अस्तित्ववाद

भूमिका

20वीं शताब्दी का दर्शन यदि किसी विचारधारा से सबसे अधिक प्रभावित हुआ है, तो वह है ‘अस्तित्ववाद’ (Existentialism)। यह दर्शन न केवल एक दार्शनिक आंदोलन है, बल्कि यह साहित्य, धर्म, मनोविज्ञान और कला तक को प्रभावित करने वाला एक व्यापक वैचारिक दृष्टिकोण भी है। अस्तित्ववाद मानव अस्तित्व, स्वतंत्रता, व्यक्तिगत चुनाव, असंगति, निरर्थकता और आत्म-साक्षात्कार जैसे विषयों पर केंद्रित है। यह दर्शन व्यक्ति को उसकी स्वयं की पहचान, स्वतंत्र निर्णय और उसके जीवन की जिम्मेदारी को समझने के लिए प्रेरित करता है।


अस्तित्ववाद की परिभाषा और मूल स्वरूप

अस्तित्ववाद एक दर्शन है जो मानता है कि मानव अस्तित्व (existence) का कोई पूर्वनिर्धारित अर्थ नहीं है, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं अपने जीवन का अर्थ गढ़ता है। अस्तित्ववाद का मूल वाक्यांश है — “अस्तित्व, सार से पूर्व है” (Existence precedes essence), जिसे ज्याँ-पॉल सार्त्र ने प्रतिपादित किया था। इसका आशय यह है कि मनुष्य पहले अस्तित्व में आता है और फिर अपने कर्मों, निर्णयों और अनुभवों के माध्यम से अपना सार (essence) गढ़ता है।

अस्तित्ववाद के मुख्य प्रश्न हैं—

  • जीवन का अर्थ क्या है?

  • मैं कौन हूँ?

  • क्या ईश्वर है?

  • मृत्यु के बाद क्या होता है?

  • स्वतंत्रता और उत्तरदायित्व का क्या महत्व है?


अस्तित्ववाद का ऐतिहासिक विकास

अस्तित्ववाद का इतिहास मध्य युग के ईसाई दार्शनिक संत ऑगस्टीन से लेकर आधुनिक समय के दार्शनिकों तक फैला हुआ है। हालांकि आधुनिक अस्तित्ववाद का औपचारिक आरंभ 19वीं सदी के दो प्रमुख चिंतकों—सॉरेन कीर्केगार्द और फ्रेडरिक नीत्शे—से माना जाता है।

  • कीर्केगार्द (1813–1855): उन्होंने धार्मिक अस्तित्ववाद की नींव रखी। उनके अनुसार, ईश्वर में आस्था और व्यक्तिगत चुनाव से ही मनुष्य को वास्तविक अस्तित्व मिलता है।

  • नीत्शे (1844–1900): उन्होंने ईश्वर की मृत्यु (God is dead) की घोषणा की और मानव को स्वयं का निर्माता बनने की चुनौती दी।

20वीं शताब्दी में अस्तित्ववाद को मार्टिन हाइडेगर, ज्याँ-पॉल सार्त्र, सिमोन द बोउवार, अलबर्ट कामू, और कार्ल यास्पर्स जैसे दार्शनिकों द्वारा महत्त्व मिला। यह विचारधारा द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की निराशा, नैतिक संकट और मानव अस्मिता की खोज में और अधिक प्रासंगिक हो गई।


अस्तित्ववाद के प्रमुख सिद्धांत

  1. व्यक्तिगत स्वतंत्रता और उत्तरदायित्व: अस्तित्ववाद मानता है कि मनुष्य स्वतंत्र है, पर यह स्वतंत्रता एक गहरी जिम्मेदारी भी साथ लाती है। हमें अपने कर्मों का उत्तरदायित्व स्वयं लेना होता है।

  2. अर्थ की खोज: अस्तित्ववादी दर्शन कहता है कि जीवन में कोई पूर्वनिर्धारित अर्थ नहीं है। व्यक्ति स्वयं ही अपने जीवन का अर्थ खोजता और गढ़ता है।

