कविता- मेरे भोले सरल हृदय ने

मेरे भोले सरल हृदय ने कभी न इस पर किया विचार-
विधि ने लिखी भाल पर मेरे सुख की घड़ियाँ दो ही चार!
छलती रही सदा ही आशा मृगतृष्णा-सी मतवाली,
मिली सुधा या सुरा न कुछ भी, दही सदा रीती प्याली।
मेरी कलित कामनाओं की, ललित लालसाओं की धूल,
इन प्यासी आँखों के आगे उड़कर उपजाती है शूल।
उन चरणों की भक्ति-भावना मेरे लिये हुई अपराध,
कभी न पूरी हुई अभागे जीवन की भोली-सी साध।
आशाओं-अभिलाषाओं का एक-एक कर हृास हुआ,
मेरे प्रबल पवित्र प्रेम का इस प्रकार उपहास हुआ!
दुःख नहीं सरबस हरने का, हरते हैं, हर लेने दो,
निठुर निराशा के झोंकों को मनमानी कर लेने दो।
हे विधि, इतनी दया दिखाना मेरी इच्छा के अनुकूल-
उनके ही चरणों पर बिखरा देना मेरा जीवन-फूल।
प्रियतम मिले भी तो हृदय में अनुराग की आग
लगाकर छिप गये, रूखा व्यवहार करने लगे

मेरी जीर्ण-शीर्ण कुटिया में चुपके चुपके आकर।
निर्मोही! छिप गये कहाँ तुम? नाइक आग लगाकर॥
ज्यों-ज्यों इसे बुझाती हूँ- बढ़ती जाती है आग।
निठुर! बुझा दे, मत बढ़ने दे, लगने दे मत दाग़॥
बहुत दिनों तक हुई प्ररीक्षा अब रूखा व्यवहार न हो।
अजी बोल तो लिया करो तुम चाहे मुझ पर प्यार न हो॥
जिसकी होकर रही सदा मैं जिसकी अब भी कहलाती।
क्यों न देख इन व्यवहारों को टूक-टूक फिर हो छाती?

देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं।
सेवा में बहुमूल्य भेंट वे कई रंग के लाते हैं॥
धूम-धाम से साज-बाज से वे मन्दिर में आते हैं।
मुक्ता-मणि बहुमूल्य वस्तुएँ लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं॥
मैं ही हूँ ग़रीबिनी ऐसी जो कुछ साथ नहीं लाई।
फिर भी साहसकर मन्दिर में पूजा करने आई॥
धूप-दीप नैवेद्य नहीं है, झाँकी का शृंगार नहीं।
हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं॥
मैं कैसे स्तुति करूँ तुम्हारी? है स्वर में माधुर्य नहीं।
मन का भाव प्रगट करने को, बाणी में चातुर्य नहीं॥
नहीं दान है, नहीं दक्षिणा खाली हाथ चली आई।
पूजा की विधि नहीं जानती फिर भी नाथ! चली आई॥
पूजा और पुजापा प्रभुवर! इसी पुजारिन को समझो।
दान-दक्षिणा और निछावर इसी भिखारिन को समझो॥
मैं उन्मत, प्रेम की लोभी हृदय दिखाने आई हूँ।
जो कुछ है, बस यही पास है, इसे चढ़ाने आई हूँ॥
चरणों पर अर्पित है इसको चाहो तो स्वीकार करो।
यह तो वस्तु तुम्हारी ही है, ठुकरा दो या प्यार करो॥

 

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