आग और धुआं

चार 

मीरजाफर नवाब हुआ और धूर्त स्क्वेफन उसका एजेण्ट बनकर दरबार में विराजा। वारेन हेस्टिग्स उसका सहायक बनाया गया। कुछ दिन बाद जब स्क्वेफन कौंसिल में सभ्य नियत हुआ-तब, उक्त गौरव का पद वारेन हेस्टिग्स को मिला। यह पद बड़ी जिम्मेदारी का था। एजेण्ट के ऊपर दो बातों की कठिन जिम्मेदारियाँ थीं-एक यह कि कम्पनी की आय और उसके स्वार्थ में विघ्न न पड़े। दूसरे, नवाव कहीं सिर उठाकर सबल न हो जाय। नवाब यदि वेश्याओं और शराब में अधिकाधिक गहराई में लिप्त हो, तो एजेण्ट को कुछ चिन्ता न थी। उनकी चिन्ता का विषय सिर्फ यह था कि कहीं नवाब सैन्य को तो पुष्ट नहीं कर रहा है? राज्य-रक्षा की तरफ तो उसका ध्यान नहीं है?

इन सबके सिवा जाफर ने नकद रुपया न होने पर सन्धि के अनुसार अंग्रेजों को कुछ जागीरें दी थीं। उनकी मालगुजारी वसूली का भी उसी पर भार था। साथ ही, फ्रांसीसियों की छूत से नवाब को सर्वदा बचाना भी आवश्यक था। हेस्टिग्स ने बड़ी मुठमर्दी से उक्त पद के योग्य अपनी योग्यता प्रमाणित की।

पर मीरजाफर देर तक नवाब न रह सका। लोगों से वह घमण्डपूर्ण व्यवहार और झगड़े करने लगा। मुसलमान-हिन्दू, सब उससे घृणा करते थे। उधर अंग्रेजों ने रुपये के लिये दस्तक भेज-भेजकर उसका नाक-दम कर दिया। मीरजाफर को प्रतिक्षण अपनी हत्या का भय बना रहता था। निदान, तीन ही वर्ष के भीतर मीरजाफर का जी नवाबी से ऊब गया और अन्त में अंग्रेजों ने उसे अयोग्य कहकर गद्दी से उतार, कलकत्ते में नजर-बन्द कर दिया। उसका दामाद मीरकासिम बंगाल का नवाब बना। जाफर की पेन्शन नियत की गई।

गद्दी पर अधिकार तो मीरन का था जो मीरजाफर का पुत्र था, पर वहाँ अधिकार की बात ही न थी। वहां तो गद्दी नीलाम की गई थी। अंग्रेज बनियों की पैसे की प्यास भयंकर थी। मीरकासिम ने उसे बुझाया।

अंग्रेजों की अमित धन की मांगों को पूरा करने के लिए नवाबी खजाने में रुपया नहीं था। इसलिये उन्हें अपनी पहले की शर्तों की रकम में से आधा ही लेकर सन्तोष करना पड़ा। इस रकम की भी एक-तिहाई रकम नवाब के सोने-चांदी के बर्तन वेचकर संग्रह की गई, और इस भुगतान के बाद नवाबी खजाने में फूटी कौड़ी न बची थी। मीरकासिम के नवाब होने पर हेस्टिग्स कौंसिल का मेम्बर होकर कलकत्ते आ गया और उसकी जगह पर एलिस साहब एजेण्ट बने। एलिस साहब कलह-प्रिय एवं बहुत ही बुरे आदमी थे, और वे जिस पद पर नियुक्त किये गये थे, उसके योग्य न थे।

नवाब और एजेण्ट की न बनी। बात-बात पर दोनों में झगड़े होने लगा। आखिर तंग आकर नवाब ने कलकत्ते की कौंसिल को लिखा-

“अंग्रेज गुमाश्ते हमारे अधिकार की अवमानना करके प्रत्येक नगर और देहातों में पढदारी, फौजदारी, माल और दीवानी अदालतों की ज़रा भी परवा नहीं करते; बल्कि सरकारी अहलकारों के काम में बाधा डालते हैं। ये लोग प्राइवेट व्यापार पर भी महसूल नहीं देते, और जिनके पास कम्पनी का पास है, वे तो अपने को कर्ता-धर्ता ही समझते हैं। सरकारी और अंग्रेज कर्मचारियों की परस्पर की अनबन का कड़ आ फल प्रजा को चखना पड़ा रहा है, और उस पर असह्य निष्ठुर अत्याचार हो रहे हैं।”

