स्कंदगुप्त

 भूमिका 

स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य

इस नाट्य रचना का आधार दो मन्तव्यों पर स्थिर किया गया है; जिनके सम्बन्ध में हमें कुछ कहना हैः पहला यह है कि उज्जयिनी का पर-दुःख भञ्जक विक्रमादित्य गुप्त वंशीय स्कंदगुप्त था और दूसरा यह कि मातृगुप्त ही दूसरा कालिदास था, जिसने ‘रघुवंश’ आदि काव्य बनाए।

स्कंदगुप्त का विक्रमादित्य होना तो प्रत्यक्ष प्रमाणों से सिद्ध होता है। शिप्रा से तुम्बी में जल भरकर ले आने वाले, और चटाई पर सोने वाले उज्जयिनी के विक्रमादित्य स्कंदगुप्त के ही साम्राज्य के खंडहर पर भोज के परमार पुरखों ने मालव का नवीन साम्राज्य बनाया था। परन्तु मातृगुप्त के कालिदास होने में अनुमान का विशेष सम्बन्ध है। हो सकता है कि आगे चलकर कोई प्रत्यक्ष प्रमाण भी मिल जाये, परन्तु हमें उसके लिए कोई आग्रह नहीं। इसलिए हमने नाटक में मातृगुप्त का ही प्रयोग किया है। मातृगुप्त का काश्मीर का शासन और तोरमाण का समय तो निश्चित-सा है। विक्रमादित्य के मरने पर उसका दिया काश्मीर-राज्य वह छोड़ देता है, और वही समय सिंहल के कुमार धातुसेन का निर्धारित होता है। इसलिए इस नाटक में धातुसेन भी एक पात्र है। वंधुवर्मा, चक्रपालित, पर्णदत्त, शर्वनाग, भटार्क, पृथ्वीसेन, खिंगिल, प्रख्यातकीर्ति, भीमवर्मा (इसका शिलालेख कौशाम्बी में मिला है) गोविन्दगुप्त, आदि सब ऐतिहासिक व्यक्ति हैं।

इसमें प्रपंचबुद्धि और मुद्गल कल्पित पात्र हैं। स्त्री पात्रों में स्कंद की जननी का नाम मैंने देवकी रखा है। स्कंदगुप्त के एक शिलालेख में – “हतरिपुरिव कृष्णों देवकी मम्युपेत” मिलता है। सम्भव है कि स्कंद की माता के नाम देवकी से ही कवि को यह उपमा सूझी हो। अनन्त देवी का तो स्पष्ट उल्लेख पुरगुप्त के माता के रूप में मिलता है। यही पुरगुप्त स्कंदगुप्त के बाद शासक हुआ है। देवसेना और जयमाला वास्तविक और काल्पनिक पात्र, दोनों हो सकते हैं। विजया, कमला, रामा और मालिनी जैसी किसी दूसरी नामधारिणी स्त्री की भी उस काल में सम्भावना है; तब भी ये कल्पित हैं। पात्रों की ऐतिहासिकता के विरुद्ध चरित्र की सृष्टि, जहाँ तक संभव हो सका, नहीं होने दी गई। फिर भी कल्पना का अवलम्ब लेना ही पड़ा है, केवल घटना की परम्परा ठीक करने के लिए।

विक्रमादित्य

जिसके नाम से विक्रमीय संवत् का प्रचार है, भारत के उस आबाल-वृद्ध परिचित प्रसिद्ध विक्रमादित्य का ऐतिहासिक अस्तित्व कुछ विद्वान लोग स्वीकार नहीं करते। इसके कई कारण है। इसका कोई शिलालेख नहीं मिलता। विक्रमीय संवत् का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में नहीं है। स्वयं मालव में अति प्राचीन काल से एक मालव संवत् का प्रचार था, जैसे – ‘मालवानां गणास्थित्या याते शतचतुष्टये’ इत्यादि – इसलिए कुछ विद्वानों का मत है कि गुप्तवंशीय प्रतापी द्वितीय चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ही असली विक्रमादित्य था, उसी ने सौराष्ट्र के शकों को पराजित किया और प्रचलित मालव संवत् के साथ अपनी ‘विक्रम’ उपाधि जोड़कर विक्रमीय संवत् का प्रचार किया।

परन्तु यह मत निस्सांर है; क्योंकि चन्द्रगुप्त द्वितीय का नाम तो चन्द्रगुप्त था, पर उपाधि विक्रमादित्य थी; उसने सौराष्ट्र के शकों को पराजित कियाः इससे यह तात्पर्य निकलता है कि शकारि होना विक्रमादित्य होने के लिए आवश्यक था। चन्द्रगुप्त द्वितीय के शकारि होने का हम आगे चलकर विवेचन करेंगे। पर चन्द्रगुप्त उज्जयिनी-नाथ न होकर पाटलीपुत्र के थे। उनके शिलालेखों में गुप्त संवत् का हम आगे चलकर विवेचन करेंगे। पर संवत् व्यवहृत हैं, तब वह दो संवतों के अकेले प्रचारक नहीं हो सकते। विक्रमादित्य उनकी उपाधि थी, नाम नहीं था। इन्हीं के लिए ‘कथासरित्सागर’ में लिखा है -“विक्रमादित्य इत्यासीद्राजा पाटलिपुत्राके” सिकन्दरसानी और आलमगीरसानी के उदाहरण पर मानना होगा कि जिसकी ऐसी उपाधि होती है उससे पहले उस नाम का कोई व्यक्ति भी हो चुकता है। चन्द्रगुप्त का राज्यकाल 385-413 ई. तक माना जाता है। तब, यह भी मानना पड़ेगा कि 380 के पहले कोई विक्रमादित्य हो गया है, जिसका अनुकरण करने पर उक्त गुप्तवंशीय सम्राट् चन्द्रगुप्त ने विक्रमादित्य की उपाधि से अपने को विभूषित किया। तख्तेवाही के शिलालेख का, जो गोंडोफोरस का हैं, काल 103 ई. है। तत्कालीन ईसाई कथाओं के आधार पर जो समय उसका निर्धारित होता है उससे वह विक्रमीय संवत ही ठहरता है। तब यह भी स्थिर हो जाता है कि उस प्राचीन काल में शक सवत् के अतिरिक्त एक संवत् का प्रचार था और वह विक्रमीय था। मालव लोग उसके व्यवहार में ‘मालव’ शब्द का प्रयोग करते थे।

चन्द्रगुप्त का शक – विजय

कहा जाता है गुप्तवंशीय चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने मालव और सौराष्ट्र के पश्चिमी क्षत्रपों को पराजित किया, जो शक थे। इसलिए यही चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य था। सौराष्ट्र में रूद्र सिंह तृतीय के बाद किसी के सिक्के नहीं मिलते। इसलिए यह माना जाता है कि इसी चन्द्रगुप्त ने रूद्र सिंह को पराजित करके शकों को निर्मूल किया। पर, बात कुछ दूसरी है। चन्द्रगुप्त के पिता समुद्रगुप्त ने ही भारत की विजय यात्रा की थी। हरिषेण की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि आर्यावर्त के विजित राजाओं में एक नाम रूद्रदेव भी है। संभवतः यही रूद्रदेव स्वामी रुद्रसेन था, जो सौराष्ट्र का भी क्षत्रप था। तब यह विजय समुद्र-गुप्त की थी, फिर चन्द्रगुप्त ने किन शकों को निर्मूल किया ? चन्द्रगुप्त का शिलालेख बेतवा और यमुना के पश्चिमी तट पर नहीं मिला। समुद्रगुप्त के शिलालेख से प्रकट होता है कि उसी ने विजय यात्रा में राजाओं को भारतीय पद्धति के अनुसार पराजित किया। तात्पर्य; कुछ लोगों से उपहार लिया कुछ लोगों को उनके सिंहासनों पर बिठला दिया, कुछ लोगों से नियमित ‘कर’ लिया इत्यादि। चन्द्रगुप्त के पहले ही यह सब हो चुका था, वस्तुतः वे सब शासन में स्वतंत्र थे। तब कैसे मान लिया जाय कि सौराष्ट्र और मालव में शकों को चन्द्रगुप्त ने निर्मूल किया, जिसका उल्लेख स्वयं चन्द्रगुप्त के किसी भी शिलालेख में नहीं मिलता। गुप्त वंशियों की राष्ट्रनीति सफल हुई, वे भारत के प्रधान सम्राट् माने जाने लगे। पर स्वयं चन्द्रगुप्त का समकालीन नरवर्मा (Gangdhar के शिलालेख में) और वह भी मालव का स्वतंत्र नरेश माना जाता है। फिर मालव चक्रवर्ती उज्जयिनी नाथ विक्रमादित्य और सम्राट चन्द्रगुप्त, जो मगध और कुसुमपुर के थे, कैसे एक माने जा सकते हैं ? चन्द्रगुप्त का समय 413 ई. तक है। इधर मान्दसोर वाले 424 ई. के शिलालेख में विश्ववर्मा और उसके पिता नरवर्मा स्वतन्त्र मालवेश है। यदि मालव गुप्तों के अधीन होता तो अवश्य किसी गुप्त राजाधिराज का उसमें उल्लेख होता, जैसा कि पिछले शिलालेख में (जो 437 ई. का है) कुमार गुप्त का उल्लेख है – “वनान्तवान्तस्फुट पुष्पहासिनी कुमार गुप्तेपृथिवी प्रशासति” इससे यह सिद्ध हो जाता है कि चन्द्रगुप्त का सम्पूर्ण अधिकार मालव पर नहीं था, वह उज्जयिनी नाथ नहीं थे, उनकी उपाधि विक्रमादित्य थी। तब उनके पहले एक विक्रमादित्य 385 से पूर्व हुए थे। हमारे प्राचीन लेखों में भी इस प्रथम विक्रमादित्य का अनुसंधान मिलता है। ‘गाथा सप्तशती’ एक प्राचीन गाथाओं का संग्रह ‘हाल’ भूपति के नाम से उपलब्ध है। पैठन में इसकी राजधानी थी इसका समय इसवीय सन् की पहली शताब्दी है। महामहोपाध्याय पं. दुर्गा प्रसाद ने अभिनन्दन के रामचरित से –

