उत्तर-संरचनावाद क्या है ?

भूमिका

बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में पश्चिमी चिंतन-परंपरा में एक महत्त्वपूर्ण वैचारिक उद्भव हुआ, जिसे ‘उत्तर–संरचनावाद’ के नाम से जाना जाता है। यह संरचनावाद की सीमाओं, कठोरता और उसकी वैज्ञानिक-तटस्थता के दावे के विरुद्ध उत्पन्न हुई चिंतनधारा है। यदि संरचनावाद भाषा और अर्थ को स्थिर संरचनाओं में बाँधकर देखने की प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करता है, तो उत्तर–संरचनावाद उन्हें निरंतर प्रवाहमान, अस्थिर, बहुअर्थी और संदर्भ-निर्भर मानता है। यह न केवल साहित्यिक आलोचना बल्कि दर्शन, भाषाविज्ञान, नृविज्ञान, समाजशास्त्र, इतिहासलेखन, मनोविश्लेषण तथा सांस्कृतिक अध्ययन को भी गहरे रूप से प्रभावित करने वाली बौद्धिक क्रांति है।

उत्तर–संरचनावाद का मूल स्वभाव ‘विमर्शात्मक’ और ‘विघटनकारी’ है—यह अर्थ, सत्ता, भाषा और पहचान की स्थापित संहिताओं को प्रश्नांकित करता है। जैक देरिदा, मिशेल फूको, रोलांड बार्थेस, जूलिया क्रिस्तेवा, ल्यूकाँ, देल्यूज़ तथा ईको जैसे चिंतकों ने इस धारा को विविध रूपों में विकसित किया।


संरचनावाद से उत्तर–संरचनावाद की ओर

उत्तर–संरचनावाद को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि यह मुख्यतः संरचनावाद का उत्तर या प्रतिक्रिया क्यों है।

संरचनावाद की स्थापना मुख्यतः सॉस्यूर के भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों से हुई, जिसमें भाषा को संकेतों के एक ऐसे तंत्र के रूप में देखा गया था जिसके नियम और संरचनाएँ वस्तुनिष्ठ रूप से अध्ययन की जा सकती हैं। लिवीस्ट्रॉस ने इसे नृविज्ञान में, बार्थ और जेनट ने साहित्यिक आलोचना में और लाकाँ ने मनोविश्लेषण में विस्तारित किया।

किन्तु संरचनावाद के भीतर ही कुछ ऐसे अंतर्विरोध थे, जिनके कारण उत्तर–संरचनावादी चिंतन उभरा :

  1. अर्थ की स्थिरता का दावा – संरचनावादी भाषा में ‘भेद’ को अर्थ का स्थायी आधार मानते थे, जबकि उत्तर–संरचनावादी अर्थ की अनिश्चयता पर बल देते हैं।

  2. केंद्रवाद – संरचनावाद किसी न किसी स्तर पर केंद्र (structure/logic) को प्राथमिकता देता है। उत्तर–संरचनावाद ‘केंद्रहीनता’ का सिद्धांत स्थापित करता है।

  3. विज्ञान-जैसी वस्तुनिष्ठता – संरचनावाद यह मानता था कि भाषा और मानव व्यवहार को किसी वैज्ञानिक नियम की तरह समझा जा सकता है। उत्तर–संरचनावाद इस वस्तुनिष्ठता को सत्ता-संरचना का हिस्सा मानकर खारिज करता है।

  4. सत्ता, इतिहास और राजनीति की उपेक्षा – उत्तर–संरचनावाद प्रतीकात्मक व्यवस्थाओं के निर्माण में सत्ता की भूमिका को अनिवार्य मानता है (विशेषतः फूको द्वारा )।

इस प्रकार उत्तर–संरचनावाद एक अस्वीकृति मात्र नहीं, बल्कि संरचनावाद की अवधारणाओं का सृजनात्मक पुनर्पाठ भी है।


उत्तर–संरचनावाद के मुख्य सिद्धांत

1. अर्थ की अनिश्चितता (Indeterminacy of Meaning)

