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राय कमलानन्द को देखे हुए हमें लगभग सात वर्ष हो गये, पर इस कालक्षेप का उनपर कोई चिन्ह नहीं दिखाई देता। बाल-पौरुष, रंग-ढंग सब कुछ वही है। यथापूर्व उनका समय सैर और शिकार पोलो और टेनिस, राग और रंग में व्यतीत होता है। योगाभ्यास भी करते जाते हैं। धन पर वह कभी लोलुप नहीं हुए और अब भी उसका आदर नहीं करते। जिस काम की धुन हुई उसे करके छोड़ते हैं। इसकी जरा भी चिन्ता नहीं करते कि रुपये कहाँ से आयेंगे। वह अब भी सलाहकारी सभा के मेम्बर हैं। इस बीच में दो बार चुनाव हुआ और दोनों बार वही बहुमत से चुने गये। यद्यपि किसान और मध्य श्रेणी के मनुष्यों को भी वोट देने का अधिकार मिल गया था, तथापि राय साहब के मुकाबले में कौन जीत सकता था? किसानों के वोट उनके और अन्य भाइयों के हाथों में थे और मध्य श्रेणी के लोगों को जातीय संस्थाओं में चन्दे देकर वशीभूत कर लेना कठिन न था।
राय साहब इतने दिनों तक मेम्बर बने रहे, पर उन्हें इस बात का अभिमान था कि मैंने अपनी ओर से कौंसिल में कभी कोई प्रस्ताव न किया। वह कहते, मुझे खुशामदी टट्टू कहने में अगर किसी को आनन्द मिलता है तो कहे, मुझे देश और जाति का द्रोही कहने से अगर किसी का पेट भरता है तो मुझे कोई शिकायत नहीं है, पर मैं अपने स्वभाव को नहीं बदल सकता। अगर रस्सी तुड़ा कर मैं जंगल में अबाध्य फिर सकूँ तो मैं आज ही खूँटा उखाड़ फेंकूँ। लेकिन जब मैं जानता हूँ कि रस्सी तुड़ाने पर भी मैं बाड़े से बाहर नहीं जा सकता, बल्कि ऊपर से और डंडे पड़ेंगे तो फिर खूँटे पर चुपचाप खड़ा क्यों न रहूँ? और कुछ नहीं तो मालिक की कृपादृष्टि तो रहेगी। जब राज-सत्ता अधिकारियों के हाथों में है, हमारे असहयोग और असम्मति से उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता तो इसकी क्या जरूरत है कि हम व्यर्थ अधिकारियों पर टीका-टिप्पणी करने बैठें और उनकी आँखों में खटकें? हम काठ के पुतले हैं, तमाशे दिखाने के लिए खड़े किये गये हैं। इसलिए हमें डोरी के इशारे पर नाचना चाहिए। यह हमारी खामख़ियाली है कि हम अपने को राष्ट्र का प्रतिनिधि समझते हैं। जाति हम जैसे को, जिसका अस्तित्व ही उसके रक्त पर अवलम्बित है, कभी अपना प्रतिनिधि न बनायेगी। जिस दिन जाति में अपना हानि-लाभ समझने की शक्ति होगी, हम और आप खेतों में कुदाली चलाते नजर आयेंगे। हमारा प्रतिनिधित्व सम्पूर्णतः हमारी स्वार्थपरता और सम्मान लिप्सा पर निर्भर है। हम जाति के हितैशी नहीं हैं, हम उसे केवल स्वार्थ-सिद्धि का यन्त्र बनाये हुए हैं। हम लोग अपने वेतन की तुलना अँग्रेजों से करते हैं। क्यों? हमें तो सोचना चाहिए कि ये रुपये हमारी मुट्ठी में आ कर यदि जाति की उन्नति और उपकार में खर्च हों तो अच्छा है। अँग्रेज अगर दोनों हाथों से धन बटोरते हैं तो बटोरने दीजिए। वे इसी उद्देश्य से इस देश में आये हैं। उन्हें हमारे जाति-प्रेम का दावा नहीं है। हम तो जाति-भक्ति की हाँक लगाते हुए भी देश का गला घोंट देते हैं। हम अपने जातीय व्यवसाय के अधःपतन का रोना रोते हैं। मैं कहता हूँ आपके हाथों यह दशा और भी असाध्य हो जायगी। हम अगणित मिलें खोलेंगे, बड़ी संख्या में कारखाने कायम करेंगे, परिणाम क्या होगा? हमारे देहात वीरान हो जायेंगे, हमारे कृषक कारखानों में मजदूर बन जायेंगे, राष्ट्र का सत्यानाश हो जायेगा। आप इसी को जातीय उन्नति चरम सीमा समझते हैं। मेरी समझ में यह जातीयता का घोर अधःपतन है। जाति की जो कुछ दुर्गति हुई हमारे हाथों हुई है। हम ज़मींदार हैं, साहूकार हैं, वकील हैं, सौदागर हैं, डॉक्टर हैं, पदाधिकारी हैं, इनमें कौन जाति की सच्ची वकालत करने का दावा कर सकता है? आप जाति के साथ बड़ी भलाई करते हैं। तो कौंसिल में अनिवार्य शिक्षा प्रस्ताव पेश करा देते हैं। अगर आप जाति के सच्चे नेता होते तो वह निरकुंशता कभी न करते। कोई अपनी इच्छा के विरुद्ध स्वर्ग भी नहीं चाहता। हममें तो कितने ही महोदयों ने बड़ी-बड़ी उपाधियाँ प्राप्त की हैं। पर उस शिक्षा ने हममें सिवा विलास-लालसा और सम्मान प्रेम, स्वार्थ-सिद्धि और अहम्मन्यता के और कौन सा सुधार कर दिया। हम अपने घमंड में अपने को जाति का अत्यावश्यक अंग समझते हैं, पर वस्तुतः हम कीट-पतंग से भी गये-बीते हैं। जाति-सेवा करने के लिए दो-हजार मासिक, मोटर, बिजली, पंखे, फिटन, नौकर या चाकर की क्या जरूरत है? आप रुखी रोटियाँ खा कर जाति की सेवा इससे कहीं उत्तम रीति से कर सकते हैं। आप कहेंगे– वाह, हमने परिश्रम से विद्योपार्जन किया है; क्या इसीलिए? तो जब आपने अपने कायिक सुखभोग के लिए इतना अध्यवसाय किया है तब जाति पर इसका क्या एहसान? आप किस मुँह से जाति के नेतृत्व का दावा करते हैं? आप मिलें खोलते हैं, तो समझते हैं हमने जाति की बड़ी सेवा की; पर यथार्थ में आपने दस-बीस आदमियों को बनवास दे दिया। आपने उनके नैतिक और समाजाकि पतन का सामान पैदा कर दिया है। हाँ, आपने और आपके साझेदारों ने 45 रुपये प्रति सैकड़े लाभ अवश्य उठाया। तो भई, जब तक यह धींगा-धींगी चलती है चलने दो। न तुम मुझे बुरा कहो, न मैं तुम्हें बुरा कहूँ। हम और आप, नरम और गरम दोनों ही जाति के शत्रु हैं। अन्तर यह है कि मैं अपने को शत्रु समझता हूँ और आप अहंकार के मद में अपने को उसका मित्र समझते हैं।
इन तर्कों को सुनकर लोग उन्हें बक्की और झक्की कहते थे। अवस्था के साथ राय साहब का संगीत-प्रेम और भी बढ़ता जाता था। अधिकारियों से मुलाकात का उन्हें अब इतना व्यसन नहीं था। जहाँ किसी उस्ताद की खबर पाते, तुरन्त बुलाते और यथायोग्य सम्मान करते। संगीत की वर्तमान अभिरुचि को देखकर उन्हें भय होता था कि अगर कुछ दिनों यही दशा रही तो इसका स्वरूप ही मिट जायेगा, देश और भैरव की तमीज भी किसी को न होगी। वह संगीत-कला को जाति की सर्वश्रेष्ठ सम्पत्ति समझते थे। उनकी अवनति उनकी समझ में जातीय पतन का निकृष्टतम स्वरूप था। व्यय का अनुमान चार लाख किया गया था। राय साहब ने किसी से सहायता माँगना उचित न समझा था, लेकिन कई रईसों ने स्वयं 2-2 लाख के वचन दिये थे। तब भी राय साहब पर 2-2।। लाख का भार पड़ना सिद्ध था। यूरोप से छह नामी संगीतज्ञ आ गये थे दो-दो जर्मनी से, दो इटली से, एक फ्राँस और एक इँगलिस्तान से। मैसूर, ग्वालियर, ढाका, जयपुर, काश्मीर के उस्तादों को निमन्त्रण-पत्र भेज दिये गये थे। राय साहब का प्राइवेट सेक्रेटरी सारे दिन पत्र-व्यवहार में व्यस्त रहता था, तिस पर चिट्ठियों की इतनी कसरत हो जाती थी कि बहुधा राय साहब को स्वयं जवाब लिखने पड़ते थे। इसी काम को निबटाने के लिए उन्होंने ज्ञानशंकर को बुलाया और वह आज ही विद्या के साथ आ गये थे। राय साहब ने गायत्री के न आने पर बहुत खेद प्रकट किया और बोले, वह इसीलिए नहीं आयी है कि मैं सनातन धर्म सभा के उत्सव में न आ सका था। अब रानी हो गयी है! क्या इतना गर्व भी न होगा। यहाँ तो मरने की भी छुट्टी न थी, जाता क्योंकर?
ज्ञानशंकर रात भर के जागे थे, भोजन करके लेटे तो तीसरे पहर उठे। राय साहब दीवानखाने में बैठे हुए चिट्ठियाँ पढ़ रहे थे। ज्ञानशंकर को देखकर बोले, आइए भगत जी, आइए! तुमने तो काया ही पलट दी। बड़े भाग्यवान हो कि इतनी ही अवस्था में ज्ञान प्राप्त कर लिया। यहाँ तो मरने के किनारे आये, पर अभी तक माया-मोह से मुक्त न हुआ। यह देखो, पूना से प्रोफेसर माधोल्लकर ने यह पत्र भेजा है। उन्हें न जाने कैसे यह शंका हो गयी है कि मैं इस देश में विदेशी संगीत का प्रचार करना चाहता हूँ। इस पर आपने मुझे खूब आड़े हाथों लिया है।
ज्ञानशंकर मतलब की बात छेड़ने के लिए अधीर हो रहे थे, अवसर मिल गया, बोले– आपने यूरोप से लोगों को नाहक बुलाया। इसी से जनता को ऐसी शंकाएँ हो रही हैं। उन लोगों की फीस तय हो गयी है?
राय साहब– हाँ, यह तो पहली बात थी। दो सज्जनों की फीस तो रोजाना दो-दो हजार है। सफर का खर्च अलग। जर्मनी के दोनों महाशय डेढ़-डेढ़ हजार रोजाना लेंगे। केवल इटली के दोनों आदमियों ने निःस्वार्थ भाव से शरीक होना स्वीकार किया है।
ज्ञान– अगर यह चारों महाशय यहाँ 15 दिन भी रहें तो एक लाख रुपये तो उन्हीं को चाहिए?
राय– हाँ, इससे क्या कम होगा।
ज्ञान– तो कुल खर्च चाहे 5-5।। लाख तक जा पहुँचे।
राय– तखमीना तो 4 लाख का किया था, लेकिन शायद इससे कुछ ज्यादा ही पड़ जाये।
ज्ञान– यहाँ के रईसों ने भी कुछ हिम्मती दिखायी?
राय– हाँ, कई सज्जनों ने वचन दिये हैं। सम्भव है दो लाख मिल जायँ।
ज्ञान– अगर वह अपने वचन पूरे भी कर दें तो आपको 2।।-3 लाख की जेरबारी होगी।
राय साहब ने व्यंग्यपूर्ण हास्य के साथ कहा, मैं उसे जेरबारी नहीं समझता। धन सुख-भोग के लिए है। उसका और कोई उद्देश्य नहीं है। मैं धन को अपनी इच्छाओं का गुलाम समझता हूँ, उसका गुलाम बनना नहीं चाहता।
ज्ञान– लेकिन वारिसों को भी तो सुख-भोग का कुछ-न-कुछ अधिकार है?
राय– संसार में सब प्राणी अपने कर्मानुसार सुख-दुःख भोगते हैं। मैं किसी के भाग्य का विधाता हूँ।
ज्ञान– क्षमा कीजिएगा, यह शब्द ऐसे पुरुष के मुँह से शोभा नहीं देते जो अपने जीवन का अधिकांश बिता चुका हो।
राय साहब ने कठोर स्वर से कहा, तुमको मुझे उपदेश करने का कोई अधिकार नहीं है। मैं अपनी सम्पत्ति का स्वामी हूँ, उसे अपनी इच्छा और रुचि के अनुसार खर्च करूँगा। यदि इससे तुम्हारे सुख-स्वप्न नष्ट होते हैं तो हों, मैं इसकी परवाह नहीं करता। यह मुमाकिन नहीं कि सारे संसार में इस कान्फ्रेंस की सूचना देने के बाद अब मैं उसे स्थागित कर दूँ। मेरी सारी जायदाद बिक जाये तो भी मैंने जो काम उठाया है उसे अन्त तक पहुँचा कर छोड़ूँगा। मेरी समझ में नहीं आता कि तुम कृष्ण के ऐसे भक्त और त्याग तथा वैराग्य के ऐसे साधक होकर मायामोह में इतने लिप्त क्यों हो? जिसने कृष्ण का दामन पकड़ा, प्रेम का आश्रय लिया, भक्ति की शरण गही, उसके लिए सांसारिक वैभव क्या चीज है! तुम्हारी बातें सुनकर और तुम्हारे चित्त की यह वृत्ति देख कर मुझे संशय होता है कि तुमने बहुरूप धरा है और प्रेम-भक्ति का स्वाद नहीं पाया। कृष्ण का अनुरागी कभी इतना संकीर्ण हृदय नहीं हो सकता। मुझे अब शंका हो रही है कि तुमने यह जाल कहीं सरल हृदय गायत्री के लिए न फैलाया हो।
यह कह कर राय साहब ने ज्ञानशंकर को तीव्र नेत्रों से देखा! उनके सन्देह का निशाना इतना ठीक बैठा था कि ज्ञानशंकर का हृदय काँप उठा। इस भ्रम का मूलोच्छेद करना परमाश्यक था। राय साहब के मन में इसकी जगह पाना अत्यन्त भयंकर था। इतना ही नहीं, इस भ्रम को दूर करने के लिए निर्भीकता की आवश्यकता थी। शिष्टाचार का समय न था। बोले, आपके मुख से स्वाँग और बहुरूप की लांछना सुना कर एक मसल याद आती है, लेकिन आप पर उसे घटित करना नहीं चाहता। जो प्राणी धर्म के नाम पर विषय-वासना और विष-पान को स्तुत्य समझता हो वह यदि दूसरों की धार्मिक वृत्ति को पाखण्ड समझते तो क्षम्य है।
राय साहब ने ज्ञानशंकर को फिर चुभती हुई दृष्टि से देखा और कड़ी आवाज से बोले, तुम्हें सच कहना होगा!
ज्ञानशंकर को ऐसा अनुभव हुआ मानो उनके हृदय पर से कोई पर्दा-सा उठा जा रहा है। उन पर एक अर्द्ध विस्मृति की दशा छा गयी। दीन भाव से बोले– जी हाँ, सच कहूँगा।
राय– तुमने यह जाल किसके लिए फैलाया है?
ज्ञान– गायत्री के लिए।
राय– तुम उससे क्या चाहते हो?
ज्ञान– उसकी सम्पत्ति और उसका प्रेम।
राय साहब खिलखिला कर हँसे। ज्ञानशंकर को जान पड़ा, मैं कोई स्वप्न देखते-देखते जाग उठा। उनके मुँह से जो बातें निकली थीं। वह उन्हें याद थीं। उनका कृत्रिम क्रोध शान्त हो गया था। उसकी जगह उस लज्जा और दीनता ने ले ली थी जो किसी अपराधी के चेहरे पर नजर आती है, वह समझ गये कि राय साहब ने मुझे अपने आत्मबल से वशीभूत करके मेरी दुष्कल्पनाओं को स्वीकार करा लिया। इस समय वह अत्यन्त भयावह रूप में देख पड़ते थे। उनके मन में अत्याचार का प्रत्याघात करने की घातक चेष्टा लहरें मार रही थीं; पर इसके साथ ही उन पर एक विचित्र भय अच्छादित हो गया था। वह इस शैतान के सामने अपने को सर्वथा निर्बल और आशक्त पाते थे। इस परिस्थितियों से वह ऐसे उद्विग्न हो रहे थे कि जी चाहता था आत्महत्या कर लूँ। जिस भवन को वह छः-सात वर्षों से एक-एक ईंट जोड़ कर बना रहे थे, इस समय वह हिल रहा था और निकट था कि गिर पड़े। उसे सँभालना उनकी शक्ति के बाहर था। शोक! मेरे मंसूबे मिट्टी में मिले जाते हैं। इधर से भी गया, इधर से भी गया। यकायक राय साहब बोले– बेटा, तुम व्यर्थ मुझ पर इतना कोप कर रहे हो। मैं इतना क्षुद्र-हृदय नहीं हूँ कि तुम्हें गायत्री की दृष्टि में गिराऊँ। उसकी जायदाद तुम्हारे हाथ लग जाय तो मेरे लिए इससे ज्यादा हर्ष की बात और क्या होगी? लेकिन तुम्हारी चेष्टा उसकी जायदाद ही रहती तो मुझे कोई आपत्ति न होती। आखिर वह जायदाद किसी न किसी को तो मिलेगी ही और जिन्हें मिलेगी वह मुझे तुमसे ज्यादा प्यारे नहीं हो सकते। किन्तु मैं उसके सतीत्व को उसकी जायदाद से कहीं ज्यादा बहुमूल्य समझता हूँ और उस पर किसी की लोलुप दृष्टि का पड़ना सहन नहीं कर सकता। तुम्हारी सच्चरित्रता की मैं सराहना किया करता था, तुम्हारी योग्यता और कार्य-पटुता का मैं कायल था, लेकिन मुझे इसका जरा भी गुमान न था कि तुम इतने स्वार्थ-भक्त हो। तुम मुझे पाखंडी और विषयी समझते हो, मुझे इसका ज़रा भी दुःख नहीं है। अनात्मवादियों को ऐसी शंका होना स्वाभाविक है। किन्तु मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि मैंने कभी सौंदर्य को वासना की दृष्टि से नहीं देखा। मैं सौन्दर्य की उपासना करता हूँ, उसे अपने आत्म-निग्रह का साधन समझता हूँ, उससे आत्म-बल संग्रह करता हूँ, उसे अपनी कुचेष्टाओं की सामग्री नहीं बनाता। और मान लो, मैं विषयी ही सही। बहुत दिन बीत गये हैं, थोड़े दिन और बाकी हैं, जैसा अब तक रहा वैसा ही आगे भी रहूँगा। अब मेरा सुधार नहीं हो सकता। लेकिन तुम्हारे सामने अभी सारी उम्र पड़ी हुई है, इसलिए मैं तुमसे अनुरोध करता हूँ और प्रार्थना करता हूँ कि इच्छाओं के कुवासनाओं के गुलाम मत बनो। तुम इस भ्रम में पड़े हुए हो कि मनुष्य अपने भाग्य का विधाता है। यह सर्वथा मिथ्या है। हम तकदीर के खिलौने हैं, विधाता नहीं। वह हमें अपनी इच्छानुसार नचाया करती है। तुम्हें क्या मालूम है कि जिसके लिए तुम सत्यासत्य में विवेक नहीं करते, पुण्य और पाप को समान समझते हो उस शुभ मुहूर्त तक सभी विघ्न-बाधाओं से सुरक्षित रहेगा? सम्भव है कि ठीक उस समय जब जायदाद पर उसका नाम चढ़ाया जा रहा हो एक फुंसी उसका काम तमाम कर दे। यह न समझो कि मैं तुम्हारा बुरा चेत रहा हूँ। तुम्हें आशाओं की असारता का केवल एक स्वरूप दिखाना चाहता हूँ। मैंने तकदीर की कितनी ही लीलाएँ देखी हैं और स्वयं स्वयं उसका सताया हुआ हूँ। उसे अपनी शुभ कल्पनाओं के साँच में ढालना हमारी सामर्थ्य से बाहर है। मैं नहीं कहता कि तुम अपने और अपनी सन्तान के हित की चिन्ता मत करो, धनोपार्जन न करो। नहीं, खूब धन कमाओ और खूब समृद्धि प्राप्त करो, किन्तु अपनी आत्मा और ईमान को उस पर बलिदान न करो। धूर्तता और पाखंड, छल और कपट से बचते रहो। मेरी जायदाद 20 लाख से कम की मालियत नहीं है। अगर दो-चार लाख कर्ज ही हो जाये तो तुम्हें घबड़ाना नहीं चाहिए। क्या इतनी सम्पत्ति मायाशंकर के लिए काफी नहीं है। तुम्हारी पैतृक सम्पत्ति भी 2 लाख से कम की नहीं है। अगर इसे काफी नहीं समझते हो तो गायत्री की जायदाद पर निगाह रखो, इसे मैं बुरा नहीं कहता। अपने सुप्रबन्ध से, कार्य कुशलता से, किफायत से, हितेच्छा से, उसके कृपा-पात्र बन जाओ, न कि उसके भोलेपन, उसकी सरलता और मिथ्या भक्ति को अपनी कूटनीति का लक्ष्य बनाओ और प्रेम का स्वाँग भर कर उसके जीवन-रत्न पर हाथ बढ़ाओ।
इतने में प्राइवेट सेक्रेटरी साहब आये। राय साहब उनकी ओर आकृष्ट हो गये। ज्ञानशंकर रो रहे थे। भेद खुल जाने का शोक था, चिरसंचित अभिलाषाओं के विनष्ट हो जाने का दुःख, कुछ ग्लानि, कुछ अपनी दुर्जनता का खेद, कुछ निर्बल क्रोध। तर्कना शक्ति इतने आघातों का प्रतिरोध न कर सकती थी।
ज्ञानशंकर उठ कर बगल में बेंच पर जा बैठे। माघ का महीना था और सन्ध्या का समय। लेकिन उन्हें इस समय जरा भी सरदी न लगती थी। समस्त शरीर अंतरस्थ चिन्तादाह से खौल रहा था। राय साहब का उपदेश सम्पूर्णतः विस्मृत हो गया था। केवल यह चिन्ता थी कि गिरती हुई दीवार को क्योंकर थामें, मरती हुई अभिलाषाओं को क्योंकर सँभालें? यह महाशय कहते हैं कि मैं गायत्री से कुछ न कहूँगा, लेकिन इनका एतबार ही क्या? इन्होंने जहाँ उनके कान भरे वह मेरी सूरत से घृणा करने लगेगी। गौरवशाली स्त्री है, उसे अपने सतीत्व पर घमंड है। यद्यपि उसे मुझसे प्रेम है, किन्तु अभी तक उसका आधार धर्म पर है, मनोवेगों पर नहीं। उसकी स्थिति का क्या भरोसा? दुष्ट अपनी जायदाद का सर्वनाश तो किये ही डालता है, उधर का द्वार भी बंद किए देता है कि मुझे कहीं निकलने का मार्ग ही न मिले! मैं इतनी निराशाओं का भार नहीं सह सकता। इस जीवन में अब कोई आनन्द न रहा। जब अभिलाषाओं का ही अन्त हुआ जाता है तब जीकर ही क्या करना है? हा! क्या सोचता था और क्या हो रहा है?
राय साहब तो शाम को क्लब चले गये और ज्ञानशंकर उसी निर्जन स्थान पर बैठे हुए जीवन और मृत्यु का निर्णय करते रहे। उनकी दशा उस व्यापारी की-सी थी जिनका सब कुछ जल-मग्न हो गया हो, या उस विद्यार्थी की सी थी जो वर्षों से कठिन श्रम के बाद परीक्षा में गिर गया हो। जब बाग में खूब ओस पड़ने लगी तो वह उठ कर कमरे में चले गये। फिर उन्हीं चिन्ताओं ने आ घेरा। जीवन में अब निराशा और अपमान के सिवा और कुछ नहीं रहा। ठोकरें खाता रहूँगा। जीवन का अन्त ही अब मेरे डूबते हुए बेड़े को पार लगा सकता है। राय साहब इतने नीच नहीं हैं कि मरने पर भी मुझे बदनाम करें। उन्होंने बहुत सच कहा था कि मनुष्य अपने भाग्य का खिलौना है। मैं इस दशा में हूँ कि मृत्यु ही मेरे दुःखों का एकमात्र उपाय है। सामान्यतः लोग यही समझेंगे कि मैंने संसार से विरक्त हो कर प्राण त्याग दिए, माया-मोह के बन्धन से मुक्त हो गया। ऐसी मुक्त आत्मा के लिए यह अन्धकारमय जगत् अनुकूल न था। विद्या की निगाह में मेरा आदर कई गुना बढ़ जायेगा और गायत्री तो मुझे कृष्ण का अवतार समझने लगेगी। बहुत सम्भव है कि मेरी आत्मा को प्रसन्न करने के लिए वह माया को गोद ले ले। चचा और भाई दोनों मुझ पर कुपित हैं। मौत उनको भी नर्म कर देगी और मुश्किल ही क्या है। कल गोमती स्नान करने जाऊँ। एक सीढ़ी भी नीचे उतर गया तो काम तमाम है। बीस हजार जो मैं नगद छोड़े जाता हूँ, विद्या के निर्वाह के लिए काफी हैं। लखनपुर की आमदानी अलग।
यह सोचते-सोचते ज्ञानशंकर इतने शोकातुर हुए कि जोर-जोर से सिसकियाँ भर कर रोने लगे। यही जीवन का फल है? इसीलिए दुनिया-भर के मनसूबे बाँधे थे। यह दुष्ट कमलानन्द मेरी गरदन पर छुरी फेर रहा है। यही निर्दयी मेरी जान का गाहक हो रहा है।
इतने में विद्यावती आ गयी और बोली, आज दादा जी और तुमसे कुछ तकरार हो गयी क्या? मुख्तार साहब कहते थे कि राय साहब बड़े क्रोध में थे। तुम नाहक उनके बीच में बोला करते हो। वह जो कुछ करें करने दो। अम्माँ समझाते-समझाते मर गयीं, इन्होंने कभी रत्ती भर परवाह न की! अपने सामने वह किसी को कुछ समझते ही नहीं।
ज्ञान– मैंने तो केवल इतना कहा कि आपको व्यर्थ 2-3 लाख रुपया फूँक देना उचित नहीं है। बस इतनी-सी बात पर बिगड़ गये।
विद्या– यह तो उनका स्वभाव ही है। जहाँ उनकी बात किसी ने काटी और वह आग हुए। बुरा मुझे भी लग रहा है, पर मुँह खोलते काँपती हूँ।
ज्ञान– मुझे इनकी जायदाद की परवाह नहीं है। मैंने वृन्दावनविहारी का आश्रय लिया है, अब किसी बात की अभिलाषा नहीं; लेकिन यह अनर्थ नहीं देखा जाता।
विद्या चली गयी। थोड़ी देर में महाराज ने भोजन की थाली लाकर रख दी। लेकिन ज्ञानशंकर को कुछ खाने की इच्छा न हुई। थोड़ा सा दूध पी लिया और फिर विचारों में मग्न हुए– स्त्रियों के विचार कितने संकुचित होते हैं! तभी तो इन्हें संतोष हो जाता है। वह समझती हैं, आदमी को चैन से भोजन, वस्त्र मिल जायँ, गहने-जेवर बनते जायँ, संतानें होती जायँ, बस और क्या चाहिए। मानो मानव-जीवन भी अन्य जीवधारियों की भाँति केवल स्वाभाविक आवश्यकताएँ पूरी करने के ही लिए है। विद्या को कितना संतोष है! लोग स्त्रियों को इस गुण की बड़ी प्रशंसा करते हैं। मेरा विचार तो यह है कि धैर्य और संतोष उनकी बुद्धिहीनता का प्रणाम है। उनमें इतना बुद्धि-सामर्थ ही नहीं होता कि अवस्था और स्थिति का यथार्थ अनुमान कर सकें। राय साहब की फूँक ताप विद्या को भी अखरती है, लेकिन कुछ बोलती नहीं, जरा भी चिन्तित नहीं है। यह नहीं समझती कि वह सरासर अपनी ही हानि, अपना ही सर्वनाश है। दशा ने कैसा पलटा खाया है। अगर मेरे मनसूबे सफल हो जाते तो दो-चार वर्ष में 3 लाख रुपये वार्षिक का आदमी होता। दस-पन्द्रह वर्षों में अतुल सम्पत्ति का स्वामी होता– लेकिन मन की मिठाई खाने से क्या होता है?
ज्ञानशंकर बड़ी गम्भीर प्रकृति के मनुष्य थे। उसमें शुद्धि संकल्प की भी कमी न थी। झोकों में उनके पैर न उखड़ते थे, कठिनाइयों में उनकी हिम्मत न टूटती थी। गोरखपुर में उन पर चारों ओर से दाँव-पेंच होते रहे लेकिन उन्होंने कभी परवाह न की। लेकिन उनकी अविचलता वह थी जो परिस्थिति-ज्ञान-शून्यता की हद तक जा पहुँचती है। वह उन जुआरियों में न थे, जो अपना सब-कुछ एक दाँव पर हारकर अकड़ते हुए चलते हैं। छोटी-छोटी हारों का, छोटी-छोटी असफलताओं का असर उन पर न होता था, लेकिन उन मन्तव्यों का नष्ट-भ्रष्ट हो जाना जिन पर जीवन उत्सर्ग कर दिया गया हो, धैर्य को भी विचलित, अस्थिर कर देता है; और फिर यहाँ केवल नैराश्य और शोक न था। मेरे छल-कपट का परदा खुल गया! मेरी भक्ति और धर्मनिष्ठा की, मेरे वैराग्य और त्याग की, मेरे उच्चादर्शों की, मेरे पवित्र आचरण की कलई खुल गयी! संसार अब मुझे यथार्थ रूप में देखेगा। अब तक मैंने अपनी तर्कनाओं से, अपनी प्रगल्भता से, अपनी कलुषता को छिपाया। अब वह बात कहाँ?
ज्ञानशंकर को नींद न आयी। जरा आँखें झपक जातीं तो भयावह स्वप्न दिखायी देने लगते। कभी देखते, मैं गोमती में डूब गया हूँ और मेरा शव चिता पर जलाया जा रहा है। कभी नजर आता, मेरा विशाल भवन विध्वंस हो गया है और मायाशंकर उसके भग्नावेश पर बैठा रो रहा है। एक बार ऐसा जान पड़ा कि गायत्री मेरी ओर से कोप-दृष्टि से देख पड़ी है, तुम मक्कार हो, आँखों से दूर हो जाओ!
प्रातः काल ज्ञानशंकर उठे तो चित्त बहुत खिन्न था। ऐसे अलसाये हुए थे, मानो कई मंजिल तय करके आये हों। उन्होंने किसी से कुछ बातचीत न की। धोती उठायी और पैदल गोमती की ओर चले। अभी सूर्योदय नहीं हुआ था, लेकिन तमाखू वालों की दूकानें खुल गयी थीं। ज्ञानशंकर ने सोचा, क्या तम्बाकू ही जीवन की मुख्य वस्तु है कि सबसे पहले इनकी दूकान खुलती है? जरा देर में ‘मलाई-मक्खन’ की ध्वनि कानों में आयी। दुष्ट कितना-जीभ ऐंठ कर बोलता है। समझता होगा कि यह कर्णकटु शब्द रुचिवर्द्धक होंगे। भला गाता हो एक बात भी थी। अच्छा। ‘चाय गरम’ भी आ पहुँची। गर्म तो अवश्य ही होगी, बिना फूँके पियो तो जीभ जल जाय, मगर स्वाद वही गर्म पानी का। यह कौन महाशय घोड़ा दौड़ाये चले जाते हैं। कोई फौजी अफसर हैं। घोड़ा जरा ठोकर ले तो साहब बहादुर का हड्डियाँ चूर हो जायँ।
वह गोमती के तट पर पहुँचे तो भक्त जनों की भीड़ देखी। श्यामल जल-धारा पर श्यामल कुहिर छटा छायी हुई थी। सूर्य की सुनहरी किरणें इस श्याम घटा में प्रविष्ट होने के लिए उत्सुक थीं। दो-चार नौकाएँ पानी में खड़ी काँप रही थीं।
ज्ञानशंकर ने धोती चौकी पर रख दी और पानी में घुसे तो सहसा उनकी आँखें सजल हो गयीं। कमर तक पानी में गये। आगे बढ़ने का साहस न हुआ। अपमान और नैराश्य के जिन भावों ने उनकी प्रेरणाओं को उत्तेजित कर रखा था वह अकस्मात् शिथिल पड़ गये। कितने रण-भेद के मतवाले रणक्षेत्र में आकर पीठ फेर लेते हैं। मृत्यु दूर से इतनी विकराल नहीं दीख पड़ती; जितनी सम्मुख आकर, सिंह कितना भयंकर जीव है, इसका अनुमान उसे सामने देख कर हो सकता है। पहाड़ों को दूर से देखो तो ऊँची मेड़ के सदृश दिखाई पड़ते हैं, उन पर चढ़ना आसान मालूम होता है, किन्तु समीप जाइए तो उनकी गगन-स्पर्शी चोटियों को देखकर चित्त कैसा भयभीत हो जाता है! ज्ञानशंकर ने मरने को जितना सहज समझा था उससे कहीं कठिन ज्ञात हुआ। उन्हें विचार हुआ, मैं कैसा मन्द बुद्धि हूँ कि एक जरा सी बात के लिए प्राण देने पर तत्पर हो रहा हूँ। माना, मैं राय साहब की नजरों में गिर गया, माना गायत्री भी मुझे मुँह न लगायेगी और विद्या भी मुझसे घृणा करने लगेगी। तब भी क्या में जीवनकाल में कुछ काम नहीं कर सकता? अपना जीवन सफल नहीं बना सकता? संसार का कर्म क्षेत्र इतना तंग नहीं है। मैं इस समय आज से छह-सात वर्ष पूर्व की अपेक्षा कहीं अच्छी दशा में हूँ। मेरे 20 हजार रुपये बैंक में जमा हैं, 200 मासिक की आमदानी गाँव से है, बँगला है, मोटर है, मकान किराये पर बैठा दूँ तो 50-60 माहवर और मिलने लगें। अगर किसी की चाकरी न करूँ तो भी एक भले आदमी की भाँति जीवन व्यतीत कर सकता हूँ। राय साहब यदि मेरी कलाई खोल दें तो क्या मैं उनकी खबर नहीं ले सकता? उन्हें अपने कलम के जोर से इतना बिगाड़ सकता हूँ कि वह किसी को मुँह दिखाने योग्य न रहेंगे। गायत्री भी मेरे पंजों में है, मेरी तरफ से जरा भी निगाह मोटी करे तो आन की आन में इस उच्चासन से गिरा सकता हूँ। उसे मैंने ही नेकनाम बनाया है और बदनाम भी कर सकता हूँ। मेरी बुद्धि न जाने कहाँ चली गयी थी। कूटनीति की रंगभूमि क्या इतनी संकीर्ण है? अब तक मुझे जो कुछ सफलता हुई है, इसी की बदौलत हुई है तो अब मैं उसका दामन क्यों छोड़ूँ? उससे निराश क्यों हो जाऊँ? अगर इस टूटी हुई नौका पर बैठ कर मैंने आधी नदी पार कर ली है। तो अब उस पर से जल में क्यों कूद पडूँ?
