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श्रद्धा और गायत्री में दिनों-दिन मेल-जोल बढ़ने लगा। गायत्री को अब ज्ञात हुआ कि श्रद्धा में कितना त्याग, विनय, दया और सतीत्व है। मेल-जोल से उनमें आत्मीयता का विकास हुआ, एक-दूसरी से अपने हृदय की बात कहने लगीं, आपस में कोई पर्दा न रहा। दोनों आधी-आधी रात तक बैठी अपनी बीती सुनाया करतीं। श्रद्धा की बीती प्रेम और वियोग की करुण कथा थी जिसमें आदि से अन्त तक कुछ छिपाने की जरूरत न थी। वह रो-रो कर अपनी विरह व्यथा का वर्णन करती, प्रेमशंकर के सद्गुणों की अभिमान के साथ चर्चा करती। अपनी कथा कहने में, अपने हृदय के भावों को प्रकट करने में उसे शान्तिमय आनन्द मिलता था! इसके विपरीत गायत्री की कथा प्रेम से शुरू होकर आत्म-ग्लानि पर समाप्त होती थी। विश्वास के उद्गार में भी उसे सावधान रहना पड़ता था, वह कुछ-न-कुछ छिपाने और दबाने पर मजबूर हो जाती थी। उसके हृदय में कुछ ऐसे काले धब्बे थे जिन्हें दिखाने का उसे साहस न होता था, विशेषतः श्रद्धा को जिसका मन और वचन एक था। वह उसके सामने प्रेम और भक्ति का जिक्र करते हुए शरमाती थी। वह जब ज्ञानशंकर के उस दुस्साहस को याद करती जो उन्होंने रात को थियेटर से लौटते समय किया था तब उसे मालूम होता था कि उस समय तक मेरा मन शुद्ध और उज्ज्वल था, यद्यपि वासनाएँ अंकुरित हो चली थीं, उसके बाद जो कुछ हुआ वह सब ज्ञानशंकर की काम-तृष्णा और मेरी आत्मदुर्बलता का नतीजा था जिसे मैं भक्ति कहती थी। ज्ञानशंकर ने केवल अपनी दुष्कामना पूरी करने के लिए मेरे सामने भक्ति का यह रंगीन जाल फैलाया। मेरे विषय में उनका यह लेख लिखना, धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में मुझे आगे बढ़ाना, उनकी वह अविरल स्वामि-भक्ति, वह आत्मसमर्पण, सब उनकी अभीष्ट-,सिद्धि के मंत्र थे। मुझे मेरे अंहकार ने डुबाया, मैं अपने ख्याति प्रेम के हाथों मारी गयी। मेरा वह धर्मानुराग, मेरी वह विवेकहीन मिथ्या भक्ति, मेरे वह आमोद-प्रमोद, मेरी वह आवेशमयी कृतज्ञता जिस पर मुझे अपने संयम और व्रत को बलिदान करने में लेशमात्र भी संकोच न होता था, केवल मेरे अहंकार की क्रीड़ाएँ थीं। इस व्याध ने मेरी प्रकृति के सबसे भेद्य स्थान पर निशाना मारा। उसने मेरे व्रत और नियम को धूल में मिला दिया, केवल अपने ऐश्वर्य-प्रेम के हेतु मेरा सर्वनाश कर दिया। स्त्री अपनी कुप्रवृत्ति का दोष सदैव पुरुष के सिर पर रखती है, अपने को वह दलित और आहत समझती है। गायत्री के हृदय में इस समय ज्ञानशंकर का प्रेमालाप, वह मृदुल व्यवहार, वह सतृष्ण चितवनें तीर की तरह लग रही थीं। वह कभी-कभी शोक और क्रोध से इतनी उत्तेजित हो जाती कि उसका जी चाहता कि उसने जैसे मेरे जीवन को भ्रष्ट किया है वैसे ही मैं भी उसका सर्वनाश कर दूँ।
एक दिन वह इन्हीं उद्दंड विचारों में डूबी हुई थी कि श्रद्धा आकर बैठ गयी और उसके मुख की ओर देखकर बोली– मुख क्यों लाल हो रहा है। आँखों में आँसू क्यों भरे हैं?
गायत्री– कुछ नहीं, मन ही तो है।
श्रद्धा– मुझसे कहने योग्य नहीं है?
गायत्री– तुमसे छिपा ही क्या है जो मुझसे पूछती हो। मैंने अपनी तरफ से छिपाया है, लेकिन तुम सब कुछ जानती हो। यहाँ कौन नहीं जानता? उन बातों को जब याद करती हूँ तो ऐसी इच्छा होती है कि एक ही कटार से अपनी और उसकी गर्दन काट डालूँ। खून खौलने लगता है। मुझे जरा भी भ्रम न था कि वह इतना बड़ा धूर्त और पाजी है। बहिन, अब चाहे जो कुछ हो मैं उससे अपनी आत्महत्या का बदला अवश्य लूँगी। मर्यादा तो यही कहती है कि विद्या की भाँति विष खा कर मर जाऊँ, लेकिन यह तो उसके मन की बात होगी, वह अपने भाग्य को सराहेगा और दिल खोल कर विभव का भोग करेगा। नहीं, मैं यह मूर्खता न करूँगी। नहीं, मैं उसे घुला-घुला और रटा-रटा कर मारूँगी। मैं उसका सिर इस तरह कुचलूँगी जैसे साँप का सिर कुचला जाता है। हा! मुझ जैसी अभागिनी संसार में न होगी।
यह कहते-कहते गायत्री फूट-फूट कर रोने लगी। जरा दम लेकर फिर उसी प्रवाह में बोली– श्रद्धा तुम्हें विश्वास न आयेगा, यह मनुष्य पक्का जादूगर है। इसने मुझ पर ऐसा मन्त्र मारा कि मैं अपने को बिलकुल भूल गयी। मैं तुमसे अपनी सफाई नहीं कर रही हूँ। वायुमंडल में नाना प्रकार के रोगाणु उड़ा करते हैं। उनका विष उन्हीं प्राणियों पर असर करता है, जिनमें उसके ग्रहण करने का विकार पहले से मौजूद रहता है। मच्छर के डंक से सबको ताप और जूड़ी नहीं आती। वह बाह्य उत्तेजना केवल भीतर के विकार को उभाड़ देती है। ऐसा न होता तो आज समस्त संसार में एक भी स्वस्थ प्राणी न दिखायी देता। मुझमें यह विकृत पदार्थ था। मुझे अपने आत्मबल पर घमंड था। मैं ऐंद्रिक भोग को तुच्छ समझती थी। इस दुरात्मा ने उसी दीपक से जिससे मेरे अँधेरे घर में उजाला था घर में आग लगा दी, जो तलवार मेरी रक्षा करती थी वही तलवार मेरी गर्दन पर चला दी। अब मैं वही तलवार उसकी गर्दन पर चलाऊँगी। वह समझता होगा कि मैं अबला हूँ उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकती। लेकिन मैं दिखा दूँगी पानी भी द्रव हो कर भी पहाड़ों को छिन्न-भिन्न कर सकती है। मेरे पूज्य पिता आत्मदर्शी हैं। उन्हें उसकी बुरी नीयत मालूम हो गयी थी इसी कारण उन्होंने मुझे उससे दूर रहने की ताकीद की थी। उन्होंने अवश्य विद्या से यह बात कही होगी। इसीलिए विद्या वहाँ मुझे सचेत करने आयी थी। लेकिन शोक! मैं नशे में ऐसी चूर थी कि पिताजी की चेतावनी की कुछ परवाह न की। इस धूर्त ने मुझे उनकी नजरों में भी गिरा दिया। अब वह मेरा मुँह देखना भी न चाहेंगे।
गायत्री यह कह कर फिर शोकमग्न हो गयी। श्रद्धा की समझ में न आता था कि इसे कैसे सांत्वना दूँ। अकस्मात गायत्री उठ खड़ी हुई। सन्दूक में से कलम, दवात, कागज निकाल लाई और बोली, बहिन, जो कुछ होना था हो चुका इसके लिए जीवन-पर्यन्त रोना है। विद्या देवी थी, उसने अपमान से मर जाना अच्छा समझा। मैं पिशचिनी हूँ, मौत से डरती हूँ। लेकिन अब से यह जीवन त्याग और पश्चात्ताप पर समर्पण होगा। मैं अपनी रियासत से इस्तीफा दे देती हूँ, मेरा उस पर कोई अधिकार नहीं है। तीन साल से उस पर मेरा कोई हक नहीं है। मैं इतने दिनों तक बिना अधिकार ही उसका उपभोग करती रही। यह रियासत मेरे पतिव्रत-पालन का उपहार थी। यह ऐश्वर्य और सम्पति मुझे इसलिए मिली थी कि कुल-मर्यादा की रक्षा करती रहूँ, मेरी पतिभक्ति अचल रहे। वह मर्यादा कितने महत्त्व की वस्तु होगी जिसकी रक्षा के लिए मुझे करोड़ों की सम्पत्ति प्रदान की गई। लेकिन मैंने उस मर्यादा को भंग कर दिया, उस अमूल्य रत्न को अपनी विलासिता की भेंट कर दिया। अब मेरा उस रियासत पर कोई हक नहीं है। उस घर में पाँव रखने का मुझे स्वत्व नहीं, वहाँ का एक-एक दाना मेरे लिए त्याज्य है। मैं इतने दिनों में हराम के माल पर ऐश करती रही।
यह कह कर गायत्री कुछ लिखने लगी, लेकिन श्रद्धा ने कागज उठा लिया और बोली– खूब सोच-समझ लो, इतना उतावलापन अच्छा नहीं।
गायत्री– खूब सोच लिया है। मैं इसी क्षण ये मँगनी के वस्त्र फेंकूँगी और किसी ऐसे स्थान पर जा बैठूँगी, जहाँ कोई मेरी सूरत न देखे।
श्रद्धा– भला सोचो तो दुनिया क्या कहेगी? लोग भाँति-भाँति की मनमानी कल्पनाएँ करेंगे। मान लिया तुमने इस्तीफा ही दे दिया तो यह क्या मालूम है कि जिनके हाथों में रियासत जायेगी वे उसका सदुपयोग करेंगे। अब तो तुम्हारे लोक और परलोक की भलाई इसी में है कि शेष जीवन भगवत भजन में काटो, तीर्था-यात्रा करो साधु-सन्तों की सेवा करो। सम्भव है कि कोई ऐसे महात्मा मिल जायें जिनके उपदेश से तुम्हारे चित्त को शान्ति हो। भगवान ने तुम्हें धन दिया है। उससे अच्छे काम करो। अनाथों और विधवाओं को पालो, धर्मशालाएँ बनवाओ, तालाब और कुएँ खुदवाओ, भक्ति को, छोड़ कर ज्ञान पर चलो। भक्ति का मार्ग सीधा है, लेकिन काँटों से भरा हुआ है। ज्ञान का मार्ग टेढ़ा है, लेकिन साफ है।
श्रद्धा का ज्ञानोपदेश अभी समाप्त न होने पाया था कि एक महरी ने आ कर कहा– बहूजी, वह डिपटियाइन आयी हैं, जो पहले यहीं रहती थीं। यहीं लिवा लाऊँ?
श्रद्धा– शीलमणि तो नहीं है?
महरी– हाँ-हाँ वही है साँवली! पहले तो गहने से लदी रहती थीं, आज तो एक मुँदरी भी नहीं है। बड़े आदमियों का मन गहने से भी फिर जाता है।
श्रद्धा– हाँ, यही लिवा लाओ।
एक क्षण में शीलमणि आ कर खड़ी हो गयीं। केवल एक उजली साड़ी पहने हुई थीं। गहनों का तो कहना ही क्या, अधरों पर पान की लाली भी न थी। श्रद्धा उठकर उनसे गले मिली और पूछा– सीतापुर से कब आयीं?
शीलमणि– आज ही आयी हूँ, इसीलिए आयी हूँ कि लाला ज्ञानशंकर से दो-दो बातें करूँ। जब से बेचारी विद्या के विष खाकर जान देने का हाल सुना है, कलेजे में एक आग-सी सुलग रही है। यह सब उसकी बहिन की करामात है जो रानी बनी फिरती है। उसी ने विष दिया होगा।
शीलमणि ने गायत्री की ओर देखा न था और देखा भी हो तो पहचानती न थीं। श्रद्धा ने दाँतों तले जीभ दबायी और छाती पर हाथ रख कर आँखों से गायत्री को इशारा किया। शीलमणि ने चौंक कर बायीं तरफ देखा तो एक स्त्री सिर झुकाये बैठी हुई थी। उसकी प्रतिभा, सौन्दर्य और वस्त्राभूषण देखकर समझ गई कि गायत्री यही है। उसकी छाती धक से हो गई, लेकिन उसके मुख से ऐसी बातें निकल गयी थीं कि जिनको फेरना या सँभालना मुश्किल था। वह जलता हुआ ग्रास मुँह में रख चुकी थी और उसे निगलने के सिवा दूसरा उपाय न था। यद्यपि उसका क्रोध न्याय-संगत था, पर शायद गायत्री के मुँह पर वह ऐसे कटु शब्द मुँह से न निकाल सकती। लेकिन अब तीर कमान से निकल चुका था इसलिए उसके क्रोध ने हेकड़ी का रूप धारण किया, लज्जित होने के बदले और उद्दंड हो गई। गायत्री की ओर मुँह करके बोली– अच्छा, रानी साहिबा तो यहीं विराजमान हैं। मैंने आपके विषय में जो कुछ कहा है वह आपको अवश्य अप्रिय लगा होगा, लेकिन उसके लिए मैं आपसे क्षमा नहीं माँग सकती। यही बातें मैं आपसे मुँह पर कह सकती थी और एक मैं क्या सारा संसार यही कह रहा है। मुँह से चाहे कोई न कहे, किन्तु सब के मन में यही बात है। लाला ज्ञानशंकर से जिसे एक बार भी पाला पड़ चुका है, वह उसे अग्राह्य नहीं समझ सकता। मेरे बाबू जी इनके साथ के पढ़े हुए हैं और इन्हें खूब समझते हैं।
जब वह मैजिस्ट्रेट थे, तो उन्होंने अपने असामियों पर इजाफा लगान का दावा किया था। महीनों मेरी खुशामद करते रहे कि मैं बाबू जी से डिगरी करवा दूँ। मैं क्या जानूँ, इनके चकमें में आ गयी। बाबू जी पहले तो बहुत आनाकानी करते रहे लेकिन जब मैंने जिद्द की तो राजी हो गये। कुशल यह हुई कि इसी बीच में मुझे उनके अत्याचार का हाल मालूम हो गया और डिगरी न होने पायी, नहीं तो कितने दीन असामियों की जान पर बन आती। दावा डिसमिस हो गया। इस पर यह इतने रूष्ट हुए कि समाचार-पत्रों में लिख-लिख कर बाबू जी को बदनाम किया। वह अब पत्रों में इनके धर्मोत्साह की खबरें पढ़ते थे, तो कहते थे, महाशय अब जरूर कोई-न-कोई स्वाँग रच रहे हैं। गोरखपुर सनातन-धर्म के उत्सव पर जो धूम-धाम हुई और बनारस में कृष्णलीला का जो नाटक खेला गया उनका वृत्तान्त पढ़कर बाबू जी ने खेद के साथ कहा था, यह महाशय रानी साहेबा को सब्ज बाग दिखा रहे हैं। इसमें आवश्य कोई-न-कोई रहस्य है। लाला जी मुझे मिल जाते तो ऐसा आड़े हाथों लेती कि वह भी याद करते।
गायत्री खिड़की की ओर ताक रही थी, यहाँ तक कि उसकी दृष्टि से खिड़की भी लुप्त हो गयी। उसके अन्तःकरण से पश्चात्ताप और ग्लानि की लहरें उठ-उठ कर कंठ तक आती थीं और उसके नेत्र-रूपी नौका को झकोरे दे कर लौट जाती थीं। वह संज्ञाहीन हो गयी थी। सारी चैतन्य शक्तियाँ शिथिल हो गयी थीं। श्रद्धा ने उसके मुख की ओर देखा, आँसू न रोक सकी। इस अभागिनी दुखिया पर उसे कभी इतनी दया न आयी। वहाँ बैठना तक अन्याय था। वह और कुछ न कर सकी, शीलमणि को अपने साथ ले कर दूसरे कमरे में चली गयी। वहाँ दोनों में देर तक बातचीत होती रहीं। श्रद्धा हत्या का सारा भार ज्ञानशंकर के सिर पर रखती थी। शीलमणि गायत्री को भी दोष का भागी समझती थी। दोनों ने अपने-अपने पक्ष को स्थिर किया। अन्त में श्रद्धा का पल्ला भारी रहा। इसके बाद शीलमणि ने अपना वृत्तान्त सुनाया। सन्तानोत्पत्ति के निर्मित कौन-कौन से यत्न किये, किन-किन दाइयों को दिखाया, किन-किन डॉक्टरों के दवा करायी? यहाँ तक कि वह श्रद्धा को अपने गर्भवती हो जाने का विश्वास दिलाने में सफल हो गयी, किन्तु महाशोक! सातवें महीने में गर्भपात हो गया, सारी आशाएँ धूल में मिल गयीं! श्रद्धा! ने सच्चे हृदय से समवेदना प्रकट की। फिर कुछ देर तक इधर-उधर की बातें होती रहीं। श्रद्धा ने पूछा– अब डिप्टी साहब का क्या इरादा है?
शीलमणि– अब तो इस्तीफा दे कर आये हैं और बाबू प्रेमशंकर के साथ रहना चाहते हैं। उन्हें इन पर असीम भक्ति है। पहले जब इस्तीफा देने की चर्चा करते तो समझती थी कि काम से जी चुराते हैं। राजी न होती थी, लेकिन इन तीन वर्षों में मुझे अनुभव हो गया कि इस नौकरी के साथ आत्मरक्षा नहीं हो सकती। जाति के नेतागण प्रजा के उपकार के लिए जो उपाय करते हैं सरकार उसी में विघ्न डालती है, उसे दबाना चाहती है। उसे भय होता है कि कहीं यहाँ के लोग इतने उन्नत न हो जायें कि उसका रोब न मानें। इसीलिए वह प्रजा के भावों को दबाने के लिए, उसका मुँह बन्द करने को नये-नये कानून बनाती रहती है। नेताओं ने देश को दरिद्रता के चंगुल से छुड़ाने के लिए चरखों और करघों की व्यवस्था की। सरकार उसमें बाधा डाल रही है। स्वदेशी कपड़े का प्रचार करने के लिए दूकानदारों और ग्राहकों को समझाना अपराध ठहरा दिया गया है। नशे की चीजों का प्रचार कम करने के लिए नशेबाजों और ठेकेदारों से कुछ कहना-सुनना भी अपराध है। अभी पिछले सालों जब यूरोप की लड़ाई हुई थी तो सरकार ने प्रजा से कर्ज लिया। कहने को तो कर्ज था, पर असल में जरूरी टैक्स था। अधिकारियों ने दीन-दरिद्र प्रजा पर नाना प्रकार के अत्याचार किये, तरह-तरह के दबाव डाले, यहाँ तक कि उन्हें अपने हल-बैल बेच कर सरकार को कर्ज देने पर मजबूर किया। जिसने इन्कार किया उसे या तो पिटवाया था कोई झूठा इलजाम लगा कर फँसा दिया। बाबूजी ने अपने इलाके में किसी के साथ सख्ती नहीं की। कह दिया, जिसका जी चाहे कर्ज दे, जिसका न जी चाहे न दे। नतीजा यह हुआ कि और इलाकों से तो लाखों रुपये वसूल हुए, इनके इलाके से बहुत कम मिला। इस पर जिले के हाकिम ने नाराज होकर शिकायत कर दी। इनसे यह ओहदा छीन लिया गया, दर्जा घटा दिया गया। जब मैंने यह हाल देखा तो आप ही जिद्द करके इस्तीफा दिलवा दिया। जब प्रजा की कमाई खाते हैं तो प्रजा के फायदे का ही काम करना चाहिए। यह क्या कि जिसकी कमाई खायें, उसी का गला दबायें। यह तो नमकहरामी है, घोर नीचता। यह तो वह करे जिसकी आत्मा मर गई हो, जिसे पेट पालने के सिवा लोक-परलोक की कुछ भी चिन्ता न हो। जिसके हृदय में जाति-प्रेम का लेशमात्र है वह ऐसे अन्याय नहीं कर सकता। भला तो होता है सरकार का, रोब और बल तो उसका बढ़ता है, जेब तो अंग्रेज व्यापारियों के भरते हैं और पाप के भागी होते हैं यह पेट के बन्दे नौकर, यह स्वार्थ के दास अधिकारी और फिर हमें नौकरी की परवाह ही क्या है। घर में खाने को बहुत है। दो-चार को खिलाकर खा सकते हैं। अब तो पक्का इरादा करके आये हैं कि यहीं बाबू प्रेमशंकर के साथ रहें और अपने से जहाँ तक हो सके प्रजा की भलाई करें। अब यह बताओ तुम कब तक रूठी रहोगी? क्या इसी तरह रो-रो कर उम्र काटने की ठान ली है?
श्रद्धा– प्रारब्ध में जो कुछ है उसे कौन मिटा सकता है?
शील– कुछ नहीं, यह तुम्हारी व्यर्थ की टेक है। मैं अबकी तुम्हें घसीट ले चलूँगी। उस उजाड़ में मुझसे अकेले न रहा जायेगा। हम और तुम दोनों रहेंगी तो सुख से दिन काटेंगे। अवसर पाते ही मैं उन महाशय की भी खबर लूँगी। संसार के लिए तो जान देते फिरते हैं और घरवालों की खबर नहीं लेते। जरा सा प्रायश्चित करने में क्या शान घटी जाती है?
श्रद्धा– तुम अभी उन्हें जानती नहीं हो। वह सब कुछ करेंगे पर प्रायश्चित न करेंगे। वह अपने सिद्धान्त को न तोड़ेंगे! तिस पर भी वह मेरी ओर से निश्चित नहीं हैं। ज्ञानशंकर जब से गोरखपुर रहने लगे तब से वह प्रायः रोज यहाँ एक बार आ जाते हैं। अगर काम पड़े तो उन्हें यहाँ रहने में भी आपत्ति न होगी, लेकिन अपने नियम उन्हें प्राणों से भी प्रिय हैं।
शीलमणि ने आकाश की तरफ देखा तो बादल घिर आए थे। घबरा कर बोली– कहीं पानी न बरसने लगे। अब चलूँगी। श्रद्धा ने उसे रोकने की बहुत चेष्टा की, लेकिन शीलमणि ने न माना। आखिर उसने कहा, जरा चल कर उनके आँसू तो पोंछ दो। बेचारी तभी से बैठी रो रही होगी।
शीलमणि– रोना तो उनके नसीब में लिखा है। अभी क्या रोयी है! ऐसे आदमी की यही सजा है। नाराज होकर मेरा क्या बना लेंगी? रानी होंगी तो अपने घर की होंगी।
शीलमणि को विदा करके श्रद्धा झेंपती हुई गायत्री के पास आयी। वह डर रही थी, कहीं गायत्री मुझ पर सन्देह न करने लगी हो कि सारी करतूत इसी की है। उसने डरते-डरते अपराधी की भाँति कमरे में कदम रखा। गायत्री ने प्रार्थी दृष्टि से उसे देखा, पर कुछ बोली नहीं। बैठी हुई कुछ लिख रही थी। मुख पर शोक के साथ दृढ़ संकल्प की झलक थी। कई मिनट तक वह लिखने में ऐसी मग्न थी मानों श्रद्धा के आने का उसे ज्ञान ही न था। सहसा बोली– बहिन, अगर तुम्हें कष्ट न हो तो जरा माया को बुला दो और मेरी महरियों को भी पुकार लेना।
श्रद्धा समझ गयी कि इसके मन में कुछ और ठन गयी। कुछ पूछने का साहस न हुआ। जा कर माया और महरियों को बुलाया। एक क्षण में माया आकर गायत्री के सामने खड़ा हो गया। महरियाँ बाग में झूल रही थी। भादों का महीना था, घटा छाई थी, कजली बहुत सुहानी लगती थी।
गायत्री ने माया को सिर से पाँव तक देख कर कहा– तुम जानते हो कि किसके लड़के हो?
माया ने कुतूहल से कहा– इतना भी नहीं जानता?
गायत्री– मैं तुम्हारे मुँह से सुनना चाहती हूँ जिससे मुझे मालूम हो जाय कि तुम मुझे क्या समझते हो?
माया पहले इस प्रश्न का आशय न समझता था। इतना इशारा पाकर सचेत हो गया।
बोला– पहले लाला ज्ञानशंकर का लड़का था, अब आपका लड़का हूँ।
गायत्री– इसीलिए तुम्हें प्रत्येक विषय में ईश्वर के पीछे मेरी इच्छा को मान्य समझना चाहिए।
माया– निस्सन्देह।
गायत्री– बाबू ज्ञानशंकर को तुम्हारे पालन-पोषण, दीक्षा से कोई सम्बन्ध नहीं है, यह मेरा अधिकार है।
माया– आपके ताकीद की जरूरत नहीं, मैं स्वयं उनसे दूर रहना चाहता हूँ। जब से मैंने अम्माँ को अन्तिम समय उनकी सूरत, देखते ही चीख कर भागते देखा तभी से उनका सम्मान मेरे हृदय से उठ गया।
गायत्री– तो तुम उससे कहीं ज्यादा चतुर हो जितना मैं समझती थी। आज बद्रीनाथ की यात्रा करने जा रही हूँ। कुछ पता नहीं कब तक लौटूँ। मैं समझती हूँ कि तुम्हें बाबू प्रेमशंकर की निगरानी में रखूँ। यह मेरी आज्ञा है कि तुम उन्हें अपना पिता समझो और उनके अनुगामी बनो। मैंने उनके नाम यह पत्र लिखा दिया है! इसे लेकर तुम उनके पास जाओ। वह तुम्हारी शिक्षा की उचित व्यवस्था कर देंगे। तुम्हारी स्थिति के अनुसार तुम्हारे आराम और जरूरत की आयोजना भी करेंगे। तुमको थोड़े ही दिनों में ज्ञात हो जायेगा कि तुम अपने पिता से कहीं ज्यादा सुयोग्य हाथों में हो। संभव है कि लाला प्रेमशंकर को तुमसे उतना प्रेम न हो जितना तुम्हारे पिता को है, लेकिन इसमें जरा भी सन्देह नहीं है कि तुम्हें अपने आनेवाले कर्तव्यों का पालन करने के लिए जितनी क्षमता उनके द्वारा प्राप्त हो सकती है, तुम्हारे आचार-विचार और चरित्र का जैसा उत्तम संगठन वह कर सकते हैं कोई और नहीं कर सकता। मुझे आशा है कि वह इस भार को स्वीकार करेंगे। इसके लिए तुम और मैं दोनों ही उनके बाध्य होंगे। यह दूसरा पत्र मैंने बाबू ज्ञानशंकर को लिखा है। मेरे लौटने तक वह रियासत के मैनेजर होंगे। उन्हें ताकीद कर दी है कि बाबू प्रेमशंकर के पास प्रति मास दो हजार रुपये भेज दिया करें। यह पत्र डाकखाने भिजवा दो।
इतने में चारों महरियाँ आयीं। गायत्री ने उनसे कहा– मैं आज बद्रीनाथ की यात्रा करने जा रही हूँ। तुममें से कौन मेरे साथ चलती है?
महरियों ने एक स्वर से कहा– हम सब की सब चलेंगी।
‘नहीं, मुझे केवल एक की जरूरत है। गुलाबों तुम मेरे साथ चलोगी?’
‘सरकार जैसे हुक्म दें। बाल-बच्चों को महीनों से नहीं देखा है।’
‘तो तुम घर जाओ। तुम चलोगी केसरी?’
‘कब तक लौटना होगा?’
‘यह नहीं कह सकती।’
‘मुझे चलने की कोई उजुर नहीं है पर सुनती हूँ वहाँ का पहाड़ी पानी बहुत लगता है।’
‘तो तुम भी घर जाओ। तू चलेगी अनसूया?’
‘सरकार, मेरे घर कोई मर्द-मानुष नहीं है। घर चौपट हो रहा है। वहाँ चलूँगी तो छटाँक भर दाना भी न मिलेगा।’
‘तो तुम भी घर जाओ। अब तो तुम्हीं रह गयीं राधा, तुमसे भी पूछ लिया चलोगी मेरे साथ?’
‘हाँ, सरकार चलूँगी।’
‘आज चलना होगा।’
‘जब सरकार का जी चाहे, चलें।’
‘तुम्हें बीस बीघे मुआफी मिलेगी।’
तीन महरियों ने लज्जित हो कर कहा– सरकार, चलने को हम सभी तैयार हैं। आपका दिया खाती हैं तो साथ किसके रहेंगी?
