भारत दुर्दशा

तीसरा अंक

स्थान-मैदान

(फौज के डेरे दिखाई पड़ते हैं! ‘भारतदुर्दैव’ आता है)

भारतदुर्दैव : कहाँ गया भारत मूर्ख! जिसको अब भी परमेश्वर और राजराजेश्वरी का भरोसा है? देखो तो अभी इसकी क्या क्या दुर्दशा होती है।

(नाचता और गाता हुआ)

अरे!

उपजा ईश्वर कोप से औ आया भारत बीच।

छार खार सब हिंद करूँ मैं, तो उत्तम नहिं नीच।

मुझे तुम सहज न जानो जी, मुझे इक राक्षस मानो जी।

कौड़ी कौड़ी को करूँ मैं सबको मुहताज।

भूखे प्रान निकालूँ इनका, तो मैं सच्चा राज। मुझे…

काल भी लाऊँ महँगी लाऊँ, और बुलाऊँ रोग।

पानी उलटाकर बरसाऊँ, छाऊँ जग में सोग। मुझे…

फूट बैर औ कलह बुलाऊँ, ल्याऊँ सुस्ती जोर।

घर घर में आलस फैलाऊँ, छाऊँ दुख घनघोर। मुझे…

काफर काला नीच पुकारूँ, तोडूँ पैर औ हाथ।

दूँ इनको संतोष खुशामद, कायरता भी साथ। मुझे…

मरी बुलाऊँ देस उजाडूँ महँगा करके अन्न।

सबके ऊपर टिकस लगाऊ, धन है भुझको धन्न।

मुझे तुम सहज न जानो जी, मुझे इक राक्षस मानो जी।

(नाचता है)

अब भारत कहाँ जाता है, ले लिया है। एक तस्सा बाकी है, अबकी हाथ में वह भी साफ है। भला हमारे बिना और ऐसा कौन कर सकता है कि अँगरेजी अमलदारी में भी हिंदू न सुधरें! लिया भी तो अँगरेजों से औगुन! हा हाहा! कुछ पढ़े लिखे मिलकर देश सुधारा चाहते हैं? हहा हहा! एक चने से भाड़ फोड़ेंगे। ऐसे लोगों को दमन करने को मैं जिले के हाकिमों को न हुक्म दूँगा कि इनको डिसलायल्टी में पकड़ो और ऐसे लोगों को हर तरह से खारिज करके जितना जो बड़ा मेरा मित्र हो उसको उतना बड़ा मेडल और खिताब दो। हैं! हमारी पालिसी के विरुद्ध उद्योग करते हैं मूर्ख! यह क्यों? मैं अपनी फौज ही भेज के न सब चैपट करता हूँ। (नेपथ्य की ओर देखकर) अरे कोई है? सत्यानाश फौजदार को तो भेजो।

(नेपथ्य में से ‘जो आज्ञा’ का शब्द सुनाई पड़ता है)

देखो मैं क्या करता हूँ। किधर किधर भागेंगे।

(सत्यानाश फौजदार आते हैं)

(नाचता हुआ)

सत्यानाश फौजदार : हमारा नाम है सत्यानास।

धरके हम लाखों ही भेस।

बहुत हमने फैलाए धर्म।

होके जयचंद हमने इक बार।

हलाकू चंगेजो तैमूर।

दुरानी अहमद नादिरसाह।

हैं हममें तीनों कल बल छल।

पिलावैंगे हम खूब शराब।

भारतदुर्दैव : अंहा सत्यानाशजी आए। आओे, देखो अभी फौज को हुक्म दो कि सब लोग मिल के चारों ओर से हिंदुस्तान को घेर लें। जो पहले से घेरे हैं उनके सिवा औरों को भी आज्ञा दो कि बढ़ चलें।

सत्यानाश फौजदार. : महाराज ‘इंद्रजीत सन जो कछु भाखा, सो सब जनु पहिलहिं करि राखा।’ जिनको आज्ञा हो चुकी है वे तो अपना काम कर ही चुके और जिसको जो हुक्म हो, कर दिया जाय।

भारतदुर्दैव : किसने किसने क्या क्या किया है?

सत्यानाश फौजदार. : महाराज! धर्म ने सबके पहिले सेवा की।

रचि बहु बिधि के वाक्य पुरानन माँहि घुसाए।

शैव शाक्त वैष्णव अनेक मत प्रगटि चलाए ।।

जाति अनेकन करी नीच अरु ऊँच बनायो।

खान पान संबंध सबन सों बरजिं छुड़ायो ।।

जन्मपत्रा विधि मिले ब्याह नहिं होन देत अब।

बालकपन में ब्याहि प्रीतिबल नास कियो सब ।।

करि कुलान के बहुत ब्याह बल बीरज मारयो।

बिधवा ब्याह निषेध कियो बिभिचार प्रचारो ।।

रोकि विलायतगमन कूपमंडूक बनायो।

यौवन को संसर्ग छुड़ाई प्रचार घटायो ।।

बहु देवी देवता भूत पे्रतादि पुजाई।

ईश्वर सो सब बिमुख किए हिंदू घबराई ।।

भारतदुर्दैव : आहा! हाहा! शाबाश! शाबाश! हाँ, और भी कुछ धम्र्म ने किया?