ज्ञानशंकर स्नान करके जल से निकल आये। उनका चेहरा विजय-ज्योति से चमक रहा था।
लेकिन जिस प्रकार विजयी सेना शत्रुदल को मैदान से हटा कर और भी उत्साहित हो जाती है और शत्रु को इतना निर्बल और अपंग बना देती है कि फिर उसके मैदान में आने की सम्भावना ही न रहे, उसी प्रकार ज्ञानशंकर के हौसले भी बढ़े। सोचा, इसकी नौबत ही क्यों आने दूँ कि मुझ पर चारों ओर से आक्षेप होने लगें और मैं अपनी सफाई देता फिरूँ? मैं मर कर नेकनाम बनना चाहता था, क्यों न मारकर वही उद्देश्य पूरा करूँ? इस समय यही पुरुषोचित कर्त्तव्य है। मरने से मारना कहीं सुगम है। भाग्य-विधाता! तुम्हारी लीला कितनी विचित्र है। तुमने मुझको मृत्यु के मुख से निकाल लिया! बाल-बाल बचा! मैं अब भी अपने मनसूबों को पूरा कर सकता हूँ। विभव, यश, सुकीर्ति सब कुछ मेरे अधीन है केवल थोड़ी सी हिम्मत चाहिए। ईश्वर का कोई भय नहीं; वह सर्वज्ञ है। पर्दा तो केवल मनुष्य की आँखों पर डालना है, और मैं इस काम में सिद्घहस्त हूँ।
ज्ञानशंकर एक किराये के ताँग पर बैठ कर घर आये। रास्ते भर वह इन्हीं विचारों में लीन रहे। उनकी सिद्धि-प्राप्ति के मार्ग में राय साहब ही बाधक हो रहे थे। इस बाधा को हटाना आवश्यक था। पहले ज्ञानशंकर ने निराश होकर मार्ग से लौट जाने का निश्चय किया था। अपने प्राण देकर इस संकट में निवृत्त होना चाहते थे। अब उन्होंने राय साहब को ही अपनी आकांक्षाओं की वेदी पर बलिदान करने की ठानी। संसार इसे हिंसा कहेगा, उसकी दृष्टि से यह घोर पाप– सर्वथा अक्षम्य अमानुषीय। लेकिन दार्शनिक दृष्टि से देखिए तो इससे पाप का सम्पर्क तक नहीं है। राय साहब के मरने से किसी को हानि क्या होगी? उनके बाल-बच्चे नहीं है जो अनाथ हो जायेंगे। वह कोई ऐसा महान कार्य नहीं कर रहे हैं जो उनके मर जाने से अधूरा रह जायेगा, उनकी जायदाद का भी ह्रास नहीं होगा; बल्कि एक ऐसी व्यवस्था का आरोपण हुआ जाता है जिससे वह सुरक्षित रहेगी। समाज और अर्थशास्त्र के सिद्धान्त के अनुसार तो इसे हत्या कह ही नहीं सकते। नैतिक दृष्टि से भी इस पर कोई आपत्ति नहीं हो सकती। केवल धार्मिक दृष्टि से इसे पाप कहा जा सकता है। और लौकिक रीति के अनुसार तो यह काम केवल, सराहनीय ही नहीं परमावश्यक है। यह जीवन संग्राम है। इस क्षेत्र में विवेक, धर्म और नीति का गुजर नहीं। यह कोई धर्मयुद्ध नहीं है! यहाँ कपट, दगा, फरेब सब कुछ उपयुक्त है, अगर उससे अपना स्वार्थ सिद्ध होता है। यहाँ छापा, मारना, आड़ से शस्त्र चलाना विजय प्राप्ति के साधन हैं। यहाँ औचित्य-अनौचित्य का निर्णय हमारी सफलता के अधीन हैं। अगर जीत गये तो सारे धोखे और मुगालते सुअवसर के नाम से पुकारे जाते हैं हमारी कार्य कुशलता की प्रशंसा होती है। हारे तो उन्हें पाप कहा जाता है। बस, इस पत्थर को मार्ग से हटा दूँ और मेरा रास्ता साफ है।
ज्ञानशंकर ने नाना प्रकार के तर्कों से इन मनोगत विचारों को उसी तरह प्रोत्साहित किया, जैसे कोई कबूतरबाज बहके हुए कबूतरों के दाने बिखेर-बिखेर कर अपनी छतरी पर बुलाता है। अन्त में उनकी हिंसात्मक प्रेरणा दृढ़ हो गयी। जगत हिंसा के नाम से काँपता है हिंसक पर बिना समझे-बूझे चारों ओर से वार होने लगते हैं। वह दुरात्मा है, दंडनीय है, उसका मुँह देखना भी पाप है। लेकिन यह संसार केवल मूर्खों की बस्ती है। इसके विचारों का सम्मान करना काँटों पर चलना है। यहाँ कोई नियम नहीं, कोई सिद्धान्त नहीं। कोई न्याय नहीं। इसकी जबान बन्द करने का बस एक ही उपाय है। इसकी आँखों पर परदा डाल दो और वह तुसमें ज़रा भी एतराज न करेगी। इतना ही नहीं, तुम समाज के सम्मान के अधिकारी हो जाओगे।
घर पहुँच कर ज्ञानशंकर तुरन्त राय साहब के पुस्तकालय में गये और अंग्रेजी का वृहत् रसायन कोष निकाल कर विषाक्त पदार्थों के गुण प्रभाव का अन्वेषण करने लगे।
42
दो दिन हो गये और ज्ञानशंकर ने राय साहब से मुलाकात न की। रायसाहब उन निर्दय पुरुषों में न थे जो घाव लगाकर उस पर नमक छिड़कते हैं। वह जब किसी पर नाराज होते तो यह मानी हुई बात थी कि उसका नक्षत्र बलवान है, सौभाग्य चन्द्र उसके दाहिने है, क्योंकि क्रोध शान्त होते ही अपने कटु व्यवहारों का बड़ी उदारता के साथ प्रायश्चित किया करते थे। एक बार एक टहलुवे को इसलिए पीटा था कि उसने फर्श पर पानी गिरा दिया था। दूसरे ही दिन पाँच बीघे जमीन उसे मुआफी दे दी। एक कारिन्दे से गबन के मामले में बहुत बिगड़े और अपने हाथों से हंटर लगाये, किन्तु थोड़े ही दिन पीछे उसका वेतन बढ़ा दिया! हाँ, यह आवश्यक था कि चुपचाप धैर्य के साथ उनकी बातें सुन ली जायँ, उनसे बतबढ़ाव न किया जाये। ज्ञानशंकर को धिक्कारने के एक ही क्षण पीछे उन्हें पश्चात्ताप होने लगा। भय हुआ कि कहीं वह रूठ कर चल न दें। संसार में ऐसा कौन प्राणी है जो स्वार्थ के लिए अपनी आत्मा का हनन न करता हो। मैं खुद भी तो निःस्पृह नहीं हूँ। जब संसार की यही प्रथा है तो मुझे उनका इतना तिरस्कार करना उचित न था। कम-से-कम मुझे उनके आचरण को कलंकित न करना चाहिए था। विचारशील पुरुष हैं, उनके लिए इशारा काफी है। लेकिन मैंने गुस्से में आ कर खुली-खुली गालियाँ दीं। अतएव आज वह भोजन करने बैठे तो महाराज से कहा, बाबू जी को यहाँ बुला लो और उनकी थाली भी यहाँ लाओ। न आयें तो कहना आप न चलेंगे तो वह भी भोजन न करेंगे। ज्ञानशंकर राजी न होते थे। पर विद्या ने समझाया, चले क्यों नहीं जाते! जब वह बड़े होकर बुलाते हैं तो न जाने से उन्हें दुःख होगा। उनकी आदत हैं कि गुस्से में जो कुछ मुँह में आया बक जाते हैं, लेकिन पीछे से लज्जित होते हैं। ज्ञानशंकर अब कोई हीला न कर सके। रोनी सूरत बनाये हुए आये और राय साहब से जरा हट कर आसन पर बैठ गये। राय साहब ने कहा, इतनी दूर क्यों बैठे हो? मेरे पास आ जाओ देखो, आज मैंने तुम्हारे लिए कई अँग्रेजी चीजें बनवायी है। लाओ महाराज, यहीं थाली रखो।
ज्ञानशंकर ने दबी दबान से कहा, मुझे तो इस समय जरा भी इच्छा नहीं है, क्षमा कीजिये।
राय साहब– इच्छा तो सुगन्ध से हो जायेगी, थाली सामने तो आने दो। महाराज को मैंने इनाम देने का वादा किया है। उसने अपनी सारी अक्ल खर्च कर दी होगी।
महाराज ने थाली ला कर ज्ञानशंकर के सामने रख दी। ज्ञानशंकर के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। एक रंग आता था, एक रंग जाता था। छाती बड़े वेग से धड़क रही थी। भय ने आशा को दबा दिया था। वह किसी प्रकार यहाँ से भागना चाहते थे। यह दृश्य उनके लिए असह्य था। उनके शरीर का एक-एक अंग थरथर काँप रहा था, यहाँ तक कि स्वर भी भंग हो रहा था। उन्हें इस समय अनुभव हो रहा था कि जान लेने से कहीं दुष्कर है।
राय साहब ने पाँच ही चार कौर खाये थे कि सहसा उन्होंने थाली से हाथ खींच लिया और ज्ञानशंकर को तीव्र और मर्म-भेदी दृष्टि से देखा। ज्ञानशंकर के प्राण सूख गये। राय साहब ने यदि गोली चलायी तो भी उन्हें इतनी चोट न लगती। संज्ञा-शून्य से हो गये। ऐसा जान पड़ता था। मानो कोई आकर्षण शक्ति प्राणों को खींच रही है। अपनी नाव को भँवर में डूबते पा कर भी कोई इतना भयभीत, इतना असावधान न होता होगा। राय साहब की तीव्र दृष्टि से सिद्ध कर दिया कि रहस्य खुल गया, सारे यत्न, योजनाएँ निष्फल हो गयीं! हा हतभाग! कहीं का न रहा! क्या जानता था कि यह महाशय ऐसे आत्मदर्शी हैं।
इतने में राय साहब ने अपमानसूचक भाव से मुस्कुराकर कहा, मैंने एक बार तुमसे कह दिया कि धन-सम्पत्ति तुम्हारे भाग्य में नहीं है, तुम जो चालें चलोगे वह सब उल्टी पड़ेंगी। केवल लज्जा और ग्लानि हाथ रहेगी।
ज्ञानशंकर ने अज्ञान भाव से कहा, मैंने आपका आशय नहीं समझा।
राय साहब– बिलकुल झूठ है। तुम मेरा आशय खूब समझ रहे हो। इससे ज्यादा कुछ कहूँगा तो उसका परिणाम अच्छा न होगा। मैं चाहूँ तो सारी राम कहानी तुम्हारी जबान से कहवा लूँ, लेकिन इसकी जरूरत नहीं। तुम्हें बड़ा भ्रम हुआ। मैं तुम्हें बड़ा चतुर समझता था; लेकिन अब विदित हुआ कि तुम्हारी निगाह बहुत मोटी है। तुम्हारा इतने दिनों तक मुझसे सम्पर्क रहा, लेकिन अभी तक तुम मुझे पहचान न सके। तुम सिंह का शिकार बाँस की तोलियों से करना चाहते हो, इसलिए अगर दबोच में आ जाओ तो तुम्हारा अपना दोष है। मुझे मनुष्य मत समझो, मैं सिंह हूँ। अगर अभी अपने दाँत और पंजे दिखा दूँ तो तुम काँप उठोगे। यद्यपि यह थाल बीस-पच्चीस आदमियों को सुलाने के लिए काफी है, शायद यह एक कौर खाने के बाद उन्हें दूसरे कौर की नौबत न आयेगी, लेकिन मैं पूरा थाल हजम कर सकता हूँ और तुम्हें मेरे माथे पर बल भी न दिखाई देगा। मैं शक्ति का उपासक हूँ ऐसी वस्तुएँ मेरे लिए दूध और पानी हैं।
यह कहते-कहते राय साहब ने थाल से कई कौर उठा कर जल्द-जल्द खाये। अकस्मात् ज्ञानशंकर तेजी से लपके, थाल उठाकर भूमि पर पटक दिया और राय साहब के पैरों पर गिर कर बिलख-बिलख रोने लगे। राय साहब की योगसिद्धि ने आज उन्हें परास्त कर दिया उन्हें ज्ञात हुआ कि यह चूहे और सिंह की लड़ाई है।
राय साहब ने उन्हें उठाकर बिठा दिया और बोले– लाला, मैं इतना कोमल हृदय नहीं हूँ कि इस आँसुओं से पिघल जाऊँ। आज मुझे तुम्हारा यथार्थ रूप दिखायी दिया। तुम अधर्म स्वार्थ के पंजे में दबे हुए हो। यह तुम्हारा दोष नहीं, तुम्हारी धर्म-विहीन शिक्षा का दोष है? तुम्हें आदि से ही भौतिक शिक्षा मिली। हृदय के भाव दब गये। तुम्हारे गुरुजन स्वयं स्वार्थ के पुतले थे। उन्होंने कभी सरल सन्तोषमय जीवन का आदर्श तुम्हारे सामने नहीं रखा। तुम अपने घर में, स्कूल में, जगत् में नित्य देखते थे कि बुद्धि-बल का कितना मान है। तुमने सदैव इनाम पदक पाए, कक्षा में तुम्हारी प्रशंसा होती रही, प्रत्येक अवसर पर तुम्हें आदर्श बनाकर दूसरों को दिखाया जाता था। तुम्हारे आत्मिक विकास की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया, तुम्हारे मनोगत भावों को, तुम्हारे उद्गारों को सन्मार्ग पर ले जाने की चेष्टा नहीं की गयी। तुमने धर्म और भक्ति का प्रकाश कभी नहीं देखा, जो मन पर छाये हुए तिमिर को नष्ट करने का एक ही साधन है। तुम जो कुछ हो, अपनी शिक्षा प्रणाली के बनाये हुए हो। पूर्व के संस्कारों ने जो अंकुश जमाया था, शिक्षा के सघन वृक्ष बना दिया। तुम्हारा कोई दोष नहीं, काल ओर देश का दोष है। मैं क्षमा करता हूँ और ईश्वर से विनती करता हूँ कि वह तुम्हें सद्बुद्धि दे।
राय साहब के होंठ नीले पड़ गये, मुख कान्तिहीन हो गया, आँखें पथरानें लगीं। माथे पर स्वेद बिन्दु चमकने लगे, पसीने से सारा शरीर तर हो गया, साँस बड़े वेग से चलने लगी। ज्ञानशंकर उनकी यह दशा देखकर विकल हो गये, काँपते हुए हाथों से पंखा झलने लगे; लेकिन राय साहब ने इशारा किया कि यहाँ से चले जाओ, मुझे अकेला रहने दो और तुरन्त भीतर से द्वार बन्द कर दिया। ज्ञानशंकर मूर्तिवत् द्वार पर खड़े थे, मानो किसी ने उनके पैरों को गाड़ दिया हो। इस समय उन्हें अपने कुकृत्य पर इतना अनुताप हो रहा था कि जी चाहता था कि उसी थाल का एक कौर खा कर इस जीवन का अंत कर लूँ। पहले कुछ असर न होगा। लेकिन अब इस आशा की जगह भय हो रहा था कि उन्होंने अपनी योग-शक्ति का भ्रमात्मक अनुमान किया था? क्या करूँ! किसी डॉक्टर को बुलाऊँ? उस धन-लिप्सा का सत्यानाश हो जिसने मन में यह विषय प्रेरणा उत्पन्न की, जिसने मुझसे यह हत्या करायी। हा कुटिल स्वार्थ! तूने मुझे नर-पिशाच बना दिया! मैं क्यों इनका शत्रु हो रहा हूँ? इसी जायदाद के लिए, इसी रियासत के लिए, इसी सम्पत्ति के लिए! क्या वह सम्पत्ति मेरे हाथों में आ कर दूसरों को मेरा शत्रु न बना देगी? कौन कह सकता है कि मेरा भी यही अन्त न होगा।
ज्ञानशंकर ने द्वार पर कान लगा कर सुना। ऐसा जान पड़ा कि राय साहब हाथ-पैर पटक रहे हैं। मारे भय के ज्ञानशंकर को रोमांच हो गया। उन्हें अपनी अधम नीचता, अपनी घोरतम पैशाचिक प्रवृत्तियों पर ऐसा शोकमय पश्चात्ताप कभी न हुआ था। उन्हें इस समय परिणाम कि राय साहब की न जाने क्या गति हो रही है। कोई जबरदस्ती भी करता तो वह वहाँ से न हटते। मालूम नहीं, एक क्षण में क्या हो जाय।
इतने में महाराज थाली में कुछ और पदार्थ लाया। उसे देखते ही ज्ञानशंकर का रक्त सूख गया। समझ गये कि अब प्राण न बचेंगे। यह दुष्ट अभी यहाँ का हाल देखकर शोर मचा देगा। खोज-पूछ होने लगेगी, गिरफ्तार हो जाऊँगा। वह इस समय उन्हें काल स्वरूप देख पड़ता था। उन्होंने उसे समीप न आने दिया, दूर से ही कहा, हम लोग भोजन कर चुके, अब कुछ न लाओ।
महाराज ने बन्द किवाड़ों को कुतूहल से देखा और आगे बढ़ने की चेष्टा की कि अकस्मात् ज्ञानशंकर बाज की तरह झपटे और उसे जोर से धक्का दे कर कहा, तुमसे कहता हूँ कि यहाँ किसी चीज की जरूरत नहीं है, बात क्यों नहीं सुनते? महाराज हक्का-बक्का हो कर ज्ञानशंकर का मुँह ताकने लगा। ज्ञानशंकर इस समय उस संशक दशा में थे, जब कि मनुष्य पत्ते का खुड़का सुनकर लाठी सँभाल लेता है। उन्हें अब राय साहब की चिन्ता न थी। उनके विचारों में वह चिन्ता की उद्घाटक शक्ति से बाहर हो गये थे। वह अब अपनी जान की खैर मना रहे थे। सम्पूर्ण इच्छा शक्ति इस रहस्य को गुप्त रखने में व्यस्त हो रही थी।
यकायक भीतर से द्वार खुला और राय साहब बाहर निकले। उनका मुखड़ा रक्तवर्ण हो रहा था। आँखें भी लाल थीं, पसीने से तर थे माने कोई लोहार भट्टी के सामने से उठ कर आया हो। दोनों थाल समेट कर एक जगह रख दिये गये थे। कटोरे भी साफ थे। सब भोजन एक अँगीठी में जल रहा था। अग्नि उन पदार्थों का रसास्वादन कर रही थी।
क्षण-मात्र में ज्ञानशंकर के विचारों ने पलटा खाया। जब तक उन्हें शंका थी कि राय साहब दम तोड़ रहे हैं तब तक उनकी प्राण-रक्षा के लिए ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे। जब बाहर खड़े-खड़े निश्चय हो गया कि राय साहब के प्राणान्त हो गये तब वह अपनी जान की खैर मनाने लगे। अब उन्हें सामने देखकर क्रोध आ रहा था कि वह मर क्यों न गये। इतना तिरस्कार, इतना मानसिक कष्ट व्यर्थ सहना पड़ा! उनकी दशा इस समय थके-माँदे हलवाहे की-सी हो रही थी, जिसके बैल खेत से द्वार पर बिदक गये हों, दिन भर कठिन परिश्रम के बाद सारी रात अँधेर में बैलों के पीछे दौड़ने की सम्भावना उसकी हिम्मत को तोड़े डालती हो।
राय साहब ने बाहर निकल कर कई बार जोर से साँस ली मानो दम घुट रहा हो, तब काँपते हुए स्वर से बोले, मरा नहीं लेकिन मरने से बदतर हो गया। यद्यपि मैंने विष को योग-क्रियाओं से निकाल दिया लेकिन ऐसा मालूम हो रहा है कि मेरी धमनियों में रक्त की जगह कोई पिघली हुई धातु दौड़ रही है। वह दाह मुझे कुछ दिन में भस्म कर देगी। अब मुझे फिर पोलो और टेनिस खेलना नसीब न होगा। मेरे जीवन की अनन्त शोभा का अन्त हो गया। अब जीवन में वह आनन्द कहाँ, जो शोक और चिन्ता को तुच्छ समझता था; मैंने वाणी से तो तुम्हें क्षमा कर दिया है, लेकिन मेरी आत्मा तुम्हें क्षमा न करेगी। तुम मेरे लड़के हो, मैं तुम्हारे पिता के तुल्य हूँ, लेकिन हम-सब एक दूसरे का मुँह न देखेंगे। मैं जानता हूँ कि इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है, यह हमारे वर्तमान लोक-व्यवहार का दोष है, किन्तु यह जान कर भी हृदय को सन्तोष नहीं होता। यह सारी विडम्बना इसी जायदाद का फल है। इसी जायदाद के कारण हम और तुम एक-दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं। संसार में जिधर देखो ईर्ष्या और द्वेष, आघात और प्रत्याघात का साम्राज्य है। भाई-भाई का बैरी, बाप बेटे का वैरी, पुरुष स्त्री का वैरी, इसी जायदाद के लिए, इसी धन के लिए। इसके हाथों जितना अनर्थ हुआ, हो रहा है और होगा उसके देखते कहीं अच्छा है कि अधिकार प्रथा ही मिटा दी जाती। यही वह खेत हैं जहाँ छल और कपट के पौधे लहराते हैं, जिसके कारण संसार रणक्षेत्र बना हुआ है। इसी से मानव जाति को पशुओं से भी नीचे गिरा दिया है।
यह कहते-कहते राय साहब की आँखें बन्द हो गयीं। वह दीवार का सहारा लिये हुए दीवानखाने में आये और फर्श पर गिर पड़े। ज्ञानशंकर भी पीछे-पीछे थे, मगर इतनी हिम्मत न पड़ती थी कि उन्हें सँभाल लें। नौकरों ने यह हालत देखी तो दौड़े और उन्हें उठाकर कोच पर लिटा दिया। गुलाब और केवड़े का जल छिड़कने लगे। कोई पंखा झलने लगा, कोई डॉक्टर के लिए दौड़ा। सारे घर में खलबलीमच गयी। दीवानखाने में एक मेला-सा लग गया। दस मिनट के बाद राय साहब ने आँखें खोलीं और सबको हट जाने का इशारा किया। लेकिन जब ज्ञानशंकर भी औरों के साथ जाने लगे, तो राय साहब ने उन्हें बैठने का संकेत दिया और बोले, यह जायदाद नहीं है। इसे रियासत कहना भूल है। यह निरी दलाली है। इस भूमि पर मेरा क्या अधिकार है? मैंने इसे बाहुबल से नहीं लिया। नवाबों के जमाने में किसी सूबेदार ने इस इलाके की आमदानी वसूल करने के लिए मेरे दादा को नियुक्त किया था। मेरे पिता पर भी नवाबों की कृपादृष्टि बनी रही इसके बाद अँग्रेजों का जमाना आया और यह अधिकार पिताजी के हाथ से निकल गया। लेकिन राज-विद्रोह के समय पिताजी ने तन-मन से अँग्रेजों की सहायता की। शान्ति स्थापित होने पर हमें वही पुराना अधिकार मिल गया। यही इस रियासत की हकीकत है। हम केवल लगान वसूल करने के लिए रखे गये हैं। इसी दलाली के लिए हम एक-दूसरे के खून से अपने हाथ रंगते हैं। इसी दीन-हत्या को रोब कहते हैं, इसी कारिन्दगिरी पर हम फूले नहीं समाते। सरकार अपना मतलब निकालने के लिए हमें इस इलाके का मालिक कहती है, लेकिन जब साल में दो बार हमसे मालगुजारी वसूल की जाती है तब हम मालिक कहाँ रहे? यह सब धोखे की टट्टी है। तुम कहोगे, यह सब कोरी बकवाद है, रियासत इतनी बुरी चीज है तो उसे छोड़ क्यों नहीं देते? हाँ! यही तो रोना है कि इस रियासत ने हमें विलासी, आलसी और अपाहिज बना दिया। हम अब किसी काम के नहीं रहे। हम पालतू चिड़ियाँ हैं, हमारे पंख शक्तिहीन हो गये हैं। हममें अब उड़ने की सामर्थ्य नहीं है! हमारी दृष्टि सदैव अपने पिंजरे के कुल्हिये और प्याली पर रहती है, अपनी स्वाधीनता के मीठे टुकड़े पर बेच लिया है।
राय साहब के चेहरे पर एक दुस्सह आन्तरिक वेदना के चिह्न दिखायी देने लगे थे। लेटे थे, कराहकर उठ बैठे। मुखाकृति विकृति हो गयी। पीड़ा से विकल हृदय-स्थल पर हाथ रखे हुए बोले, आह! बेटा, तुमने वह हलाहल खिला दिया कि कलेजे के टुकड़े-टुकड़े हुए जाते हैं। अब प्राण न बचेंगे। अगर एक मरणासन्न पुरुष के शाप में कुछ शक्ति है तो तुम्हें इस रियासत का सुख भोगना नसीब न होगा! जाओ, आँखों के सामने से हट जाओ। सम्भव है, मैं इस क्रोधावस्था में तुम्हें दोनों हाथों में दबा कर मसल डालूँ! मैं अपने आपे में नहीं हूँ। मेरी दशा मतवाले सर्प की सी हो रही है। मेरी आँखों से दूर हो जाओ और कभी मुँह मत दिखाना। मेरे मर जाने पर तुम्हें आने का अख्तियार है। और याद रखो कि अगर तुम फिर गोरखपुर गये या गायत्री से कोई सम्बन्ध रखा तो तुम्हारे हक में बुरा होगा। मेरे दूत परछाहीं की भांति तुम्हारे साथ लगे रहेंगे। तुमने इस चेतावनी का ज़रा भी उल्लंघन किया तो जीते न बचोगे। हाय, शरीर फुँका जाता है। पापी, दुष्ट, अभी गया नहीं! शेख खाँ…कोई…है?…मेरी पिस्तौल लाओ, (चिल्लाकर) मेरी पिस्तौल लाओ, क्या सब मर गये?
ज्ञानशंकर तुरन्त उठ कर वहाँ से भागे। अपने कमरे में आकर द्वार बन्द कर लिया। जल्दी से कपड़े पहने, मोटर साइकिल निकलवायी और सीधे रेलवे स्टेशन की ओर चले। विद्या से मिलने का भी अवसर न मिला।
43
सन्ध्या का समय था। बनारस के सेशन जज के इजलास में हजारों आदमी जमा थे। लखनपुर के मामले से जनता को अब एक विशेष अनुराग हो गया था। मनोहर की आत्महत्या ने उसकी चर्चा सारे शहर में फैला दी थी। प्रत्येक पेशी के दिन नगर की जनता अदालत में आ जाती थी। जनता को अभियुक्तों की निर्दोषिता का पूरा विश्वास हो गया था। मनोहर के आत्मघात की विविध प्रकार से मीमांसा की जाती थी और सभी का तत्त्व यही निकलता था। कि वही कातिल था और लोग तो केवल अदालत के कारण फँसा दिये गये हैं। डॉक्टर प्रियनाथ और इर्फान अली की स्वार्थपरता पर खुली-खुली चोटें की जाती थीं। प्रेमशंकर की निष्काम सेवा की सभी सराहना करते थे। इस मुकदमे ने उन्हें बहुजनप्रियता बना दिया था।
आज फैसला सुनाया जाने वाला था, इसलिए जमाव भी और दिनों से भी अधिक था। लखनपुर के लोग तो आये ही थे, आस-पास के देहातों से लोग बड़ी संख्या में आ पहुँचे थे। ठीक चार बजे जज ने तजवीज सुनायी-बिसेसर साह रिहा हो गये, बलराज और कादिर खाँ को कालापानी हुआ, शेष अभियुक्तों को सात-सात वर्ष का सपरिश्रम कारावास दिया गया। बलराज ने बिसेसर को सरोष नेत्रों से देखा जो कह रहे थे कि अगर क्षण भर के लिए भी छूट जाऊँ तो खून पी लूँ, कादिर खाँ बहुत दुखी थे और उदास थे। यह तजवीज सुनी तो आँसू की कई बूँदें मूंछों पर गिर पड़ीं। जीवन का अन्त ही हो गया। कब्र से पैर लटकाये बैठे, सजा मिली कालेपानी की! चारों ओर कुहराम मच गया। दर्शकगण अभियुक्तों की ओर लपके, पर रक्षकों ने किसी को उनसे कुछ कहने-सुनने की आज्ञा न दी। मोटर तैयार खड़ी थी। सातों आदमी उसमें बिठाये गये, खिड़कियाँ बन्द कर दी गईं और मोटर जेल की तरफ चली।
प्रेमशंकर चिन्ता और शोक की मूर्ति बने एक वृक्ष के नीचे खड़े सकरुण नेत्रों से मोटर की ओर ताक रहे थे, जैसे गाँव की स्त्रियाँ सिवान पर खड़ी सजल नेत्रों से ससुराल जाने वाली लड़की की पालकी को देखती हैं। मोटर दूर निकल गयी तो दर्शकों ने उन्हें घेर लिया और तरह-तरह के प्रश्न करने लगे। प्रेमशंकर उनकी ओर मर्माहत भाव से देखते थे, पर कुछ उत्तर न देते थे। सहसा उन्हें कोई बात याद आ गयी। जेल की ओर चले। जनता का दल भी उनके साथ-साथ चला। सबको आशा थी कि शायद अभियुक्तियों को देखने का, उनकी बातें सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो जाय। अभी यह लोग कचहरी के अहाते से निकले ही थे कि डॉ० इर्फान अपनी मोटर पर दिखायी दिए। आज ही गोरखपुर से लौटे थे। हवा खाने जा रहे थे। प्रेमशंकर को देखते ही मोटर रोक ली और पूछा कहिए, आज तजबीज सुना दी गई?
प्रेमशंकर ने रुखाई से उत्तर दिया, जी हाँ।
इतने में सैकड़ों आदमियों ने चारों ओर से मोटर को घेर लिया और एक तगड़े आदमी ने सामने आ कर कहा– इन्हीं की गरदन पर बेगुनाहों का खून है।
सैकड़ों स्वरों से निकला– मोटर से खींच लो, जरा इसकी खिदमत कर दी जाये, इसने जितने रुपये लिये हैं, सब इसके पेट से निकाल लो।
उसी वृहद्काय पुरुष ने इर्फान अली का पहुँचा पकड़ कर इतने जोर से झटक दिया कि वह बेचारे गाड़ी से बाहर निकल पड़े। जब तक मोटर में थे क्रोध से चेहरा लाल हो रहा था। बाहर आ कर धक्के खाये तो प्राण सूख गये। दया प्रार्थी नेत्रों से प्रेमशंकर को देखा। वह हैरान थे कि क्या करूँ? उन्हें पहले कभी ऐसी समस्या हल नहीं करनी पड़ी थी और न उस श्रद्धा का ही कुछ ज्ञान था जो लोगों की उनमें थी। हाँ वह सेवा-भाव जो दीन जनों की रक्षा के लिए उद्यत रहता था, सजग हो गया। उन्होंने इर्फान अली का दूसरा हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींचा और क्रोधोन्मत्त हो कर बोले, क्या करते हो, हाथ छोड़ दो।
एक पहलवान युवक बोला, इनकी गर्दन पर गाँव भर का खून सवार है।
प्रेमशंकर– खून इनकी गर्दन पर नहीं, इनके पेशे की गर्दन पर सवार है।
युवक– इनसे कहिए, इस पेशे को छोड़ दें।
कई कंठों से आवाज आयी, बिना कुछ जलपान किये इनकी अकल ठिकाने न आयगी। सैकड़ों आवाजें आयीं– हाँ-हाँ, लगे! बेभाव की पड़े।
प्रेमशंकर ने गरज कर कहा– खबरदार, जो एक हाथ भी उठा, नहीं तो तुम्हें यहाँ मेरी लाश दिखाई पड़ेगी। जब तक मुझमें खड़े होने की शक्ति है, तुम इनका बाल भी बाँका नहीं कर सकते।
इस वीरोचित ललकार ने तत्क्षण असर किया। लोग डॉक्टर साहब के पास से हट गये हाँ, उनकी सेवा-सत्कार के ऐसे सुन्दर अवसर के हाथ से निकल जाने पर आपस में कानाफूसी करते रहे। डॉक्टर साहब ने ज्यों ही मैदान साफ पाया, कृतज्ञ नेत्रों से प्रेमशंकर को देखा और मोटर पर बैठकर हवा हो गये। हजारों आदमियों ने तालियाँ बजायीं– भागा! भागा!!
प्रेमशंकर बड़े संकट में पड़े हुए थे। प्रति क्षण शंका होती थी कि ये लोग न जाने क्या ऊधम मचायें। किसी बग्घी फिटिन को आते देखकर उसका दिल धड़कने लगता कि ये लोग उसे रोक न लें। वह किसी तरह उनसे पीछा-छुड़ाना चाहते थे, पर इसका कोई उपाय न सूझता था। हजारों झल्लाएँ हुए आदमियों को काबू में लाना कठिन था। सोचते थे, अब की तो मेरी धमकी ने काम किया, कौन कह सकता है कि दूसरी बार भी वह उपयुक्त होगी। कहीं पुलिस आ गयी तो अनर्थ ही हो जायेगा। अवश्य दो-चार आदमियों की जान पर आ बनेगी। वह इन्हीं चिन्ताओं में डूबे हुए आगे बढ़े। रास्ते में डाक्टर प्रियनाथ का बँगला था। वह इस वक्त बरामदे में टहल रहे थे। टेनिस का रैकेट हाथ में था। शायद गाड़ी की राह देख रहे थे। यह भीड़-भाड़ देखी तो अपने फाटक पर आ कर खड़े हो गये।
सहसा किसी ने कहा– जरा इनकी खबर लेते चलो। सच पूछिए तो इन्हीं महाशय ने बेचारों की गर्दन काटी है।
कई आदमियों ने इसका अनुमोदन किया– हाँ-हाँ, पकड़ लो जाने न पाये।
जब तक प्रेमशंकर डाक्टर साहब के पास पहुँचे तब तक सैकड़ों आदमियों ने उन्हें घेर लिया। उसी बलिष्ठ युवक ने आगे बढ़कर डॉक्टर साहब के हाथ से रैकेट छीन लिया और कहा– बताइए साहब, लखनपुर के मामले में कितनी रिश्वत खायी है।
कई आदमियों ने कहा– बोलते क्यों नहीं; कितने रुपये उड़ाये थे?
डॉक्टर महोदय ने चिल्ला-चिल्ला कर नौकरों को पुकारना शुरू किया किन्तु नौकरों ने आना उचित न समझा।
एक आदमी बोला– यह बिना समझावन-बुझावन के न बतायेंगे।
प्रियनाथ– मैं तुम सबको जेल भिजवा दूँगा, रैसकल्स!
डॉक्टर साहब ने भय दिखला कर काम निकालना चाहा, पर यह न समझे कि साधारणतः जो लोग आँख के इशारे पर काँप उठते हैं वे विद्रोह के समय गोलियों की भी परवाह नहीं करते। उनके मुँह से इतना निकला था कि लोगों के तेवर बदल गये। शोर मचा, जाने न पाये, मार कर गिरा दो, देखा जायेगा।
इतने में प्रेमशंकर डॉक्टर साहब के पास कर खड़े हो गये। सैकड़ों लाठियां, छतरियाँ और छड़ियाँ उठ चुकी थीं। प्रेमशंकर को सम्मुख देखकर सब की-सब हवा में रह गईं, केवल एक लाठी न रुक सकी, वह प्रेमशंकर के कंधे में जोर से लगी।
उसी बलिष्ठ युवक ने डॉक्टर साहब को धिक्कार कर कहा, ‘उनके पीछे क्या चोरों की तरह छिपे खड़े हो। सामने आ जाओ तो मजा चखा दूँ। खूब रिश्वतें ले-ले कर खफीफ को शदीद और शदीद को खफीफ बनाया।
अभी यह वाक्य पूरा न होने पाया कि लोगों ने प्रेमशंकर को लड़खड़ा कर जमीन पर गिरते देखा। किसी ने किसी से कुछ कहा नहीं, पर सबको किसी अनिष्ट की सूचना हो गयी। चारों तरफ सन्नाटा छा गया। लोगों की उद्दंडता शंका में परिवर्तित हो गयी। लोग पूछने लगे, यह किसकी लाठी थी, यह किसने मारा? उसके हाथ तोड़ दो, पकड़ कर गर्दन मरोड़ दो, किसकी लाठी थी? सामने क्यों नहीं आता? क्या ज्यादा चोट आयी?
सहसा डॉ. प्रियनाथ ने उच्च स्वर से कहा, अधमरा ही क्यों छोड़ दिया? एक लाठी और क्यों न जड़ दी कि काम तमाम हो जाता? मूर्खों! तुम्हारा अपराधी तो मैं था, ‘इन्होंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था?
