प्रथम अंक
[उज्जयिनी में गुप्त-साम्राज्य का स्कंधावार]
स्कंदगुप्त—(टहलते हुए) अधिकार-सुख कितना मादक और सारहीन है! अपने को नियामक और कर्ता समझने को बलवती स्पृहा उससे बेगार कराती है! उत्सव में परिचारक और अस्त्रों में ढाल से भी अधिकार-लोलुप मनुष्य क्या अच्छे हैं? (ठहरकर) उँह! जो कुछ हो, हम तो साम्राज्य के एक सैनिक हैं।
पर्णदत्त—(प्रवेश कर के) युवराज की जय हो!
स्कंदगुप्त—आर्य पर्णदत्त को अभिवादन करता हूँ। सेनापति की क्या आज्ञा है?
पर्णदत्त—मेरी आज्ञा! युवराज! आप सम्राट के प्रतिनिधि हैं; मैं तो आज्ञाकारी सेवक हूँ। इस वृद्ध ने गरुड़ध्वज लेकर आर्य चन्द्रगुप्त की सेना का संचालन किया है। अब भी गुप्त-साम्राज्य की नासोर-सेना में उसी गरुड़ध्वज की छाया में पवित्र क्षात्रधर्म का पालन करते हुए उसीके मान के लिये मर मिटूँँ–यही कामना है। गुप्तकुलभूषण! आशीर्वाद दीजिये, वृद्ध पर्णदत्त की माता का स्तन्य लज्जित न हो।
स्कंदगुप्त—आर्य! आपकी वीरता की लेखमाला शिप्रा और सिन्धु की लोल लहरियों से लिखी जाती है, शत्रु भी उस वीरता की सराहना करते हुए सुने जाते है। तब भी सन्देह!
पर्णदत्त—संदेह दो बातों से है युवराज!
स्कंदगुप्त—वे कौन-सी हैं?
पर्णदत्त—अपने अधिकारों के प्रति आपकी उदासीनता और अयोध्या में नित्य नये परिवर्तन।
स्कंदगुप्त—क्या अयोध्या का कोई नया समाचार हैं?
पर्णदत्त—संभवतः सम्राट तो कुसुमपुर चले गये हैं, और कुमारामात्य महाबलाधिकृत वीरसेन ने स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया।
स्कंदगुप्त—क्या! महाबलाधिकृत अब नही हैं? शोक!
पर्णदत्त—अनेक समरों के विजेता, महामानी, गुप्त-साम्राज्य के महाबलाधिकृत अब इस लोक में नहीं हैं! इधर प्रौढ़ सम्राट के विलास की मात्रा बढ़ गई है!
स्कंदगुप्त—चिंता क्या! आर्य! अभी तो आप हैं, तब भी मैं ही सब विचारों का भार वहन करूँँ, अधिकार का उपयोग करूँ! वह भी किस लिये?
पर्णदत्त—किस लिये? त्रस्त प्रजा की रक्षा के लिये, सतीत्व के सम्मान के लिये, देवता, ब्राह्मण और गौ की मर्य्यादा में विश्वास के लिये, आतंक से प्रकृति को आश्वासन देने के लिये आपको अपने अधिकारों का उपयोग करना होगा। युवराज! इसीलिये मैने कहा था कि आप अपने अधिकारों के प्रति उदासीन हैं जिसकी मुझे बड़ी चिन्ता है। गुप्त-साम्राज्य के भावी शासक को अपने उत्तरदायित्व का ध्यान नहीं!
स्कंदगुप्त—सेनापते! प्रकृतिस्थ होइये! परम भट्टारक महाराजाधिराज अश्वमेध-पराक्रम श्रीकुमारगुप्त महेन्द्रादित्य के सुशासित राज्य की सुपालित प्रजा को डरने का कारण नहीं है। गुप्तसेना की मर्य्यादा की रक्षा के लिये पर्णदत्त-सदृश महावीर अभी प्रस्तुत हैं।
पर्णदत्त–राष्ट्र नीति, दार्शनिकता और कल्पना का लोक नहीं है। इस कठोर प्रत्यक्षवाद की समस्या बड़ी कठिन होती है। गुप्त-साम्राज्य की उत्तरोत्तर वृद्धि के साथ उसका दायित्व भी बढ़ गया है; पर उस बोझ को उठाने के लिये गुप्तकुल के शासक प्रस्तुत नहीं, क्योंकि साम्राज्य-लक्ष्मी को वे अब अनायास और अवश्य अपनी शरण आनेवाली वस्तु समझने लगे हैं।
स्कंदगुप्त–आर्य! इतना व्यङ्ग न कीजिये, इसके कुछ प्रमाण भी है?
पर्णदत्त–प्रमाण! प्रमाण अभी खोजना है? आँधी आने के पहले आकाश जिस तरह स्तम्भित हो रहता है, बिजली गिरने से पूर्व जिस प्रकार नील कादम्बिनी का मनोहर आचरण महाशून्य पर चढ़ जाता है, क्या वैसी ही दशा गुप्त-साम्राज्य की नहीं है?
स्कंदगुप्त–क्या पुष्यमित्रों के युद्ध को देखकर वृद्ध सेनापति चकित हो रहे है? (हँसता है)
पर्णदत्त–युवराज? व्यंग न कीजिये। केवल पुष्यमित्रों के युद्ध से ही इतिश्री न समझिये, म्लेच्छों के भयानक आक्रमण के लिये भी प्रस्तुत रहना चाहिये। चरों ने आज ही कहा है कि कपिशा को श्वेत हूणों ने पदाक्रान्त कर लिया! तिसपर भी युवराज पूछते हैं कि ‘अधिकारों का उपयोग किस लिये’! यही ‘किस लिये’ प्रत्यक्ष प्रमाण है कि गुप्तकुल के शासक इस साम्राज्य को ‘गले-पड़ी’ वस्तु समझने लगे हैं!
(चक्रपालित का प्रवेश)
चक्रपालित–(देखकर) अरे, युवराज भी यहीं हैं! युवराज की जय हो।
स्कंदगुप्त–आओ चक्र! आर्य्य पर्णदत्त ने मुझे घबरा दिया है।
चक्र॰—पिताजी! प्रणाम। कैसी बात है?
पर्ण॰—कल्याण हो, आयुष्मन्! तुम्हारे युवराज अपने अधिकारो से उदासीन हैं। वे पूछते हैं ‘अधिकार किस लिये।’
चक्र॰—तात! इस ‘किस लिये’ का अर्थ मैं समझता हूँ।
पर्ण॰–क्या?
चक॰—गुप्तकुल का अव्यवस्थित उत्तराधिकार-नियम!
स्कन्दगुप्त–चक्र, सावधान! तुम्हारे इस अनुमान का कुछ आधार भी है?
चक्र॰—युवराज! यह अनुमान नहीं है, यह प्रत्यक्ष-सिद्ध है।
पर्ण॰–(गंभीरता से) चक्र! यदि यह बात हो भी, तब भी तुमको ध्यान रखना चाहिये कि हम लोग साम्राज्य के सेवक है। असावधान बालक! अपनी चंचलता को विष-वृक्ष का बीज न बना देना।
स्कन्दगुप्त—आर्य्य पर्णदत्त! क्षमा कीजिये। हृदय की बातों को राजनीतिक भाषा में व्यक्त करना चक्र नहीं जानता।
पर्ण॰–ठीक है, किन्तु उसे इतनी शीघ्रता नहीं करनी चाहिये। (देखकर) चर आ रहा है, कोई युद्ध का नया समाचार है क्या?
(चर का प्रवेश)
‘युवराज की जय हो!’
पर्ण॰–क्या समाचार है?
चर–अब की बार पुष्यमित्रों का अंतिम प्रयत्न है। वे अपनी समस्त शक्ति संकलित करके बढ़ रहे है! नासीर-सेना के नायक ने सहायता मांगी है। दशपुर से भी दूत आया है।
स्कंद०–अच्छा, जाओ, उसे भेज दो।
(चर जाता है, दशपुर के दूत का प्रवेश)
‘युवराज भट्टारक की जय हो!’
स्कंद॰–मालवपति सकुशल है?
दूत–कुशल आपके हाथ है। महाराज विश्ववर्मा का शरीरांत हो गया है! नवीन नरेश महाराज बंधुवर्मा ने साभिवादन श्रीचरणो में संदेश भेजा है।
स्कंद०–खेद! ऐसे समय से, जब कि हम लोगो को मालवपति से सहायता की आशा थी, वह स्वयं कौटुम्बिक आपत्तियो में फँस गये है!
दूत–इतना ही नहीं, शक-राष्ट्रमंडल चंचल हो रहा है, नवागत म्लेच्छवाहिनी से सौराष्ट्र भी पदाक्रांत हो चुका है, इसी कारण पश्चिमी मालव भी अब सुरक्षित न रहा।
(स्कंदगुप्त पूर्णदत्त की ओर देखते है)
पर्ण॰–वलभी का क्या समाचार है?
