प्रस्तावना
भारतीय काव्यशास्त्र में ‘रस’ की अवधारणा अत्यंत प्राचीन एवं मूलभूत मानी जाती है। ‘रस संप्रदाय’ एक ऐसा काव्यशास्त्रीय दृष्टिकोण है जिसने साहित्य के मूल्यांकन में ‘रस’ को सर्वोपरि स्थान दिया। यह संप्रदाय मानता है कि काव्य का प्रधान उद्देश्य रस का संचार है और कवि की सफलता इसी बात में है कि वह पाठक या श्रोता में रस की अनुभूति करा सके। भरतमुनि से लेकर आचार्य मम्मट, विश्वनाथ और पंडित जगन्नाथ तक रस संप्रदाय की परंपरा निरंतर विकसित हुई है।
यह लेख रस संप्रदाय की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, प्रमुख आचार्यों, सिद्धांतों तथा इसकी विशेषताओं व आलोचनाओं का समग्र अध्ययन प्रस्तुत करता है।
रस की संकल्पना
‘रस’ शब्द का सामान्य अर्थ होता है – स्वाद, आनंद या अनुभूति। साहित्य में रस का तात्पर्य है — वह भावात्मक आनंद जो काव्य के माध्यम से प्राप्त होता है। संस्कृत साहित्य में भरतमुनि के “नाट्यशास्त्र” में रस का सर्वप्रथम व्यवस्थित रूप में उल्लेख हुआ है। भरत के अनुसार:
“विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः।”
इसका अर्थ है कि विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।
-
विभाव: ये वे कारण हैं जो भावों को जागृत करते हैं। इन्हें दो भागों में विभाजित किया गया है:
-
आलंबन विभाव: जिसमें भाव जागृत होता है, जैसे नायक या नायिका।
-
उद्दीपन विभाव: जो भाव को उद्दीप्त करते हैं, जैसे वातावरण, समय, स्थान आदि।
-
-
अनुभाव: ये वे शारीरिक या वाचिक संकेत हैं जो भावों को प्रकट करते हैं, जैसे आँखों से आँसू बहना, स्वर का बदलना आदि।
-
संचारी भाव: ये वे सहायक भाव हैं जो मुख्य भाव को सुदृढ़ करते हैं, जैसे चिंता, उत्सुकता, लज्जा आदि।
जब ये तीनों तत्व एक साथ मिलते हैं, तो रस की अनुभूति होती है।
रसों के प्रकार
भरतमुनि ने अपने ग्रंथ में आठ रसों का वर्णन किया है:
-
श्रृंगार रस: प्रेम और सौंदर्य की अनुभूति।
-
हास्य रस: हँसी और विनोद की अनुभूति।
-
करुण रस: दुःख और करुणा की अनुभूति।
-
रौद्र रस: क्रोध और उग्रता की अनुभूति।
-
वीर रस: शौर्य और पराक्रम की अनुभूति।
-
भयानक रस: भय और आशंका की अनुभूति।
-
बीभत्स रस: घृणा और विकर्षण की अनुभूति।
-
अद्भुत रस: आश्चर्य और विस्मय की अनुभूति।
बाद में आचार्य अभिनवगुप्त ने ‘शांत रस’ को नवम रस के रूप में जोड़ा, जो वैराग्य और आत्मिक शांति की अनुभूति कराता है।
रस संप्रदाय की अवधारणा
रस संप्रदाय वह काव्यशास्त्रीय दृष्टिकोण है जो काव्य में रस की सर्वोच्चता को मान्यता देता है। इस संप्रदाय के अनुसार काव्य का मूल उद्देश्य पाठक में सौंदर्यात्मक आनंद उत्पन्न करना है, जिसे रस के रूप में जाना जाता है। यह आनंद व्यक्ति के लौकिक सुख-दुःख से परे होता है और एक तरह का ‘आध्यात्मिक अनुभव’ प्रदान करता है।
रस संप्रदाय के उद्गम स्रोत
रस संप्रदाय का मूल स्रोत भरतमुनि का “नाट्यशास्त्र” है। यद्यपि भरत का लक्ष्य नाटक था, परन्तु उनकी रस संकल्पना ने आगे चलकर समस्त काव्यशास्त्र को प्रभावित किया। उनके बाद भट्ट लोल्लट, शंकुक, भट्टनायक, अभिनवगुप्त, और विश्वनाथ जैसे आचार्यों ने रस सिद्धांत को परिपक्वता प्रदान की।