‘नहीं, मुझे तुम लोगों की जरूरत नहीं। मेरे साथ अकेली राधा रहेगी। तुम सब कृतघ्न हो, तुमसे अब मेरा कोई नाता नहीं।’
यह कह कर गायत्री यात्रा की तैयारी करने लगी। राधा खड़ी देख रही थी, पर कुछ बोलने का साहस न होता था। ऐसी दशा में आदमी अव्यवस्थित सा हो जाता है। जरा सी बात पर झुँझला पड़ता है और जरा सी बात पर प्रसन्न हो जाता है।
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बाबू ज्ञानशंकर गोरखपुर आये, लेकिन इस तरह जैसे लड़की ससुराल आती है। वह प्रायः शोक और चिन्ता में पड़े रहते। उन्हें गायत्री से सच्चा प्रेम न सही, लेकिन वह प्रेम अवश्य था जो शराबियों को शराब से होता है। उसके बिना उनका यहाँ जरा भी जी न लगता। सारे दिन अपने कमरे में पड़े कुछ न कुछ सोचते या पढ़ते रहते थे। न कहीं सैर करने जाते, न किसी से मिलते-जुलते। कृष्णमन्दिर की ओर भूल कर भी न जाते। उन्हें बार-बार यही पछतावा होता कि मैंने गायत्री को बनारस जाने से क्यों नहीं रोका? यह सब उसी भूल का फल है। श्रद्धा, प्रेमशंकर और बड़ी बहू ने यह सारा विष बोया है। उन्होंने गायत्री के कान भरे, मेरी ओर से मन मैला किया। कभी-कभी उन्हें उदभ्रान्त वासनाओं पर भी क्रोध आता और वह इस नैराश्य में प्रारब्ध के कायल हो जाते थे। हरि-इच्छा भी अवश्य कोई प्रबल वस्तु है, नहीं तो क्या मेरे सारे खेल यों बिगड़ जाते? कोई चाल सीधी ही न पड़ती? धन लालसा ने मुझसे क्या-क्या नहीं कराया? मैंने अपनी आत्मा की, कर्म की, नियमों की हत्या की और एक सती-साध्वी स्त्री के खून से अपने हाथों को रंगा, पर प्रारब्ध पर विजय न पा सका। अभीष्ट का मार्ग अवश्य दिखाई दे रहा है, पर मालूम नहीं वहाँ तक पहुँचना नसीब होगा या नहीं। इस क्षोभ और नैराश्य की दशा में उन्हें बार-बार गायत्री की याद आती, उसकी प्रतिभा-मू्र्ति आँखों में फिरा करती, अनुराग में डूबी हुई उसकी बातें कानों में गूँजने लगती, हृदय से एक ठंडी आह निकल जाती।
ज्ञानशंकर को अब नित्य यह धड़का लगा रहता था कि कहीं गायत्री मुझे अलग न कर दे। वह चिट्ठियाँ खोलते डरते थे कि कहीं गायत्री का कोई पत्र न निकल आये। उन्होंने उसको कई पत्र लिखे थे, पर उससे उन्हें शान्ति न मिलती थी। बनारस में क्या हो रहा है जानने के लिए वह व्यग्र रहते थे, पर ऐसा कोई न था जो वहाँ के समाचार विस्तारपूर्वक उनको लिखता। कभी-कभी वह स्वयं बनारस जाने का विचार करते, लेकिन डरते कि न जाने इसका क्या नतीजा हो। यहाँ तो उसकी आँखों से दूर पड़ा हूँ, सम्भव है कि कुछ दिनों में उसका क्रोध शान्त हो जाय। मुझे देखकर वह कहीं और भी अप्रसन्न हो जाय तो रही-सही आशा भी जाती रहे।
इस भाँति तीन-चार महीने बीत गये। भादों का महीना था। जन्माष्टमी आ रही थी। शहर में उत्सव मनाने की तैयारी हो रही थी। कई वर्षों से गायत्री के यहाँ उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाता था। दूर-दूर से गवैये आते थे, रास-लीला की मंडलियाँ बुलायी जाती थीं, रईसों और हाकिमों को दावत दी जाती थी। ज्ञानशंकर ने समझा, गायत्री को यहाँ बुलाने का यह बहुत ही अच्छा बहाना है। एक लम्बा पत्र लिखा और बड़े आग्रह के साथ उसे बुलाया। कृष्णमन्दिर की सजावट होने लगी, लेकिन तीसरे ही दिन जवाब आया, मेरे यहाँ जन्माष्टमी न होगी, कोई तैयारी न की जाय। यह शोक का साल है, मैं किसी प्रकार का आनन्दोत्सव नहीं कर सकती, चाहे वह धार्मिक ही क्यों न हो। ज्ञानशंकर के हृदय पर बिजली सी गिर गयी! समझ गये कि यहाँ से विदा होने के दिन निकट आ गये। नैराग्य का रंग और भी गहरा हो गया। शंका ने ऐसा रूप धारण किया कि डाकिये की सूरत देखते ही उनकी छाती धड़-धड़ करने लगती थी। किसी बग्धी या मोटर की आवाज सुन कर सिर में चक्कर आ जाता था, गायत्री न हो। रात और दिन में बनारस से चार गाड़ियाँ आती थीं। यह ज्ञानशंकर के लिए कठिन परीक्षा की घड़ियाँ थीं। गाड़ियों के आने के समय उनकी नींद आप ही आप खुल जाती थी। चार दिन तक उनकी यह हालत रही। पाँचवें दिन की डाक से गायत्री की रजिस्टरी चिट्ठी आयी। शिरनामा देखते ही ज्ञानशंकर के पाँव तले से जमीन सरक गयी। निश्चय हो गया कि यह मुझे हटाने का परवाना है, नहीं तो रजिस्टरी चिट्ठी भेजने की क्या जरूरत थी? काँपते हुए हाथों से पत्र खोला। लिखा था– मैं आज बद्रीनाथ जा रही हूँ। आप सावधानी से रियासत का प्रबन्ध करते रहियेगा। मुझे आपके ऊपर पूरा भरोसा है, इसी भरोसे ने मुझे यह यात्रा करने पर उत्साहित किया है। इसके बाद वह आदेश था जिसका ऊपर जिक्र किया जा चुका है। ज्ञानशंकर का चित्त कुछ शान्त हुआ। लिफाफा रख दिया सोचने लगे, बात वही हुई जो वह चाहते थे। गायत्री सब कुछ उनके सिर छोड़कर चली गयी। यात्रा कठिन है, रास्ता दुर्गम है, पानी खराब है, इन विचारों ने उन्हें जरा देर के लिए चिन्ता में डाल दिया। कौन जानता है क्या हो। वह इतने व्याकुल हुए कि एक बार जी में आया क्यों न मैं भी बद्रीनाथ चलूँ? रास्ते में भेंट हो जायेगी। वहाँ तो उसके कोई कान भरनेवाला न होगा सम्भव है मैं अपना खोया हुआ विश्वास फिर जमा लूँ, प्रेम के बुझे हुए दीपक को फिर जला दूँ, इस सन्दिग्ध दशा का अन्त हो जाय। गायत्री के बिना अब उन्हें कुछ सूना मालूम होता था। यह विपुल सम्पति अगर सुख-सरिता थी तो गायत्री उसकी नौका थी। नौका के बिन जलविहार का आनन्द कहाँ? पर थोड़ी देर में उनका यह आवेग शान्त हो गया। सोचा, अभी वह मुझसे भरी बैठी है, मुझे देखते ही जल जायेगी। मेरी ओर से उसका चित्त कितना कठोर हो गया है। माया को मुझसे छीन लेती है। अपने विचार में उसने मुझे कड़े से कड़ा दंड दिया है। ऐसी दशा में मेरे लिए सबसे सुलभ यही है कि अपनी स्वामिभक्ति से, सुप्रबन्ध से, प्रजा-हित से, उसे प्रसन्न करूँ। प्रेमशंकर ने अच्छा निशाना मारा। बगुला भगत है, बैठे-बैठे दो हजार रुपये मासिक की जागीर बना ली। बेचारा माया कहीं का न रहा। प्रेमशंकर उसे कुशल कृषक बना देंगे, लेकिन चतुर इलाकेदार नहीं बना सकते। उन्हें खबर ही नहीं कि रईसों की कैसी शिक्षा होनी चाहिए। खैर, जो कुछ हो, मेरी स्थिति उतनी शोचनीय नहीं है जितना मैं समझता था।
ज्ञानशंकर ने अभी तक दूसरी चिट्ठियाँ न खोली थीं। अपने चित्त को यों समझा कर उन्होंने दूसरा लिफाफा उठाया तो राय साहब का पत्र था। उनके विषय में ज्ञानशंकर को केवल इतना ही मालूम था कि विद्या के देहान्त के बाद वह अपनी दवा कराने के लिए मंसूरी चले गये हैं। पत्र खोलकर पढ़ने लगे–
बाबू ज्ञानशंकर, आशीर्वाद। दो-एक महीने पहले मेरे मुँह से तुम्हारे प्रति आशीर्वाद का शब्द न निकलता, किन्तु अब मेरे मन की वह दशा नहीं है। ऋषियों का वचन है कि बुराई से भलाई पैदा होती है। मेरे हक में यह वचन अक्षरशः चरितार्थ हुआ। तुम मेरे शत्रु हो कर परम मित्र निकले। तुम्हारी बदौलत मुझे आज यह शुभ अवसर मिला। मैं अपनी दवा कराने के लिए मंसूरी आया, लेकिन यहाँ मुझे वह वस्तु मिल गयी जिस पर मैं ऐसे सैकड़ों जीवन न्योछावर कर सकता हूँ। मैं भोग-विलास का भक्त था। मेरे समस्त प्रवृत्तियाँ जीवन का सुख भोगने में लिप्त थीं। लोक-परलोक की चिन्ताओं को मैं अपने पास न आते देता था। यहाँ मुझे एक दिव्य आत्मा के सत्संग का सौभाग्य प्राप्त हो गया और अब मुझे यह ज्ञात हो रहा है कि मेरा सारा जीवन नष्ट हो गया। मैंने योग का अभ्यास किया, शिव और शक्ति की आराधना की, अपनी आकर्षण-शक्ति को बढ़ाया यहाँ तक कि मेरी आत्मा विद्युत का भंडार हो गयी, पर इन सारी क्रियाओं का उद्देश्य केवल वासनाओं की तृत्ति थी। कभी-कभी भोग के आनन्द में मग्न होकर मैं समझता था यही आत्मिक शान्ति है, पर अब ज्ञात हो रहा है कि मैं भ्रम-जाल में फँसा हुआ था! उसी अज्ञान की दशा में अपने को आत्मज्ञानी समझता हुआ मैं संसार में प्रस्थान कर जाता, लेकिन तुमने वैद्य की तलाश में घर से बाहर निकाला और दैवयोग से शारीरिक रोग के वैद्य की जगह मुझे आत्मिक रोगों का वैद्य मिल गया। मेरे हृदय से तुम्हारे कल्याण की प्रार्थना निकलती है, लेकिन याद रखो, मेरी शुभ कामनाओं से तुम्हारा जितना हित होगा उससे कहीं ज्यादा अहित गायत्री की ठंडी साँसों से होगा। विद्या के आत्मघात ने उसे सचेत कर दिया है। ऐसी दशा में अन्य स्त्रियाँ प्रसन्न होतीं, लेकिन गायत्री की आत्मा सम्पूर्णतः निर्जीव नहीं हुई थी। उसने तुम्हारे मन्त्र को विफल कर दिया। तुम्हारा अन्तः करण अब गायत्री के लिए खुला हुआ पृष्ठ है। तुम उसकी शापाग्नि से किसी तरह बच नहीं सकते। तुम्हें जल्द अपनी तृष्णाओं को साथ लिये ही संसार से जाना पड़ेगा। अतएव मुनासिब है कि तुम अपने जीवन के गिने-गिनाये दिन आत्म-शुद्धि में व्यतीत करो। तुम्हारे कल्याण का यही मार्ग है। मैं अपनी कुल जायदाद मायाशंकर को देता हूँ। वह होनहार बालक है और कुल को उज्ज्वल करेगा। उसके वयस्कत्व तक तुम रियायत का प्रबन्ध करते रहो। मुझे अब उससे कोई प्रयोजन नहीं है।
यह पत्र पढ़कर ज्ञानशंकर के मन में हर्ष की जगह एक अव्यक्त शंका उत्पन्न हुई। वह भविष्यवाणी के कायल न थे, लेकिन ऐसे पुरुष के मुँह से अनिष्ट की बातें सुनकर जिसके त्याग ने उसके आत्मज्ञानी होने में कोई सन्देह न रखा हो, उनका हृदय कातर हो गया। इस समय उनके जीवन की चिर-संचित अभिलाषा पूरी हुई थी। उन्हें स्वप्न में भी यह आशा न थी कि मैं इतनी जल्द राय साहब की विपुल सम्पत्ति का स्वामी हो जाऊँगा। नहीं, वह उसकी ओर से निराश हो चुके थे। उन्हें विश्वास हो गया था कि राय साहब उसे ट्रस्ट के हवाले कर जायेंगे। यह सब शंकाएँ मिथ्या निकलीं। लेकिन तिस पर भी इस पत्र से उन्हें वही दुश्शंका हुई जो किसी स्त्री को अपनी दाईं आँखें फड़कने से होती है। उनकी दशा इस समय उस मनुष्य की सी थी जिसे डाकुओं की कैद में मिठाइयाँ खाने को मिले! सूखे ठूँठ का कुसुमित होना किसे आशंकित नहीं कर देगा? वह एक घंटे तक चिन्ता में डूबे रहे। इसके बाद वह कृष्णमन्दिर में गये और बड़े
उत्साह से जन्माष्टमी के उत्सव की तैयारियाँ करने लगे।
ज्ञानशंकर के जीवनाभिनय में अब से एक नये दृश्य का सूत्रपात हुआ, पहले से कहीं ज्यादा शुभ्र, मंजु और सुखद। अभी दस मिनट पहले उनकी आशा-नौका मँझधार में पड़ी चक्कर खा रही थी, पर देखते-देखते लहरें शान्त हो गयीं। वायु अनुकूल हो गयी और नौका तट पर आ पहुँची, जहाँ दृष्टि की परम सीमा के निधियों का भव्य विस्तृत उपवन लहरा रहा था।
52
बाबू ज्वालासिंह को बनारस से आये आज दूसरा दिन था। कल तो वह थकावट के मारे दिन भर पड़े रहे, पर प्रातःकाल ही उन्होंने लखनपुरवालों की अपील का प्रश्न छेड़ दिया। प्रेमशंकर ने कहा– मैं तो आप ही की बाट जोह रहा था। पहले मुझे प्रत्येक काम में अपने ऊपर विश्वास होता था, पर आप सा सहायक पाकर मुझे पग-पग पर आपसे सहारे की इच्छा होती है। अपने ऊपर से विश्वास ही उठ गया। आपके विचार में अपील करने के लिए कितने रुपये चाहिए?
ज्वालासिंह– ज्यादा नहीं तो चार-पाँच हजार तो अवश्य ही लग जायेंगे।
प्रेम– और मेरे पास चार-पाँच सौ भी नहीं है।
ज्वाला– इसकी चिन्ता नहीं। आपके नाम पर दस-बीस हजार मिल सकते हैं।
प्रेम– मैं ऐसा कौन सा जाति का नेता हूँ जिस पर लोगों की इतनी श्रद्धा होगी?
ज्वाला– जनता आपको आपसे अधिक समझती है। मैं आज ही चन्दा वसूल करना शुरू कर दूँगा।
प्रेम– मुझे आशा नहीं कि आपको इसमें सफलता होगी। सम्भव है दो-चार सौ रुपये मिल जायँ, लेकिन लोग यहीं समझेंगे कि उन्होंने भी कमाने का यह ढंग निकाला। चन्दे के साथ ही लोगों को सन्देह होने लगता है। आप तो देखते ही हैं, चन्दों ने हमारे कितने ही श्रेद्धेय नेताओं को बदनाम कर दिया। ऐसा बिरला ही कोई मनुष्य होगा जो चन्दों के भँवर में पड़कर बेदाग निकल गया हो। मेरे पास श्रद्धा के कुछ गहने अभी बचे हुए हैं। अगर वह सब बेच दिया जाय तो शायद हजार रुपये मिल जायँ।
इतने में शीलमणि इन लोगों के लिए नाश्ता लायी। यह बात उसके कानों में पड़ीं बोली-कभी उनके सुधि भी लेते हैं या गहनों पर हाथ साफ करना ही जानते हैं? अगर ऐसी ही जरूरत है तो मेरे गहने ले जाइये।
ज्वाला– क्यों न हो, आप ऐसी ही दानी तो हैं। एक-एक गहने के लिए तो आप महीनों रूठती हैं, उन्हें लेकर कौन अपनी जान गाढ़े से डाले!
शील– जिस आग से आदमी हाथ सेंकता है, क्या काम पड़ने पर उससे अपने चने नहीं भून लेता। स्त्रियाँ गहने पर प्राण देती हैं लेकिन अवसर पड़ने पर उतार भी फेंकती हैं।
मायाशंकर एक तरफ अपनी किताब खोले बैठा हुआ था, पर उसका ध्यान इन्हीं बातों की ओर था। एक कल्पना बार-बार उसके मन में उठ रही थी, पर संकोचवश उसे प्रकट न कर सकता था। कई बार इरादा किया कि कहूँ, पर प्रेमशंकर की ओर देखते ही जैसे कोई मुँह बन्द कर देता था। आँखें नीची हो जाती थीं! शीलमणि की बात सुनकर वह अधीन हो गया। ज्वालासिंह की तरफ कातर नेत्रों से देखता हुआ बोला– आज्ञा हो तो मैं भी कुछ कहूँ।
जवाला– हाँ-हाँ, शौक से कहो।
माया– इस महीने की मेरी पूरी वृत्ति अपील में खर्च कर दीजिये। मुझे रुपयों की कोई विशेष जरूरत नहीं है।
शीलमणि और ज्वालासिंह दोनों ने इस प्रस्ताव को बालोचित आवेश समझ कर प्रेमशंकर की तरफ मुस्कुराते हुए देखा। माया ने उनका यह भाव देखकर समझा, मुझसे धृष्टता हो गयी। ऐसे महत्त्व के विषय में मुझे बोलने का कोई अधिकार न था। चाचाजी दुस्साहस पर अवश्य नाराज होंगे। लज्जा से आँखें भर आयीं और मुँह से एक सिसकी निकल गयी। प्रेमशंकर ने चौंक कर उसकी तरफ देखा, हृदयत भावों को समझ गये। उसे प्रेमपूर्वक छाती से लगा कर आवश्वासन देते हुए बोले– तुम रोते क्यों हो बेटा? तुम्हारी यह उदारता देखकर मेरा चित्त जितना प्रसन्न हुआ है वह प्रकट नहीं कर सकता। तुम मेरे पुत्रतुल्य हो, और मुझे विश्वास है कि तुम्हारा जीवन परोपकारी होगा, लेकिन मैंने तुम्हारी शिक्षा के लिए जो व्यवस्थाएँ की हैं उनका व्यय तुम्हारी वृत्ति से कुछ अधिक ही है।
माया को अब कुछ साहस हुआ। बोला, मेरी शिक्षा पर इतने रुपये खर्च करने की क्या जरूरत है?
प्रेम– क्यों, आखिर तुम्हें घर पर पढ़ाने के लिए अध्यापक रहेंगे या नहीं? एक अँग्रेजी और हिसाब पढ़ायेगा, एक हिन्दी और संस्कृत, उर्दू और फारसी, एक फ्रेंच और जर्मन, पाँचवाँ तुम्हें व्यायाम, घोड़े की सवारी, नाव चलाना शिकार खेलना सिखायेगा। इतिहास और भूगोल मैं पढ़ाया करूँगा।
माया– मेरी कक्षा में जो लड़के सबसे अच्छे हैं वे घर पर किसी मास्टर से नहीं पढ़ते। मैं उनको अपने से कम नहीं समझता।
प्रेम– तुम्हें हवा के लिए एक फिटन की जरूरत है। सवारी के अभ्यास के लिए दो घोड़े चाहिए।
माया– अपराध क्षमा कीजिएगा, मेरे लिए इतने मास्टरों की जरूरत नहीं है। फिटन, मोटर, शिकार, पोलो को भी मैं व्यर्थ समझता हूँ। हाँ, एक घोड़ा गोरखपुर से मँगवा दीजिए तो सवारी किया करूँ। नाव चलाने के लिए मैं मल्लाहों की नाव पर जा बैठूँगा। उनके साथ पतवार घुमाने और डांड चलाने में जो आनंद मिलेगा वह अकेले अध्यापक के साथ बैठने में नहीं आ सकता। अभी से लोग कहने लगे हैं कि इसका मिजाज नहीं मिलता। पदमू कई बार ताने दे चुके हैं! मुझे नक्कू रईसों की भाँति अपनी हँसी कराने की इच्छा नहीं है। लोग यही कहेंगे कि अभी कल तक तो एक मास्टर भी न था, आज दूसरों की सम्पति पा कर इतना घमंड हो गया है।
प्रेम– प्रतिष्ठा का ध्यान रखना आवश्यक है।
माया– मैं तो देखता हूँ आप इन चीजों के बिना ही सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं, सभी आपकी इज्जत करते हैं। मेरे स्कूल के लड़के भी आपका नाम आदर से लेते हैं, हालाँकि शहर के और बड़े रईसों की हँसी उड़ाते हैं। मेरे लिए किसी विशेष चीज की जरूरत क्यों हो?
माया के प्रत्येक उत्तर पर प्रेमशंकर का हृदय अभिमान से फूला पड़ता था। उन्हें आश्चर्य होता था कि इस लड़के में संतोष और त्याग का भाव क्योंकर उदित हुआ? इस उम्र में तो प्रायः लड़के टीमटाम पर जान देते हैं, सुन्दर वस्त्रों से उनका जी नहीं भरता, चमक-दमक की वस्तुओं पर लट्टू हो जाते है। यह पूर्व संस्कार हैं और कुछ नहीं। निरुत्तर होकर बोले– रानी गायत्री की यही इच्छा थी, नहीं तो इतने रुपये क्यों खर्च करतीं?
माया– यदि उनकी यह इच्छा होती तो यह वह मुझे ताल्लुकेदारों के स्कूलों में नहीं भेज देतीं? मुझे आपकी सेवा में रखने से उनका उद्देश्य यही होगा कि मैं आपके ही पदचिह्न पर चलूँ।
प्रेम– तो यह रुपये खर्च क्योंकर होंगे?
माया– इसका फैसला रानी अम्माँ ने आप पर ही छोड़ दिया है। मुझे आप उसी तरह रखिए जैसे आप अपने लड़के को रखते हैं। मुझे ऐसी शिक्षा न दीजिये और ऐसे व्यसनों में न डालिये कि मैं अपनी दीन प्रजा के दुःख-दर्द में शरीक न हो सकूँ। आपके विचार में मेरी शिक्षा की यही सबसे उत्तम विधि है?
प्रेम– नहीं, मेरा विचार तो ऐसा नहीं, लेकिन दुनिया को दिखाने के लिए ऐसा ही करना पड़ेगा। नहीं तो लोग यहीं कहेंगे कि मैं तुम्हारी वृत्ति का दुरुपयोग कर रहा हूँ।
माया– तो आप मुझे इस ढंग पर शिक्षा देना चाहते हैं जिसे आप स्वयं उपयोगी नहीं समझते। लोगों के दुराक्षेपों से बचने के ही लिए आप ने यह व्यवस्थाएँ की हैं।
प्रेमशंकर शरमाते हुए बोले– हाँ बात तो कुछ ऐसी ही है।
माया– मैंने अपने वजीफे के खर्च करने की और भी विधि सोची है। आप बुरा न मानें तो कहूँ।
प्रेम– हाँ-हाँ, शौक से कहो। तुम्हारी बातों से मेरी आत्मा प्रसन्न होती है। मैं तुम्हें इतना विचारशील न समझता था।
ज्वालासिंह– इस उम्र में मैंने किसी को इतना चैतन्य नहीं देखा।
शीलमणि प्रेमशंकर की ओर मुँह करके मुस्कुरायी और बोली– इस पर आपकी ही परछायीं पड़ी है।
माया– मैं चाहता हूँ कि मेरा वजीफा गरीब लड़कों की सहायता में खर्च किया जाय। दस-दस रुपये की १९९ वृत्तियाँ दी जायें तो मेरे लिए दस रुपये बच रहेंगे। इतने में मेरा काम अच्छी तरह चल सकता है।
प्रेमशंकर पुलकित होकर बोले– बेटा, तुम्हारी उदारता धन्य है, तुम देवात्मा हो। कितना देवदुर्लभ त्याग है! कितना संतोष! ईश्वर तुम्हारे इन पवित्र भावों को सुदृढ़ करें, पर मैं तुम्हारे साथ इतना अन्याय नहीं कर सकता।
माया– तो दो-चार वृत्तियाँ कम कर दीजिये, लेकिन यह सहायता उन्हीं लड़कों को दी जाय जो यहाँ आकर खेती और बुनाई का काम सीखें।
ज्वाला– मैं इस प्रस्ताव का अनुमोदन करता हूँ। मेरी राय में तुम्हें अपने लिए कम से कम 500 रुपये रखने चाहिए बाकी रुपये तुम्हारी इच्छा के अनुसार खर्च किये जायँ। 75 वृत्तियाँ बुनाई और 75 खेती के काम सिखाने के लिए दी जाये। भाई साहब कृषिशास्त्र और विज्ञान में निपुण हैं। बुनाई का काम मैं सिखाया करूँगा। मैंने इसका अच्छी तरह अभ्यास कर लिया है।
प्रेमशंकर ने ज्वालासिंह का खंडन करते हुए कहा– मैं इस विषय में रानी गायत्री की आज्ञा और इच्छा के बिना कुछ नहीं करना चाहता।
मायाशंकर ने निराश भाव से ज्वालासिहं को देखा और फिर अपनी किताब देखने लगा।
इसी समय डॉ. इर्फानअली के दीवानखाने में भी इसी विषय पर वार्तालाप हो रहा था। डाक्टर साहब सदैव अपने पेशे की दिल खोलकर निन्दा किया करते थे। कभी-कभी न्याय और दर्शन के अध्यापक बन जाने का इरादा करते। लेकिन उनके विचार में स्थिरता न थी, न विचारों को व्यवहार में लाने के लिए आत्मबल ही था। नहीं, अनर्थ यह था कि वह जिन दोषों की निन्दा करते थे उन्हें व्यवहार में लाते हुए जरा भी संकोच न करते थे, जैसे कोई जीर्ण रोगी पथ्यों से ऊब कर सभी प्रकार के कुपथ्य करने लगे। उन्हें इस पेशे की धन-लोलुपता से घृणा थी, पर आप मुवक्किलों को बड़ी निर्दयता से निचोड़ते थे। वकीलों की अनीति का नित्य रोना रोते थे। पर आप दुर्नीति के परम भक्त थे। अपने हलवे-माँडे से काम था, मुवक्किल चाहे मरे या जिये। इसकी स्वार्थपरायणता और दुर्नीति के ही कारण लखनपुर का सर्वनाश हुआ था।
लेकिन जब से प्रेमशंकर ने उपद्रवकारियों के हाथों से उनकी रक्षा की थी तभी से उनकी रीति-नीति और आचार-विचार में एक विशेष जागृति सी दिखायी देती थी। उनकी धन-लिप्सा अब उतनी निर्दय न थी, मुवक्किलों से बड़ी नम्रता का व्यवहार करते, उनके वृत्तान्त को विचारपूर्वक सुनते, मुकदमें को दिल लगा कर तैयार करते, इतना ही नहीं बहुधा गरीब मुवक्किलों से केवल शुकराना लेकर ही सन्तुष्ट हो जाते थे। इस सदव्यवहार का कारण केवल यही नहीं था कि वह अपने खोये हुए सम्मान को फिर प्राप्त करना चाहते थे, बल्कि प्रेमशंकर का सन्तोषमय, निष्काम और निःस्पृह जीवन उनके चित्त की शान्ति और सहृदयता का मुख्य प्रेरक था। उन्हें जब अवसर मिलता प्रेमशंकर से अवश्य मिलने जाते और हर बार उनके सरल और पवित्र जीवन से मुग्ध होकर लौटते थे। अब तक शहर में कोई ऐसा साधु, सात्विक पुरुष न था जो उन पर अपनी छाप डाल सके। अपने सहवर्गियों में वह किसी को अपने से अधिक विवेकशील, नीतिपरायण और सहृदय न पाते थे। इस दशा में वह अपने को ही सर्वश्रेष्ठ समझते थे और वकालत की निन्दा करके अपने को धन्य मानते थे। उनकी स्वार्थ वृत्ति को उन्मत्त करने के लिए इतना ही काफी था, पर अब उनकी आँखों के सामने एक ऐसा पुरुष उपस्थित था जो उन्हीं का सा विद्वान लेख और वाणी में उन्हीं का सा कुशल था, पर कितना विनयी, कितना उदार, कितना दयालु, कितना शान्तिचित्त! जो उनकी असाधुता से दुःखी होकर भी उनकी उपेक्षा न करता था। अतएव अब डॉक्टर साहब को अपने पिछले अपकारों पर पश्चात्ताप होता था। वह प्रायश्चित करके अपयश और कलंक के दाग को मिटाना चाहते थे। उन्हें लज्जावश प्रेमशंकर से अपील के लिए अनुरोध करने का साहस न होता था, पर उन्होंने संकल्प कर लिया था कि अपील में अभियुक्तों को छुड़ाने के लिए दिल तोड़ कर प्रयत्न करूँगा। वह अपील के खर्च का बोझ भी अपने ही सिर लेना चाहते थे। महीनों से अपील की तैयारी कर रहे थे मुकदमें की मिस्लें विचारपूर्वक देख डाली थीं, जिरह के प्रश्न निश्चित कर लिए थे और अपना कथन भी लिख डाला था। उन्हें इतना मालूम हो गया था कि ज्वालासिंह के आने पर अपील होगी। उनके आने की बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे।
प्रातःकाल का समय था। डॉक्टर साहब को ज्वालासिंह के आने की खबर मिल गयी थी। उनसे मिलने के लिए जा रहे थे कि सैयद ईजाद हुसेन का आगमन हुआ। उनकी सौम्यमूर्ति पर काला चुगा बहुत खुलता था। सलाम-बंदी के बाद सैयद साहब ने इर्फान अली की ओर सन्देह की दृष्टि से देखकर कहा– आपने देखा, इन दोनों भाइयों ने रानी गायत्री को कैसा शीशे में उतार लिया? एक साहब ने रियासत हाथ में कर ली और दूसरे साहब दो हजार रुपये के मौरूसी वसीकेदार बन गये। लौड़े की तालीम में ज्यादा-से-ज्यादा चार-पाँच सौ रुपये खर्च हो जायेंगे, और क्या? दुनिया में कैसे-कैसे बगुला भगत छिपे हुए है!
ईजाद हुसेन की बदगुमानी का मर्ज था। जब से उन्हें यह बात मालूम हुई थी, उनकी छाती पर साँप लोट रहा था, मानों उन्हीं की जेब से रुपये निकाले जाते हैं। यह कितना अनर्थ था कि प्रेमशंकर को तो दो हजार रुपये महीने बिना हाथ पैर हिलाये घर बैठे मिल जायँ और उस गरीब को इतना छल-प्रपंच करने पर भी रोटियों की चिन्ता लगी रहे!
डॉक्टर महाशय ने व्यंग्य भाव से कहा– इस मौके पर आप चूक गये। अगर आप रानी साहिबा की खिदमत में डेपुटेशन लेकर जाते तो इत्तहादी यतीमखाने’ के लिए एक हजार का वसीका जरूर बँध जाता।
ईजाद हुसेन– आप तो जनाब मजाक करते हैं। मैं ऐसा खुशनसीब नहीं हूँ। मगर दुनिया में कैसे-कैसे लोग पड़े हुए हैं जो तर्क का नूरानी जाल फैला कर सोने की चिड़िया फँसा लेते हैं
डॉक्टर साहब ने तिरस्कार की दृष्टि से देखकर कहा– लाला ज्ञानशंकर की निस्बत आप जो चाहे ख्याल करें, लेकिन बाबू प्रेमशंकर जैसे नेकनीयत आदमी पर आपका शुबहा करना बिलकुल बेजा है और जब वह आपके मददगारों में हैं तो आपका उनसे बदगुमान होना सरासर बेइन्साफी है। मैं उन्हें अर्से से जानता हूँ और दावे के साथ कह सकता हूँ कि ऐसा बेलौस आदमी इस शहर में क्या इस मुल्क में मुश्किल से मिलेगा। वह अपने को मशहूर नहीं करते, लेकिन कौम की जो खिदमत कर रहे हैं काश और लोग भी करते तो यह मुल्क रश्के फिर्दोस (स्वर्गतुल्य) हो जाता। जो आदमी दस रुपये माहवार पर जिन्दगी बसर करे, अपने मजदूरों से मसावत (बराबरी) का बर्ताव करे, मजलूमों (अन्याय पीड़ित) की हिमायत करने में दिलोजान से तैयार रहे, अपने उसूलों (सिद्धान्त) पर अपनी जायदाद तक कुर्बान कर दे, उसकी निस्बत ऐसा शक करना शराफत के खिलाफ है, आप उनके मुलाजिमों को सौ रुपए माहवार पर भी रखना चाहें तो न आयेंगे। वह उनके नौकर नहीं हैं, बल्कि पैदावार में बराबर के हिस्सेदार हैं। गायत्री गजब की मर्दुमशनास (आदमियों को पहचानने वाली) औरत मालूम होती है।
ईजाद हुसेन ने चकित हो कर कहा– वाकई वह दस रुपये माहवार पर बसर करते हैं? यह क्योंकर?
इर्फान– अपनी जरूरतों को घटा कर हम और आप तकल्लुफ (विलास) की चीजों को जरूरियात में शामिल किये हुए हैं और रात-दिन उसी फिक्र में परेशान रहते हैं। यह नफ्स (इन्द्रिय) की गुलामी है। उन्होंने इसे अपने काबू में कर लिया है। हम लोग अपनी फुर्सत का वक्त जमाने और तकदीर की शिकायत करने में सर्फ करते हैं। रात-दिन इसी उधेड़-बुन में रहते हैं कि क्योंकर और मिले। और ही हवस हलाल और हराम का भी लिहाज नहीं करते। उन्हें मैंने कभी अपने तकदीर के दुखड़े रोते हुए नहीं पाया। वह हमेशा खुश नजर आते हैं गोया कोई गम ही नहीं…
इतने में बाबू ज्वालासिंह आ पहुँचे। डॉक्टर साहब ने उठ कर हाथ मिलाया। शिष्टाचार के बाद पूछा– अब तो आपका इरादा यहाँ मुस्तकिल तौर पर रहने का है न?
ज्वाला– जी हाँ, आया तो इसी इरादे से हूँ?
इर्फान– फरमाइए, अपील कब होगी?
ज्वाला– इसका जिक्र पीछे करूँगा। इस वक्त तो मुझे सैयद से कुछ अर्थ करना है। हुजूर के दौलतखाने पर हाजिर हुआ था। मालूम हुआ आप तशरीफ रखते हैं। मुझे बाबू प्रेमशंकर ने आपसे यह पूछने के लिए भेजा है कि आप मायाशंकर को उर्दू-फारसी पढ़ाना मंजूर करेंगे।
इर्फान– मंजूर क्यों न करेंगे, घर बैठे-बैठे क्या करते हैं? जलसे तो साल में दस-पाँच ही होते हैं और रोटियों की फिक्र चौबीसों घंटे सिर पर रहती है। तनख्वाह की क्या तजवीज की है?
ज्वाला– अभी 100 रुपये माहवार मिलेंगे।
इर्फान– बहुत माकूल है। क्यों मिर्जासाहब, मंजूर है न? ऐसा मौका फिर आपको न मिलेगा।
ईजाद हुसेन ने कृतज्ञ भाव से कहा– दिलोजान से हाजिर हूँ। मेरी जबान में ताकत नहीं है कि इस एहसान का शुक्रिया अदा कर सकूँ। हैरत तो यह है कि मुझे उनसे एक ही बार नियाज हासिल हुआ और उन्हें मेरी परवरिश का इतना खयाल है।
ज्वाला– वह आदमी नहीं फरिश्ते हैं। आपके यतीमखाने का कई बार जिक्र कर चुके हैं। शायद यतीमों के लिए कुछ वजीफे मुकर्रर करना चाहते हैं। इस वक्त सब कितने यतीम हैं?
उपकार ने ईजाद हुसेन के हृदय को पवित्र भावों से परिपूरित कर दिया था। अतिशयोक्ति से काम न ले सके। एक क्षण तक वह असमंजस में पड़े रहे, पर अन्त में सद्भावों ने विजय पायी। बोले– जनाब, अगर आपने किसी दूसरे मौके पर यह सवाल किया होता तो मैं उसका कुछ और भी जवाब देता, पर आप लोगों की शराफत और हमदर्दी का मुझ जैसे दगाबाज आदमी पर भी असर पड़ ही गया। मेरे यहाँ दो किस्सों के यतीम हैं। एक मुस्तकिल और दूसरे फसली जरूरत के वक्त इन दोनों की तायदात पचास से भी बढ़ जाती है, लेकिन फसली यतीमों को निकाल दीजिए तो सिर्फ दस यतीम रह जाते हैं। मुमकिन है कि आप इनको यतीम न खयाल करें, लेकिन मैं समझता हूँ कि गरीब आदमी से अजीजों के लड़के सच्चे यतीम हैं।
इर्फान अली ने मुस्कराकर कहा– तो हजरत, आपने क्या यतीमखाने का स्वाँग ही खड़ा कर रखा है? कम-से-कम मुझसे तो पर्दा न रखना चाहिए था। तभी आपने अपनी सारी जायदाद यतीमखाने के नाम लिख दी थी।
ईजाद हुसेन ने शर्म से सिर झुका कर कहा– किबला, जरूरत इन्सान से सब कुछ करा लेती है। मैं वकील नहीं, बैरिस्टर नहीं, ताजिर जागीरदार नहीं; एक मामूली लियाकत का आदमी हूँ। मुझ बदनसीब के बालिद टोंक की रियासत में ऊँचे मंसबदार थे। हजारों की आमदनी थी, हजारों का खर्च। जब तक वह जिन्दा रहे मैं आजाद घूमता रहा, कनकैये और बटेरों से दिल बहलाता रहा। उनकी आँखें बन्द होते ही खानदान की परवरिश का भार मुझ पर पड़ा और खानदान भी वह जो ऐश का आदी था। मेरी गैरत ने गवारा न किया कि जिन लोगों पर वालिद मरहूम ने अपना साया कर रखा था उनसे मुँह मोड़ लूँ। मुझमें लियाकत न हो, पर खानदानी गैरत मौजूद थी। बुरी सोहबतों ने दगा और मक्र को फन में पुख्ता कर दिया। टोंक में गुजरान की कोई सूरत न देखी तो सरकारी मुलाजमत कर ली और कई जिलों की खाक छानता हुआ यहाँ आया। आमदनी कम थी, खर्च ज्यादा। थोड़े दिनों में घर की लेई-पूँजी गायब हो गयी। अब सिवाय इसके और कोई सूरत न थी कि या तो फाके करूँ या गुजरान की कोई राह निकालूँ। सोचते-सोचते यही सूझी जो अब कर रहा हूँ।
इर्फानअली– अन्दाजन आपको सालाना कितना रुपये मिल जाते होंगे?
ईजाद– अब क्या कुछ भी पर्दा न रहने दीजिएगा?