उस समय कम्पनी के कर्मचारियों का केवल यही काम था, कि किसी देशी से सौ-दो-सौ पाउण्ड वसूल करके जितना शीघ्र हो सके, यहाँ की गर्मी से पीड़ित होने से पूर्व ही विलायत लौट जायें और वहाँ किसी कुलीन धनी की कन्या के साथ विवाह कर, कॉर्नवाल में छोटे-मोटे एक-दो गाँव खरीदकर सेण्ट-जेम्स-स्क्वेयर में आनन्दपूर्वक मुजरा देखा करें।

मीरकासिम अपने श्वसुर की तरह नीच, स्वार्थी तथा द्रोही न था। वह सब रंग-ढंग देख चुका था। उसने नवाबी मोल ली थी। वह नवाब ही बनना चाहता था और अंग्रेजों से प्रजा की तरह व्यवहार करना पसन्द करता था। साथ ही अंग्रेजों के अत्याचार से प्रजा की रक्षा करने की सदा चेष्टा करता था।

जब उसने देखा कि अंग्रेज बिना महसूल अन्धाधुन्ध व्यापार करके देश को चौपट कर रहे हैं, किसी तरह नहीं मानते, तो उसने अपनी लाखों की हानि की परवा न करके महसूल का महकमा ही उठा दिया; प्रत्येक को विना महसूल व्यापार करने का अधिकार दे दिया। अंग्रेजों ने नवाब के इस न्याय और उदार कार्य का तीव्र विरोध किया, पर कासिम ने उसकी कुछ परवा न की।

अब अंग्रेज कासिम को भी गद्दी से उतारने का प्रबन्ध करने लगे, पर मीरजाफर की तरह कासिम अंग्रेजों का पालतू न था। उसने सन्धि की शों का पालन न होते देखकर अपनी तैयारी शुरू कर दी। पहले तो वह अपनी राजधानी मुर्शिदाबाद से उठाकर मुंगेर ले गया, और सेना को सज्जित करने लगा—साथ ही अवध के नवाब शुजाउद्दौला से सहायता के लिए पत्र-व्यवहार करने लगा।

इतने ही में अंग्रेजों ने चुपचाप पटने पर धावा कर दिया। पहले तो नवाबी सेना एकाएक हमले से घबराकर भाग गई, पर वाद में उसने आक्रमण कर नगर को वापस ले लिया। बहुत-से अंग्रेज कैद हो गये। बदमाश एलिस भी कैद हुआ। नवाब ने जब पटने पर एकाएक आक्रमण होने के समाचार सुने, तो उसने अंग्रेजों की सब कोठियों पर अधिकार करके, वहाँ के अंग्रेजों को कैद करके मुंगेर भेजने का हुक्म दे दिया।

अंग्रेजों ने चिढ़ कलकत्ते में आप-ही-आप मीरजाफर को फिर नवाब बना दिया। इसके पीछे मुर्शिदाबाद सेना भेज दी गई। मुर्शिदाबाद को यद्यपि मीरकासिम ने काफी सुरक्षित कर रखा था, फिर भी विश्वास-घाती, नीच और स्वार्थी सेनापतियों के कारण नवाबी सेना की हार हुई। नवाब के दो-चार वीर सेनापति अन्त तक लड़कर धराशायी हुए। अन्त में उदयालन का मुख्य युद्ध हुआ। पलासी में मीरजाफर सेनापति था। यहाँ विश्वासघाती गुरगन सेनापति बना। नवाब की 50 हजार सेना उसके आधीन थी। उस पर अंग्रेजों के सिर्फ 5 हजार सैनिकों ने ही विजय प्राप्त कर ली। धीरे-धीरे नवाब के सभी नगरों पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। पटना और मुंगेर का भी पतन हुआ। कासिम भागकर अवध के नवाब शुजाउद्दौला की शरण गया। एक बार अवध के नवाब की सहायता से पटना और बक्सर में फिर युद्ध हुआ। परन्तु विश्वासघात और घूस की घोर ज्वाला ने मुसलमानी तख्त का विध्वंस किया। इस बार प्रयाग तक मीरकासिम खदेड़ा गया। फल यह हुआ कि प्रयाग भी अंग्रेजों के हाथ आ गया।