“हालेनोत्तम पूजयाकवि वृषः श्रीपालितो लालितः

ख्यार्ति कामपि कालिदास कवयो नीता शकारातिना”

उद्धृत करके माना है श्रीपालित ने अपने राजा ‘हाल’ के लिए यह ‘गाथा सप्तशती’ बनाई इसमें एक गाथा पाँचवें शतक की है।

“संवाहन सुहरस तोसिएण देन्तेह तुहकरे लक्खम्”

चलणेण विक्रमादित्त चरित्रं अणु सिक्खअंतिस्सा ।। 64।।

ईस्वी पूर्व पहली शताब्दी में एक विक्रमादित्य हुए, इसके मानने का यह एक प्रमाण है। जैन ग्रन्थ कालकाचार्य – कथा में उज्जयिनी-नाथ विक्रम का मध्य भारत के शकों को परास्त करना लिखा है। प्रबन्धकोष में लिखा है कि महावीर स्वामी के मोक्ष पाने पर 470 वर्ष बाद विक्रमादित्य हुए। भारत की परम्परागत कथाओं में प्रसिद्ध है कि विक्रमादित्य गंधर्वसेन का पुत्र था। टाड ने राजस्थान के राजकुलों का वर्णन करते हुए यह लिखा है कि तुअरवंश पांडव वंश की एक शाखा है, जिसमें संवत् प्रचारक विक्रम और अनंगपाल का जन्म हुआ था। प्राचीन ऐतिहासिक ग्रंथ ‘राजावली’ में दिल्ली के राजाओं का वर्णन करते हुए लिखा है कि दिल्ली के राजा राजपाल का राज्य कमायूँ के पहाड़ी राजा शुकवंत ने छीन लिया। उसे विक्रमादित्य ने मार कर दिल्ली का उद्धार किया। इधर प्रसिद्ध विद्वान् स्मिथ ने लिखा है कि ईसा के पूर्व दूसरी शताब्दी में शकों का उत्थान हुआ जो भारत में उसी के लगभग घुसे।

Branches of Barbarian stream which penitrated the Indian Passes, deposited settlements at Taxila in the Punjab and Mathura on the Jamuna.

Yet another section of the horde at a later date perhaps about middle of the first century after christ pushed on southwards and occupied the peninsula of Sourashtra or Kathiawar, founding a ‘saka’ dynasty which lasted until it was destroyed by Chanadrgupta Vikramaditya about A.D. 390.

The Satraps of Mathura were closely connected with those of Taxila and belong to the same period about 50 B.C. or later.

पिछली शक-शाखा के सम्बन्ध में, जो सौराष्ट्र गई, यह कहा जाता है कि चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने उसे निर्मूल किया; पर वास्तव में 385 ई. तक समुद्रगुप्त जीवित थे और उन्हीं के समय में 382 ई. तक के शक सिक्के मिलते हैं। बाद के सिक्के बिना संवत् के हैं। इससे प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त के सामने क्षत्रपों का प्रताप निस्तेज हुआ, फिर बिना संवत् के सिक्के वहाँ प्रचलित हुए। तात्पर्य, उक्त समुद्रगुप्त के समय 385 तक ही सौराष्ट्र की शक-शाखा का ह्रास हुआ। चन्द्रगुप्त का राज्यरोहण काल 380 ई. मानते हैं। परन्तु उसका सबसे पहला शिलालेख उदयगिरि का गुप्त संवत् 82 (ई. 401) का मिलता है। सौराष्ट्र के जो सिक्के चन्द्रगुप्त के माने जाते हैं वे गुप्त संवत् 90 (ई. 309) के हैं। इसके पहले के नहीं। शक क्षत्रयों के अन्तिम सिक्कों का समय 311-389 ई. है। अच्छा, इन सिक्कों के बाद 389 से लेकर 409 ई. (20 वर्ष) तक किन सिक्कों का प्रचार रहा, क्योंकि चन्द्रगुप्त के सिक्कों के देखने से उसका सौराष्ट्र-विजय 409 ई. से पहले का नहीं हो सकता (जब के उसके सिक्के हैं) फिर इधर उदयगिरि वाला लेख भी ई. 401 के पहले का नहीं है। तब यह सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण-काल का 385 या 380 में इसलिए अनुमान किया जाता है जिसमें सौराष्ट्र विजय का श्रेय उसी को मिले। वास्तव में समुद्रगुप्त के समय में शक-विजय हुआ। हरिषेण की विजय-प्रशस्ति में समुद्रगुप्त के द्वारा पराजित राजाओं की नामावली में रुद्रदेव का भी उल्लेख है, और यह रुद्रदेव सौराष्ट्र के शक क्षत्र पों में रहा होगा। चन्द्रगुप्त ने भी पिता के अनुकरण पर विजय-यात्रा की थी, जैसा कि उनके उदयगिरि वाले शिलालेख से स्पष्ट है परन्तु उनके शासनकाल में मालव स्वतंत्र था। समुद्रगुप्त के बाद मालव और सौराष्ट्र स्वतन्त्र राष्ट्र गिने जाते थे। Gangdhar और मंदसोर के दोनों शिलालेखों को देखने से सूचित होता है कि नरवर्मा और विश्वकर्मा मालव के स्वतंत्र नरेश थे। कुमारगुप्त के समय में बंधुवर्म्मा ने संभवतः 424-437 ई. के बीच गुप्त साम्राज्य के अधीन होना स्वीकार किया।

चन्द्रगुप्त के शक-विजय का उल्लेख बाणभट्ट ने भी किया है – “अरिपुरे परकलत्रकामुकं कामिनीवेशश्चन्द्रगुप्तः शकनरपतिं अशातयद्।” यह शक विजय किस प्रांत में हुआ, इसका ठीक उल्लेख नहीं, पर कुछ लोग अनुमान करते हैं कि कुशानों के दक्षिणी शक क्षत्रप से 400 ई. के समीप प्रतिष्ठान का उद्धार चन्द्रगुप्त ने किया। जब आन्ध्र राजाओं से लड़ झगड़ कर वे शक क्षत्रप स्वतंत्र हो गए थे और चन्द्रगुप्त ने दक्षिण के उन स्वतंत्र शकों को पराजित करने के लिए जिस उपाय का अवलम्बन किया था, उसका उल्लेख ‘कथा सरित्सागर’ की चौथी तरंग से भी प्रकट है।

मथुरा के शक शासकों का नाश, जो शकों की पहली शाखा के थे, किसने किया – इस सम्बन्ध में इतिहास चुप है। राजुबुल, षोडाश और खर्रओष्ठ नाम के तीन शक नरेशों के ई. के पूर्व पहली शताब्दी में, मथुरा पर शासन करने का उल्लेख स्पष्ट मिलता है। षोडाश ने आर्य-शासक रामदत्त से दिल्ली और मथुरा छीनकर शक-राज्य प्रतिष्ठित किया था। ‘राजावलि’ में इसका उल्लेख है कि विक्रमादित्य ने पहाड़ी राजा शुकवंत से दिल्ली का उद्धार किया। शुकवंत संभवतः विदेशी षोडाश का ही विकृत नाम है, क्योंकि ईसा की पहली शताब्दी के बाद उस प्रान्त में उन शकों का शासन निर्मूल हो गया। इन लोगों को पराजित करने वाला वही विक्रमादित्य हो सकता है, जो ईसवीय पूर्व पहली शताब्दी का हो।

जैसलमेर के इतिहास में भट्टियों का वर्णन यहाँ बड़े काम का है। उन्होंने लिखा है कि विक्रमीय संवत् 72 में गजनी-पति गज का पुत्र शालिवाहन मध्य एशिया की क्रांतियों से विताड़ित होकर भारत वर्ष चला आया, और उसने पंजाब में शालिवाहनपुर (शालपुर या शाकल) नाम की राजधानी बसाई। स्मिथ ने जिस दूसरी शक-शाखा का उल्लेख किया है, उसके समय से भट्टियों के इस शालिवाहन का समय ठीक-ठाक मिल जाता है। शंकों के दूसरे अभियान का नेता वही शालिवाहन था, जिसके सम्बन्ध में ‘भविष्य पुराण’ में लिखा है –