उत्तर–संरचनावाद का मूलाधार यह मान्यता है कि अर्थ कभी पूर्ण नहीं होता और न ही स्थिर

  • देरिदा ने ‘डिफराँस (différance)’ शब्द दिया, जिसमें अर्थ का सतत स्थगन निहित है—अर्थ किसी एक स्थिर बिंदु पर नहीं पहुँचता, वह हमेशा अंतर और विलंब में बना रहता है।

  • इसलिए पाठ का एकमात्र प्रामाणिक अर्थ नहीं हो सकता। पाठ अर्थों का अनंत उत्पादक तंत्र है।

2. विघटन (Deconstruction)

देरिदा का प्रमुख योगदान विघटनवाद है। विघटन का अर्थ है—

  • भाषा में छिपे द्वैतों (जैसे वाचिक/लिखित, पुरुष/स्त्री, सत्य/असत्य, तर्क/भावना) को भेद-भेद करके दिखाना कि ये द्वैत प्राकृतिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक और सत्ता-जनित हैं।

  • विघटन किसी पाठ को नष्ट करना नहीं, बल्कि उसकी संरचना में छिपे विरोधाभासों, अर्थों की फाँकों और अपवृत्तियों को उजागर करना है।

3. लेखक का अंत (Death of the Author)

रोलांड बार्थेस ने कहा कि लेखक का उद्देश्य या व्यक्तित्व पाठ का अंतिम निर्णायक नहीं हो सकता

  • पाठ लेखक से स्वतंत्र इकाई है।

  • अर्थ का अधिकार पाठक को प्राप्त है—यह ‘रीडरली’ और ‘राइटरली’ पाठों की अवधारणा में दिखाई देता है।

4. सत्ता–विमर्श (Power Discourse)

फूको ने दिखाया कि ज्ञान और भाषा सत्ता के तंत्र हैं।

  • सत्य, मानक, मूल्य और व्यवहार—ये सभी ऐतिहासिक परिस्थितियों और सत्ता-संरचनाओं द्वारा निर्मित होते हैं।

  • सत्ता सर्वत्र है और भाषा उसके प्रसार का प्रमुख उपकरण है।

5. विखंडित विषय (Decentered Subject)

उत्तर–संरचनावाद आधुनिकता के ‘स्वायत्त, तर्कशील व्यक्ति’ की धारणा को चुनौती देता है।

  • व्यक्ति भी भाषा, समाज, इतिहास और सत्ता द्वारा निर्मित होता है।

  • लाकाँ की मनोविश्लेषण पद्धति में ‘विषय’ सदैव अपूर्ण और विखंडित है।

6. बहुलता, अंतर्वस्तुता और अंतराल

  • पाठ कई विमर्शों, संस्कृतियों और आवाज़ों से बना होता है।

  • जूलिया क्रिस्तेवा का ‘अंतर्वस्तुत्व (intertextuality)’ सिद्धांत बताता है कि पाठ लगातार अन्य पाठों से संवाद करता है।


उत्तर–संरचनावाद के प्रमुख विचारक और उनके योगदान

1. जैक देरिदा (Jacques Derrida)

  • यह विघटनवाद के जनक माने जाते हैं।

  • इन्होंने भाषा की अनिश्चितता, द्वैतों की आलोचना, और अर्थ के सतत स्थगन पर काम किया।

  • ‘ऑफ़ ग्रामेटोलॉजी’ इनकी प्रमुख कृति है।

2. मिशेल फूको (Michel Foucault)

  • इन्होंने ज्ञान–सत्ता संबंध, विमर्श, पागलपन, चिकित्सा, कारागार और यौनिकता के इतिहास का अध्ययन किया।

  • यह सत्य और ज्ञान को सत्ता के उपकरण के रूप में देखते थे।

  • ‘डिसिप्लिन एंड पनिश’, ‘द आर्कियोलॉजी ऑफ नॉलेज’, ‘द हिस्ट्री ऑफ सेक्सुएलिटी’ इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं।

3. रोलांड बार्थेस (Roland Barthes)

