प्रथम अंक
(स्थानः तक्षशिला के गुरुकुल का मठ)
(चाणक्य और सिंहरण)
चाणक्यः सौम्य, कुलपति ने मुझे गृहस्थ-जीवन में प्रवेश करनेकी आज्ञा दे दी। केवल तुम्हीं लोगों को अर्थशास्त्र पढ़ाने के लिए ठहराथा; क्योंकि इस वर्ष के भावी स्नातकों को अर्थशास्त्र का पाठ पढ़ाकरमुझ अकिञ्चन को गुरु-दक्षिणा चुका देनी थी।
सिंहरणः आर्य, मालवों को अर्थशास्त्र की उतनी आवश्यकता नहीं,जितनी अस्त्रशास्त्र की। इसलिए मैं पाठ में पिछड़ा रहा, क्षमाप्रार्थी हूँ।चाणक्यः अच्छा, अब तुम मालव जाकर क्या करोगे?
सिंहरणः अभी तो मैं मालव नहीं जाता। मुझे तक्षशिला कीराजनीति पर दृष्टि रखने की आज्ञा मिली है।
चाणक्यः मुझे प्रसन्नता होती है कि तुम्हारा अर्थशास्त्र पढ़नासफल होगा। क्या तुम जानते हो कि यवनों के दूत यहाँ क्यों आये हैं?
सिंहरणः मैं उसे जानने की चेष्टा कर रहा हूँ। आर्यावर्त्त काभविष्य लिखने के लिए कुचक्र और प्रतारणा की लेखनी और मसि प्रस्तुतहो रही है। उपरापथ के खण्ड राज-द्वेष से जर्जर हैं। शीघ्र भयानकविस्फोट होगा।
(सहसा आम्भीक और अलका का प्रवेश)
आम्भीकः कैसा विस्फोट? युवक, तुम कौन हो?
सिंहरणः एक मालव।
आम्भीकः नहीं, विशेष परिचय की आवश्यकता है।
सिंहरणः तक्षिला गुरुकुल का एक छात्र।
आम्भीकः देखता हूँ कि तुम दुर्विनीत भी हो।
सिंहरणः कदापि नहीं राजकुमार! विनम्रता के साथ निर्भीक होनामालवों का वंशानुगत चरित्र है, और मुझे तो तक्षशिला की शिक्षा का भीगर्व है।
आम्भीकः परन्तु तुम किसी विस्फोट की बातें अभी कर रहे थे।और चाणक्य, क्या तुम्हारा भी इसमें कुछ हाथ है?
(चाणक्य चुप रहता है)
आम्भीकः (क्रोध से) बोलो ब्राह्मण, मेरे राज्य में ह कर, मेरेअन्न से पल कर, मेरे ही विरुद्ध कुचक्रों का सृजन!
चाणक्यः राजकुमार, ब्राह्मण न किसी के राज्य में रहता है औरन किसी के अन्न से पलता है; स्वराज्य में विचरता है और अमृत होकर जीता है। वह तुम्हारा मिथ्या गर्व है। ब्राह्मण सब कुछ सामर्थ्य रखनेपर भी, स्वेच्छा से इन माया-स्तूपों को ठुकरा देता है, प्रकृति के कल्याणके लिए अपने ज्ञान का दान देता है।
आम्भीकः वह काल्पनिक महत्व माया-जाल है; तुम्हारे प्रत्यक्षनीच कर्म उस पर पर्दा नहीं डाल सकते।
चाणक्यः सो कैसे होगा अविश्वासी क्षत्रिय! इसी ने दस्यु औरम्लेच्छ साम्राज्य बना रहे हैं और आर्य-जाति पतन के कगार पर खड़ीएक धक्के की राह देख रही है।
आम्भीकः और तुम धक्का देने का कुचक्र विद्यार्थियों को सिखारहे हो!
सिंहरणः विद्यार्थी और कुचक्र! असम्भव। यह तो वे ही करसकते हैं, जिनके हाथ में अधिकार हो – जिनता स्वार्थ समुद्र से भीविशाल और सुमेरु से भी कठो हो, जो यवनों की मित्रता के लिए स्वयंवाल्हीक तक…
आम्भीकः बस-बस दुर्धर्ष युवक! बता, तेरा अभिप्राय क्या है?
सिंहरणः कुछ नहीं।
आम्भीकः नहीं, बताना होगा। मेरी आज्ञा है।
सिंहरणः गुरुकुल में केवल आचार्य की आज्ञा शिरोधार्य होती है;अन्य आज्ञाएँ, अवज्ञा के कान से सुनी जाती है राजकुमार!
अलकाः भाई! इस वन्य निर्झर के समान स्वच्छ और स्वच्छंदहृदय में कितना बलवान वेग है! यह अवज्ञा भी स्पृहणीय है। जाने दो।
आम्भीकः चुप रहो अलका, यह ऐसी बात नहीं है, जो यों हीउड़ा दी जाय। इसमें कुछ रहस्य है।
(चाणक्य चुपचाप मुस्कराता है)
सिंहरणः हाँ-हाँ, रहस्य है! यमन-आक्रमणकारियों के पुष्कलस्वर्ण से पुलकित होकर, आर्यावर्त्त की सुख-रजनी की शान्ति-निद्रा मेंउपरापथ की अगला धीरे से खोल देने का रहस्य है। क्यों राजकुमार!
सम्भवतः तक्षशिलाधीश वाल्हीक तक इसी रहस्य का उद्घाटन करने गयेथे?
आम्भीकः (पैर पटक कर) ओह, असह्य! युवक तुम बन्दी हो।
सिंहरणः कदापि नहीं; मालव कदापि बन्दी नहीं हो सकता।
(आम्भीक तलवार खींचता है।)
चंद्रगुप्तः (सहसा प्रवेश करके) ठीक है, प्रत्येर निरपराध आर्यस्वतंत्र है, उसे कोई बन्दी नहीं बना सकता है। यह क्या राजकुमार! खड्गको कोश में स्थान नहीं है क्या?
सिंहरणः (व्यंग्य से) वह तो स्वर्ण से भर गया है!