दूत–वलभी का पतन अभी रुका है। किन्तु बर्बर हूणों से उसका बचना कठिन है। मालव की रक्षा के लिये महाराज बन्धु-वर्म्मा ने सहायता माँगी है। दशपुर की समस्त सेना सीमा पर जा चुकी है।
स्कंद॰–मालव और शक युद्ध में जो संधि गुप्त-साम्राज्य और मालव-राष्ट्र में हुई है, उसके अनुसार मालव की रक्षा गुप्त-सेना का कर्त्तव्य है। महाराज विश्ववर्म्मा के समय से ही सम्राट कुमारगुप्त उनके संरक्षक है। परन्तु दूत! बड़ी कठिन समस्या है।
दूत–विषम व्यवस्था होने पर भी युवराज! साम्राज्य ने संरक्षकता का भार लिया है।
पर्ण॰–दूत! क्या तुम्हे विदित नहीं है कि पुष्यमित्रों से हमारा युद्ध चल रहा है?
दूत–तब भी मालव ने कुछ समझकर, किसी आशा पर ही, अपनी स्वतंत्रता को सीमित कर लिया था।
स्कंद॰–दूत! केवल सन्धि-नियम ही से हम लोग बाध्य नही हैं; किंतु शरणागत-रक्षा भी क्षत्रिय का धर्म्म है। तुम विश्राम करो। सेनापति पर्णदत्त समस्त सेना लेकर पुष्यमित्रों की गति रोकेंगे। अकेला स्कंदगुप्त मालव की रक्षा करने के लिये सन्नद्ध है। जाओ, निर्भय निद्रा का सुख लो। स्कंदगुप्त के जीते-जी मालव का कुछ न बिगड़ सकेगा।
दूत–धन्य युवराज! आर्य्य-साम्राज्य के भावी शासक के उपयुक्त ही यह बात है। (प्रणाम करके जाता है)
पर्ण॰-–युवराज! आज यह वृद्ध, हृदय से प्रसन्न हुआ। और गुप्त-साम्राज्य की लक्ष्मी भी प्रसन्न होगी।
चक्र॰–तात! पुष्यमित्र-युद्ध का अन्त तो समीप है। विजय निश्चित है। किसी दूसरे सैनिक को भेजिये। मुझे युवराज के साथ जाने की अनुमति हो।
स्कंद॰–नहीं चक्र, तुम विजयी होकर मुझसे मालव में मिलो। ध्यान रखना होगा कि राजधानी से अभी कोई सहायता नहीं मिलती। हम लोगों को इस आसन्न विपद में अपना ही भरोसा है।
पर्ण॰–कुछ चिंता नहीं युवराज! भगवान सब मंगल करेंगे। चलिये, विश्राम करें।
[कुसुमपुर के राज-मंदिर में सम्राट कुमारगुप्त और उनके पारिषद्]
धातुसेन–परम भट्टारक! आपने भी स्वयं इतने विकट युद्ध किये है! मैंने तो समझा था, राजसिंहासन पर बैठे-बैठे राजदंड हिला देने से ही इतना बड़ा गुप्त-साम्राज्य स्थापित हो गया था; परंतु-
कुमारगुप्त–(हँसते हुए) तुम्हारी लंका में अब राक्षस नहीं रहते? क्यों धातुसेन!
धातुसेन–राक्षस यदि कोई था तो विभीषण, और बन्दरों में भी एक सुग्रीव हो गया था। दक्षिणापथ आज भी उनकी करनी का फल भोग रहा है। परंतु हाँ, एक आश्चर्य की बात है कि महामान्य परमेश्वर परम भट्टारक को भी युद्ध करना पड़ा! रामचंद्र ने तो, सुना था, जब वे युवराज भी न थे तभी, युद्ध किया था। सम्राट होने पर भी युद्ध!
कुमार॰-—युद्ध तो करना ही पड़ता है। अपनी सत्ता बना रखने के लिये यह आवश्यक है।
धातु॰–-अच्छा तो स्वर्गीय आर्य्य समुद्रगुप्त ने देवपुत्रों तक का राज्य-विजय किया था, सो उनके लिये परम आवश्यक था? क्या पाटलीपुत्र के समीप ही वह राष्ट्र था?
कुमार॰-—तुम भी बालि की सेना में से कोई बचे हुए हो!
धातु॰–परम भट्टारक की जय हो! बालि की सेना न थी, और वह युद्ध न था। जब उसमें लड्डू खानेवाले सुग्रीव निकल पड़े, तब फिर-
कुमार॰-—क्यों?
धातु॰–उनकी बड़ी सुन्दर ग्रीवा में लड्डू अत्यंत सुशोभित होता था, और सबसे बड़ी बात तो थी बालि के लिये–उनकी तारा का मंत्रित्व। सुना है सम्राट! स्त्री की मंत्रणा बड़ी अनुकूल और उपयोगी होती है, इसीलिये उन्हें राज्य की झंझटो से शीघ्र छुट्टी मिल गई। परम भट्टारक की दुहाई! एक स्त्री को मंत्री आप भी बना लें, बड़े-बड़े दाढ़ी मूँछवाले मंत्रियों के बदले उसकी एकांत मंत्रणा कल्याणकारिणी होगी।
कुमार॰–(हँसते हुए) लेकिन पृथ्वीसेन तो मानते ही नहीं।
धातु॰–तब मेरी सम्मति से वे ही कुछ दिनों के लिये स्त्री हो जायँ; क्यों कुमारामात्यजी?
पृथ्वीसेन–-पर तुम तो स्त्री नहीं हो जो मैं तुम्हारी सम्मति मान लूँ?
कुमार–(हँसता हुआ) हाँ, तो आर्य्य समुद्रगुप्त को विवश होकर उन विद्रोही विदेशियों का दमन करना पड़ा, क्योंकि मौर्य्य साम्राज्य के समय से ही सिंधु के उस पार का देश भी भारत-साम्राज्य के अन्तर्गत था। जगद्विजेता सिकन्दर के सेनापति सिल्यूकस से उस प्रान्त को मौर्य्य सम्राट चंद्रगुप्त ने लिया था।
धातु॰–फिर तो लड़कर ले लेने की एक परम्परा-सी लग जाती है। उनसे उन्होंने, उन्होंने उनसे, ऐसे ही लेते चले आये हैं। उसी प्रकार आर्य्य!……
कुमार॰-—उँह! तुम समझते नही। मनु ने इसकी व्यवस्था दी है।
धातु॰-–नहीं धर्म्मावतार! समझ में तो इतनी बात आ गई कि लड़कर ले लेना ही एक प्रधान स्वत्व है। संसार में इसीका बोलबाला है।
भटार्क–-नहीं तो क्या रोने से, भीख माँगने से कुछ अधिकार मिलता है? जिसके हाथों में बल नहीं, उसका अधिकार ही कैसा है और यदि माँगकर मिल भी जाय, तो शान्ति की रक्षा कौन करेगा?
मुद्गल–(प्रवेश करके) रक्षा पेट कर लेगा, कोई दे भी तो। अक्षय तूणीर, अक्षय कवच सब लोगों ने सुना होगा; परन्तु इस अक्षय मंजूषा का हाल मेरे सिवा कोई नहीं जानता! इसके भीतर कुछ रखकर देखो, मैं कैसी शान्ति से बैठा रहता हूँ!
(पद्मासन से बैठ जाता है)
पृथ्वीसेन–परम भट्टारक की जय हो! मुझे कुछ निवेदन करना है–यदि आज्ञा हो तो।
कुमार॰–हाँ, हाँ, कहिये।
पृथ्वीसेन–शिप्रा के इस पार साम्राज्य का स्कंधावार स्थापित है। मालवेश का दूत भी आ गया है कि ‘हम ससैन्य युवराज के सहायतार्थ प्रस्तुत है।’ महानायक पर्णदत्त ने भी अनुकूल समाचार भेजा है।
कुमार॰—-मालव का इस अभियान से कैसा भाव है, कुछ पता चला? क्योंकि यह युद्ध तो जान-बूझकर छेड़ा गया है ।
पृथ्वी॰–अपने मुख से मालवेश ने दूत से यहाँ तक कहा था कि युवराज को कष्ट देने की क्या आवश्यकता थी, आज्ञा पाने ही से मैं स्वयं इसे ठीक कर लेता।
कुमार॰–महासान्धि-विग्रहिक! साधु! यह वंश-परंपरागत तुम्हारी ही विद्या है।
पृथ्वीसेन–सम्राट के श्रीचरणों का प्रताप है। सौराष्ट्र से भी नवीन समाचार मिलनेवाला है। इसीलिये युवराज को वहाँ भेजने का मेरा अनुरोध था।
भटार्क–-सौराष्ट्र की गति-विधि देखने के लिये एक रणदक्ष सेनापति की आवश्यकता है। वहाँ शक-राष्ट्र बड़ा चञ्चल अथच भयानक है।
पृथ्वीसेन–(गूढ़ दृष्टि से देखते हुए) महाबलाधिकृत| आवश्यकता होने पर आपको वहाँ जाना ही होगा, उत्कंठा की आवश्यकता नहीं।
भटार्क–नहीं, मै तो.. … ..