यह कहकर वह प्रेमशंकर के पास घुटनों के बल बैठ गये और घाव को भली भाँति देखा। कंधे की हड्डी टूट गयी थी। तुरन्त रूमाल निकाल कर कंधे में पट्टी बाँधी। तब अस्पताल जाकर एक चारपाई लिवा लाये और प्रेमशंकर को उठाकर ले गये। हजारों आदमी अस्पताल के सामने चिन्ता में डूब खड़े थे। सबको यही भय हो रहा था कि कहीं चोट ज्यादा न आ गयी हो। लेकिन जब डॉक्टर साहब ने मरहम पट्टी के बाद आ कर कहा, चोट तो बहुत ज्यादा आयी आयी है, कन्धे की हड्डी टूट गयी है; लेकिन आशा है कि बहुत जल्द अच्छे हो जायँगे तब लोगों के चित्त शान्त हुए। एक-एक करके सभी वहाँ से चले गये।
लाला प्रभाशंकर को ज्योंही यह शोक सम्वाद मिला वह दौड़े हुए आये और प्रेमशंकर के पास बैठ कर देर तक रोते रहे। प्रेमशंकर सचेत हो गये थे। हाँ, विषम-पीड़ा से विकल थे डॉक्टर ने बोलने या हिलने को मना कर दिया था, इसलिए चुपचाप पड़े हुए थे। लेकिन जब प्रभाशंकर को बहुत अधीर देखा तो धीरे से बोले आप घबरायें नहीं मैं जल्द अच्छा हो जाऊँगा। कन्धों में दर्द हो रहा है। इसके सिवा मुझे और कोई कष्ट नहीं है। ये बातें सुनकर प्रभाशंकर को तस्कीन हुई। चलते समय उन्होंने डॉक्टर साहब के पास जा कर बड़े विनीत भाव से कहा– बाबूजी, यह लड़का मेरे कुल का दीपक है। आप इस पर कृपा-दृष्टि रखिएगा। इसके प्राण बच गये तो यथाशक्ति आपकी सेवा करने में कोई बात उठा न रखूँगा। यद्यपि मैं किसी लायक नहीं हूँ तथापि अपने से जो कुछ हो सकेगा वह अवश्य आपकी भेंट करूँगा।
प्रियनाथ ने कहा– लाला जी, आप यह क्या कहते हैं? अगर मैं इनकी सेवा सुश्रुषा में तन-मन से न लगूँ तो मुझसे ज्यादा कृतघ्न प्राणी संसार में न होगा। मेरे ही कारण इन्हें यह चोट आयी है। अगर यह वहाँ न होते तो मेरी हड्डियों का भी पता न मिलता। इन्होंने जान पर खेल कर मेरी प्राण-रक्षा की। इनका एहसान कभी मेरे सिर से नहीं उतर सकता।
तीन-चार दिन में प्रेमशंकर इतने स्वस्थ हो गये कि तकिये के सहारे बैठ सकें। लकड़ी ले कर औषधालय के बरामदे में टहलने भी लगे। उनका कुशल समाचार पूछने के लिए प्रतिदिन शहर के सैकड़ों आदमी प्रतिदिन आते रहते थे। प्रेमशंकर सबसे डॉक्टर साहब की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते। प्रियनाथ के सेवा-भाव ने उन्हें मोहित कर दिया था। वह दिन में कई बार उन्हें देखने आते। कभी-कभी समाचार-पत्र पढ़ कर सुनाते, उनके लिए अपने घर में विशेष रीति से भोजन बनवाते। प्रेमशंकर मन में बहुत लज्जित थे कि ऐसे सज्जन, ऐसे देवतुल्य पुरुष के विषय में मैंने क्यों अनुचित सन्देह किये। वह अपनी विमल श्रद्धा से उस अभक्ति की पूर्ति कर रहे थे।
एक सप्ताह बीत चुका था। प्रेमशंकर उदास बैठे हुए सोच रहे थे कि उस दीन अभियुक्तों का अब क्या हाल होगा? मैं यहाँ पड़ा हूँ। अपीलों का अभी तक कुछ निश्चय न हो सका और अपील होगी कैसे? इतने रुपये कहाँ से आयेंगे? आजकल तो न्याय गरीबों के लिए एक अलभ्य वस्तु हो गया है। पग-पग पर रुपये का खर्च। और यह क्या मालूम कि अपील का नतीजा हमारे अनुकूल होगा। कहीं यें ही सजाएँ बहाल रह गयी तो अपील करना निष्फल हो जायेगा; लेकिन कुछ भी हो अपील करनी चाहिए। रुपए का कोई उपाय निकल ही आयेगा। और कुछ न होगा तो दूकान-दूकान और घर-घर घूमकर चन्दा मागूँगा। दीनों से स्वभावतः लोगों की सहानुभूति होती है। सम्भव है काफी धन हाथ आ जाय। ज्ञानशंकर को बुरा लगेगा लगे, इसमें मेरा कुछ बस नहीं। क्या उन्हें इस दुर्घटना की खबर न मिली होगी? आना तो दूर रहा, एक पत्र भी न लिखा कि मुझे तस्कीन होती।
वह इन विचारों में मग्न थे कि प्रियनाथ आ गये और बोले, आप इस समय बहुत चिन्तित मालूम होते हैं। थोड़ी-सी चाय पी लीजिए, चित्त प्रसन्न हो जायें।
प्रेमशंकर– जी नहीं, बिलकुल इच्छा नहीं है। आप मुझे यहाँ से कब तक विदा करेंगे?
प्रियनाथ– अभी शायद आपको यहाँ एक सप्ताह और नजरबन्द रहना पड़ेगा, अभी हड्डी के जुड़ने के थोड़ी कसर है, और फिर ऐसी जल्दी क्या है। यह भी तो आपका ही घर है।
प्रेमशंकर– आप मेरे सिर पर उपकारों का इतना बोझ रखते जाते हैं कि मैं शायद हिल भी न सकूँ। यह आपकी कृपा, स्नेह और शालीनता का फल है कि मुझे पीड़ा का कष्ट कभी जान ही न पड़ा। मुझे याद नहीं आता कि इतनी शांति कहीं और मिली हो। आपकी हार्दिक समवेदना ने मुझे दिखा दिया की संसार में भी देवताओं का वास हो सकता है। सभ्य जगत् पर से मेरा विश्वास उठ गया था। आपने उसे फिर जीवित कर दिया।
प्रेमशंकर की नम्रता और सरलता डॉक्टर महोदय के हृदय को दिनोंदिन मोहित करती जाती थी। ऐसे शुद्धात्मा, साधु और निःस्पृह पुरुष का श्रद्धा-पात्र बन कर उनकी क्षुद्रताएँ और मलितनाएँ आप ही आप मिटती जाती थीं। वह ज्योति दीप की भाँति उनके अन्तःकरण के अँधेरे को विच्छिन्न किये देती थी। इस श्रद्धा रत्न को पा कर ऐसे मुग्ध थे, जैसे कोई दरिद्र पुरुष अनायास कोई सम्पत्ति पा जाये। उन्हें सदैव यही चिन्ता रहती थी कि कहीं यह रत्न मेरे हाथ से निकल न जाये। उन्हें कई दिनों से यह इच्छा हो रही थी कि लखनपुर के मुकदमे के विषय में प्रेमशंकर से अपनी स्थिति स्पष्ट रूप से प्रकट कर दें, पर इसका कोई अवसर न पाते थे। इस समय अवसर पा कर बोले, आप मुझे बहुत लज्जित कर रहे हैं। किसी दूसरे सज्जन के मुँह से ये बातें सुनकर मैं अवश्य समझता कि वह मुझे बना रहा हैं। आप मुझे उससे कहीं ज्यादा विवेक-परायण और सचरित्र समझ रहे हैं, जितना मैं हूँ। साधारण मनुष्यों की भांति लोभ से ग्रसित, इच्छाओं का दास और इन्द्रियों का भक्त हूँ। मैंने अपने जीवन में घोर पाप किये हैं। यदि वह आपसे बयान करूँ तो आप चाहे कितने ही उदार क्यों न हो, मुझे तुरन्त नजरों से गिरा देंगे। मैं स्वयं अपने कुकृत्यों का परदा बना हुआ हूँ, इन्हें बाह्य आडम्बरों से ढाँके हुए हूँ, लेकिन इस मुकदमें के संबंध में जनता ने मुझे कितना बदनाम कर रखा है, उसका मैं भागी नहीं हूँ। मैं आपसे सत्य कहता हूँ कि मुझ पर जो आक्षेप किये गये हैं वे सर्वथा निर्मूल हैं। सम्भव है हत्या निरूपण में मुझे भ्रम हुआ हो। और अवश्य हुआ है, लेकिन मैं इतना निर्दय और विवेकहीन नहीं हूँ कि अपने स्वार्थ के लिए इतने निरपराधियों का गला काटता। यह मेरी दासवृत्ति है। जिसने मेरे माथे पर अपयश का टीका लगा दिया।
प्रेमशंकर ने ग्लानिमय भाव से कहा– भाई साहब, आपकी इस बदनामी का सारा दोष मेरे सिर है। मैं ही आपका अपराधी हूं। मैंने ही दूसरों के कहने में आकर आप पर अनुचित सन्देह किये। इसका मुझे जितना दुःख और खेद है वह आप से कह नहीं सकता। आप जैसे साधु पुरुष पर ऐसा घोर अन्याय करने के लिए परमात्मा मुझे न जाने क्या दंड देंगे। पर आपसे मेरी यह प्रार्थना है कि मेरी अल्पज्ञता पर विचार कर मुझे क्षमा कीजिए।
प्रियनाथ के हृदय पर से एक बोझ-सा उतर गया। प्रेमशंकर इसके दो-चार दिन बाद हाजीपुर लौट आये, पर डॉक्टर साहब रोज सन्ध्या समय उनसे मिलने आया करते। अब वह पहले से कहीं ज्यादा कर्त्तव्य-परायण हो गये थे। दस बजे के पहले प्रातःकाल चिकित्सा भवन में आ बैठते, रोगियों की दशा ध्यान से देखते, उन्हें सान्त्वना देते। इतना ही नहीं, पहले वह पूरी फीस लिये बिना जगह से हिलते न थे, अब बहुधा गरीबों को देखने बिना फीस लिये ही चले जाते। छोटे-छोटे कर्मचारियों से आधी ही फीस लेते। नगर की सफाई का नियमानुसार निरीक्षण करते। जिस गली या सड़क से निकल जाते, लोग बड़े आदर से उन्हें सलाम करते। चन्द ही महीनों में सारे नगर में उनका बखान होने लगा। काशी का प्रसिद्ध समाचार-पत्र ‘गौरव’ उनका पुराना शत्रु था। पहले उन पर खूब चोटें किया करता था। अब वह भी उनका भक्त हो गया। उसने अपने अपने एक लेख में यह आलोचना की, ‘काशी’ के लिए यह परम सौभाग्य की बात है कि बहुत दिनों के बाद उसे ऐसा प्रजावत्सल, ऐसा सहृदय, ऐसा कर्त्तव्यपरायण डॉक्टर मिला। चिकित्सा का लक्ष्य धनोपार्जन नहीं, यशोपार्जन होना चाहिए और महाशय प्रियनाथ ने अपने व्यवहार से सिद्ध कर दिया है कि वह इस उच्चादर्श का पालन करना अपना ध्येय समझते हैं।’ डॉक्टर साहब को सुकीर्ति का स्वाद मिल गया। अब दीनों की सेवा से उनका चित्त जितना उल्लसित होता था उतना पहले संचित धन की बढ़ती हुई संख्याओं से भी न हुआ था। यद्यपि धन की तृष्णा से वह अभी मुक्त नहीं हुए थे, पर कीर्ति-लाभ की सदिच्छा ने धन-लिप्सा को परास्त कर दिया था। प्रेमशंकर के सम्मुख जाते ही उनका हृदय ओस बिन्दुओं से धुले हुए फूलों के सदृश निर्मल हो जाता, निखर उठता। उस सरल सन्तोषमय, कामना-रहित जीवन के सामने उन्हें अपनी धन-लालसा। तुच्छ मालूम होने लगती थी। सन्तान की चिन्ता का बोझ कुछ हलका हो जाता था। जब इस दशा में भी हम सन्तुष्ट और प्रसन्न रह सकते हैं, यशस्वी बन सकते हैं, दूसरों की सहायता कर सकते हैं, प्रेम औऱ श्रद्धा के पात्र बन सकते हैं, तो फिर धन पर जान देना व्यर्थ है। उन्हें ज्ञात होता था कि सफल जीवन के लिए धन कोई अनिवार्य साधन नहीं है। उन्हें खेद होता था कि मेरी आवश्यकताएँ क्यों इतनी बढ़ी हुई हैं, मैं डॉक्टर हो कर रसना का दास क्यों बना हूँ, सुन्दर वस्त्रों पर क्यों मारता हूँ! इन्हीं के कारण तो मैं सारे नगर में बदनाम था। लोभी, स्वार्थी निर्दय बना हुआ था और अब भी हूँ। लोगों को शंका होती थी कि कहीं यह रोग को बढ़ा न दें, इसलिए जल्दी कोई मुझे बुलाता न था। इन विचारों का डॉक्टर साहब के रहन-सहन पर प्रभाव पड़ने लगा।
एक दिन डॉक्टर साहब किसी मरीज को देखकर लौटते हुए प्रेमशंकर की कृषिशाला के सामने से निकले। दस बजे गये थे। धूप तेज थी। सूर्य की प्रखर किरणें आकाश मंडल को वाणों से छेदती हुई जान पड़ती थीं। डॉक्टर साहब के जी में आया, देखता चलूँ क्या कर रहे हैं? अन्दर पहुँचे तो देखा कि वह अपने झोंपड़े के सामने वृक्ष के नीचे खड़े गेहूँ के पोले बिखेर रहे थे। कई मजूर छौनी कर रहे थे। प्रियनाथ को देखते ही प्रेमशंकर झोंपड़े में आ गये और बोले धूप तेज है।
प्रियनाथ– लेकिन आप तो इस तरह काम में लगे हुए हैं मानों धूप है ही नहीं।
प्रेम– उन मजूरों को देखिए! धूप की कुछ परवाह नहीं करते।
प्रिय– वे मजूर हैं, इसके आदी हैं।
प्रियनाथ– हमें इस कृत्रिम जीवन ने चौपट कर दिया, नहीं तो हम भी ऐसे ही आदमी होते और श्रम को बुरा न समझते।
प्रेमशंकर कुछ और कहना चाहते थे कि इतने में दो वृद्धाएँ सिर पर लकड़ी के गट्ठे, रखे आयीं और पूछने लगीं– सरकार, लकड़ी ले लो। इन स्त्रियों के पीछे-पीछे लड़के भी लकड़ी के बोझ लिये हुए थे। सबों के कपड़े तरबतर हो रहे थे। छाती पर पसली की हड्डियाँ निकली हुई थीं। ओठ सूखे हुए, देह पर मैल जमी हुई उस पर सूखे हुए पसीने की धारियाँ सी बन गयी थीं। प्रेमशंकर ने लकड़ी के दाम पूछे, सबके गट्ठे उतरवा लिये, लेकिन देखा तो सन्दूक में पैसे न थे। गुमाश्ता को रुपया भुनाने को दिया। दोनों वृद्धाएँ वृक्ष के नीचे छाँह में बैठ गईं और लड़के बिखरे हुए दाने चुन-चुन कर खाने लगे। प्रेमशंकर को उन पर दया आ गयी। थोड़े-थोड़े मटर सब लड़कों को दे दिये। दोनों स्त्रियाँ आशीष देती हुई बोलीं– बाबू जी, नारायण तुम्हें सदा सुखी रखें। इन बेचारों ने अभी कलेवा नहीं किया है।
प्रेम– तुम्हारा घर कहाँ है?
एक बुढ़िया– सरकार, लखनपुर का नाम सुना होगा।
प्रियनाथ– आपने गट्ठे देखे नहीं, सबों ने खूब कैची लगायी है।
प्रेमशंकर– दरिद्रता सब कुछ करा देती है। (वृद्धा से) तुम लोग इतनी दूर लकड़ी बेचने आ जाती हो?
वृद्धा– क्या करें मालिक, बीच कोई बस्ती नहीं है। घड़ी रात के चले हैं, दुपहरी हो गयी, किसी पेड़ के नीचे पड़े रहेंगे, दिन ढलेगा तो साँझ तक घर पहुँचेंगे। करम का लिखा भोग है! जो कभी न करना था, वह मरते समय करना पड़ा!
प्रेम– आजकल गाँव का क्या हाल है?
वृद्ध– क्या हाल बतायें सरकार, ज़मींदार की निगाह टेढ़ी हो गयी, सारा गाँव बँध गया, कोई डामिल गया, कोई कैद हो गया। उनके बाल-बच्चे अब दाने-दाने को तरस रहे हैं। मेरे दो बेटे थे। दो हल की खेती होती थी। एक तो डामिल गया। दूसरे ही साल भर से कुछ टोह ही नहीं मिली। बैल थे, वे चारे बिना टूट गये। खेती-बाड़ी कौन करे? बहुएँ हैं, वे बाहर आ-जा नहीं सकतीं। मैं ही उपले बेंच कर ले जाती हूँ तो सबके मुँह में दाना पड़ता है। पोते थे, उन्हें भगवान् ने उन्हें पहले ही ले लिया। बुढ़ापे में यही भोगना लिखा था।
प्रेम– तुम डपटसिंह की माँ तो नहीं हो?
वृद्धा– हाँ सरकार, आप कैसे जानते हो?
प्रेम– ताऊन के दिनों में जब तुम्हारे पोते बीमार थे तब मैं वहीं था। कई बेर और हो आया हूँ तुमने मुझे पहचाना नहीं? मेरा नाम प्रेमशंकर है।
वृद्धा ने थोड़ा-सा घूँघट निकाल लिया। दीनता की जगह लज्जा का हल्का-सा रंग चेहरे पर आ गया बोली हाँ बेटा, अब मैंने पहचाना। आँखों से अच्छी तरह सूझता नहीं। भैया, तुम जुग-जुग जियो। आज सारा गाँव तुम्हारा यश गा रहा है। तुमने अपनी वाली कर दी, पर भाग में जो कुछ लिखा था वह कैसे टलता? बेटा! सारे गाँव में हाहाकार मचा हुआ है। दुखरन भगत को तो जानते ही होगे? यह बुढ़िया उन्हीं की घरवाली है। पुराना खाती थी, नया रखती थी। अब घर में कुछ नहीं रहा। यह दोनों लड़के बंधू के हैं, एक रंगी का लड़का है और ये दोनों कादिर मिया के पोते हैं। न जाने क्या हो गया कि घर से मरदों के जाते ही जैसे बरक्कत ही उठ गयी। सुनती थी कि कादिर मियाँ के पास बड़ा धन है; पर इतने ही दिनों में यह हाल हो गया कि लड़के मजदूरी न करें तो मुँह में मक्खी आये-जाये। भगवान् इस कलमुँह फैजू का सत्यानाश करे, इसने और भी अन्धेर मचा रखा है! अब तक तो उसने गाँव-भर को बेदखल कर दिया होता, पर नारायण सुक्खू चौधरी का भला करे जिन्होंने सारी बाकी कौड़ी पाई-पाई चुका दी। पर अबकी उन्होंने ने भी खबर न ली और फिर अकेला आदमी सारे गाँव को कहाँ तक सँभाले? साल-दो साल की बात हो तो निबाह दे, यहाँ तो उम्र भर का रोना है। कारिन्दा अभी से धमका रहे हैं कि अबकि बेदखल करके दम लेंगे। अबकी साल तो कुछ आधे-साझे में खेती हो गयी थी। खेत निकल जायेंगे तो न जाने क्या गति होगी?
यह कहते-कहते बुढ़िया रोने लगी। प्रेमशंकर की आँखें भी भर गईं, पूछा-बिसेसर साह की क्या हाल है?
बुढ़िया– क्या जानूँ भैया, मैंने तो साल भर से उसके द्वार पर झाँका भी नहीं। अब कोई उधर नहीं जाता। ऐसे आदमी का मुँह देखना पाप है। लोग दूसरे गाँव से नोन-तेल लाते हैं। वह भी अब घर से बाहर नहीं निकलता। दूकान उठा दी है। घर में बैठा न जाने क्या-क्या करता है? जो दूसरे को गड्ढा खोदेगा, उसके लिए कुँआ तैयार है। देखा तो नहीं पर सुनती हूँ, जब से यह मामला उठा है उसके घर में किसी को चैन नहीं है। एक न एक परानी के सिर भूत आया ही रहता है। ओझे-सयाने रात-दिन जमा रहते हैं। पूजा-पाठ, जप-तप हुआ करता है। एक दिन बिलासी से रास्ते में मिल गया था। रोने लगा। बहुत पछताया था कि मैंने दूसरों की बातों में आकर यह कुकर्म किया। मनोहर उसके गले पड़ा हुआ है। मारे डर के साँझ से केवाड़ बन्द हो जाता है। रात को बाहर नहीं निकलता। मनोहर रात-दिन उसके द्वार पर खड़ा रहता है, जिसको पाता है उसी को चपेट लेता है। सुनती हूँ, अब गाँव छोड़ कर किसी दूसरे गाँव में बसनेवाला है।
प्रेमशंकर यह बातें सुन कर गहरे सोच में डूब गये। मैं कितना बेपरवाह हूँ। इन बेचारों को सजा पाये हुए साल भर होने आते हैं और मैंने उनके बाल-बच्चों की सुधि तक न ली। वह सब अपने मन में क्या कहते होंगे? ज्ञानशंकर से बात हार चुका हूँ। लेकिन अब वहाँ जाना पड़ेगा। अपने वचन के पीछे इतने दुखियारों को मरने दूँ? यह नहीं हो सकता। इनका जीवन मेरे वचन से कहीं ज्यादा मूल्यवान है। अकस्मात् बुढ़िया ने कहा– कहो भैया, अब कुछ नहीं हो सकता? लोग कहते हैं, अभी किसी और बड़े हाकिम के यहाँ फरियाद लग सकती है।
प्रेमशंकर ने इसका कुछ उत्तर न दिया। धन का प्रबन्ध तो कठिन न था, लेकिन उन्हें अपील से उपकार होने की बहुत कम आशा थी। वकीलों की भी यही राय थी। इसीलिए इस प्रश्न को टाल आते थे। डॉक्टर साहब से भी उन्होंने अपील की चर्चा कभी न की थी। प्रियनाथ उनके मुख की ओर ध्यान से देख रहे थे। उनके मन के भावों को भाँप गये और उनके असमंजस को दूर करने के लिए बोले– हाँ, फरियाद लग सकती है, उसका बन्दोबस्त हो रहा है, धीरज रखो, जल्दी ही अपील दायर कर दी जायेगी।
वृद्ध– बेटा, दूधो नहाव फूतो फलो। सुनती हूँ कोई बड़ा डाक्टर था, उसी ने ज़मींदार से कुछ ले-देकर इन गरीबों को फँसा दिया। न हो, तुम दोनों उसी डॉक्टर के पास जा कर हाथ-पैर जोड़ो, कौन जाने तुम्हारी बात मान जाये। उसके आगे भी तो बाल-बच्चे होंगे? क्यों हम गरीबों को बेकसूर मारता है? किसी की हाय बटोरना अच्छा नहीं होता।
प्रेमशंकर जमीन में गड़े जा रहे थे। डॉक्टर साहब को कितना दुःख हो रहा होगा, अपने मन में कितने लज्जित हो रहे होंगे। कहीं बुढ़िया गाली न देने लगे, इसे कैसे चुप कर दूँ? इन विचारों से वह बहुत विकल हो रहे थे, किन्तु प्रियनाथ के चेहरे पर उदारता झलक रही थी, नेत्रों से वात्सल्य-भाव प्रस्फुटित हो रहा था। मुस्कुराते हुए बोले– हम लोग उस डॉक्टर के पास गये थे। उसे खूब समझाया। है तो लालची, पर कहने-सुनने से राह पर आ गया है, अब सच्ची गवाही देगा।
इतने में मस्ता पैसे ले कर आ गया है। प्रेमशंकर ने लकड़ी के दाम दिए। बुढ़िया लकड़ी के साथ आशीर्वाद दे कर चली गयी। द्वार पर पहुँच कर उसने फिर कहा भैया भूल मत जाना, धरम का काम है, तुम्हें बड़ा जस होगा।
उनके चले जाने के बाद कुछ देर तक प्रेमशंकर और प्रियनाथ मौन बैठे रहे। प्रेमशंकर का मुँह संकोच ने बन्द कर दिया था, डॉक्टर का लज्जा ने।
सहसा प्रियनाथ खड़े हो गये और निश्चयात्मक भाव से बोले– भाई साहब, अवश्य अपील कीजिए। आप आज ही इलाहाबाद चले जाइए। आज के दृश्य ने मेरे हृदय को हिला दिया। ईश्वर ने चाहा तो अबकी सत्य की विजय होगी।
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डाक्टर इर्फान अली उस घटना के बाद हवा खाने न जा सके, सीधे घर की ओर चले। रास्ते भर उन्हें संशय हो रहा था कि कहीं उन उपद्रवियों से फिर मुठभेड़ न हो जाये नहीं तो अबकी जान के लाले पड़े जायेंगे। आज बड़ी खैरियत हुई कि प्रेमशंकर मौजूद थे, नहीं तो इन बदमाशों के हाथ मेरी न जाने क्या दुर्गति होती! जब वह अपने घर पर सकुशल पहुँच गये और बरामदे में आरामकुर्सी पर लेटे तो इस समस्या पर आलोचना करने लगे। अब तक वह न्याय और सत्य के निर्भीक समर्थक समझे जाते थे। पुलिस के विरुद्ध सदैव उनकी तलवार निकली ही रहती थी। यही उनकी सफलता का तत्त्व था। वह बहुत अध्ययनशील, तत्त्वान्वेषी, तार्किक वकील न थे, लेकिन उनकी निर्भीकता इन सारी त्रुटियों पर पर्दा डाल दिया करती थी। इस पर लखनपुर वाले मुकदमे में पहली बार उनकी स्वार्थपरता की कलई खुली। पहले वह प्रायः पुलिस से हार कर भी जीत में रहते थे, जनता का विश्वास उनके ऊपर जमा रहता था, बल्कि और बढ़ जाता था। आज पहली बार उनकी सच्ची हार हुई। जनता का विश्वास उन पर से उठ गया। लोकमत ने उनका तिरस्कार कर दिया। उनके कानों में उपद्रवियों के ये शब्द गूँज रहे थे, ‘इन लोगों का खून इन्हीं की गर्दन पर है।’ इर्फान अली उन मनुष्यों में न थे। जिनकी आत्मा ऋद्धि-लालसा के नीचे दबकर निर्जीव हो जाती है। वह सदैव अपने ईष्ट मित्रों से कठिनाइयों का रोना करते थे कि इस पेशे को छोड़ दें, लेकिन जुआरियों की प्रतिज्ञा की भाँति उनका निश्चय भी दृढ़ न होता था, बल्कि दिनोंदिन वह लोभ में और भी डूबते जाते थे। उनकी दशा उस पथिक की सी थी जो संध्या होने से पहले ठिकाने पर पहुँचने के लिए कदम तेजी से बढ़ाता है। इर्फान अली वकालत छोड़ने के पहले इतना धन कमा लेना चाहते थे कि जीवन सुख से व्यतीत हो। अतएव वह लोभ मार्ग में और भी तीव्रगति से चल रहे थे।
लेकिन आज की घटना ने उन्हें मर्माहत कर दिया। अब तक दशा उन रईसों की सी थी जो वहम की दवा किया करते हैं। कभी कोई स्वादिष्ट अवलेह बनवा लिया, कभी कोई सुगन्धित अर्क खिंचवा लिया या रुचि के अनुसार उसका सेवन करते रहे। किन्तु आज उन्हें ज्ञात हुआ कि मैं एक जीर्ण रोग से ग्रसित हूँ, अब अर्क और अवहेल से काम न चलेगा। इस रोग का निवारण तेज नश्तरों और तीक्ष्ण औषधियों से होगा। मैं सत्य का सेवक बनता था। वास्तव में अपनी इच्छाओं का दास हूँ। प्रेमशंकर ने मुझे नाहक बचा लिया। जरा दो-चार चोटें पड़ जातीं तो मेरी आँखें और खुल जातीं।
मुआजल्लाह! मैं कितना स्वार्थी हूँ? अपने स्वार्थ के सामने दूसरों की जान की परवाह नहीं करता। मैंने इस मुआमले में आदि से अन्त तक कपट-व्यवहार से काम लिया। कभी मिसलों को गौर से नहीं पढ़ा, कभी जिरह के प्रश्नों पर विचार नहीं किया, यहाँ तक कि गवाहों के बयान भी आद्योपान्त न सुने, कभी दूसरे मुकदमे में चला जाता था, कभी मित्रों से बातें करने लगता था। मैंने थोड़ा-सा अध्ययन किया होता तो प्रियनाथ को चुटकियों पर उड़ा देता। मुखबिर को दो-चार जिरहों में उखाड़ सकता था। थानेदार का बयान कुछ ऐसा प्रामाणिक न था, लेकिन मैंने तो अपने कर्त्तव्य पर कभी विचार ही नहीं किया। अदालत में इस तरह जा बैठता था जैसे कोई मित्रों की सभा में जा बैठता हो। मैं इस पेशे को बुरा कहता हूँ, यह मेरी मक्कारी है। हमारी अनीति है जिसने इस पेशे को बदनाम कर रखा है। उचित तो यह है कि हमारी दृष्टि सत्य पर हो, पर इसके बदले हमारी निगाह सदैव रुपये पर रहती है। खुदा ने चाहा तो आइन्दा से अब वही करूँगा जो मुझे करना चाहिए। हाँ, अब से ऐसा ही होगा। अब मैं भी प्रेमशंकर के जीवन को अपना आदर्श बताऊँगा, सन्तोष और सेवा के सन्मार्ग पर चलूँगा।
जब तक प्रेमशंकर औषधालय में रहे, इर्फानअली प्रायः नित्य उनका समाचार पूछने जाया करते थे। उनके धैर्य और साहस पर डॉक्टर साहब को आश्चर्य होता था। प्रेमशंकर के प्रति उनकी श्रद्धा दिनोंदिन बढ़ती जाती थी। अपने मुवक्किलों के साथ उनका व्यवहार अब अधिक विनयपूर्ण होता था। वह उनके मुआमले ध्यान से देखते, एक समय एक से अधिक मुकदमा न लेते और एक मुकदमे को इजलास पर छोड़कर दूसरे मुकदमे की पैरवी करने की तो उन्होंने मानो शपथ ही खा ली। वह अपील करने के लिए बार-बार प्रेमशंकर को प्रेरित करना चाहते थे पर अपनी असज्जनता को याद करके सकुच जाते थे। अन्त में उन्होंने सीतापुर जा कर बाबू ज्वालासिंह से इस विषय में परामर्श करने का निश्चय किया; किन्तु वह महाशय अभी तक दुविधा में पड़े हुए थे। वह प्रेमशंकर को लिख चुके थे कि त्याग-पत्र दे कर शीघ्र ही आपकी सेवा में आता हूँ। लेकिन फिर कोई न कोई ऐसी बात आ जाती थी कि उन्हें अपने इरादे को स्थगित करने पर विवश होना पड़ता था। बात यह थी कि शीलमणि उनके इस्तीफा देने पर राजी न होती थी। वह कहती– बला से तुम्हारे अफसर तुमसे अप्रसन्न हैं, तरक्की नहीं होती है, न सही। तुम्हारे हाथों से न्याय करने का अधिकार तो है। अगर तुम्हारे विधातागण तुम्हारे व्यवहार से असन्तुष्ट होकर तुम्हें पदच्युत कर दें, तो तुम्हें अपील करनी चाहिए और चोटी के हाकिमों से लड़ना चाहिए। यह नहीं कि अफसरों ने जरा तीवर बदला और तुमने भयभीत हो कर त्याग-पत्र देने की ठान ली। तुम्हारी इस अकर्मण्यता से तुम्हारे कितने ही न्यायशील और आत्माभिमानी सहवर्गियों की हिम्मत टूट जायेगी और वह भाग निकलने का उपाय करने लगेंगे। यह विभाग सज्जनों से खाली हो जायेगा और वही खुशामदी टट्टू, हाकिमों के इशारे पर नाचनेवाले बाकी रह जायेंगे। ज्वालासिंह इस दलील का कोई जवाब न दे सकते थे। जब डॉक्टर इर्फान अली सिर पर जा पहुँचे तो वह अपनी शिथिलता और अधिकार-प्रेम का दोष शीलमणि पर रख कर अपने को मुक्त न कर सके।
शीलमणि समझ गई कि अब उन्हें रोकना कठिन है, मेरी एक न सुनेंगे। ज्यों ही अवसर मिला उसने ज्वालासिंह से पूछा– डॉक्टर साहब को क्या जवाब दिया?
ज्वालासिंह– जवाब क्या देना है, इस्तीफा दिये देता हूँ। अब हीला-हवाला करने से काम न चलेगा। जब तक मैं न जाऊँगा; बाबू प्रेमशंकर कुछ न कर सकेंगे। दुर्भाग्य से वह मुझ पर उससे कहीं ज्यादा विश्वास करते हैं, जिसके योग्य मैं हूँ। अपील की अवधि बीत जायेगी तो फिर बनाए न बनेगी। अपील के सफल होने की बहुत कुछ आशा है और यदि मेरे सदुद्योग से कई निरपराधों की जानें बच जायें, तो मुझे अब एक क्षण भी विलम्ब न करना चाहिए।
शीलमणि– तो अधिक दिनों की छुट्टी क्यों नहीं ले लेते?
ज्वालासिंह– तुम तो जान बूझकर अनजान बनती हो। वहाँ मुझे कितनी ही ऐसी बातें करनी पड़ेंगी जो दासत्व की बेड़ियाँ पहने हुए नहीं कह सकता। रुपये के लिए चन्दे माँगना, वकीलों से मिलना-जुलना, लखनपुरवालों के कष्ट-निवारण की आयोजना करना, यह सभी काम करने पड़ेंगे। पुलिसवालों की निगाह पर चढ़ जायेंगे, तो इस बेड़ी को काट ही क्यों न दूँ? मुझे पूरा विश्वास है कि मैं स्वाधीन हो कर जितनी जाति-सेवा कर सकता हूँ, उतनी इस दशा में कभी न कर सकूँगा।
शीलमणि बहुत देर तक उनसे तर्क-वितर्क करती रही, अन्त में क्रुद्ध हो कर बोली– उँह, जो इच्छा हो करो। मुझे क्या करना है? जैसा सूखा सावन वैसा भरा भादों। आप ही पछताओगे। यह सब आदर-सम्मान तभी तक है, जब तक हाकिम हो। जब जाति सेवकों में जा मिलोगे तो कोई बात भी न पूछेगा। क्या वहाँ सबके सब सज्जन ही भरे हुए हैं? अच्छे-बुरे सभी जगह होते हैं। प्रेमशंकर की तो मैं नहीं कहती, वह देवता है, लेकिन जाति सेवकों से तुम्हें सैकड़ों आदमी ऐसे मिलेंगे जो स्वार्थ के पुतले हैं, और सेवा भेष बनाकर गुलछर्रे उड़ाते हैं। वह निस्पृह, पवित्र आत्माओं को फूटी आँख नहीं देख सकते। तुम्हें उनके बीच में रहना दूभर हो जायेगा। उनका अन्याय, कपट-व्यवहार और संकीर्णता देखकर तुम कुढ़ोगे, पर उनसे कुछ न कह सकोगे। इसलिए जो कुछ करो, सोच-समझ कर करो।
ये वही बातें थी जो ज्वालासिंह ने स्वयं शीलमणि से कहीं थीं। कदाचित् यहीं बातें सुन-सुन कर वह इस्तीफे के विपक्ष में हो गई थी। पर इस समय वह यह निराशाजनक बातें न सुन सके, उठ कर बाहर चले आए और उसी आवेश में आकर-त्याग पत्र लिखना शुरू किया।
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कई महीने बीत चुके, लेकिन प्रेमशंकर अपील दायर करने का निश्चय न कर सके। जिस काम में उन्हें किसी दूसरे से मदद मिलने की आशा न होती थी, उसे वह बड़ी तत्परता के साथ करते थे, लेकिन जब कोई उन्हें सहारा देने के लिए हाथ बढ़ा देता था, तब उन पर एक विचित्र शिथिलता-सी छा जाती थी। इसके सिवा धनाभाव भी अपील का बाधक था। दिवानी के खर्च ने उन्हें इतना जेरबार कर दिया था कि हाईकोर्ट जाने की हिम्मत न पड़ती थी। यद्यपि कितने ही आदमियों को उनसे श्रद्धा थी और वह इस पुण्य कार्य के लिए पर्याप्त धन एकत्र कर सकते थे, पर उनकी स्वाभाविक सरलता और कातरता इस आधार को उनकी कल्पना में भी न आने देती थी।
एक दिन सन्ध्या समय प्रेमशंकर बैठे हुए समाचार-पत्र देख रहे थे। गोरखपुर के सनातन धर्म महोत्सव का समाचार मोटे अक्षरों में छपा हुआ दिखायी दिया। गौर से पढ़ने लगे। ज्ञानशंकर को उन्होंने स्वयं मन में धूर्त और स्वार्थ-परायणता का पुतला समझ रखा था अब उनकी इस निष्ठा और धर्म-परायणता वृत्तान्त पढ़ कर उन्हें अपनी संकीर्णता पर अत्यन्त खेद हुआ। मैं कितना निर्बुद्धि हूँ। ऐसी दिव्य और विमल आत्मा पर अनुचित संदेह करने लगा। ज्ञानशंकर के प्रति उनके हृदय में भक्ति की तरंगे सी उठने लगीं। उनकी सराहना करने की ऐसी उत्कट इच्छा हुई कि उन्होंने मस्ता और भोला को कई बार पुकारा। जब उनमें से किसी ने जवाब न दिया तो वह मस्ता की झोंपड़ी की ओर चले कि अकस्मात् दुर्गा, मस्ता और कृषिशाला के कई और नौकर एक मनुष्य को खींच-खींच कर लाते हुए दिखाई दिये। सब-के-सब उसे गालियाँ दे रहे थे और मस्ता रह-रह कर एक धौल जमा देता था। प्रेमशंकर ने आगे बढ़कर तीव्र स्वर में कहा, क्या है भोला, इसे क्यों मार रहे हो?