मीरकासिम का क्या हाल हुआ, यह नहीं कहा जा सकता। दिल्ली की सड़क पर एक दिन एक लाश देखी गई थी-जो एक बहुमूल्य शाल से ढकी हुई थी। उसके एक कोने पर लिखा था-‘मीरकासिम।

मीरजाफर फिर नवाब बन गया। अंग्रेजों ने कासिम की लड़ाई का सब खर्चा और हर्जाना मीरजाफर से वसूल किया। सबको भेट भी यथा-योग्य दी गई। बंगभूमि के भाग्य फूट गये। उसके माथे का सिन्दूर पोंछ लिया गया।

मराठों ने प्रथम ही बंगाल को छिन्न-भिन्न कर दिया था। अब इस राज्य-विप्लव के पश्चात् मानो बंगाल का कोई कर्ता-धर्ता ही न रहा। मीरजाफर फिर गद्दी से उतारकर कलकत्ते भेज दिया गया। इस बार किसी को नवाब बनाने की जरूरत न रही। ईस्ट इण्डिया कम्पनी बहादुर ही बंगाल की मालिक बन गई।

पाँच 

हेस्टिग्स तेजस्वी और कर्मठ युवक था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अन्य गुमाश्तों की भाँति वह रिश्वत और अन्याय को पसन्द नहीं करता था। क्लाइव के साथ युद्ध में भाग लेकर उसने अपने देश के प्रति पवित्र कर्तव्य निभाया था। उसने जिस विधवा से विवाह किया था, वह दो पुत्र छोड़कर स्वर्गवासिनी हुई। हेस्टिग्स ने पिता की भाँति पुत्रों की देखभाल की। परन्तु एक पुत्र तो बचपन में ही मर गया, दूसरे को उसने इंगलैंड अपनी बहन के पास पालन-पोषण के लिए भेज दिया। उसका व्यय वह वहां भेजता रहता था।

सन् 1761 तक हेस्टिंग्स मुर्शिदाबाद की ऐजेण्टी करते रहे, बाद में उन्हें कौंसिल का मेम्बर बनाकर कलकत्ते भेज दिया गया। उस समय कलकत्ते के गवर्नर वेनसीटार्ट थे, जो हेस्टिग्स के बहुत प्रशंसक थे।

कौंसिल के मेम्बर की हैसियत से हेस्टिग्स 1762 में पटना की दशा देखने गए। उन दिनों पटना बाहर जन-शून्य था। व्यापार बन्द था, दुकानें बंद थीं। अंग्रेजों की लूट-खसोट से डरकर लोग भाग गए थे। इस दयनीय दशा को देखकर उनका युवक हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने कलकत्ता गवर्नर को लिखा-पटना में भारी अन्याय हुआ है, नवाब और हमारे अधिकारियों में समझौता हुए बिना इस प्रकार के अत्याचार नहीं रोके जा सकते।

हेस्टिग्स ने इन झगड़ों का अध्ययन करके ठोस प्रस्ताव बनाये, जिन्हें लेकर वह मीरकासिम से मिला। हेस्टिग्स और मीरकासिम के बीच उन प्रस्तावों पर उचित विचार हुआ, जिसे दोनों ही पक्षों ने स्वीकार किया। परन्तु जब कलकत्ता काउन्सिल में हेस्टिंग्स के समझौते की रिपोर्ट पहुँची, तब अधिकांश स्वार्थी अंग्रेजों ने उसका विरोध किया और उसे रद्द कर दिया। इस कारण मीरकासिम से फिर विग्रह छिड़ा, जिसमें उसे पराजित होकर बंगाल से भागना पड़ा। अंग्रेजों ने बंगाल में विजय प्राप्त की।