कुमार॰-–महाबलाधिकृत! तुम्हारी स्मरणीय सेवा स्वीकृत होगी। अभी आवश्यकता नहीं।
धातुसेन–-( हाथ जोड़कर ) यदि दक्षिणापथ पर आक्रमण का आयोजन हो तो मुझे आज्ञा मिले। मेरा घर पास है, मैं जा कर स्वच्छंदता-पूर्वक लेट रहूँगा, सेना को भी कष्ट न होने पावेगा।
(सब हँसते है)
मुद्गल–जय हो देव। पाकशाला पर चढ़ाई करनी हो तो मुझे आज्ञा मिले। मैं अभी उसका सर्वस्वांत कर डालूँ।
( फिर सब हँसते हैं। गंभीर भाव से अभिवादन करते हुए–एक ओर पृथ्वीसेन और दूसरी ओर भटार्क का प्रस्थान। )
कुमार॰–मुद्गल! तुम्हारा कुछ… ..
मुद्गल–महादेवी ने प्रार्थना की है कि युवराज भट्टारक को कल्याण-कामना के लिये चक्रपाणि भगवान की पूजा की सब सामग्री प्रस्तुत है। आर्य्यपुत्र कब चलेंगे?
कुमार०—( मुँह बनाकर ) आज तो कुछ पारसीक नर्त्तकियाँ आनेवाली है आपानक भी है ! महादेवी से कह देना, असंतुष्ट न हो, कल चलूँगा ! समझा न मुद्गल ?
मुगल–( खड़ा होकर ) परमेश्वर परम भट्टारक की जय हो !
( जाता है )
धातुसेन—वह चाणक्य कुछ भाँग पीता था। उसने लिखा है। कि राजपुत्र भेड़िये है, इनके पिता को सदैव सावधान रहना चाहिये।
कुमार०–यह राष्ट्र-नीति है ।
(अनन्तदेवी को चुपचाप प्रवेश)
धातु०–भूल गया । उसके बदले उस ब्राह्मण को लिखना था कि राजा लोग व्याह ही न करे, क्यों भेड़ियो-सी संतान उत्पन्न हो ?
अनन्तदेवी–( सामने आकर ) आर्यपुत्र की जय हो !
( धातुसेन भयभीत होने का-सा मुंह बनाकर चुप हो जाता है )।
कुसार०—आओ प्रिये ! तुम्हें खोज ही रहा था ।
अनन्त–नर्त्तकियों को बुलवाती आ रही हूँ। कुमारामात्य आदि थे, मन्त्रणा में बाधा समझकर, जान-बूझकर देर लगाई। आपको तो देखती हूँ कि अवकाश ही नहीं ।
( धातुसेन की और क्रुद्ध होकर देखती है )
कुमार०—वह अबोध विदेशी हँसोड़ है ।
अनंत०–तब भी सीमा होनी चाहिये ।
धातु॰–चाणक्य का नाम ही कौटिल्य है। उनके सूत्रों की व्याख्या करने जाकर ही यह फल मिला। क्षमा मिले तो एक बात और पूछ लूँ; क्योंकि फिर इस विषय का प्रश्न न करूँगा।
अनंत॰–पूछ लो।
धातु॰–उसके अनर्थशास्त्र में विषकन्या का… ..
कुमार॰–( डाँटकर ) चुप रहो।
( नर्त्तकियों का गाते हुए प्रवेश )
न छेड़ना उस अतीत स्मृति से
खिचे हुए बीन-तार कोकिल
करुण रागिनी तड़प उठेगी
सुना न ऐसी पुकार कोकिल
हृदय धूल में मिला दिया है
उसे चरण-चिन्ह-सा किया है
खिले फूल सब गिरा दिया है
न अब बसंती बहार कोकिल
सुनी बहुत आनंद-भैरवी
विगत हो चुकी निशा-माधवी
रही न अब शारदी कैरवी
न तो मघा की फुहार कोकिल
न खोज पागल मधुर प्रेम को
न तोड़ना और के नेम को
बचा विरह मौन के क्षेम को
कुचाल अपनी सुधार कोकिल
[ पट-परिवर्तन ]
[ पथ में मातृगुप्त ]
मातृ॰–कविता करना अनन्त पुण्य का फल है। इस दुराशा और अनन्त उत्कंठा से कवि-जीवन व्यतीत करने की इच्छा हुई। संसार के समस्त अभावों को असंतोष कहकर हृदय को धोखा देता रहा। परन्तु कैसी विडम्बना! लक्ष्मी के लालों को भ्रूभंग और क्षोभ की ज्वाला के अतिरिक्त मिला क्या?–-एक काल्पनिक प्रशंसनीय जीवन, जो कि दूसरों की दया में अपना अस्तित्व रखता है! संचित हृदय-कोष के अमूल्य रत्नों की उदारता और दारिद्र्य का व्यंग्यात्मक कठोर अट्टहास, दोनों की विषमता की कौन-सी व्यवस्था होगी। मनोरथ को–भारत के प्रकांड बौद्ध पंडित को-–परास्त करने में मैं भी सबकी प्रशंसा का भाजन बना। परंतु हुआ क्या ?
(मुद्गल का प्रवेश)
मुद्गल–कहिये कविजी! आप तो बहुत दिन पर दिखाई पड़े! कुलपति की कृपा से कही अध्यापन-कार्य मिल गया क्या?
मातृ॰–मैं तो अभी यों ही बैठा हूँ।
मुद्गल–क्या बैठे-बैठे काम चल जाता है? तब तो भाई, तुम बड़े भाग्यवान हो। कविता करते हो न? भाई! उसे छोड़ दो।
मातृ॰-–क्यों? वही तो मेरे भूखे हृदय का आहार है! कवित्व–वर्णमय चित्र है, जो स्वर्गीय भाव-पूर्ण संगीत गाया करता है। अंधकार का आलोक से, असत् का सत् से, जड़ का चेतन से, और बाह्य जगत् का अन्तर्जगत् से सम्बन्ध कौन कराती है? कविता ही न!
मुद्गल–परन्तु हाथ का मुख से, पेट का अन्न से, और आँखों का निद्रा से भी सम्बन्ध होता है कि नहीं? इसको भी कभी सोचा-विचारा है?
मातृगुप्त–संसार में क्या इतनी ही वस्तुएँ विचारने की है? पशु भी इनकी चिन्ता कर लेते होंगे।
मुद्गल–और मनुष्य पशु नहीं है; क्योंकि उसे बातें बनाना आता है–अपनी मूर्खता को छिपाना, पापों पर बुद्धिमानी का आवरण चढ़ाना आता है! और वाग्जाल की फाँस उसके पास है। अपनी घोर आवश्यकताओं में कृत्रिमता बढ़ाकर, सभ्य और पशु से कुछ ऊँचा द्विपद् मनुष्य, पशु बनने से बच जाता है।
मातृगुप्त–होगा, तुम्हारा तात्पर्य्य क्या है?
मुद्गल–विचार-पूर्ण स्वप्न-मय जीवन छोड़कर वास्तविक स्थिति में आओ। ब्राह्मण-कुमार हो, इसीलिये दया आती है।
मातृगुप्त–क्या करूँ?
मुद्गल–मैं दो-चार दिन मे अवंती जानेवाला हूँ; युवराज भट्टारक के पास तुम्हें रखवा दूँगा। अच्छी वृत्ति मिलने लग जायगी। है स्वीकार?
मातृगुप्त–पर तुम्हे मेरे ऊपर इतनी दया क्यों?
मुद्गल–तुम्हारी बुद्धिमत्ता देखकर मैं प्रसन्न हुआ हूँ। उसी दिन से मैं खोजता था। तुम जानते हो कि राजकृपा का अधिकारी होने के लिये समय की आवश्यकता है। बड़े लोगों की एक दृढ़ धारणा होती है कि, ‘अभी टकराने दो, ऐसे बहुत आया-जाया करते हैं।’
मातृगुप्त–तब तो बड़ी कृपा है। मैं अवश्य चलूँगा। काश्मीरमंडल में हूणों का आतंक है, शास्त्र और संस्कृत-विद्या का कोई पूछनेवाला नहीं। म्लेच्छाक्रान्त देश छोड़कर राजधानी मे चला आया था। अब आप ही मेरे पथ-प्रदर्शक हैं।
मुद्गल–अच्छा तो मैं जाता हूँ, शीघ्र ही मिलूंगा। तुम चलने के लिये प्रस्तुत रहना।
(जाता है)
मातृगुप्त–काश्मीर! जन्मभूमि!! जिसकी धूलि में लोट कर खड़े होना सीखा, जिसमे खेल-खेलकर शिक्षा प्राप्त की, जिसमें जीवन के परमाणु संगठित हुए थे, वही छूट गया! और बिखर गया एक मनेाहर स्वप्न, आह! वही जो मेरे इस जीवन-पथ का पाथेय रहा!
प्रिय!
संसृति के वे सुंदरतम क्षण यों ही भूल नहीं जाना
‘वह उच्छृङ्खलता थी अपनी’–कहकर मन मत बहलाना
मादकता-सी तरल हँसी के प्याले में उठती लहरी
मेरे निश्वासों से उठकर अधर चूमने को ठहरी
मैं व्याकुल परिरंभ-मुकुल में बन्दी अलि-सा काँप रहा
छलक उठा प्याला, लहरी में मेरे सुख को माप रहा
सजग सुप्त सौंदर्य्य हुआ, हो चपल चलीं भौहें मिलने
लीन हो गई लहरें, लगे मेरे ही नख छाती छिलने
श्यामा का नखदान मनोहर मुक्ताओं से ग्रथित रहा
जीवन के उस पार उड़ाता हँसी, खड़ा मैं चकित रहा
तुम अपनी निष्ठुर क्रीड़ा के विभ्रम से, बहकाने से
सुखी हुए, फिर लगे देखने मुझे पथिक पहचाने-से
उस सुख का आलिङ्गन करने कभी भूलकर आ जाना
मिलन-क्षितिज-तट मधु-जलनिधि में मृदु हिलकोर उठा जाना
कुमारदास–(प्रवेश करके) साधु!
