वैशाली की नगरवधू

प्रवेश 

1

मुजफ्फरपुर से पश्चिम की ओर जो पक्की सड़क जाती है—उस पर मुजफ्फरपुर से लगभग अठारह मील दूर ‘वैसौढ़’ नामक एक बिलकुल छोटा-सा गांव है। उसमें अब तीस-चालीस घर भूमिहार ब्राह्मणों के-और कुछ गिनती के घर क्षत्रियों के बच रहे हैं। गांव के चारों ओर कोसों तक खण्डहर, टीले और पुरानी टूटी-फूटी मूर्तियां ढेर-की-ढेर मिलती हैं, जो इस बात की याद दिलाती हैं कि कभी यहां कोई बड़ा भारी समृद्ध नगर बसा रहा होगा।

वास्तव में वहां, अब से कोई ढाई हज़ार वर्ष पूर्व एक विशाल नगर बसा था। आजकल जिसे गण्डक कहते हैं, उन दिनों उसका नाम ‘सिही’ था। आज यह नदी यद्यपि इस गांव से कई कोस उत्तर की ओर हटकर बह रही है; किन्तु उन दिनों यह दक्षिण की ओर इस वैभवशालिनी नगरी के चरणों को चूमती हुई दिधिवारा के निकट गंगा में मिल गई थी। इस विशाल नगरी का नाम वैशाली था। यह नगरी अति समृद्ध थी। उसमें 7777 प्रासाद, 7777 कूटागार, 7777 आराम और 7777 पुष्करिणियां थीं। धन-जन से परिपूर्ण यह नगरी तब अपनी शोभा की समता नहीं रखती थी।

यह लिच्छवियों के वज्जी संघ की राजधानी थी। विदेह राज्य टूटकर यह वज्जी संघ बना था। इस संघ में विदेह, लिच्छवि, क्षात्रिक, वज्जी, उग्र, भोज, इक्ष्वाकु और कौरव ये आठ कुल सम्मिलित थे, जो अष्टकुल कहलाते थे। इनमें प्रथम चार प्रधान थे। विदेहों की राजधानी मिथिला, लिच्छवियों की वैशाली, क्षात्रिकों की कुण्डपुर और वज्जियों की कोल्लाग थी। वैशाली पूरे संघ की राजधानी थी। अष्टकुल के संयुक्त लिच्छवियों का यह संघव्रात्य संकरों का संघ था और इनका यह गणतन्त्र पूर्वी भारत में तब एकमात्र आदर्श और सामर्थ्यवान् संघ था, जो प्रतापी मगध साम्राज्य की उस समय की सबसे बड़ी राजनीतिक और सामरिक बाधा थी।

नगरी के चारों ओर काठ का तिहरा कोट था, जिसमें स्थान-स्थान पर गोपुर और प्रवेश-द्वार बने हुए थे। गोपुर बहुत ऊंचे थे और उन पर खड़े होकर मीलों तक देखा जा सकता था। प्रहरीगण हाथों में पीतल के तूर्य ले इन्हीं पर खड़े पहरा दिया करते थे। आवश्यकता होते ही वे उन्हें बजाकर नगर को सावधान कर देते और प्रतिहार तुरन्त नगर- रक्षकों को संकेत कर देते। इसके बाद आनन-फानन सैनिक हलचल नगर के प्रकोष्ठों में दीखने लगती थी। सहस्रों भीमकाय योद्धा लोह-वर्म पहने, शस्त्र-सज्जित, धनुष-बाण लिए, खड्ग चमकाते, चंचल घोड़ों को दौड़ाते प्राचीर के बाहरी भागों में आ जुटते थे।