आम्भीकः तो तुम सब कुचक्र में लिप्त हो। और इस मालवको तो मेरा अपमान करने का प्रतिफल-मृत्यु-दण्ड अवश्य भोगना पड़ेगा।
चंद्रगुप्तः क्यों, वह क्या एक निस्सहाय छात्र तुम्हारे राज्य में शिक्षापाता है और तुम एक राजकुमार हो – बस इसीलिए?
(आम्भीक तलवार चलाता है। चन्द्रगुप्त अपनी तलवार पर उसेरोकता है; आम्भीक की तलवार छूट जाती है। वह निस्सहाय होकरचंद्रगुप्त के आक्रमण की प्रतीक्षा करता है। बीच में अलका आजातीहै।)
सिंहरणः वीर चन्द्रगुप्त, बस। जाओ राजकुमार, यहाँ कोई कुचक्रनहीं है, अपने कुचक्रों से अपनी रक्षा स्वयं करो।
चाणक्यः राजकुमारी, मैं गुरुकुल का अधिकारी हूँ। मैं आज्ञा देताहूँ कि तुम क्रोधाभिभूत कुमार को लिवा जाओ। गुरुकुल में शस्त्रों काप्रयोग शिक्षा के लिए होता है, द्वंद्व-युद्ध के लिए नहीं। विश्वास रखना,इस दुर्व्यवहार का समाचार महाराज के कानों तक न पहुँचेगा।
अलकाः ऐसा ही हो। चलो भाई!
(क्षुब्ध आम्भीक उसके साथ जाता है।)
चाणक्यः (चन्द्रगुप्त से) तुम्हारा पाठ समाप्त हो चुका है औरआज का यह काण्ड असाधारण है। मेरी सम्मति है कि तुम शीघ्र तक्षशिलाका परित्याग कर दो। और सिंहरण, तुम भी।
चन्द्रगुप्तः आर्य, हम मागध हैं और यह मालव। अच्छा होता कियहीं गुरुकुल में हम लोग शस्त्र की परीक्षा भी देते।
चाणक्यः क्या यही मेरी शिक्षा है? बालकों की-सी चपलतादिखलाने का यह स्थल नहीं। तुम लोगों को समय पर शस्त्र का प्रयोगकरना पड़ेगा। परन्तु अकारण रक्तपात नीति-विरुद्ध है।
चन्द्रगुप्तः आर्य! संसार-भर की नीति और शिक्षा का अर्थ मैंनेयही समझा है कि आत्म-सम्मान के लिए मर-मिटना ही दिव्य जीवन है।सिंहरण मेरा आत्मीय है, मित्र है, उसका मान मेरा ही मान है।
चाणक्यः देखूँगा कि इस आत्म-सम्मान की भविष्य-परीक्षा में तुमकहाँ तक उपीर्ण होते हो!
सिंहरणः आपके आशीर्वाद से हम लोग अवश्य सफल होंगे।
चाणक्यः तुम मालव हो और यह मागध, यही तुम्हारे मान काअवसान है न? परन्तु आत्म-सम्मान इतन ही से सन्तुष्ट नहीं होगा। मालवऔर मागध को भूलकर जब तुम आर्यावर्त का नाम लोगे, तभी वहमिलेगा। क्या तुम नहीं देखते हो कि आगामी दिवसों में, आर्यावर्त के सबस्वतंत्र राष्ट्र एक के अनन्तर दूसरे विदेशी विजेता से पददलित होंगे? आजजिस व्यंग्य को लेकर इतनी घटना हो गयी है, वह बात भावी गांधारनरेशआम्भीक के हृदय में, शल्य के समान चुभ गयी है। पञ्चनन्द-नरेशपर्वतेश्वर के विरोध के कारण यह क्षुद्र-हृदय आम्भीक यवनों का स्वागतकरेगा और आर्यावर्त का सर्वनाश होगा।
चन्द्रगुप्तः गुरुदेव, विश्वास रखिए; यह सब कुछ नहीं होनेपावेगा। यह चंद्रगुप्त आपके चरणों की शपथपूर्वक प्रतिज्ञा करता है, कियवन यहाँ कुछ न कर सकेंगे।
चाणक्यः तुम्हारी प्रतिज्ञा अचल हो। परन्तु इसके लिए पहले तुममगध जाकर साधन-सम्पन्न बनो। यहाँ समय बिताने का प्रयोज नहीं। मैंभी पञ्चनन्द-नरेश से मिलता हुआ मगध आऊँगा। और सिंहरण, तुम भीसावधान!
सिंहरणः आर्य, आपका आशीर्वाद ही मेरा रक्षक है।
(चंद्रगुप्त और चाणक्य का प्रस्थान)
सिंहरणः एक अग्निमय गन्धक का स्रोत आर्यावर्त के लौह अस्त्रागार में घुसकर विस्फोट करेगा। चञ्चला रण-लक्ष्मी इन्द्र-धनुष-सीविजयमाला हाथ में लिये उस सुन्दर नील-लोहित प्रलय-जलद में विचरणकरेगी और वीर-हृदय मयूर-से नाचेंगे। तब आओ देवि! स्वागत!!
अलकाः मालव-वीर, अभी तुमने तक्षशिला का परित्याग नहींकिया?
सिंहरणः क्यों देवि? क्या मैं यहाँ रहने के उपयुक्त नहीं हूँ?
अलकाः नहीं, मैं तुम्हारी सुख-शान्ति के लिए चिन्तित हूँ! भाईने तुम्हारा अपमान किया है, पर वह अकारण न था; जिसका जो मार्गहै उस पर वह चलेगा। तुमने अनधिकार चेष्टा की था! देखती हूँ प्रायःमनुष्य, दूसरों को अपने मार्ग पर चलाने के लिए रुक जाता है, औरअपना चलना बन्द कर देता है।
सिंहरणः परन्तु भद्रे, जीवन-काल में भिन्न-भिन्न मार्गों की परीक्षाकरते हुए, जो ठहरता हुआ चलता है, वह दूसरों को लाभ ही पहुँचाताहै। यह कष्टदायक तो है; परन्तु निष्फल नहीं।
अलकाः किन्तु मनुष्य को अपने जीवन और सुख का भी ध्यानरखान चाहिए।
सिंहरणः मानव कब दानव से भी दुर्दान्त, पशु से भी बर्बर औरपत्थर से भी कठोर, करुणा के लिए निरवकाश हृदयवाला हो जाएगा, नहींजाना जा सकता। अतीत सुखों के लिए सोच क्यों, अनागत भविष्य केलिए भय क्यों और वर्तमान को मैं अपने अनुकूल बना ही लूँगा; फिरचिन्ता किस बात की?