  • इन्होंने ‘लेखक का अंत’, पाठक की सक्रियता, संकेतविज्ञान आदि विचारों की पुनर्व्याख्या की।

  • और भाषा में मिथकों की संरचना पर महत्वपूर्ण कार्य किया।

4. गिल द्यूर्लूज़ और फ़ेलिक्स गातरी

  • इन्होंने सत्ता-विरोधी, केंद्रहीनता और बहु-स्वरात्मकता पर कार्य किया।

  • और ‘राइज़ोम’ के सिद्धान्त को प्रकाशित किया । जिसमें बताया गया कि ज्ञान जड़ित पेड़ की तरह नहीं, बल्कि फैलती हुई जटिल जड़ों जैसा है।

5. जूलिया क्रिस्तेवा

  • अंतर्वस्तुत्व, भाषिक-चिह्निकी, स्त्रीवादी आलोचना में इनका योगदान देखने को मिलता है।


उत्तर–संरचनावाद और साहित्यिक आलोचना

1. पाठ की अनंत व्याख्याएँ

इस दृष्टिकोण में कोई पाठ निश्चित अर्थ नहीं रखता। पाठ की व्याख्या :

  • पाठक के सामाजिक-सांस्कृतिक अनुभव पर निर्भर है,

  • इतिहास और भाषा द्वारा प्रभावित है,

  • और एक बहुस्तरीय प्रक्रिया है।

उदाहरण के लिए, प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ को वर्ग-संघर्ष आधारित, जाति-आधारित, लैंगिक विमर्श आधारित या औपनिवेशिक/शासनवादी विमर्श के दृष्टिकोण से पढ़ा जा सकता है। प्रत्येक पठन नए अर्थ पैदा करेगा।

2. पाठ में उपस्थित सत्ता-रचनाओं का अनावरण

फूको के विचारों के आधार पर किसी भी साहित्यिक कृति में उपस्थित सत्ता-तंत्रों की पहचान इस प्रकार की जाती है।

  • कौन बोल रहा है?

  • किसकी आवाज़ दबाई गई है?

  • कौन-सा सामाजिक या राजनीतिक डिस्कोर्स पाठ में सक्रिय है?

यह दृष्टिकोण दलित, स्त्रीवादी, पराधीनता-विरोधी और उपनिवेशोत्तर आलोचना को गहरे रूप में प्रभावित करता है।

3. स्त्रीवादी और उत्तराधुनिक आलोचना पर प्रभाव

  • स्त्रीवादी विमर्श में पहचान, भाषा और शरीर के संबंधों को समझने के लिए उत्तर–संरचनावादी अवधारणाओं का व्यापक उपयोग हुआ है।

  • ‘जेंडर’ को एक सामाजिक-निर्माण के रूप में समझने का आधार भी इसी से दृढ़ हुआ।


उत्तर–संरचनावाद और भारतीय संदर्भ

हालाँकि उत्तर–संरचनावाद पश्चिमी अकादमिक धरातल पर विकसित हुआ, लेकिन भारतीय साहित्यिक आलोचना में भी इसके अनेक प्रभाव दिखाई देते हैं जैसे —

  • दलित साहित्य की आलोचना में सत्ता–विमर्श की संकल्पना महत्त्वपूर्ण है।

  • स्त्रीवादी आलोचना में भाषा और पितृसत्ता के संबंधों की पड़ताल की गई है।

  • उपनिवेशोत्तर आलोचना (सईद, स्पिवाक, भवभूति, मीरा नंदा आदि द्वारा) में पश्चिमी प्रभुत्व और ‘अन्य’ (The Other) की पहचान के प्रश्न उठाए गए, जिनकी जड़ें उत्तर–संरचनावादी चिंतन में मिलती हैं।


उत्तर–संरचनावाद की आलोचनाएँ

1. अत्यधिक अनिश्चितता और सापेक्षवाद का आरोप

उत्तर–संरचनावाद के विरोधी इसे अर्थ की पूर्ण अनिश्चितता तक पहुँचा देने वाला सिद्धांत मानते हैं। इससे किसी भी प्रकार का स्थायी ज्ञान, नैतिकता या सामाजिक न्याय के मुद्दे कमजोर पड़ सकते हैं।