वज्जी संघ का शासन एक राज-परिषद् करती थी, जिसका चुनाव हर सातवें वर्ष उसी अष्टकुल में से होता था। निर्वाचित सदस्य परिषद् में एकत्र होकर वज्जी-चैत्यों, वज्जी संस्थाओं और राज्य-व्यवस्था का पालन करते थे। शिल्पियों और सेट्ठियों के नगर में पृथक् संघ थे। शिल्पियों के संघ श्रेणी कहाते थे, और प्रत्येक श्रेणी का संचालन उसका जेट्ठक करता था। जल, थल और अट्टवी के नियामकों की श्रेणियां पृथक् थीं। नगर में श्रेणियों के कार्यालय और निवास पृथक्-पृथक् थे। बाहरी वस्तुओं का क्रय-विक्रय भी पृथक्-पृथक् हट्टियों में हुआ करता था। परन्तु श्रेणियों का माल अन्तरायण में बिकता था। सेट्ठियों के संघ निगम कहाते थे। सब निगमों का प्रधान नगरसेट्ठि कहाता था और उसकी पद-मर्यादा राजनीतिक और औद्योगिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती थी।

वत्स, कोसल, काशी और मगध साम्राज्य से घिरा रहने तथा श्रावस्ती से राजगृह के मार्ग पर अवस्थित रहने के कारण यह स्वतन्त्र नागरिकों का नगर उन दिनों व्यापारिक और राजनीतिक संघर्षों का केन्द्र बना हुआ था। देश-देश के व्यापारी, जौहरी, शिल्पकार और यात्री लोगों से यह नगर सदा परिपूर्ण रहता था। ‘श्रेष्ठिचत्वर’ में, जो यहां का प्रधान बाज़ार था, जौहरियों की बड़ी-बड़ी कोठियां थीं, जिनकी व्यापारिक शाखाएं समस्त उत्तराखण्ड से दक्षिणापथ तक फैली हुई थीं। सुदूर पतित्थान से माहिष्मती, उज्जैन, गोनर्द, विदिशा, कौशाम्बी और साकेत होकर पहाड़ की तराई के रास्ते सेतव्य, कपिलवस्तु, कुशीनारा, पावा, हस्तिग्राम और भण्डग्राम के मार्ग से बड़े-बड़े सार्थवाह वैशाली से व्यापार स्थापित किए हुए थे। पूर्व से पश्चिम का रास्ता नदियों द्वारा था। गंगा में सहजाति और यमुना में कौशाम्बी-पर्यन्त नावें चलती थीं। वैशाली से मिथिला के रास्ते गान्धार को, राजगृह के रास्ते सौवीर को, तथा भरुकच्छ के रास्ते बर्मा को और पतित्थान के रास्ते बेबिलोन तथा चीन तक भी भारी-भारी सार्थवाह जल और थल पर चलते रहते थे। ताम्रपर्णी, स्वर्णद्वीप, यवद्वीप आदि सुदूर-पूर्व के द्वीपों का यातायात चम्पा होकर था।

श्रेष्ठिचत्वर में बड़े-बड़े दूकानदार स्वच्छ परिधान धारण किए, पान की गिलौरियां कल्लों में दबाए, हंस-हंसकर ग्राहकों से लेन-देन करते थे। जौहरी पन्ना, लाल, मूंगा, मोती, पुखराज, हीरा और अन्य रत्नों की परीक्षा तथा लेन-देन में व्यस्त रहते थे। निपुण कारीगर अनगढ़ रत्नों को शान पर चढ़ाते, स्वर्णाभरणों को रंगीन रत्नों से जड़ते और रेशम की डोरियों में मोती गूंथते थे। गन्धी लोग केसर के थैले हिलाते, चन्दन के तेल में गन्ध मिलाकर इत्र बनाते थे, जिनका नागरिक खुला उपयोग करते थे। रेशम और बहुमूल्य महीन मलमल के व्यापारियों की दुकान पर बेबिलोन और फारस के व्यापारी लम्बे-लम्बे लबादे पहने भीड़ की भीड़ पड़े रहते थे। नगर की गलियां संकरी और तंग थीं, और उनमें गगनचुम्बी अट्टालिकाएं खड़ी थीं, जिनके अंधेरे और विशाल तहखानों में धनकुबेरों की अतुल सम्पदा और स्वर्ण-रत्न भरे पड़े रहते थे।