  3. निरर्थकता और ‘अबसर्डिटी’: अल्बर्ट कामू के अनुसार जीवन मूलतः निरर्थक है, परन्तु यही निरर्थकता मनुष्य को बौद्धिक संघर्ष के लिए प्रेरित करती है।

  4. ‘अंग्जाइटी’ (क्लेश/व्याकुलता): अस्तित्ववादी मानते हैं कि जब व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता और अर्थहीनता को पहचानता है, तो वह एक गहन अस्तित्वगत चिंता (existential anxiety) का अनुभव करता है।

  5. पर-स्थिति और निःसंगता (Alienation): अस्तित्ववाद व्यक्ति को समाज, ईश्वर, और यहां तक कि स्वयं से अलग-थलग करने वाले कारकों की बात करता है। यह भाव व्यक्तित्व के गहरे मनोवैज्ञानिक संघर्ष को रेखांकित करता है।

  6. प्रामाणिकता (Authenticity): अस्तित्ववादी दर्शन में प्रामाणिकता अत्यंत महत्वपूर्ण है—अर्थात् व्यक्ति को अपनी स्वतंत्रता को पहचान कर स्वयं के अनुसार जीना चाहिए, न कि सामाजिक दबावों के अनुसार।


प्रमुख अस्तित्ववादी विचारक

  1. ज्याँ-पॉल सार्त्र (1905–1980):

    • उन्होंने ‘अस्तित्ववाद एक मानववाद है’ नामक ग्रंथ में कहा कि मनुष्य अपने कर्मों के द्वारा अपने अस्तित्व को परिभाषित करता है।

    • वे नास्तिक अस्तित्ववाद के प्रवर्तक हैं। उनका मानना है कि ईश्वर नहीं है, और इसलिए मनुष्य को अपने अस्तित्व की ज़िम्मेदारी स्वयं लेनी चाहिए।

  2. अलबर्ट कामू (1913–1960):

    • उन्होंने ‘अबसर्डिज्म’ का सिद्धांत प्रतिपादित किया। उनके अनुसार जीवन का कोई अंतिम उद्देश्य नहीं है और यह स्थिति मानव को विद्रोह (rebellion) की ओर ले जाती है।

    • उनका प्रसिद्ध निबंध “The Myth of Sisyphus” इसी विचार को प्रस्तुत करता है।

  3. मार्टिन हाइडेगर (1889–1976):

    • उन्होंने ‘Being and Time’ में ‘Dasein’ (there-being) की अवधारणा प्रस्तुत की, जिसमें उन्होंने मानव अस्तित्व की जटिलता का गहन विश्लेषण किया।

  4. सिमोन द बोउवार (1908–1986):

    • वे अस्तित्ववादी नारीवाद की प्रवर्तक थीं। उन्होंने “The Second Sex” में कहा कि “One is not born, but rather becomes, a woman”, जो अस्तित्ववाद के सामाजिक संदर्भ को स्पष्ट करता है।


अस्तित्ववाद और साहित्य

अस्तित्ववाद ने साहित्य को गहराई से प्रभावित किया। विश्व साहित्य में ऐसे कई लेखक हुए हैं जिन्होंने अस्तित्ववादी चिंतन को कथा, उपन्यास और नाटक के माध्यम से प्रस्तुत किया।

  • फ्रांज काफ्का: उनके उपन्यास “The Trial” और “The Metamorphosis” में व्यक्ति की असहायता, नौकरशाही का दबाव, और अस्तित्वगत असुरक्षा को दर्शाया गया है।

  • सार्त्र और कामू स्वयं भी उपन्यासकार और नाटककार थे। सार्त्र के “Nausea” और कामू के “The Stranger” उपन्यास अस्तित्ववाद के शुद्ध रूप हैं।

  • हिंदी साहित्य में मोहन राकेश, अज्ञेय और धर्मवीर भारती जैसे रचनाकारों के लेखन में अस्तित्ववादी प्रभाव दिखाई देता है।