मातृगुप्त–(अपनी भावना में तल्लीन जैसे किसीको न देख रहा हो) अमृत के सरोवर में स्वर्ण-कमल खिल रहा था, भ्रमर वंशी बजा रहा था, सौरभ और पराग की चहल-पहल थी। सवेरे सूर्य्य की किरणें उसे चूमने को लोटती थी, संध्या में शीतल चाँदनी उसे अपनी चादर से ढंक देती थी। उस मधुर सौन्दर्य, उस अतीन्द्रिय जगत् की साकार कल्पना की ओर मैंने हाथ बढ़ाया था, वहीं–वहीं स्वप्न टूट गया!
कुमारदास–समझ में न आया, सिंहल में और काश्मीर में क्या भेद है। तुम गौरवर्ण हो, लम्बे हो, खिंची हुई भौंहें हैं; सब होने पर भी सिंहलियो की घुँघराली लट, उज्ज्वल श्याम शरीर, क्या स्वप्न में देखने की वस्तु नहीं?
मातृगुप्त–(कुमारदास को जैसे सहसा देखकर) पृथ्वी की समस्त ज्वाला को जहाँ प्रकृति ने अपने बर्फ के अञ्चल से ढँक दिया है, उस हिमालय के–
कुमारदास–और बड़वानल की अनन्त जलराशि से जो संतुष्ट कर रहा है, उस रत्नाकर को–अच्छा जाने दो, रत्नाकर नीचा है, गहरा है। हिमालय ऊँचा है, गर्व से सिर उठाये है, तब जय हो काश्मीर की! हाँ, उस हिमालय के…… ..
मातृगुप्त–उस हिमालय के ऊपर प्रभात–सूर्य्य की सुनहरी प्रभा से आलोकित बर्फ़ का, पीले पोखराज का-सा, एक महल था। उसीसे नवनीत की पुतली झाँककर विश्व को देखती थी। वह हिम की शीतलता से सुसंगठित थी। सुनहरी किरणों को जलन हुई। तप्त होकर महल को गला दिया। पुतली! उसका मंगल हो, हमारे अश्रु की शीतलता उसे सुरक्षित रखे। कल्पना की भाषा के पंख गिर जाते हैं, मौन-नीड़ में निवास करने दो। छेड़ो मत मित्र।
कुमारदास–तुम विद्वान हो, सुकवि हो, तुमको इतना मोह?
मातृगुप्त–यदि यह विश्व इन्द्रजाल ही है, तो उस इन्द्रजाली की अनन्त इच्छा को पूर्ण करने का साधन–यह मधुर मोह चिरजीवी हो और अभिलाषा से मचलनेवाले भूखे हृदय को आहार मिले।
कुमारदास–मित्र! तुम्हारी कोमल कल्पना, वाणी की वीणा में झनकार उत्पन्न करेगी। तुम सचेष्ट बनो, प्रतिभाशील हो। तुम्हारा भविष्य बड़ा उज्ज्वल है।
मातृगुप्त–उसकी चिंता नहीं। दैन्य जीवन के प्रचंड आतप में सुन्दर स्नेह मेरी छाया बने! झुलसा हुआ जीवन धन्य हो जाएगा।
कुमारदास–मित्र! इन थोड़े दिनों का परिचय मुझे आजीवन स्मरण रहेगा। अब तो मैं सिंहल जाता हूँ–देश की पुकार है। इसलिये मैं स्वप्नों का देश ‘भव्य भारत’ छोड़ता हूँ। कविवर! इस क्षीण-परिचय कुमार धातुसेन को भूलना मत–कभी आना।
मातृगुप्त–सम्राट कुमारगुप्त के सहचर, विनोदशील कुमारदास! तुम क्या कुमार धातुसेन हो?
कुमारदास–हाँ मित्र, लंका का युवराज। हमारा एक मित्र, एक बाल-सहचर, प्रख्यातकीर्ति, महाबोधि-विहार का श्रमण है। उसे और गुप्त-साम्राज्य का वैभव देखने पर्य्यटक के रूप में भारत चला आया था। गौतम के पद-रज से पवित्र भूमि को खूब देखा और देखा दर्प से उद्धत गुप्त-साम्राज्य के तीसरे पहर का सूर्य्य। आर्य्य-अभ्युत्थान का यह स्मरणीय युग है। मित्र, परिवर्तन उपस्थित है।
मातृगुप्त–सम्राट कुमारगुप्त के साम्राज्य में परिवर्तन!
धातुसेन–सरल युवक! इस गतिशील जगत् में परिवर्तन पर आश्चर्य! परिवर्तन रुका कि महापरिवर्तन–प्रलय–हुआ! परिवर्तन ही सृष्टि है, जीवन है। स्थिर होना मृत्यु है, निश्चेष्ट शांति मरण है। प्रकृति क्रियाशील है। समय पुरुष और स्त्री की गेंद लेकर दोनों हाथ से खेलता है। पुल्लिंग और स्त्रीलिंग की समष्टि अभिव्यक्ति की कुंजी है। पुरुष उछाल दिया जाता है, उत्पेक्षण होता है। स्त्री आकर्षण करती है। यही जड़ प्रकृति का चेतन रहस्य है।
मातृगुप्त–निस्सन्देह। अनन्तदेवी के इशारे पर कुमारगुप्त नाच रहे हैं। अद्भुत पहेली है!
धातुसेन-पहेली! यह भी रहस्य ही है। पुरुष है-कुतूहल और प्रश्न, और स्त्री है विश्लेषण, उत्तर और सब बातों का समाधान। पुरुष के प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देने के लिये वह प्रस्तुत है। उसके कुतूहल-उसके अभावों को परिपूर्ण करने का उष्ण प्रयत्न और शीतल उपचार! अभागा मनुष्य संतुष्ट है – बच्चों के समान। पुरुष ने कहा-‘क’, स्त्री ने अर्थ लगा दिया-‘कौवा’; बस, वह रटने लगा। विषय-विह्वल वृद्ध सम्राट, तरुणी की आकांक्षाओं के साधन बन रहे हैं। काले मेघ क्षितिज में एकत्र हैं, शीघ्र ही अन्धकार होगा। परंतु आशा का केन्द्र ध्रुवतारा एक युवराज ‘स्कंद’ है। निर्मम शून्य आकाश में शीघ्र ही अनेक वर्ण के मेघ रंग भरेंगे। एक विकट अभिनय का आरम्भ होनेवाला है। तुम भी संभवतः उसके अभिनेताओं में से एक होगे। सावधान! सिंहल तुम्हारे लिये प्रस्तुत हैं। (प्रस्थान)
मातृगुप्त-विचक्षण उदार राजकुमार!
[प्रस्थान]
[अनन्तदेवी का सुसज्जित प्रकोष्ठ]
अनन्तदेवी–जया! रात्रि का द्वितीय प्रहर तो व्यतीत हो रहा है, अभी भटार्क के आने का समय नहीं हुआ?
जया–स्वामिनी! आप बड़ा भयानक खेल खेल रही हैं।
अनन्त–क्षुद्र हृदय–जो चूहे के शब्द से भी शंकित होते हैं, जो अपनी साँस से ही चौंक उठते हैं, उनके लिये उन्नति का कंटकित मार्ग नहीं है। महत्त्वाकांक्षा का दुर्गम स्वर्ग उनके लिये स्वप्न है।
जया–परंतु राजकीय अन्तःपुर की मर्यादा बड़ी कठोर अथच फूल से कोमल है।
अनन्त॰-अपनी नियति का पथ मैं अपने पैरों चलूँगी, अपनी शिक्षा रहने दें।
(जया कपाट के समीप कान लगाती हैं, सकेत होता है, गुप्त द्वार
खुलते ही भटार्क सामने उपस्थित होता है।)
भटार्क–महादेवी की जय हो!
अनन्त॰–परिहास न करो मगध के महाबलाधिकृत! देवकी के रहते किस साहस से तुम मुझे महादेवी कहते हो?
