प्रस्तावना
भारतीय काव्यशास्त्र की समृद्ध परंपरा में विभिन्न संप्रदायों ने साहित्यिक रस, अलंकार और अर्थ की व्याख्या अपने-अपने दृष्टिकोण से की है। इन्हीं में से एक महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली संप्रदाय है—ध्वनि संप्रदाय, जिसे आनंदवर्धन ने प्रतिपादित किया और अभिनवगुप्त ने पुष्ट किया। यह संप्रदाय काव्य की आत्मा ‘ध्वनि’ को मानता है और इसे साहित्यिक अभिव्यक्ति का सर्वोच्च रूप घोषित करता है। ध्वनि संप्रदाय के अनुसार, कविता का सौंदर्य न तो केवल शब्द में निहित होता है और न ही केवल उसके शाब्दिक अर्थ में, बल्कि उस अर्थ के परे जो भाव प्रकट होते हैं, वे ही काव्य की आत्मा होते हैं।
ध्वनि की परिभाषा और स्वरूप
‘ध्वनि’ का सामान्य अर्थ होता है ‘गूंज’ या ‘प्रतिध्वनि’। परंतु काव्यशास्त्रीय संदर्भ में इसका तात्पर्य है—वह अर्थ जो शब्द या वाच्य अर्थ के परे होकर पाठक या श्रोता के मन में किसी गूढ़, सूक्ष्म या भावनात्मक अर्थ को उद्भासित करे। इसे व्यंजना कहा गया है, और यह व्यंजना ही ध्वनि की प्राणशक्ति है।
आनंदवर्धन ने अपने महत्त्वपूर्ण ग्रंथ ध्वन्यालोक में ध्वनि की विस्तृत व्याख्या करते हुए इसे काव्य की आत्मा (काव्यात्मा) कहा है। उनके अनुसार:
“काव्यस्य आत्मा ध्वनि:”
अर्थात्—कविता की आत्मा ध्वनि है।
ध्वनि के प्रकार
आनंदवर्धन ने ध्वनि को मुख्यतः तीन प्रकारों में विभाजित किया:
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अर्थ ध्वनि (Arthadhvani): जब शब्द का व्यंजक अर्थ मुख्य होता है और वही काव्य के सौंदर्य को रचता है।
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यह दो प्रकार की होती है:
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रसध्वनि: जिसमें रस का संप्रेषण हो।
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भावध्वनि: जिसमें स्थायी, व्यभिचारी, सात्विक आदि भावों की व्यंजना होती है।
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शब्दध्वनि (Shabdadhvani): जब शब्द की ध्वनि, उच्चारण, लय आदि काव्य सौंदर्य में योगदान देते हैं।
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उभयध्वनि (Ubhayadhvani): जब शब्द और अर्थ दोनों की व्यंजना समान रूप से काव्य सौंदर्य को सृजित करती है।
ध्वनि और व्यंजना का संबंध
ध्वनि संप्रदाय में व्यंजना को अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना गया है। व्यंजना वह शक्ति है जिसके माध्यम से अप्रकट भाव पाठक के चित्त में संप्रेषित होते हैं। भारतीय काव्यशास्त्र में अभिधा, लक्षणा और व्यंजना तीन अर्थ-व्यंजक शक्तियाँ मानी गई हैं, जिनमें व्यंजना को सर्वोपरि माना गया है।
ध्वनि संप्रदाय के अनुसार, व्यंजना से जो अर्थ संप्रेषित होता है, वही कविता का वास्तविक ‘रस’ या सौंदर्य है। यह रस एक प्रकार की आत्मानुभूति होती है, जिसे सीधे शब्दों से प्रकट नहीं किया जा सकता।
ध्वनि संप्रदाय के प्रमुख आचार्य
1. आनंदवर्धन
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काल: 9वीं शताब्दी
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ग्रंथ: ध्वन्यालोक
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योगदान: ध्वनि की सैद्धांतिक स्थापना। उन्होंने बताया कि कविता में जब व्यंजना का प्रयोग होता है, तब वह काव्य रस की ऊँचाई को प्राप्त करता है।
उदाहरणस्वरूप, उन्होंने दिखाया कि भर्तृहरि या कालिदास जैसे कवियों की काव्य-प्रभा ध्वनि से आती है, न कि केवल शाब्दिक अर्थ से।
2. अभिनवगुप्त
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काल: 10वीं–11वीं शताब्दी
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ग्रंथ: ध्वन्यालोक लोचन (आनंदवर्धन के ग्रंथ पर टीका)
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योगदान: अभिनवगुप्त ने कश्मीर शैवदर्शन और रससिद्धांत के साथ ध्वनि संप्रदाय को और गहराई दी। उन्होंने बताया कि व्यंजना से उत्पन्न रस ही शुद्ध आनंद की अनुभूति कराता है।
अन्य समकालीन मतों के साथ तुलना
ध्वनि संप्रदाय की तुलना अन्य प्रमुख काव्य संप्रदायों से करने पर इसके मौलिक स्वरूप की गहराई स्पष्ट होती है:
1. अलंकार संप्रदाय:
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अलंकार संप्रदाय मुख्यतः अलंकारों को काव्य की आत्मा मानता है।
