लोक-साहित्य : पारिभाषिक स्वरूप एवं तत्व

भूमिका

भारतीय संस्कृति की जड़ों में लोक-समाज की स्मृतियाँ, अनुभव, आस्थाएँ, संवेदनाएँ और मान्यताएँ जिस रूप में संरक्षित हैं, उन्हें सामूहिक रूप से लोक-साहित्य कहा जाता है। यह साहित्य पुस्तकों में जन्म नहीं लेता, न ही किसी प्रतिष्ठित साहित्यकार का निजी सृजन होता है। यह लोक-चेतना की धड़कनों से निर्मित होता है और मौखिक परंपरा के माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होता रहता है। लोक-साहित्य किसी संस्कृति का भाषा-रहित प्रमाण–पत्र होता है, जो उस समाज की ऐतिहासिक अनुभूतियों, संघर्षों, त्यौहारों, दुःख और सुख की कहानी कहता है। इसलिए लोक-साहित्य को सभ्यता के विकास का जीवित दस्तावेज माना गया है।

लोक-साहित्य के माध्यम से मानव-जाति के आदि–अनुभव, कृषि और पशुपालन आधारित जीवन, सामूहिकता, श्रम-संस्कृति, प्रकृति-पूजा, देवी-देवताओं के रूपक, सामाजिक प्रतिबंध, नैतिक मूल्य आदि विरासत के रूप में स्थानांतरित होते हैं। साथ ही यह भी ध्यान देने योग्य है कि यह साहित्य केवल मनोरंजन का साधन न होकर लोकजीवन का दर्शन है। यहां हम लोक-साहित्य के पारिभाषिक स्वरूप और इसके प्रमुख तत्त्वों का विस्तृत विवेचन करेंगे।


लोक-साहित्य का पारिभाषिक अर्थ

‘लोक’ शब्द संस्कृत धातु ‘लुज्’ से बना है जिसका आशय है—लपेटना, समेटना, समाविष्ट करना। अतः लोक शब्द उस विशाल समुदाय के लिए प्रयुक्त होता है जिसे लिखित साहित्य की अपेक्षा मौखिक परंपराएँ अधिक निर्देशित करती हैं।

‘साहित्य’ का सामान्य अर्थ है—विचारों, भावनाओं, अनुभवों की अभिव्यक्ति

इस प्रकार लोक-साहित्य वह साहित्य है जो लोक-मानस की सामूहिक रचना है, जो मौखिक परंपरा से पीढ़ियों तक जीवित रहता है, जिसका कोई निश्चित लेखक नहीं होता, जो सामूहिक अनुभव का वाहक है और जो लोक-भाषाओं एवं बोलियों में प्रकाशित होता है।

परिभाषाएँ

  1. रामचंद्र शुक्ल के अनुसार—
    “लोक-मंगल की भावना से प्रेरित जन-समुदाय की भाषा में व्यक्त मौखिक साहित्य ही लोक-साहित्य है।”

  2. हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं—
    “लोक-साहित्य वह है, जिसे जनता ने पैदा किया है और जनता ही उसे जीती और गाती है।”

  3. ऑक्सफॉर्ड शब्दकोश के अनुसार—
    Folklore is the traditional beliefs, myths, tales, and practices of a people transmitted orally.

इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि लोक-साहित्य के केन्द्र में लोक जीवन है, न कि कोई विशिष्ट साहित्यकार या शालीन रसिक–वर्ग। इसमें भाषा की जटिलता से अधिक महत्वपूर्ण है सहजता, भावात्मक अनुभूति और सामाजिक साझेदारी।


लोक-साहित्य की विशेषताएँ

लोक-साहित्य को पारिभाषिक रूप से पहचानने के लिए इसकी प्रमुख विशेषताओं का अध्ययन महत्वपूर्ण है। ये विशेषताएं इस प्रकार हैं:

  1. मौखिक परंपरा
    लिखित साहित्य के अभाव में स्मृति ही इसका भंडार है। समय के साथ शब्द बदलते हैं पर भाव वही रहता है।

  2. सामूहिकता
    इसमें ‘मैं’ का स्वर लुप्त होकर ‘हम’ में परिवर्तित हो जाता है। यह व्यक्ति की नहीं समाज की चेतना है।

  3. अनामत्व
    इसमें किसी रचना को व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं दिया जाता। रचनाकार समय, समाज और परिस्थिति होते हैं।