मस्ता– भैया, यह न जाने कौन आदमी है। फाटक से चिपटा खड़ा था। अभी मैं फाटक बन्द करने गया तो इसे देखा। मुझे देखते ही वह दबक गया। बस, मैंने चुपके से आकर सबको साथ लिया और बच्चू को पकड़ लिया। जरूर से जरूर कोई चोर है।
प्रेम– चोर सही, तुम्हारा कुछ चुराया तो नहीं? फिर क्यों मारते हो?
यह कहते हुए अपने बरामदे में बैठ गये। चोर को भी लोगों ने वहीं लाकर खड़ा किया। ज्यों ही लालटेन के प्रकाश में उसकी सूरत दिखायी दी, प्रेमशंकर के मुंह से एक चीख-सी निकल गयी, अरे, यह तो बिसेसर साह है!
बिसेसर ने आँसू पोंछते हुए कहा, हाँ सरकार, मैं बिसेसर ही हूँ।
प्रेमशंकर ने अपने नौकरों से कठोर स्वर में कहा, तुम लोग निरे गँवार और मूर्ख हो। न जाने तुम्हें कभी समझ आयेगी भी या नहीं।
मस्ता– भैया, हम तो बार-बार पूछते रहे कि तुम कौन हो? वह कुछ बोले ही नहीं, तो मैं क्या करता?
प्रेम– बस, चुप रह गँवार कहीं का!
नौकरों ने देखा कि हमसे भूल हो गयी तो चुपके से एक-एक करके सरक गये। प्रेमशंकर को क्रोध में देख कर सब-के-सब थर-थर काँपने लगे थे। यद्यपि प्रेमशंकर उन सबसे भाईचारे का बर्ताव करते थे, पर वह सब उनका बड़ा अदब करते थे। उनके सामने चिलम तक न पीते। उनके चले जाने के बाद प्रेमशंकर ने बिसेसर साह को खाट पर बैठाया और अत्यन्त लज्जित हो कर बोले, साह जी, मुझे बड़ा दुःख है कि मेरे आदमियों ने आपके साथ अनुचित व्यवहार किया। सब-के-सब उजड्ड और मूर्ख हैं।
बिसेसर ने ठंडी साँस लेकर कहा, नहीं भैया, इन्होंने कोई बुरा सलूक नहीं किया। मैं इसी लायक हूँ। आप मुझे खम्भे में बाँध कर कोड़े लगवायें तब भी बुरा न मानूँगा। मैं विश्वासघाती हूँ। मुझे जो सजा मिले वह थोड़ी है। मैंने अपनी जान के डर से सारे गाँव को मटियामेट कर दिया। न जाने मेरी बुद्धि कहाँ चली गयी थी। पुलिसवासों की भभकी में आ गया। वह सब ऐसी-ऐसी बातें करते हैं, इतना डराते और धमकाते हैं कि सीधा-सादा आदमी बिलकुल उनकी मुट्ठी में आ जाता है। उन्हें ज़रूर से ज़रूर किसी देवता का इष्ट है कि जो कुछ वह कहलाते हैं, वही मुँह से निकलता है। भगवान् जानते हैं जो गौस खाँ के बारे में किसी से कुछ बात हुई हो। मुझे तो उनके कत्ल का हाल दिन चढ़े मालूम हुआ, जब मैं पूजा-पाठ करके दूकान पर आया। पर दरोगा जी थाने में ले जाकर मेरी साँसत करने लगे तब मुझ पर जैसे पर जैसे कोई जादू हो गया। उनकी एक-एक बात दुहराने लगा।
जब मैं अदालत में बयान दे रहा था तब सरम के मारे मेरी आँखें ऊपर न उठती थीं। मेरे जैसा कुकर्मी संसार में न होगा। जिन आदमियों के साथ रात-दिन का रहना-सहना, उठना-बैठना था, जो मेरे दुःख-दर्द में शरीक होते थे, उन्हीं के गर्दन पर मैंने छुरी चलायी। जब कादिर ने मेरा बयान सुन कर कहा, ‘बिसेसर, भगवान् से डरो’ उस घड़ी मेरा ऐसा जी चाहता था कि धरती फट जायें और मैं उसमें समा जाऊँ। मन होता था कि साफ-साफ कह दूं, ‘यह सब सिखायी-पढ़ाई बातें हैं’ पर दरोगा जी की ओर ज्यों ही आँख उठती थी मेरा हियाव छूट जाता था। जिस दिन से मनोहर ने अपने गले में फाँसी लगायी है उस दिन से मेरी नींद हराम हो गयी। रात को सोते-सोते चौंक पड़ता हूँ, जैसे मनोहर सिरहाने खड़ा हो। साँझ होते ही घर के केवाड़ बंद कर देता हूँ। बाहर निकलता हूँ तो जान पड़ता है, मनोहर सामने आ रहा है। उधर गाँव में अन्धेर मचा हुआ है। सबके बाल बच्चे भूखों मर रहे हैं। फैजू और कर्तार नित नये तूफान रचते रहते हैं। भगवान् सुक्खू चौधरी का भला करे, उनके हृदय में दया आयी, दो साल की मालगुजारी अदा कर दी, नहीं तो अब तक सारा गाँव बेदखल हो गया होता। इस पर फैज जला जाता है। जब सुक्खू आ जाते हैं तो भीगी बिल्ली बन जाता है, लेकिन ज्यों ही वह चले जाते हैं फिर वही उपद्रव करने लगता है। इन गरीबों का कष्ट मुझसे नहीं देखा जाता। जिसे चाहता है मारता है, डाँट लेता है। एक दिन कादिर मियाँ के घर में आग लगवा दी। और तो और अब गाँव की बहू-बेटियों की इज्जत-हुरमत भी बचती नहीं दिखायी देती। मनोहर के घर साँस बहू में रार मची हुई है। दोनों अलग-अलग रहती हैं। परसों रात की बात है, फैजू और कर्तार दोनों बहू के घर में घुस गये। उस बेचारी ने चिल्लाना शुरू किया सास पहुँच गयी, और लोग भी पहुँच गये। दोनों निकलकर भागे। सवेरा होते ही इसकी कसर निकली। कर्तार ने मनोहर की दुलहिन को इतना मारा कि बेचारी पड़ी हल्दी पी रही है। यह सब पाप मेरे सिवा और किसके सिर पड़ता होगा? मैं ही इस सारी विपद् लीला की जड़ हूँ। भगवान् न जाने मेरी क्या दुर्गत करेंगे! काहे भैया, क्या अब कुछ नहीं हो सकता? सुनते हैं तुम अपील करने वाले हो, तो जल्दी कर क्यों नहीं देते? ऐसा न हो कि मियाद गुजर जाय। तुम मुझे तलब करा देना, मुझ पर दरोगा-हलफी का इलजाम जायेगा तो क्या! पर मैं अब की सब कुछ सच-सच कह दूँगा। यही न होगा, मेरी सजा हो जायेगी, गाँव का तो भला हो जायेगा। मैं हजार-पाँच सौ से मदद भी कर सकता हूँ।
प्रेमशंकर– हाईकोर्ट में तो मिसल देख कर फैसला होता है, किसी के बयान नहीं लिये जाते।
बिसेसर– भैया, कुछ देने-लेने से काम चले तो दे दो, हजार-पाँच सौ का मुँह मत देखो। मुझसे जो कुछ फरमाओ उसके लिए हाजिर हूँ। यह बात मेरे मन में समायी हुई है, पर आपको मुँह दिखाने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। आज कुछ सौदा लेने चला तो चौपाल के सामने फैजू मिल गये। कहने लगे– जाते हो तो यह रुपये लेते जाओ, मालिकों के घर भेजवा देना। मैंने रुपए लिये और डेवढ़ी पर जाकर छोटी बहू के पास रुपये भेज दिये। जब चलने लगा तो बड़ी बहू ने दीवानखाने में मुझे बुलाया। उनको देख कर ऐसा जान पड़ा मानो साक्षात् देवी के दर्शन हो गये। उन्होंने मुझे ऐसा-ऐसा उपदेश दिया कि आपसे क्या कहूँ। मेरी आँखें खुल गयीं। मन में ठान कर चला कि आपसे अपील दायर करने की। कहूँ, जिसमें मेरा भी उद्धार हो जाये। लेकिन दो-तीन बार आ-जा कर लौट गया। आपको मुँह दिखाते लाज आती थी। सूरज डूबते वक्त फिर आया, पर वहीं फाटक के पास दुविधा में खड़ा सोच रहा था कि क्या करूँ? इतने में आपके आदमियों ने देख लिया और आपकी शरण में ले आये। मुझ जैसे झूठे दगाबाज आदमी का इतबार ही क्या? पर अब मैं सौगन्ध खा के कहता हूँ कि फिर जो मेरा बयान लिया जायगा तो मैं एक-एक बात खोल कर कह दूँगा। चाहे उल्टी पड़े या सीधी। आप जरूर अपील कीजिए।
प्रेमशंकर बिसेसर साह को महा नीच, कपटी, अधम मनुष्य समझते थे! उनके बिचार में वह मनुष्य कहलाने के योग्य भी न था। लेकिन उसकी इस ग्लानि-सूचक बातों ने उसे पिशाच श्रेणी से उठा कर देवासन पर बैठा दिया। भगवन्! जिसे मैं दुरात्मा समझता था, उसके हृदय में आत्मग्लानि की यह पवित्र भाव! यह आत्मोकर्ष, यह ईश्वर-भीरुता, ‘‘यह सदुद्गार! मैं कितने भ्रम में पड़ा हुआ था! दुनिया के लोग अनायास ही बदनाम करते है, पर मैंने तो हर एक बुरे को अच्छा ही पाया। इसे अपने सौभाग्य के सिवा और क्या कहूँ? ईश्वर मुझे इस अविश्वास के लिए क्षमा करना। यह सोचकर उनकी आँखों में आँसू भर आये। बोले– साह जी, तुम्हारी बातें सुनकर मुझे वही आनन्द हुआ, जो किसी सच्चे साधु के उपदेश से होता है। मैं बहुत जल्द अपील करने वाला हूँ। अड़चन यही है कि गवाहों के बयान कैसे बदले जायँ? सम्भव है हाईकोर्ट मुकदमे पर नजरसानी करने की आज्ञा दे दे और फिर इसी अदालत में मामला में पेश हो; लेकिन बयान बदलने से तुम और डॉक्टर प्रियनाथ दोनों ही फँस जाओगे! प्रियनाथ ने तो अपने बचाव की युक्ति सोच ली, लेकिन तुम्हारा बचाव कठिन है। इसे अच्छी तरह सोच लो।
बिसेसर– खूब सोच लिया है।
प्रेमशंकर– ईश्वर ने चाहा तो तुम भी बच जाओगे। मैं कल वकीलों से इस विषय में सलाह लूँगा।
यह कहकर कर वह बिसेसर के खाने-पीने का प्रबन्ध करने चले गये?
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ज्ञानशंकर लखनऊ से सीधे बनारस पहुँचे, किन्तु मन उदार और खिन्न रहते। न हवा खाने जाते, न किसी से मिलते-जुलते। उनकी दशा इस समय उस पक्षी की-सी थी जिसके दोनों पंख कट गये हों, या उस स्त्री की-सी जो किसी दैवी प्रकोप से पति-पुत्र विहीन हो गयी हो। उनके जीवन की सारी आकांक्षाएँ मिट्टी में मिलती हुई जान पड़ती थीं। अभी एक सप्ताह पहले उनकी आशा– लता सुखद समीरण से लहरा रही थी। उस स्थान पर अब केवल झुलसी हुई पत्तियों का ढेर था। उन्हें पूरा विश्वास था कि राय साहब ने सारा वृत्तान्त गायत्री को लिख दिया होगा। पूरी के लिए लपके थे, आधी भी हाथ से गयी। उन्हें सबसे विषम वेदना यह थी कि मेरे मनोभावों की कलई खुल गयी। अगर धैर्य का कोई आधार था तो यही दार्शनिक विचार था कि इन अवस्थाओं में मेरे लिए अपने लक्ष्य पर पहुँचने का और कोई मार्ग न था। उन्हें अपने कृत्यों पर लेशमात्र भी ग्लानि या लज्जा न थी। बस, यही खेद था कि मेरे सारे षड्यन्त्र निष्फल हो गये।
लखनऊ से उन्होंने गायत्री को कई पत्र लिखे थे, पर बनारस से उसे पत्र लिखने की हिम्मत न पड़ती थी। उसके पास से आयी हुई चिट्ठियों को भी वह बहुत डरते-डरते खोलते थे। समाचार-पत्रों को खेलते हुए उनके हाथ काँपने लगते थे। विद्या के पत्र रोज आते थे। उन्हें पढ़ना ज्ञानशंकर के लिए अपनी भाग्य रेखा पढ़ने से कम रोमांचकारी न था। वह एक-एक वाक्य को इस तरह डर-डर कर पढ़ते, मानों किसी अँधेरी गुफा में कदम रखते हों। भय लगा रहता था कि कहीं उस दुर्घटना का जिक्र न आ जाये। बहुधा साधारण वाक्यों पर विचार करने लगते कि कहीं इसमें कोई गूढ़ाशय, कोई रहस्य, कोई उक्ति तो नहीं है। दसवें दिन गायत्री के यहाँ से एक बहुत लम्बा पत्र आया। ज्ञानशंकर ने उसे हाथ में लिया तो उनकी छाती बल्लियों उछलने लगी। बड़ी मुश्किल से पत्र खोला और जैसे हम कड़वी दवा को एक ही घूँट में पी जाते हैं, उन्होंने एक ही सरसरी निगाह में सारा पत्र पढ़ लिया। चित्त शांत हुआ। राय साहब की कोई चर्चा न थी। तब उन्होंने निश्चिन्त होकर पत्र को दुबारा पढ़ा। गायत्री ने उनके पत्र न भेजने पर मर्मस्पर्शी शब्दों में अपनी विकलता प्रकट की थी और शीघ्र ही गोरखपुर आने के लिए बड़े विनीत भाव से आग्रह किया था। ज्ञानशंकर ने सावधान होकर साँस ली। गायत्री ने अपने चित्त की दशा को छिपाने का बहुत प्रयत्न किया था, पर उसका एक-एक शब्द ज्ञानशंकर की मरणासन्न आशाओं के लिए सुधा के तुल्य था। आशा बँधी, संतोष हुआ कि अभी बात नहीं बिगड़ी, मैं अब भी जरूरत पड़ने पर शायद उसकी दृष्टि में निर्दोष बन सकूँ, शायद राय साहब के लांछनों को मिथ्या सिद्ध कर सकूँ, शायद सत्य को असत्य कर सकूँ। सम्भव है, मेरे सजल नेत्र अब भी मेरी निर्दोषिता का विश्वास दिला सकें। इसी आवेश में उन्होंने गायत्री को पत्र लिखा, जिसका अधिकांश विरह-व्यथा में भेंट करने के बाद उन्होंने राय साहब को मिथ्याक्षेप की ओर भी संकेत दिया। उनके अन्तिम शब्द थे– ‘आप मेरे स्वभाव और मनोविचारों से भलीभाँति परिचित हैं। मुझे अगर जीवन में कोई अभिलाषा है तो यही है कि मुरली की धुन सुनते हुए इस असार संसार में प्रस्थान कर जाऊँ। मरने लगूँ तो उसी मुरली वाले की सूरत आँखों के सामने हो, और यह सिर राधा की गोद में हो। इसके अतिरिक्त मुझे कोई इच्छा और कोई लालसा नहीं है। राधिका की एक तिरछी चितवन, एक मृदुल मुस्कान, एक मीठी चुटकी, एक अनोखी छटा पर समस्त संसार की सम्पदा न्योछावर कर सकता हूँ। पर जब तक संसार में हूँ, संसार की कालिमा से क्योंकर बच सकता? मैंने राय साहब से संगीत परिषद् के विषय में कुछ स्पष्ट भाषण किया था। उसका फल यह हुआ कि अब वे मेरी जान के दुश्मन हो गये हैं। आपसे अपनी विपत्ति-कथा क्या कहूँ, आपको सुनकर दुःख होगा। उन्होंने मुझे मारने के लिए पिस्तौल हाथ में लिया था। अगर भाग न आता तो यह पत्र लिखने के लिए जीवित भी न रहता। मुझे हुक्म है कि अब फिर उन्हें मुँह न दिखलाऊँ। इतना ही नहीं, मुझे आपसे पृथक् रहने की आज्ञा इस आज्ञा को भंग करने का ऐसा कठोर दंड निर्वाचित किया गया है कि उसका उल्लेख करके मैं आपके कोमल हृदय को दुखाना नहीं चाहता। मेरे मौनव्रत का यही कारण है। सम्भव है, आपके पास भी इस आशय का कोई पत्र पहुँचा हो और आपको भी मुझे दूध की मक्खी समझने का उपदेश किया गया हो। ऐसी दशा में आप जो उचित समझें करें। पिताजी की आज्ञा के सामने सिर झुकाना आपका कर्त्तव्य है। उसका आप पालन करें। मैं आपसे दूर रह कर भी आपके निकट हूँ, संसार की कोई शक्ति मुझे आपसे अलग नहीं कर सकती। आध्यात्मिक बन्धन को कौन तोड़ सकता है? यह कृष्ण का प्रेमी निरन्तर राधा की गोद में संलग्न रहेगा। आपसे केवल यही भिक्षा माँगता हूँ कि मेरी ओर से मनमुटाव न करें और अपने उदार हृदय के एक कोने में मेरी स्मृति बनाये रखें।’’
ज्ञानशंकर के जाने के बाद गायत्री को एक-एक क्षण काटना दुस्तर हो गया था। उसे अब ज्ञात हुआ कि मैं कितने गहरे पानी में आ गयी हूँ। जब तक ज्ञानशंकर के हाथों का सहारा था; उस गहराई का अन्दाज न होता था। उस सहारे के टूटते ही उसके पैर फिसलने लगे। वह सँभालना चाहती थी, पर तरंग का वेग सँभलने न देता था। अबकी ज्ञानशंकर पूरे साल भर के बाद गोरखपुर से निकले थे। वह नित्य उन्हें देखती थी, नित्य उनसे बातें करती थी और यद्यपि अवसर दिन में एक या दो बार से अधिक न मिलता था, पर उन्हें अपने समीप देखकर उसका हृदय-संतुष्ट रहता था। अब पिंजरे को खाली देखकर उसे पक्षी की बार-बार याद आती थी। वह सरल और गौरवशील थी; लेकिन उसके हृदय-स्थल में प्रेम का एक उबलता हुआ सोता छिपा हुआ था। वह अब तक अभिमान के मोटे कत्तल से दबा हुआ प्रवाह का कोई मार्ग न पाकर एक सुषुप्तावस्था में पड़ा हुआ था। यही सुषुप्ति उसका सतीत्व थी। पर भक्ति और अनुराग ने उस अभिमान के कत्तल को हटा दिया था और उबलता हुआ सोता प्रबल वेग से द्रवित हो रहा था। वह आत्मविस्मृति की दशा में मग्न हो गयी थी। वह अचेत-सी हो गयी थी। उसे लेशमात्र भी अनुमान न होता था कि वह भक्ति मुझे वासना की ओर खींचे लिए जाती है। वह इस प्रेम के नशे में कितनी ही ऐसी बातें करती थी। और कितनी ही बातें सुनती थी, जिन्हें सुन कर वह पहले कानों पर हाथ रख लेती थी, जो पहले मन में आतीं तो वह आत्मघात कर लेती; परन्तु अब वह गोपिका थी, वह सदनुराग की साक्षात् प्रतिमा थी। इस आध्यात्मिक उद्गार में वासना का लगाव कहाँ? ऐन्द्रिक तृष्णाओं का मिश्रण कहाँ? कृष्ण का नाम, कृष्ण की भक्ति, कृष्ण की रट ने उसके हृदय और आत्मा को पवित्र प्रेम से परिपूरित कर दिया था। गायत्री जब ज्ञानशंकर की ओर चंचल चितवनों से ताकती या उनके सतृष्ण लोचनों को अपनी मृदुल मुस्कान-सुधा से प्लावित करती तो वह अपने को गोपिका समझती जो कृष्ण से ठिठोली या रहस्य कर रही हो। उसकी इस चितवन और मुस्कान से सच्चा प्रेमानुराग झलकता था। ज्ञानशंकर अब उसे प्रेमोन्मत्त नेत्रों से देखते या उसकी निष्ठुरता और अकृपा का गिला करते, तो उसे इसमें भी उन्हीं पवित्र भावों की झलक दिखायी देती थी। इस प्रेम रहस्य और आमोद-विनोद का चस्का दिनोंदिन बढ़ता जाता था। उन प्रेम कल्पनाओं के बिना चित्त उचटा रहता था। गायत्री इस विकलता की दशा में कभी ज्ञानशंकर के दीवानखाने की ओर जाती, कभी ऊपर, कभी नीचे, कभी बाग में, पर कहीं जी न लगता। वह गोपिकाओं की विरह-व्यथा की अपने वियोग-दुःख से तुलना करती। सूरदास के उन पदों को गाती जिनमें गोपिकाओं का विरह वर्णन किया गया है। उसके बाग में एक कदम का पेड़ था। उसकी छाँह में हरी घास पर लेटी हुई वह कभी गाती, कभी रोती, कभी-कभी उद्विग्न हो कर टहलने लगती। कभी सोचती, लखनऊ चलूँ, कभी ज्ञानशंकर को तार दे कर बुलाने का इरादा करती, कभी निश्चय करती, अब उन्हें कभी बाहर न जाने दूँगी। उनकी सूरत उसकी आँखों में फिरा करती, उनकी बातें कानों में गूँजा करतीं। कितना मनोहर स्वरूप है, कितनी रसीली बातें! साक्षात् कृष्णस्वरूप हैं! उसे आश्चर्य होता कि मैंने उन्हें अकेले क्यों जाने दिया? क्या मैं उनके साथ न जा सकती थी? वह ज्ञानशंकर को पत्र लिखती तो उनकी निर्दयता और हृदय-शून्यता का खूब रोना रोती। उनके पत्र आते तो बार-बार पढ़ती। उसके प्रेम कथन में अब संकोच या लज्जा बाधक न होती थी। गोपियों की विरह-प्रथा में उसे अब एक करुण वेदनामय आनन्द मिलता था। प्रेमसागर की दो-चार चौपाइयाँ भी न पढ़ने पाती कि आँखों से आँसुओं की झड़ी लग जाती।
लेकिन जब ज्ञानशंकर बनारस चले गये और उनकी चिट्ठियों का आना बिलकुल बन्द हो गया, तब गायत्री को ऐसा अनुभव होने लगा मानों मैं इस संसार में हूँ ही नहीं। या कोई दूसरा निर्जन, नीरव, अचेतन संसार है। उसे ज्ञानशंकर के बनारस आने का समाचार ज्ञात न था। वह लखनऊ के पते से नित्य प्रति पत्र भेजती रही, लेकिन जब लगातार कई पत्रों का जवाब न आया तब उसे अपने ऊपर झुँझलाहट होने लगी। वह गोपियों की भाँति अपना ही तिरस्कार करती कि मैं क्यों ऐसे निर्दय निष्ठुर कठोर मनुष्य के पीछे अपनी जान खपा रही हूँ। क्या उनकी तरह मैं निष्ठुर नहीं बन सकती। वह मुझे भूल सकते हैं तो मैं उन्हें नहीं भूल सकती? किन्तु एक ही क्षण में उसका यह मान लुप्त हो जाता और वह फिर खोयी हुई-सी इधर-उधर फिरने लगती।
किन्तु जब दसवें दिन ज्ञानशंकर का विवशता-सूचक पत्र पहुँचा तो पढ़ते ही गायत्री का चंचल हृदय अधीर हो उठा। वह उस विवशकारी आवेश के साथ उनकी ओर लपकी। यह उसकी प्रीति की पहली परीक्षा थी। अब तक उसका प्रेम-मार्ग काँटों से साफ था। यह पहला काँटा था जो उसके पैर में चुभा। क्या पहली ही बाधा मुझे प्रेम मार्ग से विचलित कर देगी? मेरे ही कारण तो ज्ञानशंकर पर मुसीबतें आयी हैं। मैं ही तो उनकी इन विडम्बनाओं की जड़ हूँ। पिताजी उनसे नाराज हैं तो हुआ करें, मुझे इसकी चिन्ता नहीं। मैं क्यों प्रेमनीति से मुँह मोड़ूँ? प्रेम का संबंध केवल दो हृदयों से है, किसी तीसरे प्राणी को उसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं। आखिर पिताजी ने उन्हें क्यों मुझसे पृथक् रहने का आदेश किया? वे मुझे क्या समझते हैं? उनका सारा जीवन भोग-विलास में गुजरा है। वह प्रेम के गूढ़ाशय क्या जानें? उन्हें इस पवित्र मनोवृत्ति का क्या ज्ञान? परमात्मा ने उन्हें ज्ञान-ज्योति प्रदान की होती तो वह ज्ञानशंकर के आत्मोत्कर्ष को जानते, उनकी आत्मा का महत्त्व पहचानते। तब उन्हें विदित होता कि मैंने ऐसी पवित्रात्मा पर दोषारोपण करके कितना घोर अन्याय किया है! पिताजी की आज्ञा मानना मेरा धर्म अवश्य है; किन्तु प्रेम के सामने पिता की आज्ञा की क्या हस्ती है। यह ताप अनादि ज्योति की एक आभा है, यह दाह अनन्त शान्ति का एक मन्त्र है। इस ताप को कौन मिटा सकता है?
दूसरे दिन गायत्री ने ज्ञानशंकर को तार दिया, ‘मैं आ ही रही हूँ और शाम की गाड़ी से मायाशंकर को साथ लेकर बनारस चली।
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ज्ञानशंकर को बनारस आये दो सप्ताह से अधिक बीत चुके थे। संगीत-परिषद् समाप्त हो चुकी थी और अभी सामयिक पत्रों में उस पर वाद-विवाद हो रहा था। यद्यपि अस्वस्थ होने के कारण राय साहब उसमें उत्साह के साथ भाग न ले सके थे, पर उनके प्रबन्ध कौशल ने परिषद् की सफलता में कोई बाधा न होने दी। सन्ध्या हो गयी थी। विद्यावती अन्दर बैठी हुई एक पुराना शाल रफू कर रही थी। राय साहब ने उसके सैर करने के लिए एक बहुत अच्छी सेजगाड़ी दे दी थी और कोचवान को ताकीद की थी कि जब विद्या का हुक्म मिले, तुरन्त सवारी तैयार करके उसके पास ले जाये; लेकिन इतने दिनों से विद्या एक दिन भी कहीं सैर करने न गयी। उनका मन घर के धन्धों से लगता था। उसे न थियेटर का शौक था, न सैर करने का, न गाने-बजाने का। इनकी अपेक्षा उसे भोजन बनाने या सीने-पिरोने में ज्यादा आनन्द मिलता था। इस एकान्त-सेवन के कारण उसका मुखकमल मुर्झाया रहता था। बहुधा सिर-पीड़ा से ग्रसित रहती थी। वह परम सुन्दर, कोमलांगी रमणी थी, पर उसमें अभिमान का लेश भी न था। माँगचोटी, आईने-कंघी से अरुचि थी। उसे आश्चर्य होता था कि गायत्री क्योंकर अपना अधिकांश समय बनाव सँवार में व्यतीत किया करती है। कमरे में अँधेरा हो रहा था; पर वह अपने काम में इतनी रत थी कि उसे बिजली के बटन दबाने का भी ध्यान न था। इतने में राय साहब उसके द्वार पर आ कर खड़े हो गये और बोले– ईश्वर से बड़ी भूल हो गयी कि उसने तुम्हें दर्जिन न बना दिया। अँधेरा हो गया, आँखों में सूझता नहीं, लेकिन तुम्हें अपने सुई-तागे से छुट्टी नहीं।
विद्या ने शाल समेट दिया और लज्जित हो कर बोली– थोड़ा-सा बाकी रह गया था, मैंने सोचा कि इसे पूरा कर लूँ तो उठूँ।
राय साहब पलंग पर बैठ गये और कुछ कहना चाहते थे कि खाँसी आयी और थोड़ा-सा खून मुँह से निकल पड़ा, आँखें निस्तेज हो गयीं और हृदय में विषम पीड़ा होने लगी। मुखाकार विकृत हो गया। विद्या ने घबराकर पूछा– पानी लाऊँ? यह मरज तो आपको न था। किसी डॉक्टर को बुला भेजूँ?
राय साहब– नहीं, कोई जरूरत नहीं। अभी अच्छा हो जाऊँगा। यह सब मेरे सुयोग्य, विद्वान और सर्वगुण सम्पन्न पुत्र बाबू ज्ञानशंकर की कृपा का फल है।
विद्या ने प्रश्नसूचक विस्मय से राय साहब की ओर देखा और कातर भाव से जमीन की ओर ताकने लगी। राय साहब सँभल कर बैठ गये और एक बार पीड़ा से कराह कर बोले– जी तो नहीं चाहता कि मुझ पर जो कुछ बीती है। वह मेरे और ज्ञानशंकर के सिवा किसी दूसरे व्यक्ति के कानों तक पहुँचे; किन्तु तुमसे पर्दा रखना अनुचित ही नहीं अक्षम्य है। तुम्हें सुनकर दुःख होगा, लेकिन सम्भव है इस समय का शोक और खेद तुम्हें आनेवाली मुसीबतों से बचाये, जिनका सामान प्रारब्ध के हाथों हो रहा है। शायद तुम अपनी चतुराई से उन विपत्तियों का निवारण कर सको।
विद्या के चित्त में भाँति-भाँति की शंकाएँ आन्दोलित होने लगीं। वह एक पक्षी की भाँति-डालियों में उड़ने लगी। मायाशंकर का ध्यान आया, कहीं वह बीमार तो नहीं हो गया। ज्ञानशंकर तो किसी बला में नहीं फँस गये। उसने सशंक और सजल लोचनों से राय साहब की तरफ देखा।
राय साहब बोले, मैं आज तक ज्ञानशंकर को एक धर्मपरायण, सच्चरित्र और सत्यनिष्ठ युवक समझता था। मैं उनकी योग्यता पर गर्व करता था और अपने मित्रों से उसकी प्रशंसा करते कभी न थकता था। पर अबकी मुझे ज्ञात हुआ कि देवता के स्वरूप में भी पिशाच का वास हो सकता है।
विद्या की त्योरियों पर अब बल पड़ गये। उसने कठोर दृष्टि से राय साहब को देखा, पर मुँह से कुछ न बोली। ऐसा जान पड़ता था कि वह इन बातों को नहीं सुनना चाहती।
राय साहब ने उठकर बिजली का बटन दबाया और प्रकाश में विद्या की अनिच्छा स्पष्ट दिखायी दी, पर उन्होंने इसकी कुछ परवाह न करके कहा यह मेरा बहरत्तवाँ साल है। हजारों आदमियों से मेरा व्यवहार रहा, किन्तु मेरे चरित्र-ज्ञान ने मुझे कभी धोखा नहीं दिया। इतना बड़ा धोखा खाने का मुझे जीवन में यह पहला ही अवसर है। मैंने ऐसा स्वार्थी आदमी कभी नहीं देखा।
विद्या अधीर हो गयी, पर मुँह से कुछ न बोली। उसकी समझ में न आता था कि राय साहब यह क्या भूमिका बाँध रहे हैं, ऐसे अपशब्दों का प्रयोग कर रहे हैं?