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परंतु ध्वनि संप्रदाय मानता है कि अलंकार तो साधन हैं, आत्मा नहीं।
2. रीति संप्रदाय:
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रीति संप्रदाय रीति या शैली को काव्य सौंदर्य का मूल मानता है।
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ध्वनि संप्रदाय के अनुसार शैली महत्वपूर्ण है, पर ध्वनि के बिना वह निष्प्रभावी है।
3. रस संप्रदाय:
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रस संप्रदाय रस को काव्य का प्राण मानता है।
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ध्वनि संप्रदाय भी रस को सर्वोपरि मानता है, परन्तु इसका यह भी मानना है कि रस की उत्पत्ति ध्वनि या व्यंजना से ही संभव है।
ध्वनि संप्रदाय के उदाहरण
कालिदास के निम्नलिखित श्लोक को देखें:
“कान्ता समिता पन्थाः…”
यहाँ शब्दों के शाब्दिक अर्थ के अलावा, उनके पीछे छिपे भाव जैसे विरह, प्रेम, आशा, स्मृति आदि पाठक के मन में व्यंजित होते हैं। यही ध्वनि है।
ध्वनि संप्रदाय की विशेषताएँ
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काव्य में भावात्मक गहराई की खोज: शाब्दिक अर्थ से परे जाकर सूक्ष्म भावों की अभिव्यक्ति।
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रस की स्थापना: रस को काव्य का परम तत्व मानना।
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व्यंजना शक्ति पर बल: इसका मानना है कि अर्थ-व्यंजना ही काव्य के सौंदर्य का प्रमुख स्रोत है।
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पाठक के चित्त पर प्रभाव: पाठक के अनुभव और संवेदना के स्तर पर प्रभाव उत्पन्न करता है।
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काव्य की बहुआयामी व्याख्या: कविता की एकाधिक स्तरों पर व्याख्या संभव है।
ध्वनि संप्रदाय की आलोचना
ध्वनि संप्रदाय ने जहाँ काव्यशास्त्र को एक नया आयाम दिया, वहीं इसकी आलोचना भी हुई:
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संप्रेषणीयता की समस्या: व्यंजना सभी पाठकों पर एक समान प्रभाव नहीं डालती।
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शब्द और अर्थ की उपेक्षा का आरोप: कुछ विद्वानों ने कहा कि ध्वनि संप्रदाय मुख्य अर्थ और शब्द को गौण मानकर असंतुलन उत्पन्न करता है।
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अत्यधिक आदर्शवाद: व्यंजना और रस की सार्वकालिकता मानकर यह संप्रदाय यथार्थ से हट जाता है।
आधुनिक परिप्रेक्ष्य में ध्वनि संप्रदाय
आधुनिक साहित्य-सिद्धांतों में जैसे स्ट्रक्चरलिज़्म, पाठक-प्रतिक्रिया सिद्धांत आदि में भी यह विचार मिलता है कि पाठक के मन में जो भाव उत्पन्न होता है, वही साहित्य की सफलता है। यह बात ध्वनि संप्रदाय के मूल में है।
इस दृष्टिकोण से ध्वनि संप्रदाय आज भी प्रासंगिक है। यह हमें बताता है कि कविता को समझने के लिए केवल शब्द नहीं, भावों की ध्वनि को भी पकड़ना होगा।
उपसंहार
ध्वनि संप्रदाय ने भारतीय काव्यशास्त्र को भावात्मकता, सूक्ष्मता और रसात्मक अभिव्यक्ति का नया आयाम दिया। आनंदवर्धन और अभिनवगुप्त जैसे विद्वानों ने यह सिद्ध किया कि कविता केवल भाषा नहीं, बल्कि वह एक ऐसी कलात्मक अभिव्यक्ति है जो पाठक के चित्त में ध्वनि के माध्यम से अनिर्वचनीय रस का संचार करती है।
इस संप्रदाय ने साहित्यिक सौंदर्य के मूल्यांकन की एक गहरी, संवेदनशील और भावनात्मक पद्धति प्रस्तुत की जो आज भी हिंदी आलोचना और काव्यचिंतन में अपना स्थान बनाए हुए है।
♦️वस्तुनिष्ठ प्रश्न♦️
1➤ ध्वनि संप्रदाय के प्रतिपादक कौन हैं?
2➤ “काव्यस्य आत्मा ध्वनिः” यह कथन किसका है?
3➤ ध्वनि संप्रदाय के विकास में अभिनवगुप्त का संबंध किस ग्रंथ से है?
4➤ ध्वनि का मुख्य आधार क्या है?
5➤ ‘ध्वनि’ शब्द का सामान्य अर्थ क्या है?
6➤ आनंदवर्धन किस शताब्दी के विद्वान माने जाते हैं?
7➤ रसध्वनि और भावध्वनि किस प्रकार की ध्वनि के अंतर्गत आते हैं?
8➤ शब्दध्वनि में क्या प्रमुख होता है?
9➤ जब शब्द और अर्थ दोनों की व्यंजना होती है, तो वह क्या कहलाता है?
10➤ ध्वनि संप्रदाय का कौन-सा प्रमुख ग्रंथ है?
11➤ ध्वनि संप्रदाय के आलोचकों का प्रमुख तर्क क्या था?
12➤ ध्वनि संप्रदाय के अनुसार कविता का उद्देश्य क्या है?
13➤ आधुनिक साहित्य सिद्धांतों में कौन-सा सिद्धांत ध्वनि संप्रदाय से मिलता है?