अलकाः मालव, तुम्हारे देश के लिए तुम्हारा जीवन अमूल्य है,और वही यहाँ आपपि में है।
सिंहरणः राजकुमारी, इस अनुकम्पा के लिए कृतज्ञ हुआ। परन्तुमेरा देश मालव ही नहीं, गांधार भी है। यही क्या, समग्र आर्यावर्त है,इसलिए मैं…
अलकाः (आश्चर्य से) क्या कहते हो?
सिंहरणः गांधार आर्यावर्त से भिन्न नहीं है, इसीलिए उसके पतनको मैं अपना अपमान समझता हूँ।
अलकाः (निःश्वास लेकर) इसका मैं अनुभव कर रही हूँ। परन्तुजिस देश में ऐसे वीर युवक हों, उसका पतन असम्भव है। मालववीर,तुम्हारे मनोबल में स्वतंत्रता है और तुम्हारी दृढ़ भुजाओं में आर्यावर्त केरक्षण की शक्ति है; तुम्हें सुरक्षित रहना ही चाहिए। मैं भी आर्यावर्त कीबालिका हूँ – तुमसे अनुरोध करती हूँ कि तुम शीघ्र गांधार छोड़ दो।
मैं आम्भीक को शक्ति भर, पतन से रोकूँगी; परन्तु उसके न मानने परतुम्हारी आवश्यकता होगी। जाओ वीर!
सिंहरणः अच्छा राजकुमारी, तुम्हारे स्नेहानुरोध से मैं जाने के लिएबाध्य हो रहा हूँ। शीघ्र ही चला जाऊँगा देवि! किन्तु यदि किसी प्रकारसिन्धु की प्रखर धारा को यवन सेना न पार कर सकती…।
अलकाः मैं चेष्टा करूँगी वीर, तुम्हारा नाम?
सिंहरणः मालवगण के राष्ट्रपति का पुत्र सिंहरण।
अलकाः अच्छा, फिर कभी।
(दोनों एक-दूसरे को देखते हुए प्रस्थान करते हैं।)
(मगध-सम्राट् का विलास-कानन)
(विलासी युवक और युवतियों का विहार)
नन्दः (प्रवेश करके) आज वसन्त उत्सव है क्या?
एक युवकः जय हो देव! आपकी आज्ञा से कुसुमपुर के नागरिकोंने आयोजन किया है।
नन्दः परन्तु मदिरा का तो तुम्हारे समाज में अभाव है, फिर
आमोद कैसा? (एक युवती से) देखो-देखो! तुम सुन्दरी हो; परन्तु तुम्हारेयौवन का विभ्रम अभी संकोच की अर्गला से जकड़ा हुआ है! तुम्हारीआँखों में काम का सुकुमार संकेत नहीं, अनुराग की लाली नहीं! फिरकैसा प्रमोद!
एक युवतीः हम लोक तो निमंत्रित नागरिक हैं देव! इसकादायित्व तो निमंत्रण देने वाले पर है।
नन्दः वाह, अच्छा उलाहना रहा! (अनुचर से) मूर्ख! अभी औरकुछ सुनावेगा? तून नहीं जानता कि मैं ब्रह्मास्त्र से अधिक इन सुन्दरियोंके कुटिल कटाक्षों से डरता हूँ! ले आ – शीघ्र ले जा – नागरिकों परतो मैं राज्य करता हूँ; परन्तु मेरी मगध की नागरिकाओं का शासन मेरेऊपर है। श्रीमती, सबसे कह हो – नागरिक नन्द, कुसुमपुर के कमनीयकुसुमों से अपराध के लिए क्षमा माँगता है और आज के दिन वह तुमलोगों का कृतज्ञ सहचर-मात्र है।
(अनुचर लोग प्रत्येक कुञ्ज मं मदिरा-कलश और चषक पहुँचाते हैं। राक्षस और सुवासिनी का प्रवेश, पीछे-पीछे कुछ नागरिक।)
राक्षसः सुवासिनी! एक पात्र और; चलो इस कुञ्ज में।
सुवासिनीः नहीं, अब मैं न सँभव सकूँगी।
राक्षसः फिर इन लोगों से कैसे पीछा छूटेगा?
सुवासिनीः मेरी एक इच्छा है।
एक नागरिकः क्या इच्छा है सुवासिनी, हम लोग अनुचर हैं।केवल एक सुन्दर अलाप की, एक कोमल मूर्च्छना की लालसा है।
सुवासिनीः अच्छा तो अभिनय के साथ।
सबः (उल्लास से) सुन्दरियों की रानी सुवासिनी की जय!
सुवासिनीः परन्तु राकषस को कच का अभिनय करना पड़ेगा।
एक नागरिकः और तुम देवयानी, क्यों? यही न? राक्षस सचमुचराक्षस होगा, यदि इसमें आनाकानी करे तो… चलो राक्षस!
दूसराः नहीं मूर्ख! आर्य राक्षस कह, इतने बड़े कला-कुशलविद्वान को किस प्रकार सम्बोधित करना चाहिए, तू इतना भी नहीं जानता।आर्य राक्षस! इन नागरिको की प्रार्थना से इस कष्ट को स्वीकार कीजिए।
(राक्षस उपयुक्त स्थान ग्रहण करता है। कुछ मूक अभिनय, फिरउसके बाद सुवासिनी का भाव-सहित गान)
तुम कनक किरण के अन्तराल में
लुक-छिप कर चलते हो क्यों?
नत मस्तक गर्व वहन करते
यौवन के धन, रस-कन ढरते।
हे लाज भरे सौन्दर्य!
बता दो मौन बने रहते हो क्यों?
