्रियों के अनुभवों को केंद्र में लाकर, उनकी सामाजिक स्थिति, अधिकारों और संघर्षों पर विमर्श करना है। यह विचारधारा इस तथ्य को स्वीकार करती है कि इतिहास और समाज की मुख्यधारा ने स्त्री को हमेशा द्वितीयक स्थान पर रखा है। इसलिए, स्त्री विमर्श एक विरोधात्मक विचारधारा के रूप में उभरा, जो समाज में व्याप्त लैंगिक असमानता, पितृसत्तात्मक शोषण और स्त्री की हाशिए पर पड़ी स्थिति को बदलने की कोशिश करता है।
स्त्री विमर्श यह मानता है कि स्त्रियों की समस्याएं केवल जैविक भिन्नताओं के कारण नहीं हैं, बल्कि वे सामाजिक संरचनाओं, धार्मिक मान्यताओं, सांस्कृतिक परंपराओं और भाषाई प्रतीकों द्वारा निर्मित हैं। इसलिए, स्त्री विमर्श उन सभी आयामों की पड़ताल करता है जो स्त्री को गुलाम बनाने की प्रक्रिया में योगदान करते हैं।
स्त्री विमर्श का इतिहास
स्त्री विमर्श की जड़ें पश्चिमी समाज में 18वीं सदी में पाई जाती हैं। मैरी वोल्स्टोनक्राफ्ट की पुस्तक “A Vindication of the Rights of Woman” (1792) को स्त्री विमर्श का प्रारंभिक घोषणापत्र माना जाता है। इसके बाद सिमोन द बउवुआर की “The Second Sex” (1949) ने स्त्री विमर्श को दार्शनिक आधार प्रदान किया। सिमोन ने लिखा – “One is not born, but rather becomes, a woman”, अर्थात कोई स्त्री पैदा नहीं होती, बल्कि बनाई जाती है। यह विचार स्त्री की सामाजिक स्थिति की संरचनात्मक व्याख्या करता है।
20वीं सदी में बेट्टी फ्रीडन (The Feminine Mystique), केट मिलेट (Sexual Politics), जूलिया क्रिस्टेवा, लूस इरिगारे, हेलेन सिक्सू जैसी लेखिकाओं ने स्त्री विमर्श को और गहराई दी। उन्होंने भाषा, मनोविज्ञान और संस्कृति के माध्यम से स्त्री को समझने की कोशिश की।
भारतीय संदर्भ में स्त्री विमर्श
भारत में स्त्री विमर्श की परंपरा आधुनिकता के साथ विकसित हुई, हालांकि इसके बीज प्राचीन और मध्यकालीन साहित्य में भी मिलते हैं। स्त्रियों की स्थिति की आलोचना 19वीं सदी के सामाजिक सुधार आंदोलनों से शुरू हुई, जिसमें राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, महात्मा फुले, सावित्रीबाई फुले आदि ने महत्वपूर्ण योगदान दिया।
महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन में स्त्रियों को जोड़ते हुए उनके सामाजिक उत्थान की दिशा में कार्य किया। आज़ादी के बाद भारत में स्त्रियों की स्थिति पर पुनर्विचार प्रारंभ हुआ और 1970 के दशक में स्त्री आंदोलन और साहित्यिक विमर्श ने गति पकड़ी।
हिंदी साहित्य और स्त्री विमर्श
हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श का उभरना 20वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुआ। हालांकि, महादेवी वर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान जैसी कवयित्रियों ने पहले भी स्त्री जीवन की पीड़ा को स्वर दिया, लेकिन वे स्वयं को स्त्री विमर्श से नहीं जोड़ती थीं।
स्त्री विमर्श को साहित्यिक आंदोलन के रूप में प्रतिष्ठा 1980 के दशक में मिली। इस समय निर्मला पुतुल, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा, अनामिका, सुधा अरोड़ा, मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, कमला भसीन, प्रभा खेतान जैसी लेखिकाओं ने स्त्री जीवन के विविध अनुभवों को केंद्र में रखकर रचनाएँ प्रस्तुत कीं।
प्रमुख लेखिकाएँ और उनकी रचनाएँ
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कमला भसीन – एक प्रमुख स्त्रीवादी विचारक और कार्यकर्ता हैं। , जिन्होंने “औरत की असली जगह” जैसी पुस्तकों के माध्यम से भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति की सच्चाई को सामने रखा।
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मन्नू भंडारी – उनकी कहानी “यही सच है” (जिस पर रजनीगंधा फिल्म बनी) में स्त्री के भावनात्मक द्वंद्व और आत्मनिर्णय की स्वतंत्रता को उभारा गया।
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कृष्णा सोबती – “जिंदगीनामा”, “मित्रो मरजानी”, “दिलो-दानिश” जैसी रचनाओं में स्त्री की यौनिकता, आत्मस्वीकृति और आत्मविश्वास के विषयों को मुखरता से प्रस्तुत किया।
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मैत्रेयी पुष्पा – “इदन्नमम”, “चाक”, “गुड़िया भीतर गुड़िया” जैसी आत्मकथात्मक और उपन्यासात्मक रचनाओं में ग्रामीण और निम्नवर्गीय स्त्री की पहचान, संघर्ष और विद्रोह को सशक्त रूप से व्यक्त किया।
स्त्री विमर्श के प्रमुख मुद्दे
1. पितृसत्ता का विरोध
