आग और धुआं

सोलह 

भारत के हृदय में अवध स्थित है। भारत में अंग्रेजों के आगमन के समय भी इस भूमि में अनेक उपयोगी आकर्षण थे। इस भूमि को देखकर अंग्रेजों ने इसे विपुल जलभूमि, ऊँचे-ऊँचे बाँस के जंगलों से लहराते हुए शोभायमान दृश्य, आम्रवृक्षों की घनी शीतल छाया और हरी-भरी फसलों से लहलहाती हुई शस्य श्यामला अत्यन्त वैभवशाली और मनोरम बताया था।

इमली के वृक्षों की घनी छाया से, नारंगियों की सुगन्ध से, अंजीरों के मनोहारी रंगों से और पुष्प रेणुओं से सर्वत्र महकती हुई मधुर सुगन्ध से इस प्रकृत सुन्दर भूमि के वैभव में चार चाँद लग गए थे।

दिल्ली इस्लाम की परम प्रतापी राजधानी अवश्य रही, परन्तु इस्लामी नजाकत, जो ऐयाशी और मद से उत्पन्न हुई थी उसका जहूर तो लखनऊ ही में नजर आया। आज भी लखनऊ अपनी फसाहत और नजाकत के लिये मशहूर है। लखनऊ के नवाबों के एक-से-एक बढ़कर मजेदार और आश्चर्यजनक कारनामे सुनने को मिलते हैं। वह बाँकपन, वह अल्हड़पन, वह रईसी बेवकूफी दुनिया में सिर्फ लखनऊ ही के हिस्से में आई थी। आजभी वहाँ सैकड़ों नवाब जूते चटकाते फिरते हैं। यद्यपि अंग्रेजी दौरे-दौरे ने लखनऊ को पूरा ईसाई बना दिया था, पर कुछ बुढ़ऊ खूसट अब भी गज-भर चौड़े पायचे का पायजामा और हल्की दुपल्ली टोपी पहनकर उसी पुराने ठाठ से निकलते हैं। ताजियेदारी के पुराने शाही जल्बों के दिन मानो लखनऊ कुछ देर के लिए भूल जाता है कि अब हम बीसवीं सदी के नवीन आलोक में है। इस समय भी उसमें वही शाही छटा देखने को मिलती है। आज भी वहाँ नवाब कनकव्वे और नवाब बटेर देखने को मिल सकते हैं। खम्मीरी तम्बाकू की भीनी महक में डूबकर प्रत्येक पुराना मुसलमान अब भी अपने ऊपर इतराता है।

लखनऊ की नवाबी की नींव नवाब सआदतखाँ बुर्दामुल-मुल्क ने डाली थी। उसका असली नाम मिरजा मुहम्मद अमीन था। उन दिनों दिल्ली के तख्त पर मुहम्मद शाह रंगीले मौज कर रहे थे। अवध तब शेखों ने बड़ा ऊधम मचा रखा था। उनकी देखा-देखी दूसरे जमींदार भी सरकश हो उठे थे। जो कोई अवध का सूबेदार बनकर जाता, उसे ही मार डालते थे। इसलिये बादशाह किसी जबरदस्त आदमी की तलाश में थे। सआदतखाँ और आसफजाह दो पराक्रमी सरदारों से बादशाह सलामत सशंक रहते थे और इन्हें दरबार से हटाना चाहते थे। अतः अब अवसर देखकर सआदत को अवध और आसफजाह को हैदराबाद दक्षिण की सूबेदारी देकर उन्होंने इन्हें दूर किया।

बादशाह ने मिरजा साहब को अवध की सूबेदारी और खिलअत तो दे दी थी पर फौज का कोई भी बन्दोबस्त न था। मिरजा साहब ने हिम्मत न हारी। उन्होंने दिल्ली के आवारा और बेकार मुसलमान युवकों को बटोर-कर संगठित किया और कहा-“क्यों पड़े-पड़े बेकार जिन्दगी बरबाद करते हो? खुदा ने चाहा तो अवध पर दखल करके मजा करेंगे।”

कुछ ही दिनों में हजारों आदमी जमा हो गये। कुछ तोपें और हथियार शाही शस्त्रागार से मिल गए। इस फौज को दिल्ली से अवध तक ले जाने और सामान के लिये बैल खरीदने को मिरजा ने अपनी बेगम के जेवर तक बेच डाले।

जब मिरजा इस ठाठ से चले तो रास्ते में आगरे के सूबेदार ने इनकी खातिरदारी करनी चाही। आपने कहा-“जो रुपया मेरी खातिर-तवाजे में खर्च करना चाहते हो, वह मुझे नकद दे दो, क्योंकि रुपये की मुझे बड़ी जरूरत है।”

आगरे के सूबेदार ने यही किया।

वहाँ से बरेली पहुंचे तो वहाँ के सूबेदार से भी दावत के बदले रुपया लेकर फर्रुखाबाद आये।

वहाँ नवाब ने कहा-“लखनऊ के शेख बड़े लड़ाके और अवध के आदमी भारी सरकश हैं। आप एकाएक गंगा पार न कर, पहले आसपास जमींदारों और रईसों को मिला लें, तब सबकी मदद लेकर लखनऊ पर चढ़ाई करें।”

मिरजा ने यही किया और जब वे धूमधाम से लखनऊ पहुँचे और शेखों को अपने आने की सूचना दी तो वे इनकी सेना से डर गये और कहा–‘आप गोमती के उस पार मच्छी-भवन में डेरा डालिये।”

मच्छी-भवन अनायास ही दखल हुआ देखकर मिरजा बहुत खुश हुए, क्योंकि उन्हें आशा न थी कि बिना रक्तपात हुए सफलता मिल जायगी।

नवाब ने अपने सुप्रबन्ध और चतुराई से थोड़े ही दिनों में सूबे की आमदनी सात लाख रुपया कर ली और अट्ठाईस वर्षों तक बड़ी सफलता से शासन किया। मृत्यु के समय खजाने में नौ करोड़ रुपये जमा थे।

उनकी मृत्यु पर उनके भांजे और दामाद मिरजा मुहम्मद मुकीम अबुल मन्सूरखाँ सफदरजंग के नाम से वजीरे-नवाब नियुक्त हुए। वह अपनी राजधानी लखनऊ से उठाकर फैजाबाद ले गये। यहाँ नवाब की सेना की छावनी थी। वह बुद्धिमान न थे, इसलिए उनका जीवन युद्ध और झगड़ों में बीता। उनके समय में शेख फिर सिर उठाने लगे। अन्य सरदार भीबागी हो गये।

उनमें एक गुण था कि वे एक नारी-व्रती थे। उनकी पत्नी नवाब सदरजहाँ बेगम युद्ध-स्थल में भी छाया की भाँति उनके साथ रहती थीं। वह सोलह वर्ष नवाबी भोगकर मरे।

उनके बाद मिरजा जलालुद्दीन हैदर नवाब शुजाउद्दौला के नाम से मसनद पर बैठे। वह चौबीस वर्ष की आयु के वीर युवक थे पर चरित्र ठीक न था। गद्दी पर बैठते ही किसी हिन्दू स्त्री का अपमान करने के कारण हिन्दू बिगड़ गये। परन्तु इनकी माता ने बहुत कुछ समझा-बुझाकर हिन्दू-रईसों को शान्त किया। उन्होंने बाईस वर्ष तक नवाबी की। उनके जमाने में दिल्ली की गद्दी पर बादशाह शाहआलम थे, और बंगाल की सूबेदारी के लिये मीरकासिम जी-जान से परिश्रम कर रहा था। शुजाउद्दौला बादशाह के वजीर और रक्षक थे। मीरकासिम ने उनसे सहायता मांगी थी। उस समय अंग्रेजी कम्पनी के अधिकारियों ने मीरजाफर को नवाब बनाया था। शुजाउद्दौला ने एक पत्र अंग्रेज कौंसिल को लिखकर बादशाह के अधिकार और उनके कर्तव्यों की चेतावनी दी, पर उसका कोई फल न देख, युद्ध की तैयारी कर दी। युद्ध हुआ भी, परन्तु अंग्रेजों की भेद नीति से शुजाउद्दौला की हार हुई, उसमें नवाब को हर्जाने के पचास लाख रुपये और इलाहाबाद तथा कड़े के जिले अंग्रेजों को देने पड़े। अंग्रेजों का एक एजेण्ट भी उनके यहाँ रखा गया और दोनों ने परस्पर के शत्रु-मित्रों को अपना निजू शत्रु-मित्र समझने का कौल-करार भी किया।

नवाब को इमारतों का भी बड़ा शौक था। दस लाख रुपये के लगभग वह इमारतों पर भी खर्च किया करते थे। इनकी बनाई इमारतें आज भी लखनऊ की रोशनी हैं। दौलतगंज या दौलतखाना, जहाँ नवाब स्वयं रहते थे-इन्द्र-भवन के समान शोभा रखता था।

उस समय ईस्ट इण्डिया कम्पनी की कौंसिल में वारेन हेस्टिग्स का दौर-दौरा था और मुगल-तख्त शाह आलम के पैरों के नीचे डगमगा रहा था। लखनऊ में भी कम्पनी का एक रेजीडेण्ट रहता था। उस समय तक रेजीडेण्टों को नवाब के सामने आने पर दरबार के नियमों का पालन करना पड़ता था और अन्य दरबारियों की भाँति उन्हें भी अदब के साथ नवाब से मिलना पड़ता था।

नवाब ने रेजीडेण्ट के रहने के लिये एक विशाल इमारत बनवाई थी जो 1857 की घटनाओं के कारण अब बहुत प्रसिद्ध हो गई है।

एक बार नवाब घोड़े पर सवार सैर को निकले तो एक चूहा उनके घोड़े की टाप के नीचे दब गया। इस पर उन्होंने वहीं उसकी कब्र बनवा दी और एक बाग लगवाया, जो ‘मूसा बाग’ के नाम से प्रसिद्ध है। यह बाग नवाब को बहुत प्रिय था। इसी में बादशाह जानवरों की लड़ाई देखा करते थे। सन् 1775 में उनकी मृत्यु हुई।

उनके बाद इनके तीसरे पुत्र मिरजा अनजीअलीखाँ आसफउद्दौला के नाम से गद्दी पर बैठे। ये प्रारम्भ में 7 वर्ष तक फैजाबाद में रहे। परन्तु बाद में लखनऊ चले आये और उसे ही राजधानी बनाया।

उनके लखनऊ आने से लखनऊ की तकदीर चेती। उस समय तक लखनऊ एक साधारण कस्बा था। आसफउद्दौला ने उसे अच्छा खासा शहर बना दिया। उन्होंने कई मुहल्ले और बाजार बनवाये। वह बड़े शाहखर्च, स्वाधीन प्रकृति के, और हिम्मतवाले शासक थे। उन्होंने सब पुराने दरबारियों को निकालकर नयों को नियुक्त किया। उनके जमाने में दरबार की शानो-शौकत देखने योग्य थी। दाता तो अनोखे थे। उनकी शाहखर्ची से उनकी माँ ने अंग्रेजों से कह-सुनकर खजाना अपने अधिकार में कर लिया था, परन्तु नवाब ने लड़-भिड़कर 62 लाख रुपये ले लिये। होली, दीवाली, ईद, मुहर्रम के अवसरों पर लाखों रुपये स्वाहा हो जाते थे। ब्याह-शादी की दावतों में 5-5, 6-6 लाख रुपया पानी हो जाताथा। नवाब का अपना रोजाना खर्च भी कम न था। उनके यहाँ 1200 हाथी, 3000 घोड़े, 1000 कुत्ते, अगणित मुर्गियाँ, कबूतर, बटेर, हिरन, बन्दर, साँप, बिच्छू और भाँति-भाँति के जानवर थे, जिनके लिए लाखों की इमारतें बनी थीं और लाखों रुपये खर्च होते थे। उनके निजू नौकरों में 2000 फराश, 100 चोबदार और खिदमतगार तथा सैकड़ों लौंडियाँ थीं। 4 हजार तो माली थे। रसोई का खर्च ही 2-3 हजार रुपये रोजाना का था। सैकड़ों बावर्ची थे। शाहजादे वजीरअली की शादी में 30 लाख रुपये खर्च किये थे। वह सिर्फ दाता और उदार ही नहीं, एक योग्य शासक और गुणग्राही भी थे। मीर, सौदा और हसरत आदि उर्दू के नामी कवि थे जो साल में सिर्फ एक बार दरबार में हाजिर होकर हजारों रुपये पाते थे। संगीत और काव्य के ऐसे रसिक थे कि एक-एक पद पर हजारों रुपये बरसाये जाते थे।

वारेन हेस्टिग्स को रुपये की बड़ी जरूरत थी। अंग्रेज कम्पनी ने नवाब से कई बड़ी रकमें बार-बार तलब की थीं। विवश हो नवाब ने चुनार के किले में हेस्टिग्स से मुलाकात की और बताया कि केवल सेना की मद्द में ही मुझे एक बड़ी रकम देनी पड़ती है।

अन्त में हेस्टिग्स ने यह निश्चय किया कि चूंकि स्वर्गीय नवाब शुजाउद्दौला मृत्यु के समय में अपनी माँ और विधवा बेगम को बड़े-बड़े खजाने दे गया है, और फैजाबाद के महल भी उन्हीं के नाम कर गया है, तथा ये बेगमें अपने असंख्य सम्बन्धियों, बाँदियों और गुलामों के साथ वहीं रहती थीं-अतः उनसे यह रुपया ले लिया जाय।

आसफउद्दौला यह शर्त सुनकर बहुत लज्जित हुआ, पर लाचार हो उसे सहमत होना पड़ा, और इसका प्रबन्ध अंग्रेज-अधिकारी स्वयं कर लेंगे, यह भी निश्चय हो गया।