इर्फान– अधूरी कहानी नहीं छोड़ी जाती।
ईजाद– तो जनाब, कोई बँधी हुई रकम है नहीं, और न मैं हिसाब लिखने का आदी हूँ। जो कुछ मुकद्दर में है मिल जाता है। कभी-कभी एक-एक महीने में हजारों की याफत हो जाती है, कभी महीनों रुपये की सूरत देखनी नसीब नहीं होती। मगर कम हो या ज्यादा, इस कमाई में बरकत नहीं है। हमेशा शैतान की फटकार रहती है। कितनी ही अच्छी गिजा खाइये, कितने ही कीमती कपड़े पहिनिये, कितने ही शान से रहिये, पर वह दिली इतमीनान नहीं हासिल होता जो हलाल की रूखी रोटियों और गजी-गाढ़ों में है। कभी-कभी तो इतना अफसोस होता है कि जी चाहता है जिन्दगी का खातमा हो जाय तो बेहतर। मेरे लिए सौ रुपये लाखों के बराबर हैं। इन्शा अल्लाह, इर्शाद भी जल्द ही किसी-न-किसी काम में लग जायेगा तो रोजी की फिक्र से निजात हो जायेगी। बाकी जिन्दगी तोबा और इबादत में गुजरेगी, इत्तहाद की खिदमत अब भी करता रहूँगा, लेकिन अब से यह सच्ची खिदमत होगी, खुदगर्जी से पाक। इसका सबाब खुदा बाबू प्रेमशंकर को अदा करेगा।
थोड़ी देर अपील के विषय में परामर्श करने के बाद ज्वालासिंह मिर्जा साहब को साथ ले कर हाजीपुर चले। डॉक्टर साहब भी साथ हो लिये।
53
ज्यों ही दशहरे की छुट्टियों के बाद हाईकोर्ट खुला, अपील दायर हो गयी और समाचार पत्रों के कालम उसकी कार्यवाही से भरे जाने लगे। समस्या बड़ी जटिल थी। दंड प्राप्तों में उन साक्षियों को फिर पेश किये जाने की प्रार्थना की थी जिनके आधार पर उन्हें दंड दिये गये थे। सरकारी वकील ने इस प्रार्थना का घोर विरोध किया, किन्तु इर्फानअली ने अपने दावे को ऐसी सबल युक्तियों से पुष्ट किया और दण्ड-भोगियों पर हुई निर्दयता को ऐसे करुणा-भाव से व्यक्त किया कि जजों ने मुकदमें की दुबारा जाँच किये जाने की अनुमति दे दी।
मातहत अदालत ने विवश हो कर शहादतों को तलब किया। बिसेसर साह डॉ. प्रियनाथ दारोगा खुर्शेद आलम, कर्तारसिंह फैज और तहसीलदार साहब कचहरी में हाजिर हुए। बिसेसर साह का बयान तीन दिन तक होता रहा। बयान क्या था, पुलिस के हथकंडों और कूटनीति का विशद और शिक्षाप्रद निरूपण था। अब वह दुर्बल इनकम-टैक्स से डरने वाला, पुलिस के इशारों पर नाचने वाला बिसेसर साह न था। इन दो वर्षों की ग्लानि, पश्चात्ताप और दैविक व्याधियों ने सम्पूर्णतः उसकी काया पलट दी थी। एक तो उसका बयान यों ही भंडाफोड़ था, दूसरे इर्फानअली की जिरहों ने रहा-सहा पर्दा भी खोल दिया। सरकारी वकील ने पहले तो बिसेसर को अपने पिछले बयान से फिर जाने पर धमकाया, जज ने भी डाँट बतलायी पर बिसेसर जरा भी न डगमगाया। इर्फानअली ने बड़ी नम्रता से कहा, गवाह का यों फिर जाना बेशक सजा के काबिल है, पर इस मुकदमे की हालत निराली है। यह सारा तूफान पुलिस का खड़ा किया हुआ है। इतने बेगुनाहों की जिन्दगी का ख्याल करके अदालत को शहादत के कानून की इतनी सख्ती से पाबन्दी न करनी चाहिए। इन विनीत शब्दों ने जज साहब को शान्त कर दिया। पुराना जज तबदील हो गया था, उसकी जगह नये साहब आये थे।
सरकारी वकील ने भी अपने पत्र के अनुकूल खूब जिरह की, सिद्ध करना चाहा कि गाँववालों की धमकी, प्रेमशंकर के आग्रह या इसी प्रकार के अन्य सम्भावित कारणों ने गवाहों को विचलित कर दिया, पर बिसेसर किसी तरह फन्दे में न आया। अँग्रेजी और जातीय पत्रों ने इस घटना की आलोचना करनी शुरू की। अँग्रेजी पत्रों का अनुमान था कि गवाह का यह रूपान्तर राष्ट्रवादियों के दुराग्रह का फल है। उन्होंने पुलिस को नीचा दिखाने के लिए यह चाल खेली है। अदालत ने इस बयान को स्वीकार करने में बड़ी भूल की है। मुखबिर को यथोचित दंड मिलना चाहिए। हिन्दुस्तानी पत्रों को पुलिस पर छींटे उड़ाने का अवसर मिला। अदालत में मुकदमा पेश ही था, मगर पत्रों ने आग्रह करना शुरू किया कि पुलिस के कर्मचारियों से जवाब तलब करना चाहिए। एक मनचले पत्र ने लिखा, यह घटना इस बात का उज्ज्वल प्रमाण है कि हिन्दुस्तान की पुलिस प्रजा-रक्षण के लिए नहीं वरन् भक्षण के लिए स्थापित की गयी है। अगर खोज की जाय तो पूर्णतः सिद्ध हो जायगा कि यहाँ की 87 सैकड़े दुर्घटनाओं का उत्तरदायित्व पुलिस के सिर है। बाज पत्रों को पुलिस की आड़ में जमींदारों के अत्याचार का भयंकर रूप दिखायी देता था। उन्हें जमींदारों के न्याय पर जहर उगलने का अवसर मिला। कतिपय पत्रों ने जमींदारों की दुरवस्था पर आँसू बहाने शुरू किये। यह आन्दोलन होने लगा कि सरकार की ओर से जमींदारों को ऐसे अधिकार मिलने चाहिए कि वह अपने असामियों को काबू में रख सकें, नहीं तो बहुत सम्भव है कि उच्छृंखलता का यह प्रचंड झोंका सामाजिक संगठन को जड़ से हिला दे।
बिसेसर साह के बाद डॉ. प्रियनाथ की शहादत हुई। पुलिस अधिकारियों को उन पर पूरा विश्वास था, पर जब उनका बयान सुना तो हाथों के तोते उड़ गये। उनके कुतूहल का पारावार न था, मानो किसी नये जगत् की सृष्टि हो गयी। वह पुरुष जो पुलिस का दाहिना हाथ बना हुआ था, जो पुलिस के हाथों की कठपुतली था, जिसने पुलिस की बदौलत हजारों कमाये वह आज यों दगा दे जाये, नीति को इतनी निर्दयता से पैरों तले कुचले।
डॉक्टर साहब ने स्पष्ट कह दिया कि पिछला बयान शास्त्रोक्त न था, लाश के हृदय और यकृती की दशा देखकर मैंने जो धारणा की थी वह शास्त्रानुकूल नहीं थी। बयान देने के पहले मुझे पुस्तकों को देखने का अवसर न मिला था। इन स्थलों में खून का रहना सिद्ध करता है कि उसकी क्रिया आकस्मिक रीति पर बन्द हो गई। यन्त्राघात के पहले गला घोंटने से यह क्रियाक्रम से बन्द होती और इतनी मात्रा में रक्त का जमना सम्भव न था। अपनी युक्ति के समर्थन में उन्होंने कई प्रसिद्ध डॉक्टरों की सम्मति का भी उल्लेख किया। डॉ. इर्फान अली ने भी इस विषय पर कई प्रामाणिक ग्रंथों का अवलोकन किया था। उनकी जिरहों ने प्रियनाथ की धारणा को और भी पुष्ट कर दिया। तीसरे दिन सरकारी वकील की जिरह शुरू हुई। उन्होंने जब वैद्यत प्रश्नों से प्रियनाथ को काबू में आते न देखा तब उनकी नीयत पर आक्षेप करने लगे।
वकील– क्या यह सत्य है कि पहले जिस दिन अभियोग का फैसला सुनाया गया था उस दिन उपद्रवकारियों ने आपके बँगले पर जाकर आपको घेर लिया था?
प्रिय– जी हाँ।
वकील– उस समय बाबू प्रेमशंकर ने आपको मार-पीट से बचाया था?
प्रिय– जी हाँ, वह न आते तो शायद मेरी जान न बचती।
वकील– यह भी सत्य है कि आपको बचाने में यह स्वयं जख्मी हो गये थे?
प्रिय– जी हाँ, उन्हें बहुत चोट आयी थी। कन्धे की हड्डी टूट गयी थी।
वकील– आप यह भी स्वीकार करेंगे कि वह दयालु प्रकृति के मनुष्य हैं और अभियुक्तों से उन्हें सहानुभूति है।
प्रिय– जी हाँ, ऐसा ही है।
वकील– ऐसी दशा में यह स्वाभाविक है कि उन्होंने आपको अभियुक्तों की रक्षा करने पर प्रेरित किया हो?
प्रिय– मेरे और उनके बीच में इस विषय पर कभी बातचीत भी नहीं हुई।
वकील– क्या सम्भव नहीं है कि उनके एहसान ने आपको ज्ञात रूप से बाधित किया हो।
प्रिय– मैं अपने व्यक्तिगत भावों को अपने कर्तव्य से अलग रखता हूँ। यदि ऐसा होता तो उससे पहले बाबू प्रेमशंकर ही अवहेलना करते।
वकील साहब एक पहलू से दूसरे पर आते थे, पर प्रियनाथ चालाक मछली की तरह चारा कुतर कर निकल जाते थे। दो दिन तक जिरह करने के बाद अन्त में हार कर बैठ रहे।
दारोगा खुर्शेद आलम का बयान शुरू हुआ। यह उनके पहले बयान की पुनरावृत्ति थी, पर दूसरे दिन इर्फान अली की जिरहों ने उनको बिलकुल उखाड़ दिया। बेचारे बहुत तड़फड़ाये पर जिरह जाल से न निकल सके।
इर्फान अली को अब अपनी सफलता का विश्वास हो गया। वह आज अदालत से निकले तो बाँछें खिली जाती थीं। इसके पहले भी बडे़-बड़े मुकदमों की पैरवी कर चुके थे और दोनों जेब नोटों से भरे हुए घर चले थे, पर चित्त कभी इतना प्रफुल्लित न हुआ था। प्रेमशंकर तो ऐसे खुश थे मानो लड़के का विवाह हो रहा हो।
इसके बाद तहसीलदार साहब का बयान हुआ। वह घंटों तक लखनपुर वालों की उद्दंडता और दुर्जनता का आल्हा गाते रहे, लेकिन इर्फान अली ने दस ही मिनट में उसका सारा ताना-बाना उधेड़ कर रख दिया।
इर्फान– आप यह तसलीम करते हैं कि यह सब मुलजिम लखनपुर के खास आदमियों में है?
तहसीलदार– हो सकते हैं, लेकिन जात के अहीर, जुलाहे और कुर्मी हैं।
इर्फान– अगर कोई चमार लखपती हो जाय तो आप उससे अपनी जूती गँठवाने का काम लेते हुए हिचकेंगे या नहीं?
तहसीलदार– उन आदमियों में कोई लखपती नहीं है।
इर्फान– मगर सब काश्तकार हैं, मजदूर नहीं। उनसे आपको घास छिलवाने का क्या मजाज था?
तहसीलदार– सरकारी जरूरत।
इर्फान– क्या यह सरकारी जरूरत मजदूरों को मजदूरी दे कर काम कराने से पूरी न हो सकती थी?
तहसीलदार– मजदूरों की तायदाद उस गाँव में ज्यादा नहीं है।
इर्फान– आपके चपरासियों में अहीर, कुर्मी या जुलाहे न थे? आपने उनसे यह काम क्यों न लिया?
तहसीलदार– उनका यह काम नहीं है।
इर्फान– और काश्तकारों का यह काम है?
तहसीलदार– जब जरूरत पड़ती है तो उनसे भी यह काम लिये जाते हैं।
इर्फान– आप जानते हैं जमीन लीपना किसका काम है?
तहसीलदार– यह किसी खास जात का काम नहीं है।
इर्फान– मगर आपको इससे तो इन्कार नहीं हो सकता कि आम तौर पर अहीर और ठाकुर यह नहीं करते?
तहसीलदार– जरूरत पड़ने पर कर सकते हैं।
इर्फान– जरूरत पड़ने पर क्या आप अपने घोड़े के आगे घास नहीं डाल देते? इस लिहाज से आप अपने को साईस कहलाना पसन्द करेंगे?
तहसीलदार– मेरी हालत का उन काश्ताकारों से मुकाबला नहीं हो सकता।
इर्फान– बहरहाल यह आपको मानना पड़ेगा कि जो लोग जिस काम के आदी नहीं हैं वह उसे करना अपनी जिल्लत समझते हैं, उनसे यह काम लेना बेइन्साफी है। कोई बरहमन खुशी से आपके बर्तन धोयेगा। अगर आप उससे जबरन यह काम लें तो वह चाहें खौफ से करे पर उसका दिल जख्मी हो जायेगा। वह मौका पायेगा तो आपकी शिकायत करेगा।
तहसीलदार– हाँ, आपका यह फरमाना वजा है, लेकिन कभी-कभी अफसरों को मजबूर हो कर सभी कुछ करना पड़ता है।
इर्फान– तो आपको ऐसी हालतों में नामुलायम बातें सुनने के लिए भी तैयार रहना चाहिये। फिर लखनपुर वालों पर इलजाम रखते हैं, यह इनसाफी फिकरत का कसूर है। अब तो आप तसलीम करेंगे कि काश्तकारों से जो बेअदबी हुई वह आपकी ज्यादती का नतीजा था।
तहसीलदार– अफसरों की आसाइश के लिए…
तहसीलदार साहब का आशय समझ कर जज ने उन्हें रोक दिया।
इर्फान अली जब संध्या समय घर पहुँचें तब उन्हेंबाबू ज्ञानशंकर का अर्जेंट तार मिला। उन्होंने एक जरूरी मुकदमें की पैरवी करने के लिए बुलाया था। एक हजार रुपये रोजाना मेहनताना का वादा था। डॉक्टर साहब ने तार फाड़ फेंक दिया और तत्क्षण तार से जवाब दिया– खेद हैं मुझे फुर्सत नहीं है। मैं लखनपुर के मामले की पैरवी कर रहा हूँ।
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गायत्री की दशा इस समय उस पथिक की सी थी जो साधु भेषधारी डाकुओं के कौशल जाल में पड़ कर लुट गया हो। वह उस पथिक की भाँति पछताती थी कि मैं कुसमय चली क्यों? मैंने चलती सड़क क्यों छोड़ दी? मैंने भेष बदले हुए साधुओं पर विश्वास क्यों किया और उनको अपने रुपयों की थैली क्यों दिखायी? उसी पथिक की भाँति अब वह प्रत्येक बटोही को आशंकित नेत्रों से देखती थी। यह विडम्बना उसके लिए सहस्रों उपदेशों से अधिक शिक्षाप्रद और सजगकारी थी। अब उसे याद आया था कि एक साधु ने मुझे प्रसाद खिलाया था। जरा दूर चलकर मुझे प्यास लगी तो उसने मुझे शर्बत पिलाया, जो तृषित होने के कारण मैंने पेट भर पिया। अब उसे यह भी ज्ञात हो रहा था कि वह प्यास उसी प्रसाद का फल था। ज्यों-ज्यों वह उस घटना पर विचार करती थी, उसके सभी रहस्य, कारण और कार्य सूत्र में बँधे हुए मालूम होते थे। गायत्री ने अपने आभूषण तो बनारस में ही उतार कर श्रद्धा को सौंप दिये थे, अब उसने रंगीन कपड़े भी त्याग दिये। पान खाने का शौक था। उसे भी छोड़ा। आईने और कंघी को त्रिवेणी में डाल दिया। रुचिकर भोजन को तिलांजलि दी।
उसे अनुभव हो रहा था कि इन्हीं व्यसनों ने मेरे मन को चंचल बना दिया। मैं अपने सतीत्व के गर्व में विलास-प्रेम को निर्विकार समझती थी। मुझे वह न सूझता था कि वासना केवल इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके सन्तुष्ट नहीं होती, वह शनैःशनैः मन को भी अपना आज्ञाकारी बना लेती है। अब वह केवल एक उजली साड़ी पहनती थी, नंगे पाँव चलती थी और रूखा-सूखा भोजन करती थी। इच्छाओं का दमन कर रही थी, उन्हें कुचल डालना चाहती थी। शीशा-ज्यों-ज्यों साफ दिखायी दे रही था। उसके बाल स्पष्ट होते जाते हैं। गायत्री को अब अपने मन की कुप्रत्तियाँ साफ दिखाई दे रही थीं। कभी-कभी क्षोभ और ग्लानि के उद्वेग में उसका जी चाहता कि प्राणाघात कर लूँ। उसे अब स्वप्न में अक्सर अपने पति के दर्शन होते। उसकी मर्मभेदी बातें कलेजे के पार हो जातीं, उनकी तीव्र दृष्टि हृदय को छेद डालती।
बनारस से वह प्रयाग आयी और कई दिनों तक झूसी की एक धर्मशाला में ठहरी रही। यहाँ उसे कई महात्माओं के दर्शन हुए, लेकिन उसे उपदेशों से शान्ति न मिली। वे सब दुनिया के बन्दे थे। पहले तो उससे बात तक न की, पर ज्यों ही मालूम हुआ कि यह रानी गायत्री है त्यों ही सब ज्ञान और वैराग्य के पुतले बन गये! गायत्री को विदित हो गया कि उनका त्याग केवल उद्योग-हीनता है और उनका भेष केवल सरल हृदय भक्तों के लिए मायाजाल। वह निराश हो कर चौथे दिन हरिद्वार जा पहुँची, पर यहाँ धर्म का आडम्बर तो बहुत देखा, भाव कम यात्रीगण दूर-दूर से आये हुए थे, पर तीर्थ करने के लिये नहीं, केवल विहार करने के लिये। आठों पहर गंगा तट पर विलास और आभूषण की बहार रहती थी। गायत्री खिन्न हो कर तीसरे ही दिन यहाँ से हृषीकेश चली गयी। वहाँ उसने किसी को अपना परिचय न दिया। नित्य पहर रात रहे उठती और गंगा स्नान करके दो-तीन घंटे गीता का पाठ किया करती। शेष समय धर्म ग्रन्थों के पढ़ने में काटती। सन्ध्या को साधु-महात्माओं के ज्ञानोपदेश सुना करती। यद्यपि वहाँ दो-एक त्यागी आत्माओं के दर्शन हुए, पर कोई ऐसा तत्वज्ञानी न मिला जो उसके चित्त को संसार से विरक्त कर दे। इतना संयम और इन्द्रियनिग्रह करने पर भी सांसारिक चिन्ताएँ उसे सताया करती थीं। मालूम नहीं घर पर क्या हो रहा? न जाने सदाव्रत चलता है या ज्ञानशंकर ने बन्द कर दिया? फर्श आदि की न जाने क्या दशा होगी? नौकर-चाकर चारों ओर लूट मचा रहे होंगे। मेरे दीवान-खाने में मनों गर्द जम रही होगी। अबकी अच्छी तरह मरम्मत न हुई होगी तो छतें कई जगह से कट गयी होंगी। मोटरें और बग्धियाँ रोज माँगी जाती होंगी। जो ही आकर दो-चार लल्लो-चप्पो की बातें करता होगा, लाला जी उसी को दे देते होंगे समझते होंगे। अब तो मैं मालिक हूँ। बगीचा बिलकुल जंगल हो गया होगा। ईश्वर जाने कोई चिड़ियों और जानवरों की सुध लेता है या नहीं। बेचारे भूखों मर गये होंगे। दोनों पहाड़ी मैंने कितनी दौड़-धूप करने से मिले थे। अब या तो मर गये होंगे या कोई माँग ले गया होगा। सन्दूकों की कुन्जियाँ तो श्रद्घा को दे आयी हूँ, पर ज्ञानशंकर जैसे दुष्ट चरित्र आदमी से कोई बात बाहर नहीं। बहुधा धर्म ग्रन्थों के पढ़ने या मन्त्र जाप करते समय दुश्चिन्ताएँ उसे आ घेरती थीं। जैसे टूटे हुए बर्तन में एक ओर से पानी भरो और दूसरी ओर से टपक जाता है। उसी तरह गायत्री एक ओर तो आत्म-शुद्धि की क्रियाओं में तत्पर हो रही थी, पर दूसरी ओर चिन्ता-व्याधि उसे घेरे रहती थी। वह शान्ति, वह एकाग्रता न प्राप्त होती थी जो आत्मोत्कर्ष का मूल मन्त्र है। आश्चर्य तो यह है कि वह विघ्न-बाधाओं का स्वागत करती थी और उन्हें प्यार से हृदयागार में बैठती थी। वह बनारस से यह ठानकर चली थी कि अब संसार से कोई नाता न रखूँगी, लेकिन अब उसे ज्ञात होता था कि आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए वैराग्य की जरूरत नहीं है। मैं अपने घर रह कर रियासत की देख-रेख करते हुए क्या निर्लिप्त नहीं रह सकती, पर इस विचार से उसका जी झुँझला पड़ता था। वह अपने को समझाती, अब उसे रियासत से क्या प्रयोजन है? बहुत भोग कर चुकी। मुझे मोक्ष मार्ग पर चलना चाहिए, यह जन्म तो बिगड़ ही गया, दूसरा जन्म क्यों बिगाडूँ?
इस तर्क-वितर्क में गायत्री बद्रीनाथ की यात्रा पर आरूढ़ न हो सकी। हृषीकेश में पड़े-पड़े तीन महीने गुजर गये और हेमन्त सिर पर आ पहुँचा, यात्रा दुस्साध्य हो गयी।
पौष मास था, पहाड़ों पर बर्फ गिरने लगी थी। प्रातःकाल की सुनहरी किरणों मे तुषार-मंडित पर्वत श्रेणियों की शोभा अकथनीय थी। एक दिन गायत्री ने सुना कि चित्रकूट में कहीं से ऐसे महात्मा आये हैं जिनके दर्शन-मात्र से ही आत्मा तृप्त हो जाती है। वह उपदेश बहुत कम करते हैं, लेकिन उनका दृष्टिपात उपदेशों से भी ज्यादा सुधावषी होता है। उनके मुख मुण्डल पर ऐसी कान्ति है मानों तपाया हुआ कुन्दन हो। दूध ही उनका आहार है और वह भी एक छटाँक से अधिक नहीं, पर डीलडौल और तेज ऐसा है कि ऊँची से ऊँची पहाड़ियों पर खटाखट चढ़ते चले जाते हैं, न दम फूलता है, न पैर काँपते हैं, न पसीना आता है। उनका पराक्रम देखकर अच्छे-अच्छे योगी भी दंग रह जाते हैं। पसूनी के गलते हुए पानी में पहर रात से ही खड़े हो कर दो-तीन घंटे तक तप किया करते हैं। उनकी आँखों में कुछ ऐसा आकर्षण है कि वन के जीवधारी भी उनके इशारों पर चलने लगते हैं। गायत्री ने उनकी सिद्धि का यह वृत्तांत सुना तो उसे उनके दर्शनों की प्रबल उत्कंठा हुई। उसने दूसरे ही दिन चित्रकूट ही राह ली और चौथे दिन पसूनी के तट पर एक धर्मशाला में बैठी हुई थी।
यहाँ जिसे देखिये वही स्वामी जी का कीर्तिगान कर रहा था, भक्त जन-दूर-दूर से आये हुए थे। कोई कहता था यह त्रिकालदर्शी हैं, कोई उन्हें आत्मज्ञानी बतलाता था। गायत्री उनकी सिद्धि की कथाएँ सुन कर इतनी विह्वल हुई कि इसी दम जा कर उनके चरणों पर सिर रख दे, लेकिन रात से मजबूर थी। वह सारी रात करवटें बदलती और सोचती रही कि मैं मुँह अँधेरे जा कर महात्मा जी के पैरों पर गिर पड़ूँगी कि महाराज, मैं अभागिनी हूँ, आप आत्मज्ञानी हैं, आप सर्वज्ञ हैं, मेरा हाल आपसे छिपा हुआ नहीं है, मैं अथाह जल में डूबी जाती हूँ, अब आप ही मुझे उबार सकते हैं। मुझे ऐसा उपदेश दीजिए और मेरी निर्बल आत्मा को इतनी शक्ति प्रदान कीजिए कि वह माया-मोह के बन्धनों से मुक्त हो जाय। मेरे हृदय-स्थल में अन्धकार छाया हुआ है, उसे आप अपनी व्यापक ज्योति से आलोकित कर दीजिए। इस दीन कल्पना से गद्गद हो कर घंटों रोती रही। उसकी कल्पना इतनी सजग हो गयी कि स्वामी जी के आश्वासन शब्द भी उसके कानों में गूँजने लगे। ज्यों ही उनके चरणो पर गिरूँगी वह प्रेम से मेरे सिर पर हाथ रख कर कहेंगे, बेटी, तुझ पर बड़ी विपत्ति पड़ी है, ईश्वर तेरा कल्याण करेंगे। जाड़े की लम्बी रात किसी भाँति कटती ही न थी। यह बार-बार उठ कर देखती तड़का तो नहीं हो गया है, लेकिन आकाश में जगमगाते हुए तारों को देख कर निराश हो जाती थी। पाँचवी बार जब उठी तो पौ फट रही थी। तारागण किसी मधुर गान के अन्तिम स्वरों की भाँति लुप्त होते जाते थे। आकाश एक पीतवस्त्रधारी योगी की भाँति था जिसका मुखकमल आत्मोल्लास से खिला हुआ हो और पृथ्वी एक माया-रहस्य थी, ओर के नीले पर्दे में छिपी हुई गायत्री ने तुरन्त पसूनी में स्नान किया और स्वामी जी के दर्शन करने चली।
स्वामी जी की कुटी एक ऊँची पहाड़ी पर थी। वह एक वृक्ष के नीचे बैठे हुए थे। वहीं चट्टानों के फर्श पर भक्तजन आ-आकर बैठते जाते थे। चढ़ाई कठिन थी, पर श्रद्धा लोगों को ऊपर खींचे लिए जाती थी। असक्तता और निर्बलता ने भी सदनुराग के सामने सिर झुका दिया था। नीचे से ऊपर तक आदमियों का ताँता लगा हुआ था। गायत्री ने पहाड़ी पर चढ़ना शुरू किया। थोड़ी दूर चल कर उसका दम फूल गया। पैर मन-मन भर के हो गये, उठाये न उठते थे, लेकिन वह दम ले-लेकर हाथों और घुटनों के बल चट्टानों पर चढ़ती ऊपर जा पहुँची। उसकी सारी देह पसीने से तर थी और आँखों के सामने अँधेरा छा रहा था लेकिन ऊपर पहुँचते ही उसका चित्त ऐसा प्रफुल्लित हुआ जैसे किसी प्यासे को पानी मिल जाय। गायत्री की छाती में धड़कन सी होने लगी। ग्लानि की ऐसी विषम, ऐसी भीषण पीड़ा उसे कभी न हुई थी। इस ज्ञान ज्योति को कौन सा मुँह दिखाऊँ! उसे स्वामी जी की ओर ताकने का साहस न हुआ जैसे कोई आदमी सर्राफ के हाथ में खोटा सिक्का देता हुआ डरे। बस इसी हैस-बैस में थी कि सहसा उसके कानों में आवाज आयी– गायत्री, मैं बहुत देर से तेरी बाट जोह रहा हूँ। यह राय कमलानन्द की आवाज थी, करुणा और स्नेह में डूबी हुई। गायत्री ने चौंक कर सामने देखा स्वामी जी उसकी ओर चले आ रहे थे। उनके तेजोमय मुखारविन्द पर करुणा झलक रही थी और आँखें झुक गयीं। ऐसा जान पड़ा मानो मैं तेज तरंगों में बही जाती हूँ। हाँ! मैं इस विशाल आत्मा की पुत्री हूँ। ग्लानि ने कहा, हा पतिता! लज्जा ने कहा, हाँ, कुलकलंकिनी! निराशा बोली, हाँ, अभागिनी! शोक ने कहा, तुझ पर धिक्कार! तू इस योग्य नहीं कि संसार को अपना मुँह दिखाये। अधःपतन अब क्या शेष है जिसके लिए जीवन की अभिलाशा! विधाता ने तेरे भाग्य में ज्ञान और वैराग्य नहीं लिखा। इन दुष्कल्पनाओं ने गायत्री को इतना मर्माहत किया कि पश्चात्ताप, आत्मोद्धार और परमार्थ की सारी सदिच्छाएँ लुप्त हो गयीं। उसने उन्मत्त नेत्रों से नीचे की ओर देखा और तब जैसे कोई चोट खाया हुआ दोनों डैना फैला वृक्ष से गिरता है वह दोनों हाथ फैलाये शिखर पर से गिर पड़ी। नीचे एक गहरा कुण्ड था। उसने उसकी अस्थियों को संसार के निर्दय कटाक्षों से बचाने के लिए अपने अन्तस्थल के अपार अन्धकार में छिपा लिया।
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‘‘लाला प्रभाशंकर ने भविष्य-चिन्ता का पाठ न पढ़ा था। ‘कल’ की चिन्ता उन्हें कभी न सताती थी। उनका समस्त जीवन विलास और कुल मर्यादा की रक्षा में व्यतीत हुआ था। खिलाना, खाना और नाम के लिए मर जाना– यही उनके जीवन के ध्येय थे। उन्होंने सदैव इसी त्रिमूर्ति की आराधना की थी और अपनी वंशगत सम्पति का अधिकांश बर्बाद कर चुकने पर भी वह अपने व्यावहारिक नियमों में संशोधन करने की जरूरत नहीं समझते थे या समझते थे, तो अब किसी नये मार्ग पर चलना उनके लिए असाध्य था। वह एक उदार गौरवशील पुरुष थे। सम्पति उनकी दृष्टि में मर्यादा पालन का एक साधन मात्र थी। इससे श्रीवृद्धि भी हो सकती है, धन से धन की उन्नति भी हो सकती है, यह उनके ध्यान में भी नहीं आया था। चिन्ताओं को वह तुच्छ समझते थे, शायद इसीलिए कि उनका निवारण करने के लिए ज्यादा से ज्यादा अपने महाजन के द्वार तक जाना पड़ता था। उनका जो समय और धन मेहमानों के आदर-सत्कार में लगता था उसी को वह श्रेयस्कर समझते थे। दान-दक्षिण के शुभ अवसर आते, तो उनकी हिम्मत आसमान पर जा पहुँचती थी। उस नशे में उन्हें इसकी सुध न रहती थी कि फिर क्या होगा, और काम कैसे चलेंगे? यह बड़ी बहू का ही काम था कि इस चढ़ी हुई नदी को थामे। वह रुपये को उनकी आँखों से इस तरह बचाती थी जैसे दीपक को हवा से बचाते हैं। वह बेधड़क कह देती थी, अब यहाँ कुछ नहीं है। लाला जी उसे धिक्कारने लगते, दुष्टा, अभागिनी, तुच्छहृदया जो कुछ मुँह में आता कहते, पर वह टस-से-मस न होती थी। अगर वह सदैव इस नीति पर चल सकती, तो अब तक जायदाद बची न रहती, पर लाला साहब ऐसे अवसरों पर कौशल से काम लेते। वह विनय के महत्व से अनभिज्ञ नहीं थे। बड़ी बहू उनके कोप का सामना कर सकती थी, पर उनके मृदु वचनों से हार जाती।
प्रेमशंकर की जमानत के अवसर पर लाला प्रभाशंकर ने जो रुपये कर्ज लिए थे, उसका अधिकांश उनके पास बच रहा था। वह रुपये उन्होंने महाजन को लौटा कर न दिये। शायद ऋण-धन को वह अपनी कमाई समझते थे। धन-प्राप्ति का कोई अन्य उपाय उन्हें ज्ञात ही न था। बहुत दिनों के बाद इतने रुपये एक मुश्त उन्हें मिले थे—मानों भाग्य का सूर्य उदय हो गया। आत्मीय जनों और मित्रों के यहाँ तोहफे और सौगात जाने लगे, मित्रों की दावतें होने लगीं। लाला जी पाक-कला में सिद्धहस्त थे। उनका निज रचित एक ग्रन्थ था जिसमें नाना प्रकार के व्यंजनों के बनाने की विधि लिखी हुई थी। वह विद्या उन्होंने बहुत खर्च करके हलवाइयों और बावर्चियों से प्राप्त की थी। वह निमकौड़ियों की ऐसी स्वादिष्ट खीर पका सकते थे कि बादाम को धोखा हो। लाल विषाक्त मिर्चा का ऐसा हलवा बना सकते थे कि मोहनभोग का भ्रम हो। आम की गुठलियों का कबाब बना कर उन्होंने अपने कितने ही रसज्ञ मित्रों को धोखा दे दिया था। उनका लिसोढ़ा का मुरब्बा अंगूर से भी बाजी मार ले जाता था यद्यपि इन पदार्थों को तैयार करने में धन का अपव्यय होता था, सिरमगजन भी बहुत करना पड़ता था और नक्ल-नक्ल ही रहती थी, लेकिन लाला जी इस विषय में पूरे कवि थे जिनके लिए सुहृदजनों की प्रशंसा ही सबसे बड़ा पुरस्कार है। अबकी कई साल के बाद उन्होंने अपने बड़े भाई की जयन्ती हौसले के साथ की। भोज और दावत की हफ्तों तक धूम रही। शहर में एक से एक गण्यमान्य सज्जन पड़े हुए थे, पर कोई उनसे टक्कर लेने का साहस न कर सकता था।