एतस्मिन्नंतरे तत्र शालिवाहन भूपति :।

विक्रमादित्य पौत्रस्य पितृराज्यं गृहीतवान् ।।

कुछ लोग ‘पौत्रश्च’ अशुद्ध पाठ के द्वारा भ्रान्त अर्थ निकालते है जो असंबद्ध है। विक्रमादित्य के पौत्र का राज्य अपहरण करने वाला शालिवाहन विदेशी था। प्रबन्ध चिंतामणि में भी शालिवाहन को नागवंशीय लिखा है। गजनी से आया शालिवाहन एक शक था। संभवतः उसी ने शक राज्य की स्थापना की थी और शक संवत् का प्रचार किया। इसके पिता के ऊपर जिस खुरासान के फरीदशाह के आक्रमण की बात कही जाती है; वह पार्थियानरेश ‘मिथ्राडोटस’ का पुत्र ‘फराटस द्वितीय’ रहा होगा।

उस काल में युवेची, पार्थियन और शकों में भयानक संघर्ष चल रहा था। गजनी के शकों को भी इसी कारण अपना देश छोड़कर रावी और चनाब के बीच में ‘शाकल’ बसाना पड़ा। मिथ्राडोटस द्वितीय आदि के शासनकाल में भारतवर्ष का उत्तर.पश्चिमीय भू-भाग बहुत दिनों तक इन्हीं शकों के अधिकार में रहा। कभी पार्थियन, कभी शक और कभी युर्वेची जाति की प्रधानता हो जाती थी उसी समय में मालवों को पराजित करके शकों ने पंजाब में अपने राज्य की स्थापना की थी। स्मरण रखना होगा कि मालव से यहाँ उस राष्ट्र का सम्बन्ध है जो पाणिनी के समय में मालव क्षुद्रकगण कहे जाते थे, और सिकन्दर के समय में “Malloi and Azodrapai” के नाम से अभिहित थे।

इस प्राचीन मालव की सीमा पंजाब में थी। विक्रमादित्य और शकों का प्रथम कहरूर-युद्ध मुलतान में 40 मील दक्षिण-पूर्व में हुआ, और शालिवाहन के नेतृत्व में शकों के आक्रमण से मालवों को दक्षिण की ओर हटना पड़ा। संभवतः वर्तमान मालव देश उसी काल में मिलाया गया। और जहाँ पर इन मालवों ने शकों से पराजित होकर अपनी नई राजधानी बनाई, वह मंदसोर और उज्जयिनी थी।

शालिवाहन की इस विजय के बाद इसी के वंश के लोग राजस्थान से होते हुए सौराष्ट्र तक फैल गये, और वे पश्चिमीय क्षत्रप के नाम से प्रसिद्ध हुए। चष्टन और नहपान आदि दक्षिण तक इसकी विजय-वैजयंती ले गए। नहपान को कुंतलेश्वर सातकर्णि ने पराजित किया। ‘कथा-सरित्सागर’ से पता चलता है कि भरुकच्छ देश से भी शकों की सत्ता सातकर्णि ने उठा दी और ‘कालाप’ व्याकरण के प्रवर्तक शर्ववर्म्मा को वहां का राज्य दिया। शालिवाहन के सेनापतियों ने दक्षिण में शक-संवत् का अपने शासन-बल से प्रचार किया। उत्तरी भारत में आक्रमण और संघर्ष बराबर होते रहे इसलिए उज्जयनी में वे अधिक समय तक न ठहर सके। शक क्षत्रपों ने सौराष्ट्र में अपने को दृढ़ किया और नवीन मालव – जिसे दक्षिण मालव भी कहते हैं – शीघ्र स्वतन्त्र होने के कारण अपने पूर्व व्यवहृत मालव संवत् का ही उपयोग करता रहा।

ऊपर के प्रमाणों से यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है कि प्रथम विक्रमादित्य- गंधर्वसेन का पुत्र – मालवगण का प्रमुख अधिपति रहा। उसने मथुरा वाली शक-शाखा का नाश किया, और दिल्ली का उद्धार करके जैत्रपाल को वहाँ का राज्य दिया।

संवत् 1699 अगहन सुदी पञ्चमी की लिखी हुई ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ की प्राचीन प्रति से जो पं. केशव प्रसाद जी मिश्र (भदैनी, काशी) के पास है, दो स्थलों के नवीन पाठों का अवतरण यहाँ दिया जाता है –

(1) “आर्ये रसभाववशेषुं दीक्षागुरुोः श्रीविक्रमादित्य साहसांकस्याभिरूप

भूयिष्ठेयं परिषत् अस्यां च कालिदास प्रयुक्तेनाभिज्ञानशाकुन्तलम्

नाम्नानवेन नाटकेनोपस्थातव्यमास्माभिः।”

(2) भवतु तवविडौजाः प्राज्यवृष्टिः प्रजासु

त्वमपि वितत यज्ञो वज्रिणं भावयेथा

गण शत परिवर्तेरेवमन्योन्य कृत्यै –

नियतमुभयलोकानुग्रहश्लाघनीयै”

इसमें काले अक्षरों में किए हुए दोनों शब्दों पर ध्यान देने से दो बातें निकली है। पहली यह कि जिस विक्रमादित्य का उल्लेख शाकुन्तल में है, उसका नाम विक्रमादित्य है और ‘साहसांक’ इसकी उपाधि है। दूसरे भरत वाक्य में ‘गण’ शब्द के द्वारा इन्द्र और विक्रमादित्य के लिए यज्ञ और गण-राष्ट्र – दोनों की ओर कवि का संकेत है। इसमें राजा या सम्राट जैसा कोई संबोधन विक्रमादित्य के लिए नहीं है। तब यह विचार पुष्ट होता है कि विक्रमादित्य मालव गण राष्ट्र का प्रमुख नायक था, न कि कोई सम्राट या राजा। कुछ लोग जैत्रपाल को विक्रमादित्य का पुत्र बताते हैं। हो सकता है इसी के एकाधिपत्य से मालवगण में फूट पड़ी हो और शालिवाहन के द्वितीय शक-आक्रमण में पराजित हुए हों।

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य मालव का अधिपति नहीं था; वह पाटलिपुत्र का विक्रमादित्य था। उसने स्त्री वेश धारण करके किसी शक-नरपति को मार डाला था। पर पश्चिमी मालव और सौराष्ट्र उसके समय में भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते थे, क्योंकि नरवर्म्मा और विश्ववर्म्मा का मालव में और स्वामी रुद्रसिंह आदि तीन स्वतंत्र नरपति नाम सौराष्ट्र के शकों के मिलते हैं। इसके लेख आकर उदयगिरि और गोपाद्रि तक ही मिलते है। जैसा विक्रमादित्य का चरित्र है, उसके विरुद्ध इसके सम्बन्ध में कुछ गाथाएँ मिलती हैं। अपने पिता समुद्रगुप्त की विजयों के आधार पर और किसी शक-नरपति को मारकर, इसने भी पहली बार विक्रमादित्य की उपाधि धारण कर ली थी। यह असली विक्रमादित्य के बराबर अपने को समझता था।

‘कथासरित्सागर’ और ‘हर्षचरित’ से लिये गये अवतरणों पर ध्यान देने से यह विदित होता है कि यह शक-विजय किसी छल से मिली थी। तुआर या (शिव प्रसाद के मतानुसार) पँवार मालवगण के प्रमुख अधीश्वर से भिन्न यह पाटलिपुत्र का विक्रमादित्य चन्द्रगुप्त था, जिसका समय 385(400) से प्रारम्भ होकर 413 ई. तक था।

कुछ लोगों का मत था कि मालव का यशोधर्म देव तीसरा विक्रमादित्य था, परन्तु जिस ‘राजतरगिणी’ से इसके विक्रमादित्य होने का प्रमाण दिया जाता है। उसमें यशोधर्म के साथ विक्रम शब्द का कोई उल्लेख नहीं है। उसके शिलालेखों, सिक्कों में भी इसका नाम नहीं है। यशोधर्म के जयस्तंभ में हूण मिहिरकुल को पराजित करने का प्रमाण मिलता है, परन्तु यह शकारि नहीं था। यह अनुमान भी भ्रांत है कि इसी यशोधर्मदेव ने मालव-संवत् के साथ विक्रम नाम जोड़कर विक्रम-संवत् का प्रचार किया, क्योंकि उसी के अनुचरों के शिलालेख में मालवगण-स्थिति का स्पष्ट उल्लेख है।