मृत नवाब शुजाउद्दौला अपनी इन बेगमों को अंग्रेजों की संरक्षकता में छोड़ गये थे। परन्तु उस मनुष्यता को भुलाकर और उनका रुपया हड़पने का संकल्प करके इन विधवा बेगमों पर काशी के राजा चेतसिंह के साथ विद्रोह में सम्मिलित होने का अभियोग लगाया गया, और सर इलाइजाह इम्पे कहारों की डाक बैठाकर इस काम के लिए कलकत्ते से तेजी के साथ रवाना हुआ। लखनऊ पहुँचकर उसने गवाहों के हलफनामे लिये और बेगमों को विद्रोह में सम्मिलित होने का फैसला करके कलकत्ते लौट गया।

फैजाबाद के महलों को अंग्रेजी फौजों ने घेर लिया और बेगमात को हुक्म दिया कि आप कैदी हैं, और आप तमाम जेवरात, सोना, चाँदी, जवाहरात दे दीजिए।

जब उन्होंने इन्कार किया, तो बाहर की रसद बन्द कर दी गई, और वे भूखों मरने लगीं। अन्त में बेगमों ने पिटारों पर पिटारे और खजानों पर खजाने देना शुरू कर दिया। यह रकम एक करोड़ रुपये के अनुमानतः होगी।

इस घटना से अवध-भर में तहलका मच गया, और आसफउद्दौला का दिल टुकड़े-टुकड़े हो गया।

इसके बाद हेस्टिंग्स ने कर्नल हैनरी को नवाब के यहाँ भेजा और उसे बहराइच तथा गोरखपुर जिलों का कलक्टर बनवा दिया। उसने उन जिलों पर भयानक अत्याचार किया, और तीन वर्ष के अन्दर ही पतालीस लाख रुपया कमा लिया। नवाब ने तंग होकर उसे बर्खास्त कर दिया, पर हेस्टिंग्स ने फिर उसे नवाब के सिर मढ़ना चाहा।

नवाब ने लिखा-“मैं हजरत मुहम्मद की कसम खाकर कहता हूँ कि यदि आपने मेरे यहाँ किसी काम पर कर्नल हैनरी को भेजा-तो मैं सल्तनत छोड़कर निकल जाऊँगा।”

सत्रह 

जब वारेन हेस्टिग्स की स्वच्छन्दता नष्ट हुई और कौन्सिल के साथ सहमत होकर शासन करने की कम्पनी ने आज्ञा दी, तब महाराज नन्दकुमार ने सर फिलिप फ्रांसिस द्वारा एक आवेदन-पत्र कौंसिल में भेजा। उसमें उन्होंने लिखा था-

“हेस्टिग्स साहब जैसे शत्रु की शिकायत करके आत्मरक्षा के मैं ईश्वर की कृपा पर ही भरोसा करता हूँ। मैं आत्ममर्यादा को प्राण से भी बढ़कर मानता हूँ। और मैं यदि अब भी असली भेद न खोलूँ और मौन रहूँ तो मुझे और भी अधिक विपत्तियाँ झेलनी पड़ेंगी, अतः मैं लाचार होकर यह रहस्य-भेद प्रकट करता हूँ।

इस आवेदन-पत्र में महाराज ने दिखाया कि हेस्टिग्स साहब ने 354105 रुपये का गबन किया है और वे महाराज के सर्वनाश का षड्यन्त्र रच रहे हैं। महाराज के शत्रु जगतचन्द्र, मोहनप्रसाद, कमालुद्दीन आदि इस पाप-गोष्ठी में सम्मिलित हैं।

जब यह पत्र कौन्सिल में पढ़कर सुनाया गया तो हेस्टिग्स साहब का चेहरा फख हो गया। वे क्रोध में मतवाले होकर मेम्बरों को सख्त बात कहने और महाराज को गालियाँ देने लगे। उस दिन कौन्सिल बरखास्त हो गई। दो दिन पीछे जब कौन्सिल बैठी तो महाराज का एक और पत्र खोला गया, जिसमें उन्होंने लिखा था कि कौन्सिल यदि आज्ञा दे तो मैं स्वयं कौन्सिलआकर अपनी बातों का प्रमाण पेश करूँ और घूस के रुपयों की रसीद दाखिल करूँ।

पत्र सुनकर कर्नल सॉंनसून ने प्रस्ताव किया कि महाराज को कौन्सिल में उपस्थित होकर सुबूत पेश करने की आज्ञा देनी चाहिए। यह सुनकर गवर्नर साहब के क्रोध का ठिकाना न रहा। उन्होंने कहा-“यदि नन्दकुमार हमारा अभियोक्ता बनकर कौन्सिल में आएगा तो हम इस अपमान को प्राण जाने पर भी नहीं सह सकेंगे। हमारी अधीनस्थ कौन्सिल के सदस्य हमारे कार्यों के विचारक बनकर यदि एक सामान्य अपराधी के समान हमारा विचार करेंगे तो हम इस बोर्ड में बैठेंगे ही नहीं।” बार्बल साहब ने सलाह दी कि इस मामले की जाँच सुप्रीम कोर्ट द्वारा कराई जाय।

बहुत वाद-विवाद के अनन्तर बहुमत से महाराज का कौन्सिल में बुलाया जाना निश्चित हुआ। गोरे गवर्नर पर काला आदमी दोषारोपण करे, यह एक अनहोनी बात थी। हेस्टिग्ज साहब उठकर चल दिये। पर तीनों सदस्यों ने जनरल क्लीवरिङ्ग को सभापति बनाकर महाराज को कौन्सिल में बुलवाया और उनके प्रमाण सुनकर एकमत से हेस्टिग्स को अपराधी ठहराया। साथ ही उन्होंने यह भी निश्चय किया कि उन्हें घूस के रुपये फौरन कम्पनी के खजाने में जमा करा देने चाहिए। परन्तु हेस्टिग्स ने इस प्रस्ताव का तिरस्कार कर दिया, इस पर कम्पनी की ओर से सुप्रीम कोर्ट में दावा दायर करने के लिए सब कागज कम्पनी के सॉलिसिटर जनरल के पास भेज दिए गये। सॉलिसिटर ने उन्हें देखकर जो राय कायम की थी वह यह है-

“हमारी समझ में कलकत्ते की सुप्रीम कोर्ट में कम्पनी की ओर से हेस्टिग्स साहब पर नालिश दायर की जानी चाहिए। ऐसा करने पर बंगाल के सब झगड़े एकदम तय हो जायेंगे और कम्पनी को भी अधिक लाभ होगा।”

हेस्टिग्स साहब ने यह रंग-ढंग देखकर चीफ जस्टिस इम्पे साहब की कोठी में एक गुप्त मंत्रणा की। उसके अगले दिन ही अचानक मोहनप्रसाद ने सुप्रीम कोर्ट में हलफिया बयान दाखिल करके एक जाल का दावा महाराज नन्दकुमार पर खड़ा कर दिया। दावे में कहा गया था कि महाराज नन्दकुमार ने जाली दस्तावेज बनाकर मृत बुलाकीदास की रियासत से रुपए वसूल किए हैं। बयान दाखिल होते ही महाराज नन्दकुमार की गिरफ्तारी के लिए कलकत्ते के शेरिफ के नाम सुप्रीम कोर्ट के विचारकों ने वारण्ट निकाल दिया और तत्काल ही महाराज नन्दकुमार गिरफ्तार करके जेल में डाल दिए गये। अपने पत्र में भण्डाफोड़ करते हुए महाराज ने जो भय प्रकट किया था, वह सम्मुख आ गया।

महाराज ब्राह्मण थे, इसलिए उन्होंने जिस स्थान पर ईसाई-मुसलमान आते-जाते थे, वहाँ सन्ध्या-वन्दन और खान-पान से इन्कार कर दिया। 68 घण्टे वे बराबर निर्जल रहे। जब उनके वकील ने उन्हें किसी शुद्ध स्थान में नजरबन्द करने की अर्जी दी, तब बंगाल के पण्डितों को बुलाकर अंग्रेजों ने व्यवस्था ली कि महाराज की जाति जेल में खान-पान से नष्ट हो सकती है या नहीं? हेस्टिग्स के नौकर मोदी-बाबू ने झटपट मुर्शिदाबाद को आदमी दौड़ाकर अपने पंडित हरिदास तर्क-पंचानन को कलकत्ते बुला भेजा। उन्होंने तथा अन्य ब्राह्मणों ने आत्म-मर्यादा को तिलांजलि दे, व्यवस्था दी कि जेल में भोजन करने से ब्राह्मण की जाति नष्ट नहीं होती और अगर थोड़ा-बहुत दोष होता भी है तो वह ‘नहीं’ के बराबर है, और जेल से छुटकारा पाने के बाद व्रत आदि रखने से उसका प्रायश्चित्त हो जाता है। एक देवता ने तो यहाँ तक कह दिया कि ब्राह्मण की जाति आठ बार मुसलमान का भात खाने के बाद नष्ट होती है। उपरोक्त व्यवस्था सुनकर इम्पे साहब ने महाराज की दरख्वास्त नामंजूर कर दी, परन्तु जब महाराज ने भोजन से इन्कार कर दिया और वृद्ध होने के कारण उनके प्राण जाने का भय हुआ, तब जेल के आंगन में उनके लिए अलग खीमा खड़ा किया गया। इस बीच में अभियोग तैयार करके धूम-धाम से चलाया गया।

1775 की तीसरी जून को कलकत्ता में अंग्रेजी न्याय की कलंकरूप अदालत बैठी, और बेईमान जज पीली पोशाक पहनकर आ डटे। महाराज अभियुक्त के वेश में सामने खड़े हुए और उनके गुमाश्ता चौतन्यनाथ एवं उनके दास राय राधाचरण बहादुर और महाराज के बैरिस्टर फरार साहब उनके पीछे खड़े हुए। दूसरी ओर फर्यादी के गवाह कान्त पोद्दार आदि हेस्टिग्स के सहचर दर्शकों की सीट पर आ बैठे। महाराज पर जालसाजी के बीस अपराध लगाये गये। महाराज ने अपने को निर्दोष बतलाया।

उनसे पूछा गया-“आप किससे अपना विचार कराना चाहते हैं?’

महाराज ने कहा-“परमेश्वर हमारा विचार करे। हमारे देशवासी हमारी श्रेणी के जन हमारा विचार करें।” पर उस समय देशी लोगों का अंग्रेजों के न्यायालय में वैसा सम्मान न था, अतः 12 जूरी बनाकर विचार शुरू हुआ।

कोर्ट के प्रधान द्विभाषिए विलियम चेम्बर किसी तरीके से गैर हाजिर कर दिये गये और गवर्नर के कृपा-पात्र ईलिएट साहब को उनका काम सौंपा गया।

महाराज के बैरिस्टर ने आपत्ति की तो इम्पे साहब ने उसे घुड़क दिया। क्लार्क ऑफ दी क्राउन के अभियोग-पत्र पढ़ने पर फरियादी के गवाहों की जबानबन्दी आरम्भ हुई। पहली गवाही मोहनलाल की हुई। यह वही आदमी था, जिसकी पहली दरख्वास्त का मसौदा स्वयं कोर्ट के जजों ने बनाया था। पर यह बात फैसला हो चुकने पर प्रमाणित हुई। दूसरी साक्षी कमालुद्दीन खाँ की हुई। उसने कहा “महाराज ने मेरे नाम की मुहर मुझसे माँगी थी, आज 14 वर्ष हुए मुझे वह वापस नहीं मिली। जज के दस्तावेज दिखाने पर उसने अपनी मुहर की छाप को भी पहचान लिया। उसने यह भी कहा कि इस बात की खबर ख्वाजा पैट्रिक सदरुद्दीन और मेरे नौकर हुसेनअली को भी है।”

दस्तावेज पर मुहर में अब्दुल कमालुद्दीन की छाप थी। जिरह में जब उससे पूछा गया कि तुम्हारा नाम तो कमालुद्दीन खाँ है, यह मुहर कैसी? तब गवाह ने कहा-“धर्मावतार, मैं कभी झूठ नहीं बोलूँगा। मैं दिन में पाँच बार नमाज पढ़ता हूँ, मेरा नाम पहले अब्दुल कमालुद्दीन ही था। पर तब से अब मेरी हैसियत बढ़ गई है, इसलिए मैंने अपने नाम के आगे का टुकड़ा छोड़कर नाम के पीछे खाँ लगा लिया है।”

जिरह में जब पूछा गया कि तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि तुम्हारा नाम गवाहों में दर्ज है? तब उसने कहा-“महाराज ने मुझसे खुद जिक्र किया था कि हमने तुम्हारे नाम की मुहर गवाहों में लगा दी है, जरूरत पड़े तो इसके सबूत में तुम्हें गवाही देनी पड़ेगी। पर मैंने झूठी गवाही से साफ इंकार कर दिया था। अल्ला-अल्ला! भला मैं झूठी गवाही दे सकता था?”