अधरों के मधुर कगारों में
कल-कल ध्वनि की गुंजारों में!
मधुसरिता-सी यह हँसी तरल
अपनी पीते रहते हो क्यों?
बेला विभ्रम की बीत चली
रजनीगंधा की कली खिली-
अब सान्ध्य मलय-आकुलित
दुकूल कलित हो, यों छिपते हो क्यों?
(‘साधु-साधु’ की ध्वनि)
नन्दः उस अभिनेत्री को यहाँ बुलाओ।
(सुवासिनी नन्द के समीप आकर प्रणत होती है।)
नन्दः तुम्हारा अभिनय तो अभिनय नहीं हुआ!
नागरिकः अपितु वास्तविक घटना, जैसी देखने में आवे, वैसी ही।
नन्दः तुम बड़े कुशल हो। ठीक कहा।
सुवासिनीः तो मुझे दण्ड मिले। आज्ञा कीजिए देव!
नन्दः मेरे साथ एक पात्र।
सुवासिनीः परन्तु देव, एक बड़ी भूल होगी।
नन्दः वह क्या?
सुवासिनीः आर्य राक्षस का अभिनयपूर्ण गान नहीं हुआ।
नन्दः राक्षस!
नागरिकः यही है, देव!
(राक्षस आकर प्रणाम करता है।)
नन्दः वसन्तोत्सव की रानी की आज्ञा से तुम्हें गाना होगा।
राक्षसः उसका मूल्य होगा एक पात्र कादम्ब।
(सुवासिनी पात्र भर कर देती है।)
(सुवासिनी मान का मूक अभिनय करती है, राक्षस सुवासिनी केसम्मुख अभिनय सहित गाता है -)
निकल मत बाहर दुर्बल आह।
लगेगा तुझे हँसी का शीत
शरद नीरद माला के बीच
तड़प ले चपला-सी भयभीत
पड़ रहे पावन प्रेम-फुहार
जलन कुछ-कुछ हैं मीठी पर
सम्हाले चल कितनी है दूर
प्रलय तक व्याकुल हो न अधीर
अश्रुमय सुन्दर विरह निशीथ
भरे तारे न ढुलकते आह!
न उफना दे आँसू हैं भरे
इन्हीं आँखों में उनकी चाह
काकली-सी बनने की तुम्हें
लगन लग जाय न हे भगवान्
पपीहा का पी सुनता कभी!
अरे कोकिल की देख दशा न;
हृदय है पास, साँस की राह
चले आना-जाना चुपचाप
अरे छाया बन, छू मत उसे
भरा है तुझमें भीषण ताप
हिला कर धड़कन से अविनीत
जगा मत, सोया है सुकुमार
देखता है स्मृतियों का स्वप्न,
हृदय पर मत कर अत्याचार।
कई नागरिकः स्वर्गीय अमात् वक्रनास के कुल की जय!
नन्दः क्या कहा, वक्रनास का कुल?
नागरिकः हाँ देव, आर्य राक्षस उन्हीं के भ्रातुष्पुत्र हैं।
नन्दः राक्षस! आज से तुम मेरे अमात्यवर्ग मं नियुक्त हुए। तुमतो कुसुमपुर के एक रत्न हो!
(उसे माला पहनाता है और शस्त्र देता है।)
सबः सम्राट की जय हो! अमात्य राक्षस की जय हो!
नन्दः और सुवासिनी, तुम मेरी अभिनयशाला की रानी!
(सब हर्ष प्रकट करते हुए जाते हैं।)
(पाटलिपुत्र मं एक भग्नकुटीर)
चाणक्यः (प्रवेश करके) झोंपड़ी ही तो थी, पिताजी यहीं मुझे
गोद में बिठाकर राज-मन्दिर का सुख अनुभव करते थे। ब्राह्मण थे, ऋतऔर अमृत जीविका से सन्तुष्ट थे, पर वे भी न रहे! कहाँ गये? कोईनहीं जानता। मुझे भी कोई नहीं पहचानता। यही तो मगध का राष्ट्र है।प्रजा की खोज है किसे? वृद्ध दरिद्र ब्राह्मण कहीं ठोकरें खाता होगा याकहीं मर गया होगा!
(एक प्रतिनिधि का प्रवेश)
प्रतिवेशीः (देखकर) कौन हो जी तुम? इधर के घरों को बड़ीदेर से क्या घूर रहे हो?
चाणक्यः ये घर हैं, जिन्हें पशु की खोह कहने में भी संकोचहोता है? यहाँ कोई स्वर्ण-रत्नों का ढ़ेर नहीं, जो लूटने का भय हो।
प्रतिवेशीः युवक, क्या तुम किसी को खोज रहे हो?
चाणक्यः हाँ, खोज रहा हूँ, यहीं झोंपड़ी में रहने वाले वृद्धब्राह्मण चणक को। आजकल वे कहाँ हैं, बता सकते हो?
प्रतिवेशीः (सोचकर) ओहो, कई बरस हुए, वह तो राजा की आज्ञासे निर्वासित कर दिया गया है। (हँसकर) वह ब्राह्मण भी बड़ा हठी था। उसनेराजा नन्द के विरुद्ध प्रचार करना आरम्भ किया था। सो भी क्यों, एक मन्त्रीशकटार के लिए। उसने सुना कि राजा ने शकटार को बन्दीगृह में बंध करवाड़ाला। ब्राह्मण ने नगर में इस अन्याय के विरुद्ध आतंक फैलाया। सबसे कहनेलगा कि – “यह महापद्म का जारज पुत्र नन्द महापद्म का हत्याकारी नन्द -मगध में राक्षसी राज्य कर रहा है। नागरिकों, सावधान!”
चाणक्यः अच्छा तब क्या हुआ!