भटार्क–हमारा हृदय कह रहा है, और आये दिन साम्राज्य की जनता, प्रजा, सभी कहेगी।
अनंत॰-–मुझे विश्वास नहीं होता।
भटार्क–महादेवी! कल सम्राट के समक्ष जो विद्रूप और व्यङ्ग-बाण मुझपर बरसाये गये है, वे अन्तस्तल मे गड़े हुए हैं। उनके निकालने का प्रयत्न नहीं करूंगा, वे ही भावी विप्लव में सहायक होंगे। चुभ-चुभकर वे मुझे सचेत करेंगे। मैं उन पथ-प्रदर्शकों का अनुसरण करूँगा। बाहुबल से, वीरता से और अनेक प्रचंड पराक्रमों से ही मुझे मगध के महाबलाधिकृत का माननीय पद मिला है; मैं उस सम्मान की रक्षा करूंगा। महादेवी! आज मैंने अपने हृदय के मार्मिक रहस्य का अकस्मात् उद्घाटन कर दिया है। परन्तु वह भी जान-बूझकर–समझकर। मेरा हृदय शूलों के लौहफलक सहने के लिये है, क्षुद्र विष-वाक्य-बाण के लिये नहीं।
अनन्त॰–तुम वीर हो भटार्क! यह तुम्हारे उपयुक्त ही है। देवकी का प्रभाव जिस उग्रता से बढ़ रहा है, उसे देखकर मुझे पुरगुप्त के जीवन में शंका हो रही है। महाबलाधिकृत! दुर्बल माता का हृदय उसके लिये आज ही से चिन्तित है, विकल है। सम्राट की मति एक-सी नहीं रहती, वे अव्यवस्थित और चंचल हैं। इस अवस्था में वे विलास की अधिक मात्रा से केवल जीवन के जटिल सुखों की गुत्थियाँ सुलझाने में व्यस्त हैं।
भटार्क–मैं सब समझ रहा हूँ। पुष्यमित्रों के युद्ध में मुझे सेनापति की पदवी नही मिली, इसका कारण भी मैं जानता हूँ। मैं दूध पीनेवाला शिशु नहीं हूं। और यह मुझे स्मरण है कि पृथ्वीसेन के विरोध करने पर भी आपकी कृपा से मुझे महाबलाधिकृत का पद मिला है। मैं कृतघ्न नहीं हूँ, महादेवी! आप निश्चिन्त रहें।
अनन्त॰–पुष्यमित्रों के युद्ध में भेजने के लिये मैंने भी कुछ समझकर उद्योग नहीं किया। भटार्क! क्रान्ति उपस्थित है, तुम्हारा यहाँ रहना आवश्यक है।
भटार्क–क्रान्ति के सहसा इतना समीप उपस्थित होने के तो कोई लक्षण मुझे नहीं दिखाई पड़ते।
अनन्त॰–राजधानी में आनन्द-विलास हो रहा है, और पारसीक मदिरा की धारा बह रही है; इनके स्थान पर रक्त की धारा बहेगी! आज तुम कालागुरु के गंध-धूम से सन्तुष्ट हो रहे हो, कल इन उच्च सौध-मन्दिरों में महापिशाची की विप्लव-ज्वाला धधकेगी! उस चिरायँध की उत्कट गंध असह्य होगी। तब तुम भटार्क! उस आगामी खंड-प्रलय के लिये प्रस्तुत हो कि नही? (ऊपर देखती हुई) उहूँ, प्रपंचबुद्धि की कोई बात आज तक मिथ्या नहीं हुई।
भटार्क–कौन प्रपंचबुद्धि?
अनन्त॰–सूचीभेद्य अंधकार में छिपनेवाली रहस्यमयी नियति का–प्रज्वलित कठोर नियति का–नील आवरण उठा कर झाँकनेवाला। उसकी आँखो मे अभिचार का संकेत है; मुस्कराहट में विनाश की सूचना है; आँधियों से खेलता है, बातें करता है–बिजलियो से आलिंगन!
(प्रपंचबुद्धि का सहसा प्रवेश)
प्रपंचबुद्धि–स्मरण है भाद्र की अमावस्या?
(भटार्क और अनन्तदेवी सहमकर हाथ जोड़ते हैं)
अनन्त॰–स्मरण है, भिक्षु-शिरोमणे ! उसे मैं भूल सकती हूँ!
प्रपंच॰–कौन, महाबलाधिकृत! हँ हँ हँ हँ, तुम लोग सद्धर्म के अभिशाप की लीला देखोगे; है आँखों में इतना बल? क्यों, समझ लिया था कि इन मुंडित-मस्तक जीर्ण-कलेवर भिक्षु-कंकालों में क्या धरा है। देखो–शव-चिता में नृत्य करती हुई तारा का तांडव नृत्य, शून्य सर्वनाशकारिणी प्रकृति की मुंड-मालाओ की कंदुक-क्रीड़ा! अश्वमेध हो चुके, उनके फलस्वरूप महानरमेध का उपसंहार भी देखो। (देखकर) है तुझमें–तू करेगा? अच्छा महादेवी! अमावस्या के पहले प्रहर में, जब नील गगन से भयानक और उज्ज्वल उल्कापात होगा, महा-शून्य की ओर देखना। जाता हूँ। सावधान!
(प्रस्थान)
भटार्क–महादेवी! यह भूकंप के समान हृदय को हिला देने-वाला कौन व्यक्ति है? ओह, मेरा तो सिर घूम रहा है!
अनन्त॰–यही तो भिक्षु प्रपंचबुद्धि है!
भटार्क–तब मुझे विश्वास हुआ। यह क्रूर-कठोर नर-पिशाच मेरी सहायता करेगा। मैं उस दिन के लिये प्रस्तुत हूँ।
अनन्त॰–तब प्रतिश्रुत होते हो?
भटार्क–दास सदैव अनुचर रहेगा।
अनन्त॰–अच्छा, तुम इसी गुप्त द्वार से जाओ। देखूँ, अभी कादम्ब की मोह-निद्रा से सम्राट जगे कि नहीं!
जया–(प्रवेश करके) परम भट्टारक अंगड़ाइयाँ ले रहे हैं। स्वामिनी, शीघ्र चलिये।
(जया का प्रस्थान)
भटार्क–तो महादेवी, आज्ञा हो।
अनन्त॰–(देखती हुई) भटार्क! जाने को कहूँ ? इस शत्रुपुरी में मैं असहाय अबला इतना–आह! (आँसू पोछती है)
भटार्क–धैर्य्य रखिये। इस सेवक के बाहुबल पर विश्वास कीजिये।
अनन्त॰–तो भटार्क, जाओ।
(जया का सहसा प्रवेश)
जया–चलिये शीघ्र!
(दोनों जाती हैं)
भटार्क–एक दुर्भेद्य नारी-हृदय में विश्व-प्रहेलिका का रहस्यबीज है। ओह, कितनी साहसशीला स्त्री है! देखूँ, गुप्त-साम्राज्य के भाग्य की कुंजी यह किधर घुमाती है। परन्तु इसकी आँखों में काम-पिपासा के संकेत अभी उबल रहे हैं। अतृप्ति की चंचल प्रवञ्चना कपोलों पर रक्त होकर क्रीड़ा कर रही है। हृदय में श्वासों की गरमी विलास का संदेश वहन कर रही है। परन्तु… अच्छा चलूँ, यह विचार करने का स्थान नहीं है।
( गुप्त द्वार से जाता है )
[ पट-परिवर्तन ]
[अन्तःपुर का द्वार]
शर्वनाग–( टहलता हुआ ) कौन-सी वस्तु देखी ? किस सौंदर्य पर मन रीझा ? कुछ नहीं, सदैव इसी सुन्दरी खङ्ग-लता की प्रभा पर मैं मुग्ध रहा। मैं नहीं जानता कि और भी कुछ सुन्दर है। वह मेरी स्त्री जिसके अभावों का कोष कभी खाली नहीं, जिसकी भर्त्सनाओं का भांडार अक्षय है, उससे मेरी अंतरात्मा काँप उठती है। आज मेरा पहरा है। घर से जान छूटी, परन्तु रात बड़ी भयानक है। चलें अपने स्थान पर बैठूँ ! सुनता हूँ कि परम भट्टारक की अवस्था अत्यन्त शोचनीय है– जाने भगवान…
( भटार्क का प्रवेश )
भटार्क–कौन?
शर्वनाग–नायक शर्वनाग।
भटार्क–कितने सैनिक हैं?
शर्व॰–पूरा एक गुल्म।
भटार्क–अंतःपुर से कोई आज्ञा मिली है?
शर्व॰–नही।
भटार्क–तुमको मेरे साथ चलना होगा।
शर्व–मैं प्रस्तुत हूँ; कहाँ चलूँ?
भटार्क–महादेवी के द्वार पर।
शर्व॰–वहाँ मेरा क्या कर्त्तव्य होगा?
भटार्क–कोई न तो भीतर जाने पावे और न भीतर से बाहर आने पावे।
शर्व॰–(चौंककर) इसका तात्पर्य्य?
भटार्क–(गम्भीरता से) तुमको महाबलाधिकृत की आज्ञा पालन करनी चाहिये।
शर्व॰–तब भी क्या स्वयं महादेवी पर नियंत्रण रखना होगा?
भटार्क–हाँ।
शर्व॰–ऐसा!
भटार्क–ऐसा ही।
(कोलाहल, भीषण उल्कापात)
भटार्क–ओह, ठीक समय हो गया! अच्छा, मैं अभी आता हूँ।
(द्वार खोलकर भटार्क भीतर जाता है)
(रामा का प्रवेश)
रामा–क्यों, तुम आज यहीं हो?
शर्व॰–मै, मैं, यही हूँ; तुम कैसे?
रामा–मूर्ख! महादेवी सम्राट को देखना चाहती हैं, परन्तु उनके आने में बाधा है। गोबर-गणेश! तू कुछ कर सकता है?