हुसैनअली, ख्वाजा पैट्रिक और सदरुद्दीन ने भी उसकी बात की पुष्टि की। दस्तावेज पर अब्दुल कमालुद्दीन, शिलावत सिंह और माधवराव के दस्तखत थे। कमालुद्दीन की गवाही तो हो चुकी, बाकी दोनों मर चुके थे। शिलावतसिंह के दस्तखत पहचानने को राजा नवकृष्ण आये थे। ये कायस्थ थे। इन्होंने शपथपूर्वक कहा कि ये शिलावतसिंह के दस्तखत नहीं हैं।

इतनी साक्षी होने पर भी मामला जोरदार नहीं हुआ। वादी मोहन-प्रसाद नौ बार और उसका गुमाश्ता कृष्ण जीवनदास चौबीस बार गवाहों के कटहरे में खड़े किये गये। बार-बार जिरह किये जाने पर कृष्णजीवन ने झुंझलाकर कहा-“पद्ममोहनदास के हाथ का लिखा एक इकरारनामा बुलाकीदास ने स्वयं लिखा था, उसमें बुलाकीदास ने महाराज के 1765 में 48021 रुपये के एक तमस्सुक की बाबत साफ लिखा था।”

कृष्णजीवन के इस इजहार से कोर्ट के जजों और हेस्टिग्स के चेहरों का रंग फख हो गया। पर इम्पे साहब ने गम्भीरता से कहा-“कृष्णजीवन ने अब तक जो गवाही दी थी, वह करारेपन से दी थी, पर इस इकरारनामे की बात कहती बार उसका कण्ठ अवरुद्ध हुआ है। निस्सन्देह पद्ममोहन ने महाराज नन्दकुमार की साजिश से एक इकरारनामा तैयार कर लिया था।”

उधर कान्त पोद्दार, मुंशी नवकृष्ण; गंगा गोविंदसिंह, राजा राजवल्लभ और स्वयं हेस्टिग्स साहब नए-नए साक्षी तैयार कर रहे थे। और किसी तरह काम बनता न देखकर, उन्होंने आजिमअली को गवाह के कटहरे में लाकर खड़ा किया।

आजिमअली नमक की कोठी के एजेण्ट एक अंग्रेज का खानसामा था। क्लाइव की प्रतिष्ठित सभा के सभ्य आवश्यकता होने पर इसे सरकारी गवाह बनाया करते थे, क्योंकि उस समय सरकारी वकील नहीं होता था।

जब किसी पर नमक की चोरी का अपराध लगाया जाता था तो आजिमअली गवाह बनता था। पर अब वह सभा बन्द हो गई थी। आजिमअली ने अब एक औरत से निकाह पढ़ाकर लालबाजार में जूते की दूकान खोल ली थी।

तीसरी जून से सुबूत के गवाहों की जबानबन्दी आरम्भ हुई थी और 11वीं जून को सुबूत की गवाही समाप्त हुई थी। फिर भी 12वीं जून को आजिमअली गवाह पेश किया गया। यह कार्यवाही वेजाब्ता थी, पर इस मुकदमे में जाब्ता ही क्या था?

गवाहों के कटहरे में आजमअली को खड़ा होते देख महाराज के गुमाश्ते और उनके दामाद के देवता कूच कर गए। वह एक सिद्धहस्त गवाह था। वे समझ गए, बस यह चश्मदीद गवाह बनकर आया है। चैतन्य बाबू ने इस समय धूर्तता से काम लिया। उन्होंने हाथ के इशारे से आजिम को सौ, फिर दो सौ, फिर तीन सौ रुपये देने का शारा किया, पर आजिम न माना। वह हलफ उठाकर कहने लगा-

महाराज नन्दकुमार का मकान जानता हूँ। उनके गुमाश्ता चैतन्यनाथ ने मेरी दुकान से जूता लिया था। मैं सन् 1766 के जुलाई मास में चतन्य बाबू से जूतों के दामों का तकाजा करने महाराज नन्दकुमार के मकान पर गया। उसके दस दिन पहले बुलाकीदास की मृत्यु हो गई थी। वहाँ मैंने चैतन्य बाबू को काम में फंसे हुए पाया। पूछने पर उन्होंने कहा-‘इस समय महाराज एक जाली दस्तावेज बना रहे हैं, उसीमें मैं इस समय फंसा हूँ।’ इसके बाद देखा, महाराज बैठक में नाक पर चश्मा चढ़ाकर बक्स में से 25-30 मुहर निकालकर उनका नाम जोर-जोर से पढ़ रहे हैं। एक मुहर को उन्होंने कमालुद्दीन की कहकर चैतन्यनाथ को दिखाया भी था।”

आजिम का यह इजहार सुनकर कोर्ट के जजों की आनन्द से बत्तीसी खुल गई। वे उत्सुकता से कहने लगे-‘गो आन’।

आजिमअली-हुजूर, इसके बाद तमस्मुक की शक्ल के कागज पर वह मुहर छाप दी गई।

एक जज-कहे जाओ, कहे जाओ।

आजिमअली-इसके बाद चैतन्य बाबू से महाराज ने कहा कि जहाँ मुहर लगाई है, उसके पास ही अब्दुल कमालुद्दीन का नाम भी लिख दो।

दूसरा जज-कहे जाओ।

आजिमअली-चैतन्य बाबू ने कमालुद्दीन का नाम लिख दिया।

नीसरा जज-क्या तुम पढ़-लिख सकते हो?

आजिमअली-हुजूर, अब तो आँखों से दिखाई ही कम देता है, पर आगे फारसी पढ़-लिख सकता था।

सर इम्पे-आगे बोलो।

आजिमअली-हुजूर, इसके बाद उसी कागज पर महाराज ने शिलावत-सिंह और माधवराव के नाम भी गवाहों में लिख दिये।

इस इजहार से घबराकर चैतन्यबाबू ने इशारे से एक हजार रुपये का इशारा किया। तब आजिम ने भी इशारे ही से कहा-घबराओ मत, सब पर पानी फेरे देता हूँ। उधर जज और फरियादी के वकील अधीर होकर-“गो ऑन, गो ऑन” कहने लगे।

आजिमअली-सब काम खत्म होने पर महाराज उसे पढ़ने लगे।

जजों ने आनन्दित होकर कहा-अच्छा-अच्छा, फिर क्या हुआ?

आजिमअली-बस पढ़कर महाराज ने उसे अपने बक्स में रख लिया।

तभी हमने सुना कि बुलाकीदास ने महाराज को तमस्मुक लिख दिया है।

सब जज-(एक साथ) फिर! फिर!!

आजिमअली-हुजूर, बस इसके बाद ही घर के भीतर मुर्गी बोली और मेरी नींद टूट गई। मेरी छोटी स्त्री ने कहा-मियाँ! आज क्या बिस्तर से नहीं उठोगे? देखो, कितनी धूप चढ़ गई है।

यह सुनते ही द्विभाषिए ईलिएट साहब ने आजिमअली के मुंह की ओर देखा। सहसा उनके मुख से निकल पड़ा-आह!

इधर तो इम्पे साहब ने द्विभाषिए से अन्तिम बात समझाने को कहा, और उधर गवाह से कहा-‘गो ऑन’।

आजिमअली-हुजूर, इसके बाद मैंने अपनी छोटी औरत से कहा-मीर की लड़की, मैंने ख्वाब में देखा है कि मैं महाराज नन्दकुमार के मकान पर गया हूँ और वे बुलाकीदास के नाम से एक जाली दस्तावेज बना रहे हैं।

जब ईलिएट साहब ने गवाह की बातों को इम्पे को समझाया तब तो सुप्रीम कोर्ट के सुयोग्य जज विमूढ़ हो आजिम के मुंह को देखने लगे। पर अब आजिम ने ‘गो ऑन’ की प्रतीक्षा न कर कहना जारी रखा-

“धर्मावतार, मेरी बात सुनकर मेरी छोटी स्त्री ने कहा-‘मियां! तुम हमेशा राजा, उमरा, साहबों के मकान पर आते-जाते हो, इसी से सपने भी तुम्हें ऐसे ही दीखते हैं।”

जज शून्य हृदय से बयान सुन रहे थे। अन्त में जज चेम्बर्स ने द्विभाषिए से कहा-गवाह से दरियाफ्त करो कि इसने हमारे सामने अभी जो कुछ कहा है वह सब ख्वाब की बातें हैं?

प्रश्न करने पर आजिमअली ने कहा- हुजूर, ख्वाब में जो मैंने देखा वही सच-सच बयान कर दिया है। तीन-चार दिन की बात है, इस ख्वाब की बात मैंने मोहनप्रसाद बाबू से कही थी। उन्होंने चट कहा कि तुम्हें गवाही भी देनी पड़ेगी। मैंने कहा जो देखा है सो कह दूँगा मेरा उसमें क्या हर्ज है। धर्मावतार! मैं कमीना नहीं, हैसियतदार आदमी हूँ। मेरी छोटी औरत मीर साहब की लड़की है। उसके पिदर अब्दुल लतीफ एक जिले के मालिक हैं। और मौलवी अब्दुल रहमान रिश्ते में मेरे साले होते हैं।

आजिम की इस प्रशस्त विरुद्धावली को सुनकर चैतन्य बाबू से न रहा गया। वे पीछे से बोल उठे-चचा, आज तो तुम बड़े आली खानदान बन गए। लाल बाजार की रहमानी की लड़की के साथ निकाह पढ़वाकर कहते हो कि मौलवी लतीफ हुसैन मेरे ससुर हैं।

आजिमअली-(क्रोध से) दुहाई है धर्मावतार की दिन-दहाड़े सरे-इजलास एक शरीफ की इज्जत ली गई है। मैं इस पर तोहीन का मुकद्दमा चलाऊँगा। इसका इतना मकदूर कि मेरी पाकदामन सास साहबा को यह लाल बाजार की रहमानी कहे। धर्मावतार! मेरी सास अब परदानशीन हैं। वे आगे अनकरीब आठ साल तक लाल बाजार में कुछ-कुछ बेपरदें थी। पर छै महीने हुए मौलवी साहब ने उनके साथ निकाह पढ़वाकर उन्हें अब परदानशीन बना लिया है। एक ऐसे इज्जतदार घराने की पर्दानशीन औरत की शान में ऐसी वाहियात जवाब निकालना सरासर जुर्म में दाखिल है। अदालत मेरी फरियाद सुने।

गवाह के रंग-ढंग देखकर सारी अदालत सन्नाटे में आ गई। अन्त में इम्पे साहब ने महाराज के बैरिस्टर फरार साहब से पूछा, क्या आपको इस गवाह की साक्षी प्रमाण-रूप से ग्रहण करने में कुछ उज है?

बैरिस्टर ने कहा-जब गवाह स्वप्न की बात कह रहा है तो मैं नहीं समझ सकता कि उसकी साक्षी कैसे प्रमाणभूत मानी जाय।

इम्पे–मि० फरार! इस गर्म मुल्क में पूरी-पूरी नींद शायद ही किसी को आती हो। प्रायः लोग अर्द्ध-तन्द्रा अवस्था में रहते हैं। ऐसी दशा में यदि कोई मनुष्य आँख, कान आदि इन्द्रियों द्वारा कोई विषय ग्रहण करे तो उसके कथन को लार्ड थारलो साक्षी रूप से ग्रहण किये जाने में कोई आपत्ति उपस्थित न करेंगे।

वैरिस्टर-मुझे लार्ड थारलो के मतामत से कुछ मतलब नहीं यदि आप इसकी गवाही प्रमाण मानना ही चाहते हैं तो मेरा भी उन दर्ज कर लिया जाय।

न्याय-मूर्ति इम्पे साहब ने मातहत तीनों जजों से सलाह करके आजिमअली की गवाही प्रमाण स्वरूप ग्रहण कर ली और आसामी के बैरिस्टर को सफाई के गवाह पेश करने की आज्ञा दी। बैरिस्टर ने कहा कि आसामी पर जुर्म प्रमाणित ही नहीं हुआ तब सफाई कैसी? आसामी निर्दोष है। उसे रिहाई मिलनी चाहिए।

जज ने कहा-अपराध सिद्ध हुआ है आप सफाई पेश न करेंगे तो हमें जूरियो को समझाने के लिए संग्रहीत प्रमाणों की आलोचना करनी पड़ेगी।

जिस दस्तावेज के सम्बन्ध में झगड़ा उठा था, उसकी यहाँ पर संक्षिप्त रूप से व्याख्या कर देना अप्रासंगिक न होगा। मुर्शिदाबाद में एक भारी राजनैतिक विद्वान पंडित बापूदेव जी शास्त्री रहते थे। नवाब अलीवर्दीखाँ उनका बड़ा सत्कार करते थे। और उनसे सदा राज-काज में परामर्श लेते रहते थे। इन शास्त्री जी के पास महाराज ने 12 वर्ष की उम्र तक आठ वर्ष संस्कृत-शास्त्रों की शिक्षा पाई थी। जब महाराज 22 वर्ष के हुए, तब नवाब अलीवर्दीखाँ ने पंडित जी के अनुरोध से उन्हें मेहिषदल परगने का लगान वसूल करने पर नियुक्त कर दिया। धीरे-धीरे वे अपनी योग्यता से हुगली के फौजदार बन गए। इस पर उन्होंने लगभग 3 लाख रुपये कमाए।

इसके बाद गुरु-दर्शन की अभिलाषा से एक बार वे मुर्शिदाबाद गए, उनकी कन्या के लिए, जिसे वे अपनी धर्म-भगिनी करके मानते थे, कुछ आभूषण साथ ले गए। परन्तु मुर्शिदाबाद पहुँचे तब उन्हें खबर मिली कि गुरु-पत्नी का देहान्त हो चुका है, और उनकी लड़की विधवा हो गई है।ऐसी दशा में उन्होंने आभूषणों के लाने की चर्चा तक गुरुजी से नहीं की और उन गहनों को अपने परिचित बुलाकीदास महाजन की दुकान में अमानत की तरह जमा करा दिया और मन में संकल्प किया कि किसी अवसर पर उन्हें बेचकर उनसे जो रुपये आवेंगे उन्हें प्रमदादेवी को दे देंगे।

दैवयोग से मीरकासिम और अंग्रेजों के युद्ध में मुर्शिदाबाद लूट लिया गया। बुलाकीदास का भी सर्वस्व लूटा गया। बुलाकीदास धर्मात्मा थे। उन्होंने महाराज को उनकी अमानत के बदले में 48021 रुपये का तमस्मुक लिख दिया। बुलाकीदास मर गए, और उसी दस्तावेज को जाली करार देकर महाराज पर मुकदमा चलाया गया।

खैर, महाराज की ओर से सफाई की गवाहियाँ पेश हुई। बड़े-बड़े लोगों ने गवाहियाँ दीं। गवाही समाप्त हो चुकने पर जजों ने जूरियों को मुकदमा समझाया और उस पर एक लम्बी वक्तृता भी दी। वक्तृता समाप्त होने पर जूरी लोग दूसरे कमरे में उठ गए। आधे घण्टे बाद उन्होंने लौटकर कहा-