  4. सरल भाषा
    इसमें चुस्त, सहज, मुहावरेदार, लोक-बोलियों की भाषा (जिसमें जीवन की गंध होती है।) प्रयुक्त होती है।

  5. संगीतात्मकता और लय
    इसमें लोकगीतों की लय श्रम से ताल मिलाती हुई दिखाई देती है, जैसे—धान रोपते समय, चक्की चलाते समय।

  6. प्रकृति प्रेम
    इसमें बादल, वर्षा, नदी, पहाड़, पशु-पक्षी को परिवार का हिस्सा माना जाता है।

  7. शिक्षाप्रद एवं मनोरंजक
    इसकी कहानियों, पहेलियों और कहावतों में नैतिक शिक्षा का सुंदर संतुलन देखने को मिलता है ।

  8. गतिशील और परिवर्तित होने वाला
    समय के साथ इसकी संरचना और शब्दावली बदलते रहते हैं।


लोक-साहित्य के प्रमुख रूप

लोक-साहित्य विषय के तत्त्व-विमर्श का मूल केन्द्र इसके विविध रूप हैं जो सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक परिवेश को संरक्षित करते हैं।

1. लोकगीत

लोकगीत लोक-साहित्य की आत्मा हैं। विभिन्न अवसरों पर गाए जाने वाले गीतों में जीवन का पूरा चक्र समाहित होता है। इनमें

  • जन्म–गीत

  • विवाह–गीत (सोहद, कजरी, बनारसी, गारी)

  • ऋतु–गीत (फाग, चैती, सावन)

  • श्रम–गीत (मछुआरों, नाविकों, चरवाहों के गीत)

  • भक्ति–गीत (कीर्तन, भजन)

आदि शामिल होते हैं। इनमें हमें भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। उदाहरण स्वरूप इन पंक्तियों को देखिए—
“धनि-धनि करत मोरी ससुराल हो, अंखियन नीर भरत।”

2. लोक-कथाएँ

लोक-कथाएँ केवल मनोरंजन ही नहीं, बल्कि जीवन-दर्शन भी हैं। पंचतंत्र, कथासरित्सागर इसी परंपरा की देन माने जाते हैं।
इसमें —

  • परियों और जादू की कहानियाँ

  • पशु–पक्षी कथाएँ

  • वीर योद्धाओं की गाथाएँ

  • नैतिक और दार्शनिक कथाएँ

आदि शामिल होती हैं।

3. लोकगाथा

लोकगाथा जैसे—अल्हा, पावना, जैमल–फत्ता, ढोला–मारू की कहानियाँ आदि लोकनायकों की स्मृति को अमर बनाते हैं।

4. लोकोक्तियाँ और कहावतें

इनमें सदियों के अनुभवों का सघन सार दिखाई देता है । उदाहरण स्वरूप देखें—

  • नाच ना जाने आँगन टेढ़ा

  • जैसी करनी वैसी भरनी

5. पहेलियाँ और टोटके

यह लोकबुद्धि की परीक्षा भी हैं और परंपरा भी, जैसे—
“आगे भी तेरी पूजा, पीछे भी तेरी पूजा; बीच में मेरा धंधा है।”
(उत्तर—चिमटा)

6. रहस्य, टोटके, लोक-विश्वास

चिकित्सा से लेकर फसल तक का लोक-ज्ञान यहाँ देखने को मिलता है।

7. लोक-नाट्य और लोक-नृत्य

रासलीला, नौटंकी, तमाशा, जत्रा, भवाई, धोबी–नाच आदि इसमें दिखाई देते हैं।


लोक-साहित्य के तत्त्वों का विश्लेषण

लोक-साहित्य के तत्त्व ही इसकी आधारशिला हैं। इन्हें निम्न रूपों में समझा जा सकता है—

1. लोक-चेतना

लोक-साहित्य का मूल तत्त्व समूह चेतना है। यह समाज की सामूहिक आकांक्षाओं, इच्छाओं और संघर्षों का संवाहक है।

2. लोक-मान्यताएँ और विश्वास

भूत-प्रेत, देवी-देवता, व्रत-उपवास, शुभ-अशुभ के संकेत, इन सब में मानव की सुरक्षा–कामना छिपी है।

3. सामाजिक प्रतिबिंब

यहां वर्ग-भेद, जातीय संरचना, विवाह-संस्कार, पंचायती व्यवस्था का वर्णन मिलता है। इसमें समाज का यथार्थ  दिखाई देता है।