“पञ्चसु शतेसु शरदां यातष्वेकान्नति सहितेषु।

मालवगण स्थिति वशात् कालज्ञानाय लिखितेषु।।

अलबेरूनी के लेख से यह भ्रम फैला है, परन्तु वही अपनी पुस्तक में दूसरी जगह कहरूर युद्ध के विजेता विक्रमादित्य से संवत् प्रचारक विक्रमादित्य को भिन्न मानकर अपनी भूल स्वीकार करता है। डाक्टर हार्नेली और स्मिथ कहरूर युद्ध के समय में मतभेद रखते हैं। हार्नेली उसे 544 में और स्मिथ 528 ई. में मानते हैं। कहरूर का रणक्षेत्र कई युद्धों की रंग-स्थल है, जैसाकि पिछले-काल में पानीपत। शक और हूणों के आक्रमण काल में प्रथम विक्रमादित्य-स्कंदगुप्त और यशोधर्म ने वहीं विजय प्राप्त की। अलबेरूनी ने पिछले युद्ध का ही विवरण सुनकर अपने को भ्रम में डाल दिया। जिन लोगों ने यशोधर्म देव को ‘विक्रमादित्य’ सिद्ध करने की चेष्टा की है वे ‘राजतरंगिणी’ के नीचे लिखा हुआ अवतरण प्रमाण में देते हैं -”

“उज्जयिन्यां श्रीमान् हर्षापराभिघः, एकच्छत्राश्चक्रवर्ती विक्रमादित्य इत्याभूत्” इस श्लोक के ‘श्रीमान् हर्ष’ पर भार डालकर असम्भावित अर्थ किया जाता है; पर हर्ष विक्रमादित्य से यशोधर्म का क्या सम्बन्ध है, यह स्पष्ट नहीं होता। इसी हर्ष विक्रमादित्य के लिए कहा जाता है कि उसने मातृगुप्त को काश्मीर का राज्य दिया। परंतु इतिहास में पांचवीं और छठी शताब्दी में किसी हर्ष नामक राजा के उज्जयिनी पर शासन करने का उल्लेख नहीं मिलता। बहुत दिनों के बाद ईसवीय सन् 970 के समीप मालव में श्रीहर्षदेव परमार का राज्य करना मिलता है। राजतरंगिणी के अनुसार उक्त हर्ष-विक्रमादित्य का काल वही है जब कश्मीर में गान्धार वंश का ‘तोरमाण’ युवराज था। तोरमाण के शिलालेखों से यह सिद्ध हो जाता है कि उसके पिता तुंजीन वा प्रवरसेन वा समकालीन स्कन्दगुप्त मालव का शासक हो सकता है। तब क्या आश्चर्य है कि लेखक के प्रमाद से ‘राजतरंगिणी’ में हर्ष का उल्लेख हो गया हो, और शुद्ध पाठ “श्रीमान् स्कन्दापरामिधः” हो। क्योंकि इसी तोरमाण ने 500 ई. में गुप्तवंशियों से मालव ले लिया था; तब मातृगुप्त वाली घटना 500 ई. के पहले की है। जो लोग यशोधर्म को विक्रमादित्य मानते हैं, वे यह भी कहते हैं कि मिहिरकुल को पराजित करने में यशोधर्म और नरसिंहगुप्तबलादित्य दोनों का हाथ था। परन्तु यह भी भ्रम है। नरसिंहगुप्त 528 या 544 ई. तक जीवित ही न थे। यशोधर्म का समकालीन बालादित्य द्वितीय हो सकता है, जो हमारे दिए हुए वंशवृक्ष के देखने से स्पष्ट हो जाएगा।।

श्री काशीप्रसाद जायसवाल ने अपने विद्वतापूर्ण लेख में यह प्रमाणित किया है कि यशोधर्म कल्कि थे। ‘कल्किपुराण’ (जीवानंद संस्करण) में लिखा है –

प्रसीद जगतांनाथ धर्मवर्म्म रमापते।। अध्याय 3।।

मुने किमत्र कथनं काल्किना धर्मवर्म्मणा।। अध्याय 4।।

तब ‘राजतरंगिणी’ का यह अवतरण और भी हमारे मत को पुष्ट करता है कि यशोधर्मदेव से पहले विक्रमादित्य हुए थे –

म्लेच्छोच्छेदाय वसुधां हरेरवतरिष्यतः।

शकान्विनाश्य येनादौ कार्य भारों लघूकृतः ।। तरंग 3।।

भावी कल्कि यशोधर्म के कार्य भार को लघु कर देने वाले विक्रमादित्य उनमें 60 ही वर्ष पहले हुए थे और वह थे श्री विक्रमादित्य स्कंदगुप्त। इस तरह ‘राजतरंगिणी’ के “श्रीमान् हर्षापराभिधः” के शुद्ध पाठ से श्रीमान् स्कन्दापराभिधः” की संगति भी लग जाती है।

इन तीसरे विक्रमादित्य स्कंदगुप्त के सम्बन्ध में ‘कथासरित्सागर का विषमशील लम्बक सविस्तार वर्णन करता है। ‘उज्जयिनीनाथ (महेन्द्रादित्य) का पुत्र यह विक्रमादित्य ‘म्लेच्छाक्रांतेचभूलोक’ उत्पन्न हुआ और इसने –

“मध्यदैशः स सौराष्ट्रः सः वंगंग च पूर्व दिक्

सं कश्मीरान्सकौबेरी काष्टश्च करदीकृता

म्लेच्छसांघश्च निहताः शेषाश्च स्थापिता वशे”

इतिहास में सम्राट् कुमारगुप्त की उपाधि महेन्द्रादित्य प्रसिद्ध है। इसके चाँदी के सिक्कों पर “परम भागवत महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य” स्पष्ट लिखा मिलता है। इसी के समय में मालव के स्वतंत्र नरेश विश्ववर्म्मा के शिलालेख द्वारा मालव का स्वतंत्र रहना प्रमाणित है। परन्तु, 529 विक्रमाब्द वाले मंदसोर के शिलालेख में 493 वि. में कुमारगुप्त की सार्वभौम सत्ता मान ली गई। इससे प्रतीत होता है कि इसी काल में मालव गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित हुआ। चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में नरवर्म्मा और विश्ववर्म्मा मालव के स्वतंत्र नरेश थे। कुछ लोगों का अनुमान है कि नर्मदा के निकटवर्ती पुष्यमित्रों ने जब गुप्त साम्राज्य से युद्ध प्रारम्भ किया था तभी कुमार स्कंदगुप्त के नेतृत्व में गुप्त साम्राज्य की सेना ने उज्जयिनी पर अधिकार किया। इन्हीं स्कंदगुप्त का सिक्कों में “परम भागवत श्री विक्रमादित्य स्कन्दगुप्त” के नाम से उल्लेख मिलता है। इनके शिलालेख से प्रकट है कि कुललक्ष्मी विचलित थी; म्लेच्छों और हूणों से आर्यावर्त आतंकित था। अपनी सत्ता बनाये रखने के लिये इन्होंने पृथ्वी पर सोकर रातें बिताई। हूणों के युद्ध में जिसके विकट पराक्रम से धरा विकंपित हुई, जिसने सौराष्ट्र के शकों का मूलोच्छेद करके पर्णदत्त को वहाँ का शासक नियुक्त किया वे स्कंदगुप्त ही थे, जूनागढ़ वाले लेख में इसका स्पष्ट उल्लेख है। स्कंदगुप्त की प्रंशसा में उसमें लिखा है। –

“आपिच जितमिव तेन प्रथयन्ति यशांसि यस्य

रिपवोप्यामूल भग्नदर्पा निर्वचना म्लेच्छदेशेषु”

पर्णदत्त के पुत्र चक्रपालित ने ‘सुदर्शन झील’ का संस्कार कराया था, उससे अनुमान होता है कि अन्तिम शक क्षत्रप रुद्रसिंह की पराजय वाली घटना ई. सन् 457 के करीब हुई थी। स्कन्दगुप्त को सौराष्ट्र के शकों और तोरमाण के पूर्ववर्ती हूणों से लगातार युद्ध करना पड़ा। इधर वैमातृक भाई पुरगुप्त से आंतरिक द्वन्द्व भी चल रहा था। उस समय की विचलित राजनीति को स्थिर करने के लिए प्राचीन राजधानी पाटलिपुत्र या अयोध्या से दूर तक केन्द्र स्थल में अपनी राजधानी बनाना आवश्यक था। इसलिए वर्तमान मालव की मौर्यकाल की अवंती नगरी को ही स्कन्दगुप्त ने अपने साम्राज्य का केन्द्र बनाया और शक तथा हूणों को परास्त करके उत्तरीय भारत से हूण तथा शकों का राज्य ‘निर्मूल कर विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की।