संध्या के समय सुन्दर वाहनों, रथों, घोड़ों, हाथियों और पालकियों पर नागरिक नगर के बाहर सैर करने राजपथ पर आ निकलते थे। इधर-उधर हाथी झूमते बढ़ा करते थे और उनके अधिपति रत्नाभरणों से सज्जित अपने दासों तथा शरीर-रक्षकों से घिरे चला करते थे।

2

दिन निकलने में अभी देर थी। पूर्व की ओर प्रकाश की आभा दिखाई पड़ रही थी। उसमें वैशाली के राजप्रासादों के स्वर्ण-कलशों की धूमिल स्वर्णकान्ति बड़ी प्रभावोत्पादक दीख पड़ रही थी। मार्ग में अभी अंधेरा था। राजप्रासाद के मुख्य तोरण पर अभी प्रकाश दिख रहा था। पार्श्व के रक्षागृहों में प्रहरी और प्रतिहार पड़े सो रहे थे। तोरण के बीचोंबीच एक दीर्घकाय मनुष्य भाले पर टेक दिए ऊंघ रहा था।

धीरे-धीरे दिन का प्रकाश फैलने लगा। राजकर्मचारी और नागरिक इधर-उधर आने-जाने लगे। किसी-किसी हर्म्य से मृदुल तंतुवाद्य की झंकार के साथ किसी आरोह अवरोह की कोमल तान सुनाई पड़ने लगी। प्रतिहारों का एक नया दल तोरण पर आ पहुंचा। उसके नायक ने आगे बढ़कर भाले के सहारे खड़े ऊंघते मनुष्य को पुकारकर कहा—’सावन्त महानामन्, सावधान हो जाओ और घर जाकर विश्राम करो।’ महानामन् ने सजग होकर अपने दीर्घकाय शरीर का और भी विस्तार करके एक ज़ोर की अंगड़ाई ली और ‘तुम्हारा कल्याण हो नायक’, कहकर वह अपना भाला पृथ्वी पर टेकता हुआ तृतीय तोरण की ओर बढ़ गया।

सप्तभूमि राजप्रासाद के पश्चिम की ओर प्रासाद का उपवन था, जिसकी देख-रेख नायक महानामन् के ही सुपुर्द थी। यहीं वह अपनी प्रौढ़ा पत्नी के साथ अड़तीस वर्ष से अकेला एकरस आंधी-पानी, सर्दी-गर्मी में रहकर गण की सेवा करता था।

अभी भी वह नींद में ऊंघता हुआ झूम-झूमकर चला जा रहा था। अभी प्रभात का प्रकाश धूमिल था। उसने आगे बढ़कर, आम्रकुंज में एक आम्रवृक्ष के नीचे, एक श्वेत वस्तु पड़ी रहने का भान किया। निकट जाकर देखा, एक नवजात शिशु स्वच्छ वस्त्र में लिपटा हुआ अपना अंगूठा चूस रहा है। आश्चर्यचकित होकर महानामन् ने शिशु को उठा लिया। देखा–कन्या है। उसने कन्या को उठाकर हृदय से लगाया और अपनी स्त्री को वह कन्या देकर कहा—देखो, आज इस प्रकार हमारे जीवन की एक पुरानी साध मिटी।

और वह उसी आम्र-कानन में उस एकाकी दम्पती की आंखों के आगे शशि-किरण की भांति बढ़ने लगी। उसका नाम रखा गया ‘अम्बपाली’, उसी आम्रवृक्ष की स्मृति में, जहां से उसे पाया गया था।