बड़ी बहू जानती थी कि जब घर में रुपये रहेंगे इनका हाथ न रुकेगा, साल-आध-साल में सारी रकम खा-पीकर बराबर कर देंगे, इसलिए जब घर में आग ही लगाई है तो क्यों ने हाथ सेंक लें। अवसर पाते ही उसने दोनों कन्याओं के विवाह की बातचीत छेड़ दी। यद्यपि लड़कियाँ अभी विवाह के योग्य न थीं, पर मसहलत यही थी कि चलते हाथ-पैर भार से उऋण हो जायँ। जिस दिन ज्वालासिंह अपील दायर करने चले उसी दिल लाला प्रभाशंकर ने फलदान चढ़ाये। दूसरे ही दिन से वह बारातियों के आदर सत्कार की तैयारियों में व्यस्त हो गये ऐसे शुभ कार्यों में वह किफायत को दूषित ही नहीं, अक्षम्य समझते थे। उनके इरादे तो बहुत बड़े थे, लेकिन कुशल यह थी कि आजकल प्रेमशंकर प्रायः नित्य उनकी मदद करने के लिए आ जाते। प्रभाशंकर दिल से उनका आदर करते थे, इसलिए उनकी सलाहें सर्वथा निरर्थक न होतीं। विवाह की तिथि अगहन में पड़ती थी। वे डेढ़-दो महीने तैयारियों में ही कटे। प्रेमशंकर अक्सर संध्या को यहीं भोजन भी करते और कुछ देर तक गपशप करके हाजीपुर चले जाते। आश्चर्य यह था कि अब महाशय ज्ञानशंकर भी चचा से प्रसन्न मालूम होते थे। उन्होंने गोरखपुर से कई बोरे चावल, शक्कर और कई कुप्पे घी भेजे। विवाह के एक दिन पहले वह स्वयं आये और बड़े ठाट-बाट से आये। कई सशस्त्र सिपाही साथ थे। फर्श-कालीनें, दरियाँ तो इतनी लाये थे कि उनसे कई बारातें सज जातीं। दोनों वरों को सोने की एक-एक घड़ी और एक-एक मोहनमाला दी। बरातियों को भोजन करते समय एक-एक असर्फी भेंट दी। दोनों भतीजियों के लिए सोने के हार बनवा लाये थे और दोनों समधियों को एक-एक सजी हुई पालकी भेंट की। बारात के नौकरों, कहारों और नाइयों को पाँच-पाँच रुपये विदाई दी। उनकी इस असाधारण उदारता पर सारा घर चकित हो रहा था और प्रभाशंकर तो उनके ऐसे भक्त हो गये मानो वह कोई देवता थे। सारे शहर में वाह-वाह होने लगी। लोग कहते थे– मरा हाथी तो भी नौ लाख का बिगड़ गये लेकिन फिर भी हौसला और शान वही है। यह पुराने रईसों का ही गुर्दा है! दूसरे क्या खा कर इनकी बराबरी करेंगे? घर में लाखो भरे हों, कौन देखता है? यही हौसला अमीरी की पहचान है। लेकिन यह किसे मालूम था कि लाला साहब ने किन दामों यह नामवरी खरीदी है।
विवाह के बाद कुछ दिन तो बची-खुची सामग्रियों से लाला प्रभाशंकर की रसना तृप्त होती रही, लेकिन शनैः-शनैः यह द्वार भी बन्द हुआ और रूखे फीके भोजन पर कटने लगे। उस वर्षा के बाद यह सूखा बहुत अखरता था। स्वादिष्ट पदार्थों के बिना उन्हें तृप्ति न होती थी। रूखा भोजन कंठ से नीचे उतरता ही न था। बहुधा चौके पर से मुँह जूठा करके उठ आते, पर सारे दिन जी ललचाया करता। अपनी किताब खोल कर उसके पन्ने उलटते कि कौन सी चीज आसानी से बन सकती है, पर वहाँ ऐसी कोई चीज न मिलती। बेचारे निराश हो कर किताब बन्द कर देते और मन को बहलाने के लिए बरामदे में टहलने लगते। बार-बार घर में जाते, आल्मारियों और ताखों की ओर उत्कंठित नेत्रों से देखते कि शायद कोई चीज निकल आए। अभी तक थोड़ी सी नवरत्न चटनी बची हुई थी। कुछ और न मिलता तो सबकी नजर बचा उसमें से एक चम्मच निकाल कर चाट जाते। विडम्बना यह थी कि इस दुःख में कोई उनका साथी, कोई हमदर्द न था। बड़ी बहू से अगर कभी डरते-डरते अच्छी चीजें बनाने को कहते, तो वह या तो टाल जाती या झुँझला कर कह बैठती—तुम्हारी जीभ भी लड़कों की तरह चटोरी है, जब देखो खाने की ही फिक्र। सारी जायदाद हलुवे और पुलाव की भेंट कर दी और अब तक तस्कीन न हुई। अब क्या रखा है? बेचारे लाला साहब यह झिड़कियाँ सुनकर लज्जित हो जाते। प्रेमियों को प्रेमिका की चर्चा से शान्ति प्राप्त होती है, किन्तु खेद यह था कि यहाँ कोई वह चर्चा सुनानेवाला भी न था।
अन्त को यहाँ तक नौबत पहुँची कि खोंचेवालों को बुलाते और उससे चाट के दोने लेकर घर के किसी कोने में जा बैठते और चुपचाप मजे ले-ले कर खाते। पहले चाट की ओर वह आँख उठाकर ताकते भी न थे, पर अब वह शान न थी। डेढ़-दो महीने तक उनका यही ढंग रहा, पर टुटपुंजिये खोंमचेवाले वादों पर कब तक रहते! उनके तकाजे होने लगे। लालाजी जो उनकी विचित्र पुकार पर कान लगाये रहते थे, अब उनकी आवाज सुनते ही छिपने के लिए बिल ढूँढ़ने लगते। उनके वादे अब सुनिश्चित न होते थे, उनमें अविनय और अविश्वास की मात्रा अधिक होती थी। मालूम नहीं, इन तकाजों से उन्हें कब तक मुँह छिपाना पड़ता, लेकिन संयोग से उनके पूरे करने की एक विधि उपस्थित हो गयी। श्रद्धा ने एक दिन उन्हंक बाजार से दो जोड़ी साड़ियाँ लाने के लिए दाम दिया। वह साड़ियाँ उधार लाये और रुपये खोंचेवालों को देकर गला छुड़ाया। बजाज की ओर से ऐसे दुराग्रहपूर्ण और निन्दास्पद तकाजों की आशंका न थी। उसे बरसों वादे पर टाला जा सकता था, मगर उस दिन से चाटवालों ने उनके द्वार पर आना ही छोड़ दिया।
लेकिन चाट बुरी लत है। अच्छे दिनों में वह गले की जंजीर है, किन्तु बुरे दिनों में तो यह पैनी छुरी हो जाती है जो आत्म-सम्मान और लज्जा का तसमा भी नहीं छोड़ती। माघ का महीना, सर्दी का यह हाल था कि नाड़ियों में रक्त जमा जाता था। लाला प्रभाशंकर नित्य वायु सेवन के बहाने प्रेमशंकर के पास जा पहुँचते और देश-काल के समाचार सुनते। मौका पाते ही किसी न किसी स्वादिष्ट पदार्थ की चर्चा छेड़ देते, उस समय की कथा कहने लगते जब चीज खायी थी, मित्रों ने उस पर क्या-क्या टिप्पणियाँ की थीं। प्रेमशंकर उनका इशारा समझ जाते और शीलमणि से वह पदार्थ बनवा कर लाते, लेकिन प्रभाशंकर की स्वाद लिप्सा कितनी दारुण थी इसका उन्हें ज्ञान न था। अतएव कभी-कभी लाला जी का मनोरथ वहाँ भी पूरा न होता। तब घर आते समय वह सीधी राह से न आते। स्वाद-तृष्णा उन्हें नानवाइयों के मुहल्ले में ले जाती। प्याज और मसालों की सुगन्ध से उनकी लोलुप आत्मा तृप्त होती थी। कितना करुणाजनक दृश्य था! सत्तर साल का बूढ़ा, उच्च कुल मर्यादा पर जान देनेवाला पुरुष गन्ध से रस का आनन्द उठाने के लिए घंटों नानवाइयों की गली में चक्कर लगाया करता, लज्जा से मुँह छिपाये हुए कि कोई देख न ले! ताजे कबाब की सुगन्ध से उनके मुँह में पानी भर आता, यहाँ तक कि खाद्याखाद्य का विचार भी न रहता। उस समय केवल एक अव्यक्त शंका, एक मिथ्या संकोच उनके फिसलते हुए पैरों को सँभाल दिया करता था।
एक दिन लालाजी प्रेमशंकर के पास गये तो उन्होंने अपील का फैसला सुनाया। प्रभाशंकर प्रसन्न हो कर बोले– यह बहुत अच्छा हुआ। ईश्वर ने तुम्हारा उद्योग सफल किया। बेचारे निरपराध किसान जेल में पड़े सड़ रहे थे। ईश्वर बड़ा दयालु है। इन आनन्दोत्सव में एक दावत होनी चाहिए।
माया बोला– जी हाँ, यही तो अभी मैं कह रहा था। मैं तो अपने स्कूल के सब लड़कों को नेवता दूँगा।
प्रेमशंकर– पहले बेचारे आ तो जायें। अभी तो उनके आने में महीनों की देर है, कोई किसी जेल में है, कोई किसी में। जज ने तो पुलिस का पक्ष करना चाहा था, पर डॉक्टर इर्फान अली ने उसकी एक न चलने दी।
प्रभा– इन जजों का यही हाल है। उनका अभीष्ट सरकार का रोब जमाना होता है, न्याय करना नहीं। इस मुकदमे में तुमने दौड़-धूप न की होती तो उन बेचारों की कौन सुनता? ऐसे कितने निरपराधी केवल पुलिस के कौशल तथा वकीलों की दुर्जनता के कारण दण्ड भोगा करते हैं। मैं तो जब वकीलों को बहस करते देखता हूँ तो ऐसा मालूम होता है मानों भाट कवित्त पढ़ रहे हों। न्याय पर किसी पक्ष की दृष्टि नहीं होती। दोनों मौखिक बल से एक दूसरे को परास्त करना चाहते हैं। जो वाक्चतुर है उसी की जीत होती है। आदमियों के जीवन-मरण का निर्णय सत्य और न्याय के बल पर नहीं, न्याय को धोखा देने के बल पर होता है।
प्रेम– जब तक मुद्दई और मुद्दालेह अपने-अपने वकील अदालत में लायेंगे तब तक इस दिशा में सुधार नहीं हो सकता, क्योंकि वकील तो अपने मुवक्किल का मुख-पात्र होता है। उसे सत्यासत्य निर्णय से कोई प्रयोजन नहीं, उसका कर्तव्य केवल अपने मुवक्किल के दावे को सिद्ध करना है। सच्चे न्याय की आशा तो तभी हो सकती है जब वकीलों को अदालत स्वयं नियुक्त करे और अदालत भी राजनीतिक भावों और अन्य दुस्संस्कारों से मुक्त हो। मेरे विचार में गवर्नमेन्ट को पुलिस में सुयोग्य और सच्चरित्र आदमी छाँट-छाँट कर रखने चाहिए। अभी तक इस विभाग में सच्चरित्रता पर जरा भी ध्यान नहीं दिया गया। वही लोग भर्ती किये जाते हैं जो जनता को दबा सकें, उन पर रोब जमा सकें। न्याय का विचार नहीं किया जाता।
प्रभा– जरा फैसला तो सुनाओ, देखूँ क्या लिखा है?
प्रेम– हाँ सुनिये, मैं अनुवाद करता हूँ। देखिए, पुलिस की कैसी तीव्र आलोचना की है। यह अभियोग पुलिस के कार्यक्रम का एक उज्जवल उदाहरण है। किसी विषय का सत्यासत्य निर्णय करने के लिए आवश्यक है, साक्षियों पर निष्पक्ष भाव से विचार किया जाय और उनके आधार पर कोई धारणा स्थिर की जाय, लेकिन पुलिस के अधिकारी वर्ग ठीक उल्टे चलते हैं, ये पहले एक धारणा स्थिर कर लेते हैं और तब उसको सिद्ध करने के लिए साक्षियों और प्रमाणों की तलाश करते हैं। स्पष्ट है कि ऐसी दशा में वह कार्य के कारण की ओर चलते हैं और अपनी मनोनीत धारणा में कोई संशोधन करने के बदले प्रमाणों को ही तोड़-मरोड़ कर अपनी कल्पनाओं के साँचे में ढाल देते हैं। यह उल्टी चाल क्यों चली जाती है? इसका अनुमान करना कठिन है, पर प्रस्तुत अभियोग में कठिन नहीं। एक समूह जितना भार सँभाल सकता है उतना एक व्यक्ति के लिए असाध्य है।
प्रभाशंकर ने चिन्ता भाव से कहा– यह तो खुला आक्षेप है। पुलिस से जवाब तो न तलब होगा?
प्रेम– इन आक्षेपों को कौन पूछता है? इन पर कुछ ध्यान दिया जाता, तो पुलिस कब की सुधर गयी होती।
इतने में ज्वालासिंह आते हुए दिखायी दिये। प्रेमशंकर ने कहा– चचा साहब कहते हैं कि इस विजय का उत्सव करना चाहिए।
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बाल्यावस्था के पश्चात् ऐसा समय आता है जब उद्दण्डता की धुन सिर पर सवार हो जाती है। इसमें युवाकाल की सुनिश्चित इच्छा नहीं होती, उसकी जगह एक विशाल आशावादिता है जो दुर्लभ को सरल और असाध्य को मुँह का कौर समझती है। भाँति-भाँति की मृदु-कल्पनाएँ चित्त को आन्दोलित करती रहती है। सैलानीपन का भूत-सा चढ़ा रहता है। कभी जी में आता है कि रेलगाड़ी में बैठकर देखूँ कि कहाँ तक जाती है। अर्थी को लेकर उसके साथ श्मशान तक जाते हैं कि वहाँ क्या होता है? मदारी का खेल देखकर जी में उत्कण्ठा होती है कि हम भी गले में झोली लटकाये देश-विदेश घूमते और ऐसे ही तमाशे दिखाते। अपनी क्षमता पर ऐसा विश्वास होता है कि बाधाएँ ध्यान में भी नहीं आती। ऐसी सरलता तो अलाउद्दीन के चिराग को ढूढ़ निकालना चाहती है। इस काल में अपनी योग्यता की सीमाएँ अपरिमित होती हैं। विद्या क्षेत्र में हम तिलक को पीछे हटा देते हैं, रणक्षेत्र में नेपोलियन से आगे बढ़ जाते हैं। कभी जटाधारी योगी बनते हैं, कभी टाटा से भी धनवान् हो जाते हैं। हमें इस अवस्था में फकीरों और साधुओं पर ऐसी श्रद्धा होती है। जो उनकी विभूति को कामधेनु समझती है। तेजशंकर और पद्यशंकर दोनों ही सैलानी थे। घर पर कोई देखभाल करने वाला न था, जो उन्हें उत्तेजनाओं से दूर रखता, उनकी सजीवता को, उनकी अबाध्य कल्पनाओं को सुविचार की ओर कर सकता। लाला प्रभाशंकर उन्हें पाठशाला में भरती करके ज्यादा देखभाल अनावश्यक समझते थे। दोनों लड़के घर से स्कूल को चलते; लेकिन रास्ते में नदी के तट पर घूमते, बैंड सुनते या सेना की कवायद देखने की इच्छा उन्हें रोक लिया करती। किताबों में दोनों को अरुचि थी और दोनों एक ही श्रेणी में कई-कई साल फेल हो जाने के कारण हताश हो गये थे। उन्हें ऐसा मालूम होता था कि हमें विद्या आ ही नहीं सकती। एक बार लालाजी की आलमारी में इन्द्रजाल की एक पुस्तक मिल गयी थी। दोनों ने उसे बड़े चाव से पढ़ा और मन्त्रों को जगाने की चेष्टा करने लगे। दोनों अक्सर नदी की ओर चले जाते और साधु-सन्तों की बातें सुनते। सिद्धियों की नयी-नयी कथाएँ सुनकर उनके मन में भी कोई सिद्धि प्राप्त करने की प्रबल इच्छा होती। इस कल्पना से उन्हें गर्वयुक्त आनन्द मिलता था कि इन सिद्धियों के बल से हम सब कुछ कर सकते हैं, गड़ा हुआ धन निकाल सकते हैं, शत्रुओं पर विजय पा सकते हैं, पिशाचों को वश में कर सकते हैं, उन्होंने दो-एक लटकों का अभ्यास किया था। और यद्यपि अभी तक उनकी परीक्षा करने का अवसर न मिला था, पर अपनी कृतकार्यता पर उन्हें अटल विश्वास था।
लेकिन जब से गायत्री ने मायाशंकर को गोद लिया था, ईर्ष्या और स्वार्थ से दोनों जल रहे थे। यह दाह एक क्षण के लिए भी न शान्त होता। जो लड़का अभी कल तक उनके साथ था खिलाड़ी था वह सहसा इतने ऊँचे पद पर पहुँच जाय! दोनों यही सोचा करते कि कोई ऐसी सिद्धि प्राप्त करनी चाहिए कि जिसके सामने धन और वैभव की कोई हस्ती न रहे, जिसके प्रभाव से वे मायाशंकर को नीचा दिखा सकें। अन्त में बहुत सोच-विचार के पश्चात् उन्होंने भैरव-मन्त्र जगाने का निश्चय किया। एक तन्त्र ग्रन्थ ढूँढ़ निकाला। जिसमें एक क्रिया की विधियाँ विस्तार से लिखी हुई थीं। दोनों ने कई दिनों तक मन्त्र को कंठ किया। उसके मुखाग्र हो जाने पर यह सलाह होने लगी, इसे जगाने का आरम्भ कब से किया जाय? तेजशंकर ने कहा– चलो आज से ही श्रीगणेश कर दें।
पद्य– जब कहो तब। बस, अस्सी घाट की ओर चलें।
तेज– चालीस किसी तरह पूरा हो जाय फिर तो हम अमर हो जायेंगे। तलवार, तोप का हम पर कुछ असर ही न होगा।
पद्य– यार, बड़ा मजा आएगा। सैकड़ों बरस तक जीते रहेंगे।
तेज– सैकड़ों! अजी हजारों क्यों नहीं कहते? हिमालय की गुफाओं में ऐसे-ऐसे साधु पड़े हैं जिनकी अवस्थाएँ चार-चार सौ साल से अधिक हैं। उन्होंने भी यही मन्त्र जगाया होगा। मौत का उन पर कोई वश नहीं चलता।
पद्य– माया बड़ी शेखी मारा करते हैं। बच्चा एक दिन मर जायेंगे, सब यहीं रखा रह जायेगा। यहाँ कौन चिन्ता है? तोप से भी न डरेंगे।
तेज– लेकिन मन्त्र जगाना सहज नहीं है। डरे और काम तमाम हुआ, जरा चौंके और वहीं ढेर हो गये। तुमने तो किताब में पढ़ा ही है, कैसी-कैसी भयंकर सूरतें दिखायी देती हैं। कैसी-कैसी डरावनी आवाजें सुनायी देती हैं। भूत, प्रेत, पिशाच नंगी तलवार लिए मारने दौड़ते हैं। उस वक्त जरा भी शंका न करनी चाहिए।
पद्य– मैं जरा भी न डरूँगा, वह कोई सचमुच के भूत-प्रेत थोड़े न होंगे। देवता लोग परीक्षा के लिए डराते होंगे।
तेज– हाँ और क्या! सब भ्रम है। अपना कलेजा मजबूत किये रहना।
पद्य– और जो कहीं तुम डर जाओ?
तेजशंकर ने गर्व से हँसकर कहा– मैंने डर को भूनकर खा लिया है। वह मेरे पास नहीं फटक सकता। मैं तो सचमुच के प्रेतो से न डरूँ, शंकाओं की कौन चलाये।
पद्य– तो हम लोग अमर हो जायेंगे।
तेज– अवश्य, इसमें भी कुछ सन्देह है?
दोनो ने इस भाँति निश्चय करके मन्त्र जगाना शुरू किया। जब घर के सब लोग सो जाते तो दोनों चुपके से निकल जाते और अस्सी घाट पर गंगा के किनारे बैठ कर मन्त्र जाप करते। इस प्रकार उन्तालीस दिनों तक दोनों ने अभ्यास किया। इस विकट परीक्षा में वे कैसे पूरे उतरें इसकी व्याख्या करने के लिए एक पोथी अलग चाहिए। उन्हें वह सब विकराल सूरतें दिखायी दीं, वे सब रोमांचकारी शब्द दिये, जिनका उस पुस्तक में जिक्र था। कभी मालूम होता था आकाश फटा पड़ता है, कभी आग की एक लहर सामने आती, कहीं कोई भयंकर राक्षस मुँह से अग्नि की ज्वाला निकालता हुआ उन्हें निगलने को लपकता, लेकिन भय की पराकाष्ठा का नाम साहस है। दोनों लड़के आँखें बन्द किये, नीरव, निश्चल, निस्तब्ध, मूर्ति के समान बैठे रहते। जाप का तो केवल नाम था, सारी मानसिक शक्तियाँ इन शंकाओं को दूर रखने में ही केन्द्रीभूत हो जाती थीं। यह भय कि जरा भी चौंके, झिझके या विचलित हुए तो तत्क्षण प्राणान्त हो जायेगा उन्हें अपनी जगह पर बाँधे रहता था। मेरा भाई समीप ही बैठा है, यह विश्वास उनकी दृढ़ता का एक मुख्य कारण था, हालाँकि इस विश्वास से तेजशंकर को उतना ढाँढस न होता था जितना पद्यशंकर को। उसे पद्य पर वह भरोसा न था जो पद्य को उस पर था। अतएव तेजशंकर के लिए यह परीक्षा ज्यादा दुस्साध्य थी, पर यह भय कि मैं जरा भी हिला तो पद्य की जान पर बन जायेगी, उस विश्वास की थोड़ी सी कसर पूरी कर देता था। इन दिनों वे बहुत दुर्बल हो गये थे, मुख पीले, आँखें चंचल ओंठ सूखे हुए। दोनों सारे दिन संज्ञा-हीन से पड़े रहते, खेल-कूद, सैर-सपाटे, आमोद-विनोद में उन्हें जरा भी रुचि न थी, आठों पहर मन उचटा रहता था, यहाँ तक कि भोजन भी अच्छा न लगता। इस तरह उन्तालीस दिन बीत गये और चालीसवाँ दिन आ पहुँचा। आज भोर से ही उनके चित्त उद्वग्नि होने लगे, शंकाओं ने उग्र रूप धारण किया, आशाएँ भी प्रबल हुईं। दोनों आशा और भय की दशा में बैठे हुए कभी अमरत्व की कल्पना से प्रफुल्लित हो जाते, कभी आज की कठिनतम परीक्षाओं के भय से काँपते, पर आशाएँ भय के ऊपर थीं। सारे शहर में हलचल मच जायेगी, हम लोग जलती हुई आग में कूद पड़ेंगे और बेदाग निकल जायेंगे, आँच तक न आयेगी। उस मुँडेर पर से निश्शंक नीचे कूद पड़ेंगे, जरा भी चोट न लगेगी। लोग देखकर दंग हो जायेंगे। दिन भर दोनों ने कुछ नहीं खाया। कभी नीचे जाते, ऊपर जाते, कभी हँसते, कभी रोते, कभी नाचते, कोई दूसरा आदमी उनकी यह दशा देख कर समझता कि पागल हो गये हैं।
जब अन्धेरा हुआ तो तेजशंकर घर में से एक तलवार निकाल लाया जिसे लालाजी ने हाल ही में जयपुर से मँगवाया था। दोनों ने कमरे का द्वार बन्द कर उसे मिट्टी के तेल से खूब साफ किया, तब उसे पत्थर पर रगड़ा, यहाँ तक कि उसमें से चिनगारियाँ निकलने लगीं। तब उसे बिछावन के नीचे छिपाकर दोनों बाजार की सैर करने निकल गये। लौटे तो नौ बज गये थे। बड़ी बहू के बहुत अनुरोध करने पर दोनों ने कुछ सूक्ष्म भोजन किया और तब अपने कमरे में लोगों के निद्रा-मग्न हो जाने का इन्तजार करने लगे। ज्यों-ज्यों समय निकट आता था उनका आशादीपक भय-तिमिर में विलुप्त हो जाता था। इस समय उनकी दशा कुछ उस अपराधी की-सी जिसकी फाँसी का समय प्रति क्षण निकट आता जाता हो। भाँति-भाँति की शंकाए और दुष्कल्पनाएँ उठ रही थीं, किन्तु इस आँधी और तूफान में भी एक नौका का स्पष्ट चिह्न दूर से दिखायी देता था जिससे उनकी हिम्मत बँध जाती थी। तेजशंकर चिन्तित और गम्भीर था और पद्यशंकर की सरल, आशामय बातों का जवाब तक न देता था।
निश्चित समय आ पहुँचा तो दोनों घर से निकले। माघ का महीना, तुषारवेष्टित वायु हड्डियों में चुभती थी। हाथ-पाँव अकड़े जाते थे। तेजशंकर ने तलवार को अपनी चादर के नीचे छिपा लिया और दोनों चले, जैसे कोई मन्द-बुद्धि बालक परीक्षा भवन की ओर चले। पग-पग पर वे शंका-विह्वल होकर ठिठक जाते, फिर कलेजा मजबूत करके आगे बढ़ते। यहाँ तक कि कई बार उन्होंने लौटने का इरादा किया, लेकिन उन्तालीस दिन की तपस्या के बाद वरदान मिलने के दिन हिम्मत हार जाना अक्षम्य दुर्बलता और भीरुता थी। अब तो चाहे जो हो, यह अन्तिम परीक्षा अनिवार्य थी। इस तरह डरते, हिचकते दोनों घाट पर पहुँच गये। रास्ते में किसी के मुँह से एक शब्द भी न निकला।
अमावस की रात थी। आँखों का होना-न-होना बराबर था। तारागण भी बादलों में मुँह छिपाये हुए थे। अन्धकार ने जल और बालू, पृथ्वी और आकाश को समान कर दिया था। केवल जल की मधुर-ध्वनि गंगा का पता देती थी। ऐसा सन्नाटा छाया हुआ था कि जल-नाद भी उसमें निमग्न हो जाता था। ऐसा जान पड़ता था कि पृथ्वी अभी शून्य के गर्भ में पड़ी हुई है। अनन्त जीवन के दोनों आराधक पग-पग पर ठोकरें खाते, शंका-रचित बाधाओं से पग-पग पर चौंकते नदी के किनारे पहुँचे और नग्न होकर जल में उतरे। पानी बर्फ हो रहा था। उनके सारे अंग शिथिल हो गये। स्नान करके दोनों रेत पर बैठ गये और मन्त्र का जाप करने लगे। लेकिन आश्चर्य यह था कि आज उन्हें कोई ऐसा दृश्य न दिखायी दिया जिसे वे देख न चुके हों, न कोई ऐसी आवाजें सुनाई दीं जो वे सुन न चुके हों। कोई असाधारण घटना न हुई। सरदी ने शंकाओं को भी शान्त कर दिया था। विषम कल्पनाएँ भी निर्जीव हो गयी थीं। दोनों डर रहे थे कि आज न जाने कैसी-कैसी विकराल मूर्तियाँ दिखायी देंगी, प्रेतगण न जाने किन मन्त्रों से आघात करेंगे? न जाने प्राण बचेंगे या जायेंगे? लेकिन आज और दिनों से भी सस्ते छूट गये।
जब रात समाप्त हो गयी और दोनों साधकों ने आँखें खोली तब आकाश पर उषा की लालिमा दिखायी दी। पृथ्वी शनैः-शनैः तिमिर-तट से निकलने लगी। उस पार के वृक्ष और रेत व्यक्त हो गये जैसे किसी मुर्च्छित रोगी के मुख पर चैतन्य का विकास हो रहा हो। श्यामल जल वेग से बह रहा था, मानो अन्धकार को अपने साथ बहाये लिये जाता हो। उस पार के वृक्ष इस तरह सिर झुकाये खड़े थे, मानो शोक समाज किसी की दाह-क्रिया करके शोक से सिर झुकाये चला जाता है।
सहसा तेजशंकर उठ खड़ा हुआ और बोला– जय भैरव की।
दोनों के नेत्रों में एक अलौकिक प्रकाश था, दोनों के मुखों पर एक अद्भुत प्रतिभा झलक रही थी।
तेजशंकर– तलवार हाथ में लो, मैं सिर झुकाये हुए हूँ।
पद्य– नहीं, पहले तुम चलाओ मैं सिर झुकाता हूँ।
तेज– क्या अब भी डरते हो? हमने मौत को कुचल दिया काल को जीत लिया, अब हम अमर हैं।
पद्य– क्या, पहले तुम ही श्रीगणेश करो। ऐसा हाथ चलाना कि एक ही वार में गर्दन अलग जा गिरे। मगर यह तो बताओ दर्द तो न होगा?
तेज– कैसा दर्द? ऐसा जान पड़ेगा जैसे किसी ने फूल से मारा हो। इसी से तो कहता हूँ कि पहले तुम शुरू करो।
पद्य– नहीं, पहले मैं सिर झुकाता हूँ।
तेजशंकर ने तलवार हाथ में ली, उसे तौला, दो-तीन बार पैंतरे बदले और तब जय भैरव की कहकर पद्यशंकर की गर्दन पर तलवार चलायी। हाथ भरपूर पड़ा; तलवार तेज थीं, सिर धड़ से अलग जा गिरा रक्त का फौवारा छूटने लगा। तेजशंकर खड़ा मुस्कुरा रहा था, मानो कोई फुलझड़ी छूट रही हो। उसके चेहरे पर तेजोमय शान्ति छायी हुई थी। कोई शिकारी भी पक्षी को भूमि पर तड़पते देखकर इतना अविचलित न रहता होगा। कोई अभ्यस्त बधिक भी पशु गर्दन पर तलवार चला कर इतना स्थिर-चित्त न रह सकता होगा। वह ऐसे सुदृढ़ विश्वास के भाव से खड़ा था जैसे कोई कबूतरबाज अपने कबूतर को उड़ा कर उसके लौट आने की राह देख रहा हो।
लाश कुछ देर तक तड़पती रही, इसके बाद शिथिल हो गयी। खून के छींटे बन्द हो गये, केवल एक-एक बूँद टपक रही थी जैसे पानी बरसने के बाद ओरी टपकती है, किन्तु पुनरुज्जवीन के संसार का कोई लक्षण न दिखायी दिया। एक मिनट और गुजरा। तेजशंकर को कुछ भ्रम हुआ, पर विश्वास ने उसे शान्त कर दिया। उसने गंगाजल चुल्लू में लेकर भैरव मन्त्र पढ़ा और उस पर एक फूँक मार कर उसे लाश पर छिड़क दिया; किन्तु यह क्रिया भी असफल हुई। उस कटे हुए सिर में कोई गति नहीं हुई उस मृत देह में स्फूर्ति का कोई चिह्न न दिखायी दिया। मन्त्र की जीवन-संचारिणी शक्ति का कुछ असर न हुआ।
अब तेजशंकर को शंका होने लगी, विश्वास की नींव हिलने लगी। उस पुस्तक में स्पष्ट लिखा था कि सिर गर्दन से अलग होते ही तुरन्त उसमें चिमट जाता है और यदि इस क्रिया में कुछ विलम्ब हो तो भैरव मन्त्र से फूँके हुए पानी का एक चुल्लू काफी है। यहाँ इतनी देर हो गयी और अभी तक कुछ भी असर न हुआ। यह बात क्या है? मगर यह असम्भव है कि मन्त्र निष्फल हो। कितने लोगों ने इस मन्त्र को सिद्ध किया है। नहीं, घबराने की कोई बात नहीं, अभी जान आयी जाती है।
उसने तीन-चार मिनट तक और इन्तजार किया, पर लाश ज्यों की त्यों शान्तशिथिल पड़ी हुई थी। तब उसने फिर गंगाजल छिड़का, फिर मन्त्र पढ़ा लाश न उठी। उसने चिल्लाकर कहा– हा ईश्वर! अब क्या करूँ? विश्वास का दीपक बुझ गया। उसने निराश भाव से नदी की ओर देखा। लहरें दहाढे़ मार-मार कर रोती हुई जान पड़ी। वृक्ष शोक से सिर धुनते हुए मालूम हुए। उसके कण्ठ से बलात् क्रन्दन ध्वनि निकल आयी, वह चीख मार कर रोने लगा। अब उसे ज्ञान हुआ कि मैंने कैसे घोर अनर्थ किया। अनन्त जीवन की सिद्धि कितनी उदभ्रांत, कितनी मिथ्या थी। हा! मैं कितना अन्धा, कितना मन्द बुद्धि, कितना उद्दण्ड हूँ। हा! प्राणों से प्यारे पद्य, मैंने मिथ्या भक्ति की धुन में अपने ही हाथों से, इन्हीं निर्दय हाथों से, तुम्हारी गर्दन पर तलवार चलायी। हा! मैंने तुम्हारे प्राण लिये! मुझ सा पापी और अभागा कौन होगा? अब कौन सा मुँह लेकर घर जाऊँ? कौन सा मुँह दुनिया को दिखाऊँ? अब जीवन वृथा है। तुम मुझे प्राणों से भी प्यारे थे। अब तुम्हें कैसे देखूँगा, तुम्हें कैसे पाऊँगा?
तेजशंकर कई मिनट तक इन्हीं शोकमय विचारों से विह्वल हो कर खड़ा रोता रहा। अभी एक क्षण पहले उसके दिल में क्या-क्या इरादे थे, कैसी-कैसी अभिलाषाएँ थीं? वह सब इरादे मिट्टी में मिल गये? आह? जिस धूर्त पापी ने, यह किताब लिखी है उसे पाता तो इसी तलवार से उसकी गर्दन काट लेता, उसके भ्रम जाल में पड़कर मैंने अपना सर्वनाश किया!
हाय! अभी तक लाश में जान नहीं आयी। उसे उसकी ओर ताकते हुए अब भय होता था।
नैराश्य-व्यथा, शोकाघात, परिणाम-भय, प्रेमोद्गार, ग्लानि– इन सभी भावों ने उसके हृदय को कुचल दिया!
तिस पर भी अभी तक उसकी आशाओं का प्राणान्त न हुआ था। उसने एक बार डरते-डरते कनखियों से लाश को देखा, पर अब भी उसमें प्राण-प्रवेश का चिह्न न दिखायी दिया तो आशाओं का अन्तिम सूत्र भी टूट गया, धैर्य ने साथ छोड़ दिया।
उसने एक बार निराश होकर आकाश की ओर देखा। भाई की लाश पर अन्तिम दृष्टि डाली तब सँभल कर बैठ गया और वही तलवार अपने गले पर फेर दी। रक्त की फुवारें छुटीं, शरीर तड़पने लगा, पुतलियाँ फैल गयीं। बलिदान पूरा हो गया। मिथ्या विश्वास ने दो लहलहाते हुए जीव-पुष्पों को पैर से मसल दिया!
