चन्द्रगुप्त

  भूमिका 

चन्द्रगुप्त

अगंण-वेदी वसुधा कुल्या जलधिः स्थली च पातालम्।।

वल्मीकश्च सुमेरुः कृत प्रतिज्ञस्य वीरस्य।।

-हर्षचरित्

मौर्य-वंश

प्राचीन आर्य नृपतिगण का साम्राज्य उस समय नहीं रह गया था। चन्द्र और सूर्यवंश की राजधानियाँ अयोध्या और हस्तिनापुर, विकृत रूप में भारत के वक्षस्थल पर अपने साधारण अस्तित्व का परिचय दे रही थीं। अन्य प्रचण्ड बर्बर जातियों की लगातार चढ़ाइयों से सप्तसिन्धु प्रदेश में आर्यों के सामगान का पवित्र स्वर मन्द हो गया था। पाञ्चालों की लीला-भूमि तथा पञ्जाब मिश्रित जातियों से भर गया था। जाति, समाज और धर्म – सब में एक विचित्र मिश्रण और परिवर्तन-सा हो रहा था। कहीं आभीर और कहीं ब्राह्मण; राजा बन बैठे थे। यह सब भारत भूमि की भावी दुर्दशा की सूचना क्यों थी? इसका उत्तर केवल यही आपको मिलेगा कि – धर्म सम्बन्धी महापरिवर्तन होने वाला था। वह बुद्ध से प्रचारित होने वाले बौद्ध धर्म की ओर भारतीय आर्य लोगों का झुकाव था, जिसके लिये ये लोग प्रस्तुत हो रहे थे।

उस धर्मबीज को ग्रहण करने के लिए कपिल, कणाद आदि ने आर्यों का हृदय-क्षेत्र पहले ही से उर्वर कर दिया था, किन्तु यह मत सर्वसाधारण में अभी नहीं फैला था। वैदिक-कर्मकाण्ड की जटिलता से उपनिषद् तथा सांख्य आदि शास्त्र आर्य लोगों को सरल और सुगम प्रतीत हीन लगे थे। ऐसे ही समय पार्श्वनाथ ने एक जीव-दयामय धर्म प्रचारित किया और वह धर्म बिना किसी शास्त्र-विशेष के; वेद तथा प्रमाण की उपेक्षा करते हुए फैलकर शीघ्रता के साथ सर्वसाधारण से सम्मान पाने लगा। आर्यों की राजसूय और अश्वमेध आदि शक्ति बढ़ाने वाली क्रियायें – शून्य स्थान में ध्यान और चिन्तन के रूप में परिवर्तित हो गयीं; अहिंसा का प्रचार हुआ। इससे भारत की उत्तरी सीमा में स्थित जातियों को भारत में आकर उपनिवेश स्थापित करने का उत्साह हुआ। दार्शनिक मत के प्रबल प्रचार से भारत में धर्म, समाज और साम्राज्य, सब में विचित्र और अनिवार्य परिवर्तन हो रहा था। बुद्धदेव के दो-तीन शताब्दी पहले ही दार्शनिक मतों ने, उन विशेष बन्धनों को, जो उस समय के आर्यों को उद्विग्न कर रहे थे, तोड़ना आरम्भ किया। उस समय ब्राह्मण वल्कलधारी होकर काननों में रहना ही अच्छा न समझते वरन् वे भी राज्य लोलुप होकर स्वतन्त्र छोटे-छोटे राज्यों के अधिकारी बन बैठे। क्षत्रियगण राजदण्ड को बहुत भारी तथा अस्त्र-शस्त्रों को हिंसक समझ कर उनकी जगह जप-चक्र हाथ में रखने लगे। वैश्य लोग भी व्यापार आदि से मनोयोग न देकर, धर्माचार्य की पदवी को सरल समझने लगे। और तो क्या भारत के प्राचीन दास भी अन्य देशों से आयी हुई जातियों के साथ मिलकर दस्यु-वृत्ति करने लगे।

वैदिक धर्म पर क्रमशः बहुत से आघात हुए, जिनसे वह जर्जर हो गया। कहा जाता है कि उस समय धर्म की रक्षा करने में तत्पर ब्राह्मणों ने अर्बुदगिरि पर एक महान् यज्ञ करना आरम्भ किया और उस यज्ञ का प्रधान उद्देश्य वर्णाश्रम धर्म तथा वेद की रक्षा करना था। चारों ओर से दल-के-दल क्षत्रियगण – जिनका युद्ध ही आमोद था – जुटने लगे और वे ब्राह्मण धर्म को मानकर अपने आचार्यों को पूर्ववत् सम्मानित करने लगे। जिन जातियों को अपने कुल की क्रमागत वंशमर्यादा भूल गयी थी, वे तपस्पी और पवित्र ब्राह्मणों के यज्ञ से संस्कृत होकर चार जातियों में विभाजित हुई। इनका नाम अग्निकुल हुआ। सम्भवतः इसी समय के तक्षक या नागवंशी भी क्षत्रियों की एक श्रेणी में गिने जाने लगे।

यह धर्म-क्रांति भारत में उस समय हुई थी जब जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए, जिनका समय ईसा से 800 वर्ष पहले माना जाता है। जैन लोगों के मत से भी इस समय में विशेष अन्तर नहीं है। ईसा के आठ सौ वर्ष पूर्व यह बड़ी घटना भारतवर्ष में हुई, जिसने भारतवर्ष में राजपूत जाति बनाने में बड़ी सहायता दी और समय-समय पर उन्हीं राजपूत क्षत्रियों ने बड़े-बड़े कार्य किए। उन राजपूतों की चार जातियों में प्रमुख परमार जाति थी और जहाँ तक इतिहास पता देता है – उन लोगों ने भारत के भिन्न-भिन्न प्रदेशों में फैलकर नवीन जनपद और अक्षय कीर्ति उपार्जित की। धीरे-धीरे भारत के श्रेष्ठ राजन्यवर्गों में उनकी गणना होने लगी। यद्यपि इस कुल की भिन्न-भिन्न पैंतीस शाखाएं है, पर सब में प्रधान और लोकविश्रुत मौर्य नाम की शाखा हुई। भारत का श्रृंखलाबद्ध इतिहास नहीं हैं, पर बोद्धों के बहुत-से शासन-सम्बन्धी लेख और उनकी धर्म-पुस्तकों से हमें बहुत सहायता मिलेगी, क्योंकि उस धर्म को उन्नति के शिखर पर पहुँचाने वाला उसी मौर्यवंश का सम्राट् अशोक हुआ है। बौद्धों के विवरण से ज्ञात होता है, कि शैशुनाकवंशी महानन्द के संकर-पुत्र महापद्म के पुत्र घननन्द से मगध का सिंहासन लेने वाला चन्द्रगुप्त मोरियों के नगर का राजकुमार था। वह मोरियों का नगर पिप्पली-कानन था, और पिप्पली-कानन के मौर्य-नृपति लोग भी बुद्ध के शरीर-भस्म के भाग लेने वालों में एक थे।

मौर्य लोगों की उस समय भारत में कोई दूसरी राजधानी न थी। यद्यपि इस बात का पता नहीं चलता, कि इस वंश के आदि पुरुषों में से किसने पिप्पली-कानन में मौर्यों की पहली राजधानी स्थापित की, पर यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि ईसा से 500 वर्ष या इससे पहले यह राजधानी स्थापित हुई, और मौर्य-जाति, इतिहास-प्रसिद्ध कोई ऐसा कार्य तब तक नहीं कर सकी जब तक प्रतापी चन्द्रगुप्त उसमें उत्पन्न न हुआ। उसने मौर्य-शब्द को, जो अब तक भारतवर्ष के एक कोने में पड़ा हुआ अपना जीवन अपरिचित रूप से बिता रहा था, केवल भारत ही नहीं वरन् ग्रीस आदि समस्त देशों में परिचित करा दिया। ग्रीक-इतिहास-लेखकों ने अपनी भ्रमपूर्ण लेखनी से इस चन्द्रगुप्त के बारे में कुछ तुच्छ बातें लिख दी हैं, जो कि बिल्कुल असम्बद्ध ही नहीं, वरन् उल्टी हैं। जैसे – ‘चन्द्रगुप्त नाइन के पेट से पैदा हुआ महानन्दिन् का लड़का था।’ पर यह बात पोरस ने महापद्म और घन-नन्द आदि के लिए कही है।¹ और वही पीछे से चन्द्रगुप्त के लिए भ्रम से यूनानी ग्रन्थकारों ने लिख दी है। ग्रीक-इतिहास-लेखक Plutarch लिखता है कि चन्द्रगुप्त मगध-सिंहासन पर आरोहण करने के बाद कहता था कि सिकन्दर महापद्म को अवश्य जीत लेता, क्योंकि यह नीचजन्मा होने के कारण जन-समाज में अपमानित तथा घृणित था। लिवानियस आदि लेखकों ने तो यहाँ तक भ्रम डाला है कि पोरस ही नापित से पैदा हुआ था। पोरस ने ही यह बात कही थी, इससे वही नापित-पुत्र समझा जाने लगा, तो क्या आश्चर्य है कि तक्षशिला में जब चन्द्रगुप्त ने यही बात कही थी, तो वही नापित-पुत्र समझा जाने लगा हो। ग्रीकों के भ्रम से ही यह कलंक उसे लगाया गया है।

एक बात और भी उस समय तक निर्धारित हुई थी कि Sandrokottus और Xandramus भिन्न-भिन्न दो व्यक्तियों का एक का ही नाम है। यह H.H. Wilson ने विष्णुपुराण आदि के सम्पादन-समय में सण्ड्रोकोटस और चन्द्रगुप्त को एक में मिलाया। यूनानी लेखकों ने लिखा है कि Xandramus ने बहुत बड़ी सेना लेकर सिकन्दर से मुकाबला किया। उन्होंने उस प्राच्य देश के राजा Xandramus को, जो नन्द था, भूल से चन्द्रगुप्त समझ लिया – जो कि तक्षशिला में एक बार सिकन्दर से मिला था और बिगड़कर लौट आया था। चन्द्रगुप्त और सिकन्दर की भेंट हुई थी। इसलिए भ्रम से वे लोग Sandrokottus और Xandramus को एक समझ कर नन्द की कथा को चन्द्रगुप्त के पीछे जोड़ने लगे।

चन्द्रगुप्त ने पिप्पली-कानन के कोने से निकल कर पाटलिपुत्र पर अधिकार किया। मेगस्थिनीज़ ने इस नगर का वर्णन किया है और फारम की राजधानी से बढ़कर बतलाया है। अस्तु, मौर्यों की दूसरी राजधानी पाटलिपुत्र हुई।

पुराणों को देखने से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त के बाद नौ राजा उसके वंश में मगध के सिंहासन पर बैठे। उनमें अन्तिम राजा बृहद्रथ हुआ, जिसे मारकर पुष्यमित्र – जो शुंग-वंश का राजा था – मगध के सिंहासन पर बैठा; किन्तु चीनी यात्री ह्नेनसांग, जो हर्षवर्धन के समय में आया था, लिखता है – मगध का अन्तिम अशोकवंशी पूर्णवर्मा हुआ, जिसके समय में शशांकगुप्त ने बोधिधर्म को विनष्ट किया था। और उसी पूर्णवर्मा ने बहुत से गौ के दुग्ध से उन उन्मूलित बोधिधर्म को सींचा, जिनसे वह शीघ्र ही फिर बढ़ गया। यह बात प्रायः सब मानते हैं कि मौर्य-वंश के नौ राजाओं ने मगध के राज्यासन पर बैठकर उसके अधीन समस्त भू-भाग पर शासन किया। जब मगध के सिंहासन पर से मौर्यवंशीयों का अधिकार जाता रहा तब उन लोगों ने एक प्रादेशिक राजधानी को अपनी राजधानी बनाया। प्रबल प्रतापी चन्द्रगुप्त का राज्य चार प्रादेशिक शासकों से शासित होता था। अवन्ति, स्वर्णगिरि, तोषालि और तक्षशिला में अशोक के चार सूबेदार रहा करते थे। इनमें अवन्ति के सूबेदार प्रायः राजवंश के होते थे। स्वयं अशोक उज्जैन का सूबेदार रह चुका था। सम्भव है कि मगध का शासन डाँवाडोल देखकर मगध के आठवें मौर्य नृपति सोमशर्मा के किसी भी राजकुमार ने, जो कि अवन्ति का प्रादेशिक शासक रहा हो, अवन्ति को प्रधान राजनगर बना लिया हो, क्योंकि उसकी एक ही पीढ़ी के बाद मगध के सिंहासन पर शुंगवंशीयों का अधिकार हो गया। यह घटना सम्भवतः 175 ई. पू. में हुई होगी, क्योंकि 183 में सोमशर्मा मगध का राजा हुआ। भट्टियों के ग्रन्थों में लिखा है कि मौर्य-कुल के मूलवंश से उत्पन्न हुए परमार नृपतिगण ही उस समय भारत के चक्रवर्ती राजा थे; और लोग कभी-कभी उज्जयिनी में ही अपनी राजधानी स्थापित करते थे।

