इसे तो सभी स्वीकार करेंगे कि अनेक प्रकार की शक्तियों में, जो वरदान की भाँति ईश्वर ने मनुष्यों को दी हैं, वाक्शक्ति भी एक है। यदि मनुष्य की और इंद्रियाँ अपनी-अपनी शक्तियों से अविकल रहती और वाक्शक्ति उसमें न होती तो हम नहीं जानते कि इस गूँगी सृष्टि का क्या हाल होता। सब लोग लुंज-पुंज से हो मानों कोने में बैठा दिए गए होते और जो कुछ सुख-दुःख का अनुभव हम अपनी दूसरी इंद्रियों के द्वारा करते उसे अवाक् होने के कारण आपस में एक दूसरे से कुछ न कह सुन सकते। इस वाक्शक्ति के अनेक फ़ायदों मे ‘स्पीच’ (वक्तृता) और बातचीत दोनों है। किंतु स्पीच से बातचीत का कुछ ढंग ही निराला है। बातचीत में वक्ता को नाज-नखरा ज़ाहिर करने का मौका नहीं दिया जाता कि वह एक बड़े अंदाज़ से गिन-गिनकर पाँव रखता हुआ पुलपिट पर जा खड़ा हो और पुण्यवाचन या नांदीपाठ की भाँति घड़ियों तक साहबान मजलिस, चेयरमैन, लेडीज़ एंड जेंटिलमेन की बहुत सी स्तुति कर कराय तब किसी तरह वक्तृता का प्रारंभ करे। जहाँ कोई मर्म या नोक की चुटीली बात वक्ता महाशय के मुख से निकली कि तालि-ध्वनि से कमरा गूँज उठा। इसलिए वक्ता को ख़ामख़ाह ढूँढ़कर कोई ऐसा मौका अपनी वक्तृता में लाना ही पड़ता है जिसमे करतलध्वनि अवश्य हो।
वहीं हमारी साधारण बातचीत का कुछ ऐसा घरेलू ढंग है कि उसमें न करतलध्वनि का कोई मौका है न लोगों को कहकहे उड़ाने की काई बात उसमें रहती है। हम-तुम दो आदमी प्रेमपूर्वक संलाप कर रहे हैं। कोई चुटीली बात आ गई, हँस पड़े तो मुसकराहट से होंठो का केवल फ़रक उठना ही इस हँसी की अंतिम सीमा है। स्पीच का उद्देश्य अपने सुननेवालों के मन में जोश और उत्साह पैदा कर देना है। घरेलू बातचीत मन रमाने का एक ढंग है। इसमें स्पीच की वह सब संजीदगी बेक़द्र हो धक्के खाती फिरती है।
जहाँ आदमी को अपनी ज़िंदगी मज़ेदार बनाने के लिए खाने, पीने, चलने, फिरने आदि की ज़रूरत है, वहाँ बातचीत की भी हमको अत्यंत आवश्यकता है। जो कुछ मवाद या धुवाँ जमा रहता है वह बातचीत के जरिए भाव बन बाहर निकल पड़ता है। चित्त हलका और स्वच्छ हो, परम आनंद में मग्न हो जाता है। बातचीत का भी एक ख़ास तरह का मज़ा होता है। जिनको बातचीत करने की लत पड़ जाती है, वे इसके पीछे खाना-पीना भी छोड़ देते हैं। अपना बड़ा हर्ज कर देना उन्हें पसंद आता है पर बातचीत का मज़ा नहीं खोया चाहते। राबिंसन क्रूसो का क़िस्सा बहुधा लोगों ने पढ़ा होगा जिसे सोलह वर्ष तक मनुष्य का मुख देखने को भी नहीं मिला। कुत्ता, बिल्ली आदि जानवरो के बीच में रह सोलह वर्ष के उपरांत उसने फ्राइडे के मुख से एक बात सुनी। यद्यपि इसने अपनी जंगली बोली में कहा था पर उस समय राबिंसन को ऐसा आनंद हुआ मानो इसने नए सिरे से फिरके आदमी का चोला पाया। इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य की वाक्-शक्ति में कहाँ तक लुभा लेने की ताकत है। जिनसे केवल पत्र-व्यवहार है, कभी एक बार भी साक्षात्कार नहीं हुआ उन्हें अपने प्रेमी से कितनी लालसा बात करने की रहती है। अपना आभ्यंतरिक भाव दूसरे को प्रकट करना और उसका आशय आप ग्रहण कर लेना केवल शब्दों ही के द्वारा हो सकता है। सच है—