सूर्य देव अपने आरक्त नेत्रों से यह विषम माया लीला देख रहे थे। उसकी नीरव पीत किरणें उन दोनों मन्त्राहत बालकों पर इस भाँति पड़ रही थी मानों कोई शोक-विह्वल प्राणी से लिपट कर रो रहा हो।
57
इस शोकाघात ने लाला प्रभाशंकर को संज्ञा-विहीन कर दिया। दो सप्ताह बीत चुके थे, पर अभी तक घर से बाहर न निकले थे। दिन-के-दिन चारपाई पर पड़े छत की ओर देखा करते, रातें करवटें बदलने में कट जातीं। उन्हें अपना जीवन अब शून्य-सा जान पड़ता था। आदमियों की सूरत से अरुचि थी, अगर कोई सान्त्वना देने के लिए भी जाता, तो मुँह फेर लेते। केवल प्रेमशंकर ही एक ऐसे प्राणी थे जिनका आना उन्हें नागवार न मालूम पड़ता था। इसलिए कि वह समवेदना का एक शब्द भी मुँह से न निकालते। सच्ची संवेदना मौन हुआ करती है।
एक दिन प्रेमशंकर आ कर बैठे, तो लालाजी को कपड़े पहनते देखा, द्वार पर एक्का भी खड़ा था जैसे कहीं जाने की तैयारी हो। पूछा, कहीं जाने का इरादा है क्या?
प्रभाशंकर ने दीवार की ओर मुँह फेर कर कहा– हाँ, जाता हूँ उसी निर्दयी दयाशंकर के पास, उसी की चिरौरी-विनती करके घर लाऊँगा। कोई यहाँ रहने वाला भी तो चाहिए। मुझसे गृहस्थी का बोझ नहीं सँभाला जाता! कमर टूट गयी, बलहीन हो गया। प्रतिज्ञा भी तो की थी कि जीते जी उसका मुँह न देखूँगा, लेकिन परमात्मा को मेरी प्रतिज्ञा निबाहनी मन्जूर न थी, उसके पैरों पर गिरना पड़ा। वंश का अन्त हुआ जाता है। कोई नामलेवा तो रहे, मरने के बाद चुल्लू भर पानी को तो न रोना पड़े। मेरे बाद दीपक तो न बुझ जाय। अब दयाशंकर के सिवाय और दूसरा कौन है, उसी से अनुनय-विनय करूँगा, मनाऊँगा, आकर घर आबाद करे। लड़कों के बिना घर भूतों का डेरा हो रहा है। दोनों लड़कियाँ ससुराल ही चली गयीं, दोनों लड़के भैरव की भेंट हुए; अब किसको देखकर जी को समझाऊँ? मैं तो चाहे कलेजे पर पत्थर की सिल रखकर बैठ भी रहता, पर तुम्हारी चाची को कैसे समझाऊँ? आज दो हफ्ते से ऊपर हुए उन्होंने दाने की ओर ताका तक नहीं। रात-दिन रोया करती हैं। बेटा, सच पूछो तो मैं ही दोनों लड़कों का घातक हूँ। वे जैसे चाहते थे, जहाँ चाहते थे। मैंने उन्हें कभी अच्छे रास्ते पर लगाने की चेष्टा न की। सन्तान का पालन कैसे करना चाहिए इसकी कभी मैंने चिन्ता न की!
प्रेमशंकर ने करुणार्द्र होकर कहा– एक्के का सफर है, आपको कष्ट होगा। कहिए तो मैं चला जाऊँ, कल तक आ जाऊँगा।
प्रभा– वह यों न आयेगा, उसे खींचकर लाना होगा। वह कठोर नहीं केवल लज्जा के मारे नहीं आता। वहाँ पड़ा रोता होगा। भाइयों को बहुत प्यार करता था।
प्रेम– मैं उन्हें जबरदस्ती खींच लाऊँगा।
प्रभाशंकर राजी हो गये। प्रेमशंकर उसी दम चल खड़े हुए। थाना यहाँ से बारह मील पर था। नौ बजते-बजते पहुँच गये। थाने में सन्नाटा था। केवल मुंशी जी फर्श पर बैठे लिख रहे थे। प्रेमशंकर ने उनसे कहा– आपको तकलीफ तो होगी, पर जरा दारोगाजी को इत्तला कर दीजिये कि एक आदमी आप से मिलने आया है। मुंशीजी ने प्रेमशंकर को सिर से पाँव तक देखा, तब लपककर उठे, उनके लिए एक कुर्सी निकाल कर रख दी और पूछा– जनाब का नाम बाबू प्रेमशंकर तो नहीं है?
प्रेमशंकर– जी हाँ, मेरा ही नाम है।
मुंशी– आप खूब आये। दारोगाजी अभी आपका ही जिक्र कर रहे थे। आपका अकसर जिक्र किया करते हैं। चलिए, मैं आपके साथ चलता हूँ। कान्सटेबिल सब उन्हीं की खिदमत में हाजिर हैं। कई दिन से बहुत बीमार हैं।
प्रेम– बीमार हैं? क्या शिकायत है?
मुंशी– जाहिर में तो बुखार है, पर अन्दर का हाल कौन जाने? हालत बहुत बदतर हो रही है। जिस दिन से दोनों छोटे भाइयों की बेवक्त मौत की खबर सुनी उसी दिन से बुखार आया। उस दिन से फिर थाने नहीं आये। घर से बाहर निकलने की नौबत न आयी। पहले भी थाने में बहुत कम आते थे, नशे में डूबे पड़े रहते थे, ज्यादा नहीं तो तीन-चार बोतल रोजाना जरूर पी जाते होंगे लेकिन इन पन्द्रह दिनों से एक घूँट भी नहीं पी। खाने की तरफ ताकते ही नहीं। या तो बुखार में बेहोश पड़े रहते हैं या तबियत जरा हल्की हुई तो रोया करते हैं। ऐसा मालूम होता है कि फाजिल गिर गयी है, करवट तक नहीं बदल सकते। डॉक्टरों का ताँता लगा हुआ है, मगर कोई परदा नहीं होता। सुना आप कुछ हिम्मत करते हैं। देखिए शायद आपकी दवा कारगर हो जाय। बड़ा अनमोल आदमी था। हम लोगों को ऐसा सदमा हो रहा है जैसे कोई अपना अजीज उठा जाता हो। पैसे की मुहब्बत छू तक नहीं गयी थी। हजारों रुपये माहवार लाते थे और सब का सब अमलों के हाथों में रख देते थे। रोजाना शराब मिलती जाय बस, और कोई हवस न थी। किसी मातहत से गलती हो जाय, पर कभी शिकायत न करते थे, बल्कि सारा इलजाम अपने सर ले लेते थे। क्या मजाल कि कोई हाकिम उनके मातहतों को तिर्छी निगाह से भी देख सके, सीना-सिपर हो जाते थे। मातहतों की शादी और गमी में इस तरह शरीक होते थे, जैसे कोई अपना अज़ीज हो। कई कानिस्टेबिलों की लड़कियों की शादियाँ अपने खर्च से करा दीं। उनके लड़कों की तालीम की फीस अपने पास से देते थे, अपनी सख्ती के लिए सारे इलाके में बदनाम थे। सारा इलाका उनका दुश्मन था, मगर थानेवाले चैन करते थे। हम गरीबों को ऐसा गरीब-परवर और हमदर्द अफसर न मिलेगा।
मुंशीजी ने ऐसे अनुरक्त भाव से यह यश गान किया कि प्रेमशंकर गद्गद हो गये। वह दयाशंकर को लोभी, कुटिल, स्वार्थी समझते थे कि जिसके अत्याचारों के इलाके में हाहाकार मचा हुआ था। जो कुल का द्रोही, कुपुत्र और व्यभिचारी था, जिसने अपनी विलासिता और विषयवासना और धुन में माता-पिता, भाई-बहन यहाँ तक कि अपनी पत्नी से मुँह फेर लिया था। उनकी दृष्टि में वह एक बेशर्म, पतित हृदय शून्य आदमी था। यह गुणानुवाद सुनकर उन्हें अपनी संकीर्णता पर बहुत खेद हुआ। वह मन में अपना तिरस्कार करने लगे। उन्हें फिर आत्मिक यन्त्रणा मिली– हा! मुझमे कितना अहंकार है। मैं कितनी जल्द भूल जाता हूँ कि यह विराट जगत् अनन्त ज्योति से प्रकाशमय हो रहा है। इसका एक-एक परमाणु उसी ज्योति से आलोकित है। यहाँ किसी मनुष्य को नीचा या पतित समझना ऐसा पाप है जिसका प्रायश्चित नहीं। मुंशी जी से पूछा– डॉक्टरों ने कुछ तशखीस नहीं की?
मुंशीजी ने उपेक्षाभाव से कहा– डॉक्टरों की कुछ न पूछिए, कोई कुछ बताता है, कोई कुछ। या तो उन्हें खुद ही इल्म नहीं, यह गौर से देखते ही नहीं उन्हें तो अपनी फीस से काम है। आइये, अन्दर चले आइये, यही मकान है।
प्रेमशंकर अन्दर गये तो कानिस्टेबिलों की भीड़ लगी हुई थी। कोई रो रहा था, कोई उदास, कोई मलिन-मुख खड़ा था, कोई पंखा झलता था। कमरे में सन्नाटा था। प्रेमशंकर को देखते ही सभी ने सलाम किया और कातर नेत्रों से उनकी ओर देखने लगे। दयाशंकर चारपाई पर पड़े थे, चेहरा पीला हो गया था और शरीर सूखकर काँटा हो गया था। मानों किसी हरे-भरे खेत को टिड्डियों ने चर लिया हो। आँखें बन्द थीं, माथे पर पसीने की बूँदें पड़ी हुई थीं और श्वास-क्रिया में एक चिन्ताजनक शिथिलता थी। प्रेमशंकर यह शोकमय दृश्य देखकर तड़प उठे, चारपाई के निकट जा कर दयाशंकर के माथे पर हाथ रखा और बोले– भैया?
दयाशंकर ने आँखें खोलीं और प्रेमशंकर को गौर से देखा, मानो किसी भूली हुई सूरत को याद करने की चेष्टा कर रहे हैं। तब बड़े शान्तिभाव से बोले– तुम हो प्रेमशंकर? खूब आये। तुम्हें देखने की बड़ी इच्छा थी। कई बार तुमसे मिलने का इरादा किया, पर शर्म के मारे हिम्मत न पड़ी। लाला जी तो नहीं आये? उनसे भी एक बार भेंट हो जाती तो अच्छा होता, न जाने फिर दर्शन हों या न हों।
प्रेम– वह आने को तैयार थे, पर मैंने उन्हें रोक दिया। मुझे तुम्हारी हालत मालूम न थी।
दया– अच्छा किया। इतनी दूर एक्के पर आने में उन्हें कष्ट होता। वह मेरा मुँह न देखें वही अच्छा है। मुझे देखकर कौन उनकी छाती हुसलेगी?
यह कहकर वह चुप हो गये, ज्यादा बोलने की शक्ति न थी, दम ले कर बोले– क्यों प्रेम, संसार से मुझ-सा अभागा और भी कोई होगा? यह सब मेरे ही कर्मों का फल है। मैं ही वंश का द्रोही हूँ। मैं क्या जानता था कि पापी के पापों का दण्ड इतना बड़ा होता है। मुझे अगर किसी की कुछ मुहब्बत थी तो दोनों लड़कों की। मेरे पापों का भैरव बनकर उन…
उनकी आँखों में आँसू बहने लगे। मूर्च्छा-सी आ गयी। आध घंटे तक इतनी अचेत दशा में पड़े रहे। साँस प्रतिक्षण धीमी होती जाती थी। प्रेमशंकर पछता रहे थे, यह हाल मुझे पहले न मालूम हुआ नहीं तो डॉ. प्रियनाथ को साथ लेता आता। यहाँ तार घर तो है। क्यों न उन्हें तार दे दूँ। वह इसे मेरा काम समझ कर फीस न लेंगे, यही अड़चन है। यही सही, पर उनको बुलाना जरूर चाहिए।
यह सोचकर उन्होंने तार लिखना शुरू किया कि सहसा डॉ. प्रियनाथ ने कमरे में कदम रखा। प्रेमशंकर ने चकित होकर एक बार उनकी ओर देखा और तब उनके गले से लिपट गये और कुंठित स्वर में बोले– आइए, भाई साहब, अब मुझे विश्वास हो गया कि ईश्वर दीनों की विनय सुनता है। आपके पास यह तार भेज रहा था। इसकी जान बचाइये।
प्रियनाथ ने अश्वासन देते हुए कहा– आप घबड़ाइए नहीं, मैं अभी देखता हूँ। क्या करूँ, मुझे पहले किसी ने खबर न दी। इस इलाके में बुखार का जोर है। मैं कई गाँवों का चक्कर लगाता हुआ थाने के सामने से गुजरा तो मुंशी जी ने मुझे यह हाल बतलाया।
यह कहकर डॉक्टर साहब ने हैंडबेग से एक यंत्र निकाल कर दयाशंकर की छाती में लगाया और खूब ध्यान से निरीक्षण कर के बोले– फेफड़ों पर बलगम आ गया है, लेकिन चिन्ता की कोई बात नहीं। मैं दवा देता हूँ। ईश्वर ने चाहा तो शाम तक जरूर असर होगा।
डॉक्टर साहब ने दवा पिलायी और वहीं कुर्सी पर बैठ गये। प्रेमशंकर ने कहा– मैं शाम तक आपको न छोड़ूँगा।
प्रियनाथ ने मुस्करा कर कहा– आप मुझे भगाये भी तो न जाऊँगा। यह मेरे पुराने दोस्त हैं। इनकी बदौलत मैंने हजारों रुपये उड़ाये हैं।
एक वृद्ध चौकीदार ने कहा– हुजूर, इनका अच्छा कर देव। और तो नहीं, मुदा हम सब जने आपन एक-एक तलब आपके नजर कर देहैं।
प्रियनाथ हँसकर बोले– मैं लोगों को इतने सस्ते न छोड़ूँगा। तुम्हें वचन देना पड़ेगा कि अब किसी गरीब को न सतायेंगे, किसी से जबरदस्ती बेगार न लेंगे और जिसका सौदा लेंगे उसको उचित दाम देंगे।
चौंकीदार– भला सरकार, हमारा गुजर-बसर कैसे होगा? हमारे भी तो बाल-बच्चे हैं, दस-पन्द्रह रुपयों में क्या होता है?
प्रिय– तो अपने हाकिमों से तरक्की करने के लिए क्यों नहीं कहते? सब लोग मिलकर जाओ और अर्ज-मारूज करो। तुम लोग प्रजा की रक्षा के लिए नौकर हो, उन्हें सताने के लिए नहीं। अवकाश के समय कोई दूसरा काम किया करो, जिससे आमदमी बढ़े। रोज दो-तीन घंटे कोई काम कर लिया करो तो। 10-12 रुपये की मजदूरी हो सकती है।
चौकीदार– भला ऐसा कौन काम है हुजूर?
प्रिय– काम बहुत है, हाँ शर्म छोड़नी पड़ेगी। इस भाव को दिल से निकाल देना पड़ेगा कि हम कानिस्टेबिल हैं तो अपने हाथों से मिहनत कैसे करें? सच्ची मेहनत की कमाई में अन्याय और जुल्म की कमाई से कहीं ज्यादा बरकत होती है।
मुंशी जी बोले– हुजूर, इस बारे में सरकारी कायदे बड़े सख्त हैं। पुलिस के मुलाजिम को कोई दूसरा काम करने का मजाल नहीं है। अगर हम लोग कोई काम करने लगें तो निकाल दिये जायें।
प्रिय– यह आपकी गलती है। आपको फुर्सत के वक्त कपड़े बुनने या सूत कातने या कपड़े सीने से कोई नहीं रोक सकता। हाँ, सरकारी काम में हर्ज न होना चाहिए। आप लोगों को अपनी हालत हाकिमों से कहनी चाहिए।
मुंशी– हजूर, कोई सुननेवाला भी तो हो? हमारा रिआया को लूटना हुक्काम की निगाह में इतना बड़ा जुर्म है, जितना कुछ अर्ज-मारूज करना। फौरन साजिश और गरोहबन्दी का इलजाम लग जाय।
प्रिय– इससे तो यह कहीं अच्छा होता कि आप लोग कोई हुनर सीख कर आजादी से रोजी कमाते। मामूली कारीगर भी आप लोगों से ज्यादा कमा लेता है।
मुंशी– हुजूर, यह तकदीर का मुआमला है। जिसके मुकद्दर में गुलामी लिखी हो, वह आजाद कैसे हो सकता है।
दोपहर हो गयी थी, प्रियनाथ ने दूसरी खुराक दवा दी। इतने में महाराज ने आकर कहा– सरकार, रसोई तैयार है, भोजन कर लीजिए। प्रेमशंकर यहाँ से उठना न चाहते थे, लेकिन प्रियनाथ ने उन्हें इत्मीनान दिला कर कहा– चाहे अभी जाहिर न हो, पर पहली खुराक का कुछ न कुछ असर हुआ है। आप देख लीजिएगा शाम तक यह होश-हवास की बातें करने लगेंगे।
दोनों आदमी भोजन करने गये। महाराज ने खूब मसालेदार भोजन बनाया था। दयाशंकर चटपटे भोजन के आदी थे। सब चीजें इतनी कड़वी थीं कि प्रेमशंकर दो-चार कौर से अधिक न खा सके। आँख और नाक से पानी बहने लगा। प्रियनाथ ने हँसकर कहा– आपकी तो खूब दावत हो गयी। महाराज ने तो मदरासियी को भी मात कर दिया। यह उत्तेजक मसाले पाचन-शक्ति को निर्बल कर देते है। देखों महाराज, जब तक दारोगाजी अच्छे न हो जायँ ऐसी चीजें उन्हें न खिलाना, मसाले बिलकुल न डालना।
महाराज– हुजूर, मैंने तो आज बहुत कम मसाले दिये हैं। दारोगीजी के सामने यह भोजन जाता तो कहते यह क्या फीकी-पीच पकाई है।
प्रेमशंकर ने रूखे चावल खाये, मगर प्रियनाथ ने मिरचा की परवाह नहीं की। दोनों आदमी भोजन करके फिर दयाशंकर के पास जा बैठे। तीन बजे प्रियनाथ ने अपने हाथों से उसकी छाती में एक अर्क की मालिश की और शाम तक दो बार और दवा दी। दयाशंकर अभी तक चुपचाप पड़े हुए थे, पर मूर्च्छा नहीं, नींद थी। उनकी श्वास-क्रिया स्वाभाविक होती जाती थी और मुख की विवर्णता मिटती जाती थी। जब अँधेरा हुआ तो प्रियनाथ ने कहा, अब मुझे आज्ञा दीजिए। ईश्वर ने चाहा तो रात भर में इनकी दशा बहुत अच्छी हो जायेगी। अब भय की कोई बात नहीं है। मैं कल आठ बजे तक फिर आऊँगा। सहसा दयाशंकर जागे, उनकी आँखों में अब वह चंचलता न थी। प्रियनाथ ने पूछा, अब कैसी तबयित है?
दया– ऐसा जान पड़ता है कि किसी ने जलती हुई रेत से उठकर वृक्ष की छाँह में लिटा दिया हो।
प्रिय– कुछ भूख मालूम होती है?
दया– जी नहीं, प्यास लगी है।
प्रिय– तो आप थोड़ा-सा गर्म दूध पी लें। मैं इस वक्त जाता हूँ। कल आठ बजे तक आ जाऊँगा।
दयाशंकर ने मुंशी जी की तरफ देखकर कहा– मेरा सन्दूक खोलिए और उसमें से जो कुछ हो लाकर डॉक्टर साहब के पैरों पर रख दीजिए। बाबूजी, यह रकम कुछ नहीं है, पर आप इसे कबूल करें।
प्रिय– अभी आप चंगे तो हो जायँ, मेरा हिसाब फिर हो जायगा।
दया– मैं चंगा हो गया, मौत के मुँह से निकल आया। कल तक मरने का ही जी चाहता था, लेकिन अब जीने की इच्छा है। यह फीस नहीं। मैं आपको फीस देने के लायक नहीं हूँ। दैहिक रोग-निवृत्ति की फीस हो सकती है, लेकिन मुझे ज्ञात हो रहा है कि आपने आत्मिक उद्धार कर दिया है। इसकी फीस वह एहसान है, जो जीवन-पर्यन्त मेरे सिर पर रहेगा और ईश्वर ने चाहा तो आपको इस पापी जीवन को मौत के पंजे से बचा लेने का दुःख न होगा?
प्रियनाथ ने फीस न ली, चले गये। प्रेमशंकर थोड़ी देर बैठे रहे। जब दयाशंकर दूध पी कर फिर सो गये तब वह बाहर निकल कर टहलने लगे। अकस्मात् उन्हें लाला प्रभाशंकर एक्के पर आते हुए दिखाई दिये। निकट आते ही वह एक्के से उतर और कम्पित स्वर से बोले– बेटा, बताओ दयाशंकर की क्या हालत है? तुम्हारे चले आने के बाद यहाँ से एक चौकीदार मेरे पास पहुँचा। उसने कुछ ऐसी बुरी खबर सुनाई कि होश उड़ गये, उसी वक्त चल खड़ा हुआ। घर में हाहाकर मचा हुआ है। सच-सच बताओ, बेटा क्या हाल है!
प्रेम– अब तो तबियत बहुत कुछ सँभल गयी है, कोई चिन्ता की बात नहीं, पर जब मैं आया था तो वास्तव में हालत खराब थी। खैरियत यह हो गयी कि डाक्टर प्रियनाथ आ गये। उनकी दवा ने जादू का सा असर किया। अब सो रहे हैं।
प्रभा– बेटा, चलो, जरा देख लूँ चित्त बहुत व्याकुल है।
प्रेम– आपको देख कर शायद वह रोने लगे।
प्रभाशंकर ने बड़ी नम्रता से कहा– बेटा, मैं जरा भी न बोलूँगा, बस, एक आँख देख कर चला जाऊँगा। जी बहुत घबराया हुआ है।
प्रेम– आइए, मगर चित्त को शांत रखिएगा। अगर उन्हें जरा भी आहट मिल गयी तो दिन भर की मेहनत निष्फल हो जायेगी।
प्रभा– भैया, कसम खाता हूँ, जरा भी न बोलूंगा। बस, दूर से एक आँख देख कर चला जाऊँगा।
प्रेमशंकर मजबूर हो गये। लालाजी को लिये हुए दयाशंकर के कमरे में गये। प्रभाशंकर ने चौखट से ही इस तरह डरते-डरते भीतर झाँका जैसे कोई बालक घटा की ओर देखता है कि कहीं बिजली न चमक जाय, पर दयाशंकर की दशा देखते ही प्रेमोद्गार से विवश हो कर वह जोर से चिल्ला उठे और बेटा! कह कर उनकी छाती से चिमट गये।
प्रेमशंकर ने तुरन्त उपेक्षा भाव से उनका हाथ पकड़ा और खींच कर कमरे के बाहर लाये।
दयाशंकर ने चौंक कर पूछा, कौन था? दादा जी आये हैं क्या?
प्रेमशंकर– आप आराम से लेटें। इस वक्त बातचीत करने से बेचैनी बढ़ जायेगी।
दया– नहीं, मुझे एक क्षण के लिए उठा कर बिठा दो। मैं उनके चरणों पर सिर रखना चाहता हूँ।
प्रेम– इस वक्त नहीं। कल इत्मीनान से मिलिएगा।
यह कहकर प्रेमशंकर बाहर चले आये। प्रभाशंकर बरामदे में खड़े रो रहे थे। बोले– बेटा, नाराज न हो, मैंने बहुत रोका, पर दिल काबू में न रहा। इस समय मेरी दशा उस टूटी नाव पर बैठे हुए मुसाफिर की सी है जिसके लिए हवा का एक झोंका भी मौत के थप्पड़ के समान है। सच-सच बताओ, डॉक्टर साहब क्या कहते थे?
प्रेम– उनके विचार में अब कोई चिन्ता की बात नहीं है। लक्षणों से भी यही प्रकट होता है।
प्रभा– ईश्वर उनका कल्याण करें, पर मुझे तो तब ही इत्मीनान होगा जब यह उठ बैठेंगे। यह इनके ग्रह का साल है।
दोनों आदमी बाहर आकर सायबान पर बैठे। दोनों विचारों में मग्न थे। थोड़ी देर के बाद प्रभाशंकर बोले– हमारा यह कितना बड़ा अन्याय है कि अपनी सन्तान में उन्ही कुसंस्कारों को देखकर जो हमसें स्वयं मौजूद हैं उनके दुश्मन हो जाते हैं! दयाशंकर से मेरा केवल इसी बात पर मनमुटाव था कि वह घर की खबर क्यों नहीं लेता? दुर्व्यसनों में क्यों अपनी कमाई उड़ा देता है? मेरी मदद क्यों नहीं करता? किन्तु मुझसे पूछो की तुमने अपनी जिन्दगी में क्या किया? मेरी इतनी उम्र भोग-विलास में ही गुजरी है। इसने अगर लुटाई तो अपनी कमाई लुटाई, बरबाद की तो अपनी कमाई बरबाद की। मैंने तो पुरखों की जायदाद का सफाया कर दिया। मुझे इससे बिगड़ने का कोई अधिकार न था।
थाने के कई अमले और चौकीदार आ कर बैठ गये और दयाशंकर की सहृदयता और सज्जनता की सराहना करने लगे। प्रभाशंकर उनकी बातें सुनकर गर्व से फूल जाते थे।
आठ बजे प्रेमशंकर ने जाकर फिर दवा पिलायी और वहीं रात भर एक आराम कुर्सी पर लेटे रहे। पलक को झपकने भी न दिया।
सबेरे प्रियनाथ आये और दयाशंकर को देखा तो प्रसन्न हो कर बोले– अब जरा भी चिन्ता नहीं है, इनकी हालत बहुत अच्छी है। एक सप्ताह में यह अपना काम करने लगेंगे। दवा से ज्यादा बाबू प्रेमशंकर की सुश्रूषा का असर है। शायद आप रात को बिलकुल न सोये?
प्रेमशंकर– सोया क्यों नहीं? हाँ, घोड़े बेचकर नहीं सोया।
प्रभाशंकर– डॉक्टर साहब, मैं गवाही देता हूँ कि रात भर इनकी आँखें नहीं झपकीं। मैं कई बार झाँकने आया तो इन्हें बैठे या कुछ पढ़ते पाया।
दयाशंकर ने श्रद्धामय भाव से कहा– जीता बचा तो बाकी उम्र इनकी खिदमत में काटूँगा। इनके साथ रह कर मेरा जीवन सुधर जायेगा।
इस भाँति एक हफ्ता गुजर गया। डॉक्टर प्रियनाथ रोज आते और घंटे भर ठहर तक देहातों की ओर चले जाते। प्रभाशंकर तो दूसरे ही दिन घर चले गये, लेकिन प्रेमशंकर एक दिन के लिए भी न हिले। आठवें दिन दयाशंकर पालकी में बैठकर घर जाने के योग्य हो गये। उनकी छुट्टी मंजूर हो गयी थी।
प्रातःकाल था। दयाशंकर थाने से चले। यद्यपि वह केवल तीन महीने की छुट्टी पर जा रहे थे, पर थाने के कर्मचारियों को ऐसा मालूम हो रहा कि अब इनसे सदा के लिए साथ छूट रहा है। सारा थाना मील भर तक उनकी पालकी के साथ दौड़ता हुआ आया। लोग किसी तरह लौटते ही न थे। अन्त में प्रेमशंकर के बहुत दिलासा देने पर लोग विदा हुए। सब के सब फूट-फूट कर रो रहे थे।
प्रेमशंकर मन में पछता रहे थे कि ऐसे सर्वप्रिय श्रद्धेय मनुष्य से मैं इतने दिनों तक घृणा करता रहा। दुनिया में ऐसे सज्जन, ऐसे दयालु, ऐसे विनयशील पुरुष कितने हैं, जिनकी मुट्टी में इतने आदमियों के हृदय हों, जिनके वियोग से लोगों को इतना दुःख हो।
58
होली का दिन था। शहर में चारों तरफ अबीर और गुलाल उड़ रही थी, फाग और चौताल की धूम थी, लेकिन लाला प्रभाशंकर के घर पर मातम छाया हुआ था। श्रद्धा अपने कमरे में बैठी हुई गायत्री देवी के गहने और कपड़े सहेज रही थी कि अबकी ज्ञानशंकर आये तो यह अमानत सौंप दूँ। विद्या के देहान्त और गायत्री के चले जाने के बाद से उसकी तबीयत अकेले बहुत घबराया करती थी। अक्सर दिन के दिन बड़ी बहू के पास बैठी रहती, पर जब से दोनों लड़कों की मृत्यु हुई उसका जी और भी उचटा रहता था। हाँ, कभी-कभी शीलमणि के आ जाने से जरा देर के लिए जी बहल जाता था। गायत्री के मरने की खबर उसकी यहाँ कल ही आयी थी। श्रद्धा उसे याद करके सारी रात रोती रही। इस वक्त भी गायत्री उसकी आँखों में फिर रही थी, उसकी मृदु, सरल, निष्कपट बातें याद आ रही थीं, कितनी उदार, कितनी नम्र, कितनी प्रेममयी रमणी थी। जरा भी अभिमान नहीं, पर हा शोक! कितना भीषण अंत हुआ। इसी शोकावस्था में दोनों लड़कों की ओर ध्यान जा पहुँचा। हा! दोनों कैसे हँसमुख कैसे, होनहार, कैसे सुन्दर बालक थे! जिन्दगी का कोई भरोसा नहीं, आदमी कैसे-कैसे इरादे करता है, कैसे-कैसे मनसूबे बाँधता है, किन्तु यमराज के आगे किसी की नहीं चलती। वह आन की आन में सारे मंसूबों को धूल में मिला देता है। तीन महीने के अन्दर पाँच प्राणी चल दिये। इस तरह एक दिन मैं भी चल बसँगी और मन की मन में रह जायेगी। आठ साल से हम दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े हैं, न वह झुकते हैं, न मैं दबती हूँ। जब इतने दिनों तक उन्होंने प्रायश्चित नहीं किया तब अब कदापि न करेंगे। उनकी आत्मा अपने पुण्य कार्यों से सन्तुष्ट है, न इसकी जरूरत समझती है न महत्त्व, अब मुझी को दबना पड़ेगा। अब मैं ही किसी विद्वान पंडित से पूछूँ कि मेरे किसी अनुष्ठान से उनका प्रायश्चित हो सकता है या नहीं? क्या मेरी इतने दिनों की तपस्या, गंगा-स्नान, पूजा-पाठ, व्रत और नियम अकारथ हो जायेंगे? माना, उन्होंने विदेश में कितने ही काम अपने धर्म के विरुद्ध किये, लेकिन जब से यहाँ आए हैं तब से तो बराबर सत्कार्य ही कर रहे हैं। दीनों की सेवा और पतितों के उद्धार में दत्तचित्त रहते हैं। अपनी जान की भी परवाह नहीं करते। कोई बड़ा से बड़ा धर्मात्मा भी परोपकार में इतना व्यस्त न रहता होगा। उन्होंने अपने को बिलकुल मिटा दिया है। धर्म के जितने लक्षण ग्रन्थों में लिखे हुए हैं वे उनमें मौजूद हैं। जिस पुरुष ने अपने मन को, अपनी इन्द्रियों को, अपनी वासना को ज्ञान-बल से जीत लिया हो क्या उनके लिए भी प्रायश्चित की जरूरत है? क्या कर्मयोग का मूल्य प्रायश्चित के बराबर नहीं? कोई पुस्तक नहीं मिलती जिसमें इस तपस्या की साफ-साफ व्यवस्था की गई हो। कोई ऐसा विद्वान् नहीं दिखाई देता जो मेरी शंकाओं का समाधान करे। भगवान, मैं क्या करूँ? इन्हीं दुविधाओं में पड़ी एक दिन मर जाऊँगी और उनकी सेवा करने की अभिलाषा मन में ही रह जायेगी। उनके साथ रह कर मेरा जीवन सार्थक हो जाता, नहीं तो इस चहारदीवारी में पड़े जीवन वृथा गँवा रही हूँ।
श्रद्धा इन्हीं विचारों में मग्न थी कि अचानक उसे द्वार पर हलचल-सी सुनायी दी। खिड़की से झाँका तो नीचे सैकड़ों आदमियों की भीड़ दिखायी दी। इतने में महरी ने आकर कहा, बहू जी लखनपुर के जितने आदमी कैद हुए थे वह सब छूट आये हैं और द्वार पर खड़े बाबू जी को आशीर्वाद दे रहे हैं। जरा सुनो, वह बुड्ढा दाढ़ी वाला कह रहा है, अल्लाह! बाबू प्रेमशंकर को कयामत तक सलामत रखे! इनके साथ एक बूढ़ा साधु भी है। सुखदास नाम है। वह बाजार से यहाँ तक रुपये-पैसे लुटाता आया है। जान पड़ता है कोई बड़ा धनी आदमी है।
इतने में मायाशंकर लपका हुआ आया और बोला– बड़ी अम्माँ, लखनपुर के सब आदमी छूट आये हैं। बाजार में उनका जुलूस निकला था। डॉ. इर्फान इली, बाबू ज्वालासिंह, डॉ. प्रियनाथ, चाचा साहब, चाचा दयाशंकर और शहर के और सैकड़ों छोटे-बड़े आदमी जुलूस के साथ थे। लाओ, दीवानखाने की कुंजी दे दो। कमरा खोल कर सबको बैठाऊं।
श्रद्धा ने कुंजी निकाल कर दे दी और सोचने लगी, इन लोगों का क्या सत्कार करूँ कि इतने में जय-जयकार का गगन-व्यापी नाद सुनाई दिया– बाबू प्रेमशंकर की जय। लाला दयाशंकर की जय। लाला प्रभाशंकर की जय!