टॉड ने अपने राजस्थान में लिखा है कि जिस चन्द्रगुप्त की महान प्रतिष्ठा का वर्णन भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों से लिखा है, उस चन्द्रगुप्त का जन्म पवार कुल की मौर्य शाखा में हुआ है। सम्भव है कि विक्रम के सौ या कुछ वर्ष पहले जब मौर्य की राजधानी पाटलिपुत्र से हटी, तब इन लोगों ने उज्जयिनी को प्रधानता दी और यहीं पर अपने एक प्रादेशिक शासक की जगह राजा की तरह रहने लगे।

राजस्थान में पवाँर-कुल के मौर्य-नृपतिगण ने इतिहास में प्रसिद्ध बड़े-बड़े कार्य किये, किन्तु ईसा की पहली शताब्दी से लेकर 5वीं शताब्दी तक प्रायः उन्हें गुप्तवंशी तथा अपर जातियों से युद्ध करना पड़ा। भट्टियों ने लिखा है कि उस समय मौर्य-कुल के परमार लोग कभी उज्जयिनी को और कभी राजस्थान की धारा को अपनी राजधानी बनाते थे।

इसी दीर्घकाल व्यापिनी अस्थिरता से मौर्य लोग जिस तरह अपनी प्रभुता बनाये रहे, उस तरह किसी वीर और परिश्रमी जाति के सिवा दूसरा नहीं रह सकता। इस जाति के महेश्वर नामक राजा ने विक्रम के 600 वर्ष बाद कार्तवीर्यार्जुन की प्राचीन महिष्मती को, जो नर्मदा के तट पर थी, फिर से बसाया और उसका नाम महेश्वर रखा, उन्हीं का पोत्र भोज हुआ। चित्रांग मौर्य ने भी थोड़े ही समय के अन्तर में चित्राकूट (चित्तौर) का पवित्र दुर्ग बनवाया, जो भारत के स्मारक चिह्नों में एक अपूर्व वस्तु है।

गुप्तवंशियों ने जब अवन्ति मौर्य लोगों से ले ली, उसके बाद मौर्य के उद्योग से कई नगरियाँ बसाई गयीं और कितनी ही उन लोगों ने दूसरे राजाओं से लीं। अर्बुदगिरि के प्राचीन भू.भाग पर उन्हीं का अधिकार था। उस समय के राजस्थान के सब अच्छे.अच्छे नगर प्रायः मौर्य-राजगण के अधिकार में थे। विक्रमीय संवत् 780 मौर्य की प्रतिष्ठा राजस्थान में थी और उस अन्तिम प्रतिष्ठा को तो भारतवासी कभी न भूलेंगे जो चित्तौर.पति मौर्यनरनाथ मानसिंह ने खलीफा वलीद को राजस्थान विताड़ित करके प्राप्त की थी।

मानमौर्य के बनवाये हुए मानसरोवर में एक शिलालेख है, जिसमें लिखा है कि – “महेश्वर को भोज नाम का पुत्र हुआ था, जो धारा और मालव का अधीश्वर था, उसी से मानमौर्य हुए।” इतिहास में 784 संवत् में बाप्पारावल का चित्तौर पर अधिकार करना लिखा है, तो इसमें सन्देह नहीं रह जाता कि यही मानमौर्य बाप्पारावल के द्वारा प्रवंचित हुआ।

महाराज मान प्रसिद्ध बाप्पादित्य के मातुल थे। बाप्पादित्य ने नागेन्द्र से भागकर मानमौर्य के यहाँ आश्रय लिया, उनके यहाँ सामान्त रूप से रहने लगे। धीर.धीरे उनका अधिकार सब सामन्तों से बढ़ा, सब सामन्त उनसे डाह करने लगे। किन्तु बाप्पादित्य की सहायता से मानमौर्य ने यवनों को फिर भी पराजित किया पर उन्हीं बाप्पादित्य की दोधारी तलवार मानमौर्य के लिये कालभुजंगिनी और मौर्य कुल के लिए तो मानो प्रलय समुद्र की एक बड़ी लहर हुई। मान बाप्पादित्य के हाथ से मारे गये और राजस्थान में मौर्य-कुल का अब कोई राजा न रहा। यह घटना विक्रमीय संवत् 784 की है।

कोटा के कण्वाश्रम के शिवमन्दिर में एक शिलालेख संवत् 795 का पाया गया है। उससे मालूम होता है कि आठवीं शताब्दी के अन्त तक राजपूताना और मालवा पर मौर्य-नृपतियों का अधिकार रहा।

प्रसिद्ध मालवेश भोज की परमार वंश का था जो 1035 में हुआ। इस प्रकार परमार और मौर्य-कुल पिछले काल के विवरणों से एक में मिलाये जाते हैं। इस बात की शंका हो सकती है कि मौर्य-कुल की मूल शाखा परमार का नाम प्राचीन बौद्धों की पुस्तकों में क्यों नहीं मिलता।

परन्तु यह देखा जाता है कि जब एक विशाल जाति से एक छोटा-सा कुल अलग होकर अपनी स्वतन्त्रता सत्ता बना लेता है, तब प्रायः वह अपनी प्राचीन संज्ञा को छोड़कर नवीन नाम को अधिक प्रधानता देता है। जैसे इक्ष्वाकुवंशी होने पर भी बुद्ध, शाक्य नाम से पुकारे गये और जब शिलालेखों में मानमौर्य और परमार भोज के हम एक ही वंश में होने का प्रमाण पाते हैं तब कोई संदेह नहीं रह जाता। हो सकता है, मौर्यों के बौद्ध-युग के बाद जब इस शाखा का हिन्दू धर्म की ओर अधिक झुकाव हुआ तो परमार नाम फिर से लिया जाने लगा हो, क्योंकि मौर्य लोग बौद्ध-प्रेम के कारण अशोक के वंश को अक्षत्रिय तथा नीच कुल को प्रमाणित करने के लिए मध्यकाल में अधिक उत्सुकता देखी जाती है, किन्तु यह अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि प्रसिद्ध परमार-कुल और मौर्य वंश सम्बद्ध हैं।

इस प्रकार अज्ञात पिप्पली-कानन के एक कोने से निकलकर विक्रम-संवत् के 264 वर्ष पहले से 784 बाद तक मौर्य लोगों ने पाटलिपुत्र, उज्जैन, धारा, महेश्वर, चित्तौर (चित्रकूट) और अर्बुदगिरि आदि में अलग-अलग अपनी राजधानियाँ स्थापित की और लगभग 1050 वर्ष तक वे लोग मौर्य-नरपति कहकर पुकारे गये।

पिप्पिली कानन के मौर्य :

मौर्य-कुल का सबसे प्राचीन स्थान पिप्पिली कानन था। चन्द्रगुप्त के आदि-पुरुष मौर्य इसी स्थान के अधिपति थे और यह राजवंश गौतम बुद्ध के समय में प्रतिष्ठित गिना जाता था, क्योंकि बौद्धों ने महात्मा बुद्ध के शरीर-भस्म का एक भाग पाने वालों में पिप्पिली-कानन के मौर्यों का उल्लेख किया है। पिप्पिली-कानन बस्ती जिले में नेपाल की सीमा पर है। यहाँ ढूह और स्तूप हैं, इसे अब पिपरहियाकोट कहते हैं। फाहियान ने स्तूप आदि देखकर भ्रमवश इसी को पहले कपिलवस्तु समझा था। मि. पीपी ने इसी स्थान को पहले खुदवाया और बुद्धदेव की धातु तथा और जो वस्तुयें मिली, उन्हें गवर्नमेंट को अर्पित किया था तथा धातु का प्रधान अंश सरकार ने स्याम के राजा को दिया।

इसी पिप्पिली-कानन में मौर्य लोग छोटा-सा राज्य स्वतन्त्रता से सञ्चालित करते थे और ये क्षत्रिय थे, जैसा कि महावंश के इस अवतरण से सिद्ध होता है “मौरियानं खत्तियानं वंसजातं सिरीधर। चन्द्रगुत्तों सिपंज्जतं चाणक्को ब्राह्मणोततौ।” हिन्दू नाटककार विशाखदत्त ने चन्द्रगुप्त को प्रायः वृषल कहकर सम्बोधित कराया है, इससे उक्त हिन्दू.काल की मनोवृत्ति ही ध्वनित होती है। वस्तुतः वृषल शब्द से तो उनका क्षत्रियत्व और भी प्रमाणित होता है क्योंकि –

शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः

वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणानामदर्शनात्!

से यही मालूम होता है कि जो क्षत्रिय लोग वैदिक क्रियाओं से उदासीन हो जाते थे, उन्हें धार्मिक दृष्टि से वृषलत्व प्राप्त होता था। वस्तुतः वे जाति से क्षत्रिय थे। स्वयं अशोक मौर्य अपने को क्षत्रिय कहता था।

यह प्रवाद भी अधिकता से प्रचलित है कि मौर्य वंश मुरा नाम की शूद्रा से चला है और चन्द्रगुप्त उसका पुत्र था। यह भी कहा जाता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य शूद्रा मुरा से उत्पन्न हुआ नन्द ही का पुत्र था। किन्तु V.A. Smith लिखते हैं – “But it is perhaps more probable that the dynasties of Mouryas and Nandas were not connected by blood.” तात्पर्य यह कि यह अधिक सम्भव है कि नन्दों और मौर्यों का कोई रक्त सम्बन्ध न था।

Maxmullar भी लिखते हैं – “The statement of Wilford that Mourya meant in Sanskrit the offspring of a barber and Sudra woman has never been proved.”