“महाराज नन्दकुमार अपराधी हैं।”

यह सुनते ही महामति इम्पे साहब ने महाराज को फांसी का हुक्म दे दिया।

हुक्म सुनाकर महाराज फिर जेल में भेज दिए गये। इस बार खेमे के बजाय एक दुतल्ला मकान उन्हें दिया गया। हजारों लोग शत्रु-मित्र उनसे मिलने आते थे। नबाव मुवारकुद्दौला ने कौन्सिल की सेवा में एक पत्र भेजा था। उसमें उसने प्रार्थना की थी कि इंग्लैण्ड के बादशाह की आज्ञा आने तक महाराज की फाँसी रोकी जाय।

स्वयं महाराज ने भी जनरल क्लीवरिंग और सर फ्रान्सिस के पास एक पत्र इस आशय का भेजा था-

“सर्वशक्तिमान् ईश्वर के बाद आप पर मुझे आशा है। मैं ईश्वर के नाम पर नम्रतापूर्वक आपसे अनुरोध करता हूँ कि इंग्लैण्ड के बादशाह की आज्ञा आ लेने तक आप मेरी मृत्यु-आज्ञा को मुल्तवी करा दें। हिन्दुओं के मतानुसार मैं न्याय के दिन इस संकट से उबारने के लिए आपको आशीष दूंगा।”

सुप्रीम कोर्ट से फैसला होने पर भी कौन्सिल को इतनी शक्ति थी कि वह इंगलैण्ड से आज्ञा आने तक फाँसी रोक दे। परन्तु कौन्सिल के सभ्यों ने इस मामले में पड़ना पसन्द नहीं किया। नबाव मुबारकुद्दौला के अलावा महाराज के भाई शम्भुनाथ राव आदि कई व्यक्तियों ने भी आवेदन-पत्र भेजे, परन्तु उनका कुछ फल न हुआ।

महाराज को पांचवीं अगस्त को फाँसी दी गई। किन्तु जनरल क्लीवमिंग ने 18 अगस्त को महाराज का वह पत्र कौन्सिल में खोला उस दिन महाराज का दशम संस्कार हो चुका था। 16 अगस्त को एक मन्तव्य बनाकर उस पत्र की प्राप्ति कौन्सिल के कागज पत्रों में से निकाल दी गई।

क्लीवरिंग को जो पत्र उर्दू में महाराज ने लिखा था, उसके विषय में हेस्टिग्स ने कहा कि इसमें जजों के आचरण की आलोचना की गई है, अतः यह पत्र जजों के पास भेज देना चाहिए। परन्तु फ्रान्सिस साहब ने कहा, ऐसा करने से पत्र का महत्त्व बढ़ जायेगा। इसमें लिखी हुई बातें झूठी और जजों का अपमान करने वाली हैं। मेरी राय में वह पत्र शेरिफ साहब को दे दिया जाय, ताकि वे इसे किसी आम जगह में सब लोगों के सामने किसी जल्लाद के हाथ से जलवा दें। दूसरे दिन सोमवार को वह पत्र चौराहे पर जल्लाद के हाथ से जलवा दिया गया।

दण्डाज्ञा सुनाने के बाईसवें दिन महाराज को फाँसी लगाई गई। वह समय उन्होंने ईश्वराधना में व्यतीत किया। फाँसी के दिन बड़े सवेरे जब महाराज पूजा में बैठे थे, एकाएक कोठरी का द्वार खुला और सामने कलकत्ते के मेकरेब साहब शेरीफ दीख पड़े। उन्होंने द्विभाषिए से कहा-महाराज से निवेदन करो कि आज हम आपसे अन्तिम भेंट करने आये हैं। हम ऐसी चेष्टा करेंगे कि ऐसे बुरे समय में (फाँसी में) महाराज को अधिक कष्ट न हो। मुझे इस घटना में शरीक होने का दुख है। महाराज विश्वास रखें कि अन्तिम समय तक मैं उनके साथ रहूँगा और उनकी अभिलाषाओं को पूरी करने की चेष्टा करूँगा।

महाराज ने उन्हें धन्यवाद देते हुए कहा-मैं आशा करता हूँ कि मेरे कुटुम्बियों पर भी आपकी ऐसी ही कृपा बनी रहेगी। प्रारब्ध अटल है, आप मेरा सलाम कौन्सिल के सभ्यों को कहना।

मेकरेब लिखते हैं-बात करते वक्त महाराज न साँस भरते थे, न उदास मालूम होते थे, और न उनका कण्ठ अवरुद्ध दिखलाई पड़ता था। उनका चेहरा गम्भीर था, उस पर विषाद का कुछ भी चिन्ह न था। महाराज की दृढ़ता देखकर मेकरेब साहब अधिक देर तक न ठहर सके। बाहर आने पर जेलर ने कहा–जब से महाराज के मित्र उनसे मिलकर गये हैं, तब से वे बराबर अपने हिसाब-किताब की जाँच-पड़ताल कर रहे हैं और नोट लिख रहे हैं।

फाँसी का समय 6 बजे प्रातःकाल था। मेकरेब साहब ठीक समय से आधा घण्टा पूर्व जेल गये। वहाँ फाँसी का सब सामान ठीक था। अंग्रेजों की अमलदारी में ब्राह्मण को फाँसी लगने का यह प्रथम ही अवसर था। हजारों मनुष्य देखने आये थे। उन सबकी आँखों में आँसू झलक रहे थे। खबर पाकर महाराज उतरकर नीचे आये। इस समय भी उनका मुख प्रसन्न था। शेरीफ साहब के बैठने पर वे भी एक कुर्सी पर बैठ गए। इतने में किसी ने घड़ी जेब से निकालकर देखी। यह देख महाराज तत्काल उठ खड़े हुए और बोले-मैं तैयार हूँ। पीछे घूमकर देखा तो तीन ब्राह्मण खड़े थे। वे उनका मृत शरीर लेने आये थे। महाराज ने उन्हें छाती से लगाया। महाराज प्रसन्न थे, पर ब्राह्मण फूट-फूट कर रो रहे थे।

मेकरेब ने घड़ी निकालकर कहा—समय तो हो गया, किन्तु जब तक आप न कहेंगे, तब तक यह पापिनी क्रिया आरम्भ न की जायेगी। एक घण्टे तक सब चुप बैठे रहे। बीच-बीच में महाराज कुछ बातचीत करते रहे और माला फेरते रहे। इसके बाद महाराज उठे, शेरीफ की तरफ देखा, और दोनों चल दिये। जेल के फाटक पर पालकी तैयार थी। महाराज पालकी पर सवार होकर जेल की तरफ चले। शेरीफ और डिप्टी शेरीफ पालकी के पीछे-पीछे चल रहे थे। भीड़ बहुत थी पर दंगा-फसाद का कुछ लक्षण न था। टिकटी के पास पहुंचकर महाराज ने कुछ ब्राह्मणों के न आने के विषय में पूछा। महाराज उनके विषय में पूछ ही रहे थे कि वे भी आ गये। उनसे एकान्त में बात करने को मेकरेब साहब ने अन्य अफसरों को हटाना चाहा, परन्तु महाराज ने उन्हें रोककर कहा-मैं सिर्फ बच्चों और घर की स्त्रियों के सम्बन्ध में उनसे कुछ कहना चाहता हूँ। इसके बाद उन्होंने कहा-“जो ब्राह्मण मेरी मृत-देह ले जायेंगे, उन्हें शेरीफ साहब अपनी निगरानी में रख लें। उनके सिवा कोई मेरे शरीर का स्पर्श न करे।”

शेरीफ ने पूछा-क्या आप अपने मित्रों से मिलना चाहते हैं?

महाराज ने कहा-मित्र तो बहुत हैं, पर उनसे मिलने का न यह स्थान है न समय।

शेरीफ ने फिर पूछा-फाँसी पर चढ़कर महाराज फाँसी का तख्ता हटाने का इशारा किस प्रकार देंगे?

महाराज ने कहा-हाथ हिलाते ही तख्ता सरका दिया जाय।

मेकरेब ने कहा-किन्तु नियमानुसार आपके हाथ तो बाँध दिये जायेंगे आप पैर हिलाकर सूचना दे दें।

महाराज ने स्वीकार किया।

शेरीफ ने महाराज की पालकी को फांसी के तख्ते तक लाने की आज्ञा दी, पर महाराज पालकी छोड़कर पैदल ही चल दिये। तख्ते के पास पहुँचकर उन्होंने दोनों हाथ पीछे कर दिये। अब उनके मुख पर कपड़ा लपेटने का समय आया। उन्होंने अंग्रेज के हाथ से कपड़ा लपेटने में आपत्ति की। शेरीफ ने एक ब्राह्मण सिपाही को रूमाल लपेटने का हुक्म दिया। महाराज ने उसे भी रोका। महाराज का एक नौकर उनके पैरों में लिपट रहा था, उसी को महाराज ने आज्ञा दी। इसके बाद वे चबूतरे पर चढ़कर अकड़कर खड़े हो गए। मेकरेब साहब लिखते हैं:

“मैं खिन्न हो अपनी पालकी में घुस गया, किन्तु बैठने भी न पाया था कि महाराज ने पूर्व-सूचना के अनुसार पैर का इशारा दे दिया, और तख्ता खींच लिया गया। बात की बात में महाराज के प्राण-पखेरू उड़ गये। नियत समय तक शव रस्सी पर लटका रहा, फिर ब्राह्मणों के हवाले कर दिया गया।”

ज्योंही महाराज के गले में फन्दा डालकर तख्ता खींचा गया, त्योंही लोग चीख मार-मारकर भागने लगे। वे भागते जाते थे और कहते जाते थे-

ब्रह्महत्या हुईल। कलिकाता अपवित्र हुईल। देश पापे परिपूर्ण हुईल! फिरिंगेर धर्माधर्म ज्ञान नाई!!! ब्राह्मणों ने उस दिन निर्जल व्रत रखा। बहुत से ब्राह्मण कलकत्ते को छोड़कर अन्यत्र रहने लगे। नगर में हा-हाकार मच गया। उसकी गलियाँ लोगों के करण-क्रन्दन से प्रतिध्वनित हो उठीं।

अट्ठारह 

हेस्टिंग्स तीन वर्ष गवर्नर और दस वर्ष गवर्नर जनरल रहा। कम्पनी सरकार की अर्थ लोलुपता को पूरी करने के लिए उसे अपने आदर्श भुला देने पड़े, फिर वह स्वयं भी प्रजा का शोषणकर्ता बना। उसने लाखों रुपयों की अपने लिए भी रिश्वतें लीं और मालामाल होकर इंगलैंड गया। महाराज नन्दकुमार को फाँसी देने से उसके अपयश में और भी वृद्धि हुई। इंगलैंड जाकर उसके ऊपर रिश्वतें लेने और नन्दकुमार पर झूठा केस चलाने के केस चले, परन्तु अन्त में उन कार्यों को अंग्रेजी राज्य के हित में उचित समझकर उसे क्षमा कर दिया गया। क्लाइव और हेस्टिग्स दोनों ही को अंग्रेजी राज्य की भारत में नींव जमाने का श्रेय प्राप्त है।

हेस्टिग्स की भाँति क्लाइव ने भी प्रेम-व्यापार किया था। जब वह इंगलैंड में रह रहा था, उसका मन एक सुन्दर अंग्रेज युवती की ओर आकर्षित हुआ। यह आकर्षण बढ़ता गया, परन्तु वह युवती शीलवती और पवित्र वृत्ति की स्त्री थी। क्लाइव ने जब-जब उससे प्रणय निवेदन करना चाहा, उसने अवज्ञा से उसे ठुकरा दिया। क्लाइव हताश नहीं हुआ, वह सुअवसर की प्रतीक्षा करने लगा। यद्यपि उसका प्रणय और भी युवतियों से चलता था, परन्तु इस युवती की प्रभावशाली सौम्यता ने क्लाइव को व्याकुल बना दिया।

क्रिसमिस का त्यौहार आया। क्लाइव ने सुन्दर फूलों का एक गुच्छा और पत्र देकर अपने एक नौकर को उस महिला के घर भेजा और कहा कि यह पत्र और गुच्छा उसकी मेज पर रख कर चुपचाप लौट आना, कुछ कहना नहीं। नौकर गुच्छा रखकर लौट आया।

प्रातःकाल स्नान के बाद शृंगार करते समय युवती ने अपनी शृंगार मेज पर वह फूलों का गुच्छा और पत्र देखा। युवती ने पत्र पढ़ा। उसमें लिखा था-