प्रतिवेशीः वह पकड़ा गया। सो भी कब, जब एक दिन अहेर कीयात्रा करते हुए नन्द के लिए राजपथ में मुक्तकंठ से नागरिकों ने अनादरके वाक्य कहे। नन्द ने ब्राह्मण को समझाया। यह भी कहा कि तेरा मित्रशकटार बन्दी है, मारा नहीं गया। पर वह बड़ा हठी था; उसने न माना,न ही माना। नन्द ने भी चिढ़कर उसक ब्राह्मस्व बौद्ध-विहार में दे दिया औरउसे मगध से निर्वासित कर दिया। यही तो उसकी झोंपड़ी है।
(जाता है।)
चाणक्यः (उसे बुलाकर) अच्छा एक बात और बताओ।
प्रतिवेशीः क्या पूछते हो जी, तुम इतना जान लो कि नन्द कोब्राह्मणों से घोर शत्रुता है और वह बौद्ध धर्मानुयायी हो गया है।
चाणक्यः होने दो; परन्तु यह तो बताओ – शकटार का कुटुम्बकहाँ है?
प्रतिवेशीः कैसे मनुष्य हो? अरे राज-कोपानल में वे सब जलमरे इतनी-सी बात के लिए मुझे लौटाया था छि।
(जाना चाहता है।)
चाणक्यः हे भगवान्! एक बात दया करके और बता दो -शकटार की कन्या सुवासिनी कहाँ है?
प्रतिवेशीः (जोर से हँसता है।) युवक! वह बौद्ध-विहार में चलीगयी थी, परन्तु वहाँ भी न रह सकी। पहले तो अभिनय करती फिरतीथी, आजकल कहाँ है, नहीं जानता।
(जाता है।)
चाणक्यः पिता का पता नहीं, झोंपड़ी भी न रह गयी। सुवासिनीअभिनेत्री हो गयी – सम्भवतः पेट की ज्वाला से। एक साथ दो-दो कुटुम्बोंका सर्वनाश और कुसुमपुर फूलों की सेज से ऊँघ रहा है! क्या इसीलिए राष्ट्रकी शीतल छाया का संगठन मनुष्य ने किया था! मगध! मगध! सावधान! इतनाअत्याचार! सहना असम्भव है। तुझे उलट दूँगा! नया बनाऊँगा, नहीं तो नाशही करूँगा! (ठहरकर) एक बार चलूँ, नन्द से कहूँ। नहीं, परन्तु मेरी भूमि,मेरी वृपि, वही मिल जाय; मैं शास्त्र-व्यवसायी न रहूँगा, मैं कृषक बनूँगा। मुझएराष्ट्र की भलाई-बुराई से क्या तो चलूँ। (देखकर) यह एक लकड़ी का स्तम्भअभी उसी झोंपड़ी का खड़ा है, इसके साथ मेरे बाल्यकाल की सहस्रों भाँवरियाँलिपटी हुई हैं, जिन पर मेरी धवल मधुर हँसी का आवरण चढ़ा रहता था!
शैशव की स्निग्ध स्मृति! विलीन हो जा!
(खम्भा खींच कर गिराता हुआ चला जाता है।)
(कुसुमपुर के सरस्वती मन्दिर के उपवन का पथ)
राक्षसः सुवासिनी! हठ न करो।
सुवासिनीः नहीं, उस ब्राह्मण को दण्ड दिये बिना सुवासिनी जीनहीं सकती अमात्य, तुमको करना होगा। मैं बौद्ध-स्तूप की पूजा करकेआ रही थी, उसने व्यंग किया और वह बड़ा कठोर था, राक्षस! उसनेकहा – “वेश्याओं के लिए भी एक धर्म की आवश्यकता थी, चलो अच्छाही हुआ। ऐसे धर्म के अनुगत पतितों की भी कमी नहीं।”
राक्षसः यह उसका अन्याय था।
सुवासिनीः परन्तु अन्याय का प्रतिकार भी है। नहीं तो मैं समझूँगीकि तुम भी वैसे ही एक कठोर ब्राह्मण हो।
राक्षसः मैं वैसा हूँ कि नहीं, यह पीछे मालूम होगा। परन्तुसुवासिनी, मैं स्वयं हृदय से बौद्धमत का समर्थक हूँ, केवल उसकी दार्शनिकसीमा तक – इतना ही कि संसार दुःखमय है।
सुवासिनीः इसके बाद?
राक्षसः मैं इस क्षणिक जीवन की घड़ियों को सुखी बनाने कापक्षपाती हूँ। और तुम जानती हो कि मैंने ब्याह नहीं किया, परन्तु भिक्षुभी न बन सका।
सुवासिनीः तब आज से मेरे कारण तुमको राजचक्र मं बौद्धमतका समर्थन करना होगा।
राक्षसः मैं प्रस्तुत हूँ।
सुवासिनीः फिर लो, मैं तुम्हारी हूँ। मुझे विश्वास है कि दुराचारीसदाचार के द्वारा शुद्ध हो सकता है, और बौद्धमत इसका समर्थन करताहै, सबको शरण देता है। हम दोनों उपासक होकर सुखी बनेंगे।
राक्षसः इतना बड़ा सुख-स्वप्न का जाल आँखों में न फैलाओ।
सुवासिनीः नहीं प्रिय! मैं तुम्हारी अनुचरी हूँ। मैं नन्द की
विलास-लीला का क्षुद्र उपकरण बनकर नहीं रहना चाहती।
(जाती है।)
राक्षसः एक परदा उठ रहा है, या गिर रहा है, समझ में नहींआता – (आँख मींचकर) – सुवासिनी! कुसुमपुर का स्वर्गीय कुसुम मैंहस्तगत कर लूँ? नहीं, राजकोप होगा! परन्तु जीवन वृथा है। मेरी विद्या,मेरा परिष्कृत विचार सब व्यर्थ है। सुवासिनी एक लालसा है, एक प्यासहै। वह अमृत है, उसे पाने के लिए सौ बार मरूँगा।
(नेपथ्य से – हटो, माग छोड़ दो।)
राक्षसः कोई राजकुल की सवारी है? तो चलूँ।
(जाता है।)
(रक्षियों के साथ शिविका पर राजकुमारी कल्याणी का प्रवेश)
कल्याणीः (शिविका से उतरती हुई लीला से) शिविका उद्यान केबाहर ले जाने के लिए कहौ और रक्षी लोग भी वहीं ठहरें।
(शिविका ले कर रक्षक जाते हैं।)
कल्याणीः (देखकर) आज सरस्वती-मन्दिर में कोई समाज हैक्या? जा तो नीला, देख आ।
(नीला जाती है।)
लीलाः राजकुमारी, चलिए इस श्वेत शिला पर बैठिए। यहाँअशोक की छाया बड़ी मनोहर है। अभी तीसरे पहर का सूर्य कोमल होनेपर भी स्पृहणीय नहीं।
कल्याणीः चल।
(दोनों जाकर बैठती हैं, नीला आती है।)
नीलाः राजकुमारी, आज तक्षशिला से लौटे हुए स्नातक लोगसरस्वती-दर्शन के लिए आये हैं।
कल्याणीः क्या सब लौट आये हैं?