मायाशंकर फिर दौड़ा हुआ आया और बोला– बड़ी अम्माँ, जरा ढोल-मजीरा निकलवा दो, बाबा सुखदास भजन गायेंगे। वह देखो, वह दाढ़ीवाला बुड्ढा, वही कादिर खाँ है। वह जो लम्बा-तगड़ा आदमी है, वही बलराज है। इसी के बाप ने गौस खाँ को मारा था।
श्रद्धा का चेहरा आत्मोल्लास से चमक रहा था। हृदय ऐसा पुलकित हो रहा था मानो द्वार पर बारात आयी हो। मन में भाँति-भाँति की उमंगें उठ रही थीं। इन लोगों को आज यहीं ठहरा लूँ, सबकी दावत करूँ, खूब धूमधाम से सत्यनारायण की कथा हो। प्रेमशंकर के प्रति श्रद्धा का ऐसा प्रबल आवेग हो रहा था कि इसी दम जा कर उनके चरणों में लिपट जाऊँ। तुरन्त ही ढोल और मजीरे निकाल कर मायाशंकर को दिये।
सुखदास ने ढोल गले में डाला औरों ने मजीरे लिये, मंडल बाँधकर खड़े हो गये और यह भजन गाने लगे–
‘सतगुरु ने मोरी गह लई बाँह नहीं रे मैं तो जात बहा।’
माया खुशी के मारे फूला न समाता था। आकर बोला– कादिर मियाँ खूब गाते हैं।
श्रद्धा– इन लोगों की कुछ आव-भगत करनी चाहिए।
माया– मेरा तो जी चाहता है कि सब की दावत हो। तुम अपनी तरफ से कहला दो। जो सामान चाहिए वह मुझे लिखवा दो। जाकर आदमियों को लाने के लिए भेज दूँ। यह सब बेचारे इतने सीधे, गरीब हैं कि मुझे तो विश्वास नहीं आता कि इन्होंने गौस खाँ को मारा होगा। बलराज है तो पूरा पहलवान, लेकिन वह भी बहुत ही सीधा मालूम होता है।
श्रद्धा– दावत में बड़ी देर लगेगी। बाजार से चीजें आयेंगी, बनाते-बनाते तीसरा पहर हो जायेगा। इस वक्त एक बीस रुपये की मिठाई मँगाकर जलपान करा दो। रुपये हैं या दूँ?
माया– रुपये बहुत हैं। क्या कहूँ, मुझे पहले यह बात न सूझी।
दोपहर तक भोजन होता रहा। शहर के हजारों आदमी इस आनन्दोत्सव में शरीक थे। प्रेमशंकर ने सबको आदर से बिठाया। इतने में बाजार से मिठाइयाँ आ गयीं, लोगों ने नाश्ता किया और प्रेमशंकर का यश-गान करते हुए विदा हुए, लेकिन लखनपुर वालों को छुट्टी न मिली। श्रद्धा ने कहला भेजा कि खा-पीकर शाम को जाना। यद्यपि सब-के-सब घर पहुँचने के लिए उत्सुक हो रहे थे, पर यह निमन्त्रण कैसे अस्वीकार करते। लाला प्रभाशंकर भोजन बनवाने लगे। अब तक उन्होंने केवल बड़े आदमियों को ही व्यजंन-कला से मुग्ध किया था। आज देहातियों को भी यह सौभाग्य प्राप्त हुआ। लाला ऐसा स्वादयुक्त भोजन देना चाहते थे जो उन्हें तृप्त कर दें, जिसको वह सदैव याद करते रहें। भाँति-भाँति के पकवान बनने लगे। बहुत जल्दी की गयी, फिर भी खाते-खाते आठ बज गये। प्रियनाथ और इर्फानअली ने अपनी सवारियाँ भेज दी थीं। उस पर बैठ कर लोग लखनपुर चले। सब ने मुक्त कंठ से आशीर्वाद दिये। अभी घर वाले बाकी थे। उनके खाने में दस बज गये। प्रेमशंकर हाजीपुर जाने को प्रस्तुत हुए तो महरी ने आकर धीरे से कहा, बहू जी कहती हैं कि आज यहीं सो रहिये रात बहुत हो गयी है। इस असाधारण कृपा-दृष्टि ने प्रेमशंकर को चकित कर दिया। वह इसका मर्म न समझ सके।
ज्वालासिंह ने महरी से हँसी की– हम लोग भी रहे या चले जायँ?
महरी सतर्क थी। बोली– नहीं सरकार, आप भी रहे, माया भैया भी रहें, यहाँ किस चीज की कमी है?
ज्वाला– चल, बातें बनाती है!
महरी चली गयी तो वह प्रेमशंकर से बोले– आज मालूम होता है आपके नक्षत्र बलवान हैं। अभी और विजय प्राप्त होने वाली है।
प्रेमशंकर ने विरक्त भाव से कहा– कोई नया उपदेश सुनना पड़ेगा और क्या?
ज्वाला– जी नहीं, मेरा मन कहता है कि आज देवी आपको वरदान देगी। आपकी तपस्या पूरी हो गयी।
प्रेम– मेरी देवी इतनी भक्तवत्सला नहीं है।
ज्वाला– अच्छा, कल आप ही ज्ञात हो जायेगा। हमें आज्ञा दीजिये।
प्रेम– क्यों, यहीं न सो रहिये।
ज्वाला– मेरी देवी और भी जल्द रूठती है।
यह कह कर वह मायाशंकर के साथ चले गये।
महरी ने प्रेमशंकर के लिए पलँग बिछा दिया था। वह लेटे तो अनिवार्यतः मन में जिज्ञासा होने लगी कि श्रद्धा आज क्यों मुझ पर इतनी सदय हुई है। कहीं यह महरी का कौशल तो नहीं है। नहीं, महरी ऐसी हँसोड़ तो नहीं जान पड़ती। कहीं वास्तव में उसने दिल्लगी की तो व्यर्थ लज्जित होना पड़े। श्रद्धा न जाने अपने मन में क्या सोचे। अन्त में इन शंकाओं को शांत करने के लिए उन्होंने ज्ञानशंकर की आलमारी में से एक पुस्तक निकाली और उसे पढ़ने लगे।
ज्वालासिंह की भविष्यवाणी सत्य निकली। आज वास्तव में उनकी तपस्या पूरी हो गयी थी। उनकी सुकीर्ति ने श्रद्धा को वशीभूत कर लिया था। आज जब से उसने सैकड़ों आदमियों को द्वार पर खड़े प्रेमशंकर की जय-जयकार करते देखा था तभी से उसके मन में यह समस्या उठ रही थी– क्या इतने अन्तःकरण से निकली हुई शुभेच्छाओं का महत्त्व प्रायश्चित से कम है? कदापि नहीं। परोपकार की महिमा प्रायश्चित से किसी तरह कम नहीं हो सकती, बल्कि सच्चा प्रायश्चित तो परोपकार ही है। इतनी आशीषें किसी महान् पापी का भी उद्धार कर सकती हैं। कोरे प्रायश्चित का इनके सामने क्या महत्त्व हो सकता है? और इन आशीषों का आज ही थोड़े ही अन्त हो गया। जब यह सब घर पहुँचेंगे तो इनके घरवाले और भी आशीष देंगे। जब तक दम-में-दम रहेगा, उनके हृदय से नित्य यह सादिच्छाएँ निकलती रहेंगी। ऐसे यशस्वी, ऐसे श्रद्वेय को प्रायश्चित की कोई जरूरत नहीं। इस सुधा-वृष्टि ने उसे पवित्र कर दिया है।
ग्यारह बजे थे। श्रद्धा ऊपर से उतरी और सकुचाती हुई आकर दीवानखाने के द्वार पर खड़ी हो गयी। लैम्प जल रहा था, प्रेमशंकर किताब देख रहे थे। श्रद्धा को उनके मुखमंडल पर आत्मगौरव की एक दिव्य ज्योति झलकती हुई दिखायी दी। उसका हृदय बाँसों उछल रहा था और आंखें आनन्द के अश्रु-बिन्दुओं से भरी हुई थीं। आज चौदह वर्ष के बाद उसे अपने प्राणपति की सेवा का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। अब विरहिणी श्रद्धा न थी जिसकी सारी आकांक्षाएँ मिट चुकीं हो। इस समय उसका हृदय अभिलाषाओं से आन्दोलित हो रहा था, किन्तु उसके नेत्रों में तृष्णा न थी, उसके अधरों पर मृदु मुस्कान न थी। वह इस तरह नहीं आयी थी जैसे कोई नववधु अपने पति के पास आती है, वह इस तरह आई थी जैसे कोई उपासिका अपने इष्टदेव के सामने आती है, श्रद्धा और अनुराग में डूबी हुई।
वह क्षण भर द्वार पर खड़ी रही। तब जाकर प्रेमशंकर के चरणों में गिर पड़ी।
59
मानव-चरित्र न बिलकुल श्यामल होता है न बिलकुल श्वेत। उसमें दोनों ही रंगों का विचित्र सम्मिश्रण होता है। स्थिति अनुकूल हुई तो वह ऋषितुल्य हो जाता है, प्रतिकूल हुई तो नराधम। वह अपनी परिस्थितियों का खिलौना मात्र है। बाबू ज्ञानशंकर अगर अब तक स्वार्थी, लोभी और संकीर्ण हृदय थे तो वह परिस्थितियों का फल था। भूखा आदमी उस समय तक कुत्ते को कौर नहीं देता जब तक वह स्वयं सन्तुष्ट न हो जाये। अप्रसन्नता ने उनकी श्यामलता को और भी उज्ज्वल कर दिया था। उन्होंने ऐसे घर में जन्म लिया था। जिसने कुल-मर्यादा की रक्षा में अपनी श्री का अन्त कर दिया था। ऐसी अवस्था में उन्हें सन्तोष से ही शान्ति मिल सकती थी, पर उनकी उच्च शिक्षा ने उन्हें जीवन को एक बृहत, संग्राम-क्षेत्र समझना सिखाया था। उनके सामने जिन महान् पुरुषों के आदर्श रखे गये थे उन्होंने भी संघर्ष-नीति का आश्रय ले कर सफलता प्राप्त की थी। इसमें सन्देह नहीं कि शिक्षा ने उन्हें लेख और वाणी में प्रवीण, तर्क में कुशल, व्यवहार में चतुर बना दिया था, पर उसके साथ ही उन्हें स्वार्थ और स्वहित का दास बना दिया था। यह वह शिक्षा न थी जो अपनी झोंपड़े का द्वार खुला रखने का अनुरोध करती है, जो दूसरों को खिला कर आप खाने की नीति सिखाती है। ज्ञानशंकर किसी को आश्रय देने की कल्पना भी न कर सकते थे जब तक अपना प्रासाद न बना लें, वह किसी को मुट्ठी भर भी अन्न भर न दे सकते थे, जब तक अपनी धान्यशाला को भर न लें।
सौभाग्य से उनका प्रासाद निर्मित हो चुका था। अब वह दूसरों को आश्रय देने पर तैयार थे, उनकी धन्यशाला परिपूर्ण हो चुकी थी। अब उन्हें भिक्षुओं से घृणा न थी। सम्पत्तिशाली हो कर वह उदार, दयालु, दीनवत्सल और कर्तव्यपरायण हो गये थे। लाला प्रभाशंकर की पुत्रियों के विवाह में उन्होंने खासी मदद की थी और पुत्रों के मातम में शरीक होने के लिए भी गोरखपुर से आये थे। प्रेमशंकर के प्रति भी भ्रातृ-प्रेम जाग्रत हो गया था, यहाँ तक कि लखनपुर वालों के मुक्त हो जाने पर उन्हें बधाई दी थी। गायत्री की मृत्यु का शोक समाचार मिला तो उन्होंने उसका संस्कार बड़ी धूमधाम से किया और कई हजार रुपये खर्च किये। उसकी यादगार में एक पक्का तालाब खुदवा दिया। जब तक वह फूस के झोपड़े में रहते थे, आग की चिनगारियों से डरते थे। उनका पक्का महल था फुलझड़ियों का तमाशा सावधानी से देख सकते थे।
ज्ञानशंकर अब ख्याति और सुकीर्ति के लिए लालायित रहते थे। लखनऊ के मान्यगण उन्हें अनधिकारी समझ कर उनसे कुछ खिंचे रहते थे। और यद्यपि गोरखपुर से पहले ही उन्होंने सम्मानपद प्राप्त कर लिया था, पर इस नयी हैसियत में देख कर अक्सर लोग उनसे जलते थे। ज्ञानशंकर ने दोनों शहरों के रईसों से मेल-जोल बढ़ाना शुरू किया। पहले वह राय साहब के अव्यवस्थित व्यय को घटाना परमावश्यक समझते थे। कई घोड़े, एक मोटर, कई सवारी गाड़ियाँ निकाल देना चाहते थे। लेकिन अब उन्हें अपनी सम्मान रक्षा के लिए उस ठाट-बाट को निबाहना ही नहीं, उसे और बढ़ाना जरूरी मालूम होता था, जिसमें लोग उनकी हँसी न उड़ायें। वह उन लोगों की बार-बार दावतें करते, छोटे-बड़े सबसे नम्रता और विनय का व्यवहार करते और सत्कार्यों के लिए दिल खोल कर चन्दे देते। पत्र-सम्पादकों से उनका परिचय पहले ही से था अब और भी घनिष्ठ हो गया। अखबारों में उनकी उदारता और सज्जनता की प्रशंसा होने लगी। यहाँ तक कि साल भी न बीतने पाया था कि वह लखनऊ की ताल्लुकेदार सभा के मंत्री चुन लिये गये। राज्यधिकारियों में भी उनका सम्मान होने लगा। वह वाणी में कुशल थे ही, जातीय-सम्मेलनों में ओजस्विनी वक्तृता देते। पत्रों में वाह-वाह होने लगती। अतएव इधर तो जाति के नेताओं में गिने जाने लगे, उधर अधिकारियों में भी मान-प्रतिष्ठा होने लगी।
किन्तु अपनी मूक, दीन प्रजा के साथ उनका बर्ताव इतना सदय न था। उन वृक्षों में काँटे न थे, इसलिए उनके फल तोड़ने में कोई बाधा न थी। असामियों पर अखराज, बकाया और इजाफे की नालिशें धूम से हो रही थीं, उनके पट्टे बदले जा रहे थे और नजराने बड़ी कठोरता से वसूल किये जा रहे थे। राय साहब ने रियासत पर पाँच लाख का ऋण छोड़ा था। उस पर लगभग 25 हजार वार्षिक ब्याज होता था। ज्ञानशंकर ने इन प्रयत्नों से सूद की पूर्ति कर ली। इतने अत्याचार पर भी प्रजा उनसे असन्तुष्ट न थी। वह कड़वी दवाएँ मीठी करके पिलाते थे। गायत्री की बरसी में उन्होंने असामियों को एक हजार कम्बल बाँटे और ब्राह्मणों को भोज दिया। इसी तरह राय साहब के इलाके में होली के दिन जलसे कराये और भोले-भाले असामियों को भर पेट भंग पिला कर मुग्ध कर दिया। कई जगह मंडियाँ लगवा दीं जिससे कृषकों को अपनी जिन्सें बेचने में सुविधा हो गयी और सियासत को भी अच्छा लाभ होने लगा।
इस तरह दो साल गुजर गये। ज्ञानशंकर का सौभाग्य-सूर्य अब मध्याह्न पर था। राय साहब के ऋण से वह बहुत कुछ मुक्त हो चुके थे। हाकिमों में मान था, रईसों में प्रतिष्ठा थी, विद्वज्जनों में आदर था, मर्मज्ञ लेखक थे, कुशल वक्ता थे। सुख-भोग की सब सामग्रियाँ प्राप्त थीं। जीवन की महत्त्वकांक्षाएँ पूरी हो गयी थी। वह जब कभी अवकाश के समय अपनी गत अवस्था पर विचार करते तब अपनी सफलता पर आश्चर्य होता था। मैं क्या से क्या हो गया? अभी तीन ही साल पहले मैं एक हजार सालाना नफे के लिए सारे गाँव को फाँसी पर चढ़वा देना चाहता था। तब मेरी दृष्टि कितनी संकीर्ण थी। एक तुच्छ बात के लिए चचा से अलग हो गया, यहाँ तक कि अपने सगे भाई का भी अहित सोचता था। उन्हें फँसाने में कोई बात उठा नहीं रखी। पर अब ऐसी कितनी रकमें दान कर देता हूँ। कहाँ एक ताँगा रखने की सामर्थ्य न थीं, कहाँ अब मोटरें मँगनी दिया करता हूँ। निस्सन्देह इस सफलता के लिए मुझे स्वाँग भरने पड़े, हाथ रँगने पड़े, पाप, छल, कपट सब कुछ करने पड़े, किन्तु अँधेरे में खोह में उतरे बिना अनमोल रत्न कहाँ मिलते हैं? लेकिन इसे अपना ही कृत्यों का फल समझना मेरी नितान्त भूल है। ईश्वरीय व्यवस्था न होती तो मेरी चाल कभी सीधी न पड़ती! उस समय तो ऐसा जान पड़ता था, कि पाँसा पलट पड़ा। वार खाली गया, लेकिन सौभाग्य से उन्हीं खाली वारों ने, उल्टी चालों ने बाजी जिता दी।
ज्ञानशंकर दूसरे-तीसरे महीने बनारस अवश्य जाते और प्रेमशंकर के पास रह कर सरल जीवन का आनन्द उठाते। उन्होंने प्रेमशंकर से कितनी ही बार साग्रह कहा कि अब आपको इस उजाड़ में झोंपड़ा बना कर रहने की क्या जरूरत है? चल कर घर पर रहिए और ईश्वर की दी हुई संपत्ति भोगिए। यह मंजूर न हो तो मेरे साथ चलिये। हजार-दो-हजार बीघे चक दे दूँ, वहाँ दिल खोल कर कृषक जीवन का आनन्द उठाइए, लेकिन प्रेमशंकर कहते, मेरे लिए इतना ही काफी है, ज्यादा की जरूरत नहीं। हाँ, इस अनुरोध का इतना फल अवश्य हुआ कि वह अपनी जोत को बढ़ाने पर राजी हो गये। उनके डाँड़ से मिली हुई पचास बीघे जमीन एक दूसरे ज़मींदार की थी। उन्होंने उसका पट्टा लिखा लिया और फूस के झोंपड़े की जगह खपरैल के मकान बनवा लिये। ज्ञानशंकर उनसे यह सब प्रस्ताव करते थे, पर उनके संतोषमय, सरल, निर्विरोध जीवन के महत्त्व से अनभिज्ञ थे। नाना प्रकार की चिंताओं और बाधाओं में ग्रस्त रहने के बाद वहाँ के शान्तिमय, निर्विघ्न विश्राम में उनका चित्त प्रफुल्लित हो जाता था। यहाँ से जाने को जी न चाहता था। यह स्थान अब पहले की तरह न था, जहाँ केवल एक आदमी साधुओं की भाँति अपनी कुटी में पड़ा रहता हो। अब वह एक छोटी सी गुलजार बस्ती थी, जहाँ नित्य राजनीतिक और सामाजिक विषयों पर सम्वाद होते थे और जीवन-मरण के गूँढ़ जटिल प्रश्नों की मीमांसा की जाती थी! यह विद्वज्जनों की एक छोटी सी संगत थी, विद्वानों के पक्षपात और अहंकार से मुक्त। वास्तव में यह सारल्य, संतोष और सुविचार की तपोभूमि थी। यहाँ न ईर्ष्या का सन्ताप था, न लोभ का उन्माद, न तृष्णा का प्रकोप। यहाँ धन की पूजा न होती थी और न दीनता पैरों तले कुचली जाती थी। यहाँ न एक गद्दी लगा कर बैठता था और न दूसरा अपराधियों की भाँति उनके सामने हाथ बाँध कर खड़ा होता था। यहाँ स्वामी की घुड़कियाँ न थीं न सेवक की दीन ठकुर-सोहातियाँ। यहाँ सब एक दूसरे के सेवक, एक दूसरे के मित्र और हितैषी थे। एक तरफ डॉक्टर इर्फान अली का सुन्दर बँगला था फूलों और लताओं से सजा हुआ। डॉक्टर साहब अब केवल वही मुकदमे लेते थे जिनके सच्चे होने का उन्हें विश्वास होता था और उतना ही पारिश्रमिक लेते थे जितना खर्च के लिए आवश्यक हो। संचय और संग्रह की चिंताओं से निवृत्त हो गये थे। शाम-सवेरे वह प्रेमशंकर के साथ बागवानी करते थे, जिसका उन्हें पहले से ही शौक था। पहले गमलों में लगे हुए पौधों को देखकर खुश होते थे, काम माली करता था। अब सारा काम अपने ही हाथों करते थे। उनके बँगले से मिला हुआ डॉक्टर प्रियनाथ का मकान था। मकान के सामने एक औषधालय था। अब वे प्रायः देहातों में घूम-घूम कर रोगियों का कष्ट निवारण करते थे नौकरी छोड़ दी थी। जीविका के लिए एक गौशाला खोल ली थी जिसमें कई पछाहीं गायें-भैंसे थी। दूध-मक्खन बिकने के लिए शहर चला आता था। रोगियों से कुछ फीस न लेते थे। बाबू ज्वालासिंह और प्रेमशंकर एक ही मकान में रहते थे। श्रद्धा और शीलमणि में खूब बनती थी। घर के कामों से फुरसत पाते ही दोनों चरखे पर बैठ जाती थीं। या मोजे बुनने लगती थीं। प्रेमशंकर नियमानुसार खेत में काम करते थे और ज्वालासिंह नये प्रकार के करघों पर आप कपड़े बुनते थे और हाजीपुर के कई युवकों को बुनना सिखाते थे। इस कला में वह बहुत निपुण हो गये थे। सैयद ईजाद हुसेन ने भी यहीं अड्डा जमाया। उनका परिवार अब भी शहर में ही रहता था, पर यह यतीमखाना यहीं उठ आया था। उसमें अब नकली नहीं, सच्चे यतीमों का पालन-पोषण होता था। सैयद साहब अपना ‘इत्तहाद’ अब भी निकालते थे और ‘इत्तहाद’ पर अपने व्याख्यान देते थे, लेकिन चन्दे न वसूल करते थे और न स्वाँग भरते थे। वह अब हिन्दू-मुसलिम एकता के सच्चे प्रचारक थे। यतीमखाने के समीप ही मायाशंकर का मित्र भवन था। यह एक छोटा सा छात्रालय था। इसमें इर्फान अली के दो लड़के, प्रियनाथ के तीनों लड़के, दुर्गा माली का एक लड़का और मस्ता का एक छोटा भाई साथ-साथ रहते थे। सब साथ-साथ पाठशाला को जाते और साथ-साथ भोजन करते। उनका सब खर्च मायाशंकर अपने वजीफे से देता था। भोजन श्रद्धा पकाती थी। ज्ञानशंकर ने कई बार चाहा कि माया को ले जाकर लखनऊ के ताल्लुकेदार स्कूल में दाखिल करा दें लेकिन वह राजी न होता था।
एक बार ज्ञानशंकर लखनऊ से आये तो माया के वास्ते एक बहुत सुन्दर रेशमी सूट सिला लाये, लेकिन माया ने उसको उस वक्त तक न पहना जब तक मित्र-भवन के और छात्रों के लिए वैसे ही सूट न तैयार हो गये। ज्ञानशंकर मन में बहुत लज्जित हुए और बहुत जब्त करने पर भी उनके मुँह से इतना निकल ही गया, भाई साहब, मैं इस साम्य-सिद्धान्त पर आपसे सहमत नहीं हूँ। यह एक अस्वाभाविक सिद्धान्त है। सिद्धान्त रूप से हम चाहे इसकी कितनी प्रशंसा करें पर इसका व्यवहार में लाना असंभव है। मैं यूरोप के कितने ही साम्यवादियों को जानता हूँ जो अमीरों की भाँति रहते हैं, मोटरों पर सैर करते हैं और साल में छह महीने इटली या फ्रांस में विहार किया करते हैं। जब वह अपने को साम्यवादी कह सकते हैं तो कोई कारण नहीं है कि हम इस अस्वाभाविक नीति पर जान दें।
प्रेमशंकर ने विनीत भाव से कहा– यहाँ साम्यवाद की तो कभी चर्चा नहीं हुई है।
ज्ञान– तो फिर यहाँ के जलवायु में यह असर होगा। यद्यपि मुझे इस विषय में आपसे कुछ कहने का अधिकार नहीं है पर पिता के नाते मैं। इतना कहने की क्षमा चाहता हूँ कि ऐसी शिक्षा का फल माया के लिए हितकर न होगा।
प्रेम– अगर तुम चाहो और माया की इच्छा हो तो उसे लखनऊ ले जाओ, मुझे कोई आपत्ति नहीं है। यहाँ के जलवायु को बदलना मेरे वश की बात नहीं।
ज्ञान– यह तो आप जानते हैं कि माया और उसके साथियों की स्थिति में कितना अन्तर है।
प्रेमशंकर ने गम्भीरता से कहा– हाँ, खूब जानता हूँ, पर यह नहीं जानता कि इस अन्तर को प्रदर्शित क्यों किया जाये। मायाशंकर थोड़े दिनों में एक बड़ा इलाकेदार होगा, यह सब लड़कों को मालूम है। क्या यह बात उन्हें अपने दुर्भाग्य पर रुलाने के लिए काफी नहीं है कि इस विभिन्नता का स्वाँग दिखा कर उन्हें और भी चोट पहुँचायी जाय? तुम्हें मालूम न होगा, पर मैं यह विश्वस्त रूप से कहता हूँ कि तेजू और पद्यू का बलिदान माया के गोद लिए जाने के ही कारण हुआ। माया को अचानक इस रूप में देखकर सिद्धि प्राप्त करने की प्रेरणा हुई। माया डींगे मार-मार कर उनकी लालसा को और भी उत्तेजित करता रहा और उसका यह भयंकर परिणाम हुआ…
इतने में माया आ गया और प्रेमशंकर को अपनी बात अधूरी छोड़नी पड़ी। ज्ञानशंकर भी अन्यमनस्क हो कर वहाँ से उठ गये।
60
गायत्री के आदेशानुसार ज्ञानशंकर 2000 रुपये महीना मायाशंकर के खर्च के लिए देते जाते थे। प्रेमशंकर की इच्छा थी कि कई अध्यापक रखे जायें, सैर करने के लिए गाड़ियाँ रखी जायँ, कई नौकर सेवा-टहल के लिए लगाये जायँ, पर मायाशंकर अपने ऊपर इतना खर्च करने को राजी न हुआ। प्रेमशंकर को मजबूर हो कर उसकी बात माननी पड़ी। केवल दो अध्यापक उसे पढ़ाने आते थे। फारसी पढ़ाने के लिए ईजाद हुसेन और संस्कृत पढ़ाने के लिए एक पंडित। सवारी के लिए एक घोड़ा भी था। अंग्रेजी प्रेमशंकर स्वयं पढ़ाते थे। गणित ज्वालासिंह के जिम्मे था, डॉक्टर सप्ताह में दो दिन गाने की शिक्षा देते थे, जिसमें यह निपुण थे और दो दिन आरोग्य शास्त्र पढ़ाते थे। डॉक्टर इर्फान अली अर्थशास्त्र के ज्ञाता थे। सप्ताह में दो दिन कानून सिखाते और दो दिन अर्थशास्त्र की व्याख्या करते। कालेज के कई विद्यार्थी शहर से इन व्याख्यानों को सुनने के लिए आ जाते थे और प्रियनाथ का संगीत समाज तो सारे शहर में प्रसिद्ध था। इधर की बचत मित्र-भवन इत्तहादी अनाथालय और प्रियनाथ के चिकित्सालय के संचालन में खर्च होती थी। विद्यावती के नाम से बीस-बीस रुपये की दस छात्रवृत्तियाँ भी दी जाती थी। इतना सब खर्च करने पर भी महीने में खासी बचत हो जाती थी। इन तीन वर्षों में कोई 25 हजार रुपये जमा हो गये थे। प्रेमशंकर चाहते थे कि ज्ञानशंकर की सम्मति ले कर माया को कुछ दिनों के लिए यूरोप, अमेरिका आदि देशों में भ्रमण करने के लिए भेज दिया जाये। इस धन का इससे अच्छा उपयोग न हो सकता था। पर मायाशंकर की कुछ और ही इच्छा थी। वह यात्रा करने के लिए उत्सुक था, पर एक हजार रुपये महीने से ज्यादा खर्च न करना चाहता था। इन घन के सदुपयोग की उसने दूसरी ही विधि सोची थी, पर प्रेमशंकर से यह प्रकट करते हुए सकुचाता था। संयोग से इसी बीच में उसे इसका अच्छा अवसर मिल गया।
लाला प्रभाशंकर ने प्रेमशंकर को लखनपुर के मुकदमे से बचाने के लिए जो रुपये उधार लिए थे उसकी अवधि तीन साल थी। यह मियाद पूरी हो गयी थी, पर रुपये का सूद तक न अदा हुआ था। पहले प्रेमशंकर को इस मामले की जरा भी खबर न थी, पर जब महाजन ने अदालत में नालिश की तो उन्हें खबर हुई। रुपये क्यों उधार लिए गये, यह बात शीघ्र ही मालूम हो गयी। तब से यह घोर चिन्ता में पड़े हुए थे, यह रुपये कैसे दिये जायें? यद्यपि मुकदमे में रुपये का एक ही भाग खर्च हुआ था, अधिकांश खाने-खिलाने, शादी-ब्याह में उड़ था, पर यह हिसाब-किताब करने का समय न था। प्रेमशंकर ऋण का पूरा भार लेना चाहते थे। लेकिन रुपये कहाँ से आयें? वे कई दिन इसी चिन्ता में विकल रहे। कभी सोचते ज्ञानशंकर से माँगूँ, कभी प्रियनाथ से माँगने का विचार करते, पर संकोचवश किसी से कहते न बनता था।
एक दिन वह इसी उधेड़-बुन में पड़े हुए थे कि भोला आ कर खड़ा हो गया और उन्हें चिन्तित देख बोला– बाबूजी आज-कल आप बहुत उदास रहते हैं, क्या बात है? हमारे लायक कोई काम हो तो बताइए, भरसक उसे पूरा करेंगे।
प्रेमशंकर को भोला से बहुत स्नेह था। इनके सत्संग से उसकी शराब और जुए की आदत छूट गयी थी। वह इनको अपना मुक्तिदाता समझता था और इन पर असीम श्रद्धा रखता था। प्रेमशंकर भी उस पर विश्वास करते थे। बोले– कुछ ऐसी ही चिन्ता है, मगर तुम सुन कर क्या करोगे?
भोला– और तो क्या करूँगा? हाँ, जान लड़ा दूँगा।
प्रेम– जान लड़ाने से मेरी चिन्ता दूर न होगी, उसका कोई और ही उपाय करना पड़ेगा।
भोला– कहिए वह करने को तैयार हूँ। जब-तक आप न बतायेंगे पिण्ड न छोड़ूँगा।
अन्त में विवश हो कर प्रेमशंकर ने कहा– मुझे कुछ रुपयों की जरूरत है और समझ में नहीं आता कि कौन सा उपाय करूँ।
भोला– हजार दो हजार से काम चले तो मेरे पास हैं, ले लीजिए। ज्यादा की जरूरत हो तो कोई और उपाय करूँ।
प्रेम– हजार दो हजार का तुम क्या प्रबन्ध करोगे? तुम्हारे पास तो हैं नहीं, किसी से लेने ही पड़ेंगे।
भोला– नहीं बाबूजी, आपकी दुआ से अब इतने फटेहाल नहीं हैं। हजार से कुछ ऊपर तो अपने ही हैं। एक हजार मस्ता ने रखने को दिये हैं। दुर्गा और दमड़ी भी कुछ रुपये रखने को देते थे, पर मैंने नहीं लिये। पराये रुपये घर में रख कर कौन जंजाल पाले? कहीं कुछ हो जाय तो लोग समझेंगे इसने खा लिए होंगे।
प्रेम– तुम लोगों के पास इतने रुपये कहाँ से आ गये?
भोला– आप ही ने दिये हैं, और कहाँ से आये? जवानी की कसम खा कर कहता हूँ कि इधर तीन साल से एक दिन भी कौड़ी हाथ से छुई हो या दारू मुँह से लगायी हो। आप लोगों जैसे भले आदमियों के साथ रह कर ऐसे कुकर्म करता तो कौन मुँह दिखाता? मस्ता के बारे में भी कह सकता हूँ कि इधर दो-ढाई साल से किसी के माल की तरफ आँख उठा कर नहीं देखा। अभी थोड़े ही दिनों की बात है, भवानी सिंह की अंटी से पाँच गिन्नियाँ गिर गयी थीं। मस्ता ने खेत में पड़ी पायीं और उसी दिन जा कर उन्हें दे आया। पहले इस बगीचे से फल-फलारी तोड़ कर बेच लिया करता था, पर अब यह सारी आदतें छूट गयीं। दुर्गा और दमड़ी गाँजा-चरस तो पीते हैं, लेकिन बहुत कम और मैंने उन्हें कोई कुचाल चलते नहीं देखा हम अभी रोटी, दाल, तरकारी खा कर दो-तीन सौ रुपये बचा लेते हैं। तो कहिए, जितने रुपये मेरे पास हैं वह लाऊँ?
प्रेम– यह सुन कर मुझे बड़ी खुशी हुई कि तुम लोग भी चार पैसे के आदमी हो गये। यह सब तुम्हारे सुविचार का फल है। लेकिन मेरा काम इतने रुपये में न चलेगा। मुझे पच्चीस हजार की जरूरत है।
सहसा मायाशंकर आ कर खड़ा हो गया। उसकी आँखें डबडबायी हुई थीं और मुँह पर करुण उत्सुकता झलक रही थी। प्रेमशंकर ने भोला को आँखों के इशारे से हटा दिया तब माया से बोले– आँखें क्यों भरी हुई हैं? बैठो।
माया– जी, कुछ नहीं। अभी तेजू और पद्यू की याद आ रही थी। दोनों अब तक होते तो उन्हें यहीं बुला कर रखता। उस समय मैं बड़ा निर्दयी था। बेचारों को अपना ठाट दिखा कर जलाना चाहता था। मेरी शेखी की बातें सुन-सुन वे भी कहा करते थे, हम वह मन्त्र जगायेंगे कि कोई मार ही न सके। ऐसे-ऐसे मन्त्रों को अपने वश में कर लेंगे कि घर बैठें संसार की जो वस्तु चाहें मँगा लेंगे! उस वक्त मेरी समझ में वे बात न आती थीं, दिल्लगी समझता था, पर अब तो उन बातों को याद करता हूँ तो ऐसा मालूम होता है कि मैं उनका घातक हूँ। चित्त व्याकुल हो जाता है और अपने ऊपर ऐसा क्रोध आता है कि क्या कहूँ! अभी बाबा से मिलने गया था। बहुत दुःखी थे। किसी महाजन ने उन पर नालिश भी कर दी। है, इससे और भी चिन्तित थे। अगर यह मुसीबत न आती तो शायद वह इतने दुःखी न होते। विपत्ति में शोक और भी दुस्सह हो जाता है। शोक का घाव भरना तो असम्भव है, पर इस नयी विपत्ति का निवारण हो सकता है। आपसे कहते हुए संकोच होता है, पर इस समय मुझे क्षमा कीजिये। चाचा दयाशंकर तो बाबा से कह रहे थे, हमें जमीन की परवाह नहीं है, निकल जाने दीजिए। आपको अब क्या करना है? मेरे सिर पर जो पड़ेगी, देख लूँगा, लेकिन बाबा की इच्छा यह थी कि महाजन से कुछ दिनों की मुहलत ली जाये। अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं जा कर बातचीत करूँ मुझसे वह कुछ दबेगा भी।
प्रेमशंकर– रुपयों की फिक्र तो मैं कर रहा हूँ, पर मालूम नहीं उन्हें कितने रुपयों की जरूरत है। उन्होंने मुझसे कभी यह जिक्र नहीं किया।
माया– बातचीत से मालूम होता था कि पन्द्रह-बीस हजार का मुआमला है।
प्रेम– यही मेरा अनुमान है। दो-चार दिन में कुछ न कुछ उपाय निकल ही आयेगा। या तो महाजन को समझा-बुझा दूँगा या दो-चार हजार दे कर कुछ दिन की मुहलत ले लूँगा।
माया– मैं चाहता हूँ कि बाबा को मालूम भी न होने पाये और महाजन के सब रुपये पहुँच जायें जिसमें यह झंझट न रहे। जब हमारे पास रुपये हैं तो फिर महाजन की खुशामद क्यों की जाय?