“जादी को आरम्भ में व्यापार के काम में नियुक्त किया गया था। उस काम में अनन्त धन-वैभव प्राप्त किया जा सकता था; किंतु जादी में युद्ध के लिए स्वाभाविक योग्यता और असाधारण प्रवृत्ति मौजूद थी। इसलिए एक वीर के सदृश धन-वैभव का तिरस्कार करते हुए जादी ने अपनी भीतरी प्रेरणा से उन वीरों और मनुष्य-जाति के उपकारकों के यशस्वी जीवन में प्रवेश किया, जो कि बादशाहों और कौमों को विजय करके अपने पराजितों को सुख और शान्ति प्रदान करते हैं। युद्ध के मैदान में जादी की सबसे पहली सफलता का परिणाम यह हुआ कि उसने एक धन-सम्पन्न प्रान्त विजय कर लिया। इसके बाद उसने एक युद्ध-प्रेमी और बलवान् शन्नु के हाथों से एक महत्त्वपूर्ण दुर्ग विजय किया, जिसके द्वारा उसने अपने नये विजित प्रान्त को सुरक्षित कर लिया। यह दुर्ग एक तुच्छ अन्यायी नरेश का प्रबल दुर्ग था, जिसके जंगी जहाजी बेड़ों ने योरोप और एशिया के व्यापार को आपत्ति में डाल रखा था। यह दुर्ग जादी की विजयी सेना के सामने न ठहर सका। जादी ने शीघ्र ही उस स्थान को, जहाँ पर कि एक निर्दय, असभ्य और विश्वासघातक नरेश ने भयंकर हत्याकाण्ड मचाया था, फिर से प्राप्त करके अपने देशवासियों की निर्दय हत्या का बदला लिया। जादी ने उस स्वेच्छाचारी, अन्यायी नरेश की प्रबल सेना को परास्त कर उसे तख्त से उतार दिया। जादी के चित्त में अपने लिए बादशाहतें प्राप्त करने की कोई इच्छा न थी, इसलिए इसके बाद उसने दूसरों को बादशाहतें प्रदान की। इस प्रकार वह एशिया का भाग्य-विधाता बन गया। जादी की विजय की कीत्ति गंगा के तटों से लेकर योरोप की पश्चिमी सीमा तक फैल गई। जादी फिर अपनी जन्मभूमि को लौटा, वहाँ पर जादी को यह देखकर सन्तोष हुआ कि उन लोगों ने, जिन्हें कि जादी ने एक धन-सम्पन्न प्रायद्वीप का स्वामी बना दिया था, खुले तौर पर जादी की सेवाओं का आदर किया, और वहाँ के अनुग्रहशील बादशाह ने जादी को इनाम दिया। इस पर जादी ने उदारता के साथ उस विशाल धन के समस्त सुखों को तिलाञ्जलि देकर, जो कि उसने अपने व्यवहार और अपनी वीरता से उपार्जन किया था, फिर भारत लौटकर अभागे देशी नरेशों को उनके पैतृक राज्य वापस दिलाने और इन पूर्वीय प्रदेशों में, जहाँ पर कि जादी इतनी बार विजय प्राप्त कर चुका था, स्थायी और गौरवान्वित शान्ति स्थापित करने का निश्चय किया। किन्तु इन समस्त स्मरणीय वीरकृत्यों के बाद और उनके कारण जादी के महान् यश प्राप्त करने के बाद, उच्च आत्माओं की सर्वोच्च भावना, अर्थात्प्रेम ने जादी की समस्त महत्त्वाकांक्षाओं पर पानी फेर दिया। जादी ने मिरजा को देखा है, और जब से जादी ने मिरजा का दिव्य मुखड़ा देखा है, तब से जादी को एक क्षण के लिए भी सुख अथवा चैन नसीब नहीं हुआ। यद्यपि जादी के पास धन और उसका यश इतना अधिक है कि शायद योरोप तथा एशिया के अन्दर अनेक सुन्दर स्त्रियाँ उससे प्रगाढ़ प्रेम दर्शाने को तैयार हो जाती, तथापि जादी के हृदय में किसी दूसरी स्त्री के लिए अणुमात्र भी विचार अथवा स्थान नहीं है। जादी के समस्त मन, हृदय और आत्मा के अन्दर प्रियतमा मिरजा ही मिरजा भरी हुई है। जादी के लिए मिरजा ही उसका विश्व है। यदि जादी को यह पता लग जाय कि वह प्रबल मोहिनी, अर्थात् मिरजा जादी की प्रतीक्षा से प्रसन्न है, तो जादी सृष्टि में अपने को सबसे अधिक भाग्यवान् समझेगा और अपना समस्त धन और वैभव मिरजा के चरणों पर अर्पण कर देगा। जादी के लिए मिरजा ही इस पृथ्वी पर सबसे बड़ी सुन्दरी है। जब तक जादी को मिरजा के अन्तिम निश्चय का पता नहीं लगता, उसे चैन नहीं मिल सकता। प्रेम के मामले में संदेह और शंका की अवस्था इतनी अधिक कष्टकर होती है कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। इसलिए जादी अपने प्रशंसा-पात्र मिरजा से प्रार्थना करता है कि जादी की अधीरता को देखते हुए वह इस पत्र का शीघ्र ही उत्तर दे। दयालु परमात्मा मिरजा के चित्त में वह दया उत्पन्न करे कि मिरजा जादी की संतप्त आत्मा को फिर से शांति प्रदान कर सकें। जहाँ पर आपको यह अप्रकट लेख मिले, वहीं पर इसका उत्तर रख दीजिए। उत्तर जादी के हाथों में सुरक्षित पहुँच जायगा।”

पत्र पढ़कर युवती ने तुरन्त अनुमान कर लिया कि इस पत्र का भेजने वाला कौन है। उसने इस बात की जाँच करना उचित न समझा कि जादी का यह पत्र, जिसमें उसने अपने प्रेम और यश दोनों की डींग हाँकी थी, मेरे सोने के कमरे में किस तरह पहुँच गया। उसने स्वभावतः यह समझा कि जादी के किसी आदमी ने मेरी किसी नौकरानी को रिश्वत देकर अपनी ओर कर लिया है। जादी के इन प्रेम-प्रदर्शनों से छुटकारा पाने के लिए और इस विचार से कि जादी मेरे चुप रहने का यह अर्थ न समझे कि मैं उसके प्रेम को स्वीकार करने के लिए तैयार हूँ, उस युवती ने निम्नलिखित पन्न उत्तर में भेजा-

“मिरजा ईमानदार, परिश्रमी और प्रतिष्ठित माता-पिता की लड़की है। उसके माता-पिता ने अपनी आँखों के सामने उसे समस्त आवश्यक सद्गुणों की शिक्षा दी है। मिरजा जादी के पूर्वीय, अत्युक्तिपूर्ण पत्र का उत्तर देने का कष्ट न उठाती, चाहे जादी का पद कितना भी उच्च क्यों न हो; किन्तु मिरजा को यह विश्वास न हुआ कि जादी मिरजा के उत्तर न देने का यह अर्थ समझ लेगा या नहीं कि मिरजा जादी के प्रेम-प्रदर्शन और धृष्टता को घृणा की दृष्टि से देखती है। मिरजा को इस बात की कोई आकाँक्षा नहीं है कि वह अपने पिता की जीविका, अर्थात् वाणिज्य-व्यापार से बढ़कर इस तरह के किसी नीच काम की ओर जाय। मिरजा उस धन के प्रलोभनों को घृणित समझती है, जो धन दूसरों को लूटकर और बर्बाद करके कमाया गया हो, विशेषकर जबकि वह धन निर्दोष स्त्रियों को बहकाने और उनके निष्कलंक चरित्र को कलंकित करने के लिए काम में लाया जाय। यदि जादी की क्रियात्मक बुद्धि और उसका युद्ध-कौशल अब लड़ाई के मैदान में और अधिक नहीं चमक सकता, तो उसे चाहिए कि शान्ति के उद्योगों को उन्नति दे और शान्ति से शासन करके करोड़ों दुखित जनता को फिर से शान्ति और समृद्धि प्रदान करे। सच्चे वीर वास्तव में वे हैं, जो मनुष्य जाति के मित्र हैं, उसके नाशक नहीं। यदि जादी वर्तमान मानव-समाज और उसकी भावी सन्तति की दृष्टि में उनका मित्र दिखाई देना चाहता है, तो मेरी राय में उसे चाहिए कि वह अपने उन कृत्यों का इतिहास, जिनकी वह डींग हाँकता है, अपने हाथ से लिखे। कायर देशी नरेशों को वश में किया गया, उन्हें धोखा दिया गया और अन्याय द्वारा उन्हें गद्दी से उतार दिया गया। निर्दय लुटेरों ने उनकी दुखित प्रजा को सताया। अब चाहिए कि उनके देश की जिन पैदावारों पर गैरों ने अपना अनन्य अधिकार जमा लिया है, वे फिर से देशवासियों को दे दी जायें। मिरजा जादी के उन सब भयंकर कृत्यों को दुहराने का प्रयत्न न करेगी, जिनमें कि जन संहार, बर्बादी, एक अन्यायी को गद्दी से उतारकर उसकी जगह दूसरे अन्यायी को गद्दी पर बैठाना इत्यादि शामिल हैं। समय ही इस बात को साबित कर सकेगा कि योरोप और एशिया में जादी की कीर्ति न्याय द्वारा, प्राप्त की गई है, अथवा अन्याय द्वारा, और जादी के संग्राम मानव-जाति के अधिकारों का समर्थन करने के लिए लड़े गए हैं अथवा अपनी धन-पिपासा और महत्त्वाकांक्षा को शान्त करने के लिए। रही उपाधियों और सम्मान की बात, सो ये चीजें इतनी अधिक बार अयोग्य मनुष्यों को प्रदान की जाती हैं कि उन्हें सच्ची योग्यता और न्यायपरता का पारितोषिक नहीं कहा जा सकता। जादी को चाहिए कि वह निःस्वार्थ सेवा और दयालुता द्वारा भारतवासियों को इस बात का विश्वास दिलावे कि वह उनको दुःख देने के लिए नहीं, बल्कि उनकी रक्षा करने के लिए आया था। यदि भारतवासी क्षणिक शान्ति का सुख भोग रहे हैं, तो उसके साथ ही वे न्याय-विरुद्ध लूट-खसोट और दुष्काल के भयंकर कष्टों का भी अनुभव कर रहे हैं। जादी को चाहिए कि वह अपनी विजयों की छाया में स्वयं ही आनन्द से बैठे और प्रतिष्ठित घरानों को अपमानित और कलंकित करने का विचार न करे। सच्चा और हार्दिक प्रेम वास्तव में उच्च आत्माओं की एक वासना है, किन्तु वह पाशविक वासना नहीं, जोकि निर्दोष और सच्चरित्र लोगों को चरित्र-भ्रष्ट करने का अपने को अधिकारी समझती है। मिरजा चाहती है कि जादी पूर्ववत् आनंद से रहे और फिर कभी इस तरह एक व्यक्ति का अपमान न करे, जो अपने सदाचार के लिए जादी के आदर का पात्र है। जादी के धन और उसकी शान से चकाचौंध हो जाना वेश्याओं का काम है, मिरजा को जादी और उसके प्रेम-प्रदर्शन से हार्दिक घृणा है।”

इस उत्तर ने क्लाइव के पत्र-व्यवहार को समाप्त कर दिया। फिर कभी उसने उस महिला को पत्र लिखने का साहस नहीं किया।

उन्नीस 

सर जॉन केमार तीसरे अंग्रेज-गवर्नर थे। उन्होंने अवध के नवाब की पुरानी संधि को तोड़ डाला, और नवाब पर जोर दिया कि आप साढ़े पाँच लाख रुपया सालाना खर्च पर एक अंग्रेजी पल्टन अपने यहाँ और रखें। नवाब ‘सबसीडियरी सेना’ के लिए पचास लाख रुपया सालाना प्रथम ही देता था। उसने इससे इन्कार कर दिया। तब अंग्रेजों ने जबर्दस्ती वजीर झाऊलाल को पकड़कर कैद कर लिया। पीछे जब सर जॉन शोर लखनऊ पहुंचे तो नई फौज का खर्चा नवाब के सिर मढ़ दिया गया।

इस धींगा-मुश्ती से नवाब के दिल को सदमा पहुँचा। वह बीमार हो गया और दवा खाने से भी इन्कार कर दिया। इसी रोग में उसकी मृत्यु हो गई।

उसने 23 वर्ष राज्य करके शरीर त्यागा। उसकी वसीयत पर मिरजा वजीरअली गद्दी पर बैठे। पर उन्होंने एक ही वर्ष में सबको नाराज कर दिया। अंत में ईस्ट-इण्डिया कम्पनी ने उन्हें बनारस में नजरबन्द कर दिया। वहाँ उन्होंने विद्रोह की तैयारियां कीं, तो अंग्रेजों ने उन्हें कलकत्ता बुलाया।

जब रेजीडेण्ट मि० चोरी उन्हें यह संदेश देने गये, तो बात बढ़ चली और नवाब ने अपनी तलवार निकालकर चोरी साहब को कत्ल कर दिया। मेम साहब भागकर बच गईं।

कत्ल करने के बाद मिरजा नेपाल के जंगलों में भेष बदले मुद्दत तक फिरते रहे। अंत में नगर के राजा के विश्वासघात से गिरफ्तार किये गये, और लखनऊ में उन पर कत्ल का मुकद्दमा चला। पर कोई गवाह न मिलने से फाँसी से बच गये। इसके बाद उन्हें दुबारा कलकत्ते में कैद कर लिया गया, जहाँ वह 26 वर्ष की आयु में मृत्यु को प्राप्त हुए।

इनके बाद नवाब आसफउद्दौला के भाई सआदतअलीखाँ गद्दीनशीन हुए। उस समय उनकी उम्र 60 वर्ष की थी। वे बड़े बुद्धिमान, दूरदर्शी, ईमानदार और योग्य शासक थे। पर, लोग उन्हें कंजूस कहा करते थे; क्योंकि वे आसफउद्दौला की भांति शाह-खर्च न थे। परन्तु खर्च की जगह पीछे न हटते थे। वे अंग्रेज-सरकार के बड़े भक्त थे; क्योंकि उन्हें अंग्रेज सरकार ने ही गद्दीनशीन किया था।

कम्पनी सरकार को कुल मिलाकर एक करोड़ रुपये से ऊपर तथा इलाहाबाद का किला एक वर्ष ही के अन्दर मिल गया। एक शर्त यह भी थी कि सिवा कम्पनी के आदमियों के अन्य कोई भी यूरोपियन अवध-राज्य में न रहने पाये।

इसके बाद जब लार्ड वेलेजली गवर्नर होकर आये, तब उन्होंने दो वर्ष ही यह सन्धि तोड़ दी। उसने नवाब को अपनी सेना में कुछ संशोधन करने की भी अनुमति दी। उस संशोधन का अभिप्राय यह था कि मालगुजारी की वसूली आदि के लिये जितनी सेना दरकार हो, उसे छोड़कर शेष सब सेना तोड़ दी जाय, और उसके स्थान पर कम्पनी के प्रबन्ध और नवाब के नाम से कुछ ऐसी सेनाएँ रखी जायें जिनका खर्च 75 लाख रुपये सालाना हो।