“विक्रमादित्य’ – उपाधि के लिए शंकों का नाश करना एक आवश्यक कार्य था। पिछले काल में इसीलिए विक्रमादित्य का एक पर्य्याय ‘शकारि’ भी प्रचलित था और स्कंदगुप्त के समय में, सौराष्ट्र के शकों का विनाश होना चक्रपालित के शिलालेख से स्पष्ट है परन्तु यशोधर्म के समय में शकों का राज्य कहीं न था। यही बात ‘राजतरंगिणी’ के ‘शकान्विनाश्य येनादौ कार्य भारो लघूकृतः’ से भी ध्वनित होती है। मंदसोर वाले जयस्तम्भ में यशोधर्म का शकों के विजय करने का उल्लेख नहीं है। हूणों के विजय का है। मन्दसोर के यशोधर्म के विजय स्तम्भ का भी वही समय है जो वराहदास या विष्णुवर्द्धन के शिलालेख का है। गोविन्द की उत्कीर्ण की हुई दोनों प्रशस्तियाँ हैं। उसका समय 532 ई. का है। मिहिरकुुल ही भारी विदेशी शत्रु था, यह बात उक्त जयस्तम्भ से प्रतीत होती है। मिहिरकुल 532 ई. के पहले पराजित हो चुका था तब वह कौन-सा युद्ध 544 ई. में हुआ था यह नहीं कहा जाता; जिसके द्वारा यशोधर्म के ‘विक्रम’ होने की घोषणा की जाती है। इसी से हार्नेली के विरुद्ध स्मिथ ने यशोधर्म द्वारा मिहिरकुल के पराजित होने का काल 528 ई. माना है, परन्तु वे इस युद्ध को ‘कहरूर-युद्ध’ कहकर सम्बोधित नहीं करते। कहरूर-युद्ध’ 544 ई. में नहीं हुआ जैसा कि फर्गुसन, कीलहार्न, हार्नली आदि का मत है – प्रत्युत पहले, बहुत पहले, 458 के समीप दूसरी बार हो चुका है। संभवतः सौराष्ट्र के शक रुद्रसिंह और गांधार के हूण तुंजीन की सम्मिलित वाहनी को ‘कहरूर-युद्ध में पराजित कर स्कंदगुप्त ने आर्यावर्त की रक्षा की थी। अच्छा, जब 528 ई. में मिहिरकुल पर विजय निश्चित-सी है तब ‘कहरूर-युद्ध’ के ऊपर विक्रमादित्य को यशोधर्म माननेवाला सिद्धान्त निर्मूल हो जाता है, क्योंकि 432 के पहले ही यशोधर्म हूण विजय करके सम्राट् आदि पदवी धारण कर चुका था। फिर 544 ई. के काल्पनिक युद्ध की आवश्यकता नहीं है।

‘राजतरंगिणी’ और सुंगयुन के वर्णन से मिलाने पर प्रतीत होता है कि हूणों का प्रधान केन्द्र गान्धार था। वहीं से हूण राजकुमार अपनी विजयिनी सेना लेकर भिन्न-भिन्न प्रदेशों में राज्य स्थापन करते गये। राजतरंगिणी का क्रम देखने से तीन राजाओं का नाम आता है – मेघवाहन, तुंजीन और तोरमाण। गान्धार के मेघवाहन के समय में काश्मीर उसके शासन में हो गया था। उसके पुत्र तुंजीन ने काश्मीर की सूबेदारी की थी। यही तुंजीन प्रवरसेन के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जिसने झेलम पर पुल बनवाया ‘सेतुबंध’ नामक प्राकृत काव्य इसी के नाम से अंकित है। गान्धारवंशीय हूण तूंजीन का समय और स्कंदगुप्त का समय एक है, क्योंकि उसके पुत्र तोरमाण का काल 500 ई. स्मिथ ने सिद्ध किया है। संभवतः स्कंदगुप्त के द्वारा हूणों से काश्मीर राज्य निकल जाने पर मातृगुप्त वहाँ का शासक था।

यह उज्जयिनी-नाथ, कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य का पुत्र स्कंदगुप्त विक्रमादित्य ही था। जिसने सौराष्ट्र आदि से शकों का और काश्मीर तथा सीमा प्रान्त से हूणों का राज्यध्वंस किया और सनातन आर्य-धर्म की रक्षा की – म्लेच्छों से आक्रांत भारत का उद्धार कियां ‘भितरी’ के स्तम्भ में अंकित – “जयतिभुजबलाढ्यो गुप्तवंशैकवीरः प्रथित विपुलधामा नामतः स्कंदगुप्तः विनयबलसुनीतै विक्रमेण क्रमेण” से स्पष्ट प्रतीत होता है कि स्कंदगुप्त विक्रमादित्य ही द्वितीय ‘कहरूर-युद्ध’ का विजेता ‘तृतीय विक्रम’ है।

पिछले काल के स्वर्ण-सिक्कों को देखकर लोग अनुमान करते हैं कि उसी के समय में हूणों ने फिर आक्रमण किया और स्कंदगुप्त पराजित हुये। वास्तव में ऐसी बात नहीं। तोरमाण के शिलालेखों के संवत् को देखने से यह विदित होता है स्कंदगुप्त पहले ही निधन को प्राप्त हुए और दुर्बल पुरगुप्त के हाथों में पकड़कर तोरमाण के द्वारा गुप्त साम्राज्य विध्वंस किया गया और गोपाद्रितक उसके हाथ में चले गए।

कालिदास

विक्रम के साथ कालिदास का कुछ ऐसा सम्बन्ध है कि एक का समय.निर्धारण करने में दूसरे की चर्चा आवश्यक-सी हो जाती है। यह प्रतिपादित किया जा चुका है कि 57 ई. पूर्व में मालव के प्रथम विक्रमादित्य हुए, और दूसरे विक्रमादित्य का समय 385 (400?) ईसवीय से 413 ईसवीय तक है। इनका सम्पूर्ण नाम श्री चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य है। ये मगध के सम्राट थे। संभवतः इन्होंने अयोध्याय को अपनी राजधानी बनाई थी। तीसरे विक्रमादित्य श्री स्कंदगुप्त विक्रमादित्य थे। वर्तमान मालव के प्रधान नगर उज्जयिनी को उन्होंने अपनी राजधानी बनाई थी। गुप्त राजवंश के अर्न्तकलह का निवारण करने के लिए और हूण तथा शकों से प्रायः मुठभेड़ रहने के कारण इन्हें मगध और कोसल छोड़ना पड़ा।

कालिदास के सम्बन्ध में भी राजशेखर का एक श्लोक जल्हण की ‘सूक्तिमुक्तावली’ और हरि कवि की ‘सुभाषितावली’ में मिलता है।

“एकोपि जीयते हन्त कालिदासो न केनचित्

श्रृंगारे ललितोद्गारेे कालिदासत्रयी किमु”

एकादश शताब्दी में उत्पन्न हुए, राजशेखर की इस उक्ति से यह प्रकट होता है कि उस शताब्दी तक तीन कालिदास हो चुके थे परन्तु वर्तमान आलोचकों का मत है कि कालिदास दो तो अवश्य हुए हैं एक ‘रघुवंश’, ‘शाकुंतल’ आदि के कर्त्ता, और दूसरे ‘नलोदय’ तथा ‘पुष्पवाण-विलास’ आदि के रचयिता।

यह विभाग साहित्यिक महत्व की दृष्टि से किया गया है। श्रृंगार-तिलक जैसे साधारण ग्रन्थों को महाकवि कालिदास की कृति वे लोग नहीं मानना चाहते, इसलिए एक छोटे कालिदास को मान लेना पड़ा। बड़े कालिदास के लिए कुछ समीचीन समालोचकों का मत है कि ये ‘शाकुंतल’ और ‘रघुवंश’ के कर्ता, चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के समय में हुए। इनका मत है कि “आसमुद्रक्षितीशानाम”, “इदंनवोत्थान मिवेन्दुमत्यै”, “ज्योतिष्मतीचन्द्रमसैवरात्री:” इत्यादि स्थानों में इन्दु और चन्द्र शब्दों से समुद्रगुप्त के वंशधर चन्द्रगुप्त द्वितीय की ओर कालिदास का संकेत है। और, इसलिए महाकवि कालिदास मगध के गुप्त सम्राट् चन्द्रगुपत द्वितीय के राजकवि थे।

इधर परांजपे आदि विद्वानों का मत है कि कालिदास ने ‘मालविकाग्निमित्र’ में शुंगों के इतिहास का सूक्ष्म विवरण दिया है, जैसा कि उस काल में बहुत ही थोड़े समय के पीछे का कवि लिख सकता है। पटवर्धन और वैद्य महोदय कालिदास को 57 ई. पूर्व का मानते हैं। और भी कई विद्वान् इसके समर्थक हैं।

काव्यों मैं ज्योतिष सम्बन्धी जामित्र और होरा आदि ज्योतिष शास्त्र सम्बन्धी शब्दों को देखकर कुछ लोगों का अनुमान है कि ‘रघुवंश आदि के रचयिता कालिदास छठी शताब्दी में रहे होंगे। उनके नाम से प्रसिद्ध’ ‘ज्योतिर्विदाभरण’ ग्रन्ध की भी ज्योतिष सम्बन्धी गणनाओं के अनुसार, अनेक लोगों ने यह स्थिर किया है कि यह ग्रन्थ भी छठी शताब्दी का है; इसलिए इन ग्रंथों के रचयिता कालिदास छठी शताब्दी में उत्पन्न हुए और वे यशोधर्मदेव के सभासद थे। इस तरह महाकवि कालिदास के सम्बन्ध में तीन सिद्धान्त प्रचलित हैं –