प्रेम– वह रुपये अमानत हैं। उन्हें छूने का अधिकार नहीं है। उन्हें मैंने तुम्हारी यूरोप-यात्रा के लिए अलग कर दिया है।
माया– मेरी यूरोप यात्रा इतनी आवश्यक नहीं है कि घरवालों को संकट में छोड़ कर चला जाऊँ।
प्रेम– जिस काम के लिए वह रुपये दिये गये हैं उसी काम में खर्च होने चाहिए।
माया मन में खिन्न हो कर चला गया, पर श्रद्धा से ढीठ हो गया था। उसके पास जा कर बोला– अगर चाचा साहब बाबा को रुपये न देंगे तो मैं यूरोप कदापि न जाऊँगा। तीस हजार ले कर मैं वहाँ क्या करूँगा! मेरे लिए चलते समय पाँच हजार काफी हैं। चाचा साहब से पचीस हजार दिला दो।
प्रेमशंकर ने श्रद्धा से भी वही बातें कहीं। श्रद्धा ने माया का पक्ष लिया। बहस होने लगी। कुछ निश्चय न हो सका। दूसरे दिन श्रद्धा ने फिर प्रश्न उठाया। आखिर जब उसने देखा कि यह दलीलों से हार जाने पर भी रुपये नहीं देना चाहते तो जरा गर्म होकर बोली– अगर तुमने दादाजी को रुपये न दिये तो माया कभी यूरोप न जायेगा।
प्रेम– वह मेरी बात को कभी नहीं टाल सकता है।
श्रद्धा– और बातों को नहीं टाल सकता। पर इस बात को हरगिज न मानेगा।
प्रेम– तुमने यह शिक्षा दी होगी।
श्रद्धा ने कुछ जवाब न दिया। यह बात उसे लग गयी। एक क्षण तक चुपचाप बैठी रही। तब जाने के लिए उठी। प्रेमशंकर के मुँह से बात तो निकल गयी थी, पर अपनी कठोरता पर लज्जित थे। बोले– अगर ज्ञानशंकर कुछ आपत्ति करें तो?
श्रद्धा ने तिनक कर कहा– तो साफ-साफ क्यों नहीं कहते कि ज्ञानशंकर के डर से नहीं देता। अधिकार, कर्त्तव्य और अमानत का आश्रय क्यों लेते हो?
प्रेमशंकर ने असमंजस में पड़ कर कहा– डर की बात नहीं है। रुपयों के विषय में मुझे पूरा अधिकार है, लेकिन ज्ञानशंकर की अनुमति के बिना मैं उसे इस तरह खर्च नहीं करना चाहता।
श्रद्धा– तो एक चिट्ठी लिख कर पूछ लो। मुझे तो पूरा विश्वास है कि उन्हें कोई आपत्ति न होगी। अब वह ज्ञानशंकर नहीं हैं जो पैसे-पैसे पर जान देते थे।
प्रेमशंकर बाहर आ कर ज्ञानशंकर को पत्र लिखने बैठे। लेकिन फिर ख्याल आया कि उन्होंने अनुमति दे दी तो अनुमति देने में उनकी क्या हानि है? तब मुझे विवश हो कर रुपये देने पड़ेंगे। यह रुपये न मेरे है, न ज्ञानशंकर के हैं। यह माया की शिक्षावृत्ति है। पत्र न लिखा। ज्वालासिंह के सामने यह समस्या पेश की। उन्होंने भी कुछ निश्चय न किया। डॉक्टर इर्फानअली से परामर्श लेने की ठहरी। डॉक्टर साहब ने फैसला किया कि यह रकम माया की शिक्षा के सिवा और किसी काम में नहीं खर्च की जा सकती।
मायाशंकर ने यह फैसला सुना तो झुँझला उठा। जी में आया कि चलकर डॉक्टर साहब से खूब बहस करूँ पर डरा कि कहीं वह इसे बेअदबी न समझें। क्यों न महाजन के पास जा कर वह सब रुपये माँग लूँ? अभी नाबालिक हूँ, शायद उसे कुछ आपत्ति हो, लेकिन एक के दो देने पर तैयार हो गया तो मुंह से तो चाहे कुछ न कहें, पर मन में बहुत नाराज होंगे। बेचारा इन्हीं दुश्चिन्ताओं में डूबा हुआ मलीन, उदास जाकर लेट रहा। सन्ध्या हो गयी पर कमरे से न निकला। डॉ. इर्फान अली ने पढ़ाने के लिए बुलाया। कहला भेजा, मेरे सिर में दर्द है। भोजन का समय आया। मित्र-भवन के और सब छात्र भोजन करने लगे। माया ने कहला भेजा, मेरे सिर में दर्द है। श्रद्धा बुलाने आयी। उसे देखते ही माया रो पड़ा।
श्रद्धा ने प्रेम से आँसू पोंछते हुए कहा– बेटा, चल कर थोड़ा सा खाना खा लो। सवेरे मैं फिर उनसे कहूँगी। डॉ. इर्फानअली ने बात बिगाड़ दी, नहीं तो मैंने तो राजी कर लिया था।
माया– चाची, मेरी खाने की बिलकुल इच्छा नहीं है। (रो कर) तेजू और पद्यू के प्राण मैंने लिए और अब मैं बाबा की कुछ मदद भी नहीं कर सकता। ऐसे जीने पर धिक्कार है।
श्रद्धा भी करुणावेग से विवश हो गयी। अंचल से माया के आँसू पोंछती थी और स्वयं रोती थी।
माया ने कहा– चाची, तुम नाहक हलाकान होती हो, मैं अभागा हूँ, मुझे रोने दो।
श्रद्धा– तुम चल कर कुछ खा लो। मैं आज ही रात को यह बात छेड़ूँगी।
माया का चित्त बहुत खिन्न था, पर श्रद्धा की बात न टाल सका। दो-चार कौर खाये, पर ऐसा मालूम होता था कि कौर मुँह से निकला पड़ता है। हाथ-मुँह धो कर फिर अपने कमरे में लेट रहा।
सारी रात श्रद्धा यही सोचती रही कि इन्हें कैसे समझाऊँ। शीलमणि से भी सलाह ली, पर कोई युक्ति न सूझी।
प्रातःकाल बुधिया किसी काम से आई। बातों-बातों में कहने लगी– बहूजी, पैसा सब कोई देखता है, मेहनत कोई नहीं देखता। मर्द दिन भर में एक-दो रुपया कमा लाता है तो मिजाज ही नहीं मिलता, औरत बेचारी रात-दिन चूल्हे-चक्की में जुटी रहे, फिर भी वह निकम्मी ही समझी जाती है।
श्रद्धा सहसा उछल पड़ी। जैसे सुलगती हुई आग हवा पा कर भभक उठती है। उसी भाँति इन बातों ने उसे एक युक्ति सुझा दी। भटकते हुए पथिक को रास्ता मिल गया। कोई चीज जिसे घंटों से तलाश करते-करते थक गयी थी, अचानक मिल गयी। ज्यों ही बुधिया गयी, वह प्रेमशंकर के पास आ कर बोली– चाचाजी को रुपये देने के बारे में क्या निश्चय किया?
प्रेम– फिक्र में हूँ। दो-चार दिन में कोई सूरत निकल ही आयेगी।
श्रद्धा– रुपये तो रखे ही हैं।
प्रेम– मुझे खर्च करने का अधिकार नहीं है।
श्रद्धा– यह किसके रुपये हैं?
प्रेम– (विस्मित होकर) माया के शिक्षार्थ दिये गये हैं।
श्रद्धा– तो क्या 2000 रुपये महीने खर्च नहीं होते हैं?
प्रेम– क्या तुम जानती नहीं? लगभग 800 रुपये खर्च होते हैं, बाकी 1200 रुपये बचे रहते हैं।
श्रद्धा– यह क्यों बचे रहते हैं? क्या यह तुम्हारी समझ में नहीं आता? डॉक्टर इर्फान अली को पढ़ने के लिए कितना वेतन मिलना चाहिए? डॉ. प्रियनाथ और बाबू ज्वालासिंह को भी नौकर रखते तो कुछ न कुछ देना पड़ता। तुम्हारी मजूरी भी कुछ न कुछ होनी ही चाहिए। तुम्हारे विचार में इर्फानअली का वेतन कुछ होता ही नहीं? उनका एक दिन का मेहनताना 500 रुपये न दोगे? प्रियनाथ की आमदनी 100 रुपये प्रति दिन से कम नहीं थी। पहले तो वह किसी के घर पढ़ाने जायें ही नहीं, जायें तो 500 रुपये महीने से कम न लें। बाबू ज्वालासिंह भी 100 रुपये पर महँगे नहीं हैं। रहे तुम तुम्हारा भतीजा है, उसे शौक से प्रेम से पढ़ाते हो, पर दूसरों को क्या पड़ी है। कि वह सेंत में अपनी सिरपच्ची करें। इन रुपयों को तुम बचत समझते हो, यह सर्वथा अन्याय है। इसे चाहे अपनी सज्जनता का पुरस्कार समझो या उनके एहसान का मूल्य, इस धन के खर्च करने का उन्हें अधिकार है।
प्रेमशंकर ने सन्दिग्ध भाव से कहा– माया और तुम बिना रुपये दिलाये न मानोगे, जैसी तुम्हारी इच्छा। तुम्हारी युक्ति में न्याय है, इसे मैं मानता हूँ, पर आत्मा सन्तुष्ट नहीं होती। मैं इस वक्त दिये देता हूँ पर इसे ऋण समझ कर सदैव अदा करने की चेष्टा करता रहूँगा।
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लाला प्रभाशंकर को रुपये मिले तो वह रोये। गाँव तो बच गया, पर उसे कौन बिलसेगा? दयाशंकर का चित्त फिर घर से उचाट हो चला था। साधु-सन्तों के सत्संग के प्रेमी हो गये थे। दिन-दिन वैराग्य में रह होते जाते थे।
इधर मायाशंकर की यूरोप-यात्रा पर ज्ञानशंकर राजी न हुए। उनके विचारों में अभी यात्रा से माया को यथेष्ट लाभ न पहुँच सकता था। उससे यह कहीं उत्तम था कि वह अपने इलाकों का दौरा करे। उसके बाद हिन्दुस्तान के मुख्य-मुख्य स्थानों को देखे, अतएव चैत के महीने में मायाशंकर गोरखपुर चला गया और दो महीने तक अपने इलाके की सैर करने के बाद लखनऊ जा पहुँचा। दो महीने तक वहां भी अपने गाँवों का दौरा करता रहा। प्रतिदिन जो कुछ देखता अपनी डायरी में लिख लेता। कृषकों की दशा का खूब अध्ययन किया। दोनों इलाकों के किसान उसके प्रजा-प्रेम, विनय और शिष्टता पर मुग्ध हो गये। उसने उनके दिलों में घर कर लिया। भय की जगह प्रेम का विकास हो गया। लोग उसे अपना उच्च हितैषी समझने लगे। उसके पास आ कर अपनी विपत्ति-कथा सुनाते। उसे उनकी वास्तविक दशा का ऐसा परिचय किसी अन्य रीति से न मिल सकता था। चारों तरफ तबाही छायी हुई थी। ऐसा विरला ही कोई घर था जिसमें धातु के बर्तन दिखाई पड़ते हों। कितने घरों में लोहे के तवे तक न थे। मिट्टी के बर्तनों को छोड़ कर झोंपड़े में और कुछ दिखायी न देता था। न ओढ़ना न बिछौना, यहाँ तक कि बहुत से घरों में खाटें तक न थीं और वह घर ही क्या थे। एक-एक दो-दो छोटी कोठरियाँ थीं। एक मनुष्यों के लिए, एक पशुओं के लिए। उसी एक कोठरी में खाना, सोना, बैठना– सब कुछ होता था। बस्तियाँ इतनी घनी थीं कि गाँव में खुली हुई जगह दिखायी ही नहीं देती थी। किसी के द्वार पर सहन नहीं, हवा और आकाश का शहरों की घनी बस्तियों में भी इतना अभाव न होगा। जो किसान बहुत सम्पन्न समझे जाते थे उनके बदन पर साबित कपड़े न थे, उन्हें भी एक जून चबेना पर ही काटना पड़ता था। वह भी ऋण के बोझ से दबे हुए थे। अच्छे जावनरों के रखने को आँखें तरस जाती थीं। जहाँ देखों छोटे-छोटे मरियल, दुर्बल बैल दिखायी देते और खेत में रेंगते और चरनियों पर औंघाते थे। कितने ही ऐसे गाँव थे जहाँ दूध तक न मयस्सर होता था। इस व्यापक दरिद्रता और दीनता को देख कर माया का कोमल हृदय तड़प जाता था। वह स्वभाव से ही भावुक था– बहुत नम्र उदार और सहृदय। शिक्षा और संगीत ने इन भावों को और भी चमका दिया था। प्रेमाश्रय में नित्य सेवा और प्रजा-हित की चर्चा रहती थी। माया का सरल हृदय उसी रंग में रंगा गया। वह इन दृश्यों से दुःखित हो कर प्रेमशंकर को बार-बार पत्र लिखता, अपनी अनुभूत घटनाओं का उल्लेख करता और इस कष्ट का निवारण करने का उपाय पूछता, किन्तु प्रेमशंकर या तो उनका कुछ उत्तर ही न देते या किसानों की मूर्खता, आलस्य आदि दुःस्वभावों की गाथा ले बैठते।
माया तो अपने इलाकों की सैर कर रहा था, इधर स्थानीय राजसभा के सदस्यों का चुनाव होने लगा। ज्ञानशंकर इस सम्मान पद के पुराने अभिलाषी थे बड़े उत्साह से मैदान में उतरे, यद्यपि ताल्लुकेदार सभा के मन्त्री थे, पर ताल्लुकेदारों की सहायता पर उन्हें भरोसा न था। कई बड़े-बड़े ताल्लुकेदार अपने के गाँव प्रतिनिधि बनने के लिए तत्पर थे। उनके सामने ज्ञानशंकर को अपनी सफलता की कोई आशा न थी। इसलिए उन्होंने गोरखपुर के किसानों की ओर से खड़ा होने का निश्चय किया। वहाँ संग्राम इतना भीषण न था। उनके गोइन्दे देहातों में घूम-घूम कर उनका गुणगान करने लगे। बाबू साहब कितने दयालु, ईश्वरभक्त हैं, उन्हें चुन कर तुम कृतार्थ हो जाओगे। वह राजसभा में तुम्हारी उन्नति और उपकार के लिए जान लड़ा देंगे, लगान घटवाएँगे, प्रत्येक गाँव में गोचर भूमि की व्यवस्था करेंगे, नजराने उठवा देंगे, इजाफा लगान का विरोध करेंगे और इखराज को समूल उखाड़ देगे। सारे प्रान्त में धूम मची हुई थी। जैसे सहागल के दिनों में ढोल और नगाड़ों का नाद गूँजाने लगता है उसी भाँति इस समय जिधर देखिए जाति प्रेम की चर्चा सुनायी देती थी। डाक्टर इर्फानअली बनारस महाविद्यालय की तरफ से खड़े हुए। बाबू प्रियनाथ ने बनारस म्युनिसिपैलिटी का दामन पकड़ा। ज्वालासिंह इटावे के रईस थे, उन्होंने इटावे के कृषकों का आश्रय लिया। सैयद ईजाद हुसेन को भी जोश आया। वह मुसलिम स्वत्व की रक्षा के लिए उठ खड़े हुए। प्रेमशंकर इस क्षेत्र में न आना चाहते थे, पर भवानीसिंह, बलराज और कादिर खाँ ने बनारस के कृषकों पर उनका मन्त्र चलाना शुरू किया। तीन-चार महीनों तक बाजार खूब गर्म रहा, छापेखाने को ट्रैक्टों के छापने से सिर उठाने का अवकाश न मिलता था। कहीं दावतें होती थी, कहीं नाटक दिखाये जाते थे। प्रत्येक उम्मीदवार अपनी-अपनी ढोल पीट रहा था। मानो संसार के कल्याण का उसी ने बीड़ा उठाया है।
अन्त में चुनाव का दिन आ पहुँचा। उस दिन नेताओं का सदुत्साह, उनकी तप्परता, उनकी शीलता और विनय दर्शनीय थी और वोट देने वालों का तो मानो सौभाग्य-सूर्य उदय हो गया था। मोहनभोग तथा मेवे खाते थे। और मोटरों पर सैर करते थे। सुबह से पहर रात तक रायों की चिट्ठियां पढ़ी जाती रहीं।
इसके बाद के सात दिन बड़ी बेचैनी के दिन थे। ज्यों-त्यों करके कटे। आठवें दिन राजपत्र में नतीजे निकल गये। आज कितने ही घरों में घी के चिराग जले, कितनों ने मातम मनाया। ज्ञानशंकर ने मैदान मार लिया, लेकिन प्रेमाश्रम निवासियों को जो सफलता प्राप्त हुई वह आश्चर्यजनक थी, इस अखाड़े के सभी योद्धा विजय-पताका फहराते हुए निकले। सबसे बड़ी फतह प्रेमशंकर की थी। वह बिना उद्योग और इच्छा के इस उच्चासन पर पहुँच गये थे। ज्ञानशंकर ने यह खबर सुनी तो उनका उत्साह भंग हो गया। राजसभा में बैठने का उतना शौक न रहा। बहुधा वृक्षपूंजों में सन्ध्या समय पक्षियों के कलरव से कान पड़ी आवाज नहीं सुनायी देती लेकिन ज्यों ही अन्धेरा हो जाता है और चिड़ियाँ अपने-अपने घोंसलों में जा बैठती हैं वहां नीरवता छा जाती है, उसी भाँति जाति के प्रतिनिधि गण राजसभा के सुसज्जित सुविशाल भवन में पहुँच कर शान्ति में मग्न हो गये थे। वे लम्बे-चौड़े वादे, वे बड़ी-बड़ी बात सब भूल गयीं। कोई मुवक्किलों के सेवा-सत्कार में लिप्त हुआ, कोई अपने बही-खाते की देख-भाल में, कोई अपने सैर और शिकार में जाति-हित की वह उमंग शांत हो गयी। लोग मनोविनोद की रीति से राजसभा में आते और कुछ निरर्थक प्रश्न पूछ कर या अपने वाक्य नैपुण्य का परिचय दे कर विदा हो जाते। वह कौन-सी प्रेरक शक्तियाँ थीं। जिन्होंने लोगों को इस अधिकार पर आसक्त कर रखा था। इसका निर्णय करना कठिन है, पर उनमें सेवाभाव का जरा भी लगाव न था– यह निर्भ्रान्त है। कारण और कार्य, साधन और फल दोनों उसी अधिकारी में विलीन हो गये।
किन्तु प्रेमाश्रम में वह शिथिलता न थी। यहाँ लोग पहले से ही सेवाधर्म के अनुगामी थे। अब उन्हें अपने कार्यक्षेत्र को और विस्तृत करने का सुअवसर मिला। ये लोग-नये-नये सुधार के प्रस्ताव सोचते, राजकीय प्रस्तावों के गुण-दोष की मीमांसा करते, सरकारी रिपोर्टों का निरीक्षण करते। प्रश्नों द्वारा अधिकारियों के अत्याचारों का पता देते, जहाँ कहीं न्याय का खून होते देखते, तुरंत सभा का ध्यान उसकी ओर आकर्षित करते और ये लोग केवल प्रश्नों से ही सन्तुष्ट न हो जाते थे, वरन् प्रस्तुत विषयों के मर्म तक पहुंचने की चेष्टा करते। विरोध के लिए विरोध न करते बल्कि शोध के लिए। इस सदुद्योग और कर्तव्यपरायणता ने शीघ्र ही राजसभा में इस मित्र-मडंल का सिक्का जमा किया। उनकी शंकाएँ, उनके प्रस्ताव, उनके प्रतिवाद आदर की दृष्टि से देखे जाते थे। अधिकारी-वर्ग उनकी बातों को चुटकियों में न उड़ा सकते थे। यद्यपि डॉ. इर्फानअली इस मंडल के मुखपात्र थे, पर खुला हुआ भेद था कि प्रेमशंकर ही उसके कर्णधार हैं।
इस तरह दो साल बीत गये और यद्यपि मित्र-मंडल ने सभा को मुग्ध कर लिया था, पर अभी तक प्रेमशंकर को अपना वह प्रस्ताव सभा में प्रेश करने का साहस न हुआ जो बहुत दिनों से उनके मन में समाया हुआ था और जिसका उद्देश्य यह था कि जमींदारों से असामियों को बेदखल करने का अधिकार ले लिया जाये। वह स्वयं ज़मींदार घराने के थे, माया जिसे वह पुत्रवत् प्यार करते थे एक बड़ा ताल्लुकेदार हो गया था। ज्वालासिंह भी ज़मींदार थे। लाला प्रभाशंकर जिनकों वह पिता तुल्य समझते थे अपने अधिकारों से जौ भर की कमी भी न सह सकते थे, इन कारणों से वह प्रस्ताव को सभा के सम्मुख लाते हुए सकुचाते थे। यद्यपि सभा में भूपतियों की संख्या काफी थी और संख्या के देखते दबाव और भी ज्यादा था, पर प्रेमशंकर को सभा का इतना भय न था जितना अपने सम्बन्धियों का, इसके साथ ही अपने कर्त्तव्य-मार्ग से विचलित होते हुए उनकी आत्मा को दुःख होता था।
एक दिन वह इसी दुविधा में बैठे हुए थे कि मायाशंकर एक पत्र लिये हुए आया और बोला– देखिए, बाबू दीपक सिंह सभा में कितना घोर अनर्थ करने का प्रयत्न कर रहे हैं? वह सभा में इस आशय का प्रस्ताव लाने वाले हैं कि जमींदारों को असामियों में लगान वसूल करने के लिए ऐसे अधिकार मिलने चाहिए कि वह अपनी इच्छा से जिस असामी को चाहें बेदखल कर दें। उनके विचार में जमींदारों को यह अधिकार मिलने से रुपये वसूल करने में बड़ी सुविधा हो जायेगी। प्रेमशंकर ने उदासीन भाव से कहा– मैं यह पत्र देख चुका हूँ।
माया– पर आपने इसका कुछ उत्तर नहीं दिया?
प्रेमशंकर ने आकाश की ओर ताकते हुए कहा– अभी तो नहीं दिया।
माया– आप समझते हैं कि सभा में प्रस्ताव स्वीकृत हो जायगा?
प्रेम– हाँ, सम्भव है।
माया– तब तो ज़मींदार लोग असामियों को कुचल ही डालेंगे।
प्रेम– हाँ, और क्या?
माया– अभी से इस आन्दोलन की जड़ काट देनी चाहिए। आप इस पत्र का जवाब दे दें तो बाबू दीपकसिंह को अपना प्रस्ताव सभा में पेश करने का साहस न हो।
प्रेम– ज्ञानशंकर क्या कहेंगे?
माया– मैं जहाँ तक समझता हूँ, वह इस प्रस्ताव का सर्मथन न करेंगे।
प्रेम– हां, मुझे भी ऐसी आशा है।
मायाशंकर चचा की बातों से उनकी चित्त-वृद्धि को ताड़ गये।
वह जब से अपने इलाके का दौरा करके लौटा था, अक्सर कृषकों की सुदशा के उपाय सोचा करता था। इस विषय की कई किताबें पढ़ी थीं और डॉक्टर इर्फानअली से भी जिज्ञासा करता रहता था। प्रेमशंकर को असमंजस में देख कर उसे बहुत खेद हुआ। वह उनसे तो और कुछ न कह सका, पर उस पत्र का प्रतिवाद करने के लिए उसका मन अधीर हो गया। आज तक उसने कभी समाचार-पत्रों के लिए कोई लेख न लिखा था। डरता था, लिखते बने या न बने सम्पादक छापें या न छापें। दो-तीन दिन वह इसी आगा-पीछा में पड़ा रहा। अन्त में उसने उत्तर लिखा और सकुचाते, कुछ डरते डॉक्टर इर्फानअली को दिखाने ले गया। डॉक्टर महोदय ने लेख पढ़ा तो, चकित हो कर पूछा– यह सब तुम्हीं ने लिखा है?
माया– जी हाँ, लिखा तो है, पर बना नहीं।
इर्फान– वाह! इससे अच्छा तो मैं भी नहीं लिख सकता। यह सिफत तुम्हें बाबू ज्ञानशंकर से विरासत में मिली है।
माया– तो भेज दूँ, जायेगा?
इर्फान– छपेगा क्यों नहीं? मैं खुद भेज देता हूँ।
प्रेमशंकर रोज पत्रों को ध्यान से देखते कि दीपकसिंह के पत्र का किसी ने उत्तर दिया या नहीं, पर आठ-दस दिन बीत गये और आशा न पूरी हुई। कई बार उनकी इच्छा हुई कि कल्पित नाम से इस लेख का उत्तर दूँ। लेकिन कुछ तो अवकाश न मिला, कुछ चित्त की दशा अनिश्चित रही, न लिख सके। बारहवें दिन उन्होंने पत्र खोला तो मायाशंकर का लेख नजर आया। आद्योपान्त पढ़ गये। हृदय में एक गौरवपूर्ण उल्लास का आवेग हुआ। तुरन्त श्रद्धा के पास गये और लेख पढ़ सुनाया। फिर इर्फानअली के पास गये। उन्होंने पूछा– कोई खबर है क्या?
प्रेम– आपने देखा नहीं, माया ने दीपकसिंह के पत्र का कैसा युक्तिपूर्ण उत्तर दिया है?
इर्फान– जी हाँ, देखा। मैं तो आपसे पूछने आ रहा था। कि यह माया ने ही लिखा है या आपने कुछ मदद कि है?
प्रेम– मुझे तो खबर भी नहीं, उसी ने लिखा होगा।
इर्फान– तो उसको मुबारकबाद देनी चाहिए, बुलाऊँ!
प्रेम– जी नहीं! उसके इस जोश को दबाने की जरूरत है। ज्ञानशंकर यह लेख देखकर रोयेंगे। सारा इलजाम मेरे ऊपर आयेगा। कहेंगे कि आपने लड़के को बहका दिया, पर मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि मैंने उसे यह पत्र लिखने के लिए इशारा तक नहीं किया। इसी बदनामी के डर से मैंने नहीं लिखा।
इर्फान– आप यह इलजाम मेरे सिर पर रखा दीजिएगा। मैं बड़ी खुशी से इसे ले लूँगा।
प्रेम– कल उनका कोप-पत्र आ जायेगा। माया ने मेरे साथ अच्छा सलूक नहीं किया?
इर्फान– भाभी साहिबा का क्या ख्याल है?
प्रेम– उनकी कुछ न पूछिए। वह तो इस खुशी में दावत करना चाहती हैं। प्रेमशंकर का अनुमान अक्षरशः सत्य निकला। तीसरे दिन ज्ञानशंकर का कोप पत्र आ पहुँचा। आशय भी यही था– मुझे आपसे ऐसी आशा न थी। साम्यवाद के पाठ पढ़ा कर आपने सरल बालक पर घोर अत्याचार किया है। उसका अठारहवाँ वर्ष पूरा हो रहा है। उसे शीघ्र ही अपने इलाके का शासनधिकार मिलने वाला है। मैं इस महीने के अन्त तक इन्हीं तैयारियों के लिए आने वाला हूँ। हिज ऐक्स-लेन्सी गवर्नर महोदय स्वयं राज्यतिलक देने के लिए पधारने वाले हैं। उस मृदु संगीत को इस बेसुरे राग ने चौपट कर दिया। आपको अपने प्रजावाद का बीज किसी और खेत में बोना चाहिए था। आपने अपने शिक्षाधिकार का खेदजनक दुरूपयोग किया है। अब मुझ पर दया कर माया को मेरे पास भेज दीजिये। मैं नहीं चाहता कि अब वह एक क्षण भी वहाँ और रहे। अभिषेक तक मैं उसे अपने साथ रखूँगा। मुझे भय है कि वहाँ रह कर वह कोई और उपद्रव न कर बैठे…अस्तु।
सन्ध्या की गाड़ी से मायाशंकर ने लखनऊ को प्रस्थान किया।
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महाशय ज्ञानशंकर का भवन आज किसी कवि-कल्पना की भाँति अलंकृत हो रहा है। आज वह दिन आ गया है जिसके इन्तजार में एक युग बीत गया। प्रभुत्व और ऐश्वर्य का मनोहर स्वप्न पूरा हो गया है। मायाशंकर के तिलकोत्सव का शुभमूहूर्त आ पहुँचा है। बँगले के सामने एक विशाल, प्रशस्त मंडप तना हुआ है। उसकी सजावट के लिए लखनऊ के चतुर फर्राश बुलाये गये हैं। मंच गंगा-जमुनी कुर्सियों से जगमगा रहा है। चारों तरफ अनुपम शोभा है। गोरखपुर, लखनऊ और बनारस के मान्य पुरुष उपस्थित हैं। दीवानखाना, मकान, बँगला सब मेहमानों से भरा हुआ है। एक ओर फौजी बाजा है, दूसरी ओर बनारस के कुशल शहनाई वाले बैठे हैं। एक दूसरे शामियाने में नाटक खेलने की तैयारियाँ हो रही हैं। मित्र-भवन के छात्र अपना अभिनय कौशल दिखायेंगे। डॉक्टर प्रियनाथ का संगीत समाज अपने जौहर दिखायेगा। लाला प्रभाशंकर मेहमानों के आदर-सत्कार में प्रवृत्त हैं। दोनों रियासतों के देहातों से सैकड़ों नम्बरदार और मुखिया आये हुए हैं। लखनपुर ने भी अपने प्रतिनिधि भेजे हैं। ये सब ग्रामीण सज्जन प्रेमशंकर के मेहमान हैं। कादिर खाँ, दुखरन भगत, डपटसिंह सब आज केशारिया बाना धारण किये हुए हैं। वे आज अपने कारावास जीवन पर नकल करेंगे। सैयद ईजाद हुसेन ने एक जोरदार कसीदा लिखा है। इत्तहादी यतीमखाने के लड़के हरी-हरी झंडियाँ लिए मायाशंकर को स्वागत करने के लिए खड़े हैं। अँग्रेज मेहमानों का स्थान अलग है। वे भी एक-एक करके आते-जाते हैं। उनके सेवा-सत्कार का भार डॉ. इर्फानअली ने लिया है। उन लोगों के लिए प्रोफेसर रिचर्डसन कलकत्ते से बुलाये गये हैं जिनका गान विद्या में कोई सानी नहीं है। बाबू ज्ञानशंकर गवर्नर महोदय के स्वागत की तैयारियों में मग्न हैं।
सन्ध्या का समय था। बसन्त की शुभ्र, सुखदा समीर चल रही थी। लोग गर्वनर का स्वागत करने के लिए स्टेशन की तरफ चले। ज्ञानशंकर का ही हाथी सबसे आगे था। पीछे-पीछे बैंड बजता जा रहा था। स्टेशन पर पहले से ही फूलों का ढेर लगा दिया गया था। ज्यों ही गवर्नर की स्पेशल आयी और वह गाड़ी से उतरे, उन पर फूलों की वर्षा हुई। उन्हें एक सुसज्जित फिटन पर बिठाया गया। जुलूस चला। आगे-आगे हाथियों की माला थी। उनके पीछे राजपूतों की एक रेजीमेंट थी। फौज के बाद गवर्नर महोदय की फिटन थी जिस पर कारचोबी का छत्र लगा हुआ था। फिटन के पीछे शहर के रईसों की सवारियाँ थीं। उनके बाद पुलिस के सवारों की एक टोली थी। सबसे पीछे बाजे थे। यह जलूस नगर की मुख्य सड़कों पर होता हुआ, चिराग जलते-जलते ज्ञानशंकर के मकान पर आ पहुँचा। हिज एक्सेलेन्सी महाराज गुरुदत्त राय चौधरी फिटन से उतरे और मंच पर आकर अपनी निर्दिष्ट कुर्सी पर विराजमान हो गये। विद्युत के उज्जवल प्रकाश में उनकी विशाल प्रतिभासम्पन्न मूर्ति, गंभीर, तेजमय ऐसी मालूम होती थी मानो स्वर्ग से कोई दिव्य आत्मा आयी हो। केसरिया साफा और सादे श्वेत, वस्त्र उनकी प्रतिभा को और भी चमकाते थे। रईस लोग कुर्सियों पर बैठे। देहाती मेहमानों के लिए एक तरफ उज्ज्वल फर्श बिछा हुआ था। प्रेमशंकर ने उन्हें वहाँ पहले से ही बिठा रखा था। सब लोगों के यथास्थान पर बैठ जाने के बाद मायाशंकर रेशम और रत्नों से चमकता हुआ दीवानखाने से निकला और मित्र भवन के छात्रों के साथ पंडाल में आया।
बन्दूकों की सलामी हुई, ब्राह्मण-समाज ने मंगलाचरण गान शुरू किया। सब लोगों ने खड़े होकर उसका अभिवादन किया। महाराज गुरुदत्त राय ने नीचे उतर कर उसे आलिंगन किया और उसे ला कर उसके सिंहासन पर बैठा दिया। मायाशंकर के मुख-मंडल पर इस समय हर्ष या उल्लास का कोई चिह्न न था। चिंता और विचार में डूबा हुआ नजर आता था। विवाह के समय मंडप के नीचे वर की जो दशा होती है वही दशा इस समय उसकी थी। उसके ऊपर कितना उत्तरदायित्व का भार रखा जाता था! आज से उसे कितने प्राणियों के पालन का, कल्याण का, रक्षा का कर्त्तव्य पालन करना पड़ेगा, सोते-जागते, उठते-बैठते न्याय और धर्म पर निगाह रखनी पड़ेगी, उसके कर्मचारी प्रजा पर जो-जो अत्याचार करेंगे उन सबका दोष उसके सिर पर होगा। दीनों की हाय और दुर्बलों के आँसुओं से उसे कितना सशंक रहना पड़ेगा। इन आन्तरिक भावों के अतिरिक्त ऐसी भद्र मंडली के सामने खड़े होने और हजारों नेत्रों के केन्द्र बनने का संकोच कुछ कम अशान्तिकारक न था। ज्ञानशंकर उठे और अपना प्रभावशाली अभिनंदन-पत्र पढ़ सुनाया। उसकी भाषा और भाव दोनों ही निर्दोष थे। डॉ. इर्फानअली ने हिन्दुस्तानी भाषा में उसका अनुवाद किया। तब महाराज साहब उसका उत्तर देने के लिए खड़े हुए। उन्होंने पहले ज्ञानशंकर और अन्य रईसों को धन्यवाद दिया, दो-चार मार्मिक वाक्यों में ज्ञानशंकर की कार्यपटुता और योग्यता की प्रशंसा की, राय कमलानंद और रानी गायत्री के सुयश और सुकीर्ति, प्रजारंजन और आत्मोत्सर्ग का उल्लेख किया। तब मायाशंकर को सम्बोधित करके उसके सौभाग्य पर हर्ष प्रकट किया। वक्तृता के शेष भाग में मायाशंकर को कर्तव्य और सुनीति का उपदेश दिया, अंत में आशा प्रकट की कि वह अपने देश, जाति और राज्य का भक्त और समाज का भूषण बनेगा।
तब मायाशंकर उत्तर देने के लिए उठा। उसके पैर काँप रहे थे और छाती में जोर से धड़कन हो रही थी। उसे भय होता था कि कहीं मैं घबरा कर बैठ न जाऊँ उसका दिल बैठा जाता था। ज्ञानशंकर ने पहले से ही उसे तैयार कर रखा था। उत्तर लिख कर याद करा दिया था, पर मायाशंकर के मन में कुछ और ही भाव थे। उसने अपने विचारों का जो क्रम स्थिर कर रखा था वह छिन्न-भिन्न हो गया था। एक क्षण तक वह हतबुद्धि बना अपने विचारों को सँभालता रहा, कैसे शुरू करूँ, क्या कहूँ? प्रेमशंकर सामने बैठे हुए उसके संकट पर अधीर हो रहे थे। सहसा मायाशंकर की निगाह उन पर पड़ गयी। इस निगाह ने उस पर वही काम किया जो रुकी हुई गाड़ी पर ललकार करती है। उसकी वाणी जाग्रत हो गयी। ईश्वर-प्रार्थना और उपस्थित महानुभावों को धन्यवाद देने के बाद बोला–
महाराज साहब, मैं उन अमूल्य उपदेशों के लिए अन्तःकरण से आपका अनुगृहीत हूँ जो आपने मेरे आने वाले कर्तव्यों के विषय में प्रदान किये हैं। और आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं यथासाध्य उन्हें कार्य में परिणत करूँगा। महोदय ने कहा है कि ताल्लुकेदार अपनी प्रजा का मित्र, गुरू और सहायक है। मैं बड़ी विनय के साथ निवेदन करूँगा कि वह इतना ही नहीं, कुछ और भी है, वह अपने प्रजा का सेवक भी है। यही उसके अस्तित्व का उद्देश्य और हेतु है अन्यथा संसार में उसकी कोई जरूरत न थी, उसके बिना समाज के संगठन में कोई बाधा न पड़ती। वह इसीलिए नहीं है कि प्रजा के पसीने की कमाई को विलास और विषय-भोग में उड़ाये, उनके टूटे-फूटे झोंपड़ों के सामने अपना ऊँचा महल खड़ा करे, उनकी नम्रता को अपने रत्नजटित वस्त्रों से अपमानित करे, उनकी संतोषमय सरलता को अपने पार्थिव वैभव से लज्जित करें। अपनी स्वाद-लिप्सा से उनकी क्षुधा-पीड़ा का उपहार करे। अपने स्वत्वों पर जान देता हो; पर अपने कर्तव्य से अनभिज्ञ हो ऐसे निरंकुश प्राणियों से प्रजा की जितनी जल्द मुक्ति हो, उनका भार प्रजा के सिर दूर हो उतना ही अच्छा हो।
विज्ञ सज्जनों, मुझे यह मिथ्याभिमान नहीं है कि मैं इन इलाकों का मालिक हूँ। पूर्व संस्कार और सौभाग्य ने मुझे ऐसे पवित्र, उन्नत, दिव्य आत्माओं की सत्संगति से उपकृत होने का अवसर दिया है कि अगर यह भ्रम का महत्त्व एक क्षण के लिए मेरे मन में आता तो मैं अपने को अधम और अक्षम्य समझता। भूमि या तो ईश्वर की है जिसने इसकी सृष्टि की या किसान की जो ईश्वरीय इच्छा के अनुसार इसका उपयोग करता है। राजा देश की रक्षा करता है इसलिए उसे किसानों से कर लेने का अधिकार है, चाहे प्रत्यक्ष रूप में ले या कोई इससे कम आपत्तिजनक व्यवस्था करे। अगर किसी अन्य वर्ग या श्रेणी को मीरास,
मिल्कियत जायदाद, अधिकार के नाम पर किसानों को अपना भोग्य-पदार्थ बनाने की स्वच्छन्दता दी जाती है तो इस प्रथा को वर्तमान समाज-व्यवस्था का कलंक चिह्न समझना चाहिए।
ज्ञानशंकर के मुँह पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। गवर्नर साहब ने अनिच्छा भाव से पहलू बदला, रईसों में इशारे होने लगे। लोग चकित थे कि इन बातों का अभिप्राय क्या हैं? प्रेमशंकर तो मारे शर्म के गड़े जाते थे। हाँ, डॉ. इर्फानअली और ज्वालासिंह के चेहरे खिले पड़े थे!