नवाब ने इसके उत्तर में एक तर्क-पूर्ण और कड़ा उत्तर लिखा, और अंग्रेज-सरकार को इस प्रकार हस्तक्षेप करने के लिये मीठी फटकार दी।

इस पत्र को लॉर्ड वेलेजली ने तिरस्कारपूर्वक वापिस कर दिया और नवाब को लिख दिया कि कुछ पेन्शन सालाना लेकर सल्तनत से हट जाओ, या जो पल्टने नई आ रही हैं, उनके खर्च के लिए आधा राज्य कम्पनी के हवाले करो।

ये पलटनें भेज दी गईं, और रेजीडेण्ट को लिख दिया गया, कि यदि नवाब चीं-चपड़ करे, तो सेना-द्वारा राज्य पर कब्जा कर लो। वेलेजली ने यह भी स्पष्ट लिख दिया कि नवाब की सैनिक-शक्ति खत्म कर दी जाय, और अवध की सारी सल्तनत के दीवानी और फौजदारी अधिकार कम्पनी के हो जायें।

नवाब ने बहुत चिल्ल-पों मचाई, पर नतीजा कुछ न हुआ, और नवाब को अपनी सल्तनत का आधा भाग, जिसकी आय एक करोड़ पैंतीस लाख रुपये सालाना थी, और जिससे वर्तमान उत्तर प्रदेश की बुनियाद पड़ी, सदा के लिये कम्पनी को सौंप देने पड़े।

इसके कुछ दिन बाद ही फर्रुखाबाद के नवाब को, जो अवध का सूबा था, एक लाख आठ हजार रुपया सालाना पेन्शन देकर गद्दी से उतार दिया गया।

सआदतअली में एक दुर्गुण भी था। वह शराबी और विलासी थे। पर पीछे से तौबा कर ली थी। उन्होंने लखनऊ में बहुत-सी सुन्दर इमारतें बनवाई। वह लखनऊ को एक खूबसूरत शहर की शक्ल में देखना चाहते थे। उन्होंने बहुत-से मुहल्ले और बाजार भी बनवाये।

उनकी मृत्यु पर उनके बड़े बेटे नवाब गाजीउद्दीन हैदर गद्दी पर बैठे। अवध का नवाब दिल्ली मुगल सम्राट् की आधीनता में एक सूबेदार और मुगल दरबार का वजीर होता था, परन्तु वारेन हेस्टिग्स ने लखनऊ में दरबार करके नवाब गाजीउद्दीन हैदर को बाजाब्ता ‘बादशाह’ घोषित किया और उसकी दिल्ली दरबार की आधीनता समाप्त कर दी। बादशाही पदवी प्राप्त करके उन्होंने अपना नाम ‘अबुल मुजफ्फर मुहउद्दीन शाह जिमनगाजीउद्दीन हैदर बादशाह’ रखा। उन्होंने अपने नाम का सिक्का भी चलाया। परन्तु स्वतन्त्र बादशाह बनकर न नवाब के अधिकार बढ़े, न स्वतन्त्रता। यह केवल एक हास्यास्पद प्रहसन था।

वह भी उदार, साहित्यिक और गुणग्राही बादशाह थे। मिरजा मुहम्मदजॉनवी किरमाली उनके दरबारी थे। उर्दू के प्रसिद्ध कवि आतिश और वासिख उन्हीं के जमाने में थे। ईद के अवसर पर कवियों को बहुत इनाम मिलता था। उस समय के प्रसिद्ध गवैये रजकअली और फजलअली का भी दरबार में पूरा मान था। वे दोनों ‘ख्याल’ गाने में अपनी सानी नहीं रखते थे। एक दक्षिणी वेश्या का भी उनके यहाँ बहुत मान था।

उनके प्रधानमन्त्री नवाब मोतमिउद्दौला आगा मीर थे जो बड़े बुद्धिमान् थे। उन्होंने राज्य की बड़ी उन्नति की। खजाना रुपयों से भरपूर रहा। करोड़ों रुपये ईस्ट इण्डिया कम्पनी को कर्जा देते रहे।

बादशाह की प्रधान बेगम बादशाह-बेगम कहलाती थीं, और बड़े ठाठ से अलग महल में रहती थीं। उनसे किसी बात पर बादशाह की खटक गई थी। बेगम ने भी कई अच्छी इमारतें बनवाई। प्रसिद्ध शाह नजफा बेगम ने ही बनवाया था। गोमती नदी पर लोहे का पुल विलायत से बनवाकर मँगवाया था, पर बेगम उसे तैयार न करा सकीं। बीच में ही उनकी मृत्यु हो गई।

उस जमाने में कम्पनी की आर्थिक स्थिति बहुत ही नाजुक थी। उसकी हुण्डियों की दर बाजार में बारह फीसदी बट्टे पर निकलती थी। उन दिनों मेजर बेली लखनऊ में रेजीडेण्ट थे, जिनके बुरे व्यवहार से नवाब तंग आ गये थे। नवाब ने गवर्नर से इनकी शिकायतें की। गवर्नर लखनऊ आये, पर नतीजा उल्टा हुआ।

नवाब मेजर बेली के उद्धत प्रभुत्व के नीचे हर घण्टे आहें भरता था। उसे आशा थी कि गवर्नर उसे इस अन्याय से छुटकारा दिला देंगे। किन्तु उसने तो मेजर बेली का प्रभुत्व और भी पक्का कर दिया। मेजर बेली छोटी-से-छोटी बातों पर नवाब पर हुकूमत चलाता था। जब कभी मेजर बेली को नवांब से कुछ कहना होता था, वह चाहे जब बिना सूचना दिये महल में जा धमकता था। उसने अपने आदमियों को बड़ी-बड़ी तनख्वाहों पर नवाब के यहाँ लगा रखा था, जो जासूसी का काम करते थे। मेजर बेली जिस हाकिमाना शान के साथ हमेशा नवाब से बातें करता था, उसके कारण नवाब कुटुम्बियों और प्रजा की नजरों में गिर गया था।

इस यात्रा में गवर्नर ने नवाब से ढाई करोड़ रुपये नकद नेपाल युद्ध के खर्च के लिये वसूल किये। इसके बदले नेपाल से मिली भूमि का एक टुकड़ा नवाब को दिया गया था, जो वास्तव में लगभग बंजर था।

गाजीउद्दीन के बाद ज्येष्ठ पुत्र गाजी नसीरुद्दीन हैदर गद्दी पर बैठे। उन्होंने अपना नाम अबदुलबसर कुतुबुद्दीन सुलेमान जाह नसीरुद्दीन हैदर बादशाह रखा। वह पच्चीस वर्ष के युवक थे। उन्होंने गद्दी पर बैठते ही पिता के वजीर को बर्खास्त करके एक पीलवान को वजीर बनाया और एतमुद्दौला का खिताब दिया, पर वह वजीर शीघ्र ही मर गया। तब नवाब मुत्तजिमुद्दौला हकीम ऐहदीअली खाँ वजीर हुए। उन्होंने एक अस्पताल और एक खैरातखाना तथा एक लीथो छापाखाना खुलवाया। एक अंग्रेजी स्कूल भी खुला।

नसीरुद्दीन बड़े ऐयाश थे। इनके महल में कई यूरोपियन लेडियाँ थीं। छतरमंजिल उन्होंने ही बनवाई थी और भी बहुत-सी कोठियाँ बनवाई।

उन्होंने कर्नल बिलकान्स की आधीनता में एक वेधशाला भी बनवाई, जो 1857 के विद्रोह में नष्ट हो गई।

उनके जमाने में गवर्नर लार्ड बैटिंग थे। उन्होंने अवध के दौरे में नवाब बादशाह को खूब डरा-धमकाकर राज्य में बहुत-से उलट-फेर किये। यह अफवाह फैल गई थी कि अंग्रेज अब नवाबी का अन्त किया चाहते हैं। नवाब ने घबराकर इंगलिस्तान की पार्लियामेण्ट में अपील करने के इरादे से कर्नल यूनाक नामक फ्रान्सीसी को इंगलैंड भेजा। पर बैटिंग ने नवाब को डरा- धमकाकर बीच ही में उसकी बर्खास्तगी का परवाना भिजवा दिया। उन्होंने दस वर्ष राज्य किया।

उनके बाद बादशाह की वेश्या का पुत्र मुन्नाजान गद्दी पर बैठा। पर नसीरुद्दीन की माता ने उसका भारी विरोध कर, उसे गद्दी से उतरवाया। कुछ खून-खराबी भी हुई। अन्त में उसे चुनार में कैद कर लिया गया। उसके बाद नवाब सआदतअलीखाँ के द्वितीय पुत्र मिरजा मुहम्मदअली गद्दी पर बैठे। वह विद्या-व्यसनी और शान्त पुरुष थे। हुसेनाबाद का इमामबाड़ा उन्होंने बनवाया था। उन्होंने पाँच वर्ष राज्य किया।

इनके बाद मिरजा मुहम्मद अमजदअलीखाँ गद्दी पर बैठे। वह शाह मुहम्मदअली के बेटे थे। वह भी 5 वर्ष राज्य कर, मृत्यु को प्राप्त हुए।

उनके बाद प्रसिद्ध और अन्तिम बादशाह बाजिदअली शाह 25 वर्ष की आयु में गद्दी पर बैठे। वह बड़े शौकीन, नाजुक मिजाज और विनोद-प्रिय थे। उन्होंने नये फैशन के अँगरखे, कुरते, टोपी ईजाद किये। ठुमरी भी उन्हीं की ईजाद है। उनके जीवन में 24 घण्टे नाच-गाने का रंग रहता। स्वयं भी नाच-गाने में उस्ताद थे। सिकन्दरबाग, कैसरबाग आदि इमारतें उन्हीं की बनवाई हुई हैं।

लार्ड डलहौजी ने भारत के गवर्नर जनरल बनकर आते ही देसी रिया-सतों को समेटकर अंग्रेजों के कदमों में ला पटका। सबकी स्वतन्त्र सत्ता नष्ट करके उन्हें अंग्रेजों के आधीन बना दिया। अवध भी उसकी दृष्टि सेनहीं बचा। लार्ड डलहौजी के पिता, जब वे कम्पनी की भारतीय सेना के कमाण्डर इन चीफ थे, अपनी पत्नी सहित लखनऊ आए और नवाब से भेंट की। उन्होंने अपनी पत्नी का परिचय नवाब से कराया और देर तक पत्नी की बढ़ाईयों की चर्चा करता रहा। नवाब उस समय हल्के सरूर में थे, उन्होंने समझा कि यह अंग्रेज इस अंग्रेज औरत को बेचना चाहता है। नवाब ने तंग आकर अपने खिदमतगार से कहा-“बहुत हुआ, इस औरत को भगाओ।”

डलहौजी के पिता इसे अपना अपमान समझकर लौट आए। लार्ड डलहौजी अपने पिता के उस अपमान का बदला लेने के लिए हैदराबाद और बरार को हड़पकर अवध की ओर बढ़े।

वाजिदअली शाह युवा, उत्साही और बुद्धिमान शासक। उन्होंने अंग्रेजों की नीयत समझकर अपनी सेना को संगठित करना आरम्भ किया। वे नित्य ही परेड कराने लगे। लखनऊ दरबार की सारी पलटन प्रतिदिन सूर्योदय से पहले ही परेड-भूमि में एकत्र हो जाती। वाजिदअली भी फौजी वरदी पहनकर घोड़े पर सवार पहुँच जाते और दोपहर तक कवायद कराते। परेड में सैनिक की अनुपस्थिति अथवा विलम्ब उन्हें सहन नहीं था। उस पर भारी जुर्माना किया जाता था।

डलहौजी ने वाजिदअली को इस प्रकार की सैनिक व्यवस्था करने से मना किया। नवाब ने उसकी बात पर ध्यान न देकर अपना कार्य जारी रखा। परन्तु अन्त में डलहौजी की बात उन्हें माननी पड़ी। और वे निराश होकर दिन-रात महलों में पड़े रहने लगे।

महलों में सुन्दरी सुरा ने उनके खाली वक्त को पूरा किया। युवक हृदय की देश-भावना विषय-वासना में बदल गई।

लार्ड डलहौजी ने गवर्नर होते ही घोषणा कर दी कि नवाब शासन के योग्य नहीं, अतः अवध की सल्तनत कम्पनी के राज्य में मिला ली जाय। गवर्नर के हुक्म से रेजीडेण्ट उटरम महल में वह परवाना लेकर गया और उस पर नवाब को दस्तखत करने को कहा। नवाब ने इससे बिल्कुल इन्कार कर दिया। धमकी और प्रलोभन भी दिये गये। तीन दिन गुजर गये, पर नवाब ने दस्तखत करना स्वीकार न किया।

अंग्रेजों ने भेदनीति से काम लिया और नवाब के खिदमतगारों और मित्रों को लालच और भय से अपनी ओर किया। जब नवाब सुखसागर में डूब चुके तब उन्हें पकड़ने का जाल फैला दिया गया, जिसकी कल्पना भी नवाब ने नहीं की थी। अवध को हड़पने का उनका स्वप्न पूरा होने वाला था। उटरम ने नवाब के अंतरंग मित्रों की सहायता लेकर उन्हें कैद करने का दूसरा उपाय किया।

लखनऊ के अमीनाबाद पार्क में इस समय जहाँ घंटाघर है, वहाँ अब से सौ वर्ष पूर्व एक छोटी-सी टूटी हुई मस्जिद थी, जो भूतोंवाली मस्जिद कहलाती थी, और अब जहाँ वालाजी का मन्दिर है, वहाँ एक छोटा-सा कच्चा एकमंजिला घर था। चारों तरफ न आज की सी बहार थी न बिजली की चमक, न बढ़िया सड़कें, न मोटर, न मेम साहबाओं का इतना जमघट।

वाजिदअली शाह की ऐयाशी और ठाठ-बाट के दौरदौरे थे। मगर इस मुहल्ले में रौनक न थी। उस घर में एक टूटी-सी कोठरी में एक बुढ़िया-मनहूस सूरत, सन के समान बालों को बखेरे बैठी किसी की प्रतीक्षा कर रही थी। घर में एक दीया धीमी आभा से टिमटिमा रहा था। रात के दस बज गए थे, जाड़ों के दिन थे; सभी लोग अपने-अपने घरों में रजाइयों में मुँह लपेटे पड़े थे। गली और सड़क पर सन्नाटा था।

धीरे-धीरे बढ़िया वस्त्रों से आच्छादित एक पालकी इस टूटे घर के द्वार पर चुपचाप आ लगी, और काले वस्त्रों से आच्छादित एक स्त्री-मूर्ति ने पालकी से बाहर निकलकर धीरे-से द्वार पर थपकी दी। तत्काल द्वार खुला और स्त्री ने घर में प्रवेश किया।

बुढ़िया ने कहा-“खैर तो है?”