3

ग्यारह बरस बाद! वैशाली के उत्तर-पश्चिम पचीस-तीस कोस पर अवस्थित एक छोटे-से ग्राम में एक वृद्ध अपने घर के द्वार पर प्रातःकाल के समय दातुन कर रहा था। पैरों की आहट सुनकर उसने पीछे की ओर देखा। चम्पक-पुष्प की कली के समान ग्यारह वर्ष की एक अति सुन्दरी बालिका, जिसके घुंघराले बाल हवा में लहरा रहे थे, दौड़ती हुई बाहर आई, और वृद्ध को देखकर उससे लिपटने के लिए लपकी, किन्तु पैर फिसलने से गिर गई। गिरकर रोने लगी। वृद्ध ने दातुन फेंक, दौड़कर बालिका को उठाया, उसकी धूल झाड़ी और उसे हृदय से लगा लिया। बालिका ने रोते-रोते कहा—’बाबा, देखा है तुमने रोहण का वह कंचुक? वह कहता है, तेरे पास नहीं है ऐसा। वैशाली की सभी लड़कियां वैसा ही कंचुक पहनती हैं, मैं भी वैसा ही कंचुक लूंगी बाबा!’

वृद्ध की आंखों में पानी और होंठों पर हास्य आया। उसने कहा—”अच्छा, अच्छा मैं तुझे वैशाली से वैसा ही कंचुक मंगा दूंगा बेटी!”

“पर बाबा, तुम्हारे पास दम्म कहां हैं? वैसा बढ़िया चमकीला कंचुक छः दम्म में आता है, जानते हो?”

“हां, हां, जानता हूं।”

वृद्ध की भृकुटि कुंचित हुई और ललाट पर चिन्ता की रेखा पड़ गई। वृद्ध की पत्नी को मरे आठ साल बीत चुके थे। उसके बाद कन्या की परिचर्या में बाधा पड़ती देख सावन्त महानामन् राजसेवा त्यागकर अपने ग्राम में आ कन्या की सेवा-शुश्रूषा में अबाध रूप से लगे रहते थे। अम्बपाली को उन्होंने इस भांति पाला था जैसे पक्षी चुग्गा देकर अपने शिशु को पालता है। अब उनकी छोटी-सी कमाई की क्षुद्र पूंजी यत्न से खर्च करने पर भी समाप्त हो गई थी। यहां तक कि पत्नी की स्मृतिरूप जो दो-चार आभरण थे, वे भी एक-एक करके उसकी उदर-गुहा में पहुंच चुके थे! अब आज जैसे उसने देखा—उसके प्राणों की पुतली यह बालिका जीवन में आगे बढ़ रही है, उसकी अभिलाषाएं जाग्रत् हो रही हैं और भी जाग्रत् होंगी। यही सोचकर वृद्ध महानामन् चिन्तित हो उठे। किन्तु उन्होंने हंसकर तड़ातड़ तीन चार चुम्बन बालिका के लिए और गोद से उतारकर कहा—”वैसा ही बढ़िया कंचुक ला दूंगा बेटी!”

बालिका खुश होकर तितली की भांति घर में भाग गई और वृद्ध की आंखों से दो-तीन बूंद गर्म आंसू टपक पड़े। वे चिन्तित भाव से बैठकर सोचने लगे—एक बार फिर वैशाली चलकर पुरानी नौकरी की याचना की जाए। वृद्ध का बाहुबल थक चुका था किन्तु क्या किया जाए। कन्या का विचार सर्वोपरि था, परन्तु वृद्ध के चिन्तित होने का केवल यही कारण न था। लाख वृद्ध होने पर भी उसकी भुजा में बल था—बहुत था। पर उसकी चिन्ता थी—बालिका का अप्रतिम सौन्दर्य। सहस्राधिक बालिकाएं भी क्या उस पारिजात कुसुमतुल्य कुन्द-कलिका के समान हो सकती थीं? किस पुष्प में इतनी गन्ध, कोमलता और सौन्दर्य था? उन्हें भय था कि वज्जियों के उस विचित्र कानून के अनुसार उनकी कन्या विवाह से वंचित करके कहीं ‘नगरवधू’ न बना दी जाय। वज्जी गणतन्त्र में यह विचित्र कानून था कि उस गणराज्य में जो कन्या सर्वाधिक सुन्दरी होती थी, वह किसी एक पुरुष की पत्नी न होकर ‘नगरवधू’ घोषित की जाती थी और उस पर सम्पूर्ण नागरिकों का समान अधिकार रहता था। उसे ‘जनपद-कल्याणी’ की उपाधि प्राप्त होती थी। कन्या के अप्रतिम सौन्दर्य को देखकर वृद्ध महानामन् वास्तव में इसी भय से राजधानी छोड़कर भागे थे, जिससे किसी की दृष्टि बालिका पर न पड़े। पर अब उपाय न था। महानामन् ने एक बार फिर वैशाली जाने का निर्णय किया।