हेस्टिग्स को इंगलैंड से भारत आए चौदह वर्ष बीत चुके थे। उन्होंने कौंसिल की सदस्यता से त्यागपत्र देकर अपने देश जाने की तैयारी की। उनके मित्र गवर्नरवेनसीटार्ट भी उनके साथ स्वदेश लौटने को तैयार हुए। हेस्टिग्स चौदह वर्ष बाद अपने घर लौट रहे थे। उन्हें अपनी बहन मिसेज बुडमैन और अपने प्रिय पुत्र की स्मृति बेचैन कर रही थी। अपने पुत्र को अपने हृदय से लगाने की आशा में ज्योंही वे जहाज से उतरकर इंगलैंड भूमि पर उतरे। उनकी बहन उदास मुख उनके स्वागत के लिए तैयारखड़ी थी। पुत्र को उसके साथ न देखकर उन्होंने पूछा-“वह कहाँ है?”

बहन ने भाई को अपने गले से लगाते हुए रुंधे कण्ठ से कहा-“अभी दो दिन पहले ही संक्षिप्त बीमारी में उसका निधन हो गया है।”

हेस्टिग्स यह सुनकर विमूढ़ हो गए। उन्होंने बहन को कसकर पकड़ लिया। उन्होंने कहा-“मुझे संभालो, मैं गिर रहा हूँ।”

बहन ने उनके दुख को धीरे-धीरे कम किया। हेस्टिग्स इंगलैंड में रह। कर कम्पनी के कर्मचारियों को अधिक शिक्षित करने के उपाय करने लगे। उन्होंने वहाँ एक ट्रेनिंग कालिज खुलवाया, जिसमें भारत में जाकर नौकरी करने वाले अंग्रेजों को हिन्दी, उर्दू, फारसी भाषा की शिक्षा देकर वहाँ की कार्य-प्रणाली सिखाई जाती थी।

हेस्टिग्स जो रुपया भारत से कमाकर ले गए थे, धीरे-धीरे सब खर्च हो गया और चार वर्ष बीतते-बीतते उन्हें अर्थसंकट रहने लगा। उन्होंने फिर भारत आने के लिये प्रयत्न किया। भाग्य से मद्रास की कोठी के लिए एक सुयोग्य व्यक्ति की आवश्यकता थी। हेस्टिंग्स को उस पद पर नियुक्त करके भेजा गया। सन् 1766 में ड्यूक ऑफ ग्रंफटन नामक जहाज पर उन्होंने भारत यात्रा की। इसी जहाज में एक जर्मन यात्री बेरनइमहाफ भी भारत आ रहे थे। उनकी अत्यन्त सुन्दर पत्नी भी उनके साथ थी। जहाज प्रवास में उनकी पत्नी का हेस्टिग्स से प्रेम-भाव उत्पन्न हुआ। मद्रास पहुँचकर हेस्टिंग्स बीमार पड़ गए, जिसमें इमहाफ पत्नी ने उनकी सेवा-सुश्रूषा की। इस समय तक दोनों में प्रगाढ़ प्रेम हो चुका था। इमहाफ उन दिनों घोर अर्थकष्ट में थे तथा अपनी सुन्दर पत्नी की इच्छाओं की पूर्ति नहीं कर पाते थे।

हेस्टिग्स और इमहाफ की पत्नी ने परस्पर विवाह करने का निश्चय किया।

एक दिन इमहाफ को बहुत अधिक चिन्ताग्रस्त देखकर हेस्टिंग्स ने कहा -“मैं आपको चिन्तामुक्त कर सकता हूँ।”

इमहाफअपनी पत्नी के विश्वासघात से दुखी तो थे ही, उन्होंने विरक्त मन से पूछा-“कैसे?”

“आपकी पत्नी को ग्रहण करके।”

इमहाफ कठोर दृष्टि से हेस्टिग्स को देखने लगे।

“पर इसमें आपका ही हित है। अब वह आपको प्रेम नहीं करती, मुझे करती है। मैं आपको उस पत्नी का मूल्य दे सकता हूँ, आपको उसकी सब चिन्ताओं से मुक्ति मिल सकती है।”

इमहाफ की आँखों से आँसू झरने लगे। परन्तु हेस्टिग्स ने उस ओर ध्यान न देकर कुछ स्वर्णं मोहरें उनके सामने बखेर दीं। उन्होंने इमहाफ के हाथ अपने हाथों में लेकर कहा-“सौन्दर्य मूर्ति और कमनीय मिसेज इमहाफ के सुखी भविष्य के लिए आप यह स्वीकार कीजिए।”

