प्रस्तावना
भारतीय उपमहाद्वीप की भाषिक परंपरा अत्यंत समृद्ध है, परन्तु इसके साथ ही हमें इसमें जटिलताएं भी देखने को मिलती हैं। संस्कृत, पालि और प्राकृत के पश्चात जिस चरण में हिंदी भाषा का विकास हुआ, उस मध्यवर्ती कड़ी को अपभ्रंश कहा जाता है। अपभ्रंश से ही अवहट्ट तथा फिर पुरानी हिंदी का जन्म हुआ। इस लेख में हम इसी से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं को प्रकाशित करेंगे। इसमें आपलोग जानेंगे कि अपभ्रंश क्या है, अवहट्ट किस प्रकार अपभ्रंश और हिंदी के बीच की कड़ी है, और पुरानी हिंदी के विकास में अपभ्रंश की भूमिका क्या रही है।
हिंदी के विभिन्न रूपों की विकास रेखा
संस्कृत
↓
पालि / प्राकृत
↓
अपभ्रंश
↓
अवहट्ट
↓
पुरानी हिंदी
↓
मध्यकालीन हिंदी
↓
आधुनिक हिंदी
अपभ्रंश की परिभाषा और उत्पत्ति
अपभ्रंश का शाब्दिक अर्थ
‘अपभ्रंश’ शब्द संस्कृत की मूल धातु ‘भ्रंश’ (गिरना, हटना) से बना है, जिसका अर्थ है ‘भ्रष्ट हो जाना’ या ‘विकृत हो जाना’। इसलिए अपभ्रंश का अर्थ है – शुद्ध भाषा से हट चुकी या विकृत भाषा।
भाषावैज्ञानिक दृष्टि से
भाषाविज्ञान के अनुसार, अपभ्रंश संस्कृत और प्राकृत के बाद की वह भाषिक अवस्था है जिसमें शब्दों का उच्चारण, वाक्य संरचना और व्याकरण पहले से भिन्न होने लगता है। यह वह अवस्था है जिसमें लोकभाषाएँ अपनी स्वतंत्र पहचान बनाना शुरू करती हैं।
काल निर्धारण
भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार, अपभ्रंश का काल लगभग 6वीं से 13वीं शताब्दी तक माना जाता है। 8वीं शताब्दी से 11वीं शताब्दी तक अपभ्रंश साहित्य का विशेष विकास देखने को मिलता है। इसके बाद 12वीं से 14वीं शताब्दी के मध्य में अवहट्ट का प्रचलन हुआ, जो अपभ्रंश से पुरानी हिंदी की ओर बढ़ने का संकेत करता है।
अपभ्रंश के प्रकार
अपभ्रंश के दो मुख्य प्रकार माने जाते हैंः
1. शास्त्रीय अपभ्रंशः इसका प्रयोग विभिन्न कवियों और लेखकों के द्वारा किया गया, जिनमें स्वयंभू, पुष्पदंत, हेमचंद्राचार्य आदि प्रमुख थे।
2. लोक अपभ्रंशः इसके अंतर्गत आम जनमानस द्वारा बोली जाने वाली भाषाएं आती हैं, जो कालांतर में आधुनिक भाषाओं में परिवर्तित हो गईं।
अपभ्रंश साहित्य की विशेषताएं
- धार्मिक और नैतिक विषयः जैन मुनियों द्वारा रचित अपभ्रंश साहित्य में मोक्ष, धर्म, नीति आदि विषयों का वर्णन मिलता है।
- छंद प्रयोगः अपभ्रंश भाषा में दोहा, चौपाई आदि छंदों में रचना की जाती थी।
- प्राकृतिक भाषा का प्रयोगः इसमें हमें संस्कृत की जटिलता से हटकर सरल भाषा में विचारों की अभिव्यक्ति देखने को मिलती है।
अवहट्टः अपभ्रंश और हिंदी की कड़ी
अवहट्ट की परिभाषा
‘अवहट्ट’ शब्द का अर्थ है – “विकृत स्वरूप“ या “गिरा हुआ रूप“। यह अपभ्रंश के उत्तरवर्ती रूप को कहा जाता है जो आधुनिक उत्तर भारतीय भाषाओं, विशेषकर हिंदी, का पूर्व रूप माना जाता है।
अवहट्ट का काल
अवहट्ट का काल लगभग 12वीं शताब्दी से 14वीं शताब्दी के मध्य तक माना जाता है। इसे एक संक्रमणकालीन भाषा माना जाता है जो न तो पूरी तरह अपभ्रंश है और न ही आधुनिक हिंदी।
अवहट्ट की विशेषताएं
- मिश्रित रूपः इसमें संस्कृत, अपभ्रंश और लोकभाषा के तत्व मिले हुए होते हैं।
- उच्चारण परिवर्तनः उच्चारण में सरलीकरण दिखता है जैसे ‘भवतु’ → ‘भओ’।