1. 57 ई. पूर्व में मालव के कालिदास हुए।

2. ईसा के चौथे शतक में चंद्रगुुप्त द्वितीय मगध नरेश के समकालीन कालिदास हुए।

3. मालव नरेश यशोधर्म देश के सभासद थे।

‘श्रृंगार तिलक’ आदि ग्रन्थों के कर्ता कालिदास को प्रायः सब लोग इन महाकवि कालिदास से भिन्न और सबसे पीछे का संभवतः नवम् या दशम् शताब्दी का मानते हैं। हम महाकवि कालिदास के सम्बन्ध में ही विवेचन किया चाहते हैं।

मालव के प्रथम विक्रमादित्य को लोग इसलिए नहीं मानते कि उनका कहीं ऐतिहासिक उल्लेख उन लोगों को नहीं मिला, और विक्रम-संवत् प्राचीन शिलालेखों में मालवगण के नाम से प्रचलित है। परन्तु ऊपर यह प्रमाणित किया गया है कि वास्तव में 47 ई. पूर्व में एक विक्रमादित्य हुए। इस मत को न मानने वाले विद्वानों ने विक्रमादित्य को ‘चन्द्रगुप्त द्वितीय’ कहकर कालिदास का समय निर्धारित करने का प्रयत्न किया है। ‘रघुवंश’ में जो संकेत से गुप्तवंशी सम्राटों का उल्लेख है, उसकी संगति इस प्रकार लगाई गई। परन्तु आश्चर्य की बात है कि चन्द्रगुप्त का समय प्रमाणित करने के लिए जो अवतरण दिये गये है उनमें चन्द्रगुप्त का तो स्पष्ट उल्लेख है नहीं; हाँ कुमारगुप्त और स्कंदगुप्त का उल्लेख अधिक और स्पष्ट है। यदि वे सब संकेत भी गुप्तवंशियों के ही सम्बन्ध में मान लिए जाएँ तो यह समझ में नहीं आता कि चन्द्रगुप्त द्वितीय के समसामयिक सामयिक कवि ने भावी राजाओं का वर्णन कैसे कर दिया। जब कि गुप्तवंश में उत्तराधिकार नियम निश्चित नहीं था कि ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य का अधिकारी हो, समुद्रगुप्त अपनी योग्यता से ही युवराज हुए और चन्द्रगुप्त भी, तब रघुवंश में कुमार और उनके बाद स्कन्दगुप्त का वर्णन कैसे आया? चन्द्रगुप्त के समय गुप्त साम्राज्य का यौवनकाल था, फिर अग्निवर्ण जैसे राजा का चरित्र दिखाकर ‘रघुवंश’ का अन्त करना चन्द्रगुप्त के समसामयिक और उनकी सभा के कालिदास कैसे लिख सकते हैं ? वास्तव में रघुवंश की सी दशा गुप्तवंश की हुई। अग्निवर्ण के समान ही पिछले गुप्तवंशी विलासी और हीन वैभव हुए। तब यह मानना पड़ेगा कि गुप्तवंश का ह्रास भी कालिदास ने देखा था। और तब रघुवंश की रचना की थी।

ईसवी पूर्व पहली शताब्दी के कालिदास के लिए भी उधर प्रमाण मिलते हैं। इसलिए यह समस्या उलझती जा रही है, और इसका मूल कारण है – एक ही कालिदास को काव्य और नाटकों का कर्ता मान लेना। हमारी सम्मति में काव्यकार कालिदास और नाटककार कालिदास भिन्न-भिन्न थे और ‘नलोदय’ आदि के कर्त्ता कालिदास अन्तिम और तीसरे थे। इस प्रकार जल्हण की ‘कालिदास -त्रयी’ का भी समर्थन हो जाता है। और सब पक्षों के प्रमाणों की संगति भी लग जाती है। यद्यपि ‘शकुन्तला’ और ‘रघुवंश’ का श्रेय एक ही कालिदास को देने का संस्कार बहुत ही प्राचीन है। विश्व साहित्य के इन दो ग्रन्थ-रत्नों का कर्ता एक कालिदास को न मानन से श्रद्धा बंट जाने का भय इसमें बाधक है। परन्तु पक्षपात और रूढ़ि को छोड़कर विचार करने से यह बात ठीक ही जंचेगी। हम ऊपर कह आये हैं कि कालिदास तीन हुये; परन्तु जो लोग दो ही मानते हैं, वे ही बता सकते हैं कि प्रथम कालिदास तो महाकवि हुए और उन्होंने उत्तमोत्तम नाटक तथा काव्य बना डाले, अब वह कौन-सी बची हुई कृति है जिस पर द्वितीय कवि को ‘कालिदास’ की उपाधि मिली ? क्योंकि यह सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि कालिदास की उपाधि ‘कालिदास’ थी, न कि उनका नाम कालिदास था। जैसी प्रायः किसी वर्तमान कवि को, उनकी शैली की उत्तमता देखकर किसी प्राचीन उत्तम कवि के नाम से संबोधित करने की प्रथा-सी है। अस्तु ! हम नाटककार कालिदास को प्रथम और ईसवी पूर्व का कालिदास मानते हैं।

(1) नाटककार कालिदास ने गुप्तवंशीय किसी राजा का संकेत से भी उल्लेख अपने नाटकों में नहीं किया।

(2) ‘रघुवंश’ आदि असुरों के उत्पात और उनसे देवताओं की रक्षा के वर्णन से साहित्य भरा है। नाटकों में उस तरह का विश्लेषण नहीं। काव्यकार कालिदास का समय हूणों के उत्पात और आतंक से पूर्ण था। नाटकों में इस भाव का विकास इसलिए नहीं है कि वे शकों के निकल जाने पर सुख-शान्ति का काल है। ‘मालविकाग्निमित्रा’ में सिंधु तट पर विदेशी यवनों का हराया जाना मिलता है। यवनों का राज्य उस समय उत्तरी भारत से उखड़ चुका था। ‘शाकुन्तल’ में हस्तिनापुर के सम्राट् ‘वनपुष्प’ मालाधारिणी यवनियों से सुरक्षित दिखाई देते है। यह संभवतः उस प्रथा का वर्णन है जो यवन सिल्यूकस-कन्या से चन्द्रगुप्त का परिणय होने पर मौर्य और उसके बाद शुंग वंश में प्रचलित रही हो। यवनियों का व्यवहार क्रीत दासी और परिचारिकाओं के रूप में राजकुल में था। यह काल ईसवी पूर्व पहली शताब्दी में रहा होगा। नाटककार कालिदास ‘मालविकाग्निमित्र’ में राजसूय का स्मरण करने पर भी बौद्ध प्रभाव से मुक्त नहीं थे। क्योंकि शाकुन्तल में धीवर के मुख से कहलाया है – पशुमारणकर्म दारुणोप्यनुकम्पा मृदुरेव श्रोत्रिय – और भी – “सरस्वती श्रुतिर्महती न हीयताम्” इन शब्दों पर बौद्ध धर्म की छाप है। नाटककार ने अपने पूर्ववर्ती नाटककारों के जो नाम लिए है, उनमें सौमिल्ल और कविपुत्र के नाट्यरत्नों का पता नहीं। भास के नाटकों को चौथी शताब्दी ईसवी पूर्व माना गया है।

(3) नाटककार ने ‘मालविकाग्निमित्रा की कथा का जिस रूप में वर्णन किया है, वह उसके समय से बहुत पुरानी नहीं जान पड़ती। शुंगवंशियों के पतन-काल में विक्रमादित्य का मालवगण राष्ट्रपति के रूप में अम्युदय हुआ उसी काल कालिदास के होने से शुंगों की चर्चा बहुत ताजी सी मालूम होती है।

(4) ‘जामित्रा’ और ‘होरा’ इत्यादि शब्द, जिनका प्रचार भारत में ईसा की पांचवीं शताब्दी के समीप हुआ है, नाटक में नहीं पाये जाते। और ‘शाकुन्तल’ की जिस प्रति का हम उल्लेख कर चुके हैं उसमें स्पष्टरूपेण विक्रमादित्य में से गण-राष्ट्र का सम्बन्ध संकेतित है, और कालिदास का उस नाटक का स्वयं प्रयोग करना भी ध्वनित होता है। यह अभिनय साहसांक उपाधिधारी विक्रमादित्य नाम के मालव-गणपति की परिषद् में हुआ था। इसलिए नाटककार कालिदास ईसवी पूर्व पहली शताब्दी के हैं।

(5) नाटकों की प्राकृत में मागधी – प्रचुर प्राकृत का प्रयोग है। उस प्राकृत का प्रचार भारत में सैकड़ों वर्ष पीछे हुआ था। पांचवीं-छठी शताब्दी में महाराष्ट्र-प्राकृत प्रारम्भ हो गई थी और उस काल के ग्रंथों में उसी का व्यवहार मिलता है। ‘शाकुन्तल’ आदि की प्राकृत में बहुत से प्राचीन प्रयोग मिलते हैं जिनका व्यवहार छठी शताब्दी में नहीं था।