वह उठकर चले गये। इमहाफ आँसू भरे उन विखरी स्वर्णमुद्राओं को देखते रह गए।

मिसेज इमहाफहेस्टिग्स के घर आ गईं। इमहाफ भी वहीं रहने लगे, क्योंकि नियम के अनुसार अभी इमहाफ को अपनी पत्नी के तलाक की स्वीकृति देनी शेष थी। मिसेज इमहाफ ने हेस्टिंग्स के परामर्श और व्यय से फ्रेंकोनियन कोर्ट में तलाक की दरखास्त भेज दी। जब तक उसकी कार्यवाही पूर्ण नहीं हो जाती, जब तक लोकाचार के कारण इमहाफ को दिल पर पत्थर रखकर अपनी पत्नी का पति बने रहकर समय व्यतीत करना था। इस समय हेस्टिग्स की आयु चालीस वर्ष की थी।

मद्रास में उन्हें डूप्रे का सहायक बनकर कार्य करना पड़ा। उस समय कम्पनी के अधिकारी मैसूर के शासक हैदरअली के विरुद्ध षड्यन्त्रों का जाल रच रहे थे। बंगाल, बिहार और उड़ीसा के बाद अब दक्षिण अंग्रेजों का अभिमान क्षेत्र था। परन्तु हेस्टिंग्स की दृष्टि इस ओर न थी। वह कम्पनी के व्यापार को अधिक लाभदायक बनाने के उपाय सोच रहा था। मद्रास में वह कम्पनी की कोठी का गुमाश्ते था। इंगलैंड भेजने के लिए जो भारतीय माल खरीदा जाता था, उसके जमा-खर्च और लदान का उत्तरदायित्व उन पर था। कम्पनी के कर्मचारी राजनैतिक स्वार्थों में फंसे रहते थे, व्यापार की ओर उनकी व्यवस्था ठीक नहीं थी। जुलाहों से घटिया माल तैयार कराकर बढ़िया माल के दाम बहीखातों में दिखाकर बाकी रुपया आपस में बाँट लेते थे। वे जुलाहों को जबरदस्ती पेशगी रुपये देकर घटिया माल तैयार कराते और लागत-मात्र का मूल्य उन्हें देते। इससे कम्पनी के कर्मचारी तो मालामाल होते गये, परन्तु जुलाहे गरीब होते गये। उन्हें ऋण भी लेना पड़ जाता था। दलाल अधिक रिश्वत लेकर कम्पनी को भारतीय माल खरीदवाते थे। माल की चौकसी भी ठीक नहीं होती थी। इन कारणों से इंगलैंड पहुँचते-पहुँचते भारतीय माल में लाभ की सम्भावना नहीं रहती थी।

हेस्टिग्स ने इन सब अव्यवस्थाओं में कड़ाई से सुधार किया। जुलाहों को कम्पनी के कर्मचारियों और दलालों से मुक्त कराया। माल की पूरी चौकसी की व्यवस्था की, जिससे व्यापार में लाभ होने लगा। उनकी कार्य-दक्षता से करनाटक, मैसूर और निकटवर्ती उत्पादन-क्षेत्रों में व्यापार में वृद्धि हुई।

इसी समय बंगाल में भारी दुर्भिक्ष की घड़ी आ उपस्थित हुई। 1768 में बंगाल में अनावृष्टि के कारण बहुत कम उपज हुई, परन्तु कम्पनी के गुमाश्तों ने किसानों से मालगुजारी बहुत सख्ती से वसूल की। बीज के लिए रखे गए चावलों को भी उनसे वसूल कर लिया गया। अगले वर्ष 1769 में उपज और भी कम हुई। धान के सब खेत सूखे और बिना उपज के पड़े हुए थे। इस भयानक दुभिक्ष के संकट की घड़ी में भी अंग्रेजों ने किसानों को निचोड़ कर 2797306 पौंड की लगान-राशि अपने देश भेजी जबकि अब से 10 वर्ष पूर्व यह राशि केवल 1365656 पौंड थी।