2. जटिल भाषा और अस्पष्टता

देरिदा, फूको और लाकाँ की भाषा अत्यंत दुरूह मानी जाती है, जिससे सामान्य पाठक और शोधार्थी के लिए यह विचारधारा कठिन हो जाती है।

3. राजनीतिक क्रांतिकारिता की कमी

कुछ मार्क्सवादी आलोचक कहते हैं कि उत्तर–संरचनावाद की अतिशय भाषा-केन्द्रिता वास्तविक सामाजिक संघर्षों, वर्ग-संघर्ष और आर्थिक शोषण को गौण कर देती है।

4. ‘सत्ता सर्वत्र’ का दावा अतिरंजित

फूको की सत्ता–संकल्पना को कभी-कभी व्यापक और अपरीमित मानकर उसकी आलोचना की गई है।


निष्कर्ष

उत्तर–संरचनावाद आधुनिक चिंतन की एक क्रांतिकारी धारा है, जिसने भाषा, अर्थ, पहचान, सत्ता और ज्ञान के मूलभूत प्रश्नों को नए रूप में प्रस्तुत किया। यह सिद्धांत कोई तैयार समाधान नहीं देता, बल्कि प्रश्न उठाता है—स्थितियों, विमर्शों और संरचनाओं की आलोचना करता है।

यह हमें यह समझने में सहायता करता है कि—

  • अर्थ स्थिर नहीं, बल्कि निरंतर बदलता है;

  • भाषा तटस्थ नहीं, सत्ता से निर्मित है;

  • व्यक्ति स्वतंत्र इकाई नहीं, बल्कि सामाजिक विमर्शों द्वारा निर्मित है;

  • और सत्य कभी पूर्ण नहीं, बल्कि ऐतिहासिक परिस्थिति का उत्पाद है।

उत्तर–संरचनावाद ने साहित्यिक आलोचना को व्याख्या की अनंत संभावनाओं से परिचित कराया है। साथ ही यह हमें चेताता है कि किसी भी सत्य, ज्ञान या भाषा को अंतिम या पूर्ण मानकर चलना संभव नहीं। यही इसकी प्रासंगिकता और इसकी शक्ति है।


वस्तुनिष्ठ प्रश्न

 

1➤ उत्तर-संरचनावाद का उद्भव मुख्यतः किस विचारधारा की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ?





2➤ ‘डिफराँस (Différance)’ की अवधारणा किस चिंतक ने दी?





3➤ विघटन (Deconstruction) का मुख्य उद्देश्य है—





4➤ ‘लेखक का अंत’ (Death of the Author) की अवधारणा किसने दी?





5➤ उत्तर-संरचनावाद अर्थ को कैसा मानता है?





6➤ ‘अंतर्वस्तुत्व (Intertextuality)’ की अवधारणा किससे संबद्ध है?





7➤ ‘राइज़ोम’ (Rhizome) की अवधारणा किन चिंतकों ने विकसित की?





8➤ विघटनवाद का लक्ष्य है—





9➤ उत्तर-संरचनावाद किस तरह की आलोचना को सबसे अधिक प्रभावित करता है?





10➤ उत्तर-संरचनावाद किस धारणा की आलोचना करता है?





11➤ ‘ज्ञान का पुरातत्व’ (Archaeology of Knowledge) किसकी कृति है?





12➤ ‘भाषा तटस्थ नहीं, सत्ता से निर्मित है’—यह विचार किससे संबंधित है?





13➤ ‘ऑफ ग्रामेटोलॉजी’ किसकी पुस्तक है?





14➤ उत्तर-संरचनावाद पाठ को किस रूप में देखता है?





15➤ उत्तर-संरचनावाद किस प्रकार की भाषा-प्रक्रिया को महत्व देता है?





16➤ भारतीय साहित्य में उत्तर-संरचनावाद का प्रभाव किस क्षेत्र में अधिक दिखाई देता है?





17➤ उत्तर-संरचनावाद का मूल स्वभाव है —





  

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