मुरा शूद्रा तक ही नहीं रही, एक नापित भी आ गया। मौर्य शब्द की व्याख्या करने जाकर कैसा भ्रम फैलाया गया है। मुरा से मौर और मौरेय बन सकता है, न कि मौर्य। कुछ लोगों का अनुमान है कि शुद्ध शब्द मौरिय है, उससे संस्कृत शब्द मौर्य बना है; परन्तु यह बात ठीक नहीं, क्योंकि अशोक के कुछ ही समय बाद के पतञ्जलि ने स्पष्ट मौर्य शब्द का उल्लेख किया है – “मौर्य र्हिरण्यार्थिर्भिरर्चाप्रकल्पिताः (भाष्य 5, 3-99)। इसीलिये मौर्य शब्द अपने शुद्ध रूप में संस्कृत का है न कि कहीं से लेकर संस्कार किया गया है। तब तो यह स्पष्ट है कि मौर्य शब्द अपनी संस्कृत-व्युत्पत्ति के द्वारा मुरा का पुत्र वाला अर्थ नहीं प्रकट करता। यह वास्तव में कपोल-कल्पना है और यह भ्रम यूनानी लेखकों से प्रचारित किया गया है; जैसा कि ऊपर दिखाया जा चुका है। अर्थ.कथा में मौर्य शब्द की एक और व्याख्या मिलती है। शाक्य लोगों में आपस में बुद्ध के जीवन-काल में ही एक झगड़ा हुआ और कुछ लोग हिमवान् के पिप्पिली-कानन प्रदेश में अपना नगर बसा कर रहने लगे। उस नगर के सुन्दर घरों पर क्रौञ्च और मोर पक्षी के चित्र अंकित थे, इसलिए वहाँ के शाक्य लोग मोरिय कहलाये। कुछ सिक्के बिहार में ऐसे भी मिले हैं, जिन पर मयूर का चिह्न अंकित है। इससे अनुमान किया जाता है कि वे मौर्य-काल के सिक्के हैं। किन्तु इससे भी उनके क्षत्रिय होने का ही प्रमाण मिलता है।

हिन्दी ‘मुद्राराक्षस’ की भूमिका में भारतेन्दुजी लिखते हैं कि – “महानन्द, जो कि नन्दवंश का था, उससे नौ पुत्र उत्पन्न हुए। बड़ी रानी के आठ और मुरा नाम्नी नापित-कन्या से नवाँ चन्द्रगुप्त। महानन्द से और उसके मंत्री शकटार से वैमनस्य हो गया, इस कारण मंत्री ने चाणक्य द्वारा महानन्द को मरवा डाला और चन्द्रगुप्त को चाणक्य ने राज्य पर बिठाया, जिसकी कथा ‘मुद्राराक्षस’ में प्रसिद्ध है।” – किन्तु यह भूमिका जिसके आधार पर लिखी हुई है, वह मूल संस्कृत मुद्राराक्षस के टीकाकार का लिखा हुआ उपोद्घात है। भारतेन्दुजी ने उसे भी अविकल ठीक न मानकर ‘कथा-सरित्सागर’ के आधार पर उसका बहुत-सा संशोधन किया है। कहीं-कहीं उन्होंने कई कथाओं का उलट-फेर भी कर दिया है। जैसे हिरण्यगुप्त के रहस्य के बतलाने पर राजा के फिर शकटार से प्रसन्न होने की जगह विचक्षणा के उत्तर से प्रसन्न होकर शकटार को छोड़ देना तथा चाणक्य के द्वारा अभिचार से मारे जाने की जगह महानन्द का विचक्षणा के दिये हुए विष से मारा जाना इत्यादि।

ढुण्ढि लिखते है कि – “कलि के आदि में नन्द नाम का एक राजवंश था। उसमें सर्वार्थसिद्धि मुख्य था। उसकी दो रानियाँ थीं – एक सुनन्दा, दूसरी वृषला मुरा। सुनन्दा को एक मांसपिण्ड और मुरा को मौर्य उत्पन्न हुआ। मौर्य से नौ पुत्र उत्पन्न हुए। मंत्री राक्षस ने उस मांसपिण्ड को जल में नौ टुकड़े करके रखा, जिससे नौ पुत्र हुए। सर्वार्थसिद्धि अपने उन नौ लड़कों को राज्य देकर तपस्या करने चला गया। उन नौ नन्दों ने मौर्य और उसके लड़के को मार डाला। केवल एक चन्द्रगुप्त प्राण बचाकर, भागा, जो चाणक्य की सहायता से नन्दों का नाश करके, मगध का राजा बना।”

कथा-सरित्सागर के कथापीठ लम्बक में चन्द्रगुप्त के विषय में एक विचित्र कथा है। उसमें लिखा है – “नन्द के मार जाने पर इन्द्रदत्त (जो कि उसके पास गुरुदक्षिणा के लिए द्रव्य माँगने गया था) ने अपनी आत्मा को योगबल से राजा के शरीर में डाला, और आप राज्य करने लगा। जब उसने अपनी साथी वररूचि को एक करोड़ रुपया देने के लिए कहा, तब मंत्री शकटार ने, जिसको राजा के मरकर फिर से जी उठने पर पहले ही से शंका थी, विरोध किया। तब उसे योगनन्द राजा ने चिढ़कर कैद कर लिया और वररूचि को अपना मंत्री बनाया। योगनन्द बहुत विलासी हुआ, उसने सब राज्य-भार मंत्री पर छोड़ दिया। उसकी ऐसी दशा देखकर वररूचि ने शकटार को छुड़ाया और दोनों मिलकर राज्य-कार्य करने लगे। एक दिन योगनन्द की रानी के चित्र में उसकी जाँघ पर एक तिल बना देने से राजा ने वररूचि पर शंका करके शकटार को उसके मार डालने की आज्ञा दी। पर शकटार ने अपने उपकारी को छिपा रखा।

“योगनन्द के पुत्र हिरण्यगुप्त ने जंगल में अपने मित्र रीछ से विश्वासघात किया। इससे वह पागल और गूँगा हो गया। राजा ने कहा – “यदि वररूचि होता, तो इसका कुछ उपाय करता।” अनुकूल समय देखकर शकटार ने वररूचि को प्रकट किया। वररूचि ने हिरण्यगुप्त का सब रहस्य सुनाया और उसे निरोग किया। इस पर योगनन्द ने पूछा कि तुम्हें यह बात कैसे ज्ञात हुई? वररूचि ने उत्तर दिया – ‘योगबल-से; जैसे रानी के जाँघ का तिल।’ राजा उस पर बहुत प्रसन्न हुआ; पर वह फिर न ठहरा और जंगल में चला गया। शकटार ने समय ठीक देखकर चाणक्य द्वारा योगनन्द को मरवा डाला और चन्द्रगुप्त को राज्य दिलाया।’

ढुण्ढि ने भी नाटक में वृषल और मौर्य शब्द का प्रयोग देखकर चन्द्रगुप्त को मुरा का पुत्र लिखा है; पर पुरणों में कहीं भी चन्द्रगुप्त को वृषल या शूद्र नहीं लिखा है। पुराणों में जो शूद्र शब्द का प्रयोग हुआ है, वह शूद्राजात महापद्म के वंश के लिए है, यह नीचे लिखे हुए विष्णु-पुराण के उद्धृत अंश पर ध्यान देने से स्पष्ट हो जाएगा –

ततो महानन्दी इत्येते शैशुनाकादशभूमिपलास्त्रीणिवर्ष शतानि

द्विषट्यधिकानि भविष्यन्ति।।3।।

महानन्दि सुतः शूद्रागर्भोद्भवोऽति लुब्धो महापद्मो नन्दः परशुराम

इवापरोऽखिलक्षत्रान्तकारी भविता।।4।।

ततः प्रभृति शूद्राभूमिपाला भविष्यन्ति सचैकच्छत्रामनुल्लंघित शासनो

महापद्मः पृथिवीं भोक्ष्यिन्ति।।5।।

तस्याप्यष्टौ सुताः सुमाल्याद्या भवितारः तस्य च महापद्मस्यानुपृथिवीं

भोक्ष्यन्ति महापद्मः तत्पुत्राश्च एकं वर्षशतमवनी पतयो भविष्यन्ति

नवैवतान् नंदान् कौटिल्यों ब्राह्मणः समुद्धरिष्यति।।6।।

तेषामभावे मौर्रयाश्च पृथिवींभोक्ष्यंति कौटिल्य एव चन्द्रगुप्तं

राज्येभिषेक्ष्यति।।7।।

(चतुर्थ अंश अध्याय 24)

इससे यह मालूम होता है कि महानन्द के पुत्र महापद्म ने जो शूद्राजात था – अपने पिता के बाद राज्य किया और उसके बाद सुमाल्य आदि आठ लड़कों ने राज्य किया और इन सबने मिलकर महानन्द के बाद 100 वर्ष राज्य किया। इनके बाद चन्द्रगुप्त को राज्य मिला।

अब यह देखना चाहिए कि चन्द्रगुप्त को जो लोग महानन्द का पुत्र बताते हैं, उन्हें कितना भ्रम है; क्योंकि उन लोगों ने लिखा है कि – “महानन्द को मारकर चन्द्रगुप्त ने राज्य किया।” पर ऊपर लिखी हुई वंशावली से यह प्रकट हो जाता है कि महानन्द के बाद 100 वर्ष तक महापद्म और उसके लड़कों ने राज्य किया। तब चन्द्रगुप्त की कितनी आयु मानी जाये कि महानन्द के बाद महापद्मादि के 100 वर्ष राज्य कर लेने पर भी उसने 24 वर्ष शासन किया?

यह एक विलक्षण बात होगी यदि ‘नन्दान्तं क्षत्रियकुलम्’ के अनुसार शूद्राजात महापद्म और उसके लड़के तो क्षत्रिय मान लिये जायँ और – ‘अतः पर शूद्राः पृथिवी भोक्ष्यन्ति’ के अनुसार शूद्रता चन्द्रगुप्त से आरम्भ की जाय। महानन्द को जब शूद्रा से एक ही लड़का महापद्म था, तब दूसरा चन्द्रगुप्त कहाँ से आया। पुराणों में चन्द्रगुप्त को कहीं भी महानन्द का पुत्र नहीं लिखा है। यदि सचमुच अन्तिम नन्द का ही नाम ग्रीकों ने Xandramus रखा था, तो अवश्य ही हम कहेंगे कि विष्णु-पुराण की महापद्म वाली कथा ग्रीकों से ठीक मिल जाती है।

यह अनुमान होता है कि महापद्म वाली कथा, पीछे से बौद्ध-द्वेषी लोगों के द्वारा चन्द्रगुप्त की कथा में जोड़ी गयी है, क्योंकि उसी का पौत्र अशोक बौद्धधर्म का प्रधान प्रचारक था।

ढुण्ढि के उपोद्घात से एक बात का और पता लगता है कि चन्द्रगुप्त महानन्द का पुत्र नहीं, किन्तु मौर्य सेनापति का पुत्र था। महापद्मादि शूद्रागर्भोद्भव होने पर भी नन्दवंशी कहाये, तब चन्द्रगुप्त मुरा के गर्भ से उत्पन्न होने के कारण नन्दवंशी होने से क्यों वंचित किया जाता है। इसलिये मानना पड़ेगा कि नन्दवंश और मौर्यवंश भिन्न हैं। मौर्यवंश अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है; जिसका उल्लेख पुराण, बृहत्कथा, कामन्दकीय इत्यादि में मिलता है और पिछले काल के चित्तैर आदि शिलालेखो में भी इसका उल्लेख हैं। इसी मौर्यवंश में चन्द्रगुप्त उत्पन्न हुआ।

चन्द्रगुप्त का बाल्य-जीवन :

अर्थकथा, स्थविरावली, कथा-सरित्सागर और दुण्ढि के आधार पर चन्द्रगुप्त के जीवन की प्राथमिक घटनाओं का पता चलता है। मगध की राजधानी पाटलिपुत्र, शोण और गंगा से संगम पर थी। राजमन्दिर, दुर्ग, लम्बी-चौड़ी पण्य-वीथिका, प्रशस्त राजमार्ग इत्यादि राजधानी के किसी उपयोगी वस्तु का अभाव न था। खाई, सेना रणतरी इत्यादि से वह सुरक्षित भी थी। उस समय महापद्म का वहाँ राज्य था।

पुराण में वर्णित अखिल क्षेत्रीयनिधनकारी महापद्म नन्द, या कालाशोंक के लड़कों में सबसे बड़ा पुत्र एक नीच स्त्री से उत्पन्न हुआ था, जो मगध छोड़कर किसी अन्य प्रदेश में रहता था। उस समय किसी डाकू से उसकी भेंट हो गई और वह अपने अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए उन्हीं डाकुओं के दल में मिल गया। जब उनका सरदार एक लड़ाई से मारा गया, तो वही राजकुमार उन सबों का नेता बन गया और उसने पाटलिपुत्र पर चढ़ाई की। उग्रसेन के नाम से उसने थोड़े दिनों के लिये पाटलिपुत्र का अधिकार छीन लिया, इसके बाद उसके आठ भाइयों ने कई वर्ष तक राज्य किया।

नवें नन्द का नाम धननन्द था। उसने गंगा के घाट बनवाये और उसके प्रवाह को कुछ दिन के लिये हटाकर उसी जगह अपना भारी खजाना गाड़ दिया। उसे लोग धननन्द कहने लगे। धननन्द के अन्नक्षेत्र में एक दिन तक्षशिला-निवासी चाणक्य ब्राह्मण आया और सबसे उच्च आसन पर बैठ गया, जिसे देखकर धनानन्द चिढ़ गया और उसे अपमानित करके निकाल दिया। चाणक्य ने धननन्द का नाश करने की प्रतिज्ञा की।