सत्यानाश फौजदार. : हाँ महाराज।

अपरस सोल्हा छूत रचि, भोजनप्रीति छुड़ाय।

किए तीन तेरह सबै, चैका चैका छाय ।।

भारतदुर्दैव : और भी कुछ?

सत्यानाश फौजदार. : हाँ।

रचिकै मत वेदांत को, सबको ब्रह्म बनाय।

हिंदुन पुरुषोत्तम कियो, तोरि हाथ अरू पाय ।।

महाराज, वेदांत ने बड़ा ही उपकार किया। सब हिंदू ब्रह्म हो गए। किसी को इतिकत्र्तव्यता बाकी ही न रही। ज्ञानी बनकर ईश्वर से विमुख हुए, रुक्ष हुए, अभिमानी हुए और इसी से स्नेहशून्य हो गए। जब स्नेह ही नहीं तब देशोद्धार का प्रयत्न कहां! बस, जय शंकर की।

सत्यानाश फौजदार. : हाँ महाराज।

भारतदुर्दैव : अच्छा, और किसने किसने क्या किया?

सत्यानाश फौजदार. : महाराज, फिर संतोष ने भी बड़ा काम किया। राजा प्रजा सबको अपना चेला बना लिया। अब हिंदुओं को खाने मात्रा से काम, देश से कुछ काम नहीं। राज न रहा, पेनसन ही सही। रोजगार न रहा, सूद ही सही। वह भी नहीं, तो घर ही का सही, ‘संतोषं परमं सुखं’ रोटी को ही सराह सराह के खाते हैं। उद्यम की ओ देखते ही नहीं। निरुद्यमता ने भी संतोष को बड़ी सहायता दी। इन दोनों को बहादुरी का मेडल जरूर मिले। व्यापार को इन्हीं ने मार गिराया।

भारतदुर्दैव : और किसने क्या किया?

सत्यानाश फौजदार. : फिर महाराज जो धन की सेना बची थी उसको जीतने को भी मैंने बडे़ बांके वीर भेजे। अपव्यय, अदालत, फैशन और सिफारिश इन चारों ने सारी दुश्मन की फौज तितिर बितिर कर दी। अपव्यय ने खूब लूट मचाई। अदालत ने भी अच्छे हाथ साफ किए। फैशन ने तो बिल और टोटल के इतने गोले मारे कि अंटाधार कर दिया और सिफारिश ने भी खूब ही छकाया। पूरब से पश्चिम और पश्चिम से पूरब तक पीछा करके खूब भगाया। तुहफे, घूस और चंदे के ऐसे बम के गोले चलाए कि ‘बम बोल गई बाबा की चारों दिसा’ धूम निकल पड़ी। मोटा भाई बना बनाकर मूँड़ लिया। एक तो खुद ही यह सब पँडिया के ताऊ, उस पर चुटकी बजी, खुशामद हुई, डर दिखाया गया, बराबरी का झगड़ा उठा, धांय धांय गिनी गई1 वर्णमाला कंठ कराई,2 बस हाथी के खाए कैथ हो गए। धन की सेना ऐसी भागी कि कब्रों में भी न बची, समुद्र के पार ही शरण मिली।

भारतदुर्दैव : और भला कुछ लोग छिपाकर भी दुश्मनों की ओर भेजे थे?

सत्यानाश फौजदार. : हाँ, सुनिए। फूट, डाह, लोभ, भेय, उपेक्षा, स्वार्थपरता, पक्षपात, हठ, शोक, अश्रुमार्जन और निर्बलता इन एक दरजन दूती और दूतों को शत्रुओं की फौज में हिला मिलाकर ऐसा पंचामृत बनाया कि सारे शत्रु बिना मारे घंटा पर के गरुड़ हो गए। फिर अंत में भिन्नता गई। इसने ऐसा सबको काई की तरह फाड़ा धर्म, चाल, व्यवहार, खाना, पीना सब एक एक योजन पर अलग अलग कर दिया। अब आवें बचा ऐक्य! देखें आ ही के क्या करते हैं!

भारतदुर्दैव : भला भारत का शस्य नामक फौजदार अभी जीता है कि मर गया? उसकी पलटन कैसी है?

सत्यानाश फौजदार. : महाराज! उसका बल तो आपकी अतिवृष्टि और अनावृष्टि नामक फौजों ने बिलकुल तोड़ दिया। लाही, कीड़े, टिड्डी और पाला इत्यादि सिपाहियों ने खूब ही सहायता की। बीच में नील ने भी नील बनकर अच्छा लंकादहन किया।

भारतदुर्दैव : वाह! वाह! बड़े आनंद की बात सुनाई। तो अच्छा तुम जाओ। कुछ परवाह नहीं, अब ले लिया है। बाकी साकी अभी सपराए डालता हूँ। अब भारत कहाँ जाता है। तुम होशियार रहना और रोग, महर्घ, कर, मद्य, आलस और अंधकार को जरा क्रम से मेरे पास भेज दो।

सत्यानाश फौजदार. : जो आज्ञा।

ख्जाता है,

भारतदुर्दैव : अब उसको कहीं शरण न मिलेगी। धन, बल और विद्या तीनों गई। अब किसके बल कूदेगा?

(जवनिका गिरती है)

भारतदुर्दशा

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