उस समय भी कुछ लोग धनी थे। जगतसेठ, मानिकचन्द नष्ट हो चुके थे-पर कुछ धनी बच रहे थे। पर, क्या किसान, क्या धनी-अन्न बंगाल में किसी के पास न था। अफियाँ थीं-मगर कोई अन्न बेचने वाला न था।

अंग्रेजों ने बहुत-सा चावल कलकत्ते में सेना के लिए भर रखा था। यह सुनकर पूनिया, दीनापुर, बाँकुड़ा, वर्द्धमान आदि चारों ओर से हजारों नर-नारी कलकत्ते को चल दिये। गृहस्थों की कुलकामिनियों ने प्राणाधिक बच्चों को कन्धे पर चढ़ाकर विकट-यात्रा में पैर धरा। जिन कुल-वधुओं को कभी घर की देहली उलाँघने का अवसर नहीं आया था, वे भिखारिन के वेश में कलकत्ते की तरफ जा रही थीं। बहुमूल्य आभूषण और अशर्फियाँ उनके आँचल में बँधे थे, और वे उनके बदले एक मुट्ठी अन्न चाहती थीं।

पर इनमें कितनी कलकत्ते पहुंचीं? सैकड़ों स्त्री-पुरुष मार्ग में ही भूखे-मर गये, कितनों के बच्चे माता का सूखा स्तन चूसते-चूसते अन्त में माता की छाती पर ही ठण्डे हो गये। कितनी कुल-वधुओं ने भूख-प्यास से उन्मत्त हो, आत्मघात किया।

घोर दुर्भिक्ष समुपस्थित था। सूखे नर-कंकालों से मार्ग भरे पड़े थे। सहस्रों नर-नारी मर-मरकर मार्ग में गिर रहे थे। भगवती गंगा अपने तीव्र प्रवाह में भूखे मुर्दो को गंगासागर की ओर बहाये लिए जा रही थी। अपने अधमरे बच्चों को छाती से लगाये, सैकड़ों स्त्रियाँ अधमरी अवस्था में गंगा के किनारे सिसक रही थीं। पापी प्राण नहीं निकलते थे। कभी-कभी डोम अन्य मुर्दो के साथ उन्हें भी टाँग पकड़कर गंगा में फेंक रहे थे। जहाँ-तहाँ आदमियों का समूह हिताहित शून्य हो, वृक्षों के पत्तों को खा रहा था। गंगा-किनारे वृक्षों में पत्ते नहीं रहे थे।

कलकत्ता नगर के भीतर रमणियाँ एक मुट्ठी नाज के लिये अपनी गोद के प्यारे बच्चों को बेचने के लिए इधर-उधर घूम रही थीं।

छ: 

इस दुर्भिक्ष में बंगाल की एक-तिहाई प्रजा मर गई; जिनमें गरीब किसान ही अधिक थे। किसानों के अभाव में खेत खाली पड़े रहते, कोई खेती करने वाला न था। अगले वर्ष जब मालगुजारी वसूल करने का समय आया तो न फसल थी, न किसान। इस अवस्था में कम्पनी को फूटी कौड़ी भी लगान वसूल नहीं हुआ। कम्पनी के व्यापार में भी ह्रास हुआ था। इंगलैंड में जब बंगाल के इस भयानक दुर्भिक्ष, और वहाँ के व्यापार में भारी ह्रास की बात पहुंची तो तहलका मच गया। कम्पनी के कर्मचारियों में अत्याचारों का भी पता चला। तब इन सबकी जाँच के लिए एक कमेटी बनाई गई, जिसमें कलकत्ते के गवर्नर और कौंसिल के सदस्यों के कुकर्मों का भण्डाफोड़ हुआ। क्लाइव को भी दोषी पाया गया। अतः निश्चय हुआ कि कलकत्ते के गवर्नर को हटाकर अन्य योग्य और ईमानदार व्यक्ति को वहां का गवर्नर बनाया जाय। कम्पनी के बोर्ड ऑफ डाइरेक्टर्स ने हेस्टिग्स को इस पद के योग्य समझकर उसे ही बंगाल का गवर्नर बनाया। अतः हेस्टिंग्स 2 फरवरी, 1772 को मद्रास से कलकत्ते के लिए चले। 13 अप्रैल, 1772 को जब उन्होंने बंगाल की गवर्नरी का पद सँभाला, उस समय वहाँ खजाने में एक पाई भी रकम नहीं थी।