राय साहब– मेरा इस मनुष्य के चरित्र पर अटल विश्वास था। मेरी ही प्रेरणा से गायत्री ने इसे अपनी रियासत का मैनेजर बनाया। मैं जरा भी सचेत होता तो गयात्री पर इसकी छाया भी न पड़ने देता। ज्ञान और व्यवहार में इतना घोर विरोध हो सकता है इसका मुझे अनुमान भी न था। जिसकी कलम में इतनी प्रतिभा हो, जिसके मुख में स्वच्छ, निर्मल भावों की धारा बहती हो, उसका अन्तःकरण ऐसा कलुषित, इतना मलीन होगा यह मैं बिलकुल नहीं जानता था।
विद्या से न रहा गया। यद्यपि, वह ज्ञानशंकर की स्वार्थ-भक्ति से भली-भाँति परिचित थी, जिसका प्रमाण उसे कई बार मिल चुका था, पर उसका आत्म-सम्मान उनका अपमान सह न सकता था। उनकी निन्दा का एक शब्द भी वह अपने कानों में न सुनना चाहती थी। उसकी धर्मनीति में यह घोर पातक था। तीव्र स्वर से बोली, आप मेरे सामने उनकी बुराई न कीजिए। यह कहते-कहते उसका गला रुँध गया और वह भाव जो व्यक्त न हो सके थे आँखों से बह निकले।
राय साहब ने संकोचपूर्ण शब्दों में कहा– बुराई नहीं करता, यथार्थ कहता हूँ। मुझे अब मालूम हुआ कि उसने महात्माओं का स्वरूप क्यों बनाया है, और धार्मिक कार्यों में क्यों इतना प्रवृत्त हुआ है। मैंने उसके मुँह से सब कुछ निकलवा लिया है। यह रंगीन जाल उसने भोली-भाली गायत्री के लिए बिछाया है और वह कदाचित् इसमें फँस भी चुकी है।
विद्या की भौंहें तन गईं मुखराशि रक्तपूर्ण हो गयी। गौरवयुक्त भाव से बोली– पिताजी मैंने सदैव आपका अदब किया है। और आपकी अवज्ञा करते हुए मुझे जितना दुःख हो रहा है वह वर्णन नहीं कर सकती, पर यह असम्भव है कि उनके विषय में यह लाँछन अपने कानों से सुनूँ। मुझे उनकी सेवा में सत्रह वर्ष बीत गये, पर मैंने उन्हें कभी कुवासनाओं की ओर झुकते नहीं देखा। जो पुरुष अपने यौवन-काल में संयम से रहा हो उसके प्रति ऐसे अनुचित सन्देह करके आप उसके साथ नहीं, गायत्री बहिन के साथ भी घोर अत्याचार कर रहे हैं। इससे आपकी आत्मा को पाप लगता है।
राय साहब– तुम मेरी आत्मा की चिन्ता मत करो। उस दुष्ट को समझाओ, नहीं तो उसकी कुशल नहीं है। मैं गायत्री को उसकी कामचेष्टा का शिकार न बनने दूँगा। मैं तुमको वैधव्य रूप में देख सकता हूँ, पर अपने कुल-गौरव को यों मिट्टी में मिलते नहीं देख सकता। मैंने चलते-चलते उससे ताकीद कर दी थी, गायत्री से कोई सरोकार न रखे, लेकिन गायत्री के पत्र नित्य चले आ रहे हैं, जिससे विदित होता है कि वह उसके फंदों से कैसी जकड़ी हुई है। यदि तुम बचा सकती हो तो बचाओ, अन्यथा यही हाथ जिन्होंने एक दिन उसके पैरों पर फूल और हार चढ़ाये थे, उसे कुल-गौरव की वेदी पर बलिदान कर देंगे।
विद्या रोती हुई बोली– आप मुझे अपने घर बुला कर इतना अपमान कर रहे हैं, यह आपको शोभा नहीं देता। आपका हृदय इतना कठोर हो गया है। जब आपके मन में ऐसे-ऐसे भाव उठ रहे हैं तब मैं यहाँ एक क्षण भी नहीं रुकना चाहती। मैं जिस पुरुष की स्त्री हूँ उस पर सन्देह करके अपना परलोक नहीं बिगाड़ सकती। वह आपके कथनानुसार कुचरित्र सही, दुरात्मा सही, कुमार्गी सही, परंतु मेरे लिए देव तुल्य हैं। यदि मैं जानती कि आप मेरा इतना अपमान करेंगे तो भूलकर भी न आती। अगर आपका विचार है कि मैं रियासत लोभ से यहाँ आती हूँ और आपको फन्दे में फँसाना चाहती हूँ तो आप बड़ी भूल करते हैं। मुझे रियासत की जरा भी परवाह नहीं। मैं ईश्वर को साक्षी देकर कहती हूँ मैं अपनी स्थिति से सन्तुष्ट हूँ और मुझे पूरा विश्वास है कि मायाशंकर भी सन्तोषी बालक है। उसे आपके चित्त की यह वृत्ति मालूम हो गयी है तो वह इस रियासत की ओर आँख उठाकर भी न देखेगा। आपको इस विषय में आदि से अन्त तक धोखा हुआ है।
इस तिरस्कार से राय साहब कुछ धीमे पड़ गये। लज्जित हो कर बोले, हाँ सम्भव है, इसीलिए कि अब मैं बूढा हुआ। कुछ का कुछ देखता हूँ, कुछ का कुछ सुनता हूँ। अधिक लोभी, अधिक शक्की हो गया हूँ। मैं नहीं चाहता था कि तुम्हारी आँखों में तुम्हारे पति को उससे ज्यादा गिराऊँ जितना की उसकी प्राण-रक्षा के लिए आवश्यक है, पर तुम्हारी मिथ्या पति-भक्ति मुझे मजबूर कर रही है कि उसके कुकृत्यों को सविस्तार बयान करूँ। तुमने मुझे भी पहले देखा था, क्या मेरी यह दशा थी? मैं ऐसा ही दुर्बल, रुग्ण और जर्जर था? क्या इसी तरह मुझे एक पग चलना भी कठिन था? मैं इसी तरह रुधिर थूकता था? यह सब उसी का किया हुआ है। उसने मुझे भोजन के साथ इतना विष खिला दिया है कि यदि उसे बीस आदमी खाते को एक की भी जान न बचती। यह केवल भ्रम नहीं है; मैं उसका संदेह प्रमाण बना बैठा हूँ। उसने स्वयं इस पापाचार को स्वीकार किया, पहला ग्रास खाते ही मुझ पर सारा रहस्य खुल गया। पर मैंने केवल यह दिखलाने देने के लिए कि मुझे मारना इतना सुलभ नहीं है जितना उसने समझा था, पूरी थाली साफ कर दी। मुझे विश्वास था कि मैं योग क्रियाओं द्वारा विष को निकाल डालूँगा पर क्षण-मात्र में विष रोम-रोम में घुस गया, मैं उसे निकाल न सका। मैंने अपनी स्वास्थ्य-रक्षा और दीर्घ जीवन के लिए सब कुछ किया जो मनुष्य कर सकता है और जिसका फल यह था कि बहत्तर साल का बुड्ढा हो कर एक पच्चीस वर्ष के युवक से अधिक बलवान और साहसी था। मैं अपने जीवन को चरम सीमा तक ले जाना चाहता था। इसके लिए मैंने कितना संयम किया, कितनी योग-क्रियाएँ कीं, साधु-सन्तों की कितनी सेवा की, जड़ी-बूटियों की खोज में कहाँ-कहाँ मारा-मारा फिरा, तिब्बत और कश्मीर की खाक छानता फिरा, पर इस नराधम ने मेरी सारी आयोजनाओं पर पानी फेर दिया! मैंने अपनी सारी सम्पत्ति कार्यसिद्धि पर अर्पण कर दी थी। योग और तन्त्र का अभ्यास इसी हेतु से किया था कि अक्षय यौवन तेज का आनन्द उठाता रहूँ। विलास-भोग ही मेरे जीवन का एक मात्र उद्देश्य था। चिन्ता को मैं सदैव काला नाग समझता रहा। मेरे नौकर-चाकर प्रजा पर नाना प्रकार के अत्याचार करते, पर मैंने उसकी फरियाद को कभी सुख-भोग में बाधक नहीं होने दिया। अगर अभी अपने इलाके में जाता भी था तो प्रजा का कष्ट निवारण करने के लिए, किंतु इस निर्दयी पिशाच की बदौलत सारे गुनाह बेलज्जत हो गये। अब मैं केवल अस्थि-पिंजर हूँ– प्राणशून्य, शक्तिहीन।
यह कहते-कहते राय साहब विषम पीड़ा से कराह उठे। जोर से खाँसी आयी और खून के लोथड़े मुँह से निकल आये। कई मिनट तक वह मूर्च्छावस्था में पड़े रहे। सहसा लपक कर उठे और बोले– तुम प्रातःकाल बनारस चली जाओ और हो सके तो अपने पति को अग्निकुण्ड में गिरने से बचाओ। तुम्हारी पति-भक्ति ने मुझे शांत कर दिया। मैं उसे प्राण देना चाहता हूँ। लेकिन सरल- हृदय गायत्री की रक्षा का भार तुम्हारे ही ऊपर है। अगर उसके सतीत्व पर जरा भी धब्बा लगा तो सर्वनाश हो जायगा। यही मेरी अन्तिन चेतावनी है। इस शाप का निवारण गायत्री की सतीत्व रक्षा से ही होगा। तुम्हारे कल्याण की और कोई युक्ति नहीं है।
यह कह कर राय साहब धीरे से उठे और चले गये। तब विद्या ग्लानि, लज्जा और नैराश्य से मर्माहत होकर पलंग पर लेट गई और बिलख-बिलख कर रोने लगी। राय साहब के पहले आक्षेप का उसने प्रतिवाद किया था, पर इस दूसरे अपराध के विषय में वह अविश्वास का सहारा न ले सकी। अपने पति की स्वार्थ-नीति से खूब परिचित थी, पर उनकी वक्रता इतनी घोर और घातक हो सकती है, इसका उसे अनुमान भी न था। अब तक उनकी कुवृत्तियों का पर्दा ढँका हुआ था। जो कुछ दुःख और सन्ताप होता था वह उसी तक रहता था, पर यहाँ आकर पर्दा खुल गया। वह अपने पति की निगाह में गिर गयी, उसके मुँह में कालिख लग गई। राय साहब का यह समझना स्वाभाविक था कि इस दुष्कर्म में विद्या का भी कुछ भाग अवश्य होगा। कदाचित् यही समझ कर वह उसे यह वृत्तांत कहने आये थे। वह सारा दोष पति के सिर मढ़ कर अपने को क्योंकर मुक्त कर सकती? इस उधेड़-बुन में विद्या का ध्यान जब पाप-परिणाम की ओर गया तो वह काँप उठी। भगवान्! मैं दुखिया हूँ, अभागिनी हूँ, मुझ पर दया करो, तुम्हारी शरण हूँ। भाँति-भाँति की शंकाएँ उसके चित्त को विचलित करने लगीं। मायाशंकर की सूरत आँखों में फिरने लगी। ऐसा जी चाहता था कि पैरों में पर लग जायँ और उड़ कर उसके पास जा पहुँचूँ। रह-रह कर हृदय में एक हूक सी उठती थी और अनिष्ट कल्पना से चित्त विकल हो जाता था।
एक क्षण में इन ग्लानि और शंकाओं ने उग्र रूप धारण किया। आग की बिखरी हुई चिनगारियाँ एक प्रचंड ज्वाला के रूप में ज्ञानशंकर की ओर लपकीं। तुम इतने नीच, इतने क्रूर, इतने दुर्बल हो! तुमने कहीं का न रखा। तुम्हारे ही कारण मेरी यह दुर्दशा हो रही है और अभी न जाने क्या-क्या होगी! तुम धूर्त हो। न जाने पूर्व जन्म में ऐसा क्या पाप किया था। तुम्हारे पल्ले पड़ी। उसने ज्ञानशंकर को उसी दम एक पत्र लिखने का निश्चय किया और सोचने लगी, उसकी शैली क्या हो? इसी सोच में पड़े-पड़े उसे नींद आ गई। वह बहुत देर तक पड़ी रही। जब सर्दी लगी तो चौंकी, कमरे में सन्नाटा था, सारे घर में निस्तब्धता छायी थी। महरियाँ भी सो गयीं थी। उसके व्यालू का थाल सामने मेज पर रखा हुआ था और एक पालतू बिल्ली उसके निकट उन चूहों की ताक में बैठी हुई थी जो भोज्य पदार्थों का रसास्वादन करने के लिए आलमारी के कोने से निकल कर आते थे और अज्ञात भय के कारण आधे रास्ते लौट जाते थे। विद्या कई मिनट तक इस दृश्य में मग्न रही। निद्रा ने उसके चित्त को शांत कर दिया था। उसे चूहे पर दया आयी जो एक क्षण में बिल्ली के मुँह का ग्रास बन जायेगा। इसके साथ ही उसकी कल्पना चूहे से ज्ञानशंकर की अवस्था की तुलना करने लगी। क्या उसकी दशा भी इसी चूहे की सी नहीं है? उन पर क्रोध क्यों करूँ? वह दया के योग्य हैं। वह इसी चूहे की भाँति स्वाद के वश हो कर काल के मुँह में दौड़े जा रहे हैं और माया-लोभ के हाथों में काठ की पुतली बने हुए नाच रहे हैं। मैं जा कर उन्हें समझाऊँगी, उनसे विनय करूँगी कि मुझे ऐसी सम्पत्ति की लालसा नहीं है जिस पर आत्मा और विवेक का बलिदान किया गया हो। ऐसी जायदाद को मेरी तिलांजलि है। मेरा लड़का गरीब रहेगा, अपने पसीने की कमाई खायेगा, लेकिन जब तक मेरा वश चलेगा मैं उसे इस जायदाद की हवा भी न लगने दूँगी।
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गायत्री बनारस पहुँच कर ऐसी प्रसन्न हुई जैसे कोई बालू पर तड़पती हुई मछली पानी में जा पहुँचे। ज्ञानशंकर पर राय साहब की धमकियों का ऐसा भय छाया हुआ था कि गायत्री के आने पर वह और भी सशंक हो गये। लेकिन गायत्री की सान्त्वनाओं ने शनैःशनैः उन्हें सावधान कर दिया। उसने स्पष्ट कह दिया कि मेरा प्रेम पिता की आज्ञा के अधीन नहीं हो सकता। वह ज्ञानशंकर को अन्याय-पीड़ित समझती थी और अपनी स्नेहमयी बातों से उनका क्लेश दूर करना चाहती थी। ज्ञानशंकर जब गायत्री की ओर से निश्चिन्त हो गये तो उसे बनारस के घाटों और मन्दिरों की सैर कराने लगे। प्रातःकाल उसे ले कर गंगा स्नान करने जाते, संध्या समय बजरे पर या नौका पर बैठा कर घाटों की बहार दिखाते। उनके द्वार पर पंडों की भीड़ लगी रहती। गायत्री की दानशीलता की सारे नगर में धूम मच गयी। एक दिन वह हिन्दू विश्वविद्यालय देखने गयी और बीस हजार दे आयी। दूसरे दिन ‘इत्तहादी यतीमखाने’ का मुआइना किया और दो हजार रुपये बिल्डिंग फंड को प्रदान किए। सनातन-धर्म के नेतागण गुरुकुलाश्रम के लिए चंदा माँगने आए। चार हजार उनके नजर किए। एक दिन गोपाल मंदिर में पूजा करने गयी और महन्त जी को दो हजार भेंट कर आयी। आधी रात तक कीर्तन का आनंद उठाती रही। उसका मन कीर्तन में सम्मिलित होने के लिए लालायित हो रहा था। पर ज्ञानशंकर को यह अनुचित जान पड़ता था। ऐसा कीर्तिन उसने कभी न सुना था।
इसी भाँति एक सप्ताह बीत गया। संध्या हो गई थी। गायत्री बैठी बनारसी साड़ियों का निरीक्षण कर रही थी। वह उनमें से एक साड़ी लेना चाहती थी, पर रंग का निश्चय न कर सकती थी। एक-एक साड़ी को सिर पर ओढ़ कर आईने में देखती और उसे तह करके रख देती। कौन रंग सबसे अधिक खिलता है, इसका फैसला न होता था। इतने में श्रद्धा आ गयी। गायत्री ने कहा, बहिन, भली आयीं। बताओ, इसमें से कौन सी साड़ी लूँ? मुझे तो सब एक सी लगती हैं।
श्रद्धा ने मुस्कुरा कर कहा– मैं गँवारिन इन बातों को क्या समझूँ।
गायत्री– चलो, बातें न बनाओ। मैं इसका फैसला तुम्हारे ही ऊपर छोड़ती हूँ। एक अपने लिए चुनो और एक मेरे लिए।
श्रद्धा– आप ले लीजिए, मुझे जरूरत नहीं है। यह फिरोजी साड़ी आप पर खूब खिलेगी।
गायत्री– मेरी खातिर से एक साड़ी ले लो।
श्रद्धा– लेकर क्या करूँगी? धरे-धरे कीड़े खा जायेंगे।
श्रद्धा ने यह बात कुछ ऐसे करुण भाव से कही कि गायत्री के हृदय पर चोट-सी लग गयी। बोली, कब तक यह जोग साधोगी। बाबू प्रेमशंकर को मना क्यों नहीं लेतीं?
श्रद्धा ने सजल नेत्रों से मुस्कुराकर कहा– क्या करूँ, मुझे मनाना नहीं आता।
गायत्री– मैं मना दूँ?
श्रद्धा– इससे बड़ा और कौन उपकार होगा, पर मुझे आपके सफल होने की आशा नहीं है। उन्हें अपनी टेक है और मैं धर्म-शास्त्र से टल नहीं सकती। फिर भला मेल क्योंकर होगा?
गायत्री– प्रेम से।
श्रद्धा– मुझे उनसे जितना प्रेम है वह प्रकट नहीं कर सकती, अगर उनका जरा भी इशारा पाऊँ तो आग में कूद पड़ूँ। और मुझे विश्वास है कि उन्हें भी मुझसे इतना ही प्रेम है, लेकिन प्रेम केवल हृदयों को मिलाता है, देह पर उसका बस नहीं है।
इतने में ज्ञानशंकर आ गये और गायत्री से बोले, मैं जरा गोपाल मन्दिर की ओर चला गया था। वहाँ कुछ भक्तों का विचार है कि आपके शुभागमन के उत्सव में कृष्ण लीला करें। मैंने उनसे कह दिया है कि इसी बँगले के सामनेवाले सहन में नाट्यशाला बनायी जाय। गायत्री का मुखकमल खिल उठा। बोली, यह जगह काफी होगी?
ज्ञान– हाँ, बहुत जगह है। उन लोगों की यह भी इच्छा है कि आप भी कोई पार्ट लें।
गायत्री– (मुस्करा कर) आप लेंगे तो मैं भी लूँगी।
ज्ञानशंकर दूसरे ही दिन रंगभूमि के बनाने में दत्तचित्त हो गये। एक विशाल मंडप बनाया गया। कई दिनों तक उसकी सजावट होती रही। फर्श, कुर्सियाँ, शीशे के सामान, फूलों के गमले, अच्छी-अच्छी तस्वीरें सभी यथास्थान शोभा देने लगीं। बाहर विज्ञापन बाँटे गये। रईसों के पास छपे हुए निमंत्रण-पत्र भेजे गये। चार दिन तक ज्ञानशंकर को बैठने का अवसर न मिला। एक पैर दीवानखाने में रहता था, जहाँ अभिनेतागण अपने-अपने पार्ट का अभ्यास किया करते थे, दूसरा पैर शामियाने में रहता था, जहाँ सैकड़ों मजदूर, बढ़ई, चित्रकार अपने-अपने काम कर रहे थे। स्टेज की छटा अनुपम थी। जिधर देखिए हरियाली की बहार थी। पर्दा उठते ही बनारस में ही वृन्दावन का दृश्य आँखों के सामने आ जाता था। यमुना तट के कुंज, उनकी छाया में विश्राम करती हुई गायें, हिरनों के झुंड़, कदम की डालियों पर बैठे हुए मोर और पपीहे-सम्पूर्ण दृश्य काव्य रस में डूबा हुआ था।
रात के आठ बजे थे। बिजली की बत्तियों से सारा मंडप ज्योतिर्मय हो रहा था। सदर फाटक पर बिजली का एक सूर्य बना हुआ था, जिसके प्रकाश में जमीन पर रेंगनेवाली चीटिंया भी दिखाई देती थीं, सात ही बजे से दर्शकों का समारोह होने लगा। लाला प्रभाशंकर अपना काला चोंगा पहने, एक केसरिया पाग बाँधे मेहमानों का स्वागत कर रहे थे। महिलाओं के लिए दूसरी ओर पर्दे डाल दिये गये थे। यद्यपि श्रद्धा को इन लीलाओं से विशेष प्रेम न था तथापि गायत्री के अनुरोध से उसने महिलाओं के आदर-सत्कार का भार अपने सिर ले लिया था। आठ बजते-बजते पंडाल दर्शकों से भर गया, जैसे मेले में रेलगाड़ियाँ ठस जाती हैं। मायाशंकर ने सबके आग्रह करने पर भी कोई पार्ट न लिया था। मंडप के द्वार पर खड़ा लोगों के जूतों की रखवाली कर रहा था। इस वक्त तक शामियाने के बाजार-सा लगा हुआ था, कोई हँसता था, कोई अपने सामनेवालों को धक्के देता था, कुछ लोग राजनीतिक प्रश्नों पर वाद-विवाद कर रहे थे, कहीं जगह के लिए लोगों में हाथापाई हो रही थी। बाहर सर्दी से हाथ-पाँव अकड़े जाते थे, पर मंडप में खासी गर्मी थी।
ठीक नौ बजे पर्दा उठा। राधिका हाथ में वीणा लिये, कदम के नीचे खड़ी सूरदास का एक पद गा रही थी। यद्यपि राधिका का पार्ट उस पर फबता न था। उसकी गौरवशीलता, उसकी प्रौढ़ता, उसकी प्रतिभा एक चंचल ग्वाल कन्या के स्वभावानुकूल न थी, किन्तु जगमगाहट ने सबकी समालोचक शक्तियों को वशीभूत कर लिया था। सारी सभा विस्मय और अनुराग में डूबी हुई थी, यह तो कोई स्वर्ग की अप्सरा है! उसकी मृदुल वाणी, उसका कोमल गान, उसके अलंकार और भूषण, उसके हाव-भाव उसके स्वर-लालित्य, किस-किस की प्रशंसा की जाये! वह एक थी, अद्वितीय थी, कोई उसका सानी, उसका जवाब न था।
राधा के पीछे तीन सखियाँ और आयी– ललिता, चन्द्रावली और श्यामा। सब अपनी-अपनी विरह-कथा सुनाने लगीं। कृष्ण की निष्ठुरता और कपट की चर्चा होने लगी। उस पर घरवालों की रोक-थाम, डाँट-डपट भी मारे डालती थी। एक बोली– मुझे तो पनघट पर जाने की रोक हो रही है, दूसरे बोली– मैं तो द्वार खड़ी हो कर झाँकने भी न पाती, तीसरी बोली– जब दही बेचने जाती हूँ तब बुढ़िया साथ हो लेती है। राधिका ने सजल नेत्र हो कर कहा, मैं तो बदनाम हो गयी, अब किसी से उनकी बात नहीं हो सकती। ललिता बोली– वह आप ही निर्दयी हैं, नहीं तो क्या मिलने का कोई उपाय ही न था?
चन्द्रावली– उन्हें हमको जलाने और तड़पाने में आनन्द मिलता है?
श्यामा– यह बात नहीं, वह हमारे घरवालों से डरते हैं।
राधा– चल, तू उनका यों ही पक्ष लिया करती है। बड़े चतुर तो बनते हैं? क्या इन बुद्धुओं को भी धता नहीं बता सकते? बात यह है कि उन्हें हमारी सुध ही नहीं है।
ललिता– चलो, आज हम सब उनको परखें।
इस पर सब सहमत हो गयीं। इधर-उधर चौकन्नी आँखों से ताक-ताक कर हाथों से बता-बता कर, भौंहे नचा-नचा कर आपस में सलाह होने लगी। परीक्षा का क्या रूप होगा, इसका निश्चय हो गया। चारों प्रसन्न हो कर एक गीत गाती हुई स्टेज से चली गईं। पर्दा गिर गया।
फिर पर्दा उठा है। वृक्षों के समूह में एक छोटा सा गाँव दिखाई दिया। फूस के कई झोंपड़े थे, बहुत ही साफ-सुथरे, फूल-पत्तियों से सजे हुए। उनमें कहीं-कहीं गायें बँधी हुई थीं, कहीं बछड़े किलोलें करते थे, कहीं दूध बिलोया जाता था। बड़ा सुरम्य दृश्य था! एक मकान में चंद्रावली पलंग पर पड़ी कराह रही थी। उसके सिरहाने कई आदमी बैठे पंखा झल रहे थे, कई स्त्रियाँ पैर की ओर खड़ी थीं। ‘बैद! बैद! की पुकार हो रही थी। दूसरी झोंपड़ी में ललिता पड़ी थी। उसके पास भी कई स्त्रियाँ बैठी टोना-टोटका कर रही थीं, कई कहती थी, आसेव है, और चुड़ैल का फेर बतलाती थीं। ओझा जी को बुलाने की बातचीत हो रही थी। एक युवक खड़ा कह रहा था– यह सब तुम्हारा ढकोसला है, इसे कोई हृदयरोग है, किसी चतुर वैद्य को बुलाना चाहिए। तीसरे झोंपड़े में श्यामा की खटोली थी। वहाँ भी यही वैद्य की पुकार थी। चौथा मकान बहुत बड़ा था। द्वार पर बड़ी-बड़ी गायें थी। एक ओर अनाज के ढेर लगे हुए थे, दूसरी ओर मटकों में दूध भरा रखा था। चारों तरफ सफाई थी। इसमें राधिका रुग्णावस्था में बेचैन पड़ी थी। उसके समीप एक पंडित जी आसन पर बैठे हुए पाठ कर रहे थे। द्वार पर भिक्षुकों को अन्नदान दिया जा रहा था। घर के लोग राधिका को चिन्तित नेत्रों से देखते थे और ‘बैद! बैद!’ पुकारते थे।
सहसा दूर से आवाज आयी– बैद! बैद! सब रोगों का बैद, काम का बैद, क्रोध का बैद, मोह का बैद, लोभ का बैद, धर्म का बैद, कर्म का बैद, मोक्ष का बैद! मन का मैल निकाले, अज्ञान का मैल निकाले, ज्ञान की सींगी लगाये, हृदय की पीर मिटाये! बैद! बैद!! लोगों ने बाहर निकल कर वैद्य जी को बुलाया। उसके काँधे पर झोली थी, सिर पर एक लाल गोल पगड़ी देह पर एक हरी, बनात की गोटेदार चपकन थी। आँखों में सुरमा, अधरों पर पान की लाली, चेहरे पर मुस्कराहट थी। चाल-ढाल से बाँकापन बरसता था। स्टेज पर आते ही उन्होंने झोली उतार कर रख दी और बाँसुरी बजा-बजा कर गाने लगे–
मैं तो हरत विरह की पीर।
प्रेमदाह को शीतल करता जैसे अग्नि को नीर।
मैं तो हरत…
निर्मल ज्ञान की बूटी दे कर देत हृदय को धीर–
मैं तो हरत…
राधा के घर वाले उन्हें हाथों-हाथ अन्दर ले गये। राधिका ने उन्हें देखते ही मुस्करा कर मुँह छिपा लिया। वैद्य जी ने उसकी नाड़ी देखने के बहाने से उसकी गोरी-गोरी कलाई पकड़कर धीरे से दबा दी। राधा ने झिझक कर हाथ छुड़ा लिया तब प्रेम-नीति की भाषा में बातें होने लगीं।
राधा– नदी में अथाह जल है।
वैद्य– जिसके पास नौका है उसे जल का क्या भय?
राधा– आँधी है, भयानक लहरें हैं और बडे-बड़े भयंकर जलजन्तु हैं।
वैद्य– मल्लाह चतुर है।
राधा– सूर्य भगवान् निकल आये, पर तारे क्यों जगमगा रहे हैं?
वैद्य– प्रकाश फैलेगा तो वह स्वयं लुप्त हो जायेंगे।
वैद्य जी ने घरवालों को आँखों के इशारे से हटा दिया। जब एकान्त हो गया तब राधा ने मुस्करा कर कहा– प्रेम का धागा कितना दृढ़ है?
ज्ञानशंकर ने इसका कुछ उत्तर न दिया।
गायत्री फिर बोली– आग लकड़ी को जलाती है, पर लकड़ी जल जाती है तो आग भी बुझ जाती है।
ज्ञानशंकर ने इसका भी कुछ जवाब न दिया।
गायत्री ने उसके मुख की ओर विस्मय से देखा, यह मौन क्यों? अपना पार्ट भूल तो नहीं गये? तब तो बड़ी हँसी होगी।
ज्ञानशंकर के होठ बन्द ही थे, साँस बड़े वेग से चल रही थी। पाँव काँप रहे थे, नेत्रों में विषम प्रेरणा झलक रही थी और मुख से भयंकर संकल्प प्रकट होता था, मानो कोई हिंसक पशु अपने शिकार पर टूटने के लिए अपनी शक्तियों को एकाग्र कर रहा हो। वास्तव में ज्ञानशंकर ने छलाँग मारने को निश्चय कर लिया था। इसी एक छलाँ में वह सौभाग्य शिखर पर पहुँचना चाहते थे, इसके लिए महीनों से तैयार हो रहे थे, इसीलिए उन्होंने यह ड्रामा खेला था, इसीलिए उन्होंने यह स्वाँग भरा था। छलाँग मारने का यही अवसर था। इस वक्त चूकना पाप था। उन्होंने तोते का दाना खिला कर परचा लिया था, निःशंक हो कर उनके आँगन में दाना चुगता फिरता था। उन्हें विश्वास था कि दाने की चोट उसे पिंजरे में खींच ले जायेगी। उन्होंने पिंजरे का द्वार खोल दिया था। तोते ने पिंजरे को देखते ही चौंक कर पर खोले और मुँडेरे पर उड़ कर जा बैठा। दाने की चाट उसकी स्वेच्छावृत्ति का सर्वनाश न कर सकी थी। गायत्री की भी यही दशा थी। ज्ञानशंकर की यह अव्यवस्त प्रेरणा देख कर झिझकी। यह उसका इच्छित कर्म न था। वह प्रेम का रस-पान कर चुकी थी, उसकी शीतल दाह और सुखद पीड़ा का स्वाद चख चुकी थी, वशीभूत हो चुकी थी, पर सतीत्व-रक्षा की आन्तरिक प्रेरणा अभी शिथिल न हुई थी। वह झिझकी और उसी भाँति उठ खड़ी हुई जैसे किसी आकस्मिक आघात को रोकने के लिए हमारे हाथ स्वयं अनिच्छित रूप से उठ जाते हैं। वह घबरा कर उठी और वेग से स्टेज की पीछे की ओर निकल गयी। वहाँ पर चारपाई पड़ी हुई थी, वह उस पर जा कर गिर पड़ी। वह संज्ञा-शून्य सी हो रही थी जैसे रात के सन्नाटे से कोई गीदड़ बादल की आवाज सुने और चिल्ला कर गिर पड़े। उसे कुछ ज्ञान था तो केवल भय का।
लेकिन उसमें तोते की-सी स्वाभाविक शंका थी, तो इसी तोते का-सा अल्प-सम्मान भी था। जैसे तोता एक ही क्षण में फिर दाने पर गिरता है और अंत में पिंजर-बद्ध हो जाता है, उसी भाँति गायत्री भी एक ही क्षण में उसकी झिझक पर लज्जित हुई। उसकी मानसिक पवित्रता कब की विनष्ट हो चुकी थी। अब वह अनिच्छित प्रतिकार की शक्ति भी विलुप्त हो गयी। उसके मनोभाव का क्षेत्र अब बहुत विस्तृत हो गया था पति-प्रेम उसके एक कोने में पैर फैला कर बैठ सकता था, अब हृदयदेश पर उसका आधिपत्य न था। एक क्षण में वह फिर स्टेज पर आयी, शरमा रही थी कि ज्ञानशंकर मन में क्या कहते होंगे! हा! मैं भक्ति के वेग में अपने को न भूल सकी। यहाँ भी अहंकार को न मिटा सकी। दर्शक-वन्द मन में न जाने क्या विचार कर रहे होंगे! वह स्टेज पर पहुँची तो ज्ञानशंकर एक पद गाकर लोगों का मनोरंजन कर रहे थे। उसके स्टेज पर आते ही पर्दा गिर गया।
आध घंटे के बाद तीसरी बार पर्दा उठा। फिर वही कदम का वृक्ष था, वही सघन कुंज। चारों सखियाँ बैठी हुई कृष्ण के वैद्य रूप धारण की चर्चा कर रही थीं। वह कितने प्रेमी, कितने भक्तवत्सल हैं, स्वयं भक्तों के भक्त हैं।
इस वार्तालाप के उपरान्त एक पद्य-बद्ध सम्भाषण होने लगा। जिसमें ज्ञान और भक्ति की तुलना की गयी और अन्त में भक्ति पक्ष को ही सिद्ध किया गया। चारों सखियों ने आरती गायी और अभिनय समाप्त हुआ। पर्दा गिर गया। गायत्री के भाव-चित्रण, स्वर-लालित्य और अभिनय-कौशल की सभी प्रशंसा कर रहे थे। कितने ही सरल हृदय भक्तजनों को तो विश्वास हो गया कि गायत्री को राधिका का इष्ट है। सभ्य समाज इतना प्रगल्भ तो न था, फिर भी गायत्री की प्रतिभा, उसके तेजमय सौंदर्य, उसके विशाल गाम्भीर्य, उसकी अलौकिक मृदुलता का जादू सभी पर छाया हुआ था। ज्ञानशंकर के अभिनय-कौशल की भी सराहना हो रही थी। यद्यपि उनका गाना किसी को पसन्द न आया। उनकी आवाज में लोच का नाम भी न था, फिर भी वैद्य-लीला निर्दोष बताई जाती थी।
गायत्री अपने कमरे में आ कर कोच पर बैठी तो एक बज गया था। वह आनन्द से फूली न समाती थी, चारों तरफ उसकी वाह-वाह हो रही थी, शहर के कई रसिक सज्जनों ने चलते समय आ कर उसके मानव चरित्र-ज्ञान की प्रशंसा की थीं, यहाँ तक कि श्रद्धा भी उसके अभिनय नैपुण्य पर विस्मित हो रही। उसका गौरवशील हृदय इस विचार से उन्मत्त हो रहा था कि आज सारे नगर में मेरी ही चर्चा, मेरी ही धूम है और यह सब किसके सत्संग का, किसकी सत्प्रेरणा का फल था? गायत्री के रोम-रोम से ज्ञानशंकर के प्रति श्रद्धाध्वनि निकलने लगी। उसने ज्ञानशंकर पर अनुचित सन्देह करने के लिए अपने को तिरस्कृत किया। मुझे उनसे क्षमा माँगनी चाहिए, उनके पैरों पर गिरकर उनके हृदय से इस दुःख को मिटाना चाहिए। मैं उनकी पदरज हूँ, उन्होंने मुझे धरती से उठा कर आकाश पर पहुँचाया है। मैंने उन पर सन्देह किया! मुझसे बड़े कृतघ्न और कौन होगा? वह इन्हीं विचारों में मग्न थी कि ज्ञानशंकर आकर खड़े हो गये और बोले– आज आपने मजलिस पर जादू कर दिया।
गायत्री बोली– यह जादू आपका सिखाया हुआ है।
ज्ञानशंकर– सुना करता था कि मनुष्य का जैसा नाम होता है वैसे ही गुण भी उसमें आ जाते हैं, पर विश्वास न आता था। अब विदित हो रहा है कि यह कथन सर्वथा निस्सार नहीं है। मुझे दो बार से अनुभव हो रहा है जब अपना पार्ट खेलने लगता हूँ तब किसी दूसरे ही जगत् में पहुँच जाता हूँ। चित्त पर एक विचित्र आनन्द छा जाता है, ऐसा भ्रम होने लगता है कि मैं वास्तव में कृष्ण हूँ।
गायत्री– मैं भी यह कहनेवाली थी। मैं तो अपने को बिलकुल भूल ही जाती हूँ।
ज्ञान– सम्भव है उस आत्म-विस्मृति की दशा में मुझसे कोई अपराध हो गया हो तो उसे क्षमा कीजिएगा।
गायत्री सकुचाती हुई बोली– प्रेमोद्गार में अन्तःकरण निर्मल हो जाता है, वासनाओं का लेश भी नहीं रहता।
ज्ञानशंकर एक मिनट तक खड़े इन शब्दों के आशय पर विचार करते रहे और तब बाहर चले गये।
दूसरे दिन विद्यावती बनारस पहुँची। उसने अपने आने की सूचना न दी थी, केवल एक भरोसे के नौकर को साथ लेकर चली आयी थी ज्यों ही द्वार पर पहुँची उसे बृहत् पंडाल दिखायी दिया। अन्दर गयी तो श्रद्धा दौड़ कर उससे गले मिली। महरियाँ दौड़ी आयीं। वह सब-की-सब विद्या को करुणा-सूचक नेत्रों से देख रही थी। गायत्री गंगा स्नान करने गयीं थी। विद्या के कमरे में गायत्री का राज्य था। उसके सन्दूक और अन्य सामान चारों ओर भरे हुए थे। विद्या को ऐसा क्रोध आया कि गायत्री का सब सामान उठाकर बाहर फेंक दे, पर कुछ सोचकर रह गयी। गायत्री के साथ कई महरियाँ भी आयी थीं। वे वहाँ की महरियों पर रोब जमाती थीं। विद्या को देखकर सब इधर-उधर हट गयीं, कोई कुशल समाचार पूछने पर भी न आयी। विद्या इन परिस्थितियों को उसी दृष्टि से देख रही थी जैसे कोई पुलिस अफसर किसी घटना के प्रमाणों को देखता है! उसके मन में जो शंका आरोपित हुई थी उसकी पग-पग पर पुष्टि होती जाती थी। ज्यों ही एकान्त हुआ, विद्या ने श्रद्धा से पूछा– यह शामियाना कैसे तना हुआ है?
श्रद्धा– रात को वहाँ कृष्णलीला हुई थी।
विद्या– बहिन ने भी कोई पार्ट लिया?
श्रद्धा– वह राधिका बनी थी और बाबू जी ने कृष्ण का पार्ट लिया था।
विद्या– बहिन से खेलते तो न बना होगा?
श्रद्धा– वाह! वह इस कला में निपुण हैं। सारी सभा लट्टू हो गयी। आती होंगी, आप ही कहेंगी।
विद्या– क्या नित्य गंगा स्नान करने जाती हैं?
श्रद्धा– हाँ, प्रातःकाल गंगा स्नान होता है, संध्या को कीर्तन सुनने जाती हैं।
इतने में मायाशंकर ने आकर माता के चरण स्पर्श किए। विद्या ने उसे छाती से लगाया और बोली– बेटा, आराम से तो रहे?
माया– जी हाँ, खूब आराम से था।
विद्या– बहिन, देखो इतने ही दिनों में इसकी आवाज कितनी बदल गयी है! बिलकुल नहीं पहचानी जाती। मौसी जी के क्या रंग-ढंग हैं? खूब प्यार करती हैं न?
माया– हाँ, मुझे बहुत चाहती हैं, बहुत अच्छा मिजाज है।
विद्या– वहाँ भी कृष्णलीला होती थी कि नहीं?
माया– हाँ, वहाँ तो रोज ही होती रहती थी। कीर्तन नित्य होता था। मथुरा-वृन्दावन से रहस्वाले बुलाये जाते थे। बाबू जी भी कृष्ण का पार्ट खेलते हैं। उनके केश खूब बढ़ गये हैं। सूरत से महन्त मालूम होते हैं तुमने तो देखा होगा?
विद्या– हाँ, देखा क्यों नहीं! बहिन अब भी उदास रहती है?
माया– मैंने तो उन्हें कभी उदास नहीं देखा। हमारे घर में ऐसा प्रसन्नचित्त कोई है ही नहीं।
विद्या यह प्रश्न यों पूछ रही थी जैसे कोई वकील गवाह से जिरह कर रहा हो। प्रत्येक उत्तर सन्देह को दृढ़ करता था। दस बजे द्वार पर मोटर की आवाज सुनायी दी। सारे घर में हलचल मच गयी। कोई महरी गायत्री का पलँग बिछाने लगी, कोई उसके स्लीपरों को पोंछने लगी, किसी ने फर्श झाड़ना शुरू किया, कोई उसके जलपान की सामग्रियाँ निकाल कर तश्तरी में रखने लगी और एक ने लोटा-गिलास माँज कर रख दिया। इतने में गायत्री ऊपर आ पहुँची। पीछे-पीछे ज्ञानशंकर भी थे। विद्या अपने कमरे में से न निकली, लेकिन गायत्री लपक कर उसके गले से लिपट गयी और बोली– तुम कब आयीं? पहले से खत भी न लिखा?