4. प्रकृति और श्रम-संस्कृति

धरती–माता, नदी–बहन, वृक्ष–देवता—ये सभी लोकदृष्टियां यहां दिखाई देती हैं। इसमें लोकगीतों की लय – खेती करने, नाव खेने, चक्की चलाने की ताल से मिलती हैं।

5. हास्य और व्यंग्य

लोक-साहित्य दुखों का बोझ हल्का करने के लिए हास्य-व्यंग्य का सहारा लेता है।

6. नैतिक और दार्शनिक तत्त्व

लोक-साहित्य की कहानियों और कहावतों में नैतिकता और दार्शनिक तत्व भी छिपे रहते हैं। जैसे-“बूंद-बूंद से घड़ा भरता है” में सिर्फ अर्थशास्त्र ही नहीं धैर्य के भी दर्शन होते हैं।


लोक-साहित्य का सामाजिक महत्व

क्षेत्र योगदान
इतिहास बिना लिखित इतिहास के सभ्यता को जानने का साधन
संस्कृति संरक्षण रीति-रिवाज, पहनावा, भोजन
शिक्षा नैतिक और व्यावहारिक ज्ञान
भाषा बोलियों का संरक्षण
सामूहिकता समाज को जोड़ने का माध्यम
मनोरंजन उत्सव, नृत्य-गीत

लोक-साहित्य ने मनुष्य को दुःख से लड़ना सिखाया, श्रम में उत्साह जगाया और कठिन जीवन में हास्य पैदा किया।


लोक-साहित्य : आधुनिक परिप्रेक्ष्य

आज भी लोक-साहित्य समाप्त नहीं हुआ। वह बदलते रूपों में हमारे साथ है—

  • लोक-गीत अब मंच और टीवी पर गाए जा रहे हैं।

  • कहावतें सोशल मीडिया की ‘स्टेटस लाइनों’ में दिखाई देती हैं।

  • लोक-कथाएँ Web series और एनीमेशन फिल्मों में पुनर्जन्म ले रही हैं।

हालाँकि वर्तमान समय में कई चुनौतियां भी दिखाई देती हैं, जिनमें-

  • लोकभाषाओं का ह्रास

  • पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव

  • उपभोक्तावादी दृष्टि

  • गाँवों का शहरों में विलय

आदि शामिल हैं फिर भी लोक-साहित्य आज भी समाज की आत्मा बना हुआ है।


उपसंहार

लोक-साहित्य मानव सभ्यता के विकास का मूल स्तंभ है। यह समाज का जीवंत इतिहास, जीवन का दर्शन, प्रकृति–उपासना, श्रम–संस्कृति और नैतिक मूल्य–विधान है। इसमें मानव की सामूहिक स्मृति सुरक्षित है। इसलिए लोक-साहित्य मात्र मनोरंजन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक विरासत है। आधुनिक युग में तकनीक ने भले ही इसके प्रारूप को बदल दिया हो, किंतु इसका मूल संवेदन, प्रकृति प्रेम, जीवन की जिजीविषा और सामूहिकता आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है।

अतः कहा जा सकता है कि—
लोक-साहित्य वह अदृश्य सूत्र है जो अतीत, वर्तमान और भविष्य को जोड़ता है, मनुष्य को उसकी जड़ों से परिचित कराता है और सांस्कृतिक अस्तित्व को सुरक्षित रखता है।


वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1➤ लोक-साहित्य किस माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचरित होता है?





2➤ लोक-साहित्य को किसका जीवित दस्तावेज माना जाता है?





3➤ रामचंद्र शुक्ल के अनुसार लोक-साहित्य का प्रेरणा स्रोत है ?





4➤ लोक-साहित्य का रचनाकार कौन माना जाता है?





5➤ लोक-साहित्य में प्रयुक्त भाषा कैसी होती है?





6➤ लोकगीतों में किस तत्व की प्रधानता होती है?





7➤ “जैसी करनी वैसी भरनी” किस विधा से संबंधित है?





8➤ लोक-साहित्य का मूल तत्त्व है—





9➤ लोक-साहित्य भाषा की किन इकाइयों को संरक्षित रखता है?





10➤ लोक-साहित्य का एक सामाजिक योगदान है—





11➤ आधुनिक समय में लोकगीत किस माध्यम से प्रचलित हैं?





12➤ लोक-साहित्य के सामने एक प्रमुख चुनौती है—





13➤ लोक-साहित्य किसको सुरक्षित रखता है?





 

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