अब तक हेस्टिग्स अत्याचार और असत्य से दूर थे, परन्तु इस कुर्सी पर बैठते ही उनमें राजसत्ता का मद भर गया। उनके सद्गुण उनसे दूर होने लगे। इस समय तक मिसेज इमहाफ की अपने पूर्व पति के तलाक की अर्जी मंजूर हो गई थी। अब वह पूर्ण रूप से मिसेज हेस्टिंग्स कहलाने की पूर्ण अधिकारी बन चुकी थी। अब इमहाफ को साथ रखने की जरूरत नहीं रही थी। कलकत्ता आकर कुछ मास बाद उन्हें पृथक् कर दिया गया।

इंगलैंड से हेस्टिग्स को आदेश प्राप्त हुआ कि कम्पनी के जिन कर्मचारियों के कारण हानि उठानी पड़ी है, उन्हें कठोरता से दण्ड दिया जाय। व्यापार और शासन सुव्यवस्थित किया जाएँ। उस समय बंगाल में कम्पनी के कर्मचारियों की सत्ता चल रही थी, परन्तु वे पूर्णतः अपने को बंगाल का शासक नहीं मानते थे। दिल्ली के मुगल बादशाह ने अंग्रेजों को बंगाल की मालगुजारी मात्र वसूल करने का अधिकार दिया था। उनकी मोहरों और सिक्कों पर शाही अलकाब खुदे रहते थे। बंगाल के नवाब मुर्शिदाबाद में रहते थे। परन्तु क्लाइव ने मुर्शिदाबाद के नवाबों को धूल में मिलाकर बंगाल में अंग्रेजों के राज्य का बीजारोपण कर दिया था। उस समय बंगाल और बिहार की शासन-व्यवस्था नायब सूबेदार करते थे। बंगाल के नायब मोहम्मद रजाखाँ, और बिहार के सिताबराय थे। दोनों ही सूबेदार मुर्शिदाबाद के नवाब के अधीन होते थे।

हेस्टिग्स ने दोनों नायब सूबेदारों पर रिश्वत लेने और अत्याचार करने के आरोप लगाकर गिरफ्तार कर लिया और आरोपों की जाँच होने तक कलकत्ता लाकर कैद में रखा। उनके आरोपों की जाँच हेस्टिग्स ने स्वयं अपने हाथों में ली।

जाँच में सिताबराय निर्दोष पाये गए। उन्हें प्रतिष्ठा और इनाम देकर छोड़ दिया गया। उन्हें खिलअत, कुछ जवाहरात, और एक सुसज्जित हाथी देकर पुन: नायब पद दिया गया। वे पटना लौट आए, परन्तु उन्हें अपनी गिरफ्तारी का बहुत मानसिक दुख हुआ, उसी परिताप में कुछ दिन रुग्ण रहकर उनकी मृत्यु हो गई।

दूसरे अभियुक्त मोहम्मद खाँ दोषी पाए गए। फिर भी हेस्टिग्स ने उन्हें रिहा कर दिया। परन्तु उसको पदच्युत कर एक अंग्रेज मिडिलटन को उनके स्थान पर नायब बनाया गया। हेस्टिग्स ने अधिक पैदावार और उपज, मालगुजारीअदा करने और वसूल करने के उचित नियम तथा किसानों का ऋण के बोझ से न दबे रहने सम्बन्धी सुधारक कार्य किए। जुलाहों को यह भी दी कि वे अपना माल अपनी इच्छा के अनुसार चाहे कम्पनी को दें अथवा अन्य किसी को। उन दिनों नागा जाति तिब्बत, चीन, काबुल

के पर्वतीय प्रदेशों में रहती और स्वच्छन्द विचरण करती रहती थी। ये लोग नंगे रहते थे। विचरण करते समय किसी भी स्वस्थ बालक को देखकर वे उसे बहकाकर अपने साथ कर लेते थे और नागा बना लेते थे। ये लोग तीर्थस्थानों में धार्मिक पर्वो के अवसर पर बड़ी संख्या में आते थे। बंगाल से वे प्रतिवर्ष बहुत से बालकों को उठाकर ले जाते थे, अतः हेस्टिग्स ने उनका बंगाल में प्रवेश वर्जित कर दिया। बंगाल-प्रवेश के नाकों पर सैनिक पहरा रहने लगा। भूटान, तिब्बत, सिक्कम और कूच बिहार के साथ कम्पनी के सम्बन्ध सुधारे तथा व्यापार किया।

