18. अँधेरी रात में
शयन-आरती हो रही थी। मन्दिर में बहुत-से स्त्री-पुरुष एकत्र थे। संगीत-नृत्य हो रहा था। भक्त गण भाव-विभोर होकर नर्तिकाओं की रूप माधुरी का मधुपान कर रहे थे। दिवोदास एक अँधेरे कोने में छिपा खड़ा था। वह सोच रहा था, शयन-विधि समाप्त होते ही मेरा कार्य सिद्ध होगा। कैसी दुःख की बात है कि इन पाखंडियों के लिए मुझे भी छल-कपट करना पड़ रहा है। उसने देखा-दो अपरिचित पुरुष आकर उसके निकट ही छिपकर खड़े हो गये हैं। दिवोदास ने सोचा-ये लोग कौन हैं? और इस प्रकार छिपकर खड़े होने में इनकी क्या दुरभिसन्धि है। वह इतना सोच ही रहा था कि आगन्तुकों में से एक ने कहा-
“किन्तु मंजुघोषा तो यहाँ दिखाई नहीं दे रही है?”
मंजु का नमा सुनकर दिवोदास के कान खड़े हो गये। उसने सोचा-यह कोई नया षड्यन्त्र है। वह ध्यान से उनकी बातें सुनने लगा।
आगन्तुकों में एक गोरख ब्राह्मण था, दूसरा जयमंगल सेठ।
सेठ ने कहा—”क्या यह सच है कि महाप्रभु भी उस छोकरी पर मुग्ध हैं?”
गोरख ने उसका हाथ दबाकर कहा—”चुप-चुप, महाप्रभु इधर ही आ रहे हैं।”
दोनों अन्धकार से निकलकर बाहर प्रकाश में आ खड़े हुए। सिद्धेश्वर को देखकर दोनों ने प्रणाम किया। सिद्धेश्वर ने हँसकर आशीर्वाद देते हुए कहा—”आज नगर की चहल- पहल छोड़कर श्रेष्ठि इस समय यहाँ कैसे?”
“महाराज, क्या यहाँ सब कुछ नीरस ही है?”
“जिसने कंचन-कामिनी का स्वाद ले लिया, उसे देव प्रसाद में क्या स्वाद मिलेगा?”
“गुरुदेव, जैसे बिना विरह के प्रेम का स्वाद नहीं मिलता, उसी प्रकार बिन विलास किए, शान्ति का अनुभव नहीं होता।”
“यह तो तुम्हारी भावुकता है श्रेष्ठि, जो कामना के अग्निकुण्ड में ईंधन डालेंगे शान्ति कहाँ मिलेगी?” उसने गोरख की ओर तीखी दृष्टि से देखा।
जयमंगल ने कहा—”महाराज, विधाता ने भोगविलास के लिए जवानी और त्याग के लिए बुढ़ापा दिया है।”
सिद्धेश्वर ने हँसकर कहा—”हो सकता है श्रेष्ठि, जब तक समय है भोग लो। फूल सूख जायेगा। गन्ध हवा में मिल जायेगी। जगत् में दो ही मार्ग हैं। भोग और योग। तुम भोग के मार्ग पर हो, मैं योग के। अच्छा, अब जाता हूँ। चिरंजीव रहो।”
सिद्धेश्वर के जाने पर गोरख ने सिर उठाया। अब तक वह सिर नीचा किए खड़ा था। अब उसने कहा—”ये साक्षात् कलियुग के अवतार हैं, श्रेष्ठि।”
जयमंगल ने हँसकर कहा—”मालूम तो यही होता है। परन्तु इनके तप और वैराग्य की तो बड़ी-बड़ी बातें सुनी हैं, वे क्या सब झूठी हैं?”
“आओ देखो।”
उसने संकेत से सेठ को पीछे आने को कहा। और एक पेचीदा तंग गली में घुस गया। उन दोनों के पीछे दिवोदास भी छिपता हुआ चला। इसी समय सुखदास भी उससे आ मिला।
एक कुंज के निकट पहुँच कर सिद्धेश्वर ने पुकारा :
“माधव!”
माधव ने सम्मुख आ प्रणाम किया। सिद्धेश्वर ने कहा :
“माधव, अभागे बौद्धों को धोखा देने और मेरी सभी गुप्त आज्ञाओं की तत्परता से पालन करने के बदले, मैंने तुम्हें भण्डार का प्रधान अधिकारी बनाने का निश्चय कर लिया है।”
“यह तो प्रभु की दास पर भारी कृपा है।”
“तुम जानते ही हो कि सुन्दरियों का कोमल आलिंगन, मेरी योग साधना है?”
“हाँ प्रभु।”
“मुझे कोई कुछ समझे, परन्तु तुमसे कुछ छिपाना नहीं चाहता। मैं अपनी चित्तवृत्ति के देवता को सुन्दरियों की बलि से सन्तुष्ट करता हूँ। तुम्हें मालूम है कि लिच्छवि राजकुमारी मंजुघोषा इस समय मेरी आँखों में है, मैं उसका रक्षक हूँ।”
माधव ने हँसकर कहा—”समझ गया प्रभु। अब रक्षण काल समाप्त हो गया। वह फल सावधानी से पाला गया है, अब पक गया है, महाप्रभु अब उसे भक्षण किया चाहते हैं।”
“ठीक समझे माधव, जिस तरह प्रभात की वायु फूल की कली को खिलाकर उसकी सुगन्ध ले उड़ती है, उसी तरह यौवन के प्रभात ने उस कली को खिला दिया है। अब उसकी सुगन्ध मेरे उपयोग में आनी चाहिए।”
गोरख ने जयमंगल का हाथ दबाया। और दिवोदास ने वस्त्र में छिपी छुरी को सम्भाला। सुखदास ने पीछे से उसके कान में कहा “चुपचाप सब कृत्य देखो, जल्दी मत करो।”
माधव ने कहा—”तो इसमें क्या कठिनाई है प्रभु?”
“वह अभागा उस पर मोहित प्रतीत होता है। ध्यान रखना, ये भाग्यहीन मिथ्यावादी लोग, मन्दिर के भेद को न जानने पाएँ।”
“ऐसा ही होगा प्रभु, और क्या आज्ञा है?”
“आज आधी रात को, मैंने मंजुघोषा को महामन्त्र दीक्षा देने के लिए गर्भगृह में बुलाया है। इसी के लिए वह तीन दिन से व्रत और उपासना कर रही है। तुम उसे दो पहर रात बीते मेरे सोने के कमरे में ले आना समझे।”
“समझ गया प्रभु।”
“एक बात और।”
“क्या?”
“अन्धकूप पर कड़ा पहरा लगा दो। जिससे यह खबर सुनयना के कानों में न पड़ने पाए।”
“बहुत अच्छा।”
माधव एक ओर को चल दिया। और सिद्धेश्वर दूसरी ओर को।
गोरख ने कहा—”अब कहो।”
जयमंगल ने तलवार वस्त्र से निकालकर कहा—”रक्षा करनी होगी।”
दिवोदास ने आड़ से बाहर आकर कहा—”मैं तुम्हारी सहायता करूँगा।”
सुखानन्द ने बढ़कर कहा—”और मैं भी।”
जयमंगल ने कहा—”वाह, तब तो हमारा दल विजयी होगा।”
चारों जन कुछ सोच-सलाह कर, एक अँधेरी गली में घुस गए।
19. रंग में भंग
सिद्धेश्वर कमरे में गद्दी के ऊपर बैठा समाने खिड़की से चमकते हुए बहुत-से तारों और चन्द्रमा को देख रहा था। चौकी पर सामने एक ताँबे की तख्ती रखी थी। ऊपर कुछ अंक लिखे थे—उन्हें देख-देखकर वह एक भोजपत्र पर कुछ लकीरें खींच रहा था, फिर कुछ उँगलियों पर गिनता था। बीच-बीच में उसकी भृकुटि में बल पड़ जाते थे। आकाश में चन्द्रमा पर एक बादल का टुकड़ा छा गया। सिद्धेश्वर ने एकाग्र होकर उस ताम्रपत्र पर दृष्टि गड़ा दी। अन्त में व्याकुल होकर लेखनी फेंक दी। उसने आप ही बड़बड़ाते हुए कहा—
“वही एक फल। दुर्भाग्य, असफलता, दुर्घटना, रक्तपात। सब दुष्ट ग्रह मिल गए हैं। मंगल, बुध, शुक्र और शनि तथा चन्द्रमा चौथे स्थान में हैं। गुरु-केतु केन्द्र में, राहु अष्टम में है। जन्म से राहु पंचम है। परन्तु चाहे जो हो, मेरी शक्ति बड़ी है, मेरा मन्त्रबल ऊँचा है। मैं आशा नहीं छोड़ूँगा। सात अरब की सम्पदा और अनिन्द्य सुन्दरी मंजुघोषा त्यागने की वस्तु नहीं। मंजु मेरे अधीन है, परन्तु सम्पत्ति? (ताँबे की तख्ती पर दृष्टि डालकर) यह आधा बीजक है, आधा सुनयना ने कहीं छिपा रखा है।” वह उठकर बेचैन होकर टहलने लगा।
उसने फिर कहा—”चाहे जो हो, छल से या बल से, मैं उसे वश में करूँगा! परन्तु इतना विलम्ब क्यों हो रहा है? माधव उसे अभी तक लाया क्यों नहीं? कहीं उस पर मेरा कौशल तो प्रकट नहीं हो गया? नहीं, यह सम्भव नहीं।”
इसी समय एक विश्वस्त दासी ने आकर सूचना दी कि माधव और दासी मंजुघोषा चरण सेवा में आ रहे हैं।
सिद्धेश्वर ने प्रसन्न होकर कहा—”उन्हें आने दो।”
आगे मंजु, पीछे माधव ने आकर प्रणाम किया।
सिद्धेश्वर ने कहा—”माधव! इसे पवित्र देवी के कक्ष में ले जाओ, और पूजा का प्रबन्ध करो। मैं अभी आकर इसे महामन्त्र की दीक्षा दूँगा। (मंजु से) मंजु, आज तुम्हारा जीवन सफल होगा।”
माधव झुककर चल दिया, मंजु भी सिर झुकाकर चुपचाप पीछे-पीछे चली गई।
सिद्धेश्वर ने हाथ मलते हुए कहा—”अब कहाँ जाती है।”
वह अपने हाथ से ढाल-ढालकर मद्य पीने लगा।
माधव मंजु को लेकर गुप्त द्वार से उस अँधेरी टेढ़ी-मेढ़ी राह से चला। मंजु भयभीत हुई। उसने कहा—”यहाँ कहाँ लिए जाते हो?”
“पवित्र देवी तो वहीं है।”
“पर यहाँ तो घोर अन्धकार है।”
“तुम्हारे जाते ही वह आलौकिक हो जाएगा।”
“मुझे मेरे आवास में पहुँचा दो माधव।”
“आज नहीं, कल।”
“कल क्यों?”
“कल मैं तुम्हारी आज्ञा का पालन करूँगा।”
“इसका क्या मतलब है?”
“कल तुममें वह शक्ति आ जाएगी।”
“मैं नहीं समझी, माधव।”
“न समझना ही अच्छा है।”
“क्यों?”
“सेवक का धर्म समझाना नहीं, आज्ञा का पालन करना है।”
मंजु–क्या?
वे एक एकान्त कक्ष में पहुँचे, वहाँ बड़ी-बड़ी विशाल-विकराल मूर्तियाँ रक्खी हुई थीं। माधव ने उँगली से दिखाकर कहा—”वह देवी है… वहीं रहो। और जो कुछ पूछना हो आचार्य से पूछना।” मंजु कुछ देर चुपचाप खड़ी माधव को एकटक देखती रही!
माधव मंजु को वहीं खड़ी छोड़कर चला गया। मंजु वहाँ की भयानक मूर्तियों को देखकर भय से काँपने लगी। एकाएक गुप्त द्वार से सिद्धेश्वर ने प्रवेश किया।
सिद्धेश्वर ने मंजु के निकट आकर कहा—”सुन्दरी मंजुघोषा, तुम्हारे आने से इस पवित्र स्थान के सभी दीपक मन्द पड़ गए, समझती हो क्यों?”
मंजु ने नीची दृष्टि से कहा—”नहीं प्रभु।”
“तुम्हारी सुन्दरता से। तुम्हारे कोमल अंग के सुगन्ध ने यहाँ के सभी फूलों की सुगन्ध को मात कर दिया है।”
मंजु विरक्त भाव से चुप खड़ी रही। उसने लज्जा और संकोच से सिर झुका लिया।
सिद्धेश्वर ने मंजु का हाथ पकड़कर कहा—”मंजु, तुम मेरी बात नहीं समझीं?”
“नहीं प्रभु!” उसने हाथ खींचकर छुड़ा लिया।
“तुम भोली जो ठहरी, पहले इस पवित्र प्रसाद को पिओ।”
उसने मद्य डालकर पात्र मंजु के मुँह के पास लगा दिया, फिर बोला—”पिओ मंजु, यह देवता का प्रसाद है।”
मंजु ने निषेध किया। परन्तु सिद्धेश्वर ने उसे जबर्दस्ती पिला दिया।
पीछे स्वंय भी पी। मंजु भयभीत हो एक खम्भे के सहारे टिक गई।
सिद्धेश्वर ने कहा—”तुम्हारे सौन्दर्य का मद इस मद से बहुत अधिक है। समझीं मंजु!” उसने मंजु की ठोढ़ी छूकर कहा।
“प्रभो! आप गुरु हैं, ऐसी बातें न कीजिए।”
सिद्धेश्वर ने हँसकर कहा—”ठीक है, आओ अब महामन्त्र की दीक्षा दूँ।” उसने उसका हाथ पकड़ा और एक ओर को ले चला।
दिवोदास, जयमंगल, सुखानन्द और गोरख भी छिपते हुए पीछे-पीछे चले। जिस कमरे में वे पहुँचे, उस कमरे में विलास की सब सामग्री उपस्थित थी। गुदगुदा पलंग था, बड़ी-बड़ी वीणाएँ, मद्य के स्वर्णपात्र आदि सामग्री उपस्थिति थी। कमरा खूब सजा था। फूलों की मालाएँ जगह-जगह टँगी थीं। सिद्धेवश्वर मंजु का हाथ पकड़े आया और पलंग की ओर संकेत करके कहा—”यहाँ बैठो प्यारी!”