नीलाः यह तो न जान सकी।
कल्याणीः अच्छा, तू भी बैठ। देख, कैसी सुन्दर माधवी लताफैल रही है। महाराज के उद्यान में भी लताएँ ऐसी हरी-भरी नहीं, जैसेराज – आतंक से वे भी डरी हुई हों। सच नीला, मैं देखती हूँ किमहाराज से कोई स्नेह नहीं करता, डरता भले ही हो।
नीलाः सखी, मुझ पर उनका कन्या-सा ही स्नेह है, परन्तु मुझेडर लगता है।
कल्याणीः मुझे इसका बड़ा दुःख है। देखती हूँ कि समस्त प्रजाउनसे त्रस्त और भयभीत रहती है, प्रचण्ड शासन करने के कारण उनकाबड़ा दुर्नान है।
नीलाः परन्तु इसका उपाय क्या है? देख लीला, वे दो कौन इधरआ रहे हैं। चल, हम लोग छिप जायँ।
(सब कुंज में चली जाती हैं, दो ब्रह्मचारियों का प्रवेश)
एक ब्रह्मचारीः धर्मपालित, मगध को उन्माद हो गया है। वहजनसाधारण के अधिकार अत्याचारियों के हाथ में देकर विलासिता कास्वप्न देख रहा है। तुम तो गये नहीं, मैं अभी उपरापथ से आ रहा हूँ।गणतन्त्रों में सब प्रजा वन्यवीरुध के समान स्वच्छन्द फल-फूल रही है।इधर उन्मप मगध, साम्राज्य की कल्पना में निमग्न है।
दूसराः स्नातक, तुम ठीक कह रहे हो। महापद्म का जारज -पुत्र नन्द केवल शस्त्र-बल और कूटनीति के द्वारा सदाचारों के शिर परताण्डव नृत्य कर रहा है। वह सिद्धान्त विहीन, नृशंस, कभी बौद्धों कापक्षपाती, कभी वैदिकों का अनुायी बनकर दोनों में भेदनीति चलाकर बल-संचय करता रहता है। मुझे जनता धर्म की ओट में नचायी जा रही है।
परन्तु तुम देश-विदेश देखकर आये हो, आज मेरे घर पर तुम्हारा निमन्त्रणहै, वहाँ सब को तुम्हारी यात्रा का विवरम सुनने का अवसर मिलेगा।
पहिलाः चलो। (दोनों जाते हैं, कल्याणी बाहर आती है।)
कल्याणीः सुन कर हृदय गी गति रुकने लगती है। इतना कदर्थितराजपद! जिसे साधारण नागरिक भी घृणा की दृष्टि से देखता है – कितनेमूल्य का है लीला?
नेपथ्य सेः भागो – भागो! यह राजा का अहेरी चीता पिंजरेसे निकल भागा है, भागो, भागो!
(तीनों डरती हुई कुंज में छिपने लगती हैं। चीता आता है। दूरसे तीर आकर उसका शिर भेद कर निकल जाता है। धनुष लिये हुएचन्द्रगुप्त का प्रवेश)
चन्द्रगुप्तः कौन यहाँ है? किधर से स्त्रियों का क्रन्दन सुनाई पड़ाथा! – (देखकर) – अरे, यहाँ तो तीन कुसुमारियाँ हैं! भद्रे, पशु ने कुछचोट तो नहीं पहुँचायी?
लीलाः साधु! वीर! राजकुमारी की प्राण-रक्षा के लिए तुम्हेंअवश्य पुरस्कार मिलेगा !
चन्द्रगुप्तः कौन राजकुमारी, कल्याणी देवी?
लीलाः हाँ, यही न है? भय से मुख विवर्ण हो गया है।
चन्द्रगुप्तः राजकुमारी, मौर्य सेनापति का पुत्र चन्द्रगुप्त प्रणामकरता है।
कल्याणीः (स्वस्थ होकर, सलज्ज) नमस्कार, चन्द्रगुप्त, मैं कृतज्ञहुई। तुम भी स्नातक होकर लौटे हो?
चन्द्रगुप्तः हां देवि, तक्षशिला में पाँच वर्ष रहने के कारण यहाँके लोगों को पहचानने में विलम्ब होता है। जिन्हें किशोर छोड़कर गयाथा, अब वे तरुण दिखाई पड़ते हैं। मैं अपने कई बाल-सहचरों को भीपहचान न सका।
कल्याणीः परन्तु मुझे आशा थी कि तुम मुझे न भूल जाओगे।
चन्द्रगुप्तः देवि, यह अनुचर सेवा के उपयुक्त अवसर पर हीपहुँचा। चलिए, शिविका तक पहुँचा दूँ। (सब जाते हैं।)
(मगध में नन्द की राजसभा)
(राक्षस और सभासदों के साथ नन्द)
नन्दः तब?
राक्षसः दूत लौट आये और उन्होंने कहा कि पंचनंद-नरेश कोयह सम्बन्ध स्वीकार नहीं।
नन्दः क्यों?
राक्षसः प्राच्य – देश के बौद्ध और शूद्र राजा की कन्या से वेपरिणय नहीं कर सकते।
नन्दः इतना गर्व!