हेस्टिग्स ने मुर्शिदाबाद में स्थापित फौजदारी और दीवानी अदालतें हटाकर कलकत्ता में स्थापित की। दीवानी अदालत का नाम ‘सदर दीवानी’ रखा गया। गवर्नर और दो सदस्य उसके न्यायाधीश बने। ‘सदर दीवानी’ के नीचे प्रत्येक जिले में एक-एक फौजदारी और दीवानी अदालतें खोली गईं। फौजदारी अदालतों में तो मुसलमान न्यायाधीश नियत किए गए, परन्तु दीवानी अदालतों में हिन्दू न्यायाधीश नियत हुए क्योंकि हिन्दू धर्मशास्त्रों के नियम और विधान वे ही समझ सकते थे। हेस्टिंग्स ने हिन्दू शास्त्रों के विधान का दस हिन्दू विद्वानों से संकलन कराकर उसे फारसी तथा अंग्रेज़ी में अनूदित किया। ‘सदर दीवानी’ सुप्रीम कोर्ट कहलाती थी। फौजदारी अदालतों को प्राणदण्ड की सजा देने से पहले सुप्रीम कोर्ट से आज्ञा लेनी होती थी। जिले की अदालतों की आज्ञा के विरुद्ध अपीलें भी इसी सुप्रीम कोर्ट में होती थीं।

सुप्रीम कोर्ट में प्रजा का हित होने की कोई आशा नहीं होती थी। भारतीय अमीरों को अपमानित करना ही उसका ध्येय था। उसमें झूठी खबरें पहुँचाने वाले, झूठी गवाहियाँ देने वाले, झूठे मुकद्दमे तैयार करने वाले बदमाशों की भरमार थी। कलकत्ते के दक्षिण में काशीगढ़ एक देसी रियासत थी। यहाँ के राजा सम्पन्न व्यक्ति थे। उनके महलों की ड्योढ़ियों पर सैनिकों का पहरा रहता था। उनकी प्रजा उन पर श्रद्धा करती थी, अतः उनके मुकद्दमे उन्हींकी कचहरी में निबट दिये जाते थे, अंग्रेजी कोर्ट में नहीं। यह बात अंग्रेजों को खटकने लगी। काशीगढ़ के राजा का एक कारकुन काशीनाथ था। काशीनाथ ने अंग्रेजी हुक्कामों के बहकावे में आकर राजा के विरुद्ध एक झूठी दरखास्त अंग्रेजी अदालत में दे दी और अपने पक्ष के समर्थन में हलफिया बयान भी दर्ज कर दिया। काशीगढ़ के राजा के नाम उनकी गिरफ्तारी का वारण्ट और तीन लाख की जमानत देने का हुक्म जारी हुआ। राजा छिप गये। इस पर अदालत ने दो फौजदारों को 86 सशस्त्र सिपाहियों के साथ राजा को पकड़ने भेजा। इन लोगों ने महल में घुसकर तलाशी ली। स्त्रियों पर अत्याचार-बलात्कार किए। लूटपाट की और राजा के पूजा के स्थान को उखाड़ डाला। मूर्ति और पूजा के बर्तनों की गठरी बाँधकर सील मोहर लगाकर कोर्ट में ला धरी।

परन्तु इस सब व्यवस्था से कम्पनी के खजाने में आमदनी नहीं बढ़ी। इंगलैंड से कम्पनी के डाइरेक्टर बराबर लाखों रुपया भेजने की ताकीद करते रहते थे। भारत में सेना और गवर्नर का वेतन भी पिछड़ गया था। हेस्टिग्स इससे परेशान हो उठे। एक बार कम्पनी के डाइरेक्टरों की सख्त हिदायत आई कि तुरन्त पचास लाख रुपया भेजो। हेस्टिग्स चिन्ता में पड़ गए। अब यही उपाय शेष था कि रुपया वसूल करने के लिए सख्त और अनुचित काम किये जायें। यही