4

फागुन बीत रहा था। वैशाली में संध्या के दीये जल गए थे। नागरिक और राजपुरुष अपने-अपने वाहनों पर सवार घरों को लौट रहे थे। रंग-बिरंगे वस्त्र पहने बहुत-से स्त्री-पुरुष इधर से उधर आ-जा रहे थे। धीरे-धीरे यह चहल-पहल कम होने लगी और राजपथ पर अन्धकार बढ़ चला। नगर के दक्षिण प्रान्त में मद्य की एक दूकान थी। दूकान में दीया जल रहा था। उसके धीमे और पीले प्रकाश में बड़े-बड़े मद्यपात्र कांपते-से प्रतीत हो रहे थे। बूढ़ा दूकानदार बैठा ऊंघ रहा था। सड़कें अभी से सूनी हो चली थीं। अब कुछ असमृद्ध लोग ही इधर-उधर आ-जा रहे थे, जिनमें मछुए, कसाई, मांझी, नाई, कम्मकार आदि थे। वास्तव में इधर इन्हीं की बस्ती अधिक थी।

वृद्ध महानामन् बालिका की उंगली पकड़े एक दूकान के आगे आ खड़े हुए। वे बहुत थक गए थे और बालिका उनसे भी बहुत अधिक। महानामन् ने थकित किन्तु स्नेह-भरे स्वर में कहा—”अन्त में हम आ पहुंचे, बेटी!”

“क्या यही नगर है बाबा? कहां, वैसे कंचुक यहां-कहां बिकते हैं?”

“यह उपनगर है, नगर और आगे है। परन्तु आज रात हम यहीं कहीं विश्राम करेंगे। अब हमें चलना नहीं होगा। तुम तनिक यहीं बैठो, बेटी।”

यह कहकर वृद्ध महानामन् और आगे बढ़कर दूकान के सामने आ गए। महानामन् का कण्ठ-स्वर सुनकर बूढ़ा दूकानदार ऊंघ से चौंक उठा था, अब उसने उन्हें सामने खड़ा देखकर कहा—

“हां, हां, मेरी दूकान में सब-कुछ है, क्या चाहिए? कैसा पान करोगे—दाक्खा लाजा, गौड़ीय, माध्वीक, मैरेय?” फिर उसने घूरकर वृद्ध महानामन् को अन्धकार में देखा और उसे एक दीन भिक्षुक समझकर कहा—”किन्तु मित्र मैं उधार नहीं बेचता। दम्म या कहापण पास हों तो निकालो।” वृद्ध महानामन् ने एक कदम आगे बढ़कर कहा—”तुम्हारा कल्याण हो नागरिक, परन्तु मुझे पान नहीं, आश्रय चाहिए। मेरे साथ मेरी बेटी है, हम लोग दूर से चले आ रहे हैं, यहां कहीं निकट में विश्राम मिलेगा? मैं शुल्क दे सकूंगा।”