मायाशंकर ने जरा दम लेकर फिर कहा–
मुझे भय है कि मेरी बातें कहीं तो अनुपयुक्त और समय विरुद्ध और कहीं क्रान्तिकारी और विद्रोहमय समझी जायेंगी; लेकिन यह भय मुझे उन विचारों के प्रकट करने से रोका नहीं सकता जो मेरे अनुभव के फल हैं और जिन्हें कार्य रूप में लाने का मुझे सुअवसर मिला है। मेरी धारणा है कि मुझे किसानों की गर्दन पर अपना जुआ रखने का कोई अधिकार नहीं है। यह मेरी नैतिक दुर्बलता और भीरूता होगी, अगर मैं अपने सिद्धान्त का भोग-लिप्सा पर बलिदान कर दूँ। अपनी ही दृष्टि में पतिता हो कर कौन जीना पसन्द करेगा? मैं सब सज्जनों के सम्मुख उन अधिकारों और स्वत्वों का त्याग करता हूँ जो प्रथा का नियम और समाज व्यवस्था ने मुझे दिये हैं। मैं अपनी प्रजा को अपने अधिकारों के बन्धन से मुक्त करता हूँ। वह न मेरे असामी हैं, और न मैं उनका ताल्लुकेदार हूँ। वह सब सज्जन मेरे मित्र हैं। मेरे भाई हैं, आज से वह अपनी जोत के स्वयं ज़मींदार है। अब उन्हें मेरे कारिन्दों के अन्याय और मेरी स्वार्थ भक्ति की यान्त्रणाएँ न सहनी पड़ेगी। वह इजाफे, एखराज, बेगार की विडम्बनाओं से निवृत्त हो गये। यह न समझिये कि मैंने किसी आवेग के वशीभूत होकर यह निश्चय किया है। नहीं, मैंने उसी समय यह संकल्प किया जब अपने इलाकों का दौरा पूरा कर चुका। आपको मुक्त करके मैं स्वयं मुक्त हो गया। अब मैं अपना स्वामी हूँ मेरी आत्मा स्वच्छन्द है। अब मुझे किसी के सामने घुटनें टेकने की जरूरत नहीं। इस दलाली की बदौलत मुझे अपनी आत्मा पर कितने अन्याय करने पड़ते, इसका मुझे कुछ थोड़ा अनुभव हो चुका है, मैं ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ कि उसने मुझे इस आत्म-पतन से बचा लिया। मेरा अपने समस्त भाइयों से निवेदन है कि वह एक महीने के अन्दर मेरे मुखतार के पास जाकर अपने-अपने हिस्से का सरकारी लगान पूछ ले और वह रकम खजाने में जमा कर दें। मैं श्रद्धेय डॉ. इर्फानअली से प्रार्थना करता हूँ कि वह इस विषय में मेरी सहायता करें और जाब्ते और कानून की जटिल समस्याओं को तै करने की व्यवस्था करें। मुझे आशा है कि मेरा समस्त भ्रातृवर्ग आपस में प्रेम से रहेगा और जरा-जरा सी बातों के लिए अदालत की शरण न लेंगे। परमात्मा आपके हृदय में सहिष्णुता, सद्भाव और सुविचार उत्पन्न करे और आपको अपने नये कर्तव्यों का पालन करने की क्षमता प्रदान करें। हाँ मैं यह जता देना चाहता हूँ कि आप अपनी जमीन असामियों को नफे पर न उठा सकेंगे। यदि आप ऐसा करेंगे तो मेरे साथ घोर अन्याय होगा क्योंकि जिन बुराइयों को मिटाना चाहता हूँ, आप उन्हीं का प्रचार करेंगे। आपको प्रतिज्ञा करनी पड़ेगी कि आप किसी दशा में भी इस व्यवहार से लाभ न उठायेंगे, असामियों से नफा लेना हराम समझेंगे।
मायाशंकर ज्यों ही अपना कथन समाप्त कर के अपनी जगह बैठा कि हजारों आदमी चारों तरफ से आ-आ कर उसके इर्द-गिर्द जमा हो गये। कोई उसके पैरों पर गिरा पड़ता था, कोई रोता था, कोई दुआएँ देता था, कोई आनन्द से विह्वल हो करके उछल रहा था। आज उन्हें अमूल्य वस्तु मिल गयी थी जिसकी वह स्वप्न में भी कल्पना न कर सकते थे। दीन किसान को ज़मींदार बनने का हौसला कहाँ? सैकड़ों आदमी गवर्नर महोदय के पैरों पर गिर पड़े, कितने ही लोग बाबा ज्ञानशंकर के पैरों से लिपट गये। शामियाने में हलचल मच गयी। लोग आपसे में एक दूसरे से गले मिलते थे और अपने भाग्य को सराहते थे। प्रेमशंकर सिर झुकाये खड़े थे, मानो किसी विचार में डूबे हुए हों, लेकिन उनके अन्य मित्र खुशी के फूले न समाते थे। उनकी सगर्व आँखें कह रही थीं कि हमारी संगति और शिक्षा का फल है, हमको भी इसका कुछ श्रेय मिलना चाहिए, रईसों के प्राण संकट में पड़े हुए थे। आश्चर्य से एक दूसरे का मुँह ताकते थे, मानों अपने कानों और आँखों पर विश्वास न आता हो। कई विद्वान इस प्रश्न पर अपने विचार प्रकट करने के लिए आतुर हो रहे थे, पर यहाँ उसका अवसर न था।
गवर्नर महोदय बड़े असमंजस्य में पड़े हुए थे इस कथन का किन शब्दों में उत्तर दूँ? वह दिल में मायाशंकर के महान त्याग की प्रंशसा कर रहे थे, पर उसे प्रकट करते हुए उन्हें भय होता था कि अन्य ताल्लुकेदारों और रईसों को बुरा न लगे। इसके साथ ही चुप रहना मायाशंकर के इस महान् यज्ञ का अपमान करना था। उन्हें मायाशंकर में यह प्रेममय श्रद्धा हो गयी थी, जो पुनीत आत्माओं का भाग है। खड़े होकर मृदु स्वर में बोले–
मायाशंकर! यद्यपि हममें से अधिकांश सज्जन उन सिद्धान्तों के कायल न होंगे। जिससे प्रेरित होकर आपने यह अलौकिक संतोष व्रत धारण किया है, पर जो पुरुष सर्वथा हृदय-शून्य नहीं है वह अवश्य आपको देवतुल्य समझेगा। सम्भव है कि जीवन-पर्यन्त सुख भोगने के बाद किसी को वैराग्य हो जाये, किन्तु जिस युवक ने अभी प्रभुत्व और वैभव के मनोहर, सुखद उपवन में प्रवेश किया उसका यह त्याग आश्चर्यजनक है। पर यदि बाबू साहब को बुरा न लगे तो मैं कहूँगा कि समाज की कोई व्यवस्था केवल सिद्धान्तों के आधार पर निर्दोष नहीं हो सकती, चाहे वे सिद्धान्त कितने ही उच्च और पवित्र हों। उसकी उन्नति मानव चरित्र के अधीन है। एकधिपतियों में देवता हो गये हैं और प्रजावादियों में भयंकर राक्षस। आप जैसे उदार, विवेकशील, दयालु स्वामी की जात से प्रजा का कितना उपकार हो सकता था। आप उनके पथदर्शक बन सकते थे। अब वह प्रजा हितसाधनों से वंचित हो जायेगी, लेकिन मैं इन कुत्सित विचारों से आपको भ्रम में नहीं डालना चाहता। शुभ कार्य सदैव ईश्वर की ओर से होते हैं। यह भी ईश्वरीय इच्छा है और हमें आशा करनी चाहिए कि इसका फल अनुकूल होगा। मैं परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ कि वह इन नये जमींदारों का कल्याण करे और आपकी कीर्ति अमर हो।
इधर तो मित्र-भवन की मंडली नाटक खेल रही थी, मस्ताने की तानें और प्रियनाथ की सरोद-ध्वनि रंग-भवन में गूँज रही थी, उधर बाबू ज्ञानशंकर नैराश्य के उन्मत्त आवेश में गंगातट की ओर लपके चले जाते थे जैसे कोई टूटी हुई नौका जल-तरंगों में बहती चली जाती हो। आज प्रारब्ध ने उन्हें परास्त कर दिया। अब तक उन्होंने सदैव प्रारब्ध पर विजय पाई थी। आज पाँसा पलट गया और ऐसा पलटा कि सँभलने की कोई आशा न थी, अभी एक क्षण पहले उनका भाग्य-भवन जगमगाते हुए दीपकों से प्रदीप्त हो रहा था, पर वायु के एक प्रचण्ड झोंके ने उन दीपकों को बुझा दिया। अब उनके चारों तरफ गहरा, घना भयावह अँधेरा था जहाँ कुछ न सूझता था।
वह सोचते चले जाते थे, क्या इसी उद्देश्य के लिए मैंने अपना जीवन समर्पण किया? क्या अपनी नाव इसीलिए बोझी थी कि वह जलमग्न हो जाय?
हा वैभव लालसा! तेरी बलिवेदी पर मैंने क्या नहीं चढ़ाया? अपना धर्म, अपनी आत्मा तक भेंट कर दी। हा! तेरे भाड़ में मैंने क्या नहीं झोंका? अपना मन, वचन, कर्म सब कुछ आहुति कर दी। क्या इसीलिए कि कालिमा के सिवा और कुछ हाथ न लगे।
मायाशंकर का कसूर नहीं, प्रेमशंकर को दोष नहीं, यह सब मेरे प्रारब्ध की कूटलीला है। मैं समझता था मैं स्वयं अपना विधाता हूँ। विद्वानों ने भी ऐसा कहा है; पर आज मालूम हुआ कि मैं इसके हाथों का खिलौना था। उसके इशारों पर नाचने वाली कठपुतली था। जैसे बिल्ली चूहे को खिलाती है, जैसे मछुआ मछली को खेलाता है उसी भाँति इसने मुझे अभी तक खेलाया। कभी पंजे से पकड़ लेता था, कभी छोड़ देता था।
जरा देर के लिए उसके पंजे से छूटकर मैं सोचता था, उस पर विजय पायी, पर आज खेल का अन्त हो गया, बिल्ली ने गर्दन दबा दी, मछुए ने बंसी खींच ली। मनुष्य कितना दीन, कितना परवश है? भावी कितनी प्रबल, कितनी कठोर!
जो तिमंजिला भवन मैंने एक युग में अविश्रान्त उद्योग से खड़ा किया, वह क्षणमात्र में इस भाँति भूमिस्थ हो गया, मानो उसका अस्तित्व न था, उसका चिन्ह तक नहीं दिखायी देता। क्या वह विशाल अट्टालिका भावी की केवल माया रचना थी?
हा! जीवन कितना निरर्थक सिद्ध हुआ। विषय-लिप्सा तूने मुझे कहीं का न रखा। मैं आँख तेज करके तेरे पीछे-पीछे चला और तूने मुझे इस घातक भँवर में डाल दिया।
मैं अब किसी को मुँह दिखाने योग्य नहीं रहा। सम्पत्ति, मान, अधिकार किसी को शौक नहीं। इसके बिना भी आदमी सुखी रह सकता है, बल्कि सच पूछो तो सुख इनसे मुक्त रहने में ही है। शोक यह है कि मैं अल्पांश में भी इस यश का भागी नहीं बन सकता। लोग इसे मेरे विषय-प्रेम की यन्त्रणा समझेंगे। कहेंगे कि बेटे ने बाप का कैसा मान-मर्दन किया, कैसी फटकार बतायी। यह व्यंग्य, यह अपमान कौन सहेगा? हा! मुझे पहले से इस अन्त का ज्ञान हो जाता तो आज मैं पूज्य समझा जाता, त्यागी पुत्र का धर्मज्ञ पिता कहलाने का गौरव प्राप्त करता। प्रारब्ध ने कैसा गुप्ताघात किया! अब क्यों जिन्दा रहूँ? इसीलिए कि तू मेरी दुर्गित और उपहास पर खुश हो, मेरे प्राण-पीड़ा पर तालियाँ बजाये! नहीं, अभी इतना लज्जाहीन, इतना बेहया नहीं हूँ।
हा! विद्या! मैंने तेरे साथ कितना अत्याचार किया? तू सती थी, मैंने तुझे पैरों तले रौंदा। मेरी बुद्धि कितनी भ्रष्ट हो गयी थी। देवी, इस पतित आत्मा पर दया कर!
इन्हीं दुःखमय भावों में डूबे हुए ज्ञानशंकर नदी के किनारे आ पहुँचे। घाटों पर इधर-उधर साँड़ बैठे हुए थे। नदी का मलिन मध्यम स्वर नीरवता को और भी नीरव बना रहा था।
ज्ञानशंकर ने नदी को कातर नेत्रों से देखा। उनका शरीर काँप उठा, वह रोने लगे। उनका दुःख नदी से कहीं अपार था।
जीवन की घटनाएँ सिनेमा चित्रों के सदृश उनके सामने मूर्तिमान हो गयीं। उनकी कुटिलताएँ आकाश के तारागण से भी उच्च्वल थीं। उनके मन में प्रश्न किया, क्या मरने के सिवा और कोई उपाय नहीं है?
नैराश्य ने कहा, नहीं कोई उपाय नहीं! वह घाट के एक पील पाये पर जाकर खड़े हो गये। दोनों हाथ तौले जैसे चिड़िया पर तौलती है, पर पैर न उठे।
मन ने कहा, तुम भी प्रेमाश्रम में क्यों नहीं चले जाते? ग्लानि ने जवाब दिया कौन मुँह लेकर जाऊँ, मरना तो नहीं चाहता, पर जीऊँ कैसे? हाय! मैं जबरन मारा जा रहा हूँ। यह सोचकर ज्ञानशंकर जोर से रो उठे। आँसू की झड़ी लग गयी। शोक और भी अथाह हो गया। चित्त की समस्त वृत्तियाँ इस अथाह शोक में निमग्न हो गयीं। धरती और आकाश, जल और थल सब इसी शोक-सागर में समा गये।
वह एक अचेत, शून्य दशा में उठे और गंगा में कूद पड़े। शीतल जल ने हृदय को शान्त कर दिया।
उपसंहार
दो साल हो गये हैं। सन्ध्या का समय है। बाबू मायाशंकर घोड़े पर सवार लखनपुर में दाखिल हुए। उन्हें वहाँ रौनक और सफाई दिखायी दी। प्रायः सभी द्वारों पर सायबान थे। उनमें बड़े-बड़े तख्ते बिछे हुए थे। अधिकांश घरों पर सुफेदी हो गयी थी। फूस के झोंपड़े गायब हो गये थे। अब सब घरों पर खपरैल थे। द्वारों पर बैलों के लिए पक्की चरनियाँ बनी हुई थीं और कई द्वारों पर घोड़े बँधे हुए नजर आते थे। पुराने चौपाल में पाठशाला थी और उसके सामने एक पक्का कुआँ और धर्मशाला थी। मायाशंकर को देखते ही लोग अपने-अपने काम छोड़कर दौड़े और एक क्षण में सैकड़ों आदमी जमा हो गये। मायाशंकर सुक्खू चौधरी के मन्दिर पर रुके। वहाँ इस वक्त बड़ी बहार थी। मन्दिर के सामने सहन में भाँति-भाँति के फूल खिले हुए थे। चबूतरे पर चौधरी बैठे हुए रामायण पढ़ रहे थे और कई स्त्रियाँ बैठी हुई सुन रही थीं। मायाशंकर घोड़े से उतर कर चबूतरे पर जा बैठे।
सुखदास हकबकाकर खड़े हो गये और पूछा– सब कुशल है न? क्या अभी चले आ रहे हैं?
माया– हाँ, मैंने कहा चलूं, तुम लोगों से भेंट-भाँट करता आऊँ।
सुख– बड़ी कृपा की। हमारे धन्य-भाग कि घर बैठे स्वामी के दर्शन होते हैं यह कहकर वह लपके हुए घर में गये, एक ऊनी कालीन लाकर बिछा दी, कल्से में पानी खींचा और शरबत घोलने लगे। मायाशंकर ने मुँह-हाथ धोया, शरबत पिया, घोड़े की लगाम उतार रहे थे कि कादिर खाँ ने आकर सलाम किया। माया ने कहा, कहिये खाँ साहब, मिजाज तो अच्छा है?
कादिर– सब अल्लाताला का फ़जल है। तुम्हारे जान-माल की खैर मनाया करते हैं। आज तो रहना होगा न?
माया– यही इरादा करके तो चला हूँ।
थोड़ी देर में वहाँ गाँव के सब छोटे-बड़े आ पहुँचे। इधर-उधर की बातें होने लगीं।
कादिर ने पूछा– बेटा आजकल कौंसिल में क्या हो रहा है? असामियों पर कुछ निगाह होने की आशा है या नहीं?
माया– हाँ, है! चचा साहब और उनके मित्र लोग बड़ा जोर लगा रहे हैं। आशा है कि जल्दी ही कुछ न कुछ नतीजा निकलेगा।
कादिर– अल्लाह उनकी मेहनत सुफल करे। और क्या दुआ दें? रोये-रोये से तो दुआ निकल रही है। काश्तकारों की दशा बहुत कुछ सुधरी है। बेटा, मुझी को देखो। पहले बीस बीघे का काश्तकार था, 100 रुपये लगान देना पड़ता था। दस-बीस रुपये साल नजराने में निकल जाते थे। अब जुमला 20 रुपये लगान है और नजराना नहीं लगता। पहले अनाज खलिहान से घर तक न आता था। आपके चपरासी-कारिन्दे वहीं गला दबा कर तुलवा लेते थे। अब अनाज घर में भरते हैं और सुभीते से बेचते हैं। दो साल में कुछ नहीं तो तीन-चार सौ बचे होंगे। डेढ़ सौ की एक जोड़ी बैल लाये, घर की मरम्मत करायी, सायबान डाला हाँडियों की जगह ताँबे और पीतल के बर्तन लिये और सबसे बड़ी बात यह है कि अब किसी की धौंस नहीं। मालगुजारी दाखिल करके चुपके घर चले आते हैं। नहीं तो हरदम जान सूली पर चढ़ी रहती थी। अब अल्लाह की इबादत में भी जी लगता है, नहीं तो नमाज भी बोझ मालूम होती थी।
माया– तुम्हारा क्या हाल है दुखरन भगत?
दुखरन– भैया, अब तुम्हारे अकबाल से सब कुशल है। अब जान पड़ता है कि हम भी आदमी हैं, नहीं तो पहले बैलों से भी गये-बीते थे। बैल तो हर से आता है, तो आराम से भोजन करके सो जाता है। यहाँ हर से आकर बैल की फिकिर करनी पड़ती थी। उससे छुट्टी मिले तो कारिन्दे साहब की खुशामद करने जाते। वहाँ से दस-ग्यारह बजे लौटते तो भोजन मिलता। 15 बीधे का काश्तकार था। 10 बीघे मौरूसी थे। उसके 50 बीघे सिकमी डोतते थे। उनके 60) देने पड़ते थे। अब 15 बीघे के कुल 30 रुपये देने पड़ते हैं। हरी-बेगारी, गजर-नियाज सबसे गला छूटा। दो साल में तीन-चार सौ हाथ में हो गये। 100 रुपये की एक पछाहीं भैंस लाया हूँ। कुछ करजा था, चुका दिया।
सुखदास– और तबला-हरमोनियम लिया है, वह क्यों नहीं कहते? एक पक्का कुआँ बनवाया है उसे क्यों छिपाते हो? भैया यह पहले ठाकुर जी के बड़े भगत थे। एक बार बेगार में पकड़े गये तो आकर ठाकुर जी पर क्रोध उतारा। उनकी प्रतिमा को तोड़-ताड़ कर फेंक दिया। अब फिर ठाकुर जी के चरणों में इनकी श्रद्धा हुई है! भजन-कीर्तन का सब सामान इन्होंने मँगवाया है!
दुखरन– छिपाऊँ क्यों? मालिक से कौन परदा? यह सब उन्हीं का अकबाल तो है।
माया– यह बातें चचा जी सुनते, तो फूले न समाते।
कल्लू– भैया, जो सच पूछों तो चाँदी मेरी है। रंक से राजा हो गया। पहले 6 बीघे का असामी था, सब सिकमी, 72 रुपये लगान के देने पड़ते थे, उस पर हरदम गौस मियाँ कि चिरौरी किया करता था कि कहीं खेत न छीन लें। 50 रुपए खाली नजराना लगता था। पियादों की पूजा अलग करनी पड़ती थी। अब कुल 9 रुपये लगान देता हूँ। दो साल में आदमी बन गया। फूस के झोंपड़े में रहता था, अबकी मकान बनवा लिया है। पहले हरदम धड़का लगा रहता था कि कोई कारिन्दे से मेरी चुगली न कर आया हो। अब आनन्द से मीठी नींद सोता हूँ और तुम्हारा जस गाता हूँ।
माया– (सुक्खू चौधरी से) तुम्हारी खेती तो सब मजदूरों से ही होती होगी? तुम्हें भजन-भाव से कहाँ छुट्टी?
सुक्खू– (हंसकर) भैया, मुझे अब खेती-बारी करके क्या करना है। अब तो यही अभिलाषा है कि भगवन-भजन करते-करते यहाँ से सिधार जाऊँ। मैंने अपने चालीसों बीघे उन बेचारों को दे दिये हैं जिनके हिस्से में कुछ न पड़ा था। इस तरह सात-आठ घर जो पहले मजूरी करते थे और बेगार के मारे मजूरी भी न करने पाते थे, अब भले आदमी हो गये। मेरा अपना निर्वाह भिक्षा से हो जाता है। हाँ, इच्छापूर्ण भिक्षा यहीं मिल जाती है, किसी दूसरे गाँव में पेट के लिए नहीं जाना पड़ता है। दो-चार साधु-संत नित्य ही आते रहते हैं। उसी भिक्षा में उनका सत्कार भी हो जाता है।
माया– आज बिसेसर साह नहीं दिखायी देते।
सुक्खू– किसी काम से गये होंगे वह भी अब पहले से मजे में हैं। दूकान बहुत बढ़ा दी है, लेन-देन कम करते हैं। पहले रुपये में आने से कम ब्याज न लेते थे और करते क्या? कितने ही असामियों से कौड़ी वसूल न होती थी। रुपये मारे पड़ते थे। उसकी कसर ब्याज से निकालते थे। अब रुपये सैकड़ों ब्याज देते हैं। किसी के यहाँ रुपये डूबने का डर नहीं है। दुकान भी अच्छी चलती है। लस्करों में पहले दिवाला निकल जाता था। अब एक तो गाँव का बल है, कोई रोब नहीं जमा सकता और जो कुछ थोड़ा बहुत घाटा हुआ भी तो गाँववाले पूरा कर देते हैं।
इतने में बलराज रेशमी साफा बाँधे, मिर्जई, पहने, घोड़े पर सवार आता दिखायी दिया। मायाशंकर को देखते ही बेधड़क घोड़े पर से कूद पड़ा और उनके चरण स्पर्श किये। वह अब जिला-सभा का सदस्य था। उसी के जल्से से लौटा आ रहा था।
माया ने मुस्करा कर पूछा– कहिये मेम्बर साहब क्या खबर है?
बलराज– हुजूर की दुआ से अच्छी तरह हूँ। आप तो मजे में है? बोर्ड के जल्से में गया था। बहस छिड़ गयी, वहीं चिराग जल गया।
माया– आज बोर्ड में क्या था।
बलराज– यही बेगार का प्रश्न छिड़ा हुआ था। खूब गर्मागर्म बहस हुई गयी। मेरा प्रस्ताव था कि जिले का कोई हाकिम देहात में जाकर गाँववालों से किसी तरह की खिदमत का काम न ले– पानी भरना, घास छीलना, झाड़ू लगाना। जो रसद दरकार हो वह गाँव के मुखिया से कह दी जाय और बाजार भाव से उसी दम दाम चुका दिया जाय। इस पर दोनों तहसीलदार और कई हुक्काम बहुत भन्नाये। कहने लगे, इससे सरकारी काम में बड़ा हर्ज होगा। मैंने भी जी खोलकर जो कुछ कहते बना, कहा। सरकारी काम प्रजा को कष्ट देकर और उनका अपमान करके नहीं होना चाहिए। हर्ज होता है तो हो। दिल्लगी यह है कि कई ज़मींदार भी हुक्काम के पक्ष में थे। मैंने उन लोगों की खूब खबर ली। अन्त में मेरा प्रस्ताव स्वीकृत हुआ। देखें जिलाधीश क्या फैसला करते हैं। मेरा एक प्रस्ताव यह भी था कि निर्खनामा लिखने के लिए एक सब-कमेटी बनायी जाय जिसमें अधिकांश व्यापारी लोग हों। यह नहीं कि तहसीलदार ने कलम उठाया और मनमाना निर्ख लिख कर चलता किया। वह प्रस्ताव भी मंजूर हुआ।
माया– मैं इन सफलताओं पर तुम्हें बधाई देता हूँ।
बलराज– यह सब आपका अकबाल है। यहाँ पहले कोई अखबार का नाम भी न जानता था। अब कई अच्छे-अच्छे पत्र भी आते हैं। सवेरे आपको अपना वाचनालय दिखलाऊँगा। गाँव के लोग यथायोग्य 1 रुपए, 2 रुपए मासिक चंदा देते हैं, नहीं तो पहले हम लोग मिल कर पत्र माँगते थे तो सारा गाँव बिदकता था। जब कोई अफसर दौरे पर आता, कारिन्दा साहब चट उससे मेरी शिकायत करते। अब आपकी दया से गाँव में रामराज है। आपको किसी दूसरे गाँव में पूसा और मूजफ्फरपुर का गेहूँ न दिखायी देगा। हम लोगों ने अबकी मिल कर दोनों कोनों से बीज मँगवाये और डेवढ़ी पैदावार होने की पूरी आशा है। पहले यहाँ डर के मारे कोई कपास बोता ही न था। मैंने अबकी मालवा और नागपुर से बीज मँगवाये और गाँव में बाँट दिये। खूब कपास हुई। यह सब काम गरीब असामियों के मान के नहीं हैं जिनको पेट भर भोजन नहीं मिलता, सारी पैदावार लगान और महाजन के भेंट हो जाती है।
यह बातें करते-करते भोजन का समय आ पहुँचा। लोग भोजन करने गये। मायाशंकर ने भी पूरियाँ दूध में मलकर खायीं, दूध पिया और फिर लेटे। थोड़ी देर में लोग खा-पीकर आ गये। गाने-बजाने की ठहरी। कल्लू ने गाया। कादिर खाँ ने दो-तीन पद सुनाये। रामायण का पाठ हुआ। सुखदास ने कबीर-पन्थी भजन सुनाये। कल्लू ने एक नकल की। दो-तीन घण्टे खूब चहल-पहल रही। माया को बड़ा आनन्द आया। उसने भी कई अच्छी चीजें सुनायीं। लोग उनके स्वर माधुर्य पर मुग्ध हो गये।
सहसा बलराज ने कहा– बाबूजी, आपने सुना नहीं? मियाँ फैजुल्ला पर जो मुकदमा चल रहा था, उसका आज फैसला सुना दिया गया। अपनी पड़ोसिन बुढ़िया के घर में घुस कर चोरी की थी। तीन साल की सजा हो गयी।
डपटसिंह ने कहा– बहुत अच्छा। सौ बेंत पड़ जाते तो और भी अच्छा होता। यह हम लोगों की आह पड़ी है।
माया– बिन्दा महाराज और कर्तार सिंह का भी कहीं पता है?
बलराज– जी हाँ, बिन्दा महाराज, तो यहीं रहते हैं। उनके निर्वाह के लिए हम लोगों ने उन्हें यहाँ का बय बना दिया है। कर्तार पुलिस में भरती हो गये।
दस बजते-बजते लोग विदा हुए। मायाशंकर ऐसे प्रसन्न थे, मानो स्वर्ग में बैठे हुए हैं।
स्वार्थ-सेवी, माया के फन्दों में फँसे हुए मनुष्यों को यह शान्ति, यह सुख, यह आनन्द, यह आत्मोल्लास कहाँ नसीब?