रस संप्रदाय के प्रमुख आचार्य
1. भरतमुनि
भरत ने रस को काव्य की आत्मा माना। उन्होंने नाट्य के माध्यम से रस की व्याख्या की और आठ स्थायी भावों को आठ रसों के रूप में बताया —श्रृंगार , हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भय, वीभत्स, और अद्भुत। बाद में शांत रस को जोड़कर रसों की संख्या नौ हो गई।
2. भट्ट लोल्लट
इन्होंने रस को ‘भाव की स्थिति’ के रूप में देखा। इनके अनुसार रस काव्य का गुण है जो पात्र में स्थित रहता है। लोल्लट ने रस निष्पत्ति को पात्र के अनुभव से जोड़ा।
3. शंकुक
शंकुक ने रस को श्रोता या पाठक की “कल्पना” का परिणाम माना। वे रस को प्रतीकात्मक और कल्पनात्मक अनुभव मानते थे, न कि वास्तविक।
4. भट्टनायक
इन्होंने रस को ‘साधारणीकरण’ के माध्यम से समझाया। इनके अनुसार रस का अनुभव तब होता है जब श्रोता अपने व्यक्तिगत भावों से ऊपर उठकर पात्र के भावों को साझा करता है। वे रस को आत्मानंद की अभिव्यक्ति मानते हैं।
5. अभिनवगुप्त
इन्होंने भट्टनायक की साधारणीकरण की अवधारणा को विस्तार दिया और रस को ‘आध्यात्मिक चेतना’ से जोड़ते हुए कहा कि रस का अनुभव एक प्रकार की तात्त्विक मुक्ति है। इनके अनुसार रस का उद्गम दर्शक की चित्तवृत्ति में होता है।
6. विश्वनाथ
“साहित्यदर्पण” के रचयिता विश्वनाथ ने रस को “काव्यात्मा” कहा और रस को ही काव्य का परिभाषक तत्व माना:
“वाक्यं रसात्मकं काव्यम्।”
उनके अनुसार रस ही काव्य का प्राण है, और शेष तत्व उसके सहायक मात्र हैं।
7. मम्मट
मम्मट के अनुसार, रस काव्य की आत्मा है। इन्होंने रस को ‘आस्वाद्य’ माना है, जिसका अनुभव पाठक या श्रोता काव्य के माध्यम से करते हैं। अपने ग्रंथ ‘काव्यप्रकाश’ में इन्होंने रस के स्वरूप, उत्पत्ति और महत्व पर विस्तार से चर्चा की है।
8. पंडित जगन्नाथ
इन्होंने अपने ग्रंथ ‘रसगंगाधर’ के माध्यम से ‘रस सिद्धांत’ को पराकाष्ठा तक पहुंचाया और रसों की विस्तृत विवेचना की।
रस संप्रदाय की विशेषताएँ
-
रस की प्रधानता: इस संप्रदाय के अनुसार काव्य का उद्देश्य न केवल जानकारी देना या शिक्षा देना है, अपितु पाठक को रस का अनुभव कराना है।
-
साधारणीकरण की अवधारणा: पाठक/दर्शक अपने व्यक्तिगत अहं को भुलाकर पात्रों के भावों को आत्मसात करता है, जिससे रस की अनुभूति होती है।
-
भावों का वैज्ञानिक वर्गीकरण: स्थायी, संचारी और सात्त्विक भावों के माध्यम से रसों की निष्पत्ति का विश्लेषण किया गया है।
-
नौ रसों की स्वीकृति: श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भय, वीभत्स, अद्भुत और शांत रस को मान्यता दी गई है।
-
काव्य की आत्मा: रस को केवल काव्य का गुण नहीं बल्कि आत्मा माना गया है, जो उसकी सार्थकता निर्धारित करता है।
रस संप्रदाय की उपयोगिता
-
काव्य-मूल्यांकन का आधार: रस संप्रदाय एक सशक्त मूल्यांकन प्रणाली देता है जिससे काव्य की श्रेष्ठता या हीनता तय की जा सकती है।