इसलिए नाटककार कालिदास का होना, विक्रमादित्य प्रथम (मालवपति) के समय – ईसवी पूर्व पहली शताब्दी में ही निर्धारित किया जा सकता है।

काव्यकार कालिदास अनुमान से पांचवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और छठी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जीवित थे। वे काश्मीर के थे, ऐसा लोगों का मत है। ‘मेघदूत’ में जो अलका का वर्णन है, वह काश्मीर-वियोग का वर्णन है। यदि ये काश्मीर के न होते तो विल्हण को यह लिखने का साहस न होता।

“सहोदरा कुंकुमकेसराणां सार्धन्तनूनं कविताविलासा।

न शारदादेशमपास्य दृष्टस्तेषां यदन्यत्रा मयाप्ररोहः।।”

500 वर्ष के प्राचीन ‘पराक्रम बाहु चरित’ में इसका उल्लेख है कि सिंहल के राजकुमार धातुसेन (कुमारदास) से कालिदास की बड़ी मित्रता थी। उसने कालिदास को वहाँ बुलाया। (महावंश के अनुसार इनका राज्यकाल 511 से 524 ई. तक है) यह राजा स्वयं अच्छा कवि था। ‘जानकी हरण’ इसका बनाया हुआ ग्रन्थ है।

‘जानकी हरणं कर्तु रघुवंशेस्थिते सति

कविकुमारदासी वा रावणों वा यदिश्रमः”

सोढ्ढल की बनाई हुई ‘उदय.सुन्दरी.कथा’ में एक श्लोक है –

“ख्यातः कृती कोपि च कालिदासः शुद्धासुधास्वादुमती च यस्य

वाणीमिषाच्चण्ड मरीचिगोत्र सिन्धोः परंपरामवाप कीर्तिः।

वभूवुरन्येपि कुमारदासः” इत्यादि।

हमारा अनुमान है कि ‘सिन्धोः परंपार में कालिदास और कुमारदास के सम्बन्ध की ध्वनि है।

‘ज्योतिर्विदाभरण’ को बहुत से लोग ईसवीय छठी शताब्दी का बना हुआ मानते हैं। और हम भी कहते हैं कि वह ईसवीय पांचवीं शताब्दी के अन्त और छठी के प्रारम्भ में होने वाले कालिदास की कृति है। नाटककार के पीछे भिन्न एक दूसरे कालिदास के होने का, और केवल काव्यकार का, उसमें एक स्पष्ट प्रमाण है।

“काव्यत्रयं सुमतिकृद्रधुवंश पूर्व-पूर्व ततोननुकियच्छु तिकम्र्मवादः

ज्योतिर्विदभारण कालविधान शास्त्र श्री कालिदास कवियोहि ततोवभूव।।

इस श्लोक में छठी और पांचवीं शताब्दी के ज्योतिर्विदाभरणकार कालिदास अपने को केवल काव्यत्रायी का ही कर्त्ता मानते हैं, नाटकों का नाम नहीं लिया है। इसलिये यह दूसरे कालिदास – नृपसखा कालिदास या दीपशिखा कालिदास कहिये – पांचवीं और छठी शताब्दी के कालिदास हैं ‘अस्तिकश्चिद्वाग् विशेषः’ वाली किंवदन्ती भी यही सिद्ध करती है कि काव्यकार कालिदास नाटककार से भिन्न हुए। ‘कालिदास’ उनकी उपाधि हुई परन्तु वास्तविक नाम क्या था ?

‘राजतरंगिणी’ में एक ‘विक्रमादित्य’ का वर्णन है, जिसने प्रसन्न होकर काश्मीर देश का राज्य ‘मातृगुप्त’ नाम के कवि को दे दिया था। डाक्टर भाउदाजी का मत है कि यह मातृगुप्त ही कालिदास हैं। मेरा अनुमान है कि यह मातृगुप्त कालिदास तो थे परन्तु द्वितीय और काव्यकर्त्ता कालिदास थे। प्रवरसेन मातृगुप्त और विक्रमादित्य – ये परस्पर समकालीन व्यक्ति छठी शताब्दी के माने जाते हैं।

महाराष्ट्र भाषा का काव्य ‘सेतुबंध’ (दह मुह वह) प्रवरसेन के लिए कालिदास ने बनाया था। ऊपर हम कह आये हैं कि मातृगुप्त का वहीं समय है जो काश्मीर में प्रवरसेन का है। इनका नाम ‘तुंजीन’ भी था। सम्भवतः इसी सभा में रहकर कालिदास ने अपनी जन्मभूमि काश्मीर में यह अपनी पहली कृति बनाई, क्योंकि उस समय प्राकृत का प्रचार कश्मीर में अधिक था और वही प्राकृत है, जो उस समय समस्त भारतवर्ष में राष्ट्रभाषा के रूप में व्यवहृत थी, इसलिए इसका नाम महाराष्ट्री था।

कुछ लोगों का विचार है कि यह काव्य कालिदास का नहीं हैं क्योंकि पहले विष्णु की स्तुति के रूप में मंगलाचरण किया गया है, परन्तु यह तर्क निस्सार है। कारण ‘रघुवंश में विष्णु की स्तुति कालिदास ने की है। और सेतुबन्ध में तो स्पष्ट रूप से लिखा मिलता है कि “इ अ सिरि पवर सेण बिरइए कालिदास कए” जब यह काव्य प्रवरसेन के लिए बनाया गया तो यह आवश्यक है कि उनके आराध्य विष्णु की स्तुति की जाय। प्रवरसेन ने जब स्वामी नामक विष्णु की मूर्ति बनवाई थी वस्तुतः कालिदास के लिए शिव और विष्णु में भेद नहीं था। जैसा कि हम ऊपर कह आये है, शाकुन्तल के प्राकृत से ‘सेतुबन्ध’ की प्राकृत अत्यन्त अर्वाचीन है, इसलिए उसे काव्यकार कालिदास का मान लेने में कोई आपत्ति नहीं है। कालिदास के संस्कृत काव्यों तथा इस महाराष्ट्री काव्य में कल्पना शैली और भाव का भी साम्य है। कुछ उदाहरण लीजिये।

वैदेहि पश्यामलयाद्विभक्तं मत्सेतुनाफेनिलमम्बुराशिम् – (रघुवंश)

दीसई सेउ महा वह दोहाइअ पुव्व पच्छिम दिसा भाअम -(सेतुबन्ध)

*****

छाया पथेनेव शरत्प्रसन्नमाकाशमाविष्कृत चारुतारम – (रघुवंश)

मलअसुवेलालग्गो पडिटिओ णहणि हम्मिसागर सलिले – (सेतुबन्ध)

*****

रत्नच्छाया व्यतिकर इव प्रेक्ष्यमेतत्पुरस्तात् – (मेघदूत)

णिअअच्छाआवइ अरसामलसाअरोअर जलद्वन्तं – (सेतुबन्ध)

ऐसा जान पड़ता है कि किसी कारण से प्रवरसेन और मातृगुप्त (कालिदास) में अनबन हो गई, और उसे राज्यसभा तथा काश्मीर को छोड़कर मालव आना पड़ा। शास्त्री महोदय के उस मत का निराकरण किया जा चुका है कि यशोधर्मदेव विक्रमादित्य नहीं थे। फिर संभवतः इन्हें स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य का ही आश्रित मानना पड़ेगा। क्योंकि तुंजीन और तोरमाण के समय में काश्मीर आपस के विग्रह के कारण अरक्षित था। उज्जयिनी के विक्रमादित्य के लिये यह मिलता भी है कि उसने “सकाश्मीरान्स कौवेरी काष्ठाश्च करदीकृता।” यह स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य की ही वदान्यता थी कि काश्मीर विजय करके उसे मातृगुप्त को दान कर दिया।

चीनी यात्री हुऐन्त्सांग ने लिखा है कि कुमारगुप्त की सभा में दिड्.नाग के दादागुरु मनोरथ को हराने में कालिदास की प्रतिभा ने काम किया था। कुमार गुप्त का समय 455 ई. तक है। किशोर मातृगुप्त ने कुमारगुप्त के समय में ही विद्या का परिचय दिया। मनोरथ के शिष्य बसुबन्धु, और उनका शिष्य दिड्.नाग था, जिसने कालिदास के काव्यों की कड़ी आलोचना की थी। संभवत: उसी का प्रतिकार “दिड्.नागानां पथिपरिहन् स्थूल हस्तावलेपान्” से किया गया है क्योंकि प्राचीन टीकाकार मल्लिनाथ भी इसको मानते हैं। दिड्.नाग का गुरु वसुबन्धु अयोध्या के विक्रमादित्य का सुहृद था। बौद्ध विद्वान् परमार्थ ने उसकी जीवनी लिखी है। इधर वामन ने काव्यालंकारसूत्र वृत्ति के अधिकरण 3, अध्याय 2 में साभिप्रायत्व का उदाहरण देते हुए एक श्लोकार्ध उद्धृत किया है –