शर्व॰–मैं क्रोध से गरजते हुए सिंह की पूँछ उखाड़ सकता हूँ, परन्तु सिंहवाहिनी! तुम्हे देखकर मेरे देवता कूच कर जाते हैं!
रामा–(पैर पटककर) तुम कीड़े से भी अपदार्थ हो!
शर्व॰–न न न न, ऐसा न कहो, मै सब कुछ हूँ। परन्तु मुझे घबराओ मत; समझाकर कहो। मुझे क्या करना होगा?
रामा–महादेवी देवकी की रक्षा करनी होगी, समझा? क्या आज इस संपूर्ण गुप्त-साम्राज्य में कोई ऐसा प्राणी नहीं, जो उनको रक्षा करे! शत्रु अपने विषैले डंक और तीखे डाढ़ सँवार रहे हैं। पृथ्वी के नीचे कुमंत्रणाओं का क्षीण भूकम्प चल रहा है।
शर्व॰–यही तो मैं भी कभी-कभी सोचता था। परन्तु…
रामा–तुम, जिस प्रकार हो सके, महादेवी के द्वार पर आओ, मै जाती हूँ।
(जाती हैं)
(एक सैनिक का प्रवेश)
सैनिक–नायक! न जाने क्यों हृदय दहल उठा है, जैसे सनसन करती हुई, डर से, यह आधी रात खिसकती जा रही है! पवन में गति है, परन्तु शब्द नहीं। ‘सावधान’ रहने का शब्द मैं चिल्लाकर कहता हूँ, परन्तु मुझे ही सुनाई नहीं पड़ता है। यह सब क्या है नायक?
शर्व॰–तुम्हारी तलवार कहीं भूल तो नहीं गई है?
सैनिक–म्यान हल्की-सी लगती है, टटोलता हूँ–पर…
शर्व॰–तुम घबराओ मत, तीन साथियों को साथ लेकर घूमो, सबको सचेत रक्खो। हम इसी शिला पर हैं, कोई डरने की बात नहीं।
(सैनिक जाता हैं, फाटक खोलकर पुरगुप्त निकलता है, पीछे भटार्क और सैनिक।)
पुरगुप्त–नायक शर्वनाग!
शर्व॰–जय हो कुमार की! क्या आज्ञा है?
पुरगुप्त–तुम साम्राज्य की शिष्टता सीखो।
शर्व॰–कुमार! दास चिर-अपराधी है। (सिर झुका लेता है)
भटार्क–इन्हें महादेवी के द्वार पर जाने की आज्ञा दीजिये, यह विश्वस्त सैनिक वीर हैं।
पुरगुप्त–जाओ तुम महादेवी के द्वार पर। जैसा महाबलाधिकृत ने कहा है, वैसा करना।
शर्व॰–जैसी आज्ञा। (अपने सैनिकों को साथ लेकर जाता है, दूसरे नायक और सैनिक परिक्रमण करते है।)
भटार्क–कोई भी पूछे तो यह मत कहना कि सम्राट का निधन हो गया है। हाँ, बढ़ी हुई अस्वस्थता का समाचार बतलाना और सावधान, कोई भी–चाहे वह कुमारामात्य ही क्यों न हो–भीतर न आने पावे। तुम यही कहना कि परम भट्टारक अत्यन्त विकल हैं, किसीसे मिलना नहीं चाहते। समझा?
नायक–अच्छा ……
(दोनों जाते हैं, फाटक बन्द होता है)
नायक–(सैनिकों से) आज बड़ी विकट अवस्था है, भाइयो! सावधान!
(कुमारामात्य, पृथ्वीसेन, महादंडनायक और महाप्रतिहार का प्रवेश)
महाप्रतिहार–नायक, द्वार खोलो, हम लोग परम भट्टारक का दर्शन करेंगे।
नायक–प्रभु! किसीको भीतर जाने की आज्ञा नही हैं।
महाप्रतिहार–(चौंककर) आज्ञा! किसकी आज्ञा! तू नहीं जानता–-सम्राट के अंतःपुर पर स्वयं सम्राट का भी उतना अधिकार नहीं जितना महाप्रतिहार का? शीघ्र द्वार उन्मुक्त कर।
नायक–दंड दीजिये प्रभु, परन्तु द्वार न खुल सकेगा।
महाप्रति॰–तू क्या कह रहा है!
नायक–जैसी भीतर से आज्ञा मिली है।
कुमारामात्य–(पैर पटककर) ओह!
दंडनायक–विलम्ब असह्य है, नायक! द्वार से हट जाओ।
महाप्रति॰–मैं आज्ञा देता हूँ कि तुम अंतःपुर से हट जाओ युवक! नहीं तो तुम्हें पदच्युत करूँगा!
नायक–यथार्थ है। परन्तु मैं महाबलाधिकृत की आज्ञा से यहाँ हूँ, और मैं उन्हीं का अधीनस्थ सैनिक हूँ। महाप्रतिहार के अंतःपुर-रक्षकों में मैं नहीं हूँ।
महाप्रति॰–क्या अंतःपुर पर भी सैनिक नियंत्रण है? पृथ्वीसेन!
पृथ्वीसेन–इसका परिणाम भयानक है। अंतिम शय्या पर लेटे हुए सम्राट की आत्मा को कष्ट पहुँचाना होगा।
महाप्रति॰–अच्छा, (कुछ देखकर) हाँ, शर्वनाग कहाँ गया?
नायक–उसे महाबलाधिकृत ने दूसरे स्थान पर भेजा है।
महाप्रति॰–(क्रोध से) मूर्ख शर्वनाश!
(अंतःपुर से क्षीण क्रंदन)
महादंडनायक–(कान लगाकर सुनते हुए) क्या सब शेष हो गया! हम अवश्य भीतर जायेंगे।
(तीनों तलवार खींच लेते हैं, नायक भी सामने आ जाता है, द्वार खोलकर पुरगुप्त और भटार्क का प्रवेश।)
पृथ्वीसेन–भटार्क! यह सब क्या है?
भटार्क–(तलवार खींचकर सिर से लगाता हुआ) परम भट्टारक राजाधिराज पुरगुप्त की जय हो! माननीय कुमारामात्य, महादंडनायक और महाप्रतिहार! साम्राज्य के नियमानुसार, शस्त्र अर्पण करके, परम भट्टारक का अभिवादन कीजिये।
(तीनों एक दूसरे का मुँह देखते है)
महाप्रतिहार–तब क्या सम्राट कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य अब संसार में नही हैं?
भटार्क–नहीं।
पृथ्वीसेन–परन्तु उत्तराधिकारी युवराज स्कंदगुप्त?
पुरगुप्त–चुप रहो। तुम लोगों को बैठकर व्यवस्था नहीं देनी होगी। उत्तराधिकार का निर्णय स्वयं स्वर्गीय सम्राट कर गये हैं।
पृथ्वीसेन–परन्तु प्रमाण?
पुरगुप्त–क्या तुम्हें प्रमाण देना होगा?
पृथ्वीसेन–अवश्य।
पुरगुप्त–महाबलाधिकृत! इन विद्रोहियों को बन्दी करो।
(भटार्क आगे बढ़ता है)
पृथ्वीसेन–ठहरो भटार्क! तुम्हारी विजय हुई, परन्तु एक बात……
पुरगुप्त–आधी बात भी नहीं, बन्दी करो।
पृथ्वीसेन–कुमार! तुम्हारे दुर्बल और अत्याचारी हाथों में गुप्त-साम्राज्य का राजदंड टिकेगा नहीं। संभवतः तुम साम्राज्य पर विपत्ति का आवाहन करोगे। इसलिये कुमार! इससे विरत हो जाओ।
पुरगुप्त–महाबलाधिकृत! क्यों विलम्ब करते हो?
भटार्क–आप लोग शस्त्र रखकर आज्ञा मानिये।
महाप्रतिहार–आततायी! यह स्वर्गीय आर्य्य चन्द्रगुप्त का दिया हुआ खड्ग तेरी आज्ञा से नहीं रक्खा जा सकता। उठा अपना शस्त्र, और अपनी रक्षा कर!
पृथ्वीसेन–महाप्रतिहार! सावधान! क्या करते हो? यह अन्तर्विद्रोह का समय नहीं है। पश्चिम और उत्तर से काली घटाएँ उमड़ रही हैं, यह समय बल-नाश करने का नहीं है। आओ, हम लोग गुप्त-साम्राज्य के विधान के अनुसार चरम प्रतिकार करें। बलिदान देना होगा। परन्तु भटार्क! जिसे तुम खेल समझकर हाथ में ले रहे हो, उस काल-भुजङ्गी राष्ट्रनीति की–प्राण देकर भी–रक्षा करना। एक नहीं, सौ स्कंदगुप्त उसपर न्योछावर है। आर्य्य-साम्राज्य की जय हो! (छुरा मारकर गिरता है, महाप्रतिहार और दंडनायक भी वैसा ही करते हैं।)
पुरगुप्त–पाखंड स्वयं विदा हो गये-अच्छा ही हुआ।
भटार्क–परन्तु भूल हुई। ऐसे स्वामिभक्त सेवक!
पुरगुप्त–कुछ नहीं। (भीतर जाता है)
भटार्क–तो जायँ, सब जायँ; गुप्त-साम्राज्य के हीरों के-से उज्ज्वल-हृदय वीर युवकों का शुद्ध रक्त, सब मेरी प्रतिहिंसा राक्षसी के लिये बलि हो!