अस्तित्ववाद और धर्म

धार्मिक अस्तित्ववाद (जैसे कीर्केगार्द) ईश्वर में आस्था और व्यक्तिगत संकल्प की भूमिका पर बल देता है, जबकि नास्तिक अस्तित्ववाद (जैसे सार्त्र, कामू) ईश्वर की अनुपस्थिति में मानव की स्वायत्तता और नैतिक जिम्मेदारी पर केंद्रित है। दोनों ही धाराएं इस बात पर सहमत हैं कि मनुष्य को अपने अस्तित्व की सार्थकता स्वयं निर्मित करनी होती है।


अस्तित्ववाद और मनोविज्ञान

मनोविज्ञान में ‘अस्तित्ववादी मनोविज्ञान’ (Existential Psychology) का उदय हुआ, जो व्यक्ति की आंतरिक पीड़ा, भय, मृत्यु, और असंगति को समझने का प्रयास करता है। विक्टर फ्रैंकल का “Logotherapy” अस्तित्ववादी उपचार का उदाहरण है, जिसमें अर्थ की खोज को मानसिक स्वास्थ्य का केंद्र माना गया है।


अस्तित्ववाद की आलोचना

  • यह दर्शन अत्यधिक निराशावादी माना गया है क्योंकि यह ईश्वर, नैतिकता और सामाजिक मूल्यों को खंडित करता है।

  • यह व्यक्ति को अकेलेपन की ओर ले जाता है, जहां सामाजिक जिम्मेदारियों की उपेक्षा हो सकती है।

  • अस्तित्ववाद में समाधान कम हैं और संकट अधिक—यह आलोचना कई समालोचकों ने की है।

फिर भी, अस्तित्ववाद आधुनिक व्यक्ति की जटिलता को समझने का एक सशक्त उपकरण है और इसलिए इसका महत्व बना रहता है।


निष्कर्ष

अस्तित्ववाद केवल एक दार्शनिक विचारधारा नहीं है, बल्कि यह आधुनिक मानव के जीवन, उसकी पीड़ा, स्वायत्तता और उसकी अस्तित्वगत चुनौतियों की खोज है। यह दर्शन हमें यह सोचने के लिए प्रेरित करता है कि हम कौन हैं, हमारे कर्मों का अर्थ क्या है, और हम अपने जीवन को कैसे अधिक सार्थक बना सकते हैं। जहां अन्य दार्शनिक प्रणालियाँ उत्तर देने का प्रयास करती हैं, अस्तित्ववाद प्रश्न पूछता है—और इन्हीं प्रश्नों के भीतर मानव जीवन की गहराई छिपी है।



♦️वस्तुनिष्ठ प्रश्न♦️

1➤ अस्तित्ववाद किस बात पर बल देता है?





2➤ “अस्तित्व, सार से पूर्व है” यह विचार किसका है?





3➤ अस्तित्ववाद का मुख्य उद्देश्य क्या है?





4➤ किस विचारक ने ‘ईश्वर की मृत्यु’ की घोषणा की थी?





5➤ कीर्केगार्द किस प्रकार के अस्तित्ववाद से जुड़े थे?





6➤ कौन-सा दार्शनिक ‘नास्तिक अस्तित्ववाद’ से जुड़ा है?





7➤ ‘अबसर्डिज्म’ की अवधारणा किसने दी?





8➤ सिमोन द बोउवार का प्रमुख योगदान किस क्षेत्र में था?





9➤ निम्न में से कौन अस्तित्ववाद से संबंधित नहीं हैं?





10➤ “Being-for-itself” की अवधारणा किसकी है?





11➤ “Being-toward-death” की अवधारणा किसने दी?





12➤ विक्टर फ्रैंकल ने किस विषय पर कार्य किया?





13➤ “Man’s Search for Meaning” किसकी पुस्तक है?





14➤ “द ट्रायल” उपन्यास किसने लिखा?





15➤ हिंदी साहित्य में अस्तित्ववाद का प्रभाव किस पर देखा गया?





16➤ अस्तित्ववाद की एक प्रमुख आलोचना क्या है?





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