कहानी- नारी-हृदय

शहर में प्लेग था। लोग धड़ाधड़ मर रहे थे। बीमारी भी ऐसी थी–बीमार पड़ते ही लाश निकलते देर न लगती। सब लोग शहर छोड़-छोड़कर बाहर जंगलों में या झोपड़े बनाकर रहने के लिए भागने लगे। न चाहते हुए भी मुझे शहर छोड़ना पड़ा। मुझे यहाँ से भागना अच्छा न लगता था। घर में मैंने सब को प्लेग का टीका लगवा दिया था और शाम को पाँच-पाँच बूँद प्लेगक्योर भी पिला दिया करता था। इच्छा थी कि शहर में ही बना रहूँ। कौन यहाँ से वहाँ भागने का झंझट करे।
 
वैसे ही खर्च के मारे हैरान था। फिर और लोगों की तरह मैं झोपड़ा बनाकर भी तो न रह सकता था ? वकालत की शान में फरक न पड़ जाता ? रहना तो मुझे बँगले पर ही पड़ेगा, और इन दिनों बँगले के मालिकों का दिमाग तो सातवें आसमान पर ही रहता है, सौ, पचहत्त और पचास से नीचे तो वह बात ही नहीं करते। फिर आजकल की आमदनी में किराए का कम-से-कम पचास रुपए माहवारी ही रख लो तो चार महीने में दो सौ हो जाते हैं; मुश्किल ही समझो, पर करता क्या ? अपने प्रयत्न भर तो मैंने शहर में ही रहे आने की कोशिश की पर मेरी स्त्री ने न माना। उसने, जब तक मैं मकान बदल कर बँगले पर रहने न चला गया, मेरा खाना-पीना और सोना हराम कर दिया। उसकी जरा-सी बच्ची थी, जिसके लिए वह इतनी व्याकुल रहती जैसे सारे शहर भर का प्लेग उसी पर फट पड़ेगा।
 
कचहरी की छुट्टी थी। मैं अपने ऑफिस वाले कमरे में एक नौकर की सहायता से अपनी कानून की किताबें जमा रहा था। कमरे में कई आलमारियाँ थीं। मैं उन्हें साफ करवा के वहाँ अपनी पुस्तकें और अन्य वस्तुएँ तरतीबवार रखवा रहा था। उन आलमारियों से रद्दी कागजों के साथ एक लिफाफा भी वजन से जरा भारी होने के कारण खट-से नीचे गिर पड़ा। मैंने उसे गिरते देखा, किंतु उदासीन भाव से फिर अपने काम में लग गया। मैं कमरे से बाहर जाने लगा, लिफाफा फिर पैरों से टकराया। इस बार मैंने उसे उठा लिया, उठाकर देखा तो उस पर किसी का पता तो न था, पर वह मजबूत डोर से कसकर बाँधा गया था, और मैंने जेब में रख लिया। दिन-भर कार्य की अधिकता के कारण मुझे उसकी याद ही नहीं रही।
शाम को जब मैं भोजन करके लेटा तो क्रम-क्रम से दिन भर की घटनाओं पर विचार करने लगा। एकाएक मुझे उस लिफाफे की याद आ गई। मैंने बिस्तर से उठकर कोट की जेब से लिफाफा निकाला और कैंची से घागे को काट कर सावधानी से खोला, देखा तो उसमें किसी स्त्री के लिए हुए कुछ पत्र थे। उत्सुकता और बढ़ी, मैंने पत्रों की तारीख वार पढ़ना प्रारंभ किया। पहला पत्र इस प्रकार था।
 
पत्र-1
 
शांति-सरोवर
01-09-1931
 
मेरे देवता !
मुझे मालूम है कि आप मुझसे नाराज हैं। थोड़ा भी नहीं, बहुत अधिक। यहाँ तक कि आप दो अक्षर लिखकर अपना कुशल-समाचार देना भी उचित नहीं समझते। आपकी इस नाराज़गी का कारण भी मुझसे छिपा नहीं है।
 
मैं ही जानती हूँ कि किन परिस्थितियों में पड़कर मैं आपकी आज्ञा का उल्लंघन कर रही हूँ। यदि आप मेरे स्थान पर होते तो आप भी वही करते, जो मैं करती हूँ।
अंत में मैं आप से यही निवेदन करती हूं कि आप मुझसे नाराज न हों। अपने कुशल-समाचार का पत्र भेजकर अनुगृहीत करें।
 