[नगर-प्रान्त में पथ]
मुद्गल–(प्रवेश करके) किसी के सम्मान-सहित निमंत्रण देने पर, पवित्रता से हाथ-पैर धोकर चौके पर बैठ जाना—एक दूसरी बात है; और भटकते, थकते, उछलते, कूदते, ठोकर खाते और लुढ़कते–हाथ-पैर की पूजा करते हुए मार्ग चलना—एक भिन्न वस्तु है। कहाँ हम और कहाँ यह दौड़, कुसुमपुरी से अवन्ती और अवन्ती से मूलस्थान! इस बार की आज्ञा तो पालन करता हूँ; परन्तु, यदि, तथापि, पुनश्च, फिर भी, कभी ऐसी आज्ञा मिली कि इस ब्राह्मण ने साष्टांग प्रणाम किया। अच्छा, इस वृक्ष की छाया में बैठकर विचार कर लूँ कि सैकड़ों योजन लौट चलना अच्छा है कि थेाड़ा और चलकर काम कर लेना!
(गठरी रख बैठकर ऊँघने लगता है, मातृगुप्त का प्रवेश।)
मातृगुप्त–मुझे तो युवराज ने मूलस्थान की परिस्थिति संभालने के लिये भेजा, देखता हूँ कि यह मुद्गल भी यहाँ आ पहुँचा! चलें इसे कुछ तंग करें, थोड़ा मनोविनोद ही सही।
(कपड़े से मुँह छिपाकर, गठरी खींचकर चलता है)
मुद्गल–(उठकर) ठहरो भाई, हमारे जैसे साधारण लोग अपनी गठरी आप ही ढोते हैं; तुम कष्ट न करो। (मातृगुप्त चक्कर काटता है, मुद्गल पीछे-पीछे दौड़ता है।)
मातृगुप्त–(दूर खड़ा होकर) अब आगे बढ़े कि तुम्हारी टाँग टूटी!
मुद्गल–अपनी गठरी बचाने में टाँग टूटना बुरा नहीं, अपशकुन नहीं। तुम यह न समझना कि हम दूर चलते-चलते थक गये हैं। तुम्हारा पीछा न छूटेगा। हम ब्राह्मण हैं, हमसे शास्त्रार्थ कर लो। डंडा न दिखाओ। हाँ, मेरी गठरी जो तुम लेते हो, इसमें कौन-सा न्याय है? बोलो–
मातृगुप्त–न्याय? तब तो तुम आप्तवाक्य अवश्य मानते होगे।
मुद्गल–अच्छा तो तर्कशास्त्र लगाना पड़ेगा?
मातृगुप्त–हाँ; तुमने गीता पढ़ी होगी?
मुद्गल–हाँ अवश्य, ब्राह्मण और गीता न पढ़े!
मातृगुप्त–उसमें तो लिखा है कि “न त्वेवाहं जातु नाऽसौ न त्वं नेमे”–न हम हैं न तुम हो, न यह वस्तु है, न तुम्हारी है न हमारी;–फिर इस छोटी-सी गठरी के लिये इतना झगड़ा!
मुद्गल–ओहो! तुम नहीं समझे।
मातृगुप्त–क्या?
मुद्गल–गीता सुनने के बाद क्या हुआ?
मातृगुप्त–महाभारत!
मुद्गल–तब भइया, इस गठरी के लिये महाभारत का एक लघु संस्करण हो जाना आवश्यक है। गठरी में हाथ लगाया कि डंडा लगा! (डंडा तानता है)
मातृगुप्त–मुद्गल, डंडा मत तानो, मैं वैसा मूर्ख नहीं कि सूच्यग्र-भाग के लिये दूध और मधु से बना हुआ एक बूंद रक्त भी गिराऊँ!
(गठरी देता है)
मुद्गल–अरे कौन! मातृगुप्त!
( नेपथ्य में कोलाहल )
मातृगुप्त–हाँ मुद्गल। इधर ते शक और हूण की सम्मिलित सेना घोर आतंक फैला रही है, चारों ओर विप्लव का साम्राज्य है। निरीह भारतीयों की घोर दुर्दशा है|
मुद्गल–और मैं महादेवी का संदेश लेकर अवन्ती गया, वहाँ युवराज नहीं थे। बलाधिकृत पर्णदत्त की आज्ञा हुई कि महाराजपुन्न गोविन्दगुप्त को, जिस तरह हो, खोज निकालो। यहाँ तो विकट समस्या है। हम लोग क्या कर सकते हैं ?
मातृगुप्त–कुछ नही, केवल भगवान से प्रार्थना! साम्राज्य में कोई सुननेवाला नहीं, अकेले युवराज स्कन्दगुप्त क्या करेंगे?
मुद्गल–परन्तु भाई, हम ईश्वर होते तो इन मनुष्यो की कोई प्रार्थना सुनते ही नही। इनके हर काम में हमारी आवश्यकता पड़ती है! मैं तो घबरा जाता, भला वह तो कुछ सुनते भी हैं। मातृगुप्त नही मुद्गल, निरीह प्रजा का नाश देखा नहीं जाता है क्या इनकी उत्पत्ति का यही उद्देश था? क्या इनका जीवन केवल चीटियो के समान किसीकी प्रतिहिंसा पूर्ण करने के लिये है? देखो वह दूर पर बँधे हुए नागरिक और उनपर हूणो की नृशंसता! ओह!!
मुद्गल–अरे! हाय रे बाप!!
मातृगुप्त–सावधान! असहाय अवस्था में प्रार्थना के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं, आओ हम लोग भगवान से विनती करें-
(दोनों सम्मिलित स्वर से)
उतारोगे अब कब भू-भार
बार-बार क्यों कह रक्खा था लूँगा मैं अवतार
उमड़ रहा है इस भूतल पर दुख का पारावार
बाड़व लेलिहान जिह्वा का करता है विस्तार
प्रलय-पयोधर बरस रहे है रक्त-अश्रु की धार
मानवता में राक्षसत्व का अब है पूर्ण प्रचार
पड़ा नहीं कानों में अब तक क्या यह हाहाकार
सावधान हो अब तुम जानो मैं तो चुका पुकार
(हूण-सैनिकों का प्रवेश-बन्दियों के साथ।)
हूण–चुप रह, क्या गाता है ?
मुद्गल–है है, भीख माँगता हूँ, गीत गाता हूँ। आप भी कुछ दीजियेगा? ( दीन मुद्रा बनाता है )
हूण–( धक्का देते हुए ) चल, एक ओर खड़ा हो। हाँ जी, इन दुष्टों ने कुछ देना अभी स्वीकार नहीं किया, बड़े कुत्ते हैं!
नागरिक–हम निरीह प्रजा हैं। हम लोगों के पास क्या रह गया जो आप लोगों को दें। सैनिकों ने तो पहले ही लूट लिया है।
हूण-सेनापति–तुम लोग बातें बनाना खूब जानते हो। अपना छिपा हुआ धन देकर प्राण बचाना हो तो शीघ्रता करो, नहीं तो गरम किये हुए लोहे प्रस्तुत है—–कोड़े और तेल में तर कपड़े भी। उस कष्ट का स्मरण करो।
नागरिक–प्राण तो तुम्हारे हाथों में है, जब चाहे ले लो।
हूण-सेनापति–( कोड़े से मारता हुआ ) उसे तो ले ही लेंगे, पर, धन कहाँ है ?
नागरिक–नहीं है निर्दय! हत्यारे! कह दिया कि नहीं है।
हूण-सेनापति—( सैनिकों से ) इनके बालकों को तेल से भीगा हुआ कपड़ा डालकर जला दो और स्त्रियों को गरम लोहो से दागो।
स्त्रियाँ–हे नाथ!
हमारे निर्बलो के बल कहाँ हो
हमारे दीन के सम्बल कहाँ हो
पुरुष–नहीं हो नाम ही बस नाम है क्या
सुना केवल यहाँ हो या वहाँ हो
स्त्रियाँ-पुकारा जब किसीने तब सुना था
भला विश्वास यह हमको कहाँ हो
( स्त्रियों को पकड़कर हूण खीचते हैं )
मातृगुप्त—हे प्रभु!
हमें विश्वास दो अपना बना लो
सदा स्वच्छन्द हों–चाहे जहाँ हों
इन निरीहों के लिये प्राण उत्सर्ग करना धर्म्म है। कायरो! स्त्रियों पर यह अत्याचार!!
( तलवार से बंधन काटता है। लपकते हुए एक सन्यासी का प्रवेश ।)
संन्यासी–साधु! वीर! सम्हलकर खड़े हो जाओ–भगवान पर विश्वास करके खड़े हो।
मुद्गल–( पहचानता हुआ ) जय हो, महाराजपुत्र गोविन्द-गुप्त की जय हो !
( सब उत्साहित होकर भिड़ जाते हैं ; हूण-सैनिक भागते हैं। )
गोविन्द०–अच्छा मुद्गल! तुम यहाँ कैसे? और युवक! तुम कौन हो?
मातृगुप्त–युवराज स्कंदगुप्त का अनुचर।
मुद्गल–वीर-पुङ्गव! इतने दिनों पर दर्शन भी हुआ तो इस वेष मे!