तावञ्च शोभते मूर्यो यावकिचिन्न भाषते
बेन जानसन का यह कहना, कि बोलने ही से मनुष्य रूप का साक्षात्कार होता है, बहुत ही उचित बोध होता है। इस बातचीत की सीमा दो से लेकर वहाँ तक रखी जा सकती है जितनों की जमात मीटिंग या सभा न समझ ली जाए। एडिसन का मत है कि असल बातचीत सिर्फ़ दो में हो सकती है. जिसका तात्पर्य यह हुआ कि जब दो आदमी होते हैं तभी अपना दिल एक दूसरे के सामने खोलते हैं। जब तीन हुए तब वह दो की बात कोसों दूर गई। कहा है—
“पटको भिद्यते मंत्र:”
दूसरे यह कि किसी तीसरे आदमी के आ जाते ही या तो वे दोनों हिजाब में आ अपनी बातचीत से निरस्त हो बैठेंगे या उसे निपट मूर्ख और अज्ञानी समझ बनाने लगेंगे। इसी से
द्वाभ्यां तृतीयो न भवामि राजन
लिखा है। जैसे गरम दूध और ठंडे पानी के दो बरतन पास सटा के रखे जाएँ तो एक का असर दूसरे में पहुँचता है अर्थात् दूध ठंडा हो जाता है और पानी गरम, वैसे ही दो आदमी पास बैठे हों तो एक का गुप्त असर दूसरे पर पहुँच जाता है, चाहे एक दूसरे को देखे भी नहीं। तब बोलने की कौन कहे। पर एक का दूसरे पर असर होना शुरू हो जाता है। एक के शरीर की विद्युत दूसरे में प्रवेश करने लगती है। जब पास बैठने का इतना असर होता है तब बातचीत में कितना अधिक असर होगा इसे कौन न स्वीकार करेगा। अस्तु, अब इस बात को तीन आदमियों के समय में देखना चाहिए। मानों एक से त्रिकोण-सा बन जाता है। तीनों का चित्त मानों तीन कोण हैं और तीनों की मनोवृत्ति के प्रसरण की धारा मानों उस त्रिकोण की तीन रेखाएँ हैं। गुपचुप असर तो उन तीनों में परस्पर होता ही है। जो बातचीत तीनों मे की गई वह मानों अँगूठी में नग सी जड़ जाती है, उपरांत जब चार आदमी हुए तब बेतकल्लुफी को बिल्कुल स्थान नहीं रहता। खुल के बातें न होंगी। जो कुछ बातचीत की जाएँगी वह ‘फार्मेलिटी’ गौरव और संजीदगी के लच्छे में सनी हुई। चार से अधिक की बातचीत तो केवल रामरमौवल कहलावेगी। उसे हम संलाप नहीं कह सकते। इस बातचीत के अनेक भेद हैं। दो बुड्ढों की बातचीत प्रायः जमाने की शिकायत पर हुआ करती है। बाबा आदम के समय का ऐसा दास्तान शुरू करते हैं जिसमे चार सच तो दस झूठ। एक बार उनकी बातचीत का घोड़ा छूट जाना चाहिए, पहरों बीत जाने पर भी अंत न होगा। प्रायः अँग्रेज़ी राज्य, प्रदेश और पुराने समय को बुरी से बुरी रीति-नीति का अनुमोदन और इस समय के सब भाँति लायक नौजवानो की