स्त्री विमर्श पितृसत्ता की उस व्यवस्था को चुनौती देता है जिसमें पुरुष को सत्ता, निर्णय और संसाधनों पर पूर्ण अधिकार होता है। यह व्यवस्था स्त्री को केवल सहनशील, आज्ञाकारी और सेवा भाव वाली भूमिका में सीमित करती है।
2. देह और यौनिकता का विमर्श
स्त्री विमर्श स्त्री की यौनिकता को भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा मानता है। वह इस बात को अस्वीकार करता है कि स्त्री की देह पर पुरुष का अधिकार हो। कृष्णा सोबती, मैत्रेयी पुष्पा, तस्लीमा नसरीन जैसी लेखिकाओं ने इस मुद्दे को प्रमुखता दी है।
3. शिक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता
शिक्षा और आत्मनिर्भरता को स्त्री विमर्श स्त्री मुक्ति का मूल साधन मानता है। जब तक स्त्री को अपने जीवन के निर्णय स्वयं लेने की क्षमता नहीं मिलती, तब तक वास्तविक स्वतंत्रता संभव नहीं।
4. विवाह, मातृत्व और परिवार की भूमिका
स्त्री विमर्श पारंपरिक विवाह संस्था, मातृत्व और परिवार के ढांचे की भी आलोचना करता है। वह इन संस्थाओं के भीतर स्त्री के अधीनस्थ स्थान की पहचान कर उन्हें स्त्री विरोधी मान्यताओं से मुक्त करने की मांग करता है।
5. भाषा और साहित्य में स्त्री की उपस्थिति
स्त्री विमर्श भाषा की संरचना में छिपे लिंगभेद की भी आलोचना करता है। उदाहरणतः, “मानव” शब्द को ही सामान्य मानकर स्त्री को अदृश्य कर देना। अब स्त्रियाँ ‘लेखिका’, ‘कवयित्री’, ‘समीक्षिका’ आदि की संज्ञा के साथ अपनी विशिष्ट उपस्थिति दर्ज करा रही हैं।
समकालीन स्त्री विमर्श की चुनौतियाँ
आज स्त्री विमर्श की परिधि केवल पुरुष बनाम स्त्री के संघर्ष तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें वर्ग, जाति, धर्म, नस्ल, यौनिकता आदि के आयाम भी जुड़ चुके हैं। दलित स्त्री विमर्श, आदिवासी स्त्री विमर्श और समलैंगिक स्त्री विमर्श इस आंदोलन को अधिक समावेशी और जटिल बना रहे हैं।
दलित और आदिवासी स्त्रियाँ दोहरे शोषण का सामना करती हैं – एक ओर जातिगत/जनजातीय शोषण और दूसरी ओर स्त्री होने के नाते लैंगिक शोषण। इसलिए उनका अनुभव मुख्यधारा स्त्री विमर्श से अलग होता है।
स्त्री विमर्श के लाभ और सामाजिक प्रभाव
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चेतना का विकास – स्त्री विमर्श ने स्त्रियों में आत्मबोध और आत्मसम्मान की भावना को बढ़ाया है।
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साहित्य में विविधता – इससे साहित्य में स्त्री अनुभवों की विविधता और गहराई आई है।
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कानूनी सुधार – स्त्री आंदोलनों के कारण घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न जैसे अपराधों पर कानून बने।
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सामाजिक संवाद – समाज में लैंगिक न्याय और समानता को लेकर एक खुला विमर्श संभव हुआ।
निष्कर्ष
स्त्री विमर्श नारी स्वाधीनता का घोष है, जो यह कहता है कि स्त्री केवल भोग्या नहीं, उपभोग की वस्तु नहीं, वह एक स्वतंत्र, संवेदनशील और विवेकशील मनुष्य है। स्त्री विमर्श कोई युद्ध का घोष नहीं, बल्कि समता की पुकार है। इसका उद्देश्य केवल पुरुष विरोध नहीं, बल्कि ऐसी सामाजिक संरचना की स्थापना है जहाँ स्त्री और पुरुष दोनों की गरिमा, स्वतंत्रता और अधिकार समान हों।
आज जबकि दुनिया तेजी से बदल रही है, स्त्री विमर्श और भी प्रासंगिक हो गया है। यह न केवल स्त्रियों को, बल्कि पूरे समाज को अधिक न्यायपूर्ण, समतामूलक और संवेदनशील बना सकता है। इसलिए, स्त्री विमर्श को केवल स्त्रियों का आंदोलन न मानकर, एक मानवीय और सामाजिक सुधार की प्रक्रिया के रूप में देखना चाहिए।
♦️वस्तुनिष्ठ प्रश्न♦️
1➤ स्त्री विमर्श का मुख्य उद्देश्य क्या है?
2➤ स्त्री विमर्श किस व्यवस्था को चुनौती देता है?
3➤ स्त्री विमर्श का प्रारंभिक घोषणापत्र मानी जाने वाली पुस्तक ” A Vindication of the Rights of Woman” किसने लिखी?
4➤ “कोई स्त्री पैदा नहीं होती, बल्कि बनाई जाती है” – यह किसने कहा?
5➤ “द सेकंड सेक्स” पुस्तक किसकी रचना है?
6➤ भारत में स्त्री सुधार आंदोलनों की शुरुआत किस सदी में हुई?
7➤ “यही सच है” कहानी की लेखिका कौन हैं?
8➤ “मित्रो मरजानी” किसकी रचना है?
9➤ “औरत की असली जगह” पुस्तक किसकी है?
10➤ किस लेखिका की रचना पर फिल्म “रजनीगंधा” बनी?
11➤ स्त्री विमर्श किस प्रकार की सामाजिक संरचना का विरोध करता है?
12➤ “स्त्री विमर्श कोई युद्ध का घोष नहीं…” – इस कथन से विमर्श का कौन-सा स्वर उजागर होता है?
13➤ स्त्री विमर्श की दृष्टि से शिक्षा किसका माध्यम है?