आपकी ही
प्रमिला
 
पत्र-2
 
शांति-सरोवर
10-09-1931
 
मेरे सर्वस्व !
उस दिन पत्र भेजकर कई दिनों तक उत्तर की प्रतीक्षा करती रही, किंतु आज तक आपका एक भी पत्र नहीं मिला। उत्सुक नेत्रों से रोज पोस्टमैन की राह देखती हूँ। वह आता है और मेरे दरवाजे की तरफ बिना मुड़े हुए ही चला जाता है। सब के पास चिट्ठियाँ आती हैं, परंतु मेरे पत्थर के देवता ! आप न पसीजे, आपके पत्र एक भी न आए। न जाने कितने तरह के विचार आपके दिमाग में आते और जाते होंगे, और आप न जाने क्या क्या सोच रहे होंगे। कदाचित् आप सोचते हों कि मैं बड़ी अकृतज्ञ, मूर्खा और अभिमानिनी हूँ। जिन लोगों ने मेरे साथ इतनी भलाई की, मुझे सर आँखों पर रखा उन्हीं के साथ कृतघ्ना कर रही हूँ। यही है न ? किंतु मैं क्या करूँ ? मैं परवश हूँ, पत्र में कुछ लिख नहीं सकती। यदि आप कभी मुझसे मिलने का कष्ट करेंगे, अपने चरणों में दर्शन का सौभाग्य देंगे, तब मैं आपके चरणों पर सर रखकर आपको समझा दूँगी–आपको बतला दूँगी कि मैं अपराधिनी नहीं हूँ, तब आप जान सकेंगे कि मैं कितनी विवश और कितनी निरुपाय हूँ। नाराज तो उसी से हुआ जाता है जो नाराजी सह सके। किंतु आप नाराज हैं, मुझसे ! जो न जाने कितने मील की दूरी पर है। जो हर प्रकार से विवश है। जिसे आपको छूने तक का अधिकार नहीं, जो केवल आपकी कृपादृष्टि की भिखारिन है। आह ! यदि आप मेरी विवशता का कुछ भी अनुभव करते ?….
 
आप मुझसे हँसकर बात करते हैं, मैं हँस देती हूँ, अपने को धन्य समझती हूँ। कल से आप मुझसे बात ही न करना चाहें तो मैं आपका क्या कर सकती हूँ ? मुझे क्या अधिकार है सिवा इसके कि कलेजे पर पत्थर रखकर, सब चुपचाप सह लूँ। मैं खुलकर रो भी तो नहीं सकती, मुझे इतना भी तो अधिकार नहीं है। आपने नाराज होकर पत्र लिखना बंद कर दिया है, कल यदि आपको मेरी शक्ल से भी नफरत हो जाए, तो भला सिवा रोने के मेरे पास और क्या बच रहेगा। मुझ सरीखी तो आपके घर चार दासियाँ होंगी। किंतु मेरा दुनिया में कौन है। मैं तो घर-बाहर की ठुकराई हुई अभागिन अबला हूँ। आपने दया करके मुझे सम्मान, आदर और अपने हृदय में आश्रय दिया है। उसे इस निर्दयता से न छोड़िए। एक बार मुझसे मिल लीजिए। इसके बाद जैसी आपकी धारणा हो पैसा कीजिए। आप मुझे जिस दंड की अधिकारिणी समझेंगे, मैं उसे सहने के लिए तैयार हूँ। आप मुझे अपने चरणों से दूर कर देंगे, तो भी मैं आपकी ही रहूँगी। समाज की आँखों में नहीं, अपनी और परमात्मा की आँखों में ! आप मुझे भले ही अपनी न समझें, परंतु मैं तो आजीवन आपको देवता की तरह पूजती रहूँगी। मेरा अटल विश्वास है कि आप सबके होने के बाद, थोड़े से मेरे भी हैं। कभी साल-छह महीने में मिनट-दो-मिनट के लिए सही; मुझे भी आपके चरणों की सेवा करने का अधिकार है।
 
उत्तर की प्रतीक्षा में
अभागिन प्रमिला
 
पत्र-3
 
शांति-सरोवर
30-09-1931
 
मेरे स्वामी !
यह तो हो ही नहीं सकता कि मेरे पत्र आपको मिलते ही न हों। क्षण भर के लिए यह मान लिया कि मेरे पत्र आपको मिले ही नहीं। फिर भी क्या एक कार्ड पर दो शब्द लिखकर आप मेरे पत्र न भेजने का कारण न पूछ सकते थे, खैर, आप अपनी मनमानी कर लीजिए। मैं हूँ भी इसी योग्य, कहा भी गया है–जैसा देव वैसी पूजा। आपने मुझे ठुकराकर; मेरी अवहेलना करके उचित ही किया है। इसमें मैं आपको दोष कैसे दूँ ? जिसका जन्म ही अपमान, अवहेलना और अनादर सहने के लिए हुआ हो, वह उससे अधिक अच्छी वस्तु की आशा ही क्यों करे ? अपने आपको भूल गई थी। आज मेरी आँखें खुल गईं। मुझे अपनी थाह मिल गई। मेरी समझ में आ गया कि मैं कहाँ हूँ।
 