बूढ़े दूकानदार ने सन्देह से महानामन् को देखते हुए कहा—”शुल्क, तुम दे सकते हो, सो तो है, परन्तु भाई तुम हो कौन? जानते हो, वैशाली में बड़े-बड़े ठग और चोर-दस्यु नागरिक का वेश बनाकर आते हैं। वैशाली की सम्पदा ही ऐसी है भाई, मैं सब देखते-देखते बूढ़ा हुआ हूं।”

वह और भी कुछ कहना चाहता था, परन्तु इसी समय दो तरुण बातें करते-करते उसकी दूकान पर आ खड़े हुए। बूढ़े ने सावधान होकर दीपक के धुंधले प्रकाश में देखा, दोनों राजवर्गी पुरुष हैं, उनके वस्त्र और शस्त्र अंधेरे में भी चमक रहे थे।

बूढ़े ने नम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर कहा—”श्रीमानों को क्या चाहिए? गौड़ीय, माध्वीक, दाक्खा—?”

“अरे, पहले दस्यु की बात कह! कहां हैं दस्यु, बोल?” आगन्तुक में से एक तरुण ने अपना खड्ग हिलाते हुए कहा।

बूढ़े की घिग्घी बंध गई। उसने हाथ जोड़कर कहा—”दस्यु की बात कुछ नहीं श्रीमान् यह बूढ़ा ग्रामीण कहीं से आकर रात-भर के लिए विश्राम खोजता है। मुझे भय है, नहीं, नहीं, श्रीमान्, मैं कभी भय नहीं करता, किसी से भी नहीं, परन्तु मुझे सन्देह हुआ—कौन जाने, कौन है यह। महाराज, आप तो देखते ही हैं कि वैशाली का महावैभव यहां बड़े-बड़े दस्युओं को खींच लाता है…।”

“बक-बक मत कर बूढ़े।” उसी तरुण ने खड्ग चमकाते हुए कहा—”उन सब दस्युओं को मैं आज ही पकडूंगा। ला माध्वीक दे।”

दोनों आगन्तुक अब आसनों पर बैठ गए। बूढ़ा चुपचाप मद्य ढालने लगा। अब आगन्तुक ने महानामन् की ओर देखा, जो अभी चुपचाप अंधेरे में खड़े थे। अम्बपाली थककर घुटनों पर सिर रखकर सो गई थी। दीपक की पीत प्रभा उसके पीले मुख पर खेलती हुई काली अलकावलियों पर पड़ रही थी। तरुण आगन्तुक ने महानामन् को सिर से पैर तक देखा और फिर अम्बपाली पर जाकर उसकी दृष्टि स्थिर हो गई। उसने वृद्ध महानामन् से कहा—”बूढ़े, कहां से आ रहे हो?”

“दूर से।”

“साथ में यह कौन है?”

“मेरी बेटी है।”

“बेटी है? कहीं से उड़ा तो नहीं लाए हो? यहां वैशाली में ऐसी सुन्दर लड़कियों के खूब दाम उठते हैं। कहो बेचोगे?”

वृद्ध महानामन् बोले—”नहीं।” क्रोध से उनके नथुने फूल उठे और होंठ सम्पुटित हो गए। वह निश्चल खड़े रहे।

कहनेवाले ने वह सब नहीं देखा। उसके होठों पर एक हास्य नाच रहा था, दूसरा साथी माध्वीक पी रहा था। पात्र खाली करके अब वह बोला। उसने हंसकर साथी से कहा—”क्यों, ब्याह करोगे?”