“सब ठीक है; क्या मौलवी साहब मौके पर मौजूद हैं?”

“कब के इंतजारी कर रहें हैं, कुछ ज्यादा जाफिशानी तो नहीं उठानी पड़ी?”

“जाफिशानी? खुश, जान पर खेलकर लाई हूँ। करती भी क्या, गर्दन थोड़े ही उतरवानी थी?”

“होश में तो है?”

“अभी बेहोश है। किसी तरह राजी न होती थी। मजबूरन यह किया गया।”

“तब चलो।”

बुढ़िया उठी। दोनों पालकी में जा बैठीं। पालकी संकेत पर चलकर मस्जिद की सीढ़ियाँ चढ़ती हुई भीतर चली गई।

मस्जिद में सन्नाटा और अंधकार था, मानो वहाँ कोई जीवित पुरुष नहीं है। पालकी के आरोहियों को इसकी परवाह न थी। पालकी को सीधे मस्जिद के भीतरी भाग में एक कक्ष में ले गए। यहाँ पालकी रखी। बुढ़िया ने बाहर आकर बगल की कोठरी में प्रवेश किया। वहाँ एक आदमी सिर से पैर तक चादर ओढ़े सो रहा था।

बुढ़िया ने कहा-“उठिए मौलवी साहब, मुरादों को तावीज इनायत कीजिए क्या अभी बुखार नहीं उतरा?”

“अभी तो चढ़ा ही है,” कहकर मौलवी साहब उठ बैठे। बुढ़िया ने कुछ कान में कहा-मौलवी साहब सफेद दाढ़ी हिलाकर बोले-समझ गया, कुछ खटका नहीं। हैदर खोजा मौके पर रोशनी लिए हाजिर मिलेगा। मगर तुम लोग बेहोशी की हालत में उसे किस तरह–

“आप बेफिक्र रहें। बस, सुरंग की चाबी इनायत करें।”

मौलवी साहब ने उठकर मस्जिद के बाईं ओर के चबूतरे के पीछे वाले भाग में जाकर एक कब्र का पत्थर किसी तरकीब से हटा दिया। वहाँ सीढ़ियाँ निकल आई। बुढ़िया उसी तंग तहखाने के रास्ते उसी काले वस्त्र से आच्छादित लम्बी स्त्री के सहारे एक बेहोश स्त्री को नीचे उतारने लगी। उनके चले जाने पर मौलवी साहब ने गौर से इधर-उधर देखा, और फिर किसी गुप्त तरकीब से तहखाने का द्वार बंद कर दिया। तहखाना फिर कब्र बन गया।

चार हजार फानूसों में काफूरी बत्तियाँ जल रही थीं, और कमरे की दीवार गुलाबी साटन के पर्दो से छिप रही थी। फर्श पर ईरानी कालीन बिछा था, जिस पर निहायत नफीस और खुशरंग काम बना हुआ था। कमरा खूब लम्बा-चौड़ा था। उसमें तरह-तरह के ताजे फूलों के गुलदस्ते सजे हुए थे और हिना की तेज महक से कमरा महक रहा था। कमरे के एक बाजू में मखमल का बालिश्त-भर ऊँचा गद्दा बिछा था, जिस पर कारचौबी का उभरा हुआ बहुत ही खुशनुमा काम था। उस पर एक बड़ी-सी मसनद लगी थी, जिस पर सुहरी खंभों पर मोती की झालर का चंदौबा तना था।

मसनद पर एक बलिष्ठ पुरुष उत्सुकता से, किन्तु अलसाया बैठा था। इसके वस्त्र अस्त-व्यस्त थे। इसका मोती के समान उज्ज्वल रंग, कामदेव को मात करने वाला प्रदीप्त सौंदर्य, झब्बेदार मूंछे, रसभरी आँखें और मदिरा से प्रस्फुरित होंठ कुछ और ही समा बना रहे थे। सामने पानदान में सुनहरी गिलौरियाँ भरी थीं। इत्रदान में शीशियाँ लुढ़क रही थीं। शराब की प्याली और सुराही क्षण-क्षण पर खाली हो रही थी। वह सुगंधित मदिरा मानो उसके उज्ज्वल रंगपरसुनहरी निखार ला रही थी। उसके कंठ में पन्ने का एक बड़ा-सा कंठा पड़ा था और उँगलियों में हीरे की अंगूठियाँ

बिजली की तरह दमक रही थीं। यही लाखों में दर्शनीय पुरुष लखनऊ के प्रख्यात नवाब वाजिदअलीशाह थे।

कमरे में कोई न था। वे बड़ी आतुरता से किसी की प्रतीक्षा कर रहे थे। यह आतुरता क्षण-क्षण बढ़ रही थी। एकाएक एक खटका हुआ। बादशाह ने ताली बजाई और वही लंबी स्त्री-मूर्ति, सिर से पैर तक काले वस्त्रों से शरीर को लपेटे, मानो दीवार फाड़कर आ उपस्थित हुई।

“ओह मेरी गबरू! तुमने तो इंतजारी ही में मार डाला। क्या गिलौरियाँ लाई हो?”

“मैं हुजूर पर कुर्बान।” इतना कहकर उसने वह काला लबादा उतार डाला। उफ, गजब! उस काले आवेष्ठन में मानो सूर्य का तेज छिप रहा था। कमरा चमक उठा। बहुत बढ़िया चमकीले विलायती साटन की पोशाक पहने एक सौंदर्य की प्रतिमा इस तरह निकल आई, जैसे राख के ढेर में से अंगार। इस अग्नि-सौंदर्य की रूप-रेखा कैसे बयान की जाए? इस अंग्रेजी राज्य और अंग्रेजी सभ्यता में जहाँ क्षणभर चमककर बादलों में विलीन हो जाने वाली बिजली सड़क पर अयाचित ढेरों प्रकाश बिखेरती रहती है, इस रूप-ज्वाला की उपमा कहाँ ढूंढी जाए? उस अंधकारमय रात्रि में यदि उसे खड़ा कर दिया जाए तो वह कसौटी पर स्वर्ण-रेखा की तरह दिप उठे; और यदि वह दिन के ज्वलंत प्रकाश में खड़ी कर दी जाए तो उसे देखने का साहस कौन करे? किन आँखों में इतना तेज है?

उस सुगंधित और मधुर प्रकाश में मदिरा-रंजित नेत्रों से उस रूप-ज्वाला को देखते ही वाजिदअली की वासना भड़क उठी। उन्होंने कहा-“रूपा, नजदीक आयो। एक प्याली शीराजी और अपनी लगाई हुई अंबरी पान की बीड़ियाँ दो तो। तुमने तो तरसा-तरसा कर ही मार डाला।”

रूपा आगे बढ़ी, सुराही से शराब उड़ेली और जमीन में घुटने टेककर आगे बढ़ा दी। इसके बाद उसने चार सोने के वर्क-लपेटी बीड़ियाँ निकालकर बादशाह के सामने पेश की और दस्तबस्ता अर्ज की-“हुजूर की खिदमत में लौंडी वह तोहफा ले आई है।”

वाजिदअली शाह की बाँछें, खिल गईं। उन्होंने रूपा को घूरकर कहा-“वाह! तब तो आज…।” रूपा ने संकेत किया। हैदर खोजा उस फूल-सी मुरझाई-कुसुमकली को फूल की तरह हाथों पर उठाकर, पान-गिलौरी की तश्तरी की तरह बादशाह के रूबरू कालीन पर डाल गया। रूपा ने बाँकी अदा से कहा-“हुजूर, को आदाब”। और चल दी।

एक चौदह वर्ष की भयभीत, मूर्छित, असहाय कुमारी बालिका अकस्मात् आँख खुलने पर सम्मुख शाही ठाठ से सजे हुए महल और दैत्य के समान नरपशु को पाप-वासना से प्रमत्त देखकर क्या समझेगी? कौन अब इस भयानक क्षण की कल्पना करे। पर वही क्षण होश में आते ही उस बालिका के सामने आया। वह एकदम चीत्कार करके फिर बेहोश हो गई। पर इस बार शीघ्र ही उसकी मूर्छा दूर हो गई। एक अतयं साहस, जो ऐसी अवस्था में प्रत्येक जीवित प्राणी में हो जाता है, बालिका के शरीर में भी उदय हो आया। वह सिमटकर बैठ गई, और पागल की तरह चारों तरफ एक दृष्टि डालकर एकटक उस मत्त पुरुष की ओर देखने लगी।

उस भयानक क्षण में भी उस विशाल पुरुष का सौन्दर्य और प्रभा देख कर उसे कुछ साहस हुआ। वह बोली तो नहीं, पर कुछ स्वस्थ होने लगी।

नवाब जोर से हँस दिए। उन्होंने गले का वह बहुमूल्य कंठा उतारकर बालिका की ओर फेंक दिया। इसके बाद वे नेत्रों के तीर निरन्तर फेंकते रहे।

बालिका ने कंठा देखा भी नहीं, छुआ भी नहीं। वह वैसी ही सिकुड़ी हुई, वैसी ही निनिमेष दृष्टि से भयभीत हुई नवाब को देखती रही।

नवाब ने दस्तक दी। दो बाँदियाँ दस्तबस्ता आ हाजिर हुईं। नवाब ने हुक्म दिया, इसे गुस्ल कराकर और सब्जपरी बनाकर हाजिर करो। उस पुरुष-पाषाण की अपेक्षा स्त्रियों का संसर्ग गनीमत जानकर बालिका मंत्र-मुग्ध-सी उठकर उनके साथ चली गई।

इसी समय एक खोजे ने आकर अर्ज की-“खुदावंद! रेजीडेंट उटरम साहब बहादुर बड़ी देर से हाजिर हैं।”

“उनसे कह दो, अभी मुलाक़ात नहीं होगी।”

“आलीजाह! कलकत्ता से एक जरूरी..

“दूर हो मुर्दार।”

खोजा चला गया।

लखनऊ के खास चौकबाजार की बहार देखने योग्य थी। शाम हो चली थी, और छिड़काव हो गया था। इक्कों और बहलियों, पालकियों और घोड़ों का अजीब जमघट था। आज तो उजड़े अमीनाबाद का रंग ही कुछ और है। तब यही रौनक चौक को प्राप्त थी। बीच चौक में रूपा की पानों की दुकान थी। फानूसों और रंगीन झाड़ों से जगमगाती गुलाबी रोशनी के बीच, स्वच्छ बोतल में मदिरा की तरह, रूपा दुकान पर बैठी थी। दो निहायत हसीन लौंडियाँ पान की गिलौरियाँ बनाकर उनमें सोने के वर्क लपेट रही थीं। बीच-बीच में अठखेलियाँ भी कर रही थीं। आजकल के कलकत्ता-दिल्ली के रंगमंचों पर भी ऐसा मोहक और आकर्षक दृश्य नहीं देख पड़ता, जैसा उस समय रूपा की दुकान पर था। ग्राहकों की भीड़ का पार न था। रूपा खास-खास ग्राहकों का स्वागत कर पान दे रही थी। बदले में खनाखन अफियों से उसकी गंगा-जमनी काम की तश्तरी भर रही थी। वे अफियाँ रूपा की एक अदा, एक मुस्कराहट-केवल एक कटाक्ष का मोल थीं। पान गिलौरियाँ तो लोगों को घाटे में पड़ती थीं। एक नाजुकअंदाज नवाबजादे तामजाम में बैठे अपने मुसाहबों और कहारों के झुरमुट के साथ आए और रूपा की दुकान पर तामजाम रोका।

रूपा ने सलाम करके कहा-मैं सदके शाहजादा साहब, जरी बाँदी की एक गिलौरी कुबूल फरमायें।

रूपा ने लौंडी की तरफ इशारा किया। लौंडी सहमती हुई, सोने की रकाबी में पाँच-सात गिलौरियाँ लेकर तामजाम तक गई। शहजादे ने मुस्कराकर दो गिलौरियाँ उठाईं, और एक मुट्ठी अफियाँ तश्तरी में डाल कर आगे बढ़े।

एक खाँ साहब बालों में मेंहदी लगाए, दिल्ली के वसली के जूते पहने, तनजेब की चमकन कसे, सिर पर लसदार ऊँची टोपी लगाए आए। रूपा ने बड़े तपाक से कहा-अख्खा खाँ साहब। आज तो हुजूर रास्ता भूल गए। अरे कोई है, आपको बैठने को जगह हो। अरी, गिलौरियाँ तो लाओ।

खाँ साहब रूपा के रूप की तरह चुपचाप गिलौरियों के रस का घूँट पीने लगे।

थोड़ी देर में एक अधेड़ मुसलमान अमीरजादे की शक्ल में आए। उन्हें देखते ही रूपा ने कहा-अरे हुजूर तशरीफ ला रहे हैं। मेरे सरकार। आप तो ईद के चाँद हो गए। कहिए, खैराफियत है? अरी मिर्जा साहब को गिलौरियाँ दी?