निंदा उनकी बातचीत का मुख्य प्रकरण होगा। पढ़े-लिखे हुए तो शेक्सपियर, मिल्टन, मिल और स्पेंसर उनकी जीभ के आगे नाचा करेंगे। अपनी लियाक़त के नशे में चूर-चूर ‘हमचुनी दीगरेनेस्त’। अक्खड़ कुश्तीबाज हुए तो अपनी पहलवानी और अपने अक्खड़पन की चर्चा छेड़ेंगे। आशिकतन हुए तो अपनी-अपनी प्रेमपात्री की प्रशंसा तथा आशिकतन बनने की हिमाकत की डींग मारेंगे। दो ज्ञात-यौवना हम-सहेलियों की बातचीत का कुछ जायका ही निराला है। रस का समुद्र मानों उमड़ा चला आ रहा है। इसका पूरा स्वाद उन्हीं से पूछना चाहिए जिन्हें ऐसों की रससनी बातें सुनने को कभी भाग्य लड़ा है। ऊर्द्धजरती बुढ़ियों की बातचीत का मुख्य प्रकरण, बहू-बेटीवाली हुई तो, अपनी बहुओं या बेटों का गिला-शिकवा होगा या बिरादराने का कोई ऐसा रामरसरा छेड़ बैठेंगी कि बात करते-करते अंत में खोढ़े दाँत निकाल लड़ने लगेंगी। लड़कों की बातचीत, खिलाड़ी हुए तो अपनी-अपनी आवारगी की तारीफ़ करने के बाद कोई ऐसी सलाह गाँठेंगे जिसमें उनको-अपनी शैतानी ज़ाहिर करने का पूरा मौका मिले। स्कूल के लड़कों की बातचीत का उद्देश्य अपने उस्ताद की शिकायत या तारीफ़ या अपने सहपाठियों में किसी के गुण का कथोपकथन होता है। पढ़ने में तेज़ हुआ तो कभी अपने मुकाबले दूसरे को फौकौयत न देगा। सुस्त और बोदा हुआ तो दबी बिल्ली का-सा स्कूल भर को अपना गुरु ही मानेगा।
अलावा इसके बातचीत की और बहुत सी किस्में हैं। राजकाज की बात, व्यापार-संबंधी बातचीत, दो मित्रों में प्रेमालाप इत्यादि। हमारे देश में नीच जाति के लोगों में बतकही होती है। लड़की लड़केवाले की ओर से एक-एक आदमी बिचवई होकर दोनों के विवाह-संबंध की कुछ बातचीत करते हैं। उस दिन से बिरादरीवालों को ज़ाहिर कर दिया जाता है कि अमुक की लड़की का अमुक के लड़के के साथ विवाह पक्का हो गया और यह रस्म बड़े उत्सव के साथ की जाती है। एक चंडूखाने की बातचीत होती है, इत्यादि सब बात करने के अनेक प्रकार और ढंग है।
यूरोप के लोगों में बात करने का हुनर है। ‘आर्ट आफ कनवरसेशन’ यहाँ तक बढ़ा है कि स्पीच और लेख दोनों इसे नहीं पाते। इसकी पूर्ण शोभा काव्य-कला-प्रवीण विद्वन्मंडली में है। ऐसे-ऐसे चतुराई के प्रसंग छेड़े जाते हैं कि जिन्हें सुन कान को अत्यंत सुख मिलता है। सुहृद-गोष्ठी इसी का नाम है। सुहृद-गोष्ठी की बातचीत की यह तारीफ़ है कि बात करनेवालों की लियाक़त अथवा पांडित्य का अभिमान या कपट कहीं एक बात में न प्रकट हो, वरन् जितने क्रम रसाभास पैदा करनेवाले सभी को बरतते हुए चतुर सयाने अपनी बातचीत को अक्रम रखते हैं वह हमारे आधुनिक शुष्क पंडितों की बातचीत में जिसे शास्त्रार्थ कहते हैं, कभी आवेगा ही नहीं। मुर्ग और बटेर की लड़ाइयों की झपटा-झपटी के समान जिनकी नीरस काँव-काँव में सरस