दूसरा ठहाका मारकर हंसा। “नहीं, नहीं, मुझे एक दासी की आवश्यकता है। छोटी-सी एक सुन्दर दासी।” वह फिर महानामन् की ओर घूमा। महानामन् धीरे-धीरे वस्त्र के नीचे खड्ग खींच रहा था। देखकर आगन्तुक चौंका।

वृद्ध महानामन् ने शिष्टाचार से सिर झुकाया। उसने कहा—”नायक, तुम्हारे इस राजपरिच्छद का मैं अभिवादन करता हूं। तुम्हें मैं पहचानता नहीं, तुम कदाचित् मेरे मित्र के पुत्र, पौत्र अथवा नाती होगे। अब से 11 वर्ष पूर्व मैं भी एक सेना का नायक था। यही राजपरिच्छद, जो तुम पहने हो, मैं पूरे बयालीस साल तक पहन चुका हूं। उसकी मर्यादा मैं जानता हूं और मैं चाहता हूं कि तुम भी जानो। इसके लिए मुझे तुम्हारे प्रस्ताव का उत्तर इस खड्ग से देने की आवश्यकता हो गई, जो अब पुराना हो गया और इन हाथों का अभ्यास और शक्ति भी नष्ट हो गई है। परन्तु कोई हानि नहीं। आयुष्मान्! तुम खड्ग निकालो और तनिक कष्ट उठाकर आगे बढ़कर उधर मैदान में आ जाओ। यहां लड़की थककर सो गई है, ऐसा न हो, शस्त्रों की झनकार से वह जग जाए।”

तरुण मद्यपात्र हाथ में ले चुका था। अब वृद्ध महानामन् की यह अतर्कित वाणी सुन, उसने हाथ का मद्यपात्र फेंक खड्ग निकाल लिया और उछलकर आगे बढ़ा।

तरुण का दूसरा साथी कुछ प्रौढ़ था। उसने हाथ के संकेत से साथी को रोककर आगे बढ़कर बूढ़े से कहा—”आप यदि कभी वैशाली की राजसेना में नायक रह चुके हैं तो आपको नायक चन्द्रमणि का भी स्मरण होगा?”

“चन्द्रमणि! निस्सन्देह, वे मेरे परम सुहृद थे। नायक चन्द्रमणि क्या अभी हैं?” महानामन् ने दो कदम आगे बढ़कर कहा।

“हैं, यह तरुण उन्हीं का पुत्र है। आपका नाम क्या है भन्ते?”

महानामन् ने खड्ग कोष में रख लिया, कहा—”मेरा नाम महानामन् है। यदि यह आयुष्मान् मित्रवर चन्द्रमणि का पुत्र है तो अवश्य ही इसका नाम हर्षदेव है।” युवक ने धीरे-से अपना खड्ग वृद्ध के पैरों में रखकर कहा—”मैं हर्षदेव ही हूं, भन्ते, मैं आपका अभिवादन करता हूं।”

वृद्ध ने तरुण को छाती से लगाकर कहा—”अरे पुत्र, मैंने तो तुझे अपने घुटनों पर बैठाकर खिलाया है। आह, आज मैं बड़भागी सिद्ध हुआ। नायक के दर्शन हो सकेंगे तो?”

“अवश्य, पर अब वे हिल-डुल नहीं सकते। पक्षाघात से पीड़ित हैं। भन्ते, किन्तु आप मुझे क्षमा दीजिए।”

“इसकी कुछ चिन्ता न करो आयुष्मान्! तो, मैं कल प्रात:काल मित्र चन्द्रमणि से मिलने आऊंगा।”

“कल? नहीं-नहीं, अभी! मैं अच्छी तरह जानता हूं, आप थके हुए हैं और वह बालिका…कैसी लज्जा की बात है! भन्ते, मैंने गुरुतर अपराध…। वृद्ध ने हंसते-हंसते युवक को फिर छाती से लगाकर उसका क्षोभ दूर किया और कहा—”वह मेरी कन्या अम्बपाली है।”

“मैं समझ गया भन्ते, पितृकरण ने बहुत बार आपके विषय में चर्चा की है। चलिए अब घर! रात्रि आप यों राजपथ पर व्यतीत न करने पाएंगे।”

महानामन् ने और विरोध नहीं किया। बालिका को जगाकर दोनों तरुणों के साथ उन्होंने धीरे-धीरे नगर में प्रवेश किया।

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