- वाक्य विन्यासः वाक्य रचना में लोकभाषा की झलक मिलने लगती है।
उदाहरणः
“गए ठगाए ठगौरे, तिरिया के लाज से…“ – यह पंक्तियाँ अवहट्ट भाषा में हैं, जिनमें स्पष्ट हिंदी का आभास मिलता है।
अपभ्रंश और पुरानी हिंदी का संबंध
पुरानी हिंदी की परिभाषा
पुरानी हिंदी वह भाषिक रूप है जो 10वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी तक प्रचलन में रही। यह भाषा रूप अवहट्ट का और अधिक सरलीकृत तथा स्थिर रूप था।
भाषिक संक्रमण
अपभ्रंश → अवहट्ट → पुरानी हिंदी
यह एक सतत विकास प्रक्रिया थी। जिसमें अपभ्रंश की साहित्यिक और भाषिक परंपरा अवहट्ट के माध्यम से पुरानी हिंदी में परिवर्तित हुई।
व्याकरणिक परिवर्तन
- धातु परिवर्तनः संस्कृत में प्रयुक्त धातु रूपों में परिवर्तन होने लगा, जैसे “गच्छति“ → “जाइ“ (अपभ्रंश) → “जाए“ (पुरानी हिंदी)
- प्रत्ययों में परिवर्तनः “कर्ता“ → “करे“ या “करै“
- लिंग-कारक सरलीकरणः “कुमारस्य“ → “कुमार के“
ध्वनि परिवर्तन
- स्वर और व्यंजन सरलीकृत हुए।
- संयुक्ताक्षर टूटने लगे – जैसे “क्ष“ → “ख“ या “क“
लिपि में बदलाव
- अपभ्रंश और अवहट्ट में प्रायः शारदा, सिद्धमात्रिका, नागरी लिपियों का प्रयोग होता था, जो बाद में देवनागरी लिपि में परिवर्तित हो गईं।
साहित्यिक दृष्टिकोण
अपभ्रंश की रचनाएं
- जसहरचरित्र (जैन साहित्य) – पुष्पदंत
- पउमचरिउ – स्वयंभू
अवहट्ट की रचनाएँ
- सिद्धों और नाथों की बानियाँ
- विद्यापति की प्रेम गीतियाँ (मैथिली-हिंदी संधि पर)
पुरानी हिंदी की रचनाएँ
- भरतेश्वर बाहुबलि रास – शालिभद्र सूरि
- पृथ्वीराज रासो – चंदबरदाई
भाषाविज्ञानियों के मत
- जॉर्ज ग्रियर्सनः इन्होंने भारतीय आर्य भाषाओं का वर्गीकरण करते हुए अपभ्रंश को आधुनिक भाषाओं की जननी माना है।
- सुनीतिकुमार चटर्जीः इनके अनुसार अपभ्रंश और अवहट्ट, हिंदी के विकास की अपरिहार्य कड़ी हैं।
- रामचंद्र शुक्लः यह हिंदी साहित्य के इतिहास में अपभ्रंश और अवहट्ट की भूमिका को रेखांकित करते हुए इसे हिंदी का पूर्वरूप स्वीकार करते हैं।
निष्कर्ष
अपभ्रंश और अवहट्ट हिंदी भाषा के विकास की धरोहर हैं। ये केवल भाषिक संक्रमण नहीं हैं, बल्कि सांस्कृतिक और साहित्यिक प्रवाह के भी वाहक हैं। अपभ्रंश में जहाँ संस्कृत की गरिमा को लोकभाषा के स्वरूप में ढाला गया, वहीं अवहट्ट ने उस स्वरूप को सरल बनाकर हिंदी के लिए एक आधार तैयार किया। इसलिए यह कहा जा सकता है कि पुरानी हिंदी की नींव अपभ्रंश और अवहट्ट के ईंट-पत्थरों से ही बनी है। इन दोनों के बिना हिंदी भाषा और साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती है।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1➤ ‘अपभ्रंश’ शब्द का शाब्दिक अर्थ क्या है?
2➤ भाषावैज्ञानिक दृष्टि से अपभ्रंश किसके बाद की भाषिक अवस्था है?
3➤ अपभ्रंश का काल कौन-सी शताब्दी से आरंभ होता है?
4➤ अवहट्ट का काल किस कालखंड के बीच माना जाता है?
5➤ ‘गए ठगाए ठगौरे’ किस भाषा का उदाहरण है?
6➤ पुरानी हिंदी का काल कब से कब तक माना जाता है?
7➤ निम्न में से किस साहित्यकार ने ‘अपभ्रंश’ को आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी माना है?
8➤ ‘भवतु’ शब्द का अवहट्ट रूप क्या है?
9➤ ‘पउमचरिउ’ की रचना किसने की थी?
10➤ ‘ कुमार के’ किसका सरलीकृत रूप है?