संलाप की तो चर्चा ही चलाना व्यर्थ है, वरन कपट और एक दूसरे को अपने पांडित्य के प्रकाश से बाद में परास्त करने का संघर्ष आदि रसाभास की सामग्री वहाँ बहुतायत के साथ आपको मिलेगी। घंटे भर तक काँव-काँव करते रहेंगे तो कुछ न होगा। बड़ी-बड़ी कंपनी और कारखानें आदि बड़े से बड़े काम इसी तरह पहले दो-चार दिली दोस्तों की बातचीत ही से शुरू किए गए। उपरांत बढ़ते-बढ़ते यहाँ तक बढ़े कि हज़ारों मनुष्यों को उससे जीविका और लाखों की साल में आमदनी उसमें है। पचीस वर्ष के ऊपरवालों की बातचीत अवश्य ही कुछ न कुछ सारगर्भित होगी, अनुभव और दूरंदेशी से ख़ाली न होगी और पचास से नीचे की बातचीत में यद्यपि अनुभव, दूरदर्शिता ओर गौरव नहीं पाया जाता पर इसमें एक प्रकार का ऐसा दिल बहलाव और ताजगी रहती है जिसकी मिठास उससे दसगुना अधिक चढ़ी-बढ़ी है। यहाँ तक हमने बाहरी बातचीत का हाल लिखा जिसमें दूसरे फ़रीक़ के होने की बहुत आवश्यकता है, बिना किसी दूसरे मनुष्य के हुए जो किसी तरह संभव नहीं है और जो दो ही तरह पर हो सकती है या तो कोई हमारे यहाँ कृपा करे या हमीं जाकर दूसरे को सरफ़राज करे। पर यह सब तो दुनियादारी है जिसमें कभी-कभी रसाभास होते देर नहीं लगती, क्योंकि जो महाशय अपने यहाँ पधारें उनकी पूरी दिलजोई न हो सकी तो शिष्टाचार में त्रुटि हुई। अगर हमीं उनके यहाँ गए तो पहले तो बिना बुलाए जाना ही अनादर का मूल है और जाने पर अपने मन माफ़िफ़ बर्ताव न किया गया तो मानों एक-दूसरे प्रकार का नया धाव हुआ। इसलिए सबसे उत्तम प्रकार बातचीत करने का हम यही समझते हैं कि हम वह शक्ति अपने में पैदा कर सकें कि अपने आप बात कर लिया करें। हमारी भीतरी मनोवृत्ति जो प्रतिक्षण नए-नए रंग दिखाया करती है और जो वह प्रपंचात्मक संसार का एक बड़ा भारी आइना है, जिसमें जैसी चाहो वैसी सूरत देख लेना कुछ दुर्घट बात नहीं है और जो एक ऐसा चमनिस्तान है जिसमें हर क़िस्म के बेलबूटे खिले हुए हैं। इस चमनिस्तान की सैर में क्या कम दिलबहलाव है? मित्रों का प्रेमालाप कभी इसकी सोलहवीं कला तक भी नहीं पहुँच सका। इसी सैर का नाम ध्यान या मनोयोग या चित्त को एकाग्र करना है जिसका साधन एक-दो दिन का काम नहीं, सालहासाल के अभ्यास के उपरांत यदि हम थोड़ा भी अपनी मनोवृत्ति स्थिर कर अजान हो अपने मन के साथ बातचीत कर सकें तो मानों अतिभाग्य। एक वाक्शक्ति मात्र के दमन से न जानिए कितने प्रकार का दमन हो गया। हमारी जिह्वा जो कतरनी के समान सदा स्वच्छंद चला करती है, उसे यदि हमने दबाकर काबू में कर लिया तो क्रोधादिक बड़े-बड़े अजेय शत्रुओं को बिना प्रयास जीत अपने वश कर डाला। इसलिए आवाक् रहकर अपने आप बातचीत करने का यह साधन यावत साधनों का मूल है, शांति का परमपूज्य मंदिर है, परमार्थ का एकमात्र सोपान है।