प्रस्तावना
भारतवर्ष की एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक विशेषता यह है कि यहां की भाषाओं में विविधता और समृद्धि देखने को मिलती है। भारतीय आर्यभाषाओं के विकासक्रम में खड़ी बोली का एक विशेष स्थान है, जो आज की मानक हिंदी और सरकारी हिंदी का आधार बन चुकी है। इस लेख में साहित्यिक हिंदी के रूप में खड़ी बोली के उदय और विकास की ऐतिहासिक, सामाजिक और साहित्यिक परिस्थितियों का विवेचन किया गया है।
खड़ी बोली की भौगोलिक और भाषिक पृष्ठभूमि
खड़ी बोली हिंदी की एक प्रमुख उपभाषा है, जिसका विकास पश्चिमी उत्तर प्रदेश (विशेषतः दिल्ली, मेरठ, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर और आसपास के क्षेत्रों) में हुआ। इसका नाम ’खड़ी’ इसलिए पड़ा क्योंकि यह बोली स्पष्ट, सशक्त और अपेक्षाकृत सीधे उच्चारण वाली मानी जाती है। भाषावैज्ञानिक दृष्टि से यह पश्चिमी हिंदी समूह की बोली है, जिसमें ब्रज, कन्नौजी, हरियाणवी, और बागड़ी भी शामिल हैं।
प्रारंभिक कालः बोलचाल से साहित्य की ओर
15वीं से 18वीं शताब्दी तक खड़ी बोली सामान्यतः जनसंचार की भाषा थी, जबकि साहित्य में ब्रजभाषा और अवधी का वर्चस्व था। इससे पहले आदिकाल में हमें अमीर खुसरो की रचनाओं में खड़ी बोली का प्रयोग देखने को मिलता है। कुछ सूफी कवियों (जैसे कबीर और रहीम) के द्वारा भी इसका प्रयोग किया गया, किंतु उस समय यह एक स्पष्ट साहित्यिक शैली के रूप में उभर कर सामने नहीं आ पाई। हालाँकि, दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में यह बोलचाल की प्रमुख भाषा बन चुकी थी और धीरे-धीरे इसे लेखन की भाषा के रूप में अपनाने के प्रयास किए गए।
ब्रिटिश काल और प्रिंटिंग प्रेस का प्रभाव
19वीं शताब्दी में खड़ी बोली का साहित्यिक विकास देखने को मिलने लगा। इसके पीछे कई प्रमुख कारण थे, जो इस प्रकार हैं-
(क) ब्रिटिश शासन और शिक्षा प्रणाली
- ब्रिटिश सरकार द्वारा आधुनिक शिक्षा प्रणाली की स्थापना और मुद्रण प्रेस के प्रयोग ने खड़ी बोली के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- सन् 1800 ई. में कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की गई। इस कॉलेज ने खड़ी बोली को साहित्यिक भाषा के रूप में विकसित करने का कार्य किया।
- फोर्ट विलियम कॉलेज में लल्लूलाल और सदल मिश्र ने खड़ी बोली में गद्य लेखन की नींव रखी।
(ख) प्रकाशन उद्योग का विकास
19वीं सदी के मध्य में जब हिंदी के समाचारपत्र और पत्रिकाएँ (जैसे उदंत मार्तंड, सुधाकर, आदि) प्रकाशित होने लगे, तब खड़ी बोली को गद्य भाषा के रूप में अपनाया जाने लगा, क्योंकि यह सरल, स्पष्ट और तर्कसंगत लगती थी।
भारतेंदु युग और खड़ी बोली का साहित्यिक उन्नयन
- भारतेंदु हरिश्चंद्र (1850-1885) को आधुनिक हिंदी साहित्य का जन्मदाता कहा जाता है। उन्होंने खड़ी बोली को साहित्यिक माध्यम के रूप में प्रतिष्ठा दिलाई। उनके कार्यों में सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक चेतना का समावेश था।
- उन्होंने खड़ी बोली में हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं पर रचनाएं लिखीं। जिससे अन्य लेखक भी प्रेरित हुए।
- भारतेंदु युग में खड़ी बोली ने हिंदी साहित्य में ब्रज भाषा के वर्चस्व को समाप्त कर अपना विस्तार शुरू कर दिया।
द्विवेदी युगः भाषा और शैली का परिष्कार
- द्विवेदी युग (1900 -1920), जिसका नेतृत्व आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने किया, खड़ी बोली के परिष्कार और मानकीकरण का युग था।