विद्या गला छुड़ा कर अलग खड़ी हो गयी और रुखाई से बोली– खत लिख कर क्या करती? यहाँ किसे फुरसत थी कि मुझे लेने जाता। दामोदर महाराज के साथ चली आयी।
ज्ञानशंकर ने विद्या के चेहरे की ओर प्रश्नात्मक दृष्टि से देखा। उत्तर मोटे अक्षरों में स्पष्ट लिखा हुआ था। विद्या भावों को छिपाने में कच्ची थी। सारी कथा उसके चेहरे पर अंकित थी। उसने ज्ञानशंकर को आँख उठा कर भी न देखा, कुशल-समाचार पूछने की बात ही क्या! नंगी तलवार बनी हुई थी। उसके तेवर साफ कह रहे थे कि वह भरी बैठी है और अवसर पाते ही उबल पड़ेगी। ज्ञानशंकर का चित्त उद्विग्न हो गया। वे शंकाएँ, वह परिणाम-चिन्ता जो गायत्री के आने से दब गयी थीं, फिर जाग उठी और उनके हृदय में काँटों के समान चुभने लगी। उन्हें निश्चय हो गया कि विद्या सब कुछ जान गयी, अब वह मौका पाते ही ईर्ष्यावेग में गायत्री से सब कुछ कह सुनायेगी। मैं उसे किसी भाँति नहीं रोक सकता। समझाता, डराना, धमकाना, विनय और चिरौरी करना सब निष्फल होगा। बस अगर अब प्राण-रक्षा का कोई उपाय है तो यही कि उसे गायत्री से बातचीत करने का अवसर ही न मिले। या तो आज ही शाम की गाड़ी से गायत्री को ले कर गोरखपुर चला जाऊँ या दोनों बहनों में ऐसा मनमुटाव करा दूँ कि एक-दूसरी से खुल कर मिल ही न सकें। स्त्रियों को लड़ा देना कौन-सा कठिन काम है! एक इशारे में तो उनके तेवर बदलते हैं। ज्ञानशंकर को अभी तक यह ध्यान भी न था कि विद्या मेरी भक्ति और प्रेम के मर्म तक पहुँची हुई है। वह केवल अभी तक राय साहब वाली दुर्घटनाओं को ही इस मनोमालिन्य का कारण समझ रहे थे।
विद्या ने गायत्री से अलग हट कर उसके नख-शिख को चुभती हुई दृष्टि से देखा। उसने उसे छह साल पहले देखा था। तब उसका मुखकमल मुर्झाया हुआ था, वह सन्ध्या-काल के सदृश उदास, मलिन, निश्चेष्ट थी। पर इस समय उसके मुख पर खिले हुए कमल की शोभा थी। वह उषा की भाँति विकिसत तेजोमय सचेष्ट स्फूर्ति से भरी हुई दीख पड़ती थी। विद्या इस विद्युत प्रकाश के सम्मुख दीपक के समान ज्योतिहीन मालूम होती थी।
गायत्री ने पूछा– संगीत सभा का तो खूब आनन्द उठाया होगा?
ज्ञानशंकर का हृदय धकधक करने लगा। उन्होंने विद्या की ओर बड़ी दीन दृष्टि से देखा पर उसकी आँखें जमीन की तरफ थीं, बोली– मैं तो कभी संगीत के जलसे में गई ही नहीं। हाँ, इतना जानती हूँ कि जलसा बड़ा फीका रहा। लाला जी बहुत बीमार हो गये और एक दिन भी जलसे में शरीक न हो सके।
गायत्री– मेरे न जाने से नाराज तो अवश्य ही हुए होंगे?
विद्या– तुम्हें उनके नाराज होने की क्या चिन्ता है? वह नाराज हो कर तुम्हारा क्या बिगाड़ सकते हैं?
यद्यपि यह उत्तर काफी तौर पर द्वेषमूलक था, पर गायत्री अपनी कृष्णलीला की चर्चा करने के लिए इतनी उतावली हो रही थी कि उसने इस पर कुछ ध्यान न दिया। बोली, क्या कहूँ तुम कल न आ गयीं, नहीं तो यहाँ कृष्णलीला का आनन्द उठातीं। भगवान की कुछ ऐसी दया हो गयी कि सारे शहर में इस लीला की वाह-वाह मच गयी। किसी प्रकार की त्रुटि न रही। रंगभूमि तो तुमको अभी दिखाऊँगी पर उसकी सजावट ऐसी मनोहर थी कि तुमसे क्या कहूँ! केवल पर्दों को बनवाने में हजारों रुपये खर्च हो गये। बिजली के प्रकाश से सारा मंडप ऐसा जगमगा रहा था कि उसकी शोभा देखते ही बनती थी। मैं इतनी बड़ी सभा के सामने आते ही डरती थी, पर कृष्ण भगवान् ने ऐसी कृपा की कि मेरा पार्ट सबसे बढ़ कर रहा। ‘पूछों बाबू जी से, शहर में उसकी कैसी चर्चा हो रही है? लोगों ने मुझसे एक-एक पद कई-कई बार गवाया।’
विद्या ने व्यंग्य भाव से कहा– मेरा अभाग्य था कि कल न आयी।
गायत्री– एक बार फिर वही लीला करने का विचार है। अबकी तुम्हें भी कोई-न-कोई पार्ट दूँगी।
विद्या– नहीं, मुझे क्षमा करना। नाटक खेल कर स्वर्ग में जाने की मुझे आशा नहीं है।
गायत्री विस्मित हो कर विद्या का मुँह ताकने लगी। लेकिन ज्ञानशंकर मन में मुग्ध हुए जाते थे। दोनों बहिनों में वह जो भेद-भाव डालना चाहते थे, वह आप-ही-आप आरोपित हो रहा था। ये शुभ लक्षण थे। गायत्री से बोले– मेरे विचार में यहाँ अब आपको कष्ट होगा। क्यों न बँगले में एक कमरा आपके लिए खाली कर दूँ? वहाँ आप ज्यादा आराम से रह सकेंगी।
गायत्री ने विद्या की तरफ देखते हुए कहा– क्यों विद्या, बँगले में चली जाऊँ? बुरा तो न मानोगी? मेरे यहाँ रहने से तुम्हारे आराम में विघ्न पड़ेगा। मैं बहुधा भजन गाया करती हूँ।
विद्या– तुम मेरे आराम की चिन्ता मत करो, मैं इतनी नाजुक दिमाग नहीं हूँ। हाँ, अगर तुम्हें यहाँ कोई असमंजस हो तो शौक से बँगले में चली जाओ।
ज्ञानशंकर ने गायत्री का असबाब उठाकर बंगले में रखवा दिया। गायत्री ने भी विद्या से और कुछ न कहा। उसे मालूम हो गया कि यह समय ईर्ष्या के मारे मरी जाती है। और ऐसा कौन प्राणी होगा, जो ईर्ष्या की क्रीड़ा का आनन्द न उठाना चाहे? उसने एक बार विद्या को सगर्व नेत्रों से देखा और जीने की तरफ चली गयी।
रात के नौ बजे थे। गायत्री वीणा पर गा रही थी कि ज्ञानशंकर ने कमरे में प्रवेश किया। उन्होंने आज देवी से वरदान माँगने का निश्चय कर लिया था। लोहा लाल हो रहा था, अब आगा-पीछा करने का अवसर न था, ताबड़तोड़ चोटों की जरूरत थी। एक दिन की देर भी बरसों के अविरल उद्योग पर पानी फेर सकती थी, जीवन की समस्त आशाओं को मिट्टी में मिला सकती थी। विद्या की अनुचित बात सारी बाजी को पलट सकती थी, उसका एक द्वेषमूलक संकेत उनके सारे हवाई किलों को विध्वंस कर सकता था। कदाचित किसी सेनापति को रणक्षेत्र में इतना महत्त्वपूर्ण और निश्चयकारी अवसर न प्रतीत होगा, जितना इस समय ज्ञानशंकर को मालूम हो रहा था। उनकी अवस्था उस सिपाही की-सी थी जो कुछ दूर पर खड़ा शस्त्रशाला में आग की चिनगारी पड़ते देखे और उसको बुझाने के लिए बेतहाश दौड़े। उसका द्रुतवेग कितना महत्त्वपूर्ण, कितना मूल्यवान है! एक क्षण का विलम्ब सेना के सर्वनाश, दुर्ग के दमन, राज्य के विक्षेप और जाति के पददलित होने के कारण हो सकता है! ज्ञानशंकर आज दोपहर से इसी समस्या के हल करने में व्यस्त थे। क्योंकर विषय को छेड़ूँ? ऐसा अन्दाजा होना चाहिए कि मेरी निष्कामवृत्ति का पर्दा न खुलने पाये। उन्होंने अपने मन में विषय-प्रवेश का ऐसा क्रम बाँधा था कि मायाशकंर को गोद लेने का प्रस्ताव गायत्री की ओर से हो और उसके गुण-दोषों की निःस्वार्थ भाव से व्याख्या करूँ। मेरी हैसियत एक तीसरे आदमी की-सी रहे, एक शब्द से भी पक्षपात प्रकट न हो। उन्होंने अपनी बुद्धि, विचार, दूरदर्शिता और पूर्व-चिन्ता से कभी इतना काम न लिया था। सफलता में जो बाधाएँ उपस्थित होने की कल्पना हो सकती थी उन सबों की उन्होंने योजना कर ली थी। अपने मन में एक-एक शब्द, एक-एक इशारे, एक-एक भाव का निश्चय कर लिया था। वह एक केसरिया रंग की रेशमी चादर ओढ़े हुए थे, लम्बे केश चादर पर बिखरे पड़े थे, आँखों से भक्ति का आनन्द टपक रहा था और मुखारविन्द प्रेम की दिव्यज्योति से आलोकित था।
उन्होंने गायत्री को अनुरागमय दृष्टि से देख कर कहा– आपके पदों में गजब का जादू है। हृदय में प्रेम की तरंगे उठने लगती हैं, चित्त भक्ति से उन्मत्त हो जाता है।
गायत्री ने मुस्करा कर कहा, यह जादू मेरे पदों में नहीं है। आपके कोमल हृदय में है। बाहर की फीकी नीरस ध्वनि भी अन्दर जा कर सुरीली और रसमयी हो जाती है। साधारण दीपक भी मोटे शीशे के अन्दर बिजली का लैम्प बन जाता है।
ज्ञानशंकर– मेरे चित्त की आजकल एक विचित्र दशा हो गयी है। मुझे अब विश्वास हो गया है कि मनुष्य में एक ही साथ दो भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों का समावेश नहीं हो सकता, एक आत्मा दो रूप धारण नहीं कर सकती।
गायत्री ने उनकी और जिज्ञासा भाव से देखा और वीणा को मेज पर रख कर उनका मुँह देखने लगी।
ज्ञानशंकर ने कहा– हम जो रूप धारण करते हैं। उसका हमारी बातचीत और आचार-व्यवहार पर इतना असर पड़ता है कि हमारी वास्तविक स्थिति लुप्त-सी हो जाती है। अब मुझे अनुभव हो रहा है कि लोग क्यों लड़कों को नाटकों में स्त्रियों का रूप धरने, नाचने, और भाव बताने पर आपत्ति करते हैं। एक दयालु प्रकृति का मनुष्य सेना में रह कर कितना उद्दंड और कठोर हो जाता है। परिस्थितियाँ उसकी दयालुता का नाश कर देती हैं। मेरे कानों में अब नित्य वंशी की मधुर-ध्वनि गूँजा करती है और आँखों के सामने गोकुल और बरसाने की छटा फिरा करती है। मेरी सत्ता कृष्ण में विलीन हो जाती है, राधा अब, एक क्षण के लिए मेरे ध्यान से नहीं उतरती। कुछ समझ में नहीं आता कि मेरा मन मुझे किधर लिये जाता है?
यह कहते-कहते ज्ञानशंकर की आँखों से ज्योति-सी निकलने लगी, मुखमंडल पर अनुराग छा गया और वाणी माधुर्य रस में डूब गयी। बोले– गायत्री देवी, चाहे यह छोटा मुँह और बड़ी बात हो, पर सच्ची बात यह है कि इसे आत्मोत्सर्ग की दशा में तुम्हारा उच्च पद, तुम्हारा धन-वैभव, तुम्हारा नाता सब मेरी आँखों में लुप्त हो जाता है और तुम मुझे वही राधा, वही वृन्दावन की अलबेली, तिरछी चितवन वाली, मीठी मुस्कान वाली, मृदुलभावों वाली, चंचल-चपल राधा मालूम होती हो। मैं इन भावनाओं को हृदय से मिटा देना चाहता हूँ, लाखों यत्न यन्त करता हूँ पर वह मेरी नहीं मानता। मैं चाहता हूँ कि तुम्हें रानी गायत्री समझूँ जिसका मैं एक तुच्छ सेवक हूँ, पर बार-बार भूल जाता हूँ। तुम्हारी एक आवाज, तुम्हारी एक झलक तुम्हारे पैरों की आहट, यहाँ तक कि केवल तुम्हारी याद मुझे इस बाह्य जगत् ने उठाकर किसी दूसरे जगत में पहुँचा देती है। मैं अपने को बिल्कुल भूल जाता हूँ, अब तक इस चित्त वृत्ति को गुप्त रखा था, लेकिन जैसे मिजराव की चोट से सितार ध्वनित हो जाता है। उसी भाँति प्रेम की चोट से हृदय स्वरयुक्त हो जाता है। मैंने आप से अपने चित्त की दशा कह सुनायी, सन्तोष हो गया। इस प्रीति का अन्त क्या होगा, इसे उसके सिवा और कौन जानता है जिसने हृदय में यह ज्वाला प्रदीप्त की है।
जिस प्रकार प्यास से तड़पता हुआ मनुष्य ठंडा पानी पी कर तृप्त हो जाता है, एक-एक घूँट उसकी आँखों में प्रकाश और चेहरे पर विकास उत्पन्न कर देता है, उसी प्रकार यह प्रेम वृत्तान्त सुना कर गायत्री का मुख चन्द्र उज्ज्वल हो गया, उसकी आँखें उन्मत्त हो गयीं, उसे अपने जीवन में एक स्फूर्ति का अनुभव होने लगा। उसके विचारों में यह आध्यात्मिक प्रेम था, इसमें वासना का लेश भी न था। इसके प्रेरक कृष्ण थे। वही ज्ञानशंकर के दिल में बैठे हुए उनके कंठ से यह प्रेम-स्वर अलाप रहे थे। उसके मन में भी ऐसे भाव पैदा होते थे, लेकिन लज्जा-वश उन्हें प्रकट न कर सकती थी। राधा का पार्ट खेल चुकने के बाद वह फिर गायत्री हो जाती थी, किन्तु इस समय ये बातें सुन कर उस पर नशा-सा छा गया। उसे ज्ञात हुआ कि राधा मेरे हृदय-स्थल में विराज रही है, उसकी वाणी लज्जा के बन्धन से मुक्त हो गयी। इस आध्यात्मिक रत्न के सामने समग्र संसार, यहाँ तक कि अपना जीवन भी तुच्छ प्रतीत होने लगा। आत्म-गौरव से आँखें चमकने लगीं। बोली– प्रियतम, मेरी भी यही दशा है। मैं भी इसी ताप से फूँक रही हूँ! यह तन और मन अब तुम्हारी भेंट है। तुम्हारे प्रेम जैसा रत्न पाकर अब मुझे कोई आकांक्षा, लालसा नहीं रही। इस आत्म-ज्योति ने माया और मोह के अन्धकार को मिटा दिया, सांसारिक पदार्थों से जी भर गया। अब यही अभिलाषा है कि यह मस्तक तुम्हारे चरणों पर हो और तुम्हारे कीर्ति-गान में जीवन समाप्त हो जाये। मैं रानी नहीं हूँ, गायत्री नहीं हूँ, मैं तुम्हारे प्रेम की भिखारिनी, तुम्हारे प्रेम की मतवाली, तुम्हारी चेरी राधा हूँ! तुम मेरे स्वामी, मेरे प्राणाधार, मेरे इष्टदेव हो। मैं तुम्हारे साथ बरसाने की गलियों में विचरूँगी, यमुना तट पर तुम्हारे प्रेम-राग गाऊँगी। मैं जानती हूँ कि मैं तुम्हारे योग्य नहीं हूँ, अभी मेरा चित्त भोग-विलास का दास है। अभी मैं धर्म और समाज के बन्धनों को तोड़ नहीं सकी हूँ पर जैसी कुछ हूँ अब तुम मेरी सेवाओं को स्वीकार करो। तुम्हारे ही सत्संग ने इस स्वर्गीय सुख का रस चखाया है, क्या वह मन के विकारों को शान्त न कर देगा?
यह कहते-कहते गायत्री के लोचन सजल हो गये। वह भक्ति से आवेग में ज्ञानशंकर के पैरों में गिर पड़ी। ज्ञानशंकर ने उसे तुरन्त उठा कर छाती से लगा लिया। अकस्मात् कमरे का द्वार धीरे से खुला और विद्या ने अन्दर कदम रखा। ज्ञानशंकर और गायत्री दोनों ने चौंक कर द्वार की ओर देखा और झिझक कर अलग खड़े हो गये। दोनों की आँखें जमीन की तरफ झुक गयीं, चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। ज्ञानशंकर तो सामने की आलमारी में से एक पुस्तक निकाल कर पढ़ने लगे किन्तु गायत्री ज्यों की त्यों अवाक् और अचल, पाषाण मूर्ति से सदृश खड़ी थी। माथे पर पसीना आ गया। जी चाहता था, धरती फट जाय और मैं उसमें समा जाऊँ। वह कोई बहाना, कोई हीला न कर सकी। आत्मग्लानि ने दुस्साहस का स्थान ही न छोड़ा था। उसे फर्श पर मोटे अक्षरों में यह शब्द लिखे हुए दीखते थे, ‘‘अब तू कहीं की न रही, तेरे मुख में कालिख पुत गयी!’’ यही विचार उसके हृदय को आन्दोलित कर रहा था, यही ध्वनि कानों में आ रही थी। वह बिलख-बिलख कर रोने लगी। अभी एक क्षण पहले उसकी आँखों से आत्माभिमान बरस रहा था, पर इस वक्त उससे दीन, उससे दलित प्राणी संसार में न था। क्षण मात्र में उसकी भक्ति के स्वच्छ जल के नीचे कीचड़ था, मेरे प्रेम के सुरम्य पर्वत शिखर के नीचे निर्मल अन्धकारमय गुफा थी। मैं स्वच्छ जल में पैर रखते ही कीचड़ में आ फँसी, शिखर पर चढ़ते ही अँधेरी गुफा में आ गिरी। हा! इस उज्जवल, कंचनमय, लहराते हुए जल ने मुझे धोखा दिया, इन मनोरम शुभ्र शिखरों ने मुझे ललचाया और अब मैं कहीं की न रही। अपनी दुर्बलता और क्षुद्रता पर उसे इतना खेद हुआ, लज्जा और तिरस्कार के भावों ने उसे इतना मर्माहत किया कि वह चीख मार कर रोने लगी। हा! विद्या मुझे अपने मन में कितना कुटिल समझ रही होगी! वह मेरा कितना आदर करती थी, कितना लिहाज करती थी, अब मैं उसकी दृष्टि में छिछोरी हूँ, कुलकलंकिनी हूँ। उसके सामने सत्य और व्रत की कैसी डींगें मारती थी, सेवा और सत्कर्म की कितनी सराहना करती थी। मैं उसके सामने साध्वी सती बनती थी, अपने पातिव्रत्य पर घमंड करती थी, पर अब उसे मुँह दिखाने के योग्य नहीं हूँ। हाय! वह मुझे अपनी सौत समझ रही होगी, मुझे आँखों की किरकिरी, अपने हृदय का काँटा ख्याल करती होगी! मैं उसकी गृह-विनाशिनी अग्नि, उसकी हाँडी में मुँह डालने वाली कुतिया हूँ! भगवान! मैं कैसी अन्धी हो गयी थी। यह मेरी छोटी बहिन है, मेरी कन्या के समान है। इस विचार ने गायत्री के हृदय को इतने जोर से मसोसा कि वह कलेजा थाम कर बैठ गयी। सहसा वह रोती हुई उठी और विद्या के पैरों पर गिर पडी।
विद्यावती इस वक्त केवल संयोग से आ गयी थी। वह ऊपर अपने कमरे में बैठी सोच रही थी कि गायत्री बहिन को क्या हो गया है? उसे क्योंकर समझाऊँ कि यह महापुरुष (ज्ञानशंकर) तुझे प्रेम और भक्ति के सब्ज बाग दिखा रहे हैं। यह सारा स्वाँग तेरी जायदाद के लिए भरा जा रहा है। न जाने क्यों धन-सम्पत्ति के पीछे इतने अन्धे हो रहे हैं कि धर्म विवेक को पैरों तले कुचले डालते हैं। हृदय का कितना काला, कितना धूर्त, कितना लोभी, कितना स्वार्थान्ध मनुष्य है कि अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए किसी की जान, किसी की आबरू की भी परवाह नहीं करता। बातें तो ऐसी करता है मानों ज्ञानचक्षु खुल गये हों। मानों ऐसा साधु-चरित्र, ऐसा विद्वान, परमार्थी पुरुष संसार में न होगा। अन्तःकरण में कूट-कूट कर पशुता, कपट और कुकर्म भरा हुआ है। बस, इसे यही धुन है कि गायत्री किसी तरह माया को गोद ले ले, उसकी लिखा-पढ़ी हो जाय और इलाके पर मेरा प्रभुत्व जम जाये, उसका सम्पूर्ण अधिकार मेरे हाथों में आ जाये। इसीलिए इसने यह ज्ञान और भक्ति का जाल फैला रखा है। भगत बन गया है, बाल बढ़ा लिए हैं, नाचता है, गाता है, कन्हैया बनता है। कितनी भयंकर धूर्त्तता है, कितना घृणित व्यवहार, कितनी आसुरी प्रवृत्ति!
वह इन्हीं विचारों में मग्न थी कि उसके कानों में गायत्री के गाने की आवाज आयी। वह वीणा पर सूरदास का एक पद गा रही थी। राग इतना सुमधुर और भावमय था, ध्वनि इतनी करुणा और आकांक्षा भरी हुई थी, स्वर में इतना लालित्य और लोच था कि विद्या का मन सुनने के लिए लोलुप हो गया, वह विवश हो गयी, स्वर-लालित्य ने उसे मुग्ध कर दिया। उसने सोचा, अनुराग और हार्दिक वेदना के बिना गाने में यह असर, यह विरक्ति असम्भव है। इसकी लगन सच्ची है, इसकी भक्ति सच्ची है। इस पर मन्त्र डाल दिया गया है। मैं इस मन्त्र को उतार दूँ, हो सके तो उसे गार में गिरने से बचा लूँ, उसे जता दूँ, जगा दूँ। निःसन्देह यह महोदय मुझ से नाराज होंगे, मुझे वैरी समझेंगे, मेरे खून के प्यासे हो जायँगे, कोई चिन्ता नहीं। इस काम में अगर मेरी जान भी जाय तो मुझे विलम्ब न करना चाहिए। जो पुरुष ऐसा खूनी, ऐसा विघातक, ऐसा रँगा हुआ सियार हो, उससे मेरा कोई नाता नहीं। उसका मुँह देखना, उसके घर में रहना, उसकी पत्नी कहलाना पाप है।
वह ऊपर से उतरी और धीरे-धीरे गायत्री के कमरे में आयी; किन्तु पहला ही पग अन्दर रखा था कि ठिठक गयी। सामने गायत्री और ज्ञानशंकर आलिंगन कर रहे थे। वह इस समय बड़ी शुभ इच्छाओं के साथ आयी थी, निर्लज्जता का यह दृश्य देख कर उसका खून खौल उठा, आँखों में चिनगारियाँ-सी उड़ने लगीं, अपमान और तिरस्कार के शब्द मुँह से निकलने के लिए जोर मारने लगे। उसने आग्नेय नेत्रों से पति को देखा। उसके शाप में यदि इतनी शक्ति होती कि वह उन्हें जला कर भस्म कर देता तो वह अवश्य शाप दे देती। उसके हाथ में यदि इतनी शक्ति होती कि वह एक ही वार में उनका काम तमाम कर दे तो अवश्य वार करती। पर उसके वश में इसके सिवाय और कुछ न था कि वह वहाँ से टल जाये। इस उद्विग्न दशा में वहाँ ठहर न सकती थी। वह उल्टे पाँव लौटना चाहती थी। खलिहान में आग लग चुकी थी, चिड़िया के गले पर छुरी चल चुकी थी, अब उसे बचाने का उद्योग करना व्यर्थ था। गायत्री से उसे एक क्षण पहले जो हमदर्दी हो गयी थी वह लुप्त हो गयी, अब वह सहानुभूति की पात्र न थी। हम सफेद कपड़ों को छींटो से बचाते हैं, लेकिन जब छींटे पड़ गये हों तो दूर फेंक देते हैं, उसे छूने से घृणा होती है। उसके विचार में गायत्री अब इसी किये का फल भोगे। मैं इस भ्रम में थी कि इस दुरात्मा ने तुझे बहका दिया, तेरा अन्तःकरण शुद्ध है, पर अब यह विश्वास जाता रहा। कृष्ण की भक्ति और प्रेम का नशा इतना गाढ़ा नहीं हो सकता कि सुकर्म और कुकर्म का विवेक न रहे। आत्मपतन की दशा में ही इतनी बेहयाई हो सकती है। हा अभागिनी! आधी अवस्था बीत जाने पर तुझे यह सूझी! जिस पति को तू देवता समझती थी, जिसकी पवित्र स्मृति की तू उपासना करती थी, जिसका नाम लेते ही आत्मा-गौरव से तेरे मुख पर लाली छा जाती थी, उसकी आत्मा को तूनें यों भ्रष्ट किया, उसकी मिट्टी यों खराब की।
किन्तु जब उसने गायत्री को सिर झुका कर चीख-चीख कर रोते देखा तो उसका हृदय नम्र हो गया, और जब गायत्री आकर पैरों पर गिर पड़ी तब स्नेह और भक्ति के आवेश से आतुर होकर वह बैठ गयी और गायत्री का सिर उठा कर अपने कन्धे पर रख लिया। दोनों बहिनें रोने लगीं, एक ग्लानि दूसरी प्रेमोद्रेक से।
अब तक ज्ञानशंकर दुविधा में खड़े थे, विद्या पर कुपित हो रहे थे, पर जबान से कुछ कहने का साहस न था। उन्हें शंका हो रही थी कि कहीं यह शिकार फन्दा तोड़ कर भाग न जाये। गायत्री के रोने-धोने पर उन्हें बड़ा क्रोध आ रहा था। जब तक गायत्री अपनी जगह पर खड़ी रोती रही, तब तक उन्हें आशा थी कि इस चोट की दवा हो सकती है; लेकिन जब गायत्री जा कर विद्या के पैरों में गिर पड़ी और दोनों बहिने गले मिलकर रोने लगीं तब वह अधीर हो गये। अब चुप रहना जीती-जितायी बाजी को हाथ से खोना, जाल में फँसे हुये शिकार को भगाना था। उन्होंने कर्कश स्वर से विद्या से कहा– तुमको बिना आज्ञा किसी के कमरे में आने का क्या अधिकार है?
विद्या कुछ न बोली। गायत्री ने उसकी गर्दन और जोर से पकड़ ली मानों डूबने से बचने का यही एकमात्र सहारा है।
ज्ञानशंकर ने और सरोष हो कर कहा– तुम्हारे यहाँ आने की कोई जरूरत नहीं और तुम्हारा कल्याण इसी में है कि तुम इसी दम यहाँ से चली जाओ नहीं तो मैं तुम्हारा हाथ पकड़ कर बाहर निकाल देने पर मजबूर हो जाऊँगा। तुम कई बार मेरे मार्ग का काँटा बन चुकी हो, ‘‘लेकिन अबकी बार मैं तुम्हें हमेशा के लिए रास्ते से हटा देना चाहता हूँ।
विद्या ने त्यौरियाँ बदल कर कहा– मैं अपनी बहिन के पास आयी हूँ, जब तक वह मुझे जाने को न कहेगी, मैं न जाऊँगी।
ज्ञानशंकर ने गरज कर कहा– चली जा, नहीं तो अच्छा न होगा।
विद्या ने निर्भीकता से उत्तर दिया– कभी नहीं, तुम्हारे कहने से नहीं!
ज्ञानशंकर क्रोध से काँपते हुए तड़िद्वेग से विद्या के पास आये और चाहा कि झपट कर उसका हाथ पकड़ लूँ कि गायत्री खड़ी हो गयी और गर्व से बोली– मेरी समझ में नहीं आता कि आप इतने क्रुद्ध क्यों हो रहे हैं? मुझसे मिलने आयी है और मैं अभी न जाने दूँगी।
गायत्री की आँखों में अब भी आँसू थे, गला अभी तक थरथरा रहा था, सिसकियाँ ले रही थी, पर यह विगत जलोद्वेग के लक्षण थे, अब सूर्य निकल आया था। वह फिर अपने आपे में आ चुकी थी, उसका स्वाभाविक अभिमान फिर जाग्रत हो गया!
ज्ञानशंकर ने कहा– गायत्री देवी, तुम अपने को बिलकुल भूली जाती हो। मुझे अत्यन्त खेद है कि बरसों की भक्ति और प्रेम की वेदी पर आत्मसमर्पण करके भी तुम ममत्व के बन्धनों में जकड़ी हुई हो। याद करो तुम कौन हो? सोचो, मैं कौन हूँ? सोचा, मेरा और तुम्हारा क्या सम्बन्ध है? क्या तुम इस पवित्र सम्बन्ध को इतना जीर्ण समझ रही हो कि उसे वायु और प्रकाश से भी बचाया जाये? वह एक आध्यात्मिक सम्बन्ध है, अटल और अचल है। कोई पार्थिक शक्ति उसे तोड़ नहीं सकती। कितने शोक की बात है कि हमारे आत्मिक ऐक्य से भली-भाँति परिचित होकर भी तुम मेरी इतनी अवहेलना कर रही हो। क्या मैं यह समझ लूँ कि तुम इतने दिनों तक केवल गुड़ियों का खेल– खेल रही थीं? अगर वास्तव में यही बात है तो तुमने मुझे कहीं का न रखा। मैं अपना तन और मन, धर्म और कर्म सब प्रेम की भेंट कर चुका हूँ। मेरा विचार था कि तुमने भी सोच-समझ कर प्रेम-पथ पर पग रखा है और उसकी कठिनाइयों को जानती हो। प्रेम का मार्ग कठिन है, दुर्गम और अपार। यहाँ बदनामी है, कलंक है। यहाँ लोकनिन्दा और अपमान है, लांछन है– व्यंग्य है। यहाँ वही धाम पर पहुँचता है जो दुनिया से मुँह मोड़े, संसार से नाता तोड़े। इस मार्ग में सांसारिक सम्बन्ध पैरों की बेड़ी है, उसे तोड़े बिना एक पग भी रखना असम्भव है। यदि तुमने परिणाम का विचार नहीं किया और केवल मनोविनोद के लिए चल खड़ी हुई तो तुमने मेरे साथ घोर अन्याय किया। इसका अपराध तुम्हारी गर्दन पर होगा।
यद्यपि ज्ञानशंकर मनोभावों को गुप्त रखने में सिद्धहस्त थे, पर इस समय उनका खिसियाया हुआ चेहरा उनकी इस सारगर्भित प्रेमव्याख्या का पर्दा खोल देता था। मुलम्मे की अँगूठी ताव खा चुकी थी।
इससे पहले ज्ञानशंकर के मुँह से ये बातें सुनकर कदाचित् गायत्री रोने लगती और ज्ञानशंकर के पैरों पर गिर क्षमा माँगती, नहीं, बल्कि ज्ञानशंकर की अभक्ति पर ये शब्द स्वयं उसके मुँह से निकलते। लेकिन वह नशा हिरन हो चुका था। उसने ज्ञानशंकर के मुँह की तरफ उड़ती हुई निगाह से देखा। वहाँ भक्ति का रोगन न था। नट के लम्बे केश और भड़कीले वस्त्र उतर चुके थे। वह मुखश्री जिसपर दर्शकगण लट्टू हो जाते थे और जिसका रंगमंच पर करतल-ध्वनि से स्वागत किया जाता था क्षीण हो गयी थी। जिस प्रकार कोई सीधा-सादा देहाती एक बार ताशवालों के दल में आकर फिर उसके पास खड़ा भी नहीं होता कि कहीं उनके बहकावे में न आ जाये, उसी प्रकार गायत्री भी यहाँ से दूर भागना चाहती थी। उसने ज्ञानशंकर को कुछ उत्तर न दिया और विद्या का हाथ पकड़े हुए द्वार की ओर चली। ज्ञानशंकर को ज्ञात हो गया कि मेरा मंत्र न चला। उन्हें क्रोध आया, मगर गायत्री पर नहीं, अपनी विफलता और दुर्भाग्य पर। शोक! मेरी सात वर्षों की अविश्रान्त तपस्याएँ निष्फल हुई जाती हैं। जीवन की आशाएँ सामने आकर रूठी जाती हैं– क्या करूँ। उन्हें क्योंकर मनाऊँ? मैंने अपनी आत्मा पर कितना अत्याचार किया, कैसे-कैसे षड्यंत्र रचे? इसी एक अभिलाषा पर अपना दीन-ईमान न्योछावर कर दिया। वह सब कुछ किया जो न करना चाहिए था। नाचना सीखा, नकल की, स्वाँग भरे, पर सारे प्रयत्न निष्फल हो गये। राय साहब ने सच कहा था कि सम्पति तेरे भाग्य में नहीं है। मेरा मनोरथ कभी पूरा न होगा। यह अभिलाषा चिता पर मेरे साथ जलेगी। गायत्री की निष्ठुरता भी कुछ कम हृदयविदारक न थी। ज्ञानशंकर को गायत्री से सच्चा प्रेम न सही, पर वह उसके रूप-लावण्य पर मुग्ध थे। उसकी प्रतिभा, उदारता स्नेहशीलता, बुद्धिमत्ता, सरलता उन्हें अपनी ओर खींचती थी। अगर एक ओर गायत्री होती और दूसरी ओर उसकी जायदाद और ज्ञानशंकर से कहा जाता तुम इन दोनों में से जो चाहे ले लो तो अवश्यम्भावी था कि वह उसकी जायदाद पर ही लपकते लेकिन उसकी जात से अलग हो कर उसकी जायदाद लवण-हीन भोजन के समान थी। वही गायत्री उनसे मुँह फेर कर चली जाती थी।
इन क्षोभयुक्त विचारों ने ज्ञानशंकर के हृदय को मसोमा कि उनकी आँखें भर आयीं। वह कुर्सी पर बैठ गये और दीवार की तरफ मुँह फेर कर रोने लगे। अपनी विवशता पर उन्हें इतना दुःख कभी न हुआ था। वे अपनी याद में इतने शोकातुर कभी न हुई थे। अपनी स्वार्थपरता अपनी इच्छा-लिप्सा अपनी क्षुद्रता पर इतनी ग्लानि कभी न हुई थी। जिस तरह बीमारी में मनुष्य को ईश्वर याद आता है उसी तरह अकृतकार्य होने पर उसे अपने दुस्साध्यों पर पश्चात्ताप होता है। पराजय का आध्यात्मिक महत्त्व विजय से कहीं अधिक होता है।
गायत्री ने ज्ञानशंकर को रोते देखा तो द्वार पर जा कर ठिठक गयी। उसके पग बाहर न पड़ सके। स्त्रियों के आँसू पानी हैं, वे धैर्य और मनोबल के ह्रास के सूचक हैं। गायत्री को अपनी निठुरता और अश्रद्धा पर खेद हुआ। आत्मरक्षा की अग्नि जो एक क्षण पहले प्रदीप्त हुई थी इन आँसुओं से बुझ गयी। वे भावनाएँ सजीव हो गयीं जो सात बरसों से मन को लालायित कर रही थीं, वे सुखद वार्तायें वे मनोहर क्रीड़ाएँ, वे आनन्दमय कीर्तन, वे प्रीति की बातें, वे वियोग-कल्पनाएँ नेत्रों के सामने फिरने लगीं। लज्जा और ग्लानि के बादल फट गये, प्रेम का चाँद चमकने लगा। वह ज्ञानशंकर के पास आकर खड़ी हो गयी और रूमाल से उनके आँसू पोंछने लगी। प्रेमानुराग से विह्नल हो कर उसने उनका मस्तक अपनी गोद में रख लिया। उन अश्रुप्लावित नेत्रों में उसे प्रेम का अथाह सागर लहरें मारता हुआ नजर आया। यह मुख-कमल प्रेम-सूर्य की किरणों से विकसित हो रहा था। उसने उनकी तरफ सतृष्ण नेत्रों से देखा, उनमें क्षमा प्रार्थना भरी हुई थी मानो वह कह रही थी, हा! मैं कितनी दुर्बल, कितनी श्रद्धाहीन हूँ। कितनी जड़भक्त हँ कि रूप और गुण का निरूपण न कर सकी। मेरी अभक्ति ने इनके विशुद्ध और कोमल हृदय को व्यथित किया होगा। तुमने मुझे धरती से उठाकर आकाश पर पहुँचाया, तुमने मेरे हृदय में शक्ति का अंकुर जमाया, तुम्हारे ही सदुपदेशों से मुझे सत्प्रेम का स्वर्गीय आनन्द प्राप्त हुआ। एकाएक मेरी आँखों पर पर्दा कैसे पड़ गया? मैं इतनी अन्धी कैसे हो गयी? निस्सन्देह कृष्ण भगवान् मेरी परीक्षा ले रहे थे और मैं उसमें अनुत्तीर्ण हो गयी। उन्होंने मुझे प्रेम-कसौटी पर कसा और मैं खोटी निकली। शोक! मेरी सात वर्षों की तपस्या एक क्षण में भंग हो गयी। मैंने उस पुरुष पर सन्देह किया जिसके हृदय में कृष्ण का निवास है, जिसके कंठ में मुरली की ध्वनि है। राधा! तुमने क्यों मेरे दिल पर से अपना जादू खींच लिया? मेरे हृदय में आकर बैठो और मुझे धर्म का अमृत पिलाओ।
यह सोचते-सोचते गायत्री की आँखें अनुरक्त हो गयीं। वह कम्पित स्वर से बोली– भगवन! तुम्हारी चेरी तुम्हारे सामने हाथ बाँधे खड़ी अपने अपराधों की क्षमा माँगती है।
ज्ञानशंकर ने उसे चुभती हुई दृष्टि से देखा और समझ गये कि मेरे आँसू काम कर गये। इस तरह चौंक पड़े मानों नींद से जगे हो और बोले– राधा?