कहते है कि जब नन्द बहुत विलासी हुआ, तो उसकी क्रूरता और भी बढ़ गयी – प्राचीन मंत्री शकटार को बन्दी करके उसने वररूचि नामक ब्राह्मण को अपना मंत्री बनाया। मगध-निवासी उपवर्ष के दो शिष्य थे, जिनमें से पाणिनी तक्षशिलाा में विद्याभ्यास करने गया था। किन्तु वररूचि, जिसकी राक्षस से मैत्री थी, नन्द का मंत्री बना। शकटार जब बन्दी हुआ तब वररूचि ने उसे छुड़ाया, और एक दिन वही दशा मंत्री वररूचि की भी हुई। इनका नाम कात्यायन भी था। बौद्ध लोग इन्हें ‘मगधदेशीय ब्रह्मबन्धु’ लिखते हैं और पाणिनी के सूत्रों के यही वार्तिककार कात्यायन हैं। (कितने लोगों का मत है कि कात्यान और वररूचि भिन्न-भिन्न व्यक्ति थे)

शकटार ने अपने वैर का समय पाया, और यह विष-प्रयोग द्वारा तथा एक दूसरे को लड़ाकर नन्दों में आन्तरिक द्वेष फैलाकर एक के बाद दूसरे को राजा बनाने लगा। धीरे-धीरे नन्दवंश का नाश हुआ, और केवल अन्तिम नन्द बचा। उसने सावधानी से अपना राज्य संभाला और वररूचि को फिर मंत्री बनाया। शकटार ने प्रसिद्ध चाणक्य को, जो कि नीति-शास्त्र विशारद होकर गार्हस्थ्य जीवन में प्रवेश के लिये राजधानी में आया था, नन्द का विरोधी बना दिया। वह क्रुद्ध ब्राह्मण अपनी प्रतिहिंसा पूरी करने के लिए सहायक ढूँढ़ने लगा।

पाटलिपुत्र के नगर-प्रान्त में पिप्पिली-कानन के मौर्य-सेनापति का एक विभवहीन गृह था। महापद्म नन्द के और उनके पुत्रों के अत्याचार से मगध काँप रहा था। मौर्य सेनापति के बन्दी हो जाने के कारण उनके कुटुम्ब का जीवन किसी प्रकार कष्ट से बीत रहा था।

एक बालक उसी घर के सामने खेल रहा था। कई लड़के उसकी प्रजा बने थे और वह था उनका राजा। उन्हीं लड़कों में से वह किसी को घोड़ा और किसी को हाथी बनाकर चढ़ता और दण्ड तथा पुरस्कार आदि देने का राजकीय अभिनय कर रहा था। उसी ओर से चाणक्य जा रहे थे। उन्होंने उस बालक की राज-क्रीड़ा बड़े ध्यान से देखी। उनके मन में कुतूहल हुआ और कुछ विनोद भी। उन्होंने ठीक-ठीक ब्राह्मण की तरह उस बालक राजा के पास जाकर याचना की – “राजन्, मुझे दूध पीने के लिए गऊ चाहिए।” बालक ने राजोचित उदारता का अभिनय करते हुए सामने चरती हुई गौओं को दिखलाकर कहा- “इनमें से जितनी इच्छा हो, तुम ले लो।”

ब्राह्मण ने हँसकर कहा – “राजन्, ये जिसकी गायें हैं, वह मारने लगे तो?”

बालक ने सगर्व छाती फुलाकर कहा – “किसका साहस है जो मेरे शासन को न माने? जब मैं राजा हूँ, तब मेरी आज्ञा अवश्य मानी जायगी।”

ब्राह्मण ने आश्चर्य पूर्वक बालक से पूछा – “राजन्, आपका शुभ नाम क्या है?”

तब तक बालक की माँ वहाँ आ गयी, और ब्राह्मण से हाथ जोड़कर बोली –

“महाराज, यह बड़ा घृष्ट लड़का है, इसके किसी, अपराध पर ध्यान न दीजियेगा।”

चाणक्य ने कहा – “कोई चिन्ता नहीं, यह बड़ा होनहार बालक है। इसकी मानसिक उन्नति के लिए तुम इसे किसी प्रकार राजकुल में भेजा करो।”

उसकी माँ रोने लगी। बोली – “हम लोगों पर राजकोप है, और हमारे पति राजा की आज्ञा से बन्दी किये गये हैं।”

ब्राह्मण ने कहा – “बालक का कुछ अनिष्ट न होगा, तुम इसे अवश्य राजकुल में ले जाओ!”

इतना कह, बालक को आशीर्वाद देकर चाणक्य चले गये।

बालक की माँ बहुत डरते-डरते एक दिन, अपने चञ्चल और साहसी लड़के को लेकर राजसभा में पहुँची।

नन्द एक निष्ठुर, मूर्ख और त्रसजनक राजा था। उसकी राजसभा बड़े-बड़े चापलूस मूर्खों से भरी रहती थी। पहले के राजा लोग एक-दूसरे के बल, बुद्धि और वैभव की परीक्षा लिया करते थे और इसके लिए वे तरह-तरह के उपाय करते थे। जब बालक माँ के साथ राजसभा में पहुँचा, उसी समय किसी राजा के यहाँ से नन्द की राजसभा की बुद्धि का अनुमान करने के लिए, लोहे के बन्द पिंजड़े में मोम का सिंह बना कर भेजा गया था और उसके साथ कहलाया गया था कि पिंजड़े को खोले बिना ही सिंह को निकाल लीजिये। सारी राजसभा इस पर विचार करने लगी; पर उन चाटुकार मूर्ख सभासदों को कोई उपाय न सूझा। अपनी माता के साथ वह बालक यह लीला देख रहा था। वह भला कब मानने वाला था? उसने कहा – “मैं निकाल दूंगा।”

सब लोग हँस पड़े। बालक की ढिठाई भी कम न थी। राजा को भी आश्चर्य हुआ।

नन्द ने कहा – “यह कौन है?”

मालूम हुआ कि राजबन्दी मौर्य-सेनापति का यह लड़का है। फिर क्या, नन्द की मूर्खता की अग्नि में एक और आहुति पड़ी। क्रोधित होकर वह बोला – “यदि तू इसे न निकाल सका, तो तू भी इस पिंजड़े में बन्द कर दिया जायगा।”

उसकी माता ने देखा कि यह भी कहाँ से विपत्ति आयी; परन्तु बालक निर्भीकता से आगे बढ़ा और पिंजड़े के पास जाकर उसको भली भाँति देखा। फिर लोहे की शलाकाओं को गरम करके उस सिंह को गलाकर पिंजड़े को खाली कर दिया।

सब लोग चकित रह गये।

राजा ने पूछा – “तुम्हारा नाम क्या है?”

बालक ने कहा – “चन्द्रगुप्त।”

ऊपर के विवरण से पता चलता है चन्द्रगुप्त किशोरवस्था में नन्दों की सभा में रहता था।

वहाँ उसने अपनी विलक्षण बुद्धि का परिचय दिया।

पिप्पिली-कानन के मौर्य लोग नन्दों के क्षेत्रीयनाशकारी शासन से पीड़ित थे, प्रायः सब दबाये जा चुके थे। उस समय ये क्षत्रिय राजकुल नन्दों की प्रधान शक्ति से आक्रान्त थे। मौर्य भी नन्दों की विशाल वाहिनी में सेनापति का काम करते थे। सम्भवतः वे किसी कारण से राजकोप में पड़े थे और उनका पुत्र चन्द्रगुप्त नन्दों की राजसभा में अपना समय बिताता था। उसके हृदय में नन्दों के प्रति घृणा का होना स्वाभाविक थाः जस्टिनस ने लिखा है-

When by his insolent behaviour he has offended Nandas and was ordered by king to be put to death, he sought safety by a speedy flight (Justinus : X. V.)2

चन्द्रगुप्त ने किसी वाद.विवाद या अनबन के कारण नन्द को क्रुद्ध कर दिया और इस बात में बौद्ध लोगों का विवरण, ढुण्ढि का उपोद्घात तथा ग्रीक इतिहास-लेखक सभी सहमत हैं कि उसे राज-क्रोध के कारण पाटलिपुत्र छोड़ना पड़ा।

शकटार और वररूचि के सम्बन्ध की कथाएं जो कथा सरित्सागर में मिलती हैं, इस बात का संकेत करती हैं कि महापद्म के पुत्र बड़े उच्छृंखल और क्रूर शासक थे। गुप्त-षड्यन्त्रों से मगध पीड़ित था। राजकुल में भी नित्य नये उपद्रव, विरोध और द्वन्द्व चला करते थे, उन्हीं कारणों से चन्द्रगुप्त की भी कोई स्वतन्त्र परिस्थिति उसे भावी नियति की ओर अग्रसर कर कर रही थी। चाणक्य की प्रेरणा से चन्द्रगुप्त ने सीमाप्रान्त की ओर प्रस्थान किया।

महावंश के अनुसार बुद्ध-निर्वाण के 140 वर्ष बाद अन्तिम नन्द को राज्य मिला, जिसने 21वर्ष राज्य किया। इसके बाद चन्द्रगुप्त को राज्य मिला। यदि बुद्ध का निर्वाण 543 ई. पूर्व में मान लिया जाये, तो उसमें से नन्द राज्य तक का समय 162 वर्ष घटा देने से 381 ई. पूर्व में चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण की तिथि मानी जायेगी। पर यह सर्वथा भ्रमात्मक है, क्योंकि ग्रीक इतिहास-लेखकों ने लिखा है कि “तक्षशिला में जब 326 ई. पूर्व में सिकन्दर से चन्द्रगुप्त ने भेंट की थी, तब वह युवक राजकुमार था। अस्तु, यदि हम उसकी अवस्था उस समय 20 वर्ष के लगभग मान लें, जो कि असंगत न होगी, तो उसका जन्म 346 ई. पूर्व के लगभग हुआ होगा। मगध के राजविद्रोहकाल में वह 19 या 20 वर्ष का रहा होगा।”

मगध से चन्द्रगुप्त के निकलने की तिथि ई. पूर्व 327 या 328 निर्धारित की जा सकती है, क्योंकि 326 में तो वह सिकन्दर से तक्षशिला में मिला ही था। उसके प्रवास की कथा बड़ी रोचक है। सिकन्दर जिस समय भारतवर्ष में पदार्पण कर रहा था और भारतीय जनता के सर्वनाश का उपक्रम तक्षशिलाधीश्वर ने करना विचार लिया था – वह समय भारत के इतिहास में स्मरणीय है, तक्षशिला नगरी अपनी उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँच चुकी थी। यहाँ का विश्वविद्यालय पाणिनि और जीवक जैसे छात्रों का शिक्षक हो चुका था – वही तक्षशिला अपनी स्वतंत्रता पद-दलित कराने की आकांक्षा में आकुल थी और उसका उपक्रम भी हो चुका था। कूटनीतिचतुर सिकन्दर ने, जैसा कि ग्रीक लोग कहते है, 1000 टेलेंट (प्रायः 38, 00,000 रुपया) देकर लोलुप देशद्रोही तक्षशिलाधीश को अपना मित्र बनाया। उसने प्रसन्न मन से अपनी कायरता का मार्ग खोल दिया और बिना बाधा सिकन्दर को भारत में आने दिया। ग्रीक ग्रन्थकारों के द्वारा हम यह पता पाते हैं कि (ई. पूर्व 326 में) उसी समय चन्द्रगुप्त शत्रुओं से बदला लेने के उद्योग में अनेक प्रकार का कष्ट मार्ग में झेलते-झेलते भारत की अर्गला तक्षशिला नगरी में पहुँचा था। तक्षशिला के राजा ने भी महाराज पुरू से अपना बदला लेने के लिए भारत का द्वार मुक्त कर दिया था। उन्हीं ग्रीक ग्रन्थकारों के द्वारा पता चलता है कि चन्द्रगुप्त ने एक सप्ताह भी अपने को परमुखापेक्षी नहीं बना रखा और वह क्रुद्ध होकर वहाँ से चला आया। जस्टिनस लिखता है कि उसने अपनी असहनशीलता के कारण सिकन्दर को असंतुष्ट किया। वह सिकन्दर का पूरा विरोधी बन गया :

For having offended Alexander by his impertinent language he was ordered to be put to death, and escaped only by flight.