- उन्होंने सरस्वती पत्रिका के माध्यम से खड़ी बोली को व्याकरणसम्मत, संस्कृतनिष्ठ और अनुशासित रूप में प्रस्तुत किया।
- इस काल में महावीर प्रसाद द्विवेदी, मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, श्रीधर पाठक आदि लेखकों ने खड़ी बोली को गद्य और पद्य दोनों की भाषा बनाने में अहम भूमिका निभाई।
प्रेमचंद और गद्य परंपरा का उत्कर्ष
- प्रेमचंद (1880 -1936) को खड़ी बोली हिंदी गद्य का शिल्पी कहा जाता है।
- उन्होंने खड़ी बोली को ग्रामीण जीवन, सामाजिक अन्याय, वर्ग संघर्ष और यथार्थ को व्यक्त करने का माध्यम बनाया।
- उनके उपन्यास (गोदान, गबन, निर्मला) और कहानियाँ (पूस की रात, ईदगाह) खड़ी बोली में यथार्थवादी शैली का उत्कर्ष हैं।
- प्रेमचंद ने जिस खड़ी बोली का प्रयोग किया, वह आम जन के बहुत करीब मालूम होती है। उसमें हमें किसी भी प्रकार की क्लिष्टता देखने को नहीं मिलती।
छायावाद युग और काव्यशैली में परिष्कार
- छायावाद युग (1920 -1936) में खड़ी बोली को अत्यंत सुरुचिपूर्ण और काव्यात्मक अभिव्यक्ति मिली।
- जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ’निराला’, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा ने खड़ी बोली का संगीतात्मक और अभिव्यंजक भाषा के रूप में प्रयोग किया।
- इस युग में खड़ी बोली ब्रजभाषा की काव्यात्मक परंपरा को आत्मसात करते हुए एक नए सौंदर्यबोध के साथ आगे बढ़ी।
प्रगतिवाद, नई कविता और समकालीन साहित्य
- प्रगतिवादी आंदोलन (1936-1950) ने समाज में परिवर्तन लाने के लिए खड़ी बोली का प्रयोग किया।
- नागार्जुन, रामवृक्ष बेनीपुरी, राहुल सांकृत्यायन, मुक्तिबोध आदि लेखकों ने खड़ी बोली को विचारों की शक्ति दी।
- नई कविता और समकालीन साहित्य में अज्ञेय, केदारनाथ सिंह, शमशेर बहादुर सिंह, और अन्य कवियों ने इसे आधुनिक संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।
खड़ी बोली की वर्तमान स्थिति
- शैक्षिक स्तर पर – आज खड़ी बोली विद्यालयों, विश्वविद्यालयों और प्रतियोगी परीक्षाओं की मुख्य भाषा बन चुकी है।
- माध्यमों में – समाचार, साहित्य, सोशल मीडिया, फिल्मों, वेब सीरीज, और विज्ञापन में खड़ी बोली का वर्चस्व दिखाई देता है।
- साहित्यिक परिदृश्य में – कविता, कथा, नाटक, निबंध, आत्मकथा, आलोचना आदि हिंदी साहित्य की सभी विधाओं में खड़ी बोली का प्रयोग किया जा रहा है।
निष्कर्ष
साहित्यिक हिंदी के रूप में खड़ी बोली का विकास एक ऐतिहासिक, सामाजिक और साहित्यिक यात्रा का परिणाम है। इसकी जड़ें जनभाषा में हैं, लेकिन इसकी शाखाएँ आधुनिकता, यथार्थ और कलात्मकता की दिशा में फैली हैं। आज यह न केवल एक भाषा है, बल्कि भारत की सांस्कृतिक चेतना की अभिव्यक्ति भी है। समय के साथ खड़ी बोली ने स्वयं को परिवर्तित किया, समृद्ध किया और एक जीवंत साहित्यिक परंपरा का निर्माण किया।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1➤ खड़ी बोली का प्रमुख विकास किस क्षेत्र में हुआ?
2➤ ‘फोर्ट विलियम कॉलेज’ की स्थापना कब हुई थी?
3➤ ‘उदंत मार्तंड’ क्या था?
4➤ खड़ी बोली को साहित्यिक प्रतिष्ठा किस युग में मिली?
5➤ सरस्वती पत्रिका के संपादक कौन थे, जिन्होंने खड़ी बोली को परिष्कृत किया?
6➤ खड़ी बोली को गद्य की भाषा सबसे पहले किसने बनाया?
7➤ खड़ी बोली किस भाषा परिवार की उपभाषा है?
8➤ निम्न में से कौन सी बोली खड़ी बोली के अंतर्गत आती है?
9➤ गोदान के लेखक कौन हैं ?
10➤ आज की मानक हिंदी का आधार कौन सी बोली है?