मंजु यह सम्बोधन सुनकर चमक उठी। उसने अधीर होकर कहा—”प्रभु मुझे जाने दीजिए।” वह उठ खड़ी हुई।
सिद्धेश्वर ने हाथ पकड़कर कहा—”जाती कहाँ हो प्यारी, मेरे हृदय में आकर बैठो।”
उसने खींचकर उसे आलिंगनपाश में बाँध लिया।
मंजु ने बलपूर्वक अलग होने की चेष्टा करते हुए कहा—”प्रभु, मैं आपकी पाली हुई पुत्री हूँ, छोड़िए! छोड़िए!!”
“बुद्धिमान जन अपने लगाए पेड़ का फल स्वंय खाते हैं, मैंने तुम्हें सींच सींचकर उसी क्षण के लिए बड़ा किया है।” उसने बलपूर्वक खींचकर उसे छाती से लगा लिया।
मंजु ने बल प्रयोग करते हुए चीखकर कहा—”छोड़िए, छोड़िए, प्रभु, छोड़िए!”
“डरो मत मंजु, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।”
“जाने दीजिए, छोड़िए।”
सिद्धेश्वर ने अब जरा कड़े स्वर में कहा—”पगली लड़की जानती है सिद्धेश्वर का मस्तक भूतेश्वर भगवान के साम से झुकता है। वही अब तेरे सामने झुक रहा है। मंजु, मुझे अपने यौवन का प्रसाद दे।” वह मंजु को छोड़कर उसके पैरों के पास घुटने टेककर बैठ गया। मंजु ने घबराकर लजाते हुए कहा—”उठिए प्रभु, यह आप क्या कर रहे हैं?”
“मुझे अपना प्यार दो, मंजु!”
“नहीं प्रभु, यह कभी नहीं हो सकता, मुझे जाने दीजिए।”
“तुम मेरे हृदय में बसी हो, जा कहाँ सकती हो प्रिये! कहो, तुम मेरी हो।”
उसने बलपूर्वक खींचकर उसे पुनः छाती से लगा लिया। मंजु ने क्रोध में भरकर जोर से उसे ढकेल दिया, वह गिरकर घायल हो गया। सिर से खून बहने लगा। उसने क्रोधित हो उठकर मंजु पर चोट करनी चाही, तभी अकस्मात् गुप्त द्वार खुल गया। दिवोदास और जयमंगल तलवार लिए घुस आए। और पीछे-पीछे सुखानन्द भी। इन सबको देखकर सिद्धेश्वर विमूढ़ हो गया।
सिद्धेश्वर-तुम कौन हो? (पहचान कर) पापिष्ठ बौद्ध भिक्षु और तुम अभागे युवक?
दिवोदास-मैं तुम्हारा काल हूँ। पापिष्ठ! पाखण्डी!
यह कहकर दिवोदास तलवार फेंककर सिद्धेश्वर से भिड़ गया। मल्ल युद्ध होने लगा। लड़ते-लड़ते एक पत्थर के खम्भे के पास दोनों जा पहुँचे। बीच-बीच में जयमंगल भी एकाध घूँसा सिद्धेश्वर को जमा देता था। मंजु खड़ी भयभीत देख रही थी। उस खम्भे पर भयानक काली की मूर्ति थी। वहाँ पहुँचकर सिद्धेश्वर ने चिल्लाकर कहा—”अब माँ चण्डी, लो नरबलि।” मूर्ति भयानक रीति से अट्टहास कर उठी। एक बार सब भयभीत हो गए। मंजु अधिक भयभीत हुई। दिवोदास भी डर गया। पृथ्वी काँपने लगी और सैकड़ों बिजलियाँ चमकती और गर्जती दीख पड़ने लगीं। देखते ही देखते वह मूर्ति धरती में धँसने लगी। और कक्ष में अग्नि की ज्वाला भभक उठी। मंजु मूर्छित हो गई।
सुखानन्द ने साहस कर आगे बढ़ और पैंतरा सँभाल कर सिद्धेश्वर पर चोट की। सिद्धदेश्वर मूर्छित होकर गिर पड़ा। दिवोदास ने उसके पंजे से छूटकर फुर्ती से मूर्छित मंजुघोषा को उठा लिया तथा एक ओर ले भागा। सुखदास ने भी नंगी तलवार ले उसका अनुगमन किया।
20. रहस्योद्घाटन
निरापद स्थान पर आकर सुखदास ने कहा—”अब यहाँ ठहरकर थोड़ा विचार कर लो भैया।”
परन्तु दिवोदास ने उत्तर दिया—”हमें यहाँ से भगा चलना चाहिए।”
“नहीं, अभी नहीं, देवी सुनयना का उद्धार भी हमें करना है?”
मंजु ने घबराकर पूछा—“क्या वे किसी विपत्ति में है?”
“उन्हें सिद्धेश्वर ने अन्धकूप में डाल दिया है।”
“किसलिए?”
“गुप्त रत्नकोष के बीजक की प्राप्ति के लिए।”
“किन्तु वह तो मेरे पास है।”
“कहाँ पाया?”
“देवी सुनयना ने दिया था।”
“तो तुम उसका सब भेद जानती हो?”
“हाँ, उन्होंने बताया है कि मैं लिच्छवि महाराज श्रीनृसिंह देव की पुत्री हूँ।”
“और देवी सुनयना कौन हैं? यह भी उन्होंने बताया?”
“वे मेरी माता की दासी और मेरी धाय माँ हैं।”
“देवी सुनयना तुम्हारी जन्मदात्री माँ और लिच्छविराज की पट्टराज महिषी सुकीर्ति देवी हैं।”
मंजु ने आश्चर्य और आनन्द से काँपते हुए कहा—”सच?”
“वे तुम्हारे ही कारण अपनी मर्यादा और प्रतिष्ठा को लात मारकर यहाँ पर गर्हित जीवन व्यतीत कर रही हैं।”
मंजु की आँखों में झर-झर मोती झरने लगे। उसके फूल-से होंठों से माँ-माँ की ध्वनि निकली।
दिवोदास ने उसे धैर्य बँधाते हुए कहा—”घबराओ मत! तुम अभी आवास में जाओ, अब सूर्योदय में विलम्ब नहीं है, दिन में वह पापिष्ठ तुम्हारा कुछ अनिष्ट न कर सकेगा। तथा तुम अकेली मत रहना, सबके साथ रहना। हम महारानी का उद्धार करके तथा उन्हें सुरक्षित स्थान पर पहुँचाकर तुमसे मिलेंगे। फिर कहीं भाग चलने पर विचार होगा।”
“मैं भी तुम्हारे साथ चलूँ तो?”
“ठीक नहीं होगा। कार्य में बाधा होगी। तुम जाकर स्वाभाविक रूप से अपनी नित्यचर्या करो, मानो कुछ हुआ ही नहीं।”
मंजु ने स्वीकार किया। वह अपने आवास की ओर आई। सुखदास और दिवोदास ने परामर्श किया।
सुखदास ने कहा—”मैंने प्रहरियों को मिला लिया है, वे महारानी को छोड़ देंगे। अब उन्हें लेकर कहाँ छिपाया जाय, यही सोचना है।”
“तो यह भी उन्हीं से परामर्श करके सोचा जायेगा। वही इसका ठीक समाधान कर सकेंगी।”
“तो फिर विलम्ब क्यों!” दोनों ने अपने हाथ के शस्त्रों को सावधानी से पकड़ा और अन्धकार में एक ओर बढ़े। दिवोदास ने कहा—”वे दोनों कुत्ते क्या हुए?”
“वह धूर्त ब्राह्मण तो मेरे हाथ से बचकर भाग निकला-परन्तु सेठ को मैंने बाँधकर एक खूब सुरक्षित स्थान पर डाल दिया है।”
“तो यही अन्धकूप का द्वार है। तुम प्रहरी से बात करो।” सुखदास ने प्रहरी से संकेत किया। उसने चुपके से द्वार खोल दिया। दोनों अन्धकूप में प्रविष्ट हुए। दुर्गन्ध और सील के मारे वहाँ साँस लेना भी दुर्लभ था।
सुखदास ने कहा—”क्या महारानी जाग रही हैं?”
“कौन है?”
“मैं सुखदास हूँ। मेरे साथ श्रेष्ठि पुत्र दिवोदास भी हैं।”
“शुभ है कि आप लोग सुरक्षित हैं। किन्तु मेरी मंजु?”
“वह सकुशल है। आप उसकी चिन्ता न करें महारानी। आप यहाँ से निकलिए।”
“निकलकर कहाँ जाऊँ?”
“यह हम परामर्श करके ठीक कर लेंगे।”
“यह ठीक न होगा। मेरी प्रतिज्ञा है कि काशिराज और इस धूर्त सिद्धेश्वर से बिना अपने पति का बदला लिए यहाँ से न जाऊँगी। परन्तु तुम मंजु को लेकर भाग जाओ। गुप्त स्थान मैं बताती हूँ।”
“कौन-सा?”
“क्या कोई और भी इस गुप्त बात को जानता है?”
“नहीं महारानी।”
“तो मंजु के पास गुप्त राजकोष का बीजक और ताली है। वहाँ पहुँचने पर आप लोगों को कोई न पा सकेगा।”
“उसका मार्ग?”
“वह बीजक बताएगा।”
“किन्तु आप?”
“मेरी चिन्ता मत करो, मुझमें अपनी रक्षा करने की पूरी शक्ति है। तुम मंजु को यहाँ से ले जाओ।”
“जैसी राजमाता की आज्ञा।”
“तुम्हें आशीर्वाद देती हूँ पुत्र, मैं तुम्हें शीघ्र ही मिलूँगी।”
दोनों पुरुष ने फिर अधिक बात नहीं की। वे अन्धकूप से निकलकर छिपते हुए टेढ़ी-मेढ़ी राह को पार करते हुए चले। पूर्व में लाली फैल रही थी।
21. मन्दिर में
मन्दिर में पूजन की तैयारी हो रही थी। रुद्राभिषेक हो रहा था। विविध वाद्य बज रहे थे। काशिराज और सिद्धेश्वर यथास्थान खड़े थे। देवदासियाँ देवता का श्रृंगार कर रही थीं-मंजु आरती की माला सजाती हुई मन ही मन कह रही थीं—”देव! जीवन-भर जिस कार्य का अभ्यास किया, आज वह नीरस हो गया। तुम यदि सचमुच अन्तर्यामी हो तो तुमने मेरे मन की दशा समझ ली होगी, और तुम्हें मुझ पर दया आई होगी। मैंने जीवनभर तुम्हारी तन- मन-धन से सेवा की है, अब तुम मेरी इच्छा पूरी करो देव!”
उसने अश्रुपूर्ण नेत्रों से देवता की और देखा, और पूजा का थाल उठाया। वह दो कदम आगे बढ़ी। देखा, सम्मुख दिवोदास खड़ा है। मंजु के हृदय में आनन्द की लहर दौड़ गई। उसने एक बार घृणापूर्वक सिद्धेश्वर की ओर देखा, और वह उलटकर दिवोदास के सम्मुख जा पहुँची। उसने दिवोदास की आरती उतारकर देवता की माला भी उसके गले में डाल दी। यह देख सब लोग ‘पूजा भ्रष्ट हो गई’, ‘पूजा भ्रष्ट हो गई’, चिल्ला उठे। बाजे एकदम बन्द हो गए। सिद्धेश्वर आपे से बाहर होकर चीख उठे। काशीराज ने क्रुद्ध स्वर में कहा:
“मूर्खे! पूजा भ्रष्ट कर दी।”
किन्तु मंजु ने उधर देखा ही नहीं। उसने आनन्द विभोर होकर दिवोदास के निकट आकर कहा—”पतिदेव, पूजा सार्थक हुई न?”
“हाँ प्रिये।”
काशिराज ने क्रुद्ध होकर कहा—”दोनों को बाँध लो।”
राजाज्ञा का तुरन्त पालन हुआ।
मंजु को उसी के कमरे में बन्द कर दिया गया और दिवोदास को नदी के उस पार दुर्गम दुर्ग में बन्दी कर दिया गया।
मंजु की सखी लता उसके लिए भोजन लेकर आई तो मंजु ने कहा, ‘सखी, क्या तू उनका कुछ समाचार जानती है?”
“जानती हूँ-पर सुनकर तुम्हें दु:ख होगा।”
“फिर भी कह दे सखी।”
“मंजु, इस प्रेम में अपने को नष्ट न कर।”
“आह सखी, मैं प्यार का घाव खा बैठी हूँ।”
“किन्तु वह अज्ञात कुलशील भिक्षु है।”
“अज्ञात कुलशील नहीं वह धनंजय श्रेष्ठि का पुत्र है।”
“परन्तु उसे तो महाराज ने कान्तार दुर्ग में बन्दी कर दिया है।”
“हे भगवान्-कान्तार दुर्ग में?”
“वहाँ उसे प्राणान्त प्रायश्चित्त करने का आदेश दिया गया है। दोनों धूर्त आचार्य उसकी जान के ग्राहक बन बैठे हैं।”
मंजु ने कहा—”सखी, मेरी सहायता कर!”
“जो तू कहे।”
“मुझे वहाँ जाने दें।”
“कैसे?”
“तू मेरे लिए त्याग कर।”
“तेरे लिए मेरे प्राण भी उपस्थित हैं।”
“तो तू यहाँ मेरे स्थान में रह, मैं तेरे वस्त्र पहनकर निकल जाऊँगी।”
“तो तू जा।”
“पर जानती है, तेरी क्या गत बनेगी।”
“वे मेरा वध करेंगे, मैं सह लूंगी।
“हाय सखी-कैसे कहूँ।”
“मेरी चिन्ता न कर।”
मंजु ने जल्दी-जल्दी सखी के वस्त्र पहने। अपने उसे पहनाए। भोजन की सामग्री हाथ में ली और बन्धन से बाहर हो गई। प्रहरी कुछ भी न जान सका।
मंजु चल दी। किसी ने उसे लक्ष्य नहीं किया। वह पागल की भाँति भागी चली जा रही थी। भूख, प्यास और थकान ने उसके कोमल गात्र को क्लान्त कर दिया। उसके पैरों में घाव हो गये और वह बारम्बार लड़खड़ाकर गिरने लगी। वह गिरती, उठती-और फिर भागती। घोर वन था। बड़ी तेज धूप थी। सामने भयानक विस्तार वाली नदी के उस पार, सूखी नंगी पहाड़ी पर ऊँचा सिर उठाए वह एकान्त दुर्ग था। वह साहस करके नदी में कूद पड़ी। लहरों के साथ डूबती-उतराती वह उस पार जा पहुँची।
उसकी शक्ति ने जवाब दे दिया। परन्तु वह चलती ही चली गई। दुर्गम पहाड़ पर चढ़ना-बड़ा दुस्साहस का कार्य था परन्तु प्रेम का बल उसे मिलता गया-वह दुर्ग द्वार पर पहुँच गई। दुर्ग का द्वार बन्द था। उसकी भारी लौह श्रृंखलाओं में मजबूत ताला पड़ा था। उसने व्याकुल दृष्टि से चारों ओर देखा-उस दुर्गम कान्तार दुर्ग में चिड़िया का पूत भी न था। उसने एक बार दुर्ग के चारों ओर चक्कर लगाया। अन्त में निराश हो थककर वह एक शिलाखण्ड पर पड़ गई। उसे नींद आ गई। न जाने वह कब तक सोती रही। जब उसकी आँखें खुलीं तो देखा-सूर्य अस्त हो रहा है, और एक वृद्ध चरवाहा उसके निकट खड़ा है।
वह हड़बड़ाकर उठ बैठी। वृद्ध चरवाहे ने कहा—”तुम कौन हो और यहाँ कैसे आईं?”
“मैं विपत्ति की मारी दुखित स्त्री हूँ बाबा, भाग्य-दोष से यहाँ आ फँसी हूँ।”
“परन्तु यहाँ सिंह रहता है, तुझे खा जायेगा। बस्ती दूर है, तू रात कहाँ व्यतीत करेगी?”
“मैं चाहती हूँ सिंह मुझे खा जाय?”
“परन्तु तेरे यहाँ आने का कारण क्या है?”
“एक पुरुष इस दुर्ग में बन्द भूखा मर रहा है।”
“तुझे किसने कहा?”
“मैं जानती हूँ। उसी के लिए मैं यहाँ आई थी। किन्तु भीतर जाऊँ कैसे?”
“भीतर ही जाना है तो मैं पहुँचा सकता हूँ, परन्तु वहाँ कोई मनुष्य नहीं है।”
“क्या तुम जानते हो बाबा?”
“मैं तो वहाँ नित्य आता-जाता हूँ।”
“क्या भीतर जाने की कोई और भी राह है।”
“वह मैंने अपने लिए बनाई है।” बूढ़ा चरवाहा हँस दिया।
“तो बाबा, मुझे वहाँ पहुँचा दो।”
“परन्तु रात होने में देर नहीं है, फिर मेरा भी गाँव लौटना कैसे होगा।”
“वहाँ एक मनुष्य भूखा मर रहा है बाबा।”
“तब चल, मैं चलता हूँ।”
दोनों टेढ़े-मेढ़े रास्ते से चलने लगे। मंजु में चलने की शक्ति नहीं रही थी। परन्तु वह चलती ही गई। अन्त में एक खोह में घुसकर चरवाहे ने एक पत्थर खिसकाकर कहा—”इसी में चलना होगा।” वह प्रथम स्वयं ही भीतर गया। पीछे मंजु भी घुस गई। थोड़ा चलने पर एक विस्तृत मैदान दीख पड़ा। दूर किसी अट्टालिका के भग्न अवशेष थे।
“वहाँ चले बाबा” मंजु ने उधर संकेत करके कहा। चरवाहे ने आपत्ति नहीं की। खंडहर के पास पहुँचकर मंजु जोर से दिवोदास को पुकारने लगी। उसकी ध्वनि गूँजकर उसके निकट आने लगी। परन्तु वहाँ कहीं किसी जीवित मनुष्य का चिह्न भी न था।
बूढ़े ने कहा—”मैंने तो तुमसे कहा था-यहाँ कोई मनुष्य नहीं है, अब रात को गाँव पहुँचना भी दूभर है, राह में सिंह के मिलने का भय है, पर मैं जा सकता हूँ। क्या तू यहाँ अकेली रहेगी? या गाँव तक चल सकती है?”
“बाबा, मैं यहीं प्राण दूँगी। आपका उपकार नहीं भूलूँगी। आप जाइए।”
“यहाँ तुझे अकेला छोड़ जाऊँ?”
“मेरी चिन्ता न करें-मेरा जीवन अब निरर्थक ही है।”
इसी समय उसे ऐसा भान हुआ, जैसे किसी ने जोर से साँस ली हो।
मंजु ने चौंककर कहा—”आपने कुछ सुना; यहाँ किसी ने साँस ली है।”
वह लपककर खोह में घुस गई। उसने देखा-एक शिलाखण्ड पर दिवोदास मूर्च्छित पड़ा है। चरवाहा भी पहुँच गया। उसने दूर ही से पूछा—”मर गया या जीवित है?”
मंजु ने रोते हुए कहा—”बाबा, यहाँ कहीं पानी है?”
“उधर है,” और वह निकट पहुँच गया।
उसने दिवोदास को ध्यान से देखा और कहा—”आओ, इसे उधर ही ले चलें। बच जायगा।”
दोनों ने दिवोदास की मूर्च्छित देह को उठा लिया, और जहाँ जल की पुष्करिणी थी वहाँ ले गए। यहाँ बाँधकर वर्षा का जल रोका गया था। थोड़ा जल पीने तथा मुँह और आँखों पर छिड़कने से थोड़ी देर में दिवोदास को होश आ गया। उसने आँखें खोलकर मंजु को देखा-उसके होंठ से निकला—”मंजु प्रिये।”
मंजु उसके वक्ष पर गिरकर फफक-फफक कर रोने लगी।
दिवोदास ने धीमे स्वर से कहा—”मैं जानता था कि तुम आओगी, सो तुम आ गईं।”
उसने मंजु को हृदय से लगा लिया। कुछ देर बाद कहा—
“अब मैं सुख से मर सकूँगा।”
“मरेंगे तुम्हारे शत्रु।” उसने दृढ़ता से उठकर दिवोदास का सिर अपनी गोद में रख लिया।
“प्यारी, तुमने मुझे जिला दिया।” दिवोदास ने कहा।
“मैंने नहीं प्रिय, इस देव पुरुष ने”, मंजु ने उस चरवाहे की ओर संकेत किया।
दिवोदास ने अब तक उसे नहीं देखा था। अब उसकी ओर देखकर कहा :
“तुम कौन हो भाई।”
“मैं चरवाहा हूँ, पास ही गाँव में रहता हूँ, यहाँ नित्य बकरी चराता हूँ। भीतर आने-जाने की राह यह मैंने अपने लिए बना ली थी। संध्या को जब मैं घर लोट रहा था इन्हें मूर्च्छित पड़ा देखा। इसी से रुक गया। लड़के को बकरी लेकर घर भेज दिया। सो अच्छा ही हुआ-दो-दो प्राणी बच गए।” बूढ़ा बहुत खुश था।
दिवोदास ने कहा—”बचा लिया तुमने बाबा, तुम उस जन्म के मेरे पिता हो। अब यहाँ मेरे पास आकर बैठो।” बूढ़ा भी वहीं बैठ गया। उसने कहा—”अब तो रात यहीं काटनी होगी। परन्तु खाने को तो कुछ भी नहीं मिल सकता। देखता हूँ, तुम दोनों भूखे हो।”
मंजु ने कहा—”मेरे साथ थोड़ा भोजन है, उससे हम तीनों का आधार हो जायगा।”
उसने पोटली खोली। तीनों ने थोड़ा-थोड़ा खाकर पानी पिया। भोजन करने से दिवोदास में कुछ शक्ति आई। वह एक पत्थर के सहारे बैठ गया। चरवाहे ने कहा—”थोड़ी आग जलानी होगी, नहीं तो वन पशु का भय है। मैं ईंधन लाता हूँ।” और वह उठकर चला गया।
मंजु ने उसके गले में बाँहे डालकर कहा—”अब तुम तनिक हँस दो।”
“क्या मैं फिर कभी हँस भी सकूँगा?”
“हम सदैव हँसेंगे, गाएँगे, मौज करेंगे।” और वह दिवोदास से लिपट गई।
दिवोदास ने कहा—”प्यारी, तुम्हारी इस स्नेह दान ने मेरे बुझते हुए जीवन-दीपक को बुझने से बचा लिया। और तुम्हारी मधुर वाणी ने मेरे सूखे हुए जीवन को हरा-भरा कर दिया।” उसने उसे अपने बाहुपाश में कसकर अगणित चुम्बन ले डाले।
चरवाहे ने एक गट्ठर लकड़ी लाकर उसमें आग लगा दी। और तीनों आदमी वहीं पृथ्वी पर लेट गए। मंजु पड़ते ही गहरी नींद में सो गई। वह बहुत थकी थी। दिवोदास भी दुर्बल था। वह भी सो गया। परन्तु चरवाहा बड़ी देर तक जागता रहा।
प्रात:काल होते ही नित्यकर्म से निवृत्त होकर तीनों ने सलाह की। दिवोदास ने वृद्ध का हाथ पकड़कर कहा—”मित्र, तुम मेरे आज से पितृव्य हुए। अब हम-तुम कभी पृथक् न होंगे। मेरे दुख-सुख में तुम्हारा साझा रहेगा।”
बूढ़े ने हँसकर कहा—”तुम चिन्ता न करो भाई। तुम्हारे बराबर ही मेरा लड़का है, और ऐसी ही लड़की भी है। तुम भी मेरे लड़के-लड़की रहे। गाँव चलो, बहुत जमीन है, धान्य है, दूध है। खाओ-पिओ मौज करो। तुम्हें क्या चिन्ता!”
“किन्तु पितृव्य, हमारा कुछ कर्तव्य भी है। तुम्हें उसमें सहायता देनी होगी।”
“कहो, क्या करना होगा?”
“हमारे शत्रु हैं।”
“तो मेरे लड़के को बता दो, वह उनकी खोपड़ी तोड़ देगा।”
“परन्तु वे बड़े बलवान् हैं, काम युक्ति से लेना होगा।”
“फिर जैसे तुम कहो।”
“हमें छिपकर रहना होगा।”
“तो हमारे गाँव में रहो।”
“वहाँ नहीं छिप सकेंगे, राजसैनिकों को पता चल जायगा।”
“तब क्या किया जाय?” मंजु ने प्रश्न किया।
“राजमाता ने जो आदेश दिया है वही।”
“ठीक है, तो मुझे एक बार मन्दिर में जाना होगा।”
“किसलिए?”
“ताली और बीजक लेने, परन्तु एक बात है।”
“क्या?”
“मेरे पास आधा ही बीजक है। शेष आधा सिद्धेश्वर के पास है। वह भी लेना होगा। बिना उसके हम उस कोषागार में नहीं पहुँच सकेंगे।”
“तब हमें एक बार काशी चलना होगा। तुम अपनी वस्तु लेना और मैं सिद्धेश्वर से वह बीजक लूँगा।”
बूढ़े ने कहा—”मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा।”
“तुम्हें अब हम नहीं छोड़ेंगे पितृव्य।’
“तो पहिले गाँव चलो। खा पीकर, टंच होकर रात को काशी चलेंगे।”
“यही सलाह ठीक है।”
तीनों व्यक्ति उसी खोह की राह निकलकर गाँव की ओर चल दिए।
22. सिद्धेश्वर का कोप
सिद्धेश्वर क्रोधपूर्ण मुद्रा में अपने गुप्त कक्ष में बैठे थे। इसी समय माधव ने रस्सियों से बाँधकर लिच्छवि राजमहिषी सुकीर्ति देवी को उनके सामने उपस्थित किया। सम्मुख आते ही सिद्धेश्वर ने कहा—”तुम्हें मालूम है देवी सुनयना, कि मंजु भाग गई है?”
“तो क्या हुआ, मन्दिर में अभी बहुत पापिष्ठा हैं?”
“परन्तु क्या तुमने उसके भागने में सहायता दी है?”
“दी, तो फिर?”
“मैं तुम्हें और उसे दोनों को प्राणान्त दण्ड दूँगा।”
“बड़ी सुन्दर बात है। जिसे राजरानी पद से च्युत कर विधवा और पतिता देवदासी बनाया-जिसकी बच्ची को पतित जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य किया और जिसे वासना की सामग्री बनाना चाहते थे-उसी को अब प्राणदण्ड भी दो।”
“चुप रहो सुनयना देवी!”
“क्यों चुप रहूँ? मैं ढोल पीटकर संसार को बताऊँगी कि मैं कौन हूँ, और तुमने मेरे साथ किया है!”
“तुम जो चाहो कहो। कौन तुम पर विश्वास करेगा?”
सुनयना ने चोली से एक छोटी-सी वस्तु निकालकर उसे दिखाई और कहा, “इसे तो तुम पहचानते हो सिद्धेश्वर, जानते हो, इसमें किसका खून लगा है? इसे देखकर तो लोग विश्वास कर लेंगे?”
उन वस्तु को देखकर सिद्धेश्वर भयभीत हुआ। उसने कहा :
“देवी सुनयना, इस प्रकार आपस में लड़ने-झगड़ने से क्या लाभ होगा! तुम मुझे उस खजाने का शेष आधा बीजक दे दो, मैं तुम दोनों को मुक्त कर दूँगा––बस।”
“प्राण रहते यह कभी नहीं होगा।”
“तो तुम्होर प्राण रहने ही न पावेंगे।”
“जिसने प्राण दिया है-वही उसकी रक्षा भी करेगा, तुम जैसे श्रृगालों से मैं नहीं डरती।”
“मैंने उसे पकड़ने के लिए सैनिक चर भेजे हैं। वह जहाँ होगी-वहाँ से पकड़ ली जायेगी और मैं तेरे सम्मुख ही उसे अपनी अंकशायिनी बनाऊँगा।”
सिद्धेश्वर ने आपे से बाहर होकर कहा—”माधव, ले जा इस सर्पिणी को और डाल दे अंधकूप में।”
माधव उसे लेकर चला गया। कुछ देर तक सिद्धेश्वर भूखे व्याघ्र की भाँति अपने कक्ष में टहलता रहा। फिर उसने बड़ी सावधानी से एक ताली अपनी जटा से निकाल लोहे की सन्दूक खोली और उसमें से एक ताम्र-पत्र निकालकर उसे ध्यान से देखा तथा फलक पर लकीरें खींचता रहा। कभी-कभी उसके होंठ हिल जाते और भृकुटि संकुचित हो जाती। परन्तु वह फिर उसे ध्यान से देखने लगता।
इसी समय उसे कुछ खटका प्रतीत हुआ। उसने आँखें उठाकर देखा तो दिवोदास नंगी तलवार लिए सम्मुख खड़ा था। सिद्धेश्वर उछलकर दूर जा खड़ा हुआ। उसने कहा—”तू यहाँ कैसे आया रे धूर्त भिक्षु?”
“इससे तुझे क्या?”
“क्या ऐसी बात?” उसने खूँटी से तलवार उठाकर दिवोदास पर आक्रमण किया।
दिवोदास ने पैतरा बदलकर कहा—”मेरी इच्छा तेरा हनन करने की नहीं है।”
“परन्तु मैं तो तुझे अभी टुकड़े-टुकड़े करके भगवती चण्डी को बलि देता हूँ।” सिद्धेश्वर ने फिर वार किया। परन्तु दिवोदास ने वार बचाकर एक लात सिद्धेश्वर को जमाई। सिद्धेश्वर औंधे मुँह भूमि पर जा गिरा। दिवोदास ने ताम्रपट्ट उठाया और अपने वस्त्र में रख लिया।
सिद्धेश्वर ने गरजकर कहा—”अभागे, वह पत्र मुझे दे!”
“वह तेरे बाप की सम्पत्ति नहीं है रे धूर्त।”
“तब ले मर”, उसने अन्धाधुन्ध तलवार चलाना प्रारम्भ किया। दिवोदास केवल बचाव कर रहा था, इसी से वह एक घाव खा गया। इस पर खीझकर उसने एक हाथ सिद्धेश्वर के मोढ़े पर दिया। सिद्धेश्वर चीखकर घुटनों के बल गिर गया। इसी समय माधव तलवार लेकर कक्ष में कूद पड़ा। उसने पीछे से वार करने को तलवार उठाई ही थी, कि सुखदास ने उसका हाथ कलाई से काट डाला। माधव वेदना से मूर्च्छित हो गया। इसी समय सुयोग पाकर दोनों भाग निकले। भागते-भागते सुखदास ने कहा—”वहाँ-कुंज में बिटिया छिपी बैठी है। तुम उसे लेकर और दीवार फाँदकर वाम तोरण के पीछे आओ, वहाँ अश्व तैयार है। मैं उधर व्यवस्था करता हूँ।”
यह कहकर सुखदास एक ओर जाकर अन्धकार में विलीन हो गया। दिवोदास उसके बताए स्थान की ओर दौड़ चला।
संकेत पाते ही मंजु निकल आई। दिवोदास ने कहा :
“तुम्हारा कार्य हुआ?’
“हाँ! और तुम्हारा?”
“हो गया?”
“तब चलो।”
“किन्तु वह वृद्ध?”
“उन्हें मैंने आगे भेज दिया है।” “तब चलो।” दोनों काम तोरण के पृष्ठ भाग की ओर वृक्षों की छाया में छिपते हुए चले। दिवोदास एक वृक्ष पर चढ़ गया। उसने मंजु को भी चढ़ा लिया और दोनों दीवार फाँद गये। दिवोदास ने कहा—”यहाँ, अश्व तो नहीं है!”
“पर रुकना निरापद नहीं, हमें चलना चाहिए।”
“चलो फिर, अश्व आगे मिलेंगे।”
दोनों अन्धकार में विलीन हो गए।
23. कापालिक के चंगुल में
गहन अँधेरी रात में मंजु और दिवोदास ने निविड़ वन में प्रवेश किया। मंजु ने कहा—”माँ का कहना है कि वह जो सुदूर क्षितिज में दो पर्वतों के श्रृंग परस्पर मिलते दीखते हैं, उनकी छाया जहाँ एकीभूत हो हाथी की आकृति बनाती है, वहीं निकट ही उस गुप्त कोष का मुख द्वार है। इसलिए हमें उत्तराभिमुख चलते जाना चाहिये। विन्ध्य-गुहा को पार करते ही हम कौशाम्बी-कानन में प्रवेश कर जाएँगे।”
“परन्तु प्रिये, यह तो बड़ा ही दुर्गम वन है, रात बहुत अँधेरी है। हाथ को हाथ नहीं सूझता। बादल मँडरा रहे हैं। एक भी तारा दृष्टिगोचर नहीं होता। वर्षा होने लगी तो राह चलना एकबारगी ही असम्भव हो जायेगा।”
“चाहे जो भी हो प्रिय, हमें चलते ही जाना होगा। जानते हो, उस बाघ ने अपने शिकारी कुत्ते हमारे लिए अवश्य छोड़े होंगे। चले जाने के सिवा और किसी तरह निस्तार नहीं है।”
“यह तो ठीक है, पर मुझे केवल तुम्हारी चिन्ता है प्यारी, तुम्हारे कोमल पाद-पद्म तो कल ही क्षत-विक्षत हो चुके थे। तुम कैसे चल सकोगी?”
“प्यारे! तुम्हारे साथ रहने से तो शक्ति और साहस का हृदय में संचार होता है। तुम चले चलो।”
और वे दोनों निविड़ दुर्गम गहन वन में घुसते चले गये। घनघोर वर्षा होने लगी। बिजली चमकने लगी। वन-पशु इधर-उधर भागने लगे, आँधी से बड़े-बड़े वृक्ष उखड़कर गिरने लगे। कँटीली झाड़ी में फँसकर दोनों के वस्त्र फटकर चिथड़े-चिथड़े हो गये। शरीर क्षतविक्षत हो गया। फिर भी वे दोनों एक-दूसरे को सहारा दिए चलते चले गए। अन्ततः मंजु गिर पड़ी। उसने कहा—”अब नहीं चल सकती।”
“थोड़ा और प्रिये, वह देखो उस उपत्यका में आग जल रही है। वहाँ मनुष्य होंगे। आश्रय मिलेगा।”
मंजु साहस करके उठी, परन्तु लड़खड़ाकर गिर पड़ी। उसने असहाय दृष्टि से दिवोदास को देखा।
दिवोदास ने हाथ की तलवार मंजु के हाथ में देकर कहा—”इसे मजबूती से पकड़े रहना प्रिये,” और उसे उठाकर पीठ पर लाद ले चला।
प्रकाश धीरे-धीरे निकट आने लगा। निकट आकर देखा-एक जीर्ण कुटी है। कुटी के बाहर मनुष्य मूर्ति भी घूमती दीख पड़ी। परन्तु और निकट आकर जो देखा तो भय से दिवोदास का रक्त जम गया। मंजु चीख मारकर मूर्च्छित हो गई।
उन्होंने देखा-कुटी के बाहर छप्पर के नीचे एक कापालिक मुर्दे की छाती पर पद्मासन में बैठा है। उसकी बड़ी-बड़ी भयानक लाल-लाल आँखें हैं। उसका रंग कोयले के समान काला है। उसकी जटाएँ और दाढ़ी लम्बी लटक रही है तथा धूल-मिट्टी से भरी है। कमर में एक व्याघ्र चर्म बँधा है। गले में मुण्डमाला है। सामने मद्यपात्र धरा है, आग जल रही है, लपटें उठ रही हैं, कापालिक अधोर मन्त्र पढ़-पढ़कर माँस की आहुति डाल रहा है। माँस के अग्नि में गिरने से लाल-पीली लपटें उठती हैं।
दिवोदास ने साहस करके मंजु को नीचे पृथ्वी पर उतार दिया और शंकित दृष्टि से कापालिक को देखने लगा।
कापालिक ने कहा—
“कस्त्वं?”
“शरणागत?”
“अक्षता सा?”
इसी बीच मंजु की मूर्छा जागी। उसने देखा-कापालिक भयानक आँखों से उसी की ओर देख रहा है। वह चीख मारकर दिवोदास से लिपट गई।
कापालिक ने अट्टहास करके कहा—”माभै: बाले!” और फिर पुकारा : “शार्ं गरव, शार्ं गरव?”
एक नंग-धडंग, काला बलिष्ठ युवक लंगोटी कसे, गले में जनेऊ पहने, सिर मुड़ा हुआ, हाथ में भारी खड्ग लिए आ खड़ा हुआ। उसने सिर झुकाकर कहा :
“आज्ञा प्रभु।”
“इन्हें महामाया के पास ले जाकर प्रसाद दे, हम मन्त्र सिद्ध करके आते हैं।” शार्ं गरव ने खोखली वाणी से कहा—”चलो।”
दिवोदास चुपचाप उसके पीछे-पीछे चल दिया! मंजु उससे चिपककर साथ-साथ चली।
मन्दिर बहुत जीर्ण और गन्दा था। उसमें विशालाकार महामाया की काले पत्थर की नग्न मूर्ति थी। जो महादेव के शव पर खड़ी थी। हाथ में खांडा, लाल जीभ बाहर निकली थी। आठों भुजाओं में शस्त्र, गले में मुण्डमाल सम्मुख पात्रों में रक्त पुष्प तथा मद्य से भरे घड़े धरे थे। एक पात्र में रक्त भरा था। सामने बलिदान का खम्भा था। पास ही एक खांडा भी रक्खा था।
दोनों ने देखा, वहाँ शार्ं गरव के समान ही चार और दैत्य उसी वेश में खड़े हैं। मूर्ति के सम्मुख पहुँच शार्ं गरव ने कर्कश स्वर में कहा—”अरे मूढ़! महामाया को प्रणिपात कर।”
दिवोदास ने देवी को प्रणाम किया। मंजु ने भी वैसा ही किया। एक यमदूत ने तब बड़ा-सा पात्र दिवोदास के होंठों से लगाते हुए कहा—”पी जा अधर्मी, महामाया का प्रसाद है।”
“मैं मद्य नहीं पीता।”
“अरे अधर्मी, यह मद्य नहीं है, देवी का प्रसाद है, पी।” दो यमदूतों ने जबर्दस्ती वह सारा मद्य दिवोदास के पेट में उड़ेल दिया। भय से अभिभूत हो मंजु ने भी मद्य पी ली। तब उन यमदूतों ने उन दोनों को बलियूथ से कसकर बाँध दिया। फिर बड़बड़ाकर मन्त्र पाठ करने लगे।
मंजू ने लड़खड़ाती वाणी से कहा—”प्यारे, मेरे कारण तुम्हें यह दिन देखना पड़ा।”
“प्यारी, इस प्रकार मरने में मुझे कोई दु:ख नहीं।”
“परन्तु स्वामी, हम फिर मिलेंगे।”
“जन्म-जन्म में हम मिलेंगे, प्रिये-प्राणाधिके।”
इसी समय कापालिक ने आकर कहा—”प्राणियो, आज तुम्हारा अहोभाग्य है, तुम्हारा शरीर देवार्पण होता है।” उसने रक्त से भरा पात्र उठाकर थोड़ा रक्त उनके मस्तक पर छिड़का फिर उनके माथे पर रक्त का टीका लगाया। एक दैत्य ने झटका देकर उनकी गर्दनें झुकायीं। उन पर कापालिक ने स्वस्ति का चिह्न बना दिया। उसके बाद उन दैत्यों ने सिन्दूर से वध्य-भूमि पर भैवरी-चक्र की रचना की। एक दैत्य भारी खांडा ले दिवोदास के पीछे जा खड़ा हुआ।
मंजु ने साहस करके चिल्लाकर कहा—”अरे पातकियो, पहिले मेरा वध करो, मैं अपनी आँखों से पति का कटा सिर नहीं देख सकती।”
कालापिक ने एक बड़ा-सा मद्य पात्र मुँह से लगाया और गटागट पी गया। फिर उसने गरजकर वार करने की आज्ञा दी।
परन्तु इसी क्षण एक चमत्कार हुआ। ब्रह्मराक्षस का खांडा हवा में लहराता ही रहा, और उसका सिर कटकर पृथ्वी पर आ गिरा।
कापालिक क्रोध और भय से थरथरा उठा। उसने कहा—”अरे, किसने महामाया की पूजा भंग की?”
सुखदास ने रक्त-भरा खड्ग हवा में नचाते हुए कहा—”मैंने, रे पातकी! अभी तेरा धड़ भी शरीर से जुदा करता हूँ।”
इसी बीच वृद्ध ग्वाले ने दिवोदास और मंजु के बन्धन खोल दिए। मुक्त होते ही दिवोदास ने झपटकर खांडा उठा लिया। उसने कापालिक पर तूफानी आक्रमण किया। परन्तु कापालिक में बड़ा बल था। उसने खांडे सहित दिवोदास को उठाकर दूर पटक दिया। इसी समय सुखदास का खड्ग उसकी गर्दन पर पड़ा। और वह वहीं लड़खड़ाकर गिर गया। वृद्ध ने भी एक यमदूत को भूमिशायी किया। शेष दो प्राण लेकर भाग गए। दिवोदास घाव खा गये थे। सुखदास ने हाथ का सहारा दे दिवोदास को उठाया। और बोला—”साहस करो भैया, यहाँ से भाग चलो।”
दिवोदास ने कन्धे पर मंजु को लाद लिया। दोनों व्यक्ति नंगी तलवार लिये साथ चले। वर्षा अब बन्द हो गई थी। आकाश स्वच्छ हो गया था। वे बराबर उत्तराभिमुख होते जा रहे थे। मद्य के प्रभाव से मंजु मूर्च्छित हो गई थी। दिवोदास के भी पाँव लड़खड़ा रहे थे। परन्तु वह साथियों के साथ भागा जा रहा था। मंजु उसकी पीठ से खिसकी पड़ती थी। सुखदास उन्हें सहारा दे रहा था। इसी समय एक और से दल अश्वारोही सैनिकों ने उन्हें घेरकर बन्दी बना लिया। सारा उद्योग विफल गया। बेचारे को बाँधकर ले चले। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये सिद्धेश्वर के सैनिक थे।
24. बन्दी गृह में
चारों अपराधियों का विचार हो रहा था। उच्च स्वर्ण-पीठ पर आचार्य वज्रसिद्धि, सिद्धेश्वर और काशिराज उपस्थित थे। सम्मुख चारों अपराधी रस्सियों से बँधे खड़े थे। पीछे तलवार लिए सैनिक खड़े थे। दर्शकों की बड़ी भारी भीड़ एकत्र थी।
मंजुघोषा ने करुण स्वर में चिल्लाकर कहा :
“आर्यपुत्र, इनसे कह दो कि हम धर्मतः पति-पत्नी हैं। हमने देवता की साक्षी में विवाह किया है।”
“प्रिये, अधीर मत हो। देखो तो ये भण्ड पाखण्डी क्या निर्णय करते हैं।”
काशिराज ने कहा “भिक्षु, तुम क्या कहना चाहते हो।”
“महाराज, यह मेरी विवाहिता पत्नी है और मैं श्रेष्ठि धनंजय का पुत्र दिवोदास हूँ। मेरी यह पत्नी लिच्छवि राजनन्दिनि मंजुघोषा है।”
वज्रसिद्धि ने कहा—”शातं पापं, तूने मुझसे प्रव्रज्या ली है, तू ऐसा कहकर भिक्षु धर्म से च्युत होता है।”
मंजु ने कहा—”प्रियतम, इनसे कह दो कि मैं तुम्हारे भावी पुत्र की माता हूँ, जो मेरे उदर में पोषण पा रहा है।”
सिद्धेश्वर-तू देवार्पित देवादासी है। क्या तूने ऐसा पातक किया है? इससे तो देवाधिष्ठान ही कलंकित हो गया।
मंजु-कलंकित किया मैंने या तुम जैसे धर्म ढोंगियों ने, जो जंगली पशु की भाँति खून के प्यासे हैं। तुम गाय की खाल ओढ़कर धर्म के ठेकेदार बने बैठे हो। धर्म की आड़ में आखेट करने वाले पेशेवर अपराधी हो, क्या सब खोलकर कह दूँ?
सिद्धेश्वर––महाराज, ये धर्मापराधी हैं। इनका विचार धर्मानुमोदित होना चाहिए, राजनियमानुसार नहीं। आप इसमें विक्षेप मत कीजिए, मैं इस दासी का प्रायश्चित्त विधान करूँगा।
फिर उसने सैनिकों से कहा—”अरे सैनिको, इस दासी को अभी ले जाओ, मैं इसके पाप के प्रायश्चित्त की समुचित व्यवस्था करूँगा।”
दिवोदास ने क्रोध से पैर पटककर कहा—”कदापि नहीं महाराज, मैं आपको सावधान करता हूँ कि लिच्छविराज नन्दिनी का यदि बाल भी बाँका हो गया तो आपके राज्य का खण्ड-खण्ड हो जायेगा।”
काशिराज-युवक, तुम बड़े उद्धत्त प्रतीत होते हो, काशीराज की मर्यादा को यदि तुम नहीं जानते तो चुप रहो।
फिर उन्होंने वज्रसिद्धि की ओर दृष्टि करके कहा—”आचार्य, आपके भिक्षु ऐसा ही विनय सीखते हैं?”
वज्रसिद्धि ने कहा—”महाराज, मैं उसका धर्मानुशासन करूँगा, अरे भिक्षुओ! उस उन्मत्त भिक्षु को ले जाओ।”
फिर उसने काशिराज से कहा—”महाराज, अब आप यज्ञ सम्पूर्ण कीजिए। कामना करता हूँ कि उसमें बाधा न उपस्थित हो।”
दिवोदास को भिक्षुगण बाँधकर एक ओर तथा मंजु को सैनिक दूसरी ओर ले चले।
मंजु ने कहा—”प्राणनाथ, नदी तीर की वह प्रतिज्ञा याद रखना।”
दिवोदास ने कहा—”उसे जीते जी नहीं भूलूँगा।”
“तुम्हें आना होगा, कहो आओगे?”
“आऊँगा प्रिये, आऊँगा।”
“तो मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगी।”
“मैं प्राणों पर खेलकर भी आऊँगा।”
दोनों को दो भिन्न-भिन्न दिशाओं में खींचकर ले जाया गया। सुखदास और वृद्ध ग्वाला रह गए। सुखदास ने कहा—”मैं भी भिक्षु हूँ, मेरा धर्मानुशासन आचार्य करेंगे।”
आचार्य ने कहा—”इन दोनों अपराधियों को भी महाराज मेरे ही सुपुर्द कर दें।”
काशिराज ने स्वीकार किया। आचार्य उठकर चल दिए। आवास पर आने पर सुखानन्द ने कहा—”मैं एक आवश्यक निवेदन एकान्त में करना चाहता हूँ।”
आचार्य ने एकान्त में ले जाकर कहा—”क्या करना चाहते हो तुम?”
“आचार्य, मैं निरपराध हूँ, और यह वृद्ध भी।”
“तू निरपराध कैसे है?”
“आचार्य के विरुद्ध सिद्धेश्वर महाराज ने जो षड्यन्त्र रचा था-मैं उसी की छानबीन कर रहा था, आचार्य? मुझे अपना कार्य करने दीजिए।”
“कौन-सा कार्य।”
“आचार्य उस देवदासी को यहाँ से ले जाना चाहते हैं न!”
“चाहता तो हूँ।”
“पर सिद्धेश्वर की उस पर कुदृष्टि है।”
“यह मैं देख चुका हूँ।”
“परन्तु मैं उसे यहाँ से उड़ा ले चलूँगा।”
“किस प्रकार?”
“यह मुझ पर छोड़ दीजिए आचार्य।”
“किन्तु धर्मानुज जो है।”
“वह तो आपके अधीन है आचार्य, वह कर क्या सकता है!”
“और यह बूढ़ा मूर्ख कौन है?”
“एक गँवार है आचार्य, लोभ-लालच देकर अपनी सहायता के लिए रख लिया है।”
“तो तुम दोनों को मुक्त करता हूँ, कार्य करो।”
“किन्तु आचार्य, केवल मुक्ति ही नहीं। स्वर्ण भी चाहिए।”
“स्वर्ण भी ले भद्र, पर उस दासी को निकाल ले चल।”
“यह कौन-सी बड़ी बात है। कह दूँगा, मैं उस भिक्षु का सन्देशवाहक हूँ, उसी ने तुझे बुलाया है। हँसती-खेलती चली आएगी। उसने मुझे उसके साथ देखा भी है।”
“इसके बाद?”
“इसके बाद जैसा आचार्य चाहें।”
“तो भद्र, तू चेष्टा कर।”
“आचार्य, मुझे इस मूर्ख धर्मानुज से भी मिलते रहने की अनुमति दी जाय।”
“किसलिए?”
“उसे बहका-फुसलाकर एक पत्र उस दासी के नाम लिखा सकूँ तो कार्य जल्द सिद्ध होगा।”
“तो तुझे स्वतन्त्रता है।”
“आचार्य, फिर तो काम सिद्ध हुआ रखा है।” वह सिर हिलाता हुआ वृद्ध चरवाहे के साथ एक ओर को रवाना हो गया।
25. प्रसव
कई मास तक काशिराज का यज्ञानुष्ठान चलता रहा। इस बीच मंजु और देवी सुनयना अन्धकूप में पड़ी रहीं। उन्हें बाहर निकालने का सुयोग सुखदास को नहीं मिला। परन्तु ज्यों ही यज्ञ समाप्त हुआ तथा आचार्य वज्रसिद्धि काशी से विदा हुए, सुखदास की युक्ति और उद्योग से मंजु और देवी सुनयना अन्धकूप से मुक्त होकर भाग निकलीं। परन्तु इस विपत्ति एक दूसरी विपत्ति आ खड़ी हुई। मंजु को प्रसव वेदना होने लगी। देवी सुनयना ने सुखदास से कहा—”अब तो कहीं आश्रय खोजना होगा। चलना सम्भव ही नहीं है।” निरुपाय मंजु को एक वृक्ष के नीचे आश्रय दे सुखदास और वृद्ध चरवाहा दोनों ही आहार और आश्रय की खोज में निकले।
परन्तु इस बीच ही में मंजु शिशु-प्रसव करके मूर्च्छित हो गई। यह दशा देख देवी सुनयना घबरा गईं। उन्होंने साहस करके शिशु की परिचर्या की तथा मंजु की जो भी सम्भव सुश्रूषा हो सकती थी, करने लगी। मंजु की दशा बहुत खराब हो रही थी। थकान, भूख और शोक से वह पले ही जर्जर हो चुकी थी, अब इतना रक्त निकल जाने से उसके मुँह पर जीवन का चिह्न ही न रहा। सुनयना यह देख डर गई। उसने यत्न से उसकी मूर्छा दूर की। होश में आकर मंजु एकटक माँ का मुँह देखने लगी। फिर बोली—”माँ, अब उनके दर्शन तो न हो सकेंगे?”
“क्यों नहीं बेटी!”
“उन्होंने कहा था—’जब पुत्र का जन्म होगा, मैं आऊँगा।'”
कुछ रुककर पुनः बोली—”पर उनके आने के पहले तो हमीं वहाँ चल रहे हैं।”
“नहीं जानती माँ, मैं कहाँ जा रही हूँ, किन्तु मेरा एक अनुरोध रखो माँ।”
“कह बेटी।”
“यदि मेरी मृत्यु हो जाय, और वे न आयें तो, जैसे बने, बच्चे को उनके पास अवश्य पहुँचा देना। और यह सन्देश भी कि तुम्हारे आने की आशा में मंजु अब तक जीवित रही। तुम्हारे निराश प्रेम का फल तुम्हारे लिए छोड़ गई।”
“बेटी, इतना धीरज न छोड़ो।”
“माँ! कदाचित् यह अस्तगत सूर्य की स्वर्ण-किरण मेरी मुक्ति का सन्देश लाई है।”
“अरी बेटी, ऐसी अशुभ बात मत कहो, तुम फलो-फूलो। और मैं इन आँखों से तुम्हें देखूँ। इसलिए न मैंने अब तक अपने जीवन का भार ढोया है।”
“माँ, मैं बहुत जी चुकी, बहुत फली-फूली, और मैंने संसार को अच्छी तरह देखभाल लिया। मेरा जीवन उस फूल की भाँति रहा, जो सूर्य की किरणों को छूकर खिल उठा, और उसी के तेज में झुलसकर सूख गया।”
सुनयना रोने लगी।
मंजु ने कहा—”माँ, दुखी न हो, इस फूल की पंखुड़ियाँ झर जायेंगी, और झंझा वायु उन्हें उड़ाकर कहाँ की कहाँ ले जाएगी। आह! सूर्य आज भी अस्त हो गया। वे न आए, न आए। अन्धकार बढ़ा चला आ रहा है। यह जैसे मेरे जीवन पर पर्दा डाल देगा। कदाचित् मेरे जीवन-दीपक के बुझने का समय आ गया।” वह मूर्च्छित होकर निर्बल हो गई। सुनयना ने घबरा कर कहा—”मंजु, आँखें खोलो बेटी, इस फूल से सुकुमार बच्चे को देखो।”
मंजु ने आँखें खोलकर टूटे-फूटे स्वर में कहा—”नहीं आए, इस अपने नन्हे को देखने भी नहीं आये! आह! कैसा प्यारा है नन्हा, आनन्द की स्थायी मूर्ति, माँ उसे मेरे और पास लाओ।”
“वह तो तुम्हारे पास ही है बेटी।”
“और पास, और पास, और, और…” वह बेसुध हो गई। फिर उसने आँख खोलकर बच्चे को देखकर कहा—”वैसी ही आँखें हैं, वैसे ही होंठ,” उसने बच्चे का मुँह चूम लिया, और हृदय से लगा लिया।
इसके बाद ही उसकी आँखें पथरा गई। और चेहरा सफेद हो गया। श्वास की गति भी रुक गई। सुनयना देवी धाड़ मारकर रो उठीं। उन्होंने कहा—”आह, मेरी बेटी, तू तो बीच मार्ग में ही चली-मेरी सारी तपस्या विफल हो गई।”
परन्तु देवी सुनयना को इस विपत्काल में रोकर जी हलका करने का अवसर भी न मिला। उन्हें निकट ही अश्वारोहियों के आने का शब्द सुनाई दिया। अब वे क्या करें? उनका ध्यान बच्चे पर गया। उसे उठाकर उन्होंने अपनी छाती से लगा लिया। एक बार उन्होंने मंजु के निमीलित नेत्रों की ओर देखा। घोड़ों की पदध्वनि निकट आ रही थी।
उन्हें मंजु का अनुरोध याद आया और हृदय में साहस कर उन्होंने अपना संकल्प स्थिर किया।
उन्होंने कहा—”विदा बेटी तुझे मैं माता वसुन्धरा को सौंपती हूँ, और तेरा अनुरोध पालन करने जा रही हूँ।” उन्होंने वस्त्र से मंजु का मुँह ढाँप दिया और बालक को छाती से लगाकर एक ओर चलकर अन्धकार में विलीन हो गई।
26. दुस्सह सम्वाद
दिवोदास को संघाराम के गुप्त बन्दी गृह में लाकर रक्खा गया। उस बन्दीगृह में ऊपर छत के पास केवल एक छेद था, जिसके द्वारा भोजन और जल बन्दी को पहुँचा दिया जाता था। उसी छेद द्वारा चन्द्रमा की उज्ज्वल किरणें बन्दीगृह में आ रही थीं। उसी को देखकर दिवोदास कह रहा था—”आह, कैसी प्यारी है यह चन्द्रकिरण, प्यारी की मुस्कान की भाँति उज्ज्वल और शीतल?”
उसने पृथ्वी पर झुककर वह स्थल चूम लिया—”बाहर चाँदनी छिटक रही होगी। रात दूध में नहा रही होगी। परन्तु मेरा हृदय इस बन्दीगृह के समान अन्धकार से परिपूर्ण है।”
वह दोनों हाथों से सिर थामकर बैठ गया। इसी समय एक खटका सुनकर वह चौंक उठा। बन्दीगृह का द्वार खोलकर पहरेदार ने आकर कहा—”यह स्त्री तुमसे मिलना चाहती है, परन्तु जल्दी करना। भन्ते, मैं अधिक प्रतीक्षा नहीं करूँगा।”
काले वस्त्रों में आवेष्टित एक स्त्री उसके पीछे थी, उसे भीतर करके प्रहरी ने बन्दीगृह का द्वार बन्द कर लिया।
दिवोदास ने कहा—”कौन है?”
“यह अभागिनी सुनयना है।”
“माँ, तुम आई हो?”
“बड़ी कठिनाई से आ पाई हूँ दिवोदास, तुम न आ सके न!”
“न आ सका, किन्तु मेरा पुत्र?”
“पुत्र प्रसव हुआ, किन्तु तुम झूठे हुए बेटे।”
“हाँ माँ, मंजु से कहो, वह मुझे दण्ड दे।”
“उसने दण्ड दे दिया, बच्चे।”
“तो माँ, मैं हँसकर सह लूँगा, कहो क्या दण्ड दिया है?”
“सह न सकोगे।”
“ऐसा दण्ड है?”
“हाँ पुत्र।”
“नहीं, ऐसा हो नहीं सकता, मंजु मुझे दण्ड दे और मैं सह न सकूँ? सहकर हँस न सकूँ तो मेरे प्यार पर भारी कलंक होगा माँ।”
“कैसे कहूँ?”
“कहो माँ?”
“सुन न सकोगे।”
“कहो-कहो।”
“उसने अपने प्राण दे दिए।”
“प्राण दे दिए?” दिवोदास ने पागल की भाँति चीत्कार किया।
“हाँ, पुत्र, हम बन्दीगृह से मुक्त होकर भागे जा रहे थे। मार्ग ही में उसने एक वृक्ष के नीचे पुत्र को जन्म दिया, और फिर मुझसे एक अनुरोध करके वह विदा हुई।”
“क्या अनुरोध था माँ।”
“यही, कि यदि मेरी मृत्यु हो जाय तो मेरे पुत्र को उन तक पहुँचा देना।”
“तो मेरा पुत्र?”
“वह मैंने खो दिया।”
“खो दिया?”
“राह में मैं भूख और प्यास से जर्जर हो सो गई। जब आँख खुली तो शिशु न था, कौन जाने उसे कोई वनपशु उठा ले गया था…” सुनयना आगे कुछ न कहकर फूट-फूटकर रो उठी।
“मेरे पुत्र को तुमने खो दिया माँ, और उसने प्राण दे दिए!! खूब हुआ।” दिवोदास अट्टहास करके हँसने लगा। “हा, हा, हा, प्राण दे दिए, खो दिया।” उसने फिर अट्टहास किया और काष्ठ के कुन्दे की भाँति अचेत होकर भूमि पर गिर गया।
इसी समय प्रहरी ने भीतर आकर कहा—”बस, अब समय हो गया। बाहर आओ।” देवी सुनयना संज्ञाहीन-सी बाहर आईं और एक वृक्ष के नीचे भूमि पर पड़ गई।
27. प्रेमोन्माद
दिवोदास पागल हो गया है। यह सन्देश पाकर आचार्य ने उसे बन्दी गृह से मुक्त कर दिया। अब वह निरीह भाव से संघाराम में घूमने लगा। कोई उससे घृणा करता, कोई उस पर दया करता। उसके वस्त्र और शरीर गन्दे और मलिन हो गए थे। दाढ़ी बढ़कर उलझ गई थी। भिक्षु उसकी खिल्ली उड़ाते थे। कुछ उसे चिढ़ा देते थे। परन्तु दिवोदास इन सब बातों पर ध्यान ही नहीं देता था। वह जैसे किसी अतीत काल में जीवित रह रहा था।
दिवोदास अति उदास, गहरी चिन्ता में पागल जैसा एक शिलाखण्ड पर बैठा था। वह कभी हँसता, कभी गुनगुनाता था। उसके हाथ में एक गेरू का टुकड़ा था, उससे वह जल्दी-जल्दी मंजुघोषा का चेहरा बना रहा था, चेहरा बनाकर हँसता था, उसे प्यार करता था, उससे बातें करता था, एक वृक्ष को लक्ष्य करके उन्मत्त भाव से देखता था। वहाँ उस वृक्ष में उसे मंजुघोषा दृष्टि पड़ रही थी।
दिवोदास-हाथ फैलाकर दीन भाव से बोल उठा—”आओ देखो, प्यारी, आओ, मुझे क्षमा करो, मैं नहीं आ सका।” उसने देखा-मूर्ति मुस्कराने लगी। उसके होंठ हिलने लगे और दो बूँद आँसू उसकी आँखों से टपक पड़े। उसने उँगली उठाकर कहा—”झूठे।” पागल दिवोदास उससे लिपटने को दौड़ा और टकराकर गिर पड़ा। मूर्ति गायब हो गई। उसने उठकर कहा—”आह! झूठा, झूठा, सचमुच मैं झूठा हूँ।” उसने सामने एक शिलाखण्ड की ओर देखा। वहाँ मंजु बैठी मुस्करा रही थी। वह दौड़ा, मूर्ति उसी भाव से वही शब्द कहती हुई गायब हो गई। दिवोदास पत्थर से टकराकर फिर गिर पड़ा। फिर उठकर ‘मंजु-मंजु’ चिल्लाने लगा। जिस वस्तु पर उसकी नजर जाती, वहीं उसे मंजु की मूर्ति वही संकेत करके, वही शब्द कहकर गायब हो जाती। वह पागल की तरह दौड़ता और टक्करें खाकर गिरकर घायल हो जाता। वह क्षत-विक्षत और जर्जर हो गया। उसी समय आचार्य वज्रसिद्धि उसके निकट आए।
वज्रसिद्धि कुछ देर उसकी दुर्दशा देख बोले—”पुत्र, यह तुम क्या कर रहे हो?”
दिवोदास ने आँखें फाड़कर बड़ी देर तक वज्रसिद्धि को देखा और वज्रसिद्धि के
निकट आकर कहा-“प्रिय मंजु, क्या तुमने मुझे क्षमा कर दिया!” और वह वज्रसिद्धि से लिपट गया।
वज्रसिद्धि ने उसे पीछे धकेलकर कहा—”भिक्षु, सावधान! देखो, मैं संघस्थविर आचार्य वज्रसिद्धि हूँ।”
दिवोदास आचार्य को देखकर, काँपता हुआ हटकर खड़ा हो गया और कहा—”आचार्य वज्रसिद्धि क्या तुम मंजु का सन्देश लाए हो? क्या वह आ रही है?”
“भिक्षु, तुम पागल हो गए हो।”
“पागल, प्रेम का पागल, मैं पागल हो गया हूँ!”
(कठोर वाणी से) “मेरे साथ आओ।”
“क्या तुम मुझे मंजु के पास ले जा रहे हो?”
“आओ।”
वज्रसिद्धि ने उसे अपने पीछे आने का संकेत किया। और चल दिया। दिवोदास भी पीछे-पीछे चल दिया। वह वज्रतारा के मन्दिर में जा पहुँचे।
वज्रसिद्धि ने वज्रतारा की प्रतिमा के आगे पहुँच, दिवोदास की ओर कड़ी दृष्टि से देखा और कहा—”भिक्षु, वज्रतारा को प्रणाम करो।”
दिवोदास ने प्रतिमा में भी मंजु की वही मूर्ति देखी और कहा—”प्यारी, तुम आ गई? आओ। मैं नहीं आ सका। इससे क्या तुम नाराज हो?” वह दौड़कर मूर्ति से लिपट गया।
“सुनो! सुनो!!”
“सब सुन रहा हूँ। वह कुछ कह रही है। वह कुछ कहना चाहती है।” वह ध्यान से फिर प्रतिमा को देखने लगा। उसे प्रतीत हुआ, मंजु कुछ संकेत कर रही है, दिवोदास ने उधर हाथ फैला दिए।
वज्रसिद्धि ने दिवोदास को झकझोरकर कहा—”सुनो, तुम्हें वज्रतारा की मूर्ति बनानी होगी। हमें मालूम हुआ है, तुम कुशल चित्रकार हो गए हो।”
दिवोदास ने भाव निमग्न-सा होकर कहा—”मैं अभी प्यारी की मूर्ति बनाता हूँ।”
उसने झट क्षण-भर में गेरू से दीवार पर मंजु की ठीक सूरत बना दी। और फिर रो रोकर कहने लगा—”क्षमा करो, मंजु, प्रिये, क्षमा करो।”
वज्रसिद्धि ने क्रुद्ध होकर कहा—”तुम्हें वज्रतारा की मूर्ति बनानी होगी। इसके लिए दो मास तक तुम्हें एकान्त में रहना होगा।”
उन्होंने एक भिक्षु से कहा—”गोपेश्वर, तुम इसको सब व्यवस्था समझाकर, सब प्रबन्ध कर दो।” इतना कह आचार्य चले गए।
28. प्रतिमा
दिवोदास की छेनी खटाखट चल रही थी। भूख-प्यास और शीत-ताप उसे नहीं व्याप रहा था। अपने शरीर की उसे सुध नहीं थी। वह निरन्तर अपना काम कर रहा था। छेनी पर हथौड़े की चोटें पड़ रही थीं, और शिलाखण्ड में से मंजु की मूर्ति विकसित होती जा रही थी। वह सर्वथा एकान्त स्थल था। वहाँ किसी को भी आने की अनुमति न थी। वह कभी गाता, कभी गुनगुनाता, कभी हँसता और कभी रोता था। कभी करुण स्वर में क्षमा माँगता, कभी मूर्ति से लिपट जाता। उसकी तन्मयता, तन्मयता की सीमा को पार कर गई थी। जैसे वह मूर्ति में मूर्तिमय हो चुका हो।
मूर्ति बनकर तैयार हो गई। दिवोदास के शरीर में केवल हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गया था। उसके दाढ़ी और सिर के बालों ने उलझकर उसकी सूरत भूत के समान बना डाली थी। परन्तु उस एकान्त अनुष्ठान में कोई उसके पास नहीं आ पाता था।
वह बड़ी देर तक मूर्ति के मुख को एकटक देखता रहा। वह मुँह हूबहू मंजु का मुँह था।
उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि वह मुँह मुस्करा रहा है। उसे उसके ओठ हिलते दीख पड़े। उसने जैसे सुना कि उन ओठों में से एक शब्द बाहर हुआ, ‘झूठे’। उसकी आँखों में आँसू भर आए। उसने मूर्ति के पैरों में गिरकर कहा—”मुझे क्षमा करो मंजु, मैं नहीं आ सका।” पर तुमने मेरा पुत्र भी तो खो दिया, दिवोदास कोप कर धरती पर गिर पड़ा। और अन्त में द्वार तोड़ चिल्लाता हुआ गहन वन में भाग गया!
वज्रतारा पूजा महोत्सव पर्व था। सहस्रों भिक्षु एकत्रित थे। संघाराम विविध भाँति सजाया गया था। दूर-दूर से श्रद्धालु श्रावक, गृहस्थ और श्रेष्ठिजन आए थे। बीच प्रांगण में स्वर्ण-मण्डित रथ था। उस पर वस्त्र में आवेष्टित वज्रतारा की मूर्ति थी। आचार्य वज्रसिद्धि बड़े व्यस्त थे। उन्होंने व्यग्रभाव से कहा—”क्या अभी तक धर्मानुज का कोई पता नहीं लगा?”
“नहीं आचार्य, चारों ओर गुप्तचर उसे खोजने गए हैं।”
“परन्तु पूजन तो नियमानुसार वही कर सकता है जिसने मूर्ति बनाई है-अतः उसका अनुसन्धान करो। मुहूर्त में अब देर नहीं है।” आज्ञा होने पर और भी चर भेज दिए गए।
दिवोदास अति दयनीय अवस्था में भूख-प्यास से व्याकुल, अर्धमृत-सा हो एक शिलाखण्ड पर अचेत पड़ा था। उसी समय चरों ने वहाँ पहुँचकर उसे देखा। उसे चेत में लाने की बहुत चेष्टा की, परन्तु उसकी मूर्छा भंग न हुई। निरुपाय हो चर उसे पीठ पर लादकर संघाराम में ले आए। संघाराम के चिकित्सकों ने उसका उपचार किया। उपचार से तथा थोड़ा दूध पीने से वह कुछ चैतन्य हुआ। परन्तु उसकी संज्ञा नहीं लौटी।
बाहर बहुत कोलाहल हो रहा था। सहस्रों भिक्षु और भावुक भक्त चिल्ला रहे थे। डफ-मृदंग-मीरज बज रहे थे। सारा प्रांगण मनुष्यों से भरा था। महाराज श्री गोविन्द पालदेव आ चुके थे। उन्होंने अधीर होकर कहा—”आचार्य, अब पूजन-अनुष्ठान प्रारम्भ हो।”
आचार्य ने चिन्तित स्वर में कहा—”भिक्षु धर्मानुज को यहाँ लाओ। वह विधिवत् पूजन करे।”
कुछ भिक्षु उसे पकड़कर ले आए। वह गिरता-पड़ता आकर मूर्ति के सम्मुख खड़ा होकर हँसने लगा। इसी समय मूर्ति का आवरण उठाया गया। मूर्ति के मुख पर दिवोदास ने दृष्टि डाली। उसे प्रतीत हुआ जैसे मूर्ति मुस्करा रही है। उसने फिर देखा, मूर्ति ने दो उँगली ऊपर उठा कर कहा-“झूठे।” उसने स्वयं वह शब्द सुना, स्पष्टतया। उसने मूर्ति के ओठों को हिलते देखा। यह देखते ही दिवोदास मूर्च्छित होकर मूर्ति के चरणों में गिर गया। अनुष्ठान खण्डित हो गया। आचार्य वज्रसिद्धि असंयत होकर उठ खड़े हुए। सहस्र-सहस्र भिक्षु—’नमो अरिहन्ताय नमो बुद्धाय’ चिल्ला उठे। आचार्य ने उच्च स्वर से कहा—”इस विक्षिप्त भिक्षु को भीतर ले जाओ। मैं स्वयं अनुष्ठान सम्पूर्ण करूँगा।”
परन्तु इसी समय मेघ गर्जन के समान एक आवाज आई—”ठहरो।”
सहस्रों ने देखा। एक भव्य प्रशान्त मूर्ति धीर स्थिर गति से चली आ रही है। उसके पीछे सुनयना वस्त्र में कुछ लपेटे हुए आयी हैं। उनके पीछे सुखदास और वही वृद्ध ग्वाला है। लोगों ने देखा, उसी सौम्य मूर्ति के साथ महाश्रेष्ठि धनंजय भी हैं।
सौम्य मूर्ति सबके देखते-देखते वेदी पर चढ़ गई। उसने प्रतिमा के सिर पर हाथ रखा। हाथ रखते ही प्रतिमा सजीव हो गई। वह हिलने लगी। प्रतिमा में सजीवता के लक्षण देख सहस्रों कण्ठ ‘भगवती वज्रतारा की जय’ चिल्ला उठे। प्रतिमा ने हाथ उठाकर सबको शान्त और चुप रहने का संकेत किया।
क्षण-भर ही में सन्नाटा छा गया। मूर्ति ने वीणा की झंकार के समान मोहक स्वर में कहा—”मूढ़ भिक्षुओ, तुम जानते हो कि धर्म क्या है?”
सहस्रों कण्ठों ने विस्मित होकर कहा—”माता, आप हमें धर्म की दीक्षा दीजिए।”
मूर्ति ने कहा—”मनुष्य के प्रति मनुष्यता का व्यवहार करना सबसे बड़ा धर्म है, संसार को संसार समझना धर्म का मार्ग है।”
सहस्रों कण्ठों से निकला—”मातेश्वरी वज्रतारा की जय हो।”
मूर्ति ने फिर वज्रसिद्धि की ओर उँगली से संकेत करके कहा—”यह धर्मढोंगी पुरुष, लाखों मनुष्यों को धर्म से दूर किए जा रहा है। मैं इस पाखण्डी का वध करूँगी।” मूर्ति ने सहसा खड्ग ऊँचा किया। जनपद स्तब्ध रह गया। भिक्षु गण चिल्ला उठे-
“रक्षा करो, देवि, रक्षा करो।”
वज्रसिद्धि अब तक विमूढ़ बना खड़ा था। अब उसने मूर्ति के रूप में मंजु को पहचानकर कहा—”यह देवी वज्रतारा नहीं है। यह पापिष्ठा धूत पापेश्वर के मन्दिर की अधम देवदासी मंजुघोषा है, इसे बाँध लो।”
मंजु ने कहा—”वही हूँ, और तुमसे पूछती हूँ, कि तुम मनुष्य को मनुष्य की भाँति क्यों नहीं रहने देना चाहते?”
वज्रसिद्धि ने फिर गरज कर कहा—”बाँधो, इस पापिष्ठा को।”
जनता में कोलाहल उठ खड़ा हुआ। सहस्रों भिक्षु रथ पर टूट पड़े।
अब उस भव्य सौम्य पुरुष-मूर्ति ने हाथ उठाकर कहा—”सब कोई जहाँ हो-वहीं शान्त खड़े रहो।”
इस बार फिर सन्नाटा हो गया। उसी भव्य मूर्ति ने उच्च स्वर से पुनः कहा—”मैं ज्ञानश्री मित्र हूँ। तुम्हें शान्त रहने को कहता हूँ।”
आचार्य ज्ञानश्री मित्र का नाम सुनते ही-सहस्र-सहस्र सिर पृथ्वी पर झुक गये। महाराज गोविन्दपाल देव ने उठकर साष्टांग दण्डवत् किया। लोग आश्चर्य विमुग्ध उस महापुरुष को देखने लगे जिसका दर्शन पाना दुर्लभ था तथा जो त्रिकालदर्शी प्रसिद्ध था।
आचार्य ने देवी सुनयना को संकेत किया। उन्होंने वस्त्र में आवेष्टित बालक को मंजु की गोद में दे दिया। मंजु ने खड्ग रखकर बालक को छाती से लगाकर कहा—”यह मेरा पुत्र है, जिसे वे अभागे धर्म-पाखण्डी पाप का फल कहते हैं, जिनके अपने पाप ही अगणित हैं।”
भिक्षुओं में फिर क्षोभ उठ खड़ा हुआ।
आचार्य ज्ञान ने मेघ गर्जन के स्वर में कहा—”भिक्षुओ, शान्त रहो।” फिर उन्होंने दिवोदास के मस्तक पर हाथ रखकर कहा—”उठो श्रेष्ठि पुत्र।”
दिवोदास जैसे गहरी नींद से जग गया हो। उसने इधर-उधर आश्चर्य से देखा-फिर पुत्र को गोद में लिए मंजु को सम्मुख मुस्कराती खड़ी देखकर बारम्बार आँख मलकर कहा—”यह मैं क्या देख रहा हूँ-स्वप्न है या सत्य।”
“सब सत्य है, प्राणाधिक, यह तुम्हारा पुत्र है, इसका चन्द्रमुख देखो।”
दिवोदास का लुप्त ज्ञान पीछे लौट रहा था-उसने भुन-भुनाकर कहा—”कैसी मीठी भाषा है, कैसे ठण्डे शब्द हैं, अहा, कैसा सुख मिला, जैसे कलेजे में ठण्डक पड़ गई।”
मंजु ने कहा—”प्यारे, प्राणेश्वर, इधर देखो।”
उसने दिवोदास का हाथ पकड़ लिया। दिवोदास का उस स्पर्श से चैतन्य हो जाग उठा-उसने कहा—”क्या, क्या, तुम हो-सचमुच? तो यह स्वप्न नहीं है?” वह फिर आँखें मलने लगा।
मंजु ने कहा—”स्वामिन्, आर्य पुत्र, यह तुम्हारा पुत्र है, लो।”
“मेरा पुत्र?” उसने दोनों हाथ फैला दिए। पुत्र को लेकर उसने छाती से लगा लिया।
वज्रसिद्धि ने एक बार फिर अपना प्रभाव प्रकट करना चाहा। उसने ललकारकर कहा—”भिक्षुओ, इन धर्म-विद्रोहियों को बाँध लो।”
भिक्षुओं ने एक बार फिर शोर मचाया। वे रथ पर टूट पड़े। दिवोदास ने रोकना चाहा-परन्तु वह धक्का खाकर गिर गया।
सहसा महाराज गोविन्दपाल देव ने खड़े होकर कहा—“जो जहाँ है, वहीं खड़ा रहे।”
महाराज की घोषणा सुनते ही एक बार स्तब्धता छा गई। महाराज ने सेनापति को आज्ञा दी—”सेनापति, इन उन्मत्त भिक्षुओं को घेर लो।”
क्षण-भर ही में सेना ने समस्त भिक्षु मण्डली को तलवारों की छाया में ले लिया। आतंकित होकर भिक्षु मन्त्रपाठ भूल गए। जनता भयभीत हो भागने की जुगत सोचने लगी।
वज्रसिद्धि ने क्रुद्ध होकर कहा—”महाराज, यह आप अधर्म कर रहे है।”
महाराज ने कहा—”मैं यह जानना चाहता हूँ आचार्य, यह कैसा धर्म-कार्य हो रहा है?”
“देव, आप धर्म व्यवस्था में बाधा मत डालिए।”
“परन्तु मैं पूछता हूँ कि यह कैसी धर्म व्यवस्था है!”
“आप अपने गुरु का अपमान कर रहे हैं।”
“मेरी बात का उत्तर दें आचार्य, क्या आपने काशिराज से मिलकर मेरे विरुद्ध षड्यन्त्र नहीं किया? श्रेष्ठिराज धनंजय के धन को हड़पने के लिए उनके पुत्र को अनिच्छा से भिक्षु बनाकर उसे गुप्त यन्त्रणाएँ नहीं दी हैं? क्या आप लिच्छविराज के गुप्त धन को पाने का षड्यन्त्र नहीं रच रहे हैं?”
“देव, इन अपमानजनक प्रश्नों का मैं उत्तर नहीं दूँगा।”
“तो आचार्य वज्रसिद्धि, इन आरोपों के आधार पर मैं आपको आचार्य पद से च्युत करता हूँ और बन्दी करता हूँ।” उन्होंने सेनापति से ललकार कहा :
“सेनापति इन्द्रसेन, वज्राचार्य और इनके सब साथियों को अपनी रक्षा में ले लो। तथा संघाराम और उसके कोष पर राज्य का पहरा बैठा दो। तुम्हारे काम में जो भी विघ्न डाले उसे बिना विलम्ब खड्ग से चार टुकड़े करके संघाराम के चारों द्वारों पर फेंक दो!” सेनापति ने अपनी नंगी तलवार आचार्य के कन्धे पर रखी।
वज्रसिद्धि ने कहा—”भिक्षुओ, यह राजा पतित हो गया है। इसे अभी मार डालो।”
भिक्षुओं में क्षोभ उत्पन्न हुआ; सैनिक शस्त्र लेकर आगे बढ़े।
अब श्रीज्ञान ने दोनों हाथ ऊँचे करके कहा—”सावधान, भिक्षुओ! यह श्रीज्ञान मित्र तुम्हारे सम्मुख खड़ा है। तुमने तथागत के वचनों का अनादर किया है। बन्धु प्रेम के स्थान पर रक्तपात, अहिंसा के स्थान पर माँसाहार, संयम के स्थान पर व्यभिचार और त्याग के स्थान पर लोभ ग्रहण किया है जिससे तुम्हारे चारों व्रत भंग हो गये हैं। तुमने भिक्षु वेश को कलंकित किया है, और तथागत के पवित्र नाम को कलुषित किया है। मैं तुम्हें आदेश देता हूँ कि अपने आचरणों को सुधारो, या भिक्षुवेश त्याग दो।”
सहस्र-सहस्र भिक्षु श्रीज्ञान के सम्मुख घुटनों के बल बैठ गए। महाराज ने कहा—”भिक्षुओ, तुम्हारे अनाचार की बहुत बातें मैंने सुनी हैं। प्रजा तुम्हारे अत्याचारों से तंग है। तुम्हारे गुरु घण्टाल का भण्डाफोड़ हो गया है। मैं चाहता हूँ, भगवान् श्रीज्ञान के आदेश का पालन करो। अपने-अपने स्थान को लौट जाओ।”
भिक्षुओं ने एक स्वर से महाराज और ज्ञानश्री मित्र का जय-जयकार किया।
महारजा ने कहा—”श्रेष्ठि धनंजय, आओ अपने पुत्र-पौत्र और पुत्र-वधू को आशीर्वाद दो।”
धनंजय दौड़कर पुत्र से लिपट गया। दिवोदास ने पिता के चरणों में गिरकर अभिवादन किया। मंजु ने भी सबको प्रणाम किया और बच्चे को श्वसुर की गोद में दे दिया।
महाराज ने कहा—”श्रेष्ठिराज, यह सौभाग्य तुम्हें भगवान् श्रीज्ञान की कृपा से मिला है। उन्होंने मंजुघोषा और उसके पुत्र की प्राण रक्षा की। और बड़े कौशल से मूर्ति के स्थान पर उसे प्रकट किया।”
सुनयना ने करबद्ध होकर कहा—”तो भगवान्, आप ही मेरे बच्चे के चोर हैं?”
“यह कार्य भी मुझ वीतराग पुरुष को करना पड़ा। जब मंजु को मैंने जंगल में असहाय वृक्ष के नीचे मूर्छितावस्था में पड़ा देखा, तो उसे मैं अपने आश्रम में उठा लाया। उपचार से वह स्वस्थ हुई तो बच्चे के लिए उसने बहुत आफत मचाई। मैं जानता था कि तुम राजी से बच्चा मुझे न दोगी। मंजु का जीवित रहना मैं तुम पर प्रकट करना नहीं चाहता था- इसी से चौर्यकार्य मुझे करना पड़ा। अब बुद्ध शरणं।”
“भगवान्, मैं तो ऐसी अन्धी हो गई कि पुत्री को अरक्षित छोड़कर भाग निकली, परन्तु मुझे बालक की रक्षा का विचार था।”
“यह सब भवितव्य था जो अकस्मात् हो गया।”
“किन्तु भगवन्, यहाँ मूर्ति के स्थान पर मंजु कैसे आ गई?”
“यह हमसे पूछिए,” सुखदास ने आगे बढ़कर कहा—”हम लोग जब स्थान आदि की सुव्यवस्था करके वृक्ष के निकट पहुँचे, तो वहाँ कोई न था। इससे हम बहुत व्याकुल हुए। सारा जंगल छान मारा। तब भगवान् के हमें दर्शन हुए। और जब मंजु को हमारी देख-रेख में छोड़कर भगवान् बच्चा चुराने के लिए गये, तो हमने मिलकर यह योजना बना ली। फिर तो मूर्ति को अपने स्थान से हटाकर वहाँ मंजु को बैठा देना आसान था। परन्तु चमत्कार खूब हुआ!”