राक्षसः यह उसका गर्व नहीं, यह धर्म का दम्भ है, व्यंग है।मैं इसका फल दूँगा। मगध जैसे शक्तिशाली राष्ट्र का अपमान करके कोईयों ही नहीं बच जायेगा। ब्राह्मणों का यह…
(प्रतिहारी का प्रवेश)
प्रतिहारीः जय हो देव, मगध से शिक्षा के लिये गये हुए तक्षशिलाके स्नातक आये हैं।
नन्दः लिवा लाओ।
(दौवारिक का प्रस्थान; चन्द्रगुप्त के साथ कई स्नातकों का प्रवेश)
स्नातकः राजाधिराज की जय हो!
नन्दः स्वागत। अमात्य वररुचि अभी नहीं आये, देखो तो?
(प्रतिहारी का प्रस्थान और वररुचि के साथ प्रवेश)
वररुचिः जय हो देव, मैं स्वयं आ रहा था।
नन्दः तक्षशिला से लौटे हुए स्नातकों की परीक्षा लीजिए।
वररुचिः राजाधिराज, जिस गुरुकुल में मैं स्वयं परीक्षा देकरस्नातक हुआ हू, उसके प्रमाण की भी पुनः परीक्षा, अपने गुरुजनों के प्रतिअपमान करना है।
नन्दः किन्तु राजकोश का रुपया व्यर्थ ही स्नातकों को भेजने मेंलगता है या इसका सदुपयोग होता है, इसका निर्णय कैसे हो?
राक्षसः केवल सद्धर्म की शिक्षा ही मनुष्यों के लिए पर्याप्त है!और वह तो मगध में ही मिल सकती है।
(चाणक्य का सहसा प्रवेश; त्रस्त दौवारिक पीछे-पीछे आता है।)
चाणक्यः परन्तु बौद्धधर्म की शिक्षा मानव-व्यवहार के लिए पूर्णनहीं हो सकती, भले ही संघ-विहार में रहनेवालों के लिए उपयुक्त हो।
नन्दः तुम अनधिकार चर्चा करनेवाले कौन हो जी?
चाणक्यः तक्षशिला से लौटा हुआ एक स्नातक ब्राह्मण!
नन्दः ब्राह्मण! ब्राह्मण!! जिधर देखो कृत्या के समान इनकी
शक्ति-ज्वाला धधक रही है।
चाणक्यः नहीं महाराज! ज्वाला कहाँ? भस्मावगुण्ठित अंगारे रहगये हैं!
राक्षसः तब भी इतना ताप!
चाणक्यः वह तो रहेगा ही! जिस दिन उसका अन्त होगा, उसीदिन आर्यावर्त का ध्वंस होगा। यदि अमात्य ने ब्राह्मण-नाश करने काविचार किया हो तो जन्मभूमि की भलाई के लिए उसका त्याग कर दें;क्योंकि राष्ट्र का शुभ-चिन्तन केवल ब्राह्मण ही कर सकते हैं। एक जीवकी हत्या से डरनेवाले तपस्वी बौद्ध, सिर पर मँडराने वाली विपपियों से,रक्त-समुद्र की आँधियों से, आर्यावर्त की रक्षा करने में असमर्थ प्रमाणिहोंगे।
नन्दः ब्राह्मण! तुम बोलना नहीं जानते हो तो चुप रहना सीखो।
चाणक्यः महाराज, उसे सीखने के लिए मैं तक्षशिला गया था औरमगध का सिर ऊँचा करके उसी गुरुकुल में मैंने अध्यापन का कार्य भीकिया है। इसलिए मेरा हृदय यह नहीं मान सकता कि मैं मूर्ख हूँ।
नन्दः तुम चूप रहो!
चाणक्यः एक बात कहकर महाराज!
राक्षसः क्या?
चाणक्यः यवनों की विकट वाहिनी निषध-पर्वतमाला तक पहुँचगयी है। तक्षशिलाधीश की भी उसमें अभिसंधि है। सम्भवतः समस्तआर्यावर्त पादाक्रान्त होगा। उपरापथ में बहुत-से छोटे-छोटे गणतंत्र हैं, वेउस सम्मिलित पारसीक यवन-बल को रोकने में असमर्थ होंगे। अकेलेपर्वतेश्वर न साहस किया है, इसलिए मगध को पर्वतेश्वर की सहायताकरनी चाहिए।
कल्याणीः (प्रवेश करके) पिताजी, मैं पर्वतेश्वर के गर्व कीपरीक्षा लूँगी। मैं वृषल-कन्या हूँ। उस क्षत्रिय को यह सिखा दूँगी किराजकन्या कल्याणी किसी क्षत्राणी से कम नहीं। सेनापति को आज्ञा दीजिएकि आसन्न गांधार-युद्ध में मगध की एक सेना अवश्य जाय और मैं स्वयंउसका संचालन करूँगी। पराजित पर्वतेश्वर को सहायता देकर उसे नीचादिखाऊँगी।
(नन्द हँसता है।)
राक्षसः राजकुमारी, राजनीति महलों में नहीं रहती, इसे हम लोगोंके लिए छोड़ देना चाहिए। उद्धत पर्वतेश्वर अपने गर्व का फल भोगे,और ब्राह्मण चाणक्य! परीक्षा देकर ही कोई साम्राज्य-नीति समझ लेने काअधिकारी नहीं हो जाता।
चाणक्यः सच है बौद्ध अमात्य, परन्तु यवन आक्रमणकारी बौद्धऔर ब्राह्मण का भेद न रक्खेंगे।
नन्दः वाचाल ब्राह्मण! तुम अभी चले जाओष नहीं तो प्रतिहारीतुम्हें धक्के देकर निकाल देंगे।
चाणक्यः राजाधिराज! मैं जानता हूँ कि प्रमाद में मनुष्य कठोरसत्य का भी अनुभव नहीं करता, इसीलिए मैंने प्रार्थना नहीं की – अपनेअपहृत ब्राह्मणस्व के लिए मैंने भिक्षा नहीं माँगी? क्यों? जानता था किवह मुझे ब्राह्मण होने के कारण न मिलेगी! परन्तु जब राष्ट्र के लिए…
राक्षसः चुप रहो। तुम चणक के पुत्र हो न, तुम्हारे पिता भीऐसे ही हठी थे!
नन्दः क्या उसी विद्रोही ब्राह्मण की सन्तान? निकालो इसे अभीयहाँ से!