गोविन्द०–मुद्गल! क्या कहूँ। स्कंद कहाँ है?
मातृगुप्त-उज्जयिनी में।
गोविन्द०–अच्छा है, सुरक्षित है। चलो, दुर्ग में हमारी सेना पहुँच चुकी है, वहाँ विश्राम करो। यहाँ का प्रबन्ध करके हमको शीघ्र आवश्यक कार्य से मालव जाना है। अब हूणो के आतंक का डर नहीं।
सब–जय हो राजकुमार गोविन्दगुप्त की!
गोविन्द०–पुष्यमित्रो के युद्ध का क्या परिणाम हुआ?
मातृगुप्त-विजय हुई।
गोविन्दु०–और मालव का?
मुद्गल–युवराज थोड़ी सेना लेकर बन्धुवर्म्मा की सहायता के लिये गये है।
गोविन्द०–( ऊपर देखकर ) वीरपुत्र है। स्कन्द! आकाश के देवता और पृथ्वी की लक्ष्मी तुम्हारी रक्षा करें। आर्य्य-साम्राज्य के तुम्ही एकमात्र भरोसा हो।
मुद्गल–तब महाराज-पुत्र! बड़ी भूख लगी है। प्राण बचते ही भूख का धावा हो गया, शीघ्र रक्षा कीजिये!
गोविन्द०–हाँ हाँ, सब लोग चलो।
[सब जाते हैं]
[ अवन्ती का दुर्ग ]
( देवसेना, विजया, जयमाला )
विजया–विजय किसकी होगी, कौन जानता है।
जयमाला–तुमको केवल अपने धन की रक्षा का इतना ध्यान है।
देवसेना–और देश के मान का, स्त्रियों की प्रतिष्ठा का, बच्चों की रक्षा का कुछ नही।
विजया–( संकुचित होकर ) नहीं, मेरा अभिप्राय यह नहीं था।
जयमाला–परन्तु एक उपाय है।
विजया–वह क्या?
जयमाला–रक्षा का निश्चित उपाय।
देवसेना–तुम्हारे पिता ने तो उस समय नहीं माना, न सुना, नहीं तो आज इस भय का अवसर ही न आता|
जयमाला–तुम्हारी अपार धन-राशि में से एक क्षुद्र अंश, वही यदि इन धन-लोलुप शृगालों को दे दिया जाता तो…
विजया–किन्तु इस प्रकार अर्थ देकर विजय खरीदना तो देश की वीरता के प्रतिकूल है।
जयमाला–ठहरो, कोई आ रहा है।
( बन्धुवर्म्मा का प्रवेश )
बंधुवर्मा–प्रिये! अभी तक युवराज का कोई संदेश नहीं मिला। संभवतः शक और हूणों की सम्मिलित वाहिनी से आज दुर्ग की रक्षा न कर सकूँगा।
जयमाला–नाथ ! तब क्या मुझे स्कंदगुप्त का अभिनय करना होगा? क्या मालवेश को दूसरे की सहायता पर ही राज्य करने का साहस हुआ था? जाओ प्रभु! सेना लेकर सिंह-विक्रम से सेना पर टूट पड़ो! दुर्ग-रक्षा का भार मैं लेती हूँ।
विजया–महाराज! यह केवल वाचालता है। दुर्ग-रक्षा का भार सुयोग्य सेनापति पर होना चाहिये।
बन्धुवर्मा–घबराओ मत श्रेष्ठ-कन्ये!
जयमाला–स्वर्ण-रत्न की चमक देखनेवाली आँखें बिजली-सी तलवारों के तेज को कब सह सकती है। श्रेष्ठि-कन्ये! हम क्षत्राणी हैं, चिरसङ्गिनी खङ्लता को हम लोगो से चिर-स्नेह है।
बन्धुवर्म्मा–प्रिये! शरणागत और विपन्न की मर्य्यादा रखनी चाहिये। अच्छा, दुर्गं का तो नही, अंतःपुर का भार तुम्हारे ऊपर है।
देवसेना–भइया, आप निश्चिन्त रहिये।
बंधुवर्म्मा–भीम दुर्ग का निरीक्षण करेगा; मैं जाता हूँ।
( जाता है )
विजया–भयानक युद्ध समीप ही जान पड़ता है, क्यों राजकुमारी!
देवसेना–तुम वीणा ले लो तो मैं कुछ गाऊँ।
विजया–हँसी न करो राजकुमारी!
जयमाला–बुरा क्या है?
विजया—युद्ध और गान!
जयमाला–युद्ध क्या गान नहीं है? रुद्र का शृंगीनाद, भैरवी का तांडवनृत्य, और शस्त्रों का वाद्य मिलकर भैरव-संगीत की सृष्टि होती है। जीवन के अंतिम दृश्य को जानते हुए, अपनी आँखों से देखना, जीवन-रहस्य के चरस सौन्दर्य्य की नग्न और भयानक वास्तविकता का अनुभव केवल सच्चे वीर-हृदय को होता है। ध्वंसमयी महामाया प्रकृति का वह निरंतर संगीत है। उसे सुनने के लिये हृदय में साहस और बल एकत्र करो। अत्याचार के श्मशान में ही मङ्गल का, शिव का, सत्य सुन्दर संगीत का समारम्भ होता है।
देवसेना–तो भाभी, मैं तो गाती हूँ। एक बार गा लूँ, हमारा प्रिय गान फिर गाने को मिले या नहीं।
जयमाला–तो गाओ न।
विजया–रानी! तुम लोग आग की चिनगारियाँ हो, या स्त्री हो? देवी! ज्वालामुखी की सुन्दर लट के समान तुम लोग ……
जयमाला–सुनो, देवसेना गा रही है–
( गाना )
भरा नैनों में मन में रूप
किसी छलिया का अमल अनूप
जल-थल, मारुत, व्योम में, जो छाया है सब ओर
खोज-खोजकर खो गई मैं, पागल – प्रेम – विभोर
भाँग से भरा हुआ यह कूप
भर नैनों में मन में रूप
धमनी की तंत्री बजी, तू रहा लगाये कान
बलिहारी मैं, कौन तू है मेरा जीवन – प्रान
खेलता जैसे छाया – धूप।
भर नैनों में मन में रूप॥
( सहसा भीमवर्म्मा का प्रवेश )
भीम–भाभी, दुर्ग का द्वार टूट चुका है। हम अंत:पुर के बाहरी द्वार पर है। अब तुम लोग प्रस्तुत रहना।
जयमाला–उनका क्या समाचार है?
भीम–अभी कुछ नहीं मिला। गिरिसंकट में उन्होंने शत्रुओं के मार्ग को रोका था, परन्तु दूसरी शत्रु-सेना गुप्त मार्ग से आ गई। मैं जाता हूँ, सावधान!
( जाता है )
( नेपथ्य में कोलाहल, भयानक शब्द )
विजया–महारानी! किसी सुरक्षित स्थान में निकल चलिये।
जयमाला–( छुरी निकालकर ) रक्षा करनेवाली तो पास है, डर क्या, क्यो देवसेना?
देवसेना–भाभी! श्रेष्ठि-कन्या के पास नहीं है, उन्हें भी दो।
विजया–न न न, मै लेकर क्या करूँगी, भयानक!
देवसेना–इतनी सुन्दर वस्तु क्या कलेजे में रख लेने के योग्य नहीं है?
विजया—( धड़ाके का शब्द सुनकर ) ओह! तुम लोग बड़ी निर्दय हो!
जयमाला–जाओ, एक ओर छिपकर खड़ी हो जाओ!
( रक्त से लथपथ भीम का प्रवेश )
भीम–भाभी! रक्षा न हो सकी, अब तो मैं जाता हूँ| वीरों के वरणीय सम्मान को अवश्य प्राप्त करूँगा। परन्तु…
जयमाला–हम लोगों की चिन्ता न करो। वीर! स्त्रियो की, ब्राह्मणों की, पीड़ितों और अनाथों की रक्षा में प्राण-विसर्जन करना, क्षत्रिय का धर्म है। एक प्रलय की ज्वाला अपनी तलवार से फैला दो। भैरव के श्रृंगीनाद के समान प्रबल हुंकार से शत्रु-हृदय कँपा दो। वीर! बढ़ो, गिरो तो मध्यान्ह के भीषण सूर्य के समान!–आगे, पीछे, सर्वत्र आलोक और उज्ज्वलता रहे!
( भीम का प्रस्थान, द्वार का टूटना, विजयी शत्रु-सेनापति का प्रवेश, भीम का आकर रोकना, गिरते-गिरते भीम का जयमाला और देवसेना की सहायता से युद्ध। सहसा स्कंदगुप्त का सैनिकों के साथ प्रवेश। )
‘युवराज स्कंदगुप्त की जय!’
( शक और हुण स्तम्भित होते हैं )
स्कंद०–ठहरो देवियो! स्कंद के जीवित रहते स्त्रियों को| शस्त्र नहीं चलाना पड़ेगा।
( युद्ध; सब पराजित और बंदी होते हैं। )
विजया–( झाँककर ) अहा! कैसी भयानक और सुन्दर मूर्त्ति है!
स्कन्द–( विजया को देखकर ) यह–यह कौन?
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