(JUSTINUS)

In History of A.S. Literature

सिकन्दर और चन्द्रगुप्त पंजाब में :

सिकन्दर ने तक्षशिलाधीश की सहायता से जेहलम को पार करके पोरस के साथ युद्ध किया। उस युद्ध में क्षत्रिय महाराज (पर्वतेश्वर) पुरु किस तरह लड़े और वह कैसा भयंकर युद्ध हुआ, यह केवल इससे ज्ञात होता है कि स्वयं जगद्विजयी सिकन्दर को कहना पड़ा-“आज हमको अपनी बराबरी का भीम-पराक्रम शत्रु मिला और यूनानियों को तुल्य-बल से आज युद्ध करना पड़ा।” इतना ही नहीं, सिकन्दर का प्रसिद्ध अश्व ‘बूकाफेलस इसी युद्ध में हत हुआ और सिकन्दर स्वयं भी आहत हुआ।

यह अनिश्चित है कि सिकन्दर को मगध पर आक्रमण करने को उत्तेजित्त करने के लिये ही चन्द्रगुप्त उसके पास गया था, अथवा ग्रीक-युद्ध की शिक्षापद्धति सीखने के लिए वहाँ गया था। उसने सिकन्दर से तक्षशिला में अवश्य भेंट की। यद्यपि उसका कोई कार्य वहाँ नहीं हुआ, पर उसे ग्रीकवाहिनी की रणचर्या अवश्य ज्ञात हुई; जिससे कि उसने पार्वत्य-सेना से मगध-राज्य का ध्वंस किया।

क्रमशः विस्तता, चन्द्रभागा, इरावती के प्रदेशों को विजय करता हुआ सिकन्दर विपाशा-तट तक आया और फिर मगध राज्य का प्रचण्ड प्रताप सुनकर उसने दिग्विजय की इच्छा को त्याग दिया और 325 ई. पू. में फिलिप नामक पुरुष को क्षत्रप बनाकर आप काबुल की ओर गया। दो वर्ष के बीच में चन्द्रगुप्त भी उसी प्रान्त में घूमता रहा और जब वह सिकन्दर का विरोधी बन गया था, तो उसी ने पार्वत्य जातियों को सिकन्दर से लड़ने के लिए उत्तेजित किया और जिनके कारण सिकन्दर को इरावती से पाटण तक पहुँचने में दस मास समय लग गया और इस बीच में इन आक्रमणकारियों से सिकन्दर की बहुत क्षति हुई। इस मार्ग में सिकन्दर को मालव जाति से युद्ध करने में बड़ी हानि उठानी पड़ी एक दुर्ग के युद्ध में तो उसे ऐसा अस्त्रघात मिला कि वह महीनों तक कड़ी बीमारी झेलता रहा। जल मार्ग से जाने वाले सिपाहियों को निश्चय हो गया था कि सिकन्दर मर गया। किसी-किसी का मत है कि सिकन्दर की मृत्यु का कारण यही घाव था।

सिकन्दर भारतवर्ष लूटने आया, पर जाते समय उसकी यह अवस्था हुई कि अर्थाभाव से अपने सेक्रेटरी यूडामिनिस से उसने कुछ द्रव्य माँगा और न पाने पर उसका कैम्प फुँकवा दिया। सिकन्दर के भारतवर्ष में रहने के ही समय में चन्द्रगुप्त द्वारा प्रचारित सिकन्दर द्रोहपूर्ण रूप से फैल गया था और इसी समय कुछ पार्वत्य राजा चन्द्रगुप्त के विशेष अनुगत हो गये थे। उनको रण-चतुर बनाकर चन्द्रगुप्त ने एक अच्छी शिक्षित सेना प्रस्तुत कर ली थी और जिसकी परीक्षा प्रथमतः ग्रीक सैनिकों ने ली। इसी गड़बड़ में फिलिप मारा गया3 और उस प्रदेश के लोग पूर्णरूप से स्वतन्त्र बन गये। चन्द्रगुप्त को पर्वतीय सैनिकों से बड़ी सहायता मिली और वे उसके मित्र बन गये। विदेशी शत्रुओं के साथ भारतवासियों का युद्ध देखकर चन्द्रगुप्त एक रणचतुर नेता बन गया। धीरे-धीरे उसने सीमावासी पर्वतीय लोगों को एक में मिला लिया। चन्द्रगुप्त और पर्वतेश्वर विजय के हिस्सेदार हुए और सम्मिलित शक्ति से मगध-राज्य विजय करने के लिए चल पड़े। अब यह देखना चाहिए कि चन्द्रगुप्त और चाण्क्य की सहायक सेना में कौन-कौन देश की सेनायें थीं और वे कब पञ्जाब से चले।

बहुत-से विद्वानों का मत है कि जो सेना चन्द्रगुप्त के साथ थी, वह ग्रीकों की थी। यह बात बिल्कुल असंगत नहीं प्रतीत होती। जब फिलिप तक्षशिला के समीप मारा गया, तो सम्भव है कि बिना सरदार की सेना में से किसी प्रकार पर्वतेश्वर ने कुछ ग्रीकों की सेना को अपनी ओर मिला लिया हो जो कि केवल धन के लालच से ग्रीस छोड़कर भारतभूमि तक आये थे। उस सम्मिलित आक्रमणकारी सेना में कुछ ग्रीकों का होना असम्भव नहीं है, क्योंकि मुद्राराक्षस के टीकाकार ढुण्ढि लिखते हैं –

नन्दाराज्यार्धपणनात्समुत्थाप्य महाबलम्।

पर्वतेन्द्रो म्लेच्छबलं न्यरुन्धत्कुसुमंपुरम्।

तैलंग महाशय लिखते है “The Yavanas referred in our play Mudrarakshasa were probably some of frontier tribes — “कुछ तो उस सम्मिलित सेना के नीचे लिखे हुए नाम हैं, जिन्हें कि महाशय तैलंग ने लिखा है :

मुद्राराक्षस – तैलंग –

शक -सीदियन

यवन (ग्रीक?) -अफगान

किरात -सेवेज़ ट्राइब

पारसीक -परशियन

वाल्हीक -क्ट्रियन

इस सूची को देखने से ज्ञात होता है कि ये सब जातियाँ प्रायः भारत की उत्तर पश्चिम सीमा में स्थित हैं। इस सेना में उपर्युक्त जातियाँ प्रायः सम्मिलित रही हों तो असम्भव नहीं है। चन्द्रगुप्त ने असभ्य सेनाओं को ग्रीक-प्रणाली से शिक्षित करके उन्हें अपने कार्य योग्य बनाया। मेरा अनुमान है कि यह घटना 323 ई. पू. में हुई, क्योंकि वही समय सिकन्दर के मरने का है। उसी समय यूडेमिस नामक ग्रीक कर्मचारी और तक्षशिलाधीश के कुचक्र से फिलिप के द्वारा पुरु (पर्वतेश्वर) की हत्या हुई थी। अस्तु, पञ्जाब प्रान्त एक प्रकार से अराजक हो गया और 322 ई. पू. में इन सबों को स्वतन्त्र बनाते हुए 321 ई. पू. में मगध-राजधानी पाटलिपुत्र को चन्द्रगुप्त ने जा घेरा।4

मगध में चन्द्रगुप्त :

अपमानित चन्द्रगुप्त बदला लेने के लिए खड़ा था; मगध राज्य की दशा बड़ी शोचनीय थी। नन्द आन्तरिक विग्रह के कारण जर्जरित हो गया था, चाणक्य-चालित म्लेच्छ सेना कुसुमपुर को चारों ओर से घेरे थी। चन्द्रगुप्त अपनी शिक्षित सेना को बराबर उत्साहित करता हुआ सुचतुर रण-सेनापति का कार्य करने लगा।

पन्द्रह दिन तक कुसुमपुर को बराबर घेरे रहने के कारण और बार-बार खण्ड.युद्ध में विजयी होने के कारण चन्द्रगुप्त एक प्रकार से मगधविजयी हो गया। नन्द ने, जो कि पूर्वकृत पापों से भीत और आतुर हो गया था, नगर से निकलकर चले जाने की आज्ञा माँगी। चन्द्रगुप्त इस बात से सहमत हो गया कि धननन्द अपने साथ जो कुछ ले जा सके ले जाये, पर चाणक्य की एक चाल यह भी थी, क्योंकि उसे मगध की प्रजा पर शासन करना था। इसलिए यदि धननन्द मारा जाता तो प्रजा के और विद्रोह करने की सम्भावना थी। इसमें स्थविरावली तथा ढुण्ढि के विवरण से मतभेद हैं, क्योंकि स्थविरावलीकार लिखते हैं कि चाणक्य ने धननन्द को चले जाने की आज्ञा दी, पर ढुण्ढि कहते हैं, चाणक्य के द्वारा शस्त्र से धननन्द निहत हुआ। मुद्राराक्षस से जाना जाता है कि वह विष-प्रयोग से मारा गया। पर यह बात पहले नन्दों के लिए सम्भव प्रतीत होती है।5 चाणक्य-नीति की ओर दृष्टि डालने से यही ज्ञात होता है कि जानबूझकर नन्द को अवसर दिया गया, और इसके बाद किसी गुप्त प्रकार से उसकी हत्या हुई हो।

कई लोगों का मत है कि पर्वतेश्वर की हत्या बिना अपराध चाणक्य ने की! पर जहाँ तक सम्भव है, पर्वतेश्वर को कात्यायन के साथ मिला हुआ जानकर ही चाणक्य के द्वारा विषकन्या पर्वतेश्वर को मिली और यही मत भारतेन्दु जी का भी है। मुद्राराक्षस को देखने से यही ज्ञात होता है कि राक्षस पीछे पर्वतेश्वर के पुत्र मलयकेतु से मिल गया था। सम्भव है उसका पिता भी वररूचि की ओर पहले मिल गया हो और इसी बात को जान लेने पर चन्द्रगुप्त की हानि की सम्भावना देखकर किसी उपाय से पर्वतेश्वर की हत्या हुई हो।

तात्कालिक स्फुट विवरणों से ज्ञात होता है कि मग्ध की प्रजा और समीपवर्ती जातियाँ चन्द्रगुप्त के प्रतिपक्ष में खड़ी हुई। उस लड़ाई में भी अपनी कूटनीति द्वारा चाणक्य ने आपस में भेद करा दिया। प्रबल उत्साह के कारण अविराम परिश्रम और अध्यवसाय से, अपने बाहुबल और चाणक्य के बुद्धिबल से, सामान्य भू-स्वामी चन्द्रगुप्त, मगध साम्राज्य के सिंहासन पर बैठा।

बौद्धों की पहली सभा कालाशोक या महापद्म के समय हुई। बुद्ध के 90 वर्ष बाद यह गद्दी पर बैठा और इसके राज्य के दस वर्ष बाद सभा हुई; उसके बाद उसने 18 वर्ष राज्य किया। वह 118 वर्ष का समय, बुद्ध के निर्वाण से कालाशोक के राजत्व-काल तक है।

कालाशोक का पुत्र 22 वर्ष तक राज्य करता रहा, उसके बाद 22 वर्ष तक नन्द; उसके बाद चन्द्रगुप्त को राज्य मिला (118 + 22 + 22 = 162) बुद्धनिर्वाण के 162 वर्ष बाद चन्द्रगुप्त को राज्य मिला। बुद्ध का समय यदि 543 ई. पू. माना जाये, तब तो 543-162 = 381 ई. पू. में ही चन्द्रगुप्त का राज्यारोहण निर्धारित होता है। दूसरा मत मैक्समूलर आदि विद्वानों का है कि बुद्ध-निर्वाण 477 ई. पू. में हुआ! इस प्रकार उक्त राज्यारोहण का समय 315 ई. पू. निकलता है। इससे ग्रीक समय का मिलान करने से तो एक तो 40 वर्ष बढ़ जाता है, दूसरा 5 या 6 वर्ष घट जाता है।

महावीर स्वामी के निर्वाण से 155 वर्ष बाद, चन्द्रगुप्त जैनियों के मत से राज्य पर बैठा, ऐसा मालूम होता है। आर्य-विद्या-सुधाकर के अनुसार 470 विक्रम पू. में महावीर स्वामी का वर्तमान होना पाया जाता है। इससे यदि 520 ई. पू. में महावीर स्वामी का नर्वाण मान लें, तो उसमें से 115 घटा देने से 165 ई. में चन्द्रगुप्त राज्यारोहण का समय होता है जो सर्वथा असम्भव है। यह मत भी बहुत भ्रमपूर्ण है।