तश्तरी में खनाखन हो रही थी, और रूपा का रूप और पान की हाट खूब गरमा रही थी। ज्यों-ज्यों अंधकार बढ़ता जाता था, त्यों-त्यों रूपा पर रूप की दुपहरी चढ़ रही थी। धीरे-धीरे एक पहर रात बीत गई। ग्राहकों की भीड़ कुछ कम हुई। रूपा अब सिर्फ कुछ चुने हुए प्रेमी ग्राहकों से घुल-घुल कर बातें कर रही थी। धीरे-धीरे एक अजनबी आदमी दुकान पर आकर खड़ा हो गया। रूपा ने अप्रतिभ होकर पूछा–

“आपको क्या चाहिए?”

“आपके पास क्या-क्या मिलता है?”

“बहुत-सी चीजें। क्या पान खाइएगा?”

“क्या हर्ज है।

रूपा के संकेत से दासी बालिका ने पान की तश्तरी अजनबी के आगे धर दी।

दो बीड़ियाँ हाथ में लेते हुए उसने कहा-“इनकी कीमत क्या है बी साहबा।”

“जो कुछ जनाब दे सकें।”

“यह बात है? तब ठीक, जो कुछ मैं लेना चाहूँ वह लूँगा भी।” अजनबी हँसा नहीं। उसने भेदभरी दृष्टि से रूपा को देखा।

रूपा की भृकुटी जरा टेढ़ी पड़ी, और वह एक बार अजनबी को तीव्र दृष्टि से देखकर फिर अपने मित्रों के साथ बातचीत में लग गई। पर बात-चीत का रंग जमा नहीं। धीरे-धीरे मित्रगण उठ गए। रूपा ने एकांत पाकर कहा-

“क्या हुजूर को मुझसे कोई खास काम है?”

“मेरा तो नहीं, मगर कम्पनी बहादुर का है।”

रूपा काँप उठी। वह बोली-“कम्पनी बहादुर का क्या हुक्म है?”

“भीतर चलो तो कहा जाए।”

“मगर माफ कीजिए -आप पर यकीन कैसे…?”

“ओह। समझ गया। बड़े साहब की यह चीज तो तुम शायद पहचानती ही होगी?”

यह कहकर उन्होंने एक अंगूठी रूपा को दूर से दिखा दी।

“समझ गई। आप अन्दर तशरीफ लाइए।”

रूपा ने एक दासी को अपने स्थान पर बैठाकर अजनबी के साथ दुकान के भीतर कक्ष में प्रवेश किया।

दोनों व्यक्तियों में क्या-क्या बातें हुईं यह तो हम नहीं जानते, मगर उसके ठीक तीन घंटे बाद दो व्यक्ति काला लबादा ओढ़े दुकान से निकले, और किनारे लगी हुई पालकी में बैठ गए। पालकी धीरे-धीरे उसी भूतों-वाली मस्जिद में पहुँची। उसी प्रकार मौलवी ने कब्र का पत्थर हटाया, और एक मूर्ति ने कब्र के तहखाने में प्रवेश किया। दूसरे व्यक्ति ने एकाएक मौलवी को पटककर मुश्क बाँध लीं, और एक संकेत किया। क्षणभर में पचास सुसज्जित काली-काली मूर्तियाँ आ खड़ी हुईं और बिना एक शब्द मुँह से निकाले चुपचाप कब्र के अन्दर उतर गईं।

अब फिर चलिए अंनददेव के उसी रंग-मन्दिर में। सुख-साधनों से भरपूर वही कक्ष आज सजावट खत्म कर गया था। सहस्त्रों उल्कापात की तरह रंगीन हाँडियाँ, बिल्लौरी फानूस और हजार झाड़ सब जल रहे थे। तत्परता से, किन्तु नीरव बाँदियाँ और गुलाम दौड़-धूप कर रहे थे। अनगिनत रमणियाँ अपने मदभरे होंठों की प्यालियों में भाव की मदिरा उँडेल रही थीं। उन सुरीले रागों की बौछारों में बैठे बादशाह वाजिदअली शाह शराबोर हो रहे थे। उस गायनोन्माद में मालूम होता था, कमरे के जड़ पदार्थ भी मतवाले होकर नाच उठेगे। नाचनेवालियों के ठुमके और नूपुर की ध्वनि सोते हुए यौवन से ठोकर मारकर कहती थी-उठ, उठ, ओ मतवाले, उठ। उन नर्तकियों के बढ़िया चिकनदौजी के सुवासित दुपट्टों से निकलती हुई सुगन्ध उसके नृत्यवेग से विचलित वायु के साथ घुल-मिल-कर गदर मचा रही थी। पर सामने का सुनहरी फव्वारा, जो स्थिर ताल पर बीस हाथ ऊपर फैककर रंगीन जलबिंदु-राशियों से हाथापाई कर रहा था, देखकर कलेजा बिना उछले कैसे रह सकता था।

उसी मसनद पर बादशाह वाजिदअली शाह बैठे थे। एक गंगा-जमनी काम का अलबेला वहाँ रखा था, जिसकी खमीरी मुश्की तम्बाकू जलकर अनोखी सुगन्ध फैला रही थी। चारों तरफ सुन्दरियों का झुरमुट उन्हें घेर-कर बैठा था। सभी अधनंगी, उन्मत्त और निर्लज्ज हो रही थीं। पास ही सुराही और प्यालियाँ रखी थीं, और बारी-बारी से वे उन दुर्लभ होंठों को चूम रही थीं। आधा मद पी-पीकर वे सुन्दरियाँ उन प्यालियों को बादशाह के होंठों में लगा देती थीं। वे आँखें बन्द करके उन्हें पी जाते थे।

कुछ सुन्दरियाँ पान लगा रही थीं, कुछ अलबेले की निगाली पकड़े हुए थीं। दो सुन्दरियाँ दोनों तरफ पीकदान लिए खड़ी थीं, जिनमें बादशाह कभी-कभी पीक गिरा देते थे।

इस उल्लसित आमोद के बीचोबीच एक मुरझाया हुआ पुष्प, कुचली हुई पान की गिलोरी। वही बालिका, बहुमूल्य हीरे-खचित वस्त्र पहने, बादशाह के बिल्कुल अंक में लगभग मूर्छित और अस्तव्यस्त पड़ी थी। रह-रहकर शराब की प्याली उसके मुख से लग रही थी, और वह खाली कर रही थी। निर्जीव दुशाले की तरह बादशाह उसे अपने बदन से सटाए मानो अपनी तमाम इन्द्रियों को एक ही रस से शराबोर कर रहे थे। गंम्भीर आधी रात बीत रही थी। सहसा इसी आनन्द-वर्षा में बिजली गिरी। कक्ष के उसी गुप्त द्वार को विदीर्ण कर क्षणभर में वही रूपा, काले आवरण से नख-शिख ढके निकल आई। दूसरे क्षण में एक और मूर्ति वैसे ही आवेष्टन में गुप्त बाहर निकल आई। क्षणभर बाद दोनों ने अपने आवेष्टन उतार फेंके। वही अग्नि-शिखा ज्वलन्त रूपा और उसके साथ नौरांग कर्नल उटरम।

नर्तकियों ने एकदम नाचना-गाना रोक दिया। बाँदियाँ शराब की प्यालियाँ लिए काठ की पुतली की तरह खड़ी रह गई। केवल फव्वारा ज्यों का त्यों आनन्द से उछल रहा था। बादशाह यद्यपि बिल्कुल बदहवास थे, मगर यह सब देख वे मानो आधे उठकर बोले-ओह। रूपा-दिलरुबा तुम? और ऐं-मेरे दोस्त कर्नल-इस वक्त? यह क्या माजरा है?

आगे बढ़कर और अपनी चुस्त पोशाक ठीक करते हुए तलवार की मूठ पर हाथ रख उटरम ने कहा-“कल आलीजाह की बन्दगी में हाजिर हुआ था, मगर…”

“ओफ मगर-इस वक्त इस रास्ते से? ऐं, माजरा क्या है? अच्छा बैठो, हाँ, जोहरा, एक प्याला-मेरे दोस्त कर्नल के…।”

“माफ कीजिए हुजूर। इस वक्त मैं आनरेबल कम्पनी सरकार के एक काम से आपकी खितमत में हाजिर हुआ हूँ।”

“कम्पनी सरकार का काम? वह काम क्या है?” बादशाह ने कहा।

“मैं तखलिए में अर्ज किया चाहता हूँ।”

“तखलिया। अच्छा, अच्छा, जोहरा। ओ कादिर।”

धीरे-धीरे रूपा को छोड़कर सभी बाहर निकल गए। उस सौन्दर्य-स्वप्न में अवशिष्ट रह गई अकेली रूपा। रूपा को लक्ष्य करके बादशाह ने कहा-यह तो गैर नहीं। रूपा। दिलरुबा, एक प्याला अपने हाथों से दो तो रूपा ने सुराही से शराब उँडेल लबालब प्याला भरकर बादशाह के होंठों से लगा दिया। हाय! लखनऊ की नवाबी का वही अन्तिम प्याला था। उसे बादशाह ने पीकर कहा-“वाह प्यारी। हाँ, अब कहो वह बात। मेरे दोस्त…”

“हुजूर को जरा रेजीडेंसी तक चलना पड़ेगा।”

बादशाह ने उछलकर कहा-“ऐं, यह कैसी बात। रेजीडिंसी तक मुझे?”

“जहाँपनाह, मैं मजबूर हूँ, काम ऐसा ही है।”

“गैरमुमकिन। गैरमुमकिन।” बादशाह गुस्से से होंठ काटकर उठे और अपने हाथ से सुराही से उँडेलकर तीन-चार प्याले शराब पी गए। धीरे-धीरे उसी दीवार से एक-एक करके चालीस गोरे सैनिक, संगीन और किर्च सजाए, कक्ष में घुस आए।

बादशाह देखकर बोले-“खुदा की कसम यह तो दगा है। कादिर!”

“जहाँपनाह अगर खुशी से मेरी अर्जी कुबूल न करेंगे, तो खून-खराबी होगी। कम्पनी के बहादुर के गोरों ने महल घेर लिया है। अर्ज यही है कि सरकार चुपचाप चले चलें।”

बादशाह धम से बैठ गए। मालूम होता है, क्षणभर के लिए उनका नशा उतर गया। उन्होंने कहा-“तब तुम क्या मेरे दुश्मन होकर मुझे कैद करने आए हो?”

“मैं हुजूर का दोस्त, हर तरह हुजूर के आराम और फरहत का ख्याल रखता हूँ और हमेशा रखूँगा।”

बादशाह ने रूपा की ओर देखकर कहा-“रूपा! रूपा! यह क्या माजरा है? तुम भी क्या इस मामले में हो? एक प्याला–मगर नहीं, अब नहीं, अच्छा सब साफ-साफ सच कहो। कर्नल-मेरे दोस्त-नहीं- नहीं, अच्छा कर्नल उटरम। अब खुलासावार बयान करो।”

“सरकार, ज्यादा मैं कुछ नहीं कह सकता। कम्पनी बहादुर का खास परवाना लेकर खुद गवर्नर जनरल के अंडर सैक्रेटरी तशरीफ लाए हैं, वे आलीजाह से कुछ मशवरा किया चाहते हैं।”

“मगर यहाँ।”

“यह नामुमकिन है।”

बादशाह ने कर्नल की तरफ देखा। वह तना खड़ा था और उसका हाथ तलवार की मूठ पर था।

“समझ गया, सब समझ गया।” यह कहकर बादशाह कुछ देर हाथों से आँखें ढाँपकर बैठ गए। कदाचित् उनकी सुन्दर रसभरी आँखों में आँसू भर आए।

रूपा ने पास आकर कहा-“मेरे खुदाबंद, बाँदी…”

“हट जा ऐ नमकहराम रजील, बाजारू औरत।”

बादशाह ने यह कहकर उसे एक लात लगाई, और कहा-“तब चलो। मैं चलता हूँ। खुदा हाफिज।”

पहले बादशाह, पीछे कर्नल उटरम, उसके पीछे रूपा और सबके अन्त में एक-एक करके सिपाही उसी दरार में विलीन हो गए। महल में किसी को कुछ मालूम न था। वह मूर्तिमान संगीत, वह उमड़ता हुआ आनन्द-समुद्र सदा के लिए मानो किसी जादूगर ने निर्जीव कर दिया।

कलकत्ता के एक उजाड़-से भाग में, एक बहुत विशाल मकान में, वाजिदअली शाह को नजरबंद कर दिया गया। ठाठ लगभग वही था। सैकड़ों दासियां, बांदियाँ और वेश्याएँ भरी हुई थीं। पर वह लखनऊ का रंग कहाँ!

खाना खाने का वक्त हुआ और जब दस्तरखान पर खाना चुना गया, तो बादशाह ने चख-चखकर फेंक दिया। अंग्रेज अफसर ने पूछा-“खाने में क्या नुक्स है?”

नवाब के खास खिदमतगार ने जवाब दिया-“नमक खराब है।”

“नवाब कैसा नमक खाते हैं?”

“एक मन का डला रखकर उस पर पानी की धार छोड़ी जाती है। जब धुलते-धुलते छोटा-सा टुकड़ा रह जाता है, तब नवाब के खाने में वह नमक इस्तेमाल होता है।”

अंग्रेज अधिकारी मुस्कराता चला गया।

वाजिदअली के बाद अवध के ताल्लुकेदारों की रियासतें छीन ली गई और अवध का तख्त सदा के लिए धूल में मिल गया।

|| समाप्त ||

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