गायत्री– मुझे क्षमा दान दीजिए।
ज्ञान– तुम मुझसे क्षमा दान माँगती हो? यह तुम्हारा अन्याय है! तुम प्रेम की देवी हो, वात्सल्य की मूर्ति, निर्दोष, निष्कलंक। यह मेरा दुर्भाग्य है कि तुम इतनी अस्थिर चित्त हो! प्रेमियों के जीवन में सुख कहाँ? तुम्हारी अस्थिरता ने मुझे संज्ञाहीन कर दिया है। मुझे अब भी भ्रम हो रहा कि गायत्री देवी से बातें कर रहा हूँ या राधा रानी से। मैं अपने आपको भूल गया हूँ। मेरे हृदय को ऐसा आघात पहुँचा है कि कह नहीं सकता यह घाव कभी भरेगा या नहीं? जिस प्रेम और भक्ति को मैं अटल समझता था, वह बालू की भीत से भी ज्यादा पोली निकली। उस पर मैंने जो आशालता आरोपित की थी, जो बाग लगाया था वह सब जलमग्न हो गया। आह! मैं कैसे-कैसे मनोहर स्वप्न देख रहा था? सोचा था, यह प्रेम वाटिका कभी फूलों से लहरायेगी, हम और तुम सांसारिक मायाजाल को हटा कर वृन्दावन के किसी शान्तिकुंज में बैठे हुए भक्ति का आनन्द उठायेंगे। अपनी प्रेम-ध्वनि से वृक्ष कुंजों को गुंजित कर देंगे। हमारे प्रेम-गान से कालिन्दी की लहरें प्रतिध्वनित हो जायेंगी। मैं कृष्ण का चाकर बनूँगा, तुम उनके लिए पकवान बनाओगी। संसार से अलग, जीवन के अपवादों से दूर हम अपनी प्रेम-कुटी बनायेंगे और राधाकृष्ण की अटल भक्ति में जीवन के बचे हुए दिन काट देंगे अथवा अपने ही कृष्ण मन्दिर में राधाकृष्ण के चरणों से लगे हुए इस असार संसार से प्रस्थान कर जायेंगे। इसी सदुद्देश्य से मैंने आपकी रियासत की और यहाँ की पूरी व्यवस्था की। पर अब ऐसा प्रतीत हो रहा है कि वह सब शुभ कामनायें दिल में ही रहेंगी और मैं शीघ्र ही संसार से हताश और भग्न-हृदय विदा हूँगा।
गायत्री प्रेमोन्मत हो कर बोली– भगवान् ऐसी बातें मुँह से न निकालो। मैं दीन अबला हूँ, अज्ञान के अन्धकार में डूबी हुई मिथ्या भ्रम में पड़ जाती हूँ, पर मैंने तुम्हारा दामन पकड़ा है, तुम्हारी शरणागत हूँ, तुम्हें मेरी क्षुद्रताएँ, मेरी दुर्बलताएँ सभी क्षमा करनी पड़ेंगी। मेरी भी यह अभिलाषा है कि तुम्हारे चरणों से लगी रहूँ। मैं भी संसार से मुँह मोड़ लूँगी, सबसे नाता तोड़ लूँगी और तुम्हारे साथ बरसाने और वृन्दावन की गलियों में विचरूँगी। मुझे अगर कोई सांसारिक चिन्ता है तो वह यह है कि मेरे पीछे मेरे इलाके का प्रबन्ध सुयोग्य हाथों में रहे, मेरी प्रजा पर अत्याचार न हो और रियासत की आमदनी परमार्थ में लगे। मेरा और तुम्हारा निर्वाह दस-बारह हजार रुपयों में हो जायेगा। मुझे और कुछ न चाहिए। हाँ, यह लालसा अवश्य है कि मेरी स्मृति बनी रहे, मेरा नाम अमर हो जाये, लोग मेरे यश और कीर्ति की चर्चा करते रहें। यही चिन्ता है जो अब तक मेरे पैरों की बेड़ी बनी हुई है। आप इस बेड़ी को काटिए। यह भार मैं आपके ही ऊपर रखती हूँ। ज्यों ही आप इन दोनों बातों की व्यवस्था कर देंगे मैं निश्चिन्त हो जाऊँगी और फिर यावज्जीवन हम में वियोग न होगा। मेरी तो यह राय है कि एक ‘ट्रस्ट’ कायम कर दीजिए। मेरे पतिदेव की भी यह इच्छा थी।
ज्ञानशंकर– ट्रस्ट कायम करना तो आसान है, पर मुझे आशा नहीं है कि उससे आपका उद्देश्य पूरा हो। मैं पहले भी दो-एक बार ट्रस्ट के विषय में अपने विचार प्रकट कर चुका हूँ। आप अपने विचार में कितनी ही निःस्पृह सत्यवादी ट्रस्टियों को नियुक्त करें, लेकिन अवसर पाते ही वे अपने घर भरने पर उद्यत हो जायेंगे। मानव स्वभाव बड़ा ही विचित्र है। आप किसी के विषय में विश्वस्त रीति से नहीं कह सकतीं कि उसकी नीयत कभी डाँवाडोल न होगी, वह सन्मार्ग से कभी विचलित न होगा। हम तो वृन्दावन में बैठे रहेंगे, यहाँ प्रजा पर नाना प्रकार के अत्याचार होंगे। कौन उनकी फरियाद सुनेगा? सदाव्रत की रकम नाच-मुजरे में उड़ेगी, रासलीला की रकम गार्डन-पार्टियों में खर्च होगी, मन्दिर की सजावट के सामान ट्रस्टियों के दीवानखाने में नजर आयेंगे, साधु-महात्माओं के सत्कार के बदले यारों की दावतें होंगी, आपको यश की जगह अपयश मिलेगा। यों तो कहिए आपकी आज्ञा का पालन कर दूँ लेकिन ट्रस्टियों पर मेरा जरा भी विश्वास नहीं है। आपका उद्देश्य उसी दशा में पूरा होगा जब रियासत किसी ऐसे व्यक्ति के हाथों में हो जो आपको अपना पूज्य समझता हो, जिसे आपसे श्रद्धा हो, जो आपका उपकार माने, जो दिल से आपकी शुभेच्छाओं का आदर करता हो, जो स्वयं आपके ही रंग मे रंगा हुआ हो, जिसके हृदय में दया और प्रेम हो, और यह सब गुण उसी मनुष्य में हो सकते हैं जिसे आपसे पुत्रवत् प्रेम हो, जो आपको अपनी माता समझता हो। अगर आपको ऐसा कोई लड़का नजर आये तो मैं सलाह दूँगा उसे गोद ले लीजिए। उससे उत्तम मुझे और कोई व्यवस्था नहीं सूझती। संभव है कुछ दिनों तक हमको उसकी देख-रेख करनी पड़े, किन्तु इसके बाद हम स्वच्छन्द हो जायेंगे। तब हमारे आनन्द और विहार के दिन होंगे। मैं अपनी प्यारी राधा के गले में प्रेम का हार डालूँगा, उसे प्रेम के राग सुनाऊँगा, दुनिया की कोई चिन्ता, कोई उलझन, कोई झोंका हमारी शान्ति में विघ्न न डाल सकेगा।
गायत्री पुलकित हो गयी। उस आनन्दमय जीवन का दृश्य उसकी कल्पना में सचित्र हो गया। उसकी तबियत लहराने लगी। इस समय उसे अपने पति की वह वसीयत याद न रही जो उन्होंने जायदाद का प्रबन्ध के विषय में की थी और जिसका विरोध करने के लिए वह ज्ञानशंकर से कई बार गर्म हो पड़ी थी। वह ट्रस्ट के गुण-दोष पर स्वयं कुछ विचार न कर सकी। ज्ञानशंकर का कथन निश्चयवाचक था। ट्रस्ट पर से उसका विश्वास उठ गया। बोली– आपका कहना यथार्थ है। ट्रस्टियों का क्या विश्वास है। आदमी किसी के मन में तो बैठ नहीं सकता, अन्दर का हाल कौन जाने?
वह दो-तीन मिनट तक विचार में मग्न रही। सोच रही थी कि ऐसा कौन लड़का है जिसे मैं गोद ले सकूँ। मन ही मन अपने सम्बन्धियों और कुटुम्बियों का दिग्दर्शन किया, लेकिन यह समस्या हल न हुई। लड़के थे, एक नहीं अनेक, लेकिन किसी न किसी कारण से वह गायत्री को न जँचते थे। सोचते-सोचते सहसा वह चौंक पड़ी और मायाशंकर का नाम उसकी जबान पर आते-आते रह गया। ज्ञानशंकर ने अब तक अपनी मनोवांछा को ऐसा गुप्त रखा था और अपने आत्मसम्मान की ऐसी धाक जमा रखी थी कि पहले तो मायाशंकर की ओर गायत्री का ध्यान ही न गया और जब गया तो उसे अपना विचार प्रकट करते हुए भय होता था कि कहीं ज्ञानशंकर के मर्यादाशील हृदय को चोट न लगे। हालाँकि ज्ञानशंकर का इशारा साफ था, पर गायत्री पर इस समय वह नशा था जो शराब और पानी में भेद नहीं कर सकता। उसने कई बार हिम्मत की कि जिक्र छेड़ूँ किन्तु ज्ञानशंकर के चेहरे से ऐसा निष्काम भाव झलक रहा था कि उसकी जबान न खुल सकी। मायाशंकर की विचारशीलता, सच्चरित्रता, बुद्धिमत्ता आदि अनेक गुण उसे याद आने लगे। उससे अच्छे उत्तराधिकारी की वह कल्पना भी न कर सकती थी। ज्ञानशंकर उसको असमंजस में देख कर बोले– आया कोई लड़का ध्यान में?
गायत्री सकुचाती हुई बोली– जी हाँ, आया तो, पर मालूम नहीं आप भी उसे पसंद करेंगे या नहीं? मैं इससे अच्छा चुनाव नहीं कर सकती।
ज्ञानशंकर– सुनूँ कौन है?
गायत्री– वचन दीजिए कि आप उसे स्वीकार करेंगे।
ज्ञानशंकर के हृदय में गुदगुदी होने लगी। बोले– बिना जाने-बूझे मैं यह वचन कैसे दे सकता हूँ?
गायत्री– मैं जानती हूँ कि आपको उसमें आपत्ति होगी और विद्या तो किसी प्रकार राजी ही न होगी, लेकिन इस बालक के सिवा मेरी नजर और किसी पर पड़ती नहीं।
ज्ञानशंकर अपने मनोल्लास को छिपाए हुए बोले– सुनूँ तो किसका भाग्य सूर्य उदय हुआ है।
गायत्री– बता दूँ? बुरा तो न मानिएगा न?
ज्ञान– जरा भी नहीं, कहिये।
गायत्री– मायाशंकर।
ज्ञानशंकर इस तरह चौंक पड़े मानों कानों के पास कोई बन्दूक छूट गयी हो। विस्मित नेत्रों से देखा और इस भाव से बोले मानों उसने दिल्लगी की है– मायाशंकर!
गायत्री– हाँ, आप वचन दे चुके हैं, मानना पड़ेगा।
ज्ञानशंकर– मैंने कहा था कि नाम सुन कर राय दूँगा। अब नाम सुन लिया और विवशता से कहता हूँ मैं आप से सहमत नहीं हो सकता।
गायत्री– मैं यह बात पहले से ही जानती थी, पर मुझमें और आप में जो सम्बन्ध है उसे देखते हुए आपको आपत्ति न होती चाहिए।
ज्ञानशंकर– मुझे स्वयं कोई आपत्ति नहीं है। मैं अपना सर्वस्व आप पर समर्पण कर चुका हूँ, लड़का भी आप की भेंट है, लेकिन आपको मेरी कुल-मर्यादा का हाल मालूम है। काशी में सम्मानित और कोई घराना नहीं है। सब तरह से पतन होने पर भी उसका गौरव अभी तक बचा हुआ है। मेरे चाचा और सम्बन्धी इसे कभी मंजूर न करेंगे और विद्या तो सुनकर विष खाने को उतारू हो जायेगी। इसके अतिरिक्त मेरी बदनामी भी है। सम्भव है लोग यह समझेंगे कि मैंने आपकी सरलता और उदारता से अनुचित लाभ उठाया है और और आपके कुटुम्ब के लोग तो मेरी जान के गाहक ही हो जायेंगे।
गायत्री– मेरे कुटुम्बियों की ओर से तो आप निश्चिन्त रहिए, मैं उन्हें आपस में लड़ा कर मारूँगी। बदनामी और लोक-निन्दा आपको मेरी खातिर से सहनी पड़ेगी। रही विद्या, उसे मैं मना लूँगी।
ज्ञान– नहीं, यह आशा न रखिए। आप उसे मनाना जितना सुगम समझ रही हैं उससे कहीं कठिन है। आपने उसके तेवर नहीं देखे। वह इस समय सौतिया डाह से जल रही है। उसे अमृत भी दीजिए तो विष समझेगी। जब तक लिखा-पढ़ी न हो जाये और प्रथानुसार सब संस्कार पूरे न हो जायें उसके कानों में इसकी भनक भी न पड़नी चाहिए। यह तो सच होगा मगर उन लोगों की हाय किस पर पड़ेगी जो बरसों से रियासत पर दाँत लगाये बैठे है? उनके घरों में तो कुहराम मच जायगा। सब के सब मेरे खून के प्यासे हो जायेंगे। यद्यपि मुझे उनसे कोई भय नहीं है, लेकिन शत्रु को कभी तुच्छ न समझना चाहिए। हम जिससे धन और धरती लें उससे कभी निःशंक नहीं रह सकते।
गायत्री– आप इन दुष्टों का ध्यान ही न कीजिए। ये कुत्ते हैं, एक छीछड़े पर लड़ मरेंगे।
ज्ञानशंकर कुछ देर तक मौन रूप से जमीन की ओर ताकते रहे, जैसे कोई महान् त्याग कर रहे हों। फिर सजल नेत्रों से बोले, जैसी आपकी मरजी, आपकी आज्ञा सिर पर है। परमात्मा से प्रार्थना है कि यह लड़का आपको मुबारक हो और उससे आपकी जो आशाएँ हैं, वह पूरी हों। ईश्वर उसे सद्बुद्धि प्रदान करे कि वह आपके आदर्श को चरितार्थ करे। वह आज से मेरा लड़का नहीं, आपका है। यद्यपि अपने एक मात्र पुत्र को छाती से अलग करते हुए दिल पर जो कुछ बीत रही है वह मैं ही जानता हूँ, लेकिन वृन्दावनबिहारी ने आपके अन्तःकरण में यह बात डाल कर मानो हमारे लिए भक्ति-पथ का द्वार खोल दिया है। वह हमें अपने चरणों की ओर बुला रहे हैं। हमारा परम सौभाग्य है।
गायत्री ने ज्ञानशंकर का हाथ पकड़ कर कहा– कल ही किसी पंडित से शुभ मुहूर्त पूछ लीजिए।
49
रात के आठ बजे थे। ज्ञानशंकर के दीवानखाने में शहर के कई प्रतिष्ठित सज्जन जमा थे। बीच में एक लोहे का हवनकुण्ड रखा हुआ था, उसमें हवन हो रहा था। हवनकुण्ड के एक तरफ गायत्री बैठी थी, दूसरी तरफ ज्ञानशंकर और माया। एक पंडित जी वेद-मन्त्रों का पाठ कर रहे थे। गायत्री का चम्पई वर्ण अग्नि-ज्वाला से प्रतिबिम्बित हो कर कुन्दन हो रहा था। फिरोजी रंग की साड़ी उस पर खूब खिल रही थी। सबकी आँखें उसी के मुख-दीपक की ओर लगी हुई थीं। यह माया को गोद लेने का संस्कार था, वह गायत्री का धर्मपुत्र बन रहा था। कुछ सज्जन आपस में कानाफूसी कर रहे थे, कैसा भग्यावान लड़का है! लाखों की सम्पत्ति का स्वामी बनाया जाता है, यहाँ आज तक एक पैसा भी पड़ा हुआ न मिला। कुछ लोग कह रहे थे– ज्ञानशंकर एक ही बना हुआ आदमी है, ऐसा हत्थे पर चढ़ाया कि जायदाद ले कर ही छोड़ा। अब मालूम हुआ कि महाशय ने स्वाँग किसलिए रचा है। ये जटाएँ इसी दिन के लिए बढ़ायी थीं। कुछ सज्जनों का मत था कि ज्ञानशंकर इससे भी कहीं मलिन हृदय है।
लाला प्रभाशंकर ने पहले यह प्रस्ताव सुना तो बहुत बिगड़े लेकिन जब गायत्री ने बड़ी नम्रता से सारी परिस्थिति प्रकट की तो वह भी नीमराजी से हो गये। हवन के पश्चात दावत शुरू हुई। इसका सारा प्रबन्ध उन्हीं के हाथों में था। उनकी अर्धस्वीकृति को पूर्ण बनाने का इससे उत्तम कोई अन्य उपाय न था। उन्हें पूरा अधिकार दे दिया गया था कि वह जितना चाहे खर्च करें, जो पदार्थ चाहे पकवायें। अतएव इस अवसर पर उन्होंने अपनी सम्पूर्ण पाककला प्रदर्शित कर दी थी। इस समय खुशी से उनकी बाँछे खिली जाती थीं, लोगों के मुँह से भोजन सराहना सुन-सुन कर फूले न समाते थे। इनमें कितने ही ऐसे सज्जन थे जिन्हें भोजन से नितान्त अरुचि रहती थी। जो दावतों में शरीक होना अपने ऊपर अन्याय समझते थे। ऐसे लोग भी थे जो प्रत्येक वस्तु को गिन कर तौल कर खाते थे। पर इन स्वादयुक्त पदार्थों ने तीव्र और मन्द अग्नि में कोई भेद न रखा था। रुचि ने दुर्बल पाचनशक्ति को भी सबल बना दिया था।
दावत समाप्त हो गयी तो गाना शुरू हुआ। अलहदीन एक सात वर्ष का बालक था, लेकिन गानशास्त्र का पूरा पंडित और संगीत कला में अत्यन्त निपुण। यह उसकी ईश्वरदत्त शक्ति थी। जलतरंग, ताऊस, सितार, सरोद, वीणा, पखावज, सारंगी-सभी यन्त्रों पर उसका विलक्षण आधिपत्य था। इतनी अल्पावस्था में उसकी यह अलौकिक सिद्धि देख कर लोग विस्मित हो जाते थे। जिन गायनाचार्यों ने एक-एक यन्त्र की सिद्धि में अपना जीवन बिता दिया वह भी उसके हाथों की सफाई और कोमलता पर सिर धुनते थे। उसकी बहुज्ञता, उनकी विशेषता को लज्जति किये देती थी। इस समय समस्त भारत में उसकी ख्याति थी, मानों उसने दिग्विजय कर लिया हो। ज्ञानशंकर ने उस उत्सव पर उसे कलकत्ते से बुलाया था। वह बहुत दुर्बल, कुत्सित, कुरुप बालक था, पर उसका गुण उसके रूप को भी चमत्कृत कर देता था। उसके स्वर में कोयल की कूक का सा माधुर्य था। सारी सभा मुग्ध हो गयी।
इधर तो यह राग-रंग था, उधर विद्या अपने कमरे में बैठी हुई भाग्य को रो रही थी। तबले की एक-एक थाप उसके हृदय पर हथौड़े की चोट के समान लगती थी। वह एक गर्वशाली धर्मनिष्ठा संतोष और त्याग के आदर्श का पालन करने वाली महिला थी। यद्यपि पति की स्वार्थभक्ति से उसे घृणा थी, पर इस भाव को वह अपनी पति-सेवा में बाधक न होने देती थी। पर जब से उसने राय साहब के मुँह से ज्ञानशंकर के नैतिक अधःपतन का वृत्तांत सुना था तब से उसकी पति-श्रद्धा क्षीण हो गयी थी! रात का लज्जास्पद दृश्य देखकर बची-खुची श्रद्धा भी जाती रही। जब ज्ञानशंकर के देखकर गायत्री दीवानखाने के द्वार पर आकर फिर उनके पास चली गयी तो विद्या वहाँ न ठहर सकी। वह उन्माद की दशा में तेजी से ऊपर आयी और अपने कमरे में फर्श पर गिर पड़ी। यह ईर्ष्या का भाव न था जिसमें अहित चिन्ता होती है, यह प्रीति का भाव न था जिसमें रक्त की तृष्णा होती है। यह अपने आपको जलानेवाली आग थी, यह वह विघातक क्रोध था जो अपना ही होठ चबाता है, अपना ही चमड़ा नोचता है, अपने ही अंगों को दाँतों से काटता है। वह भूमि पर पड़ी सारी रात रोती रही। अब मैं किसकी होकर रहूँ? मेरा पति नहीं, मेरा घर अब मेरा घर नहीं। मैं अब अनाथ हूँ, कोई मेरा पूछनेवाला नहीं। ईश्वर! तुमने किस पाप का मुझे दंड दिया? मैंने तो अपने जानते किसी का बुरा नहीं चेता। तुमने मेरा सर्वनाश क्यों किया? मेरा सुहाग क्यों लूट लिया? यही मेरे पास एक धन था, इसी का मुझे अभिमान था, इसी का मुझे बल था। तुमने मेरा अभिमान तोड़ दिया, मेरा बल हर लिया। जब आग ही नहीं तो राख किस काम की। यह सुहाग की पिटारी है, यह सुहाग की डिबिया है, इन्हें ले कर क्या करूँ? विद्या ने सुहाग की पिटारी ताक पर से उतार ली और उसी आत्मवेदना और नैराश्य की दशा में उनकी एक-एक चीज खिड़की से नीचे बाग में फेंक दी। कितना करुणाजनक दृश्य था? आँखों से अश्रु-धारा बह रही थी और वह अपनी चूडियाँ तोड़-तोड़ कर जमीन पर फेंक रही थी। वह उसके निर्बल क्रोध की चरम सीमा थी! वह एक ऐश्वर्यशाली पिता की पुत्री थी, यहाँ उसे इतना आराम भी न था जो उसके मैके की महरियों को था, लेकिन उसके स्वभाव में संतोष और धैर्य था, अपनी दशा से संतुष्ट थी। ज्ञानशंकर स्वार्थ-सेवी थे, लोभी थे, निष्ठुर थे, कर्त्तव्यहीन थे, इसका उसे शोक था। मगर अपने थे, उसको समझाने का, उनका तिरष्कार करने का उसे अधिकार था। उनकी दुष्टता, नीचता और भोग-विप्सा का हाल सुन कर उसके शरीर में आग-सी लग गयी थी। वह लखनऊ से दामिनी बनी हुई आयी। वह ज्ञानशंकर पर तड़पना और उनकी कुवृत्तियों को भस्सीभूत कर देना चाहती थी, वह उन्हें व्यंग्य-शेरों से छेदना और कटु शब्दों से उनके हृदय को बेधना चाहती थी। इस वक्त तक उसे अपने सोहाग का अभिमान था। रात के आठ बजे तक वह ज्ञानशंकर को अपना समझती थी, अपने को उन्हें कोसने की, उन्हें जलाने की अधिकारिणी समझती थी, उसे उनको लज्जित, अपमानित करने का हक था, क्योंकि वह अपने थे। हमसे अपने घर में आग लगते नहीं देखा जाता। घर चाहे मिट्टी का ढेर ही क्यों न हो, खण्डहर ही क्यों न हो, हम उसे आग में जलते नहीं देख सकते। लेकिन जब किसी कारण से वह घर अपना न रहे तो फिर चाहे अग्नि-शिखा आकाश तक जाये, हमको शोक नहीं होता। रात के निन्द्य घृणित दृश्य ने विद्या के दिल से इस अपनेपन को, इस ममत्व को मिटा दिया था। अब उसे दुःख था तो अपने अभाग्य का, शोक था तो अपनी अवलम्बहीनता का। उसकी दशा उस पतंग सी थी, जिसकी डोर टूट गयी हो, अथवा उस वृक्ष सी जिसकी जड़ कट गयी हो।
विद्या सारी रात इसी उद्वग्नि दशा में पड़ी रही। कभी सोचती लखनऊ चली जाऊँ और वहाँ जीवनक्षेप करूँ, कभी सोचती जीकर करना ही क्या है, ऐसे जीने से मरना क्या बुरा है? सारी रात आँखों में कट गई। दिन निकल आया, लेकिन उसका उठने का जी न चाहता था। इतने में श्रद्धा आकर खड़ी हो गई और उसके श्रीहीन मुख की ओर देखकर बोली– आज सारी रात जागती रही? आँखें लाल हो रही हैं।
विद्या ने आँखें नीची करके कहाँ– हाँ, आज नींद नहीं आई।
श्रद्धा– गायत्री देवी से कुछ बातचीत नहीं हुई। मुझे तो ढंग ही निराले दीखते हैं। तुम तो इनकी बड़ी प्रशंसा किया करती थीं।
विद्या– क्यों, कोई नयी बात देखी क्या?
श्रद्धा– नित्य ही देखती हूँ। लेकिन रात जो दृश्य देखा और जो बातें सुनी वह कहते लज्जा आती है। कोई ग्यारह बजे होंगे। मुझे अपने कमरे में पड़े-पड़े नीचे किसी के बोल-चाल की आहट मिली। डरी कि कहीं चोर न आये हों। धीरे से उठकर नीचे गयी। दीवानखाने में लैम्प जल रहा था। मैंने शीशे से झांका तो मन में कटकर रह गयी। अब तुमसे क्या कहूँ, मैं गायत्री को इतना चंचल न समझती थी। कहाँ तो कृष्णा की उपासना करती है, कहाँ छिछोरापन। मैं तो उन्हें देखते ही मन में खटक गई थी, पर यह न जानती थी कि इतने गहरे पानी में है।
विद्या– मैंने भी तो कुछ ऐसा तमाशा देखा था। तुम मेरे आने के बहुत देर पीछे गई थी। मुझे लखनऊ में ही सारी कथा मालूम हो गयी थी। इसी भयंकर परिणाम को रोकने के लिए मैं वहाँ से दौड़ी आई, किन्तु यहाँ का रंग देखकर हताश हो गई। ये लोग अब मँझधार में पहुँच चुके हैं, इन्हें बचाना दुस्तर है। लेकिन मैं फिर कहूँगी कि इसमें गायत्री बहिन का दोष नहीं, सारी करतूत इन्हीं महाशय की है जो जटा बढ़ाए पीताम्बर पहने भगत जी बने फिरते हैं। गायत्री बेचारी सीधी-सादी, सरल स्वभाव की स्त्री है। धर्म की ओर उसकी विशेष रुचि है, इसीलिए यह महाशय भी भगत बन बैठे और यह भेष धारण करके उस पर अपना मन्त्र चलाया। ऐसा पापात्मा संसार में न होगा। बहिन, तुमसे दिल की बात कहती हूँ, मुझे इनकी सूरत से घृणा हो गयी। मुझ पर ऐसा आघात हुआ है कि मेरा बचना मुश्किल है। इस घोर पाप का दण्ड अवश्य मिलेगा। ईश्वर न करे मुझे इन आँखों से कुल का सर्वनाश देखना पड़े। वह सोने की घड़ी होगी जब संसार से मेरा नाता टूटेगा।
श्रद्धा– किसी की बुराई करना तो अच्छा नहीं है और इसीलिए मैं अब तक सब कुछ देखती हुई भी अन्धी बनी रही, लेकिन अब बिना बोले नहीं रहा जाता। मेरा वश चले तो ऐसी कुटिलाओं का सिर कटवा लूँ। यह भोलापन नहीं है, बेहयाई है। दिखाने के लिए भोली बनी बैठी हुई हैं। पुरुष हजार रसिया हो हजार चतुर हो, हजार घातिया हो, हजार डोरे डाले, किन्तु सती स्त्रियों पर उसका मन्त्र भी नहीं चल सकता। वह आँख ही क्या जो एक निगाह में पुरुष की चाल-ढाल को ताड़ न ले। जलाना आग का गुण है, पर हरी लकड़ी को भी किसी ने जलते देखा है? हया स्त्रियों की जान है, इसके बिना वह सूखी लकड़ी है जिन्हें आग की एक चिनगारी जलाकर राख कर देती है। इसे अपने पति देव की आत्मा पर भी दया न आयी। उसे कितना क्लेश हो रहा होगा? इसके आने से मेरा घर अपवित्र हो गया। रात को दोनों प्रेमियों की बातों की भनक जो मेरे कान में पड़ी, उससे ऐसा कुछ मालूम होता है कि गायत्री माया को गोद लेना चाहती है।
विद्या ने भयभीत होकर कहा– माया को?
श्रद्धा– हाँ, शायद आज ही उसकी तैयारी है! शहर में नेवता भेजे जा रहे हैं।
विद्या की आँखों में आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें दिखाई दीं जैसे मटर की फली में दाने होते हैं। बोली– बहिन तब तो मेरी नाव डूब गयी। जो कुछ होना था हो चुका। अब सारी स्थिति समझ में आ गई। इस धू्र्त ने इसीलिए यह जाल फैलाया था, इसीलिए इसने यह भेष रचा है, इसी नीयत से इसने गायत्री की गुलामी की थी। मैं पहले ही डरती थी। कितना समझाया, कितना मना किया, पर इसने मेरी एक न सुनी। अब मालूम हुआ कि इसके मन में क्या ठनी थी। आज सात साल से यह इसी धुन में पड़ा हुआ है। अभी तक मैं यह समझती थी कि इसे गायत्री के रंग-रूप, बनाव-चुनाव, बातचीत ने मोहित कर लिया है। वह निन्द्य कर्म होने पर भी घृणा के योग्य नहीं है। जो प्राणी प्रेम कर सकता है वह धर्म, दया विनय आदि सद्गुणों से शून्य नहीं हो सकता, प्रेम का स्वाँग भर कर उससे अपना कुटिल अर्थ सिद्ध करता है, जो टट्टी की आड़ से शिकार खेलता है, उससे ज्यादा नीच, नराधम कोई हो ही नहीं सकता। वह उस डाकू से भी गया बीता है जो धन के लिए लोगों के प्राण हर लेता है। वह प्रेम जैसी पवित्र वस्तु का अपमान करता है। उसका पाप अक्षम्य है। मैं बेचारी गायत्री को अब भी निर्दोष समझती हूँ। बहिन, अब इस कुल का सर्वनाश होने में विलम्ब नहीं है। जहाँ इतना अधर्म, इतना पाप, इतना छल-कपट हो, वहाँ सर्वनाश होने में विलम्ब नहीं है। जहाँ इतना अधर्म, इतना पाप, इतना छल-कपट हो, वहाँ कल्याण कैसे हो सकता है? अब मुझे पिता जी की चेतावनी याद आ रही है। उन्होंने चलते समय मुझसे कहा था– अगर तूने यह आग न बुझाई तो तेरे वंश का नाम मिट जायेगा। हाय! मेरे रोएँ खड़े हो रहे हैं! बेचारे माया पर क्या बीतेगी? यह हराम का माल, यह हराम की जायदाद उसकी जान की ग्राहक हो जायेगी, सर्प बनकर उसे डँस लेगी? बहिन, मेरा कलेजा फटा जाता है। मैं अपने माया को इस आग से क्योंकर बचाऊँ? वह मेरी आँखों की पुतली है, वही मेरे प्राणों का आधार है। यह निर्दयी पिशाच, यह बधिक मेरे लाल की गर्दन पर छुरी चला रहा है। कैसे उसे गोद में छिपा लूँ? कैसे उसे हृदय में बिठा लूँ? बाप होकर उसको विष दे रहा है। पाप का अग्निकुण्ड जलाकर मेरे लाल को उसमें झोंक देता है। मैं अपनी आँखों यह सर्वनाश नहीं देख सकती? बहिन तुमसे आज कहती हूँ, मुन्नी के जन्म के बाद इस पापी ने मुझे न जाने क्या खिलाकर मेरी कोख हर ली, न जाने कौन सा अनुष्ठान कर दिया? वही विष इसने पहले ही खिला दिया होता, वही अनुष्ठान पहले ही करा दिया होता तो आज यह दिन क्यों आता? बाँझ रहना इससे कहीं अच्छा है कि सन्तान गोद से छिन जाय। हाय मेरे लाल को कौन बचाएगा? मैं अब उसे नहीं बचा सकती। आग की लपटें उसकी ओर दौड़ी चली आती हैं। बहिन, तुम जाकर उस निर्दयी को समझाओ। अगर अब भी हो सके तो मेरे माया को बचा लो। नहीं, अब तुम्हारे बस की बात नहीं है, यह पिशाच अब किसी के समझाने से न मानेगा। उसने मन में ठान लिया है तो आज जी सब कुछ कर डालेगा।
यह कहते-कहते वह उठी और खिड़की से नीचे देखा। दीवानखाने के समाने वाले सहन की सफाई हो रही थी, दरियाँ झाड़ी जा रही थीं। उसकी आँखें माया को खोज रही थीं, वह माया को अपने हृदय से चिपटाना चाहती थी। माया न दिखायी दिया। एक क्षण में मोटर सहन में आयी, गायत्री और ज्ञानशंकर उस पर बैठे। माया भी एक मिनट में दीवानखाने से निकला और मोटर पर आ बैठा। विद्या ने आतुरता से पुकारा– माया, माया! यहाँ आओ! लेकिन या तो माया ने सुना ही नहीं, या सुनकर ध्यान ही नहीं दिया। वह खड़ी पुकारती ही रही और मोटर हवा हो गयी। विद्या को ऐसा जान पड़ा मानो पानी में पैर फिसल गये। वह तुरन्त पछाड़ खाकर गिर पड़ी। लेकिन श्रद्धा ने सभाल लिया, चोट नहीं आयी।
थोड़ी देर तक विद्या मूर्च्छित दशा में पड़ी रही। श्रद्धा उसका सिर गोद में लिये बैठी रोती रही। मैं अपने को ही अभागिनी समझती थी। इस दुखिया की विपत्ति और भी दुस्सह है। किसी रीति से उन्हें (प्रेमशंकर को) यह खबरें होतीं, तो वह अवश्य गायत्री को समझाते। गायत्री उनका आदर करती हैं। शायद मान जाती; लेकिन इस महापुरुष के सामने उनकी भेंट भी तो गायत्री से नहीं हो सकती। इसी भय से तो घर से बाहर निकल गये हैं कि काम में कोई विघ्न-बाधा न पड़े। कुछ नहीं, सब इसी की भूल है। ज्यों ही मैंने इससे गोद लेने की बात कही, इसे उसी क्षण बाहर जाकर दोनों को फटकारना और माया का हाथ पकड़कर खींच लाना चाहिए था। मजाल थी कि मेरे पुत्र का कोई मुझसे छीन ले जाता! सहसा विद्या ने आँखें खोल दीं और क्षीण स्वर से बोली– बहिन अब क्या होगा?