पण्डित रामचन्द्रजी शुक्ल ने मेगास्थनीज की भूमिका में लिखा है कि 316 ई. पू. में चन्द्रगुप्त गद्दी पर बैठा और 292 ई. पू. तक उसने 24 वर्ष राज्य किया।

पण्डितजी ने जो पाश्चात्य लेखकों के आधार पर चन्द्रगुप्त का राज्यारोहण-समय लिखा है, वह भी भ्रम से रहित नहीं है, क्योंकि स्ट्राबो के मतानुसार 296 में Deimachos का मिशन बिन्दुसार के समय में आया था, यदि 292 तक चन्द्रगुप्त का राज्य-काल मान लिया जाये, तो डिमाकस चन्द्रगुप्त के राजत्व-काल ही में आया था, ऐसा प्रतीत होगा, क्योंकि शुक्लजी के मत में 316 ई. पू. से 292 ई. पू. तक चन्द्रगुप्त का राजत्व काल है; डिमाकस के ‘मिशन’ का समय 296 ई. पू. जिसके अन्तर्गत हो जाता है। यदि हम चन्द्रगुप्त का राज्यारोहण 321 ई. पू. में मानें, तो उसमें से उसका राजत्व-काल 24 वर्ष घटा देने से 297 ई. पू. तक उसका राजत्व-काल और 296 ई. पू. में बिन्दुसार का राज्यारोहण और डिमाकस के ‘मिशन’ का समय ठीक हो जाता है। ऐतिहासिकों का अनुमान है कि 25 वर्ष की अवस्था में चन्द्रगुप्त गद्दी पर बैठा यह भी ठीक हो जाता है। क्योंकि पूर्व-निर्धारित चन्द्रगुप्त के जन्म समय 346 ई. पू. से 25 वर्ष घटा देने से भी 321 ई. पू. ही बचता है, जिससे यह सिद्ध होता है कि चन्द्रगुप्त पाटलिपुत्र में मगध-राज्य के सिंहासन पर 321 ई. पू. में आसीन हुआ।

विजय :

उस समय गंगा के तट पर दो विस्तृत राज्य थे जैसा कि मेगास्थनीज लिखता है, एक प्राच्य (Prassi) और दूरा गंगारिडीज (Gangarideas)। प्राच्य राज्य में अवन्ति, कोसल, मगध, वाराणसी, बिहार आदि देश थे और दूसरा गंगरिडीज गंगा के उस भाग के तट पर था, जो कि समुद्र के समीप में था। वह बंगाल का था। गंगारिडीज और गौड़ एक ही देश का नाम प्रतीत होता है। गौड़ राज्य का राजा, नन्द के अधीन था। अवन्ति में भी एक मध्य प्रदेश की राजधानी थी, वह भी नन्दाधीन थी। बौद्धों के विवरण से ज्ञात होता है कि ताम्रलिप्ति6 जिसे अब तमलुक कहते हैं, मिदनापुर जिले में उस समय समुद्र-तट पर अवस्थित गंगारिडीज के प्रसिद्ध नगरों में था।

प्राच्य देश की राजधानी पालीवोथा थी, जिसे पाटलिपुत्र कहना असंगत न होगा। मेगास्थनीज लिखता है कि गंगारिडीज की राजधानी पर्थिलीस थी। डॉक्टर श्यानवक का मत है कि सम्भवतः यह वर्धमान ही था, जिसे ग्रीक लोग पार्थिलीस कहते थे। इसमें विवाद करने का अवसर नहीं है, क्योंकि वर्धमान गौड़ देश के प्राचीन नगरों में है और यह राजधानी के योग्य भूमि पर बसा हुआ है।

केवल नन्द को ही पराजित करने से, चन्द्रगुप्त को एक बड़ा विस्तृत राज्य मिला, जो आसाम से लेकर भारत के मध्यप्रदेश तक व्याप्त था।

अशोक के जीवनीकार लिखते हैं कि अशोक का राज्य चार प्रादेशिक शासकों से शासित होता था। तक्षशिला पञ्जाब और अफगानिस्तान की राजधानी थी; तोषली कलि की, अवन्ति मध्यप्रदेश की और स्वर्णगिरि भारतवर्ष के दक्षिण भाग की राजधानी थी। अशोक की जीवनी7 से ज्ञात होता है कि उसने केवल कलिंग ही विजय किया था। बिन्दुसार की विजयों की गाथा कहीं नहीं मिलती। मि. स्मिथ ने लिखा है – “It is more probable that the conquest of the south was the work of Bindusar.” परन्तु इसका कोई प्रमाण नहीं है।

प्रायद्वीप खण्ड को जीतकर चन्द्रगुप्त ने स्वर्णगिरि में उसका शासक रखा और सम्भवतः यह घटना उस समय की है, जब विजेता सिल्यूकस एक विशाल साम्राज्य की नींव सीरिया प्रदेश में डाल रहा था। वह घटना 316 ई. पू. में हुई।

इस समय चन्द्रगुप्त का शासन भारतवर्ष में प्रधान था और छोटे-छोटे राज्य यद्यपि स्वतन्त्र थे; पर वे भी चन्द्र्रगुप्त के शासन से सदा भयभीत होकर मित्रभाव का बर्ताव रखते थे। उसका राज्य पांडुचेर और कनानूर से हिमालय की तराई तक तथा सतलज से आसाम तक था। केवल कुछ राज्य दक्षिण में; जैसे – केरल इत्यादि और पञ्जाब में वे प्रदेश, जिन्हें सिकन्दर ने विजय किया था, स्वतन्त्र थे; किन्तु चन्द्रगुप्त पर ईश्वर की अपार कृपा थी, जिसने उसे ऐसा सुयोग दिया कि वह भी ग्रीस इत्यादि विदेशों में अपना आतंक फैलावे।

सिकन्दर के मर जाने के बाद ग्रीक जनरलों में बड़ी स्वतन्त्रता-अराजकता फैली। ई. पू. 323 में सिकन्दर मरा। उसके प्रतिनिधित्व.स्वरूप पर्दिकस शासन करने लगा; किन्तु इससे भी असन्तोष हुआ, सब जनरलों और प्रधान कर्मचारियों ने मिलकर एक सभा की। ई. पू. 321 में सभा हुई और सिल्यूकस बेबीलोन की गद्दी पर बैठाया गया। टालेमी आदि मिस्र के राजा समझे जाने लगे; पर आण्टिगोनस, जो पूर्वी एशिया का क्षत्रप था, अपने बल को बढ़ाने लगा और इसी कारण सब जनरल उसके विरुद्ध हो गये, यहाँ तक कि ग्रीक साम्राज्य से अलग होकर सिल्यूकस ने 312 ई. पू. में अपना स्वाधीन राज्य स्थापित किया। बहुत-सी लड़ाइयों के बाद सन्धि हुई और सीरिया इत्यादि प्रदेशों का आण्टिगोनस स्वतन्त्र राजा हुआ। थ्रेस में लिरीमाकस, मिस्र में टालेमी और बेबीलोन के समीप के प्रदेश में सिल्यूकस का आधिपत्य रहा। यह सन्धि 319 ई. पूर्व में हुई। सिल्यूकस ने उधर के विग्रहों को कुछ शान्त करके भारत की ओर देखा।

इसे भी वह ग्रीक साम्राज्य का एक अंश समझता था। आराकोशिया, बैक्ट्रिया, जेड्रोशिया आदि विजय करते हुए उसने 306 ई. पू. में भारत पर आक्रमण किया। चन्द्रगुप्त उसी समय दिग्विजय करता हुआ पञ्जाब की ओर आ रहा था और उसने जब सुना कि ग्रीक लोग फिर भारत पर चढ़ाई कर रहे हैं, वह भी उन्हीं की ओर चल पड़ा। इस यात्रा में ग्रीक लोग लिखते हैं कि उसके पास 6,00,000 सैनिक थे, जिसमें 30,000 घोड़े और 9,000 हाथी, बाकी पैदल थे।8 इतिहासों से पता चलता है कि सिन्धु तट पर यह युद्ध हुआ।

सिल्यूकस सिन्धु के उसी तीर पर आ गया, मौर्य-सम्राट् इस आक्रमण से अनभिज्ञ था। उसके प्रादेशिक शासक, जो कि उत्तर.पश्चिम प्रान्त के थे, बराबर सिल्यूकस का गतिरोध करने के लिये प्रस्तुत रहते थे; पर अनेक उद्योग करने पर भी कपिशा आदि दुर्ग सिल्यूकस के हस्तगत हो ही गये। चन्द्रगुप्त, जो कि सतलज के समीप से उसी और बराबर बढ़ रहा था, सिल्यूकस की क्षुद्र विजयों से घबड़ा कर बहुत शीघ्रता से तक्षशिला की ओर चल पड़ा। चन्द्रगुप्त के बहुत थोड़े समय पहले ही सिल्यूकस सिन्धु के इस पार उतर आया और तक्षशिला के दुर्ग पर चढ़ाई करने के उद्योग में था। तक्षशिला की सूबेदारी बहुत बड़ी थी। उस पर विजय कर लेना सहज कार्य न था। सिल्यूकस अपनी रक्षा के लिए मिट्टी की खाई बनवाने लगा।

चन्द्रगुप्त अपनी विजयिनी सेना लेकर तक्षशिला में पहुँचा और मौर्य-पताका तक्षशिला-दुर्ग पर फहराकर महाराज चन्द्रगुप्त के आगमन की सूचना देने लगा। मौर्य-सेना ने आक्रमण करके ग्रीकों की मिट्टी की परिखा और उनका ब्यूह नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। मौर्यों का वह भयानक आक्रमण उन लोगों ने बड़ी वीरता से सहन किया, ग्रीकों का कृत्रिम दुर्ग उनकी रक्षा कर रहा था; पर कब तक? चारों ओर से असंख्य मौर्य-सेना उस दुर्ग को घेरे थी। आपाततः उन्हें कृत्रिम दुर्ग छोड़ना पड़ा। इस बार भयानक लड़ाई आरम्भ हुई। मौर्य सेना का चन्द्रगुप्त स्वयं नायक था। असीम उत्साह से मौर्यों ने आक्रमण करके ग्रीक-सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया। लौटने की राह में बड़ी बाधा स्वरूप सिन्धु नदी थी, इसलिए अपनी टूटी हुई सेना को एक जगह उन्हें एकत्र करना पड़ा। चन्द्रगुप्त की विजय हुई। इसी समय ग्रीक जनरलों में फिर खलबली मची हुई थी। इस कारण सिल्यूकस शीघ्र ही सन्धि कर लेने पर बाध्य हुआ। इस सन्धि में ग्रीक लोगों को चन्द्रगुप्त और चाणक्य से सब ओर से दबना पड़ा।

इस सन्धि के समय में कुछ मतभेद है। किसी का मत है कि यह सन्धि 305 ई. पू. में हुई और कुछ लोग कहते हैं, 303 ई. पू. में। सिल्यूकस ने जो ग्रीक-सन्धि की थी, वह 311 ई. पू. में हुई; उसके बाद ही वह युद्ध यात्रा के लिए चल पड़ा। अस्तु आरकोशिया, जेड्रोशिया और बैक्ट्रिया आदि विजय करते हुए भारत तक आने में पाँच वर्ष से विशेष समय नहीं लग सकता और इसी से उस युद्ध का समय, जो कि चन्द्रगुप्त से उसका हुआ था, 306 ई. पू. माना गया। तब 305 ई. पू. में सन्धि का होना ठीक-सा जँचता है। सन्धि में चन्द्रगुप्त भारतीय प्रदेशों के स्वामी हुए। अफगानिस्तान और मकराना जँचता है। सन्धि में चन्द्रगुप्त भारतीय प्रदेशों के स्वामी हुए। अफगानिस्तान और मकराना भी चन्द्रगुप्त को मिला और उसके साथ-ही-साथ कुल पञ्जाब और सौराष्ट्र पर चन्द्रगुप्त का अधिकार हो गया।9 सिल्यूकस बहुत शीघ्र लौटने वाला था। 301 ई. पू. में होने वाले युद्ध के लिए, उसे तैयार होना था, जिसमें कि प्चेने के मैदान में उसने अपने चिरशत्रु आण्टिगोनस को मारा था, चन्द्रगुप्त को इस ग्रीक-विप्लव ने बहुत सहायता दी और उसने इसी कारण मनमाने नियमों से सन्धि करने के लिए सिल्यूकस को बाध्य किया।