“सोऽयं सम्प्रति चन्द्रगुप्त तनयश्चंद्रप्रकाशो युवा

जातो भूपतिराश्रयः कृतधियां दिष्टया कृतार्थश्रम:”

“आश्रमः कृतधियामित्यस्य वसुबन्धु साचिव्योपक्षेप परत्वात्साभिप्रायत्वम्”

यह अयोध्या के विक्रमादित्य चन्द्रगुप्त का तनय चंद्रप्रकाश युवा कुमारगुप्त हो सकता है वसुबन्धु के गुरु मनोरथ का अन्त और उसका सभा में पराजित होना स्वयं बौद्धों ने कालिदास के द्वारा माना है इसी द्वेष से दिड्.नाग कालिदास का प्रतिद्वन्दी बना। अब यह मान लेने में कोई भ्रम नहीं होता कि मातृगुप्त किशोरावस्था में कुमारगुप्त की सभा में था। वही कालिदास स्कंदगुप्त विक्रमादित्य के सहचर थे। कुमारगुप्त का नामांकित एक काव्य भी कुमारसंभव बनाया। यह बात तो अब बहुत से विद्वान् मानने लगे है कि कालिदास के काव्यों में गुप्तवंश का व्यंजना से वर्णन है। हूणों के उत्पात और उनसे रक्षा करने का वर्णन का पूर्ण आभास कुमारसम्भव में है।

स्कंदगुप्त के भितरी वाले शिलालेख में एक स्थान पर उल्लेख है –

“क्षितितलशयनीये येन नीता त्रियामा”

जो ‘रघुवंश में भी मिलता है –

सललितकुसुमप्रवालश्य्यां, ज्वलितमहौषधिदीपिकासनाथाम्।

नरपति रतिवाहयाँ वभूव क्वचिद् समेतपरिच्छद स्त्रियामाम्।।

स्कंदगुप्त के शिलालेखों में जो पद्य रचना है, वह वैसी ही प्रांजल है जैसी रघुवंश की- ‘व्यपेत्य सर्वान्मनुजेन्द्र पुत्रान् लक्ष्मी: स्वयं यं वरयांचकार’ इत्यादि में रघुवंश की सी ही शैली दीख पड़ती है। “स्कन्देन साक्षादिव देवसेनाम्” इत्यादि में स्कन्दगुप्त का स्पष्ट उल्लेख भी है और कुमारगुप्त के तो बहुत उल्लेख हैं। रघुवंश के 5, 6, 7, सर्गों में तो अज के लिए कुमार शब्द का प्रयोग कम से कम 11 बार है।

विक्रमादित्य के जीवन के सम्बन्ध में यह प्रसिद्ध है कि उनका अन्तिम जीवन पराजय और दुःखों से सम्बन्ध रखता है। वस्तुतः चन्द्रगुप्त के जीवन काल में साम्राज्य की वृद्धि के अतिरिक्त उसका ह्रास नहीं हुआ। यह स्कन्दगुप्त के समय में ही हुआ कि उसे अनेक षड्यन्त्रों, विपत्तियों तथा कष्टों का सामना करना पड़ा। जिस समय उज्जयिनी को अपनी राजधानी बनाई, और साम्राज्य का नया संगठन हो रहा था उसी समय मातृगुप्त को काश्मीर का शासक नियुक्त किया गया। यह समय ईसवीय सन् 450 से 500 के बीच पड़ता है। 467 ई. में स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य का अन्त हुआ। उसी समय मातृगुप्त (कालिदास) ने काश्मीर का राज्य स्वयं छोड़ दिया और काशी चले आये। अब बहुत से लोग इस बात की शंका करेंगे कि कहाँ उज्जयिनी कहाँ मगध, कहाँ काश्मीर फिर काशी, और सब के बाद सिंहल जाना – यह बड़ा दूरान्वय-सम्बन्ध है। परन्तु उस काल में सिंहल और भारत में बड़ा सम्बन्ध था। महाराज समुद्रगुप्त के समय में सिंहल के राजा मेघवर्ण ने उपहार भेजकर बोध गया में विहार बनाने की प्रार्थना की थी; महावंश और समुद्रगुप्त के लेख में इसका संकेत हैं और महाबोधि विहार सिंहल के राजकुल की कीर्ति है। तब से सिंहल के राजकुमार और राजकुल के भिक्षु इस विहार में बराबर आते रहते थे। बोध-गया से लाया गया पटना म्यूजियम में एक शिलालेख है – (नम्बर 113) यह प्रमाण प्रख्यात कीर्ति का है “लड्.काद्वीप नरेन्द्राणां श्रमण: कुलजोभवत्। प्रख्यातिकीर्ति धर्मात्मा स्वकुलाम्बर चन्द्रमा”। महानामन् के शिलालेख से इसकी पुष्टि होती है।

“संयुक्तागमिनो विमुद्धरजसः सत्वानुकम्प्रोद्यता

शिष्यायस्य सकृद्धिचेरुरतुलांलंकाचलोपत्यकां

तेभ्यः शीलगुणान्वितश्च शतश: शिष्याः प्रशिष्याः क्रमात्

जातास्तंग नरेन्द्रवंश तिलका: प्रोत्सृज्य राज्यश्रियम्”

जब राजकुल के श्रमण और राजपुत्र लोग यहां तीर्थ यात्रा के लिये बराबर आते थे, और संस्कृत कविता का प्रचार भी रहा हो, तब उस काल के सर्वोच्च कवि की मैत्री की इच्छा होनी स्वाभाविक है। और उस, नष्टाश्रय महाकवि के साथ मैत्री करने में अपने को धन्य समझने वाले कुमारदास की कथा में अविश्वास का कारण नहीं है। यदि स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य के मरने पर दुखी होकर राजमित्र के पास सिंहल जाना इनका ठीक है, तो यह कहना होगा कि ‘मेघदूत’ उसी समय का काव्य है और देवगिरि की स्कन्दराज प्रतिमा उनकी आँखों से देखी हुई थी, जिसका वर्णन उन्होंने “देवपूर्वं गिरि ते’ वाले श्लोक में किया है।

यदि 524 ई. तक कालिदास का जीवित रहना ठीक है तो उन्होंने गुप्तवंश का ह्रास भी भलि भांति देख लिया अथवा सुना होगा। रघुवंश में वैसा ही अन्तिम पतन – पूर्ण वर्णन भी है।

कुमारदास का सिंहल का राजा उसी काल में होना और सिंहल में कालिदास के जाने की रूढ़ि उस देश में माना जाना, उधर चीनी यात्री द्वारा वर्णित कालिदास का मनोरथ को हराना, दिड्.नाग और कालिदास का द्वन्द्व, विक्रमादित्य और मातृगुप्त की कथा का ‘राज- तरंगिणी’ में उसी काल का उल्लेख, हूण राजकुल में सुंगयुन के अनुसार विग्रह; काश्मीर युद्ध की देखी हुई घटना – ये सब बातें आकर एक सूत्र में ऐसी मिल जाती हैं कि दूसरे काव्यकार कालिदास को विक्रम-सखा, दीप शिखा, कालिदास को मातृगुप्त मानने में कुछ भी संकोच नहीं होता – जैसा डाक्टर भाऊदाजी का मत है।

विक्रमांक के समान भोज के पिता सिन्धुराज की पदवी साहसांक थी। पद्मगुप्त परिमल ने नवसाहसांक.चरित बनाया था। तजौर वाली ‘साहसांक-चरित’ की प्रति में इनको भी कालिदास लिखा है। बहुत सम्भव है कि यह तीसरे कालिदास बंगाल के हों, जैसा कि बंगाली लोग मानते हैं। ऋतुसंहार, पुष्पवाण-विलास,श्रृंगार-तिलक और अश्वघाटी काव्यों के रचयिता संभवत: यही तीसरे कालिदास हो सकते हैं।

(1 विक्रमादित्य इत्यासीद्राजा पाटिलपुत्र के (कथा सरित्सागर)

यह द्वितीय चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के लिए आया है। बौद्धों ने अयोध्या में इसकी राजधानी लिखा है। संभवत: मगध साम्राज्य सीमा बढ़ने पर अयोध्या में सम्राट कुछ दिनों के लिए रहने लगे हों परन्तु उज्जयिनी में इसका शासन होना किसी भी लेखक ने नहीं लिखा है। इसके पुत्र कुमारगुप्त ने ‘महोदय’ को विशेष आदर दिया। क्योंकि साम्राज्य धीरे-धीरे उत्तर पश्चिम की ओर बढ़ रहा था। वस्तुतः उस समय राज्य उत्तरोतर वृद्धि के साथ गुप्त सम्राट् लोग कुसुमपुर की प्रधानता रखते हुए सुविधानुसार अपने रहने का स्थान बदलते रहे हैं। क्योंकि उन्हें सैनिक केन्द्रों का बराबर परिवर्तन करना पड़ता था।)

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