श्रद्धा– होने को अब भी सब कुछ हो सकता है। करनेवाला चाहिए।
विद्या– अब कुछ नहीं हो सकता। सब तैयारिया हो रही हैं, चाचा जी न जाने कैसे राजी हो गये!
श्रद्धा– मैं जरा जा कर कहारों से पूछती हूँ कि कब तक आने को कह गये हैं।
विद्या– शाम होने के पहले ये लोग कभी न लौटेगे। माया को हटा देने के लिए ही यह चाल चली गई है। इन लोगों ने जो बात मन में ठान ली है वह होकर रहेगी। पिताजी का शाप मेरी आँखों के सामने है। यह अनर्थ होना है और होगा।
श्रद्धा– जब तुम्हारी यही दशा है तो जो कुछ हो जाये वह थोड़ा है।
विद्या ने कुतूहल से देखकर कहा– भला मेरे बस की कौन सी बात है?
श्रद्धा– बस की बात क्यों नहीं है? अभी शाम को जब यह लोग लौटें तब नीचे चली जाओ और माया का हाथ पकड़कर खींच लाओ। वह न आए तो सारी बातें खोलकर उससे कह दो। समझदार लड़का है, तुरन्त उनसे उसका मन फिर जायेगा।
विद्या– (सोचकर) और यदि समझाने से भी न आए? इन लोगों ने उसे खूब सिखा-पढ़ा रखा होगा।
श्रद्धा– तो रात को जब शहर के लोग जमा हों, जा कर भरी सभा में कह दो, वह सब मेरी इच्छा के विरुद्ध है। मैं अपने पुत्र को गोद नहीं देना चाहती। लोगों की सब चालें पट पड़ जायें। तुम्हारी जगह मैं होती तो वह महनामथ मचता कि इनके दाँत खट्टे हो जाते। क्या करूँ, मेरा कुछ अधिकार नहीं है, नहीं तो इन्हें तमाशा दिखा देती!
विद्या ने निराश भाव से कहा– बहिन, मुझसे यह न होगा। मुझमें न इतनी सामर्थ्य है, न साहस। अगर और कुछ न हो, माया ही मेरी बातों को दुलख दे तो उसी क्षण मेरा कलेजा फट जायेगा। भरी सभा में जाना तो मेरे लिए असम्भव है। उधर पैर ही न उठेंगे। उठे भी तो वहाँ जाकर जबान बन्द हो जायेगी।
श्रद्धा– पता नहीं ये लोग किधर गये हैं। एक क्षण के लिए गायत्री एकान्त में मिल जाती तो एक बार मैं भी समझा देखती।
दीवानखाने में आनन्दोत्सव हो रहा था। मास्टर अलहदीन का अलौकिक चमत्कार लोगों का मुग्ध कर रहा था। द्वार पर दर्शकों की भीड़ लगी हुई थी। सहन में ठट के ठट कंगले जमा थे। मायाशंकर को दिन भर के बाद माँ की याद आई। वह आज आनन्द से फूला न समाता था। जमीन पर पाँव न पड़ते थे। दौड़-दौड़ कर काम कर रहा था। ज्ञानशंकर बार-बार कहते, तुम आराम से बैठो। इतने आदमी तो हैं ही, तुम्हारे हाथ लगाने की क्या जरूरत है? पर उससे बेकार नहीं बैठा जाता था। कभी लैम्प साफ करने लगता, कभी खसदान उठा लेता। आज सारे दिन मोटर पर सैर करता रहा। लौटते ही पद्यशंकर और तेजशंकर से सैर का वृत्तान्त सुनाने लगा, यहाँ गये, वहाँ गये, यह देखा, वह देखा। उसे अतिशयोक्ति में बड़ा मजा आ रहा था। यहाँ से छुट्टी मिली तो हवन पर जा बैठा। इसके बाद भोजन में सम्मिलित हो गया। जब गाना आरम्भ हुआ तो उसका चंचल चित्त स्थिर हुआ। सब लोग गाना सुनने में तल्लीन हो रहे थे, उसकी बातें सुननेवाला कोई न था। अब उसे याद आया, अम्माँ को प्रणाम करने तो गया ही नहीं! ओहो, अम्माँ मुझे देखते ही दौड़कर छाती से लगा लेंगी। आशीर्वाद देंगी। मेरे इन रेशमी कपड़ों की खूब तारीफ करेंगी। वह ख्याली पुलाव पकाता, मुस्कराता हुआ विद्या के कमरे में गया। वहाँ सन्नाटा छाया हुआ था, एक धुँधली सी दीवालगीर जल रही थी। विद्या पलँग पर पड़ी हुई थी। महरियाँ नीचे गाना सुनने चली गई थीं। लाला प्रभाशंकर के घर की स्त्रियों को न बुलावा दिया गया था और न वे आई थीं। श्रद्धा अपने कमरे में बैठी हुई कुछ पढ़ रह थी। माया ने माँ के समीप जा कर देखा– उसके बाल बिखरे हुए थे, आँखों से आँसू बह रहे थे, होंठ नीले पड़ गये थे, मुख निस्तेज हो रहा था। उसने घबरा कर कहा– अम्माँ, अम्माँ! विद्या ने आँखें खोलीं और एक मिनट तक उसकी ओर टकटकी बाँधकर देखती रही मानों अपनी आँखों पर विश्वास नहीं है। तब वह उठ बैठी। माया को छाती से लगाकर उसका सिर अंचल से ढँक लिया मानो उसे किसी आघात से बचा रही हो और उखड़े हुए स्वर में बोली, आओ मेरे प्यारे लाला! तुम्हें आँख भर देख लूँ। तुम्हारे ऊपर बहुत देर से जी लगा हुआ था। तुम्हें लोग अग्निकुण्ड की ओर ढकेल लिये जाते थे। मेरी छाती धड़-धड़ करती थी! बार-बार पुकारती थी, लेकिन तुम सुनते ही न थे। भगवान् ने तुम्हें बचा लिया। वही दीनों के रक्षक हैं। अब मैं तुम्हें न जाने दूँगी। यही मेरी आँखों के सामने बैठो। मैं तुम्हें देखती रहूँगी– देखो, देखो! वह तुम्हें पकड़ने के लिए दौड़ा आता है, मैं किवाड़ बन्द किये देती हूँ। तुम्हारा बाप है। लेकिन उसे तुम्हारे ऊपर जरा भी दया नहीं आती। मैं किवाड़ बन्द कर देती हूँ। तुम बैठे रहो।
यह कहते हुए वह द्वार की ओर चली, मगर पैर लड़खड़ाए और अचेत हो कर फर्श पर गिर पड़ी। माया उसकी दशा देखकर और उसकी बहकी-बहकी बातें सुनकर थर्रा गया। मारे भय के वहाँ एक क्षण भी न ठहर सका। तीर के समान कमरे से निकला और दीवाने खाने में आकर दम लिया। ज्ञानशंकर मेहमानों के आदर सत्कार में व्यस्त थे। उनसे कुछ कहने का अवसर न था। गायत्री चिक कि आड़ में बैठी हुई सोच रही थी, इस अलहदीन को कीर्तन के लिए नौकर रख लूँ तो अच्छा हो। मेरे मन्दिर की सारे देश में धूम मच जाये। माया ने आकर कहा– मौसी जी, आप चलकर जरा अम्माँ को देखिए। न जाने कैसी हुई जाती हैं। उन्हें डेलिरियम सा हो गया है।
गायत्री का कलेजा सन्न सा हो गया। वह विद्या के स्वभाव से परिचित थी। यह खबर सुनकर उससे कहीं ज्यादा शंका हुई, जितनी सामान्य दशा में होनी चाहिए थी। वह कल से विद्या के बदले हुए तेवर देख रही थी। रात की घटना भी उस याद आई। वह जीने की ओर चली। माया भी पीछे-पीछे चला। इस कमरे में इस समय कितनी ही चीजें इधर-उधर बिखरी पड़ी थीं। गायत्री ने कहा– तुम यहीं बैठो, नहीं तो इनमें से एक चीज का भी पता न चलेगा। मैं अभी आती हूँ। घबराने की कोई बात नहीं है, शायद उसे बुखार आ गया है।
गायत्री विद्या के कमरे में पहुँची। उसका हृदय बाँसों उछल रहा था। उसे वास्तविक अवस्था का कुछ गुप्त ज्ञान सा हो रहा था। उसने बहुत धीरे से कमरे में पैर रखा। धुँधली दीवालगीर अब भी जल रही थी, और विद्या द्वार के पास फर्श पर बेखबर पड़ी हुई थी। चेहरे पर मुर्दनी छाई हुई थी, आँखें बन्द थीं और जोर-जोर से साँस चल रही थी। यद्यपि खूब सर्दी पड़ रही थी, पर उसकी देह पसीने से तर थी। माथे पर स्वेद-बिन्दु झलक रहे थे, जैसे मुरझाए फूल पर ओस की बूँदें झलकती हैं। गायत्री ने लैम्प तेज करके विद्या को देखा। होठ पीले पड़ गये थे और हाथ-पैर धीरे-धीरे काँप रहे थे। उसने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया, अपना सुगन्ध से डूबा हुआ रूमाल निकाल लिया। और उसके मुँह पर झलने लगी। प्रेममय शोक-वेदना से उसका हृदय विकल हो उठा। गला भर आया, बोली– विद्या कैसा जी है?
विद्या ने आँखें खोल दीं और गायत्री को देखकर बोली– बहिन! इसके सिवा वह और कुछ न कह सकी। बोलने की बार-बार चेष्टा करती थी, पर मुँह से आवाज न निकलती थी, उसके मुख पर एक अतीव करुणाजनक दीनता छा गई। उसने विवश दृष्टि से फिर गायत्री को देखा। आँखें लाल थी, लेकिन उनमें उन्मत्तता या उग्रता न थी। उनमें आत्मज्योति झलक रही थी। वह विनय, क्षमा और शान्ति से परिपूर्ण थी। हमारी अन्तिम चितवनें हमारे जीवन का सार होती हैं, निर्मल और स्वच्छ ईर्ष्या और द्वेष जैसी मलिनताओं से रहित। विद्या की जबान बन्द थी, लेकिन आँखें कह रही थीं– मेरा अपराध क्षमा करना। मैं थोड़ी देर की मेहमान हूँ, मेरी ओर से तुम्हारे मन में जो मलाल हो वह निकाल डालना। मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है, मेरे भाग्य में जो कुछ बदा था, वह हुआ। तुम्हारे भाग्य में जो कुछ बदा है, वह होगा। तुम्हें अपना सर्वस्व सौंपे जाती हूँ। उसकी रक्षा करना।
गायत्री ने रोते हुए कहा– विद्या, तुम कुछ बोलती क्यों नहीं? कैसा जी है, डॉक्टर बुलाऊँ?
विद्या ने निराश दृष्टि से देखा और दोनों हाथ जोड़ लिये। आँखें बन्द हो गयीं। गायत्री व्याकुल होकर नीचे दीवानखाने में गई और माया से बोली। बाबूजी को ऊपर ले जाओ। मैं जाती हूँ, विद्या की दशा अच्छी नहीं है।
एक क्षण में ज्ञानशंकर और माया। दोनों ऊपर आए। श्रद्धा भी हलचल सुनकर दौड़ी हुई आई। ज्ञानशंकर ने विद्या को दो-तीन बार पुकारा, पर उसने आँखें न खोली। तब उन्होंने आलमारी से गुलाबजल की बोतल निकाली और उसके मुँह पर कई बार छीटें दिए। विद्या की आँखें खुल गयीं, किन्तु पति को देखते ही उसने जोर से चीख मारी। यद्यपि हाथ-पाँव अकड़े हुए थे, पर ऐसा जान पड़ा कि उसमें कोई विद्युत शक्ति दौड़ गई। वह तुरन्त उठकर खड़ी हो गयी। दोनों हाथों से आँख बन्द किये द्वार की ओर चली। गायत्री ने उसे सँभाला और पूछा– विद्या, पहचानती नहीं, बाबू ज्ञानशंकर हैं। विद्या ने सशंक और भयभीत नेत्रों से देखा और पीछे हटती हुई बोली– अरे, यह फिर आ गया। ईश्वर के लिए इससे मुझे बचाओ।
गायत्री– विद्या, तबीयत को जरा सँभालो। तुमने कुछ खा तो नहीं लिया है। डॉक्टर को बुलाऊँ!
विद्या– मुझे इससे बचाओ, ईश्वर के लिए मुझे इससे बचाओ।
गायत्री– पहचानती नहीं हो, बाबूजी हैं।
विद्या– नहीं-नहीं, यह पिशाच है। इसके लम्बे बाल हैं। वह देखो दाँत निकाले मेरी ओर दौड़ा आता है। हाय-हाय! इसे भगाओ, मुझे खा जायेगा। देखो-देखो, मुझे पकड़े लेता है। इसके सींग हैं, बड़े-बड़े दाँत है, बड़े-बड़े नख हैं। नहीं, मैं न जाऊँगी। छोड़ दे दुष्ट, मेरा हाथ छोड़ दे। हाय! मुझे अग्नि कुण्ड मे झोंके देता है। अरे देखो माया को पकड़ लिया। कहता है, बलिदान दूँगा! दुष्ट तेरे हृदय में जरा भी दया नहीं है? उसे छोड़ दे, मैं चलती हूँ मुझे कुण्ड में झोंके दे, पर ईश्वर के लिए उसे छोड़ दे, मैं चलती हूँ, मुझे कुण्ड में झोंके दे, पर ईश्वर के लिए उसे छोड़ दे। यह कहते-कहते विद्या फिर मूर्च्छित होकर गिर पड़ी। ज्ञानशंकर ने लज्जायुक्त चिन्ता से कहा, जहर खा लिया। मैं अभी डॉक्टर प्रियनाथ के यहाँ जाता हूँ। शायद उनके यत्न से अब भी इसके प्राण बच जायें। मुझे क्या मालूम था कि माया को तुम्हारी गोद का इसे इतना दुख होगा। मैंने इसे आज तक न समझा। यह पवित्र आत्मा थी, देवी थी, मेरे जैसे लोभी, स्वार्थी मनुष्य के योग्य न थी।
यह कह कर वह आँखों से आँसू भरे चले गये। श्रद्धा ने विद्या को उठाकर गोद में ले लिया। गायत्री पंखा झलने लगी। माया खड़ा रो रहा था। कमरे में सन्नाटा छाया हुआ था, वह सन्नाटा जो मृत्यु-स्थान के सिवा और कहीं नहीं होता। सब की सब विद्या को होश में लाने का प्रयास कर रही थीं, पर मुँह से कोई कुछ न कहता था। सब के दिलों मृत्यु-भय छाया हुआ था।
आधे घण्टे के बाद विद्या की आँखें खुलीं। उसने चारों ओर सहमे हुए नेत्रों से देख कर इशारे से पानी माँगा।
श्रद्धा ने गुलाबजल और पानी मिलाकर कटोरा उसके मुँह से लगाया। उसने पानी पीने को मुँह खोला, लेकिन होठ खुले रह गये, अंगों पर इच्छा का अधिकार नहीं रहा। एक क्षण में आँखों की पुतलियाँ फिर गयीं।
श्रद्धा समझ गई कि यह अन्तिम क्षण है। बोली-बहिन, किसी से कुछ कहना चाहती हो? माया तुम्हारे सामने खड़ा है।
विद्या की बुझी आँखें श्रद्धा की ओर फिरीं, आँसू की चन्द बूँदे गिरी, शरीर में कम्पन हुआ और दीपक बुझ गया!
एक सप्ताह पीछे मुन्नी भी हुड़क-हुड़क कर बीमार पड़ गई। रात-दिन अम्माँ-अम्माँ की रट लगाया करती। न कुछ खाती न पीती, यहाँ तक कि दवाएँ पिलाने के समय मुँह ऐसा बन्द कर लेती कि किसी तरह न खोलती। श्रद्धा गोद में लिये पुचकारती-फुसलाती, पर सफल न होती। बेचारा माया गोद में लिये उसके मुरझाए मुँह की ओर देखता और रोता। ज्ञानशंकर को तो अवकाश न मिलता था, लाला प्रभाशंकर दिन में कई बार डॉक्टर के पास जाते, दवाएँ लाते, लड़की का मन बहलाने के लिए तरह-तरह के खिलौने लाते, पर मुन्नी उनकी ओर आँख उठाकर भी न देखती! गायत्री से न जाने क्या चिढ़ थी। उसकी सूरत देखते ही रोने लगती। एक बार गायत्री ने गोद में उठा लिया तो उसे दाँतों से काट लिया। चौथे दिन उसे ज्वर हो आया और तीन दिन बीमार रह कर मातृ-हृदय की भूखी बालिका चल बसी।
विद्या के मरने के पीछे विदित हुआ कि वह कितनी बहुप्रिय और सुशीला थी। मुहल्ले की स्त्रियाँ श्रद्धा के पास आकर चार आँसू बहा जातीं। दिन भर उनका ताँता रहता! बड़ी बहू और उनकी बहू भी सच्चे दिल से उसका मातम कर रही थी! उस देवी ने अपने जीवन में किसी को ‘रे’ या ‘तू’ नहीं कहा, महरियों से हँस-हँस कर बातें करती। नसीब चाहे खोटा था, हृदय में दया थी। किसी का दुःख न देख सकती थी। दानशीला ऐसी थी कि किसी भूखे भिखारी, दुखियारे को द्वार से फिरने न देती थी, धेले की जगह पैसा और आध पाव की जगह पाव देने की नीयत रखती थी। गायत्री इन स्त्रियों से आँखें चुराया करती। अगर वह कभी आ पड़ती तो सब चुप हो जाती और उसकी अवहेलना करतीं। गायत्री उनकी श्रद्धापात्र बनने के लिए उनके बालकों को मिठाइयाँ और खिलौने देती विद्या की रो-रो कर चर्चा करती पर उसका मनोरथ पूरा न होता था। यद्यपि कोई स्त्री मुँह से कुछ न कहती थी, लेकिन उनके कटाक्ष व्यंग्य से भी अधिक मर्मभेदी होते थे। एक दिन बड़ी बहू ने गायत्री के मुँह पर कहा– न जाने ऐसा कौन सा काँटा था जिसने उसके हृदय में चुभ कर जान ली। दूध-पूत सब भगवान् ने दिया था, पर इस काँटे की पीड़ा न सही गयी। यह काँटा कौन थे, इस विषय में महिलाओं की आँखें उनकी वाणी से कहीं सशब्द थीं। गायत्री मन में कटकर रह गयी।
वास्तव में कुटुम्ब या मुहल्ले की स्त्रियों को विद्या के मरने का जितना शोक था उससे कहीं ज्यादा गायत्री को था। डॉक्टर प्रियनाथ ने स्पष्ट कह दिया कि इसने विष खाया है। लक्षणों से भी यही बात सिद्ध होती थी! गायत्री इस खून से अपना हाथ रंगा हुआ पाती थी। उसकी सगर्व आत्मा इस कल्पना से ही काँप उठती थी। वह अपनी निज की महरियों से भी विद्या की चर्चा करते झिझकती थी। मौत की रात का दृश्य कभी न भूलता था। विद्या की वह क्षमाप्रार्थी क्षमाप्रार्थी चितवनें सदैव उसकी आँखों में फिरा करतीं। हाँ, यदि मुझे पहले मालूम होता कि उनके मन में मेरी ओर से इतना मिथ्या भ्रम हो गया है तो यह नौबत न आती। लेकिन फिर जब वह उसके पहलेवाली रात की घटनाओं पर विचार करती तो उसका मन स्वयं कहता था कि विद्या का सन्देह करना स्वाभाविक था। नहीं, अब उसे कितनी ही छोटी-छोटी बातें ऐसी भी याद आतीं थीं जो उसने विद्या का मनोमालिन्य देख कर केवल उसे जलाने और सुलगाने के लिए की थी। यद्यपि उस समय उसने ये बातें अपने पवित्र प्रेम की तरंग में की थी और विद्या के ही सामने नहीं, सारी दुनिया के सामने करने पर तैयार थी, पर इन खून के छींटों से वह नशा उतर गया था। उसका मन स्वयं स्वीकार करता था कि वह विशुद्ध प्रेम न था, अज्ञात रीति से उसमें वासना का लेश आ गया था। विद्या मुझे देखकर सदय हो गई थी, लेकिन ज्ञानशंकर को सूरत देखते ही उसका झिझकना, चीखना, चिल्लाना साफ कह रहा था कि उसने हमारे ही ऊपर जान दी। यह उसकी परम उदारता थी कि उसने मुझे निर्दोष समझा। इतने भयंकर उत्तरदायित्व का भार उसकी आत्मा को कुचले देता था। शनेःशनैः भाव का उस पर इतना प्राबल्य हुआ कि भक्ति और प्रेम से उसे अरुचि होने लगी। उसके विचार में यह दुर्घटना इस बात का प्रमाण थी कि हम भक्ति के ऊँचे आदर्श से गिर गये, प्रेम के निर्मल जल से तैरते हुए हम भोग के सेवारों में उलझ गये, मानो यह हमारी आत्मा को सजग करने के लिए देवप्रेरित चेतावनी थी। अब ज्ञानशंकर उसके पास आते तो उसने खुलकर न मिलती। ज्ञानशंकर ने विद्या की दाह-क्रिया आप न की थी, यहाँ तक कि चिता में आग भी न दी थी। एक ब्राह्मण से सब संस्कार कराये थे। गायत्री को यह असज्जनता और हृदयशून्यता नागवार मालूम होती थी। उसकी इच्छा थी कि विद्या की अन्त्येष्टि प्रथानुसार और यथोचित सम्मान के साथ की जाये। उसकी आत्मा की शान्ति का अब यही एक उपाय था। उसने ज्ञानशंकर से इसका इशारा भी किया, पर वह टाल गये। अतएव वह उन्हें देखते ही मुँह फेर लेती थी, उन्हें अपनी वाणी का मन्त्र मारने का अवसर ही न देती थी। उसे भय होता था कि उनकी यह उच्छृंखलता मुझे और भी बदनाम कर देती। वह कम से कम संसार की दृष्टि में इस हत्या के अपराध से मुक्त रहना चाहती थी।
गायत्री पर अब ज्ञानशंकर के चरित्र के जौहर भी खुलने लगे। उन्होंने उससे अपने कुटुम्बियों की इतनी बुराइयाँ की थी कि उन्हें धैर्य और सहनशीलता की मूर्ति समझती थी। पर यहाँ कुछ और ही बात दिखाई देती थी। उन्होंने प्रेमशंकर को शोक सूचना तक न दी। लेकिन उन्होंने ज्यों ही खबर पाई तुरन्त दौड़े हुए आये और सोलह दिनों तक नित्य प्रति आकर यथायोग्य संस्कार में भाग लेते रहे। लाला प्रभाशंकर संस्कारों की व्यवस्था में ब्रह्मभोज में, बिरादरी की दावत में व्यस्त थे। मानो आपस में कोई द्वेष नहीं। बड़ी बहू के व्यवहार से भी सच्ची समवेदना प्रकट होती थी। लेकिन ज्ञानशंकर के रंग-ढंग से साफ-साफजाहिर होता था कि इन लोगों का शरीक होना उन्हें नागवार है। वह उनसे दूर-दूर रहते थे, उनसे बात करते तो रूखाई से, मानो सभी उनके शत्रु हैं और इसी बहाने उनका अहित करना चाहते हैं। ब्रह्मभोज के दिन उनकी लाला प्रभाशंकर से खासी झपट हो गयी। प्रभाशंकर आग्रह कर रहे थे, मिठाइयाँ घर में बनवाई जायँ। ज्ञानशंकर कहते थे कि यह अनुपयुक्त है। सम्भव है, घर की मिठाइयाँ अच्छी न बनें, पर खर्च बहुत पड़ेगा। बाजार में मामूली मिठाइयाँ मँगवाई जायें। प्रभाशंकर ने कहा, खिलाते हो तो ऐसे पदार्थ खिलाओ कि खानेवाले भी समझें कि कहीं दावत खायी थी। ज्ञानशंकर ने बिगड़कर कहा– मैं ऐसा अहमक नहीं हूँ कि इस वाह-वाह के लिए अपना घर लुटा दूँ। नतीजा यह हुआ कि बाजार से सस्ते मेल की मिठाइयाँ आयीं। ब्राह्मणों ने डटकर खाया, लेकिन सारे शहर में निन्दा की।
गायत्री को जो बात सबसे अप्रिय लगती थी वह अपनी नजरबन्दी थी। ज्ञानशंकर उसकी चिट्ठियाँ खोलकर पढ़ लेते, इस भय से कहीं राय साहब का कोई पत्र न हो। अगर वह प्रेमशंकर या लाला प्रभाशंकर से कुछ बातें करने लगती तो वह तुरन्त आकर बैठ जाते और ऐसी असंगत बात करने लगते कि साधारण बातचीत भी विवाद का रूप धारण कर लेती थी। उनके व्यवहार से स्पष्ट विदित होता था कि गायत्री के पास किसी अन्य मनुष्य का उठना-बैठना उन्हें असह्य है। इतना ही नहीं, वह यथासाध्य गायत्री को स्त्रियों से मिलने-जुलने का भी अवसर न देते। आत्माभिमान धार्मिक विषयों में लोकमत को जितना तुच्छ समझता है लौकिक विषयों में लोकमत का उतना ही आदर करता है। गायत्री को विद्या के हत्यापराध से मुक्त होने के लिए घर, मुहल्ले की स्त्रियों की सहानुभूति आवश्यक जान पड़ती थी। वह अपने बर्ताव से, विद्या की सुकीर्ति के बखान से, यहाँ तक कि ज्ञानशंकर की निन्दा से भी यह उद्देश्य पूरा करना चाहती थी। षोडशे और ब्रह्मभोज के बाद एक दिन उसने नगर की कई कन्या पाठशालाओं का निरीक्षण किया और प्रत्येक को विद्या के नाम पर पारितोषिक देने के लिए रुपये दे आई, और यह केवल दिखावा ही नहीं था, विद्या से उसे बहुत मुहब्बत थी, उसकी मृत्यु का उसे सच्चा शोक था। विद्या को याद करके बहुधा एकान्त में रो पड़ती, उसकी सूरत आँखों से कभी न उतरती थी। जब श्रद्धा और बड़ी बहू आदि विद्या की चर्चा करने लगतीं तो वह अदबदा कर उनकी बातें सुनने के लिए जा बैठती। उनके कटाक्ष और संकेतों की ओर उसका ध्यान नहीं जाता। ऐसे अवसरों पर जब ज्ञानशंकर उसे रियासत के किसी काम के बहाने से बुलाते तो उसे बहुत नागवार मालूम होता। वह कभी-कभी झुँझला कर कहती, जा कर कह दो मुझे फुरसत नहीं है। जरा-जरा सी बातों में मुझसे सलाह लेने की क्या जरूरत है? क्या इतनी बुद्धि भी ईश्वर ने नहीं दी? रियासत! रियासत!! उन्हें किसी के मरने-जीने की परवाह न हो, सबके हृदय एक-से नहीं हो सकते। कभी-कभी वह केवल ज्ञानशंकर को चिढ़ाने के लिए श्रद्धा के पास घण्टों बैठी रहती। वह अब उनकी कठपुतली बन कर न रहना चाहती थी। एक दिन वह ज्ञानशंकर से कुछ कहे बिना ही प्रेमशंकर की कृषिशाला में आ पहुँची और सारे दिन वहीं रही। एक दिन उसने लाला प्रभाशंकर और प्रेमशंकर की दावत की और सारा जेवनार अपने हाथों से पकाया! लालाजी को भी उसके पाक-नैपुण्य को स्वीकार करना पड़ा!
दो महीने गुजर गये। धीरे-धीरे महिलाओं को गायत्री पर विश्वास होने लगा। द्वेष और मालिन्य के परदे हटने लगे। उसके सम्मुख ऐसी-ऐसी बातें होने लगीं। जिनकी भनक भी पहले उसके कानों में न पड़ने पाती थी, यहाँ तक कि वह इस समाज का एक प्रधान अंग बन गई। यहाँ प्रायः नित्य ही ज्ञानशंकर के चरित्र की चर्चा होती और फलतः उनका आदर गायत्री के हृदय से उठता जाता था। बड़ी बहू और उनकी बहू दोनों ज्ञानशंकर की द्वेष कथा कहने लगती तो उसका अंत ही न होता था। श्रद्धा यद्यपि इतनी प्रगल्भा न थी, पर यह अनुमान करने के लिए बहुत सूक्ष्मदर्शिता की जरूरत न थी कि उसे भी ज्ञानशंकर से विशेष स्नेह न था। ज्ञानशंकर की संकीर्णता और स्वार्थपरता दिनोंदिन गायत्री को विदित होने लगी। अब उसे ज्ञान होने लगा कि पिताजी ने मुझे ज्ञानशंकर से बचते रहने की जो ताकीद की थी उसमें भी कुछ न कुछ रहस्य अवश्य था। ज्ञानशंकर के प्रेम और भक्ति पर से भी उसका विश्वास उठने लगा। उसे सन्देह होने लगा कि उन्होंने केवल अपना कार्य सिद्घ करने के लिए तो यह स्वाँग नहीं रचा। अब उसे कितनी ही ऐसी बातें याद आने लगीं, जो इस सन्देह की पुष्ट करती थीं। ज्यों-ज्यों वह सन्देह बढ़ता था ज्ञानशंकर की ओर से उसका चित्त फिरता जाता था। ज्ञानशंकर गायत्री के चित्त की यह वृत्ति देखकर बड़े असमंजस में रहते थे। उनके विचार में यह मनोमालिन्य शान्त करने का सर्वोत्तम उपाय यही था कि गायत्री को किसी प्रकार गोरखपुर खींच ले चलूँ। लेकिन उससे यह प्रस्ताव करते हुए वह डरते थे। अपनी गोटी लाल करने के लिए वह गायत्री का एकान्त सेवन परमावश्यक समझते थे। मायाशंकर को गोद लेने से ही कोई विशेष लाभ न था। गायत्री की आयु ३५ वर्ष से अधिक न थी और कोई कारण न था वह अभी ४५ वर्ष जीवित न रहे। यह लम्बा इन्तजार ज्ञानशंकर जैसे अधीर पुरुषों के लिए असह्य था। इसलिए वह श्रद्धा और भक्ति का वही वशीकरण मन्त्र मार कर गायत्री को अपनी मुट्ठी में करना चाहते थे।
एक दिन वे एक पत्र लिये हुए गायत्री के पास आ कर बोले, गोरखपुर से यह बहुत जरूरी खत आया है। मुख्तार साहब ने लिखा है कि वे फसल के दिन हैं। आप लोगों का आना जरूरी है, नहीं तो सीर की उपज हाथ न लगेगी नौकर-चाकर खा जायँगे।
गायत्री ने रुष्ट होकर कहा– इसका उत्तर तो मैं पीछे दूँगी, पहले यह बतलाइए कि आप मेरी चिट्ठियाँ क्यों खोल लिया करते हैं?
ज्ञानशंकर सन्नाटे में आ गये, समझ गये कि मैं इसकी आँखों में उससे कहीं ज्यादा गिर गया हूँ जितना मैं समझता हूँ। बगलें झाँकते हुए बोले– मेरा अनुमान था कि इतनी आत्मिक घनिष्ठता के बाद इस शिष्टाचार की जरूरत नहीं रही। लेकिन आपको नागवार लगता है तो आगे ऐसी भूल न होगी।
गायत्री ने लज्जित होकर कहा– मेरा आशय यह नहीं था। मैं केवल यह चाहती हूँ कि मेरी निज की चिट्ठियाँ न खोली जाया करें।
ज्ञानशंकर– इस धृष्टता का कारण यह था कि मैं अपनी आत्मा को। आपकी आत्मा में संयुक्त समझता था, लेकिन ऐसा जान पड़ता है कि इस घर के द्वेष-पोषक जलवायु ने हमारे बीच में भी अन्तर डाल दिया। भविष्य में ऐसा दुस्साहस न होगा। मालूम होता है कि मेरे कुदिन आए हैं। देखें क्या-क्या झेलना पड़ता है।
गायत्री ने बात का पहलू बदलकर कहा– मुख्तार साहब को लिख दीजिए कि अभी हम लोग न आ सकेंगे, तहसील-वसूल शुरू कर दें।
ज्ञानशंकर– मेरे विचार में हम लोगों का वहाँ रहना जरूरी है।
गायत्री– तो आप चले जाएँ मेरे जाने की क्या जरूरत है? मैं अभी यहाँ कुछ दिन और रहना चाहती हूँ।
ज्ञानशंकर ने हताश होकर कर कहा जैसी आपकी इच्छा। लेकिन आपके बिना वहाँ एक-एक क्षण मुझे एक-एक साल मालूम होगा। कृष्णमन्दिर तैयार ही है। यहाँ भजन-कीर्तन में जो आनन्द आएगा वह यहाँ दुर्लभ है। मेरी इच्छा थी कि अबकी बरसात वृन्दावन में कटती। इस आशा पर पानी फिर गया। आप मेरे जीवन-पथ की दीपक हैं, आप ही मेरे प्रेम और भक्ति की केन्द्रस्थल हैं। आप के बिना मुझे अपने चारों ओर अँधेरा दिखाई देगा। सम्भव है कि पागल हो जाऊँ।
दो महीने पहले ऐसी प्रेमरस पूर्ण बातें सुनकर गायत्री का हदय गद्गद हो जाता, लेकिन इतने दिनों यहाँ रहकर उसे उनके चरित्र का पूरा परिचय मिल चुका था। वह साज जो बेसुर अलाप को भी रसमय बना देता था अब बन्द था। वह मन्त्र का प्रतिहार करना सीख गई थी। बोली– यहाँ मेरी दशा उससे भी दुस्सह होगी, खोई-खोई-सी फिरूँगी, लेकिन करूँ क्या? यहाँ लोगों के हृदय को अपनी ओर से साफ करना आवश्यक है। यह वियोग-दुःख इसलिए उठा रही हूँ, नहीं तो आप जानते हैं यहाँ मन बहलाव को क्या सामग्री है? देह पर अपना वश है, उसे यहाँ रखूँगी। रहा मन, मन एक क्षण के लिए भी अपने कृष्ण का दामन न छोड़ेगा। प्रेम-स्थल में हजारों कोस की दूरी भी कोई चीज नहीं है, वियोग में भी मिलाप का आनन्द मिलता रहता है। हाँ, नित्य प्रति लिखते रहिएगा, नहीं तो मेरी जान पर बन आयेगी।
ज्ञानशंकर ने गायत्री को भेद की दृष्टि से देखा। यह वह भोली-भाली सरला गायत्री न थी। वह अब त्रिया-चरित्र में निपुण हो गई थी, दगा का जवाब दगा से देना सीख गई थी। समझ गये कि अब यहाँ मेरी दाल न गलेगी। इस बाजार में अब खोटे सिक्के न चलेंगे। यह बाजी जीतने के लिए कोई नयी चाल चलनी पड़ेगी, नए किले बाधने पड़ेंगे। गायत्री को यहाँ छोड़कर जाना शिकार को हाथ से खोना था। किसी दूसरे अवसर पर यह जिक्र छेड़ने का निश्चय करके वह उठे। सहसा गायत्री ने पूछा, तो कब तक जाने का विचार है? मेरे विचार से आपका प्रातःकाल की गाड़ी से चला जाना अच्छा होगा।
ज्ञानशंकर ने दीन भाव से भूमि की ओर ताकते हुए कहा– अच्छी बात है।
गायत्री– हाँ, जब जाना ही है तब देर न कीजिए। जब तक इस मायाजाल में फँसे हुए हैं तब तक तो यहाँ के राग अलापने ही पड़ेंगे।
ज्ञानशंकर– जैसी आज्ञा।
यह कहकर वह मर्माहत भाव से उठकर चले गये। उनके जाने के बाद गायत्री को वही खेद हुआ जो किसी मित्र को व्यर्थ कष्ट देने पर हमकों होता है, पर उसने उन्हें रोका नहीं।