परमात्मा ने स्त्री-जाति के हृदय में इतना विश्वास, इतनी कोमलता और इतना प्रेम शायद इसीलिए भर दिया है कि वह पग-पग पर ठुकराई जावे। जिस देवता के चरणों पर हम अपना सर्वस्व चढ़ाकर, केवल उसकी कृपा-दृष्टि की भिखारिन बनती है, वही हमारी तरफ आँखें उठाकर देखने में अपना अपमान समझता है। माना कि मैं समाज की आँखों में आपकी कोई नहीं। किंतु एक बार अपना हृदय तो टटोलिए, और सच बतलाइए क्या मैं आपकी कोई नहीं हूँ। समाज के सामने अग्नि की साक्षी देकर हम विवाह-सूत्र में अवश्य नहीं बँधे, किंतु शिवजी की मूर्ति के सामने भगवान् शंकर को साक्षी बनाकर क्या आपने मुझे नही अपनाया था ? यह बात गलत तो नहीं है। मैं जानती हूँ कि आप यदि मुझसे बिलकुल न बोलना चाहें, तब भी मैं आपकी कुछ नहीं कर सकती। यदि किसी से कुछ कहने भी जाऊँ तो सिवा अपमान और तिरस्कार के मुझे क्या मिलेगा ? आपको तो कोई कुछ भी न कहेगा, आप फिर भी समाज में सिर ऊँचा करके बैठ सकेंगे। किंतु मेरे लिए कौन-सा स्थान रहेगा ? अभी रूखा-सूखा टुकड़ा खाकर, जहाँ रात को सो रहती हूँ, फिर वहाँ से भी ठोकर मारकर निकाल दी जाऊँगी, और उसके बाद गली-गली की भिखारिन बन जाने के अतिरिक्त मेरे पास दूसरा क्या साधन बच रहेगा ? संभव है आप मुझे दुराचारिणी या पापिन समझते हों; और इसीलिए बहुत सोच-विचार के बाद आपने मुझसे संबंध-त्याग में ही कुशलता समझी हो, और पत्र लिखना बंद कर दिया हो।
 
खैर, आप मुझे कुछ भी समझें, परमात्मा ऊपर से देखता है कि मैं क्या हूँ, दुराचारिणी हूँ या नहीं, पापिन हूँ या क्या ? इसका साक्षी तो ईश्वर ही है, मैं अपने मुँह से अपनी सफाई क्या दूँ ? अब केवल यही प्रार्थना है कि मुझे क्षमा करें, मेरी त्रुटियों पर ध्यान न दें; और कृपाकर मेरे पत्र का उत्तर भी न दें। क्योंकि अब आपका पत्र पढ़ने के लिए, शायद मैं संसार में भी न रहूँ।
 
अभागिनी
प्रमिला
 
पत्र पढ़कर मैंने एक ठंडी साँस ली और करवट बदली, देखा, न जाने कब से मेरी स्त्री सुशीला मेरे सिरहाने खड़ी है। मुझे देखते ही वह भागी, मैंने दौड़कर उसकी धोती पकड़ ली और उसे पलंग तक खींच लाया। उसे जबरन पलंग पर बैठाकर मैंने पूछा–तुम भागी क्यों जा रही थी ?
‘तुम बड़े कठोर हो,’ उसने मुँह फेरे-फेरे उत्तर दिया।
‘क्यों ?’ मैंने उसका मुँह अपनी तरफ फेरते हुए पूछा, ‘मैं कठोर कैसे हूँ ?’
अपनी आँखों के आँसू पोंछती हुई वह बोली, यदि तुम निभा नहीं सकते थे, तो उस बेचारी को इस रास्ते पर घसीटा ही क्यों ?
 
मुझे हँसी आ गई, हालाँकि प्रमिला के पत्रों को पढ़ने के बाद, मेरे हृदय में भी एक प्रकार का दर्द-सा हो रहा था। मुझे स्त्रियों की असहायता, उनकी विवशता और उनके कष्टों से बड़ी तीव्र मार्मिक पीड़ा हो रही थी।
मैंने किंचित् मुस्कराकर कहा, पगली ! यह पत्र मेरे लिए नहीं लिखे गए।
उसकी भवें तन गईं, बोली, तो भला छिपाते क्यों हो ? मैं क्या बुरा मानती हूँ ? बुरा मानती जरूर, यदि मैं प्रमिला के पत्र न पढ़ चुकी होती। पत्र पढ़ने के बाद तो मुझे उस पर क्रोध के बदले दया ही आती है। यदि तुम मुझे उसका पता बता दो तो मैं स्वयं उसे यहाँ लिवा लाऊँ। बेचारी का जीवन कितना दुखी है।
 
मैंने कहा, भला मैं कभी तुमसे झूठ बोला है ? यह पत्र मुझे आज इसी कोठरी में रद्दी कागजों में मिले हैं। जिस लिफाफे में ये बंद थे वह भी यह है, देखो ! कहते हुए मैंने लिफाफा उठाकर सुशीला के सामने रख दिया।
सुशीला ने एक बार लिफाफे की ओर, और फिर मेरी ओर देखे हुए कहा, तुम्हीं क्या, पुरुष मात्र ही कठोर होते हैं।
 
 
(यह कहानी ‘उन्मादिनी’ कहानी संग्रह में संकलित है। जिसका प्रकाशन सन् 1934 में हुआ था। यह सुभद्राकुमारी चौहान का दूसरा कहानी संग्रह है।)
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