पाटण आदि बन्दर भी चन्द्रगुप्त के अधीन हुये तथा काबुल में सिल्यूकस की ओर से एक राजदूत का रहना स्थिर हुआ। मेगास्थनीज ही10 प्रथम राजदूत नियत हुआ। यह तो सब हुआ, पर नीति-चतुर सिल्यूकस ने एक और बुद्धिमानी का कार्य यह किया कि चन्द्रगुप्त से अपनी सुन्दरी कन्या का पाणिग्रहण करा दिया, जिसे चन्द्रगुप्त ने स्वीकार कर लिया और दोनों राज्य एक सम्बन्ध-सूत्र में बंध गये जिस पर सन्तुष्ट होकर चन्द्रगुप्त ने 500 हाथियों की एक सेना सिल्यूकस को दी और अब चन्द्रगुप्त का राज्य भारतवर्ष में सर्वत्र- हो गया। रुद्रदामा के लेख से ज्ञात होता है कि पुष्पगुप्त11 उस प्रदेश का शासक नियत किया था जो सौराष्ट्र और सिन्ध तथा राजपूताना तक था। अब चन्द्रगुप्त के अधीन दो प्रादेशिक और हुए, एक तक्षशिला में दूसरा सौराष्ट्र में। इस तरह से अध्यवसाय का मित्रता में अपना गौरव समझते थे।

उत्तर में हिन्दुकुश, दक्षिण में पांडुचेरी और कनानूर, पूर्व में आसाम और पश्चिम में सौराष्ट्र, समुद्र तथा वाल्हीक तक चन्द्रगुप्त के राज्य की सीमा निर्धारित की जा सकती है।

चन्द्रगुप्त का शासन :

गंगा और शोण के तट पर मौर्य-राजधानी पाटलिपुत्र बसा था। दुर्ग पत्थर, ईंट तथा लकड़ी के बने हुये सुदृढ़ प्राचीर से परिवेष्टित था। नगर 80 स्टेडिया लम्बा और 30 स्टेडिया चौड़ा था। दुर्ग में 64 द्वार तथा 570 बुर्ज थे। सौध-श्रेणी, राजमार्ग, सुविस्तृत पण्य-वीथिका से नगर पूर्ण था और व्यापारियों की दुकानें अच्छी प्रकार सुशोभित और सज्जित रहती थीं। भारतवर्ष की केन्द्र-नगरी कुसुमपुरी वास्तव में कुसुमपूर्ण रहती थी। सुसज्जित तुरंगों पर धनाढ्य लोग प्रायः राजमार्ग में यातायात किया करते थे। गंगा के कूल में बने हुए सुन्दर राज-मन्दिर में चन्द्रगुप्त रहता और केवल तीन कामों के लिए महल के बाहर आता –

पहला, प्रजाओं का आवेदन सुनना, जिसके लिये प्रतिदिन एक बार चन्द्रगुप्त को विचारक का आसन ग्रहण करना पड़ता था। उस समय प्रायः तुरंग पर, जो आभूषणों से सजा हुआ रहता था, चन्द्रगुप्त आरोहण करता और प्रतिदिन न्याय से प्रजा का शासन करता था।

दूसरा, धर्मानुष्ठान बलि प्रदान करने के लिए, जो पर्व और उत्सव के उपलक्ष्यों पर होते थे। मुक्तागुच्छ-शोभित कारु-कार्य खचित शिविका पर (जो कि सम्भवतः खुली हुई होती थी) चन्द्रगुप्त आरोहण करता। इससे ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त वैदिक धर्मावलम्बी था; क्योंकि बौद्ध और जैन, ये ही धर्म उस समय वैदिक धर्म के प्रतिकूल प्रचलित थे। बलिप्रदानादिक कर्म वैदिक ही होता रहा होगा।

तीसरा, मृगया खेलने के समय कुञ्जर पर सवारी निकलती उस समय चन्द्रगुप्त स्त्री-गण से घिरा रहता था, जो धनुर्बाण आदि लिये उसके शरीर की रक्षा करता। उस समय राज-मार्ग डोरी से घिरा रहता था और कोई उसके भीतर नहीं जाने पाता था। चन्द्रगुप्त राजसभा में बैठता तो चार सेवक आबनूस के बेलन से उसका अंग संवाहन करते थे। यद्यपि चन्द्रगुप्त प्रबल प्रतापी राजा था, पर वह षड्यन्त्रों से शंकित होकर एक स्थान पर सदा नहीं रहता था, जिसका कि मुद्राराक्षस में कुछ आभास मिलता है, और मेगास्थनीज ने भी लिखा है।12

हाथी पहलवान, मेढ़ा और गौंडों की लड़ाई भी होती थी, जिसे राजा और प्रजा दोनों बड़े चाव से देखते थे। बहुत-से उत्सव भी नगर में हुआ करते थे।

प्रहरी स्त्रियाँ जो कि मोल ली जाती थीं, राजा के शरीर की सदा रक्षा करती थीं। वे रथों, घोड़ों और हाथियों पर राजा के साथ चलती थीं, राजदरबार बहुत आडम्बर से सजा रहता था, जो कि दर्शनीय रहता था, मेगास्थनीज़ इत्यादि ने इसका विवरण विस्तृत रूप से लिखा है।13 पाटलिपुत्र नगर मौर्य- राजधानी होने से बहुत उन्नत अवस्था में था।

राजधानी में नगर का शासन प्रबन्ध भी छः विभागों में विभक्त था और उनके द्वारा पूर्णरूप से नगर का प्रबन्ध होता था। मेगास्थनीज लिखता है कि प्रथम विभाग उन कर्मचारियों का था, जो विक्रय वस्तुओं का मूल्य-निर्धारण करता था। किसी शिल्पी के अंग-भंग करने से वहीं विभाग उन लोगों को दण्ड देता था। सम्भवतः यह विभाग म्युनिसिपैलिटी के बराबर था, जो कि पाँच सदस्यों से कार्य निर्वाह करता था।

द्वितीय विभाग विदेशियों के व्यवहार पर ध्यान रखता था। पीड़ित विदेशियों की सेवा करता था, उनके जाने के लिये वाहन आदि का आयोजन करना, उनके मरने पर उनकी सम्पत्ति की व्यवस्था करना और उन्हें जो हानि पहुँचाये, उसको कठोर दण्ड से दण्डित करना उसका कार्य था। इससे ज्ञात होता है कि व्यापार अथवा अन्य कार्यों के लिए बहुत- से विदेशी कुसुमपुर में आया करते थे।

तृतीय विभाग प्रजा के मरण और जन्म की गणना करता था और उन पर कर निर्धारित करता था।

चतुर्थ विभाग व्यापार का निरीक्षण करता था और तुला तथा नाप का प्रबन्ध करता था।

पंचम विभाग राजकीय कोष का था; जहाँ द्रव्य बनाये जाते और रक्षित रहते थे।

छठा विभाग राजकीय कर का था; जिसमें व्यापारियों के लाभ से दशमांश लिया जाता था और उन्हें खूब सावधानी से कार्य करना होता था। जो उस कर को न देता, वह कठोर दण्ड से दण्डित होता था।

राज्य के कर्मचारी लोग भूमि का नाप और उस पर कर-निर्धारण करते थे। और जल की नहरों का समुचित प्रबन्ध करते थे; जिससे सब कृषकों को सरलता होती थी। रुद्रदामा के गिरनार वाले लेख से प्रतीत होता है कि सुदर्शन हृद महाराज चन्द्रगुप्त के राजत्व-काल में बना था। इससे ज्ञात होता है कि राज्य में सर्वत्र- जल का प्रबन्ध रहता था तथा कृषकों के लाभ पर विशेष ध्यान रहता था।

राज्य के प्रत्येक प्रान्त में समाचार संग्रह करने वाले थे, जो सत्य समाचार चन्द्रगुप्त को देते थे। चाणक्य-सा बुद्धिमान् मंत्री चन्द्रगुप्त को बड़े भाग्य से मिला था और उसकी विद्वत्ता ऊपर लिखित प्रबन्धों से ज्ञात होती है। युद्धादि के समय में भी भूमि बराबर जोती जाती थी, उसके लिए कोई बाधा नहीं थी।

राजकीय सेना में, जिसे राजा अपने व्यय से रखते थे, रणतरी 2,000 थी।14 8,000 रथ, जो चार घोड़ों से जुते रहते थे, जिस पर एक रथी और दो योद्धा रहते थे। 4,00,000 पैदल असिचर्मधारी, धनुर्बाणधारी। 30,000 अश्वारोही। 90,000 रणकुञ्जर, जिन पर महावत लेकर 4 योद्धा रहते थे और युद्ध के भारवाही, अश्व के सेवक तथा अन्य सामग्री ढोनेवालों को मिलाकर 6,00,000 मनुष्यों की भीड़-भाड़ उस सेना में थी और उस सेना विभाग के प्रत्येक 6 विभागों में 5 सदस्य रहते थे।

प्रथम विभाग नौसेना का था। दूसरा विभाग युद्ध-सम्बन्धी भोजन, वस्त्र, कपड़े बाजा, सेवक और जानवरों के चारे का प्रबन्ध करता था। तीसरे वर्ग के अधीन पैदल सैनिक रहते थे। चौथा विभाग अश्वारोहियों का था। पाँचवाँ, युद्ध-रथ की देखभाल करता था। छठा युद्ध के हाथियों का प्रबन्ध करता था।

इस प्रकार सुरक्षित सेना और अत्युत्तम प्रबन्ध से चन्द्रगुप्त ने 24 वर्ष तक भारत भूमि का शासन किया। भारतवर्ष के इतिहास में मौर्य-युग का एक स्मरणीय समय छोड़कर 297 ई. पू. में मानवलीला संवरण करके चन्द्रगुप्त ने अपने सुयोग्य पुत्र के हाथ में राज-सिंहासन दिया।

सम्राट चन्द्रगुप्त दृढ़ शासक, विनीत, व्यवहार-चतुर, मेधावी, उदार, नैतिक, सद्गुणसम्पन्न तथा भारतभूमि के सपूतों में से एक रत्न था। बौद्ध ग्रन्थ, अर्थकथा और वायुपुराण से चन्द्रगुप्त का शासन 24 वर्षों का ज्ञात होता है जो 321 ई. पू. से 297 ई. पू. तक ठीक प्रतीत होता है।

चन्द्रगुप्त के समय का भारतवर्ष :

भारतभूमि अतीव उर्वरा थी; कृत्रिम जल स्रोत जो कि राजकीय प्रबन्ध से बने थे, खेती के लिये बहुत लाभदायक थे। प्राकृतिक बड़ी.बड़ी नदियाँ अपने तट के भू-भाग को सदैव उर्वर बनाती थीं। एक वर्ष में दो बार अन्न काटे जाते थे। यदि किसी कारण से एक फसल ठीक न हुई, तो दूसरी अवश्य इतनी होती कि भारतवर्ष को अकाल का सामना नहीं करना पड़ता था। कृषक लोग बहुत शान्तिप्रिय होते थे। युद्ध आदि के समय में भी कृषक लोग आनन्द से हल चलाते थे। उत्पन्न हुए अन्न का चतुर्थांश राजकोष में जाता था। खेती की उन्नति की ओर राजा का भी विशेष ध्यान रहता था। कृषक लोग आनन्द में अपना जीवन व्यतीत करते थे। दलदलों में अथवा नदियों के तटस्थ भू-भाग में, फल-फूल भी बहुतायत से उगते थे और वे सुस्वादु तथा गुणदायक होते थे।