(प्रतिहारी आगे बढ़ता है, चन्द्रगुप्त सामने आकर रोकता है।)
चन्द्रगुप्तः सम्राट्, मैं प्रार्थना करता हूँ कि गुरुदेव का अपमान नकिया जाय। मैं भी उपरापथ से आ रहा हूँ। आर्य चाणक्य ने जो कुछकहा है, वह साम्राज्य के हित की बात है। उस पर विचार किया जाय।
नन्दः कौन? सेनापति मौर्य का कुमार चन्द्रगुप्त!
चन्द्रगुप्तः हाँ देव, मैं युद्ध-नीति सीखने के लिए ही तक्षशिलाभेजा गया था। मैंने अपनी आँखों गान्धार का उपप्लव देखा है, मुझे गुरुदेवके मत में पूर्ण विश्वास है। यह आगन्तुक आपपि पंचनंद-प्रदेश तक हीन रह जायगी।
नन्दः अबोध युवक, तो क्या इसीलिए अपमानित होने पर भीमैं पर्वतेश्वर की सहायता करूँ? असम्भव है। तुम राजाज्ञाओं में बाधा नदेकर शिष्टता सीखो। प्रतिहारी, निकालो इस ब्राह्मण को! यह बड़ा हीकुचक्री मालूम पड़ता है!
चन्द्रगुप्तः राजाधिराज, ऐसा करके आप एक भारी अन्याय करेंगेऔर मगध के शुभचिन्तकों को शत्रु बनाएँगे।
राजकुमारीः पिताजी, चन्द्रगुप्त पर ही दया कीजिए। एक बातउसकी भी मान लीजिए।
नन्दः चुप रहो, ऐसे उद्दण्ड को मैं कभी नहीं क्षमा करता; औरसुनो चन्द्रगुप्त, तुम भी यदि इच्छा हो तो इसी ब्राह्मण के साथ जा सकतेहो, अब कभी; मगध में मुँह न दिखाना ।
(प्रतिहारी दोनों को निकालना चाहता है, चाणक्य रुक कर कहताहै।)
चाणक्यः सावधान नन्द! तुम्हारी धर्मान्धता से प्रेरित राजनीतिआँधी की तरह चलेगी, उसमें नन्द-वंश समूल उखड़ेगा। नियति-सुन्दरीके भावों में बल पड़ने लगा है। समय आ गया है कि शूद्र राजसिंहासनके हटाये जायँ और सच्चे क्षत्रिय मूर्धाभिषिक्त हों।
नन्दः यह समझकर कि ब्राह्मण अवध्य है, तूम मुझे भय दिखलाताहै! प्रतिहारी, इसकी शिखा पकड़ कर इसे बाहर करो।
(प्रतिहारी उसकी शिखा पकड़कर घसीटता है, वह निश्शंक औरदृढ़ता से कहता है।)
चाणक्यः खींच ले ब्राह्मण की शिखा! शूद्र के अन्न से पले हुएकुपे! खींच ले! परन्तु यह शिखा नन्दकुल की काल-सर्पिणी है, वह तबतक न बन्धन में होगी, जब तक नन्द-कुल निःशेष न होगा।
नन्दः इसे बन्दी करो।
(चाणक्य बन्दी किया जाता है।)
(सिन्धु-तटः अलका और मालविका)
मालविकाः राजकुमारी! मैं देख आयी, उद्भांड में सिन्धु पर सेतुबन रहा है। युवराज स्वयं उसका निरीक्षण करते हैं और मैंने उक्त सेतुका एक मानचित्र भी प्रस्तुत किया था। यह कुछ अधूरा-सा रह गया है;पर इसके देखने से कुछ आभास मिल जायगा।
अलकाः सखी! बड़ा दुःख होता है, जब मैं यह स्मरण करतीहूँ कि स्वयं महाराज का इसमें हाथ है। देखूँ तेरा मानचित्र!
(मालविका मानचित्र देती है, अलका उसे देखती है; एक यवन-सैनिक का प्रवेश – वह मानचित्र अलका से लेना चाहता है।अलकाः दूर हो दुर्विनीत दस्यु! (मानचित्र अपने कंचुक में छिपालेती है।)
यवनः यह गुप्तचर है, मैं इसे पहचानता हूँ। परन्तु सुन्दरी! तुम कौन हो; जो इसकी सहायता कर रही हो, अच्छा हो कि मुझे मानचित्रमिल जाय, और मैं इसे सप्रमाण बन्दी बनाकर महाराज के सामने लेजाऊँ।
अलकाः यह असम्भव है। पहले तुम्हें बताना होगा कि तुम यहाँकिस अधिकार से यह अत्याचार किया चाहते हो?
यवनः मैं? मैं देवपुत्र विजेता अलक्षेन्द्र का नियुक्त अनुचर हूँऔर तक्षशिला की मित्रता का साक्षी हूँ। यह अधिकार मुझे गांधार-नरेशने दिया है।
अलकाः ओह! यवन, गांधार-नरेश ने तुम्हें यह अधिकार कभीनदीं दिया होगा कि तुम आर्य-ललनाओं के साथ धृष्टता का व्यवहार करो।
यवनः करना ही पड़ेगा, मुझे मानचित्र लेना ही होगा।
अलकाः कदापि नहीं।
यवनः क्या यह वही मानचित्र नहीं है, जिसे इस स्त्री ने उद्भांडमें बनाना चाहा था।
अलकाः परन्तु यह तुम्हें नहीं मिल सकता। यदि तुम सीधे यहाँसे न टलोगे तो शांति-रक्षकों को बुलाऊँगी।
यवनः तब तो मेरा उपकार होगा, क्योंकि इस अँगूठी को देखकरवे मेरी ही सहायता करेंगे – (अँगूठी दिखाता है।)
अलकाः (देखकर सिर पकड़ लेती है।) ओह!
यवनः (हँसता हुआ) अब ठीक पथ पर आ गयी होगी बुद्धि।लाओ, मानचित्र मुझे दे दो।
(अलका निस्सहाय इधर-उधर देखती है; सिंहरण का प्रवेश)