-
कविता की आत्मिकता: यह दृष्टिकोण काव्य को महज सूचना का माध्यम नहीं मानता, बल्कि उसे मनुष्य की आत्मा से जोड़ता है।
-
मानवीय भावनाओं की प्रतिष्ठा: यह संप्रदाय मानता है कि साहित्य भावनाओं की अभिव्यक्ति का क्षेत्र है और उन्हें उचित महत्व दिया जाना चाहिए।
रस संप्रदाय की आलोचना
-
बौद्धिक तत्वों की उपेक्षा: रस संप्रदाय केवल भावात्मक पक्ष को महत्व देता है, जबकि बौद्धिक और तात्त्विक पक्ष की उपेक्षा करता है।
-
समाज-सापेक्षता की कमी: यह दृष्टिकोण सामाजिक यथार्थ और समस्याओं से परे एक सौंदर्यात्मक दुनिया रचता है जो हर काल के लिए उपयुक्त नहीं हो सकता।
-
वैयक्तिक अनुभूति की उपेक्षा: साधारणीकरण के नाम पर व्यक्तिगत अनुभवों और संदर्भों की अवहेलना की जाती है।
-
आधुनिक साहित्य के लिए अनुपयुक्तता: समकालीन साहित्य में जहाँ समाज, राजनीति, अस्तित्ववाद जैसे तत्व हैं, वहाँ रस संप्रदाय की उपयोगिता सीमित हो जाती है।
रस संप्रदाय और अन्य संप्रदायों की तुलना
-
ध्वनि संप्रदाय: आचार्य आनंदवर्धन का ध्वनि संप्रदाय रस से अधिक ध्वनि या संकेत की भूमिका को महत्व देता है। फिर भी, उन्होंने अंततः रस को ही काव्य का प्राण स्वीकार किया।
-
रीति संप्रदाय: यह शैली और अलंकारों को प्रधान मानता है, जबकि रस संप्रदाय में रस सर्वोपरि है।
-
अलंकार संप्रदाय: इसमें अलंकारों को काव्य का मूल माना गया है, पर रस संप्रदाय के अनुसार अलंकार तो केवल रस को संप्रेषित करने का माध्यम हैं।
निष्कर्ष
रस संप्रदाय भारतीय काव्यशास्त्र की एक अत्यंत समृद्ध परंपरा का प्रतिनिधित्व करता है। इस संप्रदाय ने काव्य को केवल वाणी या शैली की नहीं, बल्कि भावों और अनुभूतियों की अभिव्यक्ति माना है। यद्यपि आधुनिक युग में इस संप्रदाय की सीमाएं स्पष्ट हुई हैं, फिर भी साहित्यिक रसास्वादन की दृष्टि से इसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।
रस संप्रदाय हमें यह सिखाता है कि साहित्य केवल पढ़ने या सुनने की वस्तु नहीं, बल्कि अनुभूति का माध्यम है। यही कारण है कि यह संप्रदाय काव्य को हृदयगम्यता, सौंदर्यबोध और आनंद का स्रोत मानता है — और यही उसकी चिरस्थायी उपलब्धि है।
♦️वस्तुनिष्ठ प्रश्न♦️
1➤ रस का सामान्य अर्थ क्या होता है?
2➤ भरतमुनि के अनुसार रस की निष्पत्ति किन तत्वों के संयोग से होती है?
3➤ आलंबन विभाव का उदाहरण है –
4➤ अनुभाव किसे कहते हैं?
5➤ नाट्यशास्त्र में कितने रसों का वर्णन है?
6➤ शांत रस को नवम रस के रूप में किसने जोड़ा?
7➤ श्रृंगार रस का स्थायी भाव क्या है?
8➤ बीभत्स रस की अनुभूति किससे होती है?
9➤ अद्भुत रस किस भाव की अनुभूति कराता है?
10➤ रस संप्रदाय की परंपरा का आरंभ किससे हुआ?
11➤ साधारणीकरण की व्याख्या किस आचार्य ने की?
12➤ “वाक्यं रसात्मकं काव्यम्” किस आचार्य का कथन है?
13➤ रसगंगाधर ग्रंथ किससे संबंधित है?
14➤ रस संप्रदाय के अनुसार काव्य का मूल उद्देश्य क्या है?
15➤ साधारणीकरण से आशय है –
16➤ रस संप्रदाय की आलोचना किस कारण होती है?