जानवर भी यहाँ अनेक प्रकार के यूनानियों ने देखे थे। वे कहते हैं कि चौपाये यहाँ जितने सुन्दर और बलिष्ठ होते थे, वैसे अन्यत्र नहीं। यहाँ के सुन्दर बैलों को सिकन्दर ने यूनान भी भेजा था। जानवरों में जंगली और पालतू सब प्रकार के यहाँ मिलते थे। पक्षी भी भिन्न-भिन्न प्रदेशों में बहुत प्रकार के थे, जो अपने घोसलों में बैठकर भारत के सुस्वादु फल खाकर कमनीय कण्ठ से उसकी जय मनाते थे। धातु भी यहाँ प्रायः सब उत्पन्न होते थे। सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा और जस्ता इत्यादि यहाँ की खानों में से निकलते और उससे अनेक प्रकार के उपयोगी अस्त्र-शस्त्र, साज-आभूषण इत्यादि प्रस्तुत होते थे। शिल्प यहाँ का बहुत उन्नत अवस्था में था; क्योंकि उसके व्यवसायी सब प्रकार के कर से मुक्त होते थे। यही नहीं, उनको राजा से सहायता भी मिलती थी जिससे कि वे स्वछन्द होकर अपना कार्य करें। क्या विधि-विडम्बना है उसी भारत के शिल्प की, जहाँ के बनाये आडम्बर तथा शिल्प की वस्तुओं को देखकर यूनानियों ने कहा था – “भारत की राजधानी पाटलिपुत्र को देखकर फारस की राजधानी कुछ भी नहीं प्रतीत होती।”

शिल्पकार राज-कर से मुक्त होने के कारण राजा और प्रजा दोनों के हितकारी यन्त्र बनाता था; जिससे कार्यों में सुगमता होती थी।

प्लिनी कहता है कि “भारतवर्ष में मनुष्य पांच वर्ग के हैं – एक, जो लोग राजसभा में कार्य करते हैं, दूसरे सिपाही, तीसरे व्यापारी, चौथे कृषक और एक पांचवा वर्ग भी है जो कि दार्शनिक कहलाता है।’

पहले वर्ग के लोग सम्भवतः ब्राह्मण थे जो कि नीतिज्ञ होकर राजसभा में धर्माधिकार का कार्य करते थे। और सिपाही लोग अवश्य क्षत्रिय ही थे। व्यापारियों का वणिक सम्प्रदाय था । कृषक लोग शूद्र अथवा दास थे , पर वह दासत्व सुसभ्य लोगो की गुलामी नही थी ।

पाँचवाँ वर्ग उन ब्राह्मणो का था, जो संसार से एक प्रकार से अलग होकर ईश्वराराधना में अपना दिन बिताते तथा सदुपदेश देकर संसारी लोगो को आनन्दित करते थे । वे स्वयं यज्ञ करते थे और दूसरे को यज्ञ कराते थे, सम्भवत वे ही मनुष्यो का भविष्य कहते थे और यदि उनका भविष्य कहना सत्य न होता तो वे फिर उस सम्मान की दृष्टि से नही देखे जाते थे।

भारतवासियो का व्यवहार बहुत सरल था। यज्ञ को छोड़ कर वे मदिरा और कभी नहीं पीते थे। लोगो का व्यय इतना परिमित था कि सूद पर ऋण कभी नही लेते थे । भोजन वे लोग नियत समय में तथा अकेले ही करते थे । व्यवहार के वे लोग बहुत सच्चे होते थे, झूठ से उन लोगो को घृणा थी । बारीक मलमल के कामदार कपड़े पहन कर वे चलते थे । उन्हे सौन्दर्य का इतना ध्यान रहता था कि नौकर उन्हे छाता लगाकर चलता था। आपस में मुकदमे बहुत कम होते थे ।

विवाह एक जोड़ी बैल देकर होता था और विशेष उत्सव में आडम्बर से कार्य करते थे । तात्पर्य यह है कि, महाराज चक्रवर्ती चन्द्रगुप्त के शासन में प्रजा शान्तिपूर्वक निवास करती थी और सब लोग आनन्द से अपना जीवन व्यतीत करते थे । शिल्प-वाणिज्य की अच्छी उन्नति थी। राजा और प्रजा में विशेष सद्भाव था, राजा अपनी प्रजा के हित-साधन मे सदैव तत्पर रहता था । प्रजा भी अपनी भक्ति से राजा को सन्तुष्ट रखती थी। चक्रवर्ती चन्द्रगुप्त का शासन-काल भारत का स्वर्णयुग था ।

चाणक्य

इनके बहुत-से नाम मिलते है–विष्णुगुप्त, कौटिल्य, चाणक्य, वात्स्यायन, द्रु मिल इत्यादि इनके प्रसिद्ध नाम है । भारतीय पर्यटक इन्हे दक्षिण देशीय कोकणस्थ ब्राह्मण लिखते हैं और इसके प्रमाण में चे लिखते हैं कि दक्षिणदेशीय ब्राह्मण प्राय कूटनीतिपटु होते है । चाणक्य की कथाओ में मिलता है कि वह श्यामवर्ण के पुरुष तथा कुरूप थे, क्योकि इसी कारण से वह नन्द की सभा से श्राद्ध के समय हटाये गए। जैनियों के मत से चाणक्य गोल्ल-ग्रामवासी थे और जैनधर्मावलम्बी थे । वह नन्द द्वारा अपमानित होने पर नन्द-वश का नाश करने की प्रतिज्ञा करके बाहर निकल पडे़ और चन्द्रगुप्त से मिलकर उसे कौशल से नन्द-राज्य का स्वामी बना दिया।

बौद्ध लोग उन्हे तक्षशिला-निवासी ब्राह्मण बतलाते हैं और कहते हैं कि धनानन्द को मार कर चाणक्य ही ने चन्द्रगुप्त को राज्य दिया। पुराणों में मिलता है “कौटिल्यो नाम ब्राह्मण समुद्धरिष्यति।” अस्तु। सब की कथाओं का अनुमान करने से जाना जाता हैं कि चाणक्य ही चन्द्रगुप्त की उन्नति के मूल हैं।

कामदकीय नीतिसार में लिखा है―

यस्याभिचारबज्रेण बज्रज्वलनतेजस।

पपात मूलतः श्रीमान्सुपर्वानन्दपर्वत॥

एकाकी मंत्रशक्त्या य शक्त शक्तिधरोपम।

आजहार नृचन्द्राय चन्द्रगुप्ताय मेदिनीम्॥

नीतिशास्त्रामृत धीमानर्थशास्त्रमहोदधे।

य उद्दध्रे नमस्तस्मै विष्णुगुप्ताय वेधसे॥

चन्द्रगुप्त का प्रधान सहायक मंत्री चाणक्य ही था। पर यह ठीक नहीं ज्ञात होता कि वह कहाँ का रहने वाला था। जैनियों के इतिहास से बौद्धों के इतिहास को लोग प्रामाणिक मानते हैं। हेमचन्द्र ने जिस भाव में चाणक्य का चित्र अंकित किया हैं, वह प्रायः अस्वाभाविक घटनाओं से पूर्ण है।

जैन-ग्रन्थों और प्रबन्धों में प्रायः सभी को जैनधर्म में किसी-न-किसी प्रकार आश्रय लेते हुए दिखाया गया है। यही बात चन्द्रगुप्त के सम्बन्ध में भी है। श्रवण बोलगोलावालें लेख के द्वारा जो किसी जैन मुनि का हैं, चन्द्रगुप्त को राज छोड़ कर यति-धर्म ग्रहण करने का प्रमाण दिया जाता है। अनेको ने तो यहाँ तक कह डाला हैं कि उसका साथी चाणक्य भी जैन था।

अर्थशास्त्र के मंगलाचरण का प्रमाण देकर यह कहा जाता हैं कि (नमः शुक्रवृहस्पतिभ्या) ऐसा मंगलाचरण आचार्यों के प्रति कृतज्ञता[ 49 ] सूचक वैदिक हिन्दुओ का नही हो सकता , क्योकि वे प्राय ईश्वर को नमस्कार करते है। किन्तु कामसूत्र के मगलाचरण के सम्बन्ध में क्या होगा, जिसका मगलाचरण है “नमो धर्मार्थकामेभ्यो ।” इसमे भी तो ईश्वर की वदना नही की गई है । तो क्या वात्स्यायन भी जैन थे ? इसलिए यह सब बाते व्यर्थ है। जैनो के अतिरिक्त जिन लोगो का चरित्र उन लोगो ने लिखा है, उसे अद्भुत, कुत्सित और अप्रासंगिक बना डाला है । स्पष्ट प्रतीत होता है कि कुछ भारतीय चरित्रो को जैन ढाँचे में ढालने का जैन संस्कृत-साहित्य द्वारा असफल प्रयत्न किया गया है । यहाँ तक उन लोगो ने लिख डाला हैं कि चन्द्रगुप्त को भूख लगी तो चाणक्य ने एक ब्राह्मण के पेट से गुलगुले निकाल कर खिलाए । ऐसी अनेक आश्चर्यजनक कपोलकल्पनाओं के आधार पर चन्द्रगुप्त और चाणक्य को जैन बनाने का प्रयत्न किया जाता है ।

इसलिए बौद्धों के विवरण की ओर ही ध्यान आकर्षित होता है ? बौद्ध लोग कहते हैं कि “चाणक्य तक्षशिला-निवासी थे” और इधर हम देखते है कि तक्षशिला

में उस समय विद्यालय था जहाँ कि पाणिनि, जीवक आदि पढ़ चुके थे । अस्तु, सम्भवत चाणक्य, जैसा कि बौद्ध लोग कहते हैं, तक्षशिला में रहते या पढ़ते थे । जब हम चन्द्रगुप्त की सहायक सेना की ओर ध्यान देते हैं, तो यह प्रत्यक्ष ज्ञात होता है कि चाणक्य का तक्षशिला से अवश्य सम्बन्ध था, क्योकि चाणक्य अवश्य उनसे परिचित थे। नही तो वे लोग चन्द्रगुप्त को क्या जानते ? हमारा यही अनुमान है कि चाणक्य मगध के ब्राह्मण थे । क्योकि मगध में नन्द की सभा में वे अपमानित हुए थें। उनकी जन्मभूमि पाटलीपुत्र ही थी।

(कनिंगहम साहब वर्तमान शाह देहरी के समीप में तक्षशिला, का होना मानते है । रामचन्द्र के भाई भरत के दो पुत्रों के नाम से उसी ओर दो नगरियाँ बसाई गई थी, तक्ष के नाम से तक्षशिला और पुष्कल के नाम से पुष्कलावती । तक्षशिला का विद्यालय उस समय भारत के प्रसिद्ध विद्यालयों में से एक था ।)

पाटलीपुत्र इस समय प्रधान नगरी थी, चाणक्य तक्षशिला में विद्याध्ययन करके वहाँ से लौट आये। किसी कारणवश वह राजा पर कुपित हो गए, जिसके बारे में प्राय सब विवरण मिलते-जुलते है। वह ब्राह्मण भी प्रतिज्ञा करके उठा कि आज से जब तक नन्दवंश का नाश न कर लूँगा, शिखा न बाँधूँगा और फिर चन्द्रगुप्त को मिलाकर जो-जो कार्य उन्होने किए, वह पाठको को ज्ञात ही है।

जहाँ तक ज्ञात होता है, चाणक्य वेदधमविलम्वी, कूटराजनीतिज्ञ, प्रखर प्रतिभावान और हठी थें।

उनकी नीति अनोखी होती थी और उनमें अलौकिक क्षमता थी, नीति-शास्त्र के आचार्यों में उनकी गणना हैं। उनके बनाये नीचे लिखे हुए ग्रन्थ बतलाये जाते है―चाणक्यनीति, अर्थशास्त्र, कामसूत्र और न्यायभाष्य।

यह अवश्य कहना होगा कि वह मनुष्य बड़ा प्रतिभाशाली या जिसके बुद्धिबल-द्वारा, प्रशसित राजकार्य-क्रम से चन्द्रगुप्त ने भारत का साम्राज्य स्थापित करके उस पर राज्य किया।

अर्थशास्त्र में स्वंय चाणक्य ने लिखा है—

येन शस्त्र च शास्त्र च नन्दराजागता च भू।

अमर्षेणोद्धृतान्याशु तन शास्त्रमिद कृतम्॥

काशी —जयशंकर प्रसाद

सं॰ 1966

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