यह कहकर सुखदास हँसने लगा। सभी लोग हँस दिए।
सुखदास ने वृद्ध ग्वाले की ओर संकेत करके कहा—”इन महात्मा ने प्राणपण से मंजु की सेवा करके प्राण बचाये। हमारी योजना न सफल होती यदि यह मदद न करते।”
ग्वाले ने चुपचाप सबको हाथ जोड़ दिए। आचार्य श्रीज्ञान ने कहा—”यह सब विधि का विधान है लिच्छवि-राजमहिषी?”
राजा ने अकचकाकर कहा—”यह आपने क्या शब्द कहा! लिच्छवि राजमहिषी कौन!”
“महाराज, यह देवी सुनयना लिच्छविराज श्री नृसिंहदेव की पट्टराजमहिषी कीर्तिदेवी हैं, जिन्हें काशिराज ने छल से मारकर उनके राज्य को विध्वंस किया था। मंजुघोषा इन्हीं की पुत्री हैं।”
महाराज ने कहा—”महारानी, इस राज्य में मैं आपका स्वागत करता हूँ। और राजकुमारी, आपका भी तथा कुमार को मैं वैशाली का राजा घोषित करता हूँ, और उनके लिए यह तलवार अर्पित करता हूँ जो शीघ्र काशिराज से उनका बदला लेगी।”
रानी ने कहा—”हम दोनों-माता पुत्री-कृतार्थ हुईं। महाराज, आपकी जय हो। अब इस शुभ अवसर पर यह तुच्छ भेंट मैं दिवोदास को अर्पण करती हूँ।”
उसने अपने कण्ठ से एक तावीज निकालकर दिवोदास के हाथ में देते हुए कहा—”इसमें उस गुप्त रत्नकोष का बीजक है, जिसका धन सात करोड़ स्वर्ण मुद्रा है।”
“पुत्र, मुझ अभागिन विधवा का यह तुच्छ दहेज स्वीकार करो।”
श्रेष्ठि धनंजय ने आगे बढ़कर कहा—”महारानी, आपने मुझे और मेरे पुत्र को धन्य कर दिया।”
आचार्य श्रीज्ञान ने हाथ उठाकर कहा—”आप सबका कल्याण हो। आज से मैं आचार्य शाक्य श्रीभद्र को इस महाविहार का कुलपति नियुक्त करता हूँ।” महाराज ने स्वीकार किया। और सबने आचार्य को प्रणाम किया और अपने गन्तव्य स्थान की ओर चले गए।
29. वज्रगुरु
आचार्य शाक्य श्रीभद्र महायान के आचार्य थे। शून्यवाद के परम पण्डित थे। उसके नाम और पाण्डित्य की बड़ी धूम थी। विक्रमशिला विश्वविद्यालय के पीठाधीश्वर हो जाने पर भी वज्र गुरुओं का गुट विक्रमशिला से टूटा नहीं। यद्यपि आचार्य वज्रसिद्धि अब कुलपति नही रहे थे, पर वे वज्र गुरुओं के शिरोमणि थे। ये वज्र गुरु वैपुल्यवादी थे और उनका संगठन साधारण न था। उनके सामने आचार्य शाक्य श्रीभद्र की चलती नहीं थी। जो हजारों-लाखों तरुण-तरुणियाँ पीत-कफनी पहिन कच्ची उम्र में ही भिक्षु-भिक्षुणी हो जाते थे, उनकी कामवासना तो कायम ही रहती थी। किसी भी ज्ञान और उपदेश से वह दबती न थी। वह तो स्वस्थ शरीर का नैसर्गिक धर्म था। वैपुल्यवादी एकाभिप्रायेण स्त्री-गमन कर सकते थे। वे गृहस्थों की भाँति मानव शरीर की प्राकृतिक आवश्यकता को गृहस्थाश्रम के सीधे-सादे सरल मार्ग द्वारा पूर्ण नही करते थे-वे तो ‘एकाभिप्राय’ की आड़ लेकर रहस्यपूर्ण शब्दजाल द्वारा सम्भोग क्रिया का ‘सम्यक्-सम्बुद्ध’ बनने के लिए वज्रगुरु की सहमति से स्त्री-सेवन कर सकते थे। वे किसी नीच जाति की युवती को मुद्रा बनाकर गुरु के निकट जाते और गुरु की आज्ञा से मिथुन योग करते थे। वज्रगुरु की आज्ञा से यह मैथुन सेवन कामवासना की तृप्ति के लिए नहीं होता था; सम्यक्-सम्बुद्ध और सिद्ध बनने के लिए होता था। ये सब नियम गुह्य थे। और उसी से भैरवीचक्र का जन्म हुआ।
बौद्धों के प्राचीन सुत्त बहुत लम्बे-लम्बे होते थे। उन्हें घोखने और याद करने में बहुत समय लगता था इसलिए वैपुल्यवादियों ने छोटी-छोटी धारणियाँ बनाई थीं। उनके पाठ से भी वही प्राप्त होता था जो सूत्रों के पाठ से होता था। पर धारणियों को कण्ठ करने भी दिक्कत पड़ती थी। इसलिए अब उसके स्थान पर मन्त्रों को रचा गया था। जिनमें अस्त-व्यस्त शब्द ही थे। जैसे ‘ओं मुने-मुने महामुने स्वाहा,’ अथवा ‘ओं, आहुँ।’ लोगों का विश्वास था कि इस मन्त्रों के जाप से अभिलषित फल प्रापत होता है। मन्त्र-शक्ति के इस विश्वास के साथ-साथ वे कुछ भोग की क्रियाओं को भी सीखते थे। वे समझते थे कि इन क्रियाओं द्वारा शारीरिक और मानसिक शक्तियों का विकास होता है। इस समय बुद्ध को भी अलौकिक या अमानव माना जाता था। ये वज्रगुरु खान-पान, रहन-सहन में आचार-विचार का कोई ध्यान नहीं करते थे। उचित-अनुचित, कर्त्तव्य-अकर्तव्य का भेद सिद्ध पुरुषों में नहीं होता-यही लोग समझते थे। स्त्री मात्र से सम्भोग करना वे अपनी साधना में सहायक मानते थे। साथ ही मद्य-माँस का सवेन भी योग क्रियाओं के लिए आवश्यक था। ऐसा ही यह युग था जिसका केन्द्र विक्रमशिला-नालन्दा और उदन्तपुरी के विहार बने हुए थे। एक ओर इन विद्याकेन्द्रों में भाँति-भाँति के शास्त्र और विद्याएँ पढ़ाई जाती थीं, जिसकी ख्याति देश- देशान्तरों में थी, तो दूसरी ओर ये धर्मपाखण्ड और अत्याचार चल रहे थे।
इस काल में सद् गृहस्थ ब्राह्मणों और बौद्ध भिक्षुओं का समान आदर सत्कार करते थे। शैवों-शाक्तों और वाममार्गियों के कई अघोरी पन्थ भी थे जिनसे गृहस्थ भयभीत रहते थे। पौराणिक धर्म के पुनरुत्थान के साथ जिन देवी-देवताओं की उपासना का आरम्भ हुआ, बौद्ध उनकी उपेक्षा नहीं कर सके। उन्होंने उन्हें नये नामों से अपने धर्म में सम्मिलित कर लिया। मंजुश्री तारा, अवलोकितेश्वर आदि नामों से अनेक देवी-देवताओं ने बौद्धधर्म में भी प्रवेश कर लिया था। कुछ तो इस कारण से और कुछ तन्त्रवाद के प्रवेश ने शक्ति के उपासक पौराणिक और वज्रयानी बौद्धों को परस्पर निकट ला दिया था। पौराणिकों ने बुद्ध को दस अवतारों में गिन लिया था। पालदेशी बौद्ध राजा थे-पर ब्राह्मणों को भी मानते थे। सातवीं शताब्दी ही में अनेक ऐसे पौराणिक पण्डितों ने जन्म लिया, जिन्होंने अपनी तर्कशक्ति और विद्वत्ता के प्रभाव से सबको चकाचौंध कर दिया। कुमारिल भट्ट और प्रभाकर के नाम इनमें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। शंकर भी एक असाधारण पुरुष थे। इनके कारण बौद्ध भिक्षुओं का प्रताप कम अवश्य पड़ गया था पर बौद्ध संघ को स्थापित हुए हजार साल से भी ऊपर हो चुके थे। उनके मठों में अतोल सम्पदा जमा हो गई थी। और मगध के विहारों में हजारों भिक्षु निश्चिंत होकर आनन्द के साथ जीवन व्यतीत करते थे। वे केवल अब नाम के भिक्षु थे। भिक्षा माँगने भिक्षा पात्र लेकर उन्हें अब लोगों के घर जाना नहीं पड़ता था। इधर आश्रमों और मठों के रहने वाले सन्यासियों में भी स्फूर्ति उदय हुई थी। इससे भारत में उस समय बौद्धों के प्रति उदासीनता बढ़ती जाती थी। परन्तु आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक पाँच सौ वर्षों में वज्रयान ने एक प्रकार से सारी ही भारतीय जनता को कामी, व्यसनी, शराबी और अन्धविश्वासी बना दिया था। राजा लोग तो अब भी किसी सिद्धाचार्य और उनके तांत्रिक शिष्यों की पलटनें साथ रखते थे जिन पर भारी खर्च किया जाता था।
30. तलवार
ई. स. 1192 में तराइन की रणस्थली में चौहान कुल-कमल दिवाकर पृथ्वीराज का सौभाग्य सूर्य अस्त हुआ। इसके दो वर्ष बाद चन्दोवर की भूमि में कन्नौज के जयचन्द्र को भी मुस्लिम तलवार का पानी पी खेत रहना पड़ा। इसके बाद हिन्दू संस्कृति के एकमात्र गढ़ बनारस पर मुस्लिम तलवार जा धमकी।
इसके तीन बरस बाद ही मुहम्मद गोरी का एक गुलाम सेनानायक मोहम्मद-बिन- वाखूपार केवल पाँच हजार सवार लेकर विहार में जा धमका। जहाँ इस समय बौद्ध विहारों और विद्याकेन्द्रों की भरमार थी, वहाँ तुर्कों ने अपने चिरशत्रु पीत कफनी पहने और सिर मुड़ाए ‘बुत-परस्तों’ को देखा, जिनका उन्हें कटु अनुभव था। जब तुर्कों ने मध्य एशिया पर आक्रमण किए थे तब वहाँ के भिक्षुओं ने उनसे कठिन लोहा लिया था। वे अपने इन चिरशत्रुओं पर टूट पड़े, जिनके धर्म की जड़ अनाचार से खोखली हो चली थी। उन्होंने गाजर-मूली की भाँति सबको काट डाला। एक भी घुटे सिर वाले को जीवित न छोड़ा। पालवंशी दुर्बल राजा अनायास ही परास्त हो गए। नालन्दा विक्रमशिला और उदन्तपुरी के विहारों को लूटकर और जलाकर उन्होंने खाकस्याह कर दिया। वहाँ के दुर्लभ पुस्तकालय भी उन्होंने जलाकर भस्म के ढेर कर दिए और वहाँ से असंख्य धन-रत्न लेकर वह आगे बढ़े। बंगाल की राजधानी नदिया में मोहम्मद ने केवल बारह सवारों के साथ प्रवेश किया। लोगों ने उन्हें घोड़ों का सौदागर समझा। पर जब उन्होंने राजद्वार पर जाकर मारकाट मचाई तो भगदड़ मच गई। बंगाल का राजा परम माहेश्वर लक्ष्मणसेन उस समय भोजन कर रहा था। वह शोर सुनकर बदहवास हो गया; उससे कुछ भी करते न बन पड़ा। और महल के पिछले द्वार से निकल भागा।
केवल बारह मुस्लिम तलवारों ने बंगाल को विजय कर लिया।
शाक्य श्रीभद्र विक्रमशिला विश्वविद्यालय के ध्वस्त होने के बाद भागकर पूर्वी बंगाल के ‘जगत्तला’ विहार में पहुँचे। जब वहाँ भी तुर्कों की तलवार गई तो वे अपने शिष्यों के साथ भागकर नेपाल चले गए। उनके आने की खबर सुनकर तिब्बत के सामन्त कीर्तिध्वज ने उन्हें अपने यहाँ निमन्त्रित किया। वहाँ वे बहुत वर्षों तक रहे। शाक्य श्रीभद्र की भाँति अनेक बौद्ध भिक्षुओं तथा सिद्धों ने जाकर बाहर के देशों में शरण ली। इस प्रकार भारत से बौद्ध धर्म का लोप हो गया।
31. धनंजय श्रेष्ठि का परिवार
श्रेष्ठि धनंजय का रंगमहल आज फिर सज रहा था। कमरे के झरोखों से रंगीन प्रकाश छन- छनकर आ रहा था। भाँति-भाँति के फूलों के गुच्छे ताखों पर लटक रहे थे। मंजु उद्यान में लगी एक स्फटिक पीठ पर बैठी थी; सम्मुख पालने में बालक सुख से पड़ा अँगूठा चूस रहा था। दिवोदास पास खड़ा प्यासी चितवनों से बालक को देख रहा था।
मंजु ने कहा—”इस तरह क्या देख रहे हो प्रियतम?”
“देख रहा हूँ कि इन नन्हीं-नन्हीं आँखों में तुम हो या मैं?”
“और इन लाल-लाल ओठों में?”
“तुम।”
“नहीं तुम।”
“नहीं प्रियतम।
“नहीं प्राणसखी।”
“अच्छा हम तुम दोनों।”
पति-पत्नी खिलखिलाकर हँस पड़े। दिवोदास ने मंजु को अंक में भरकर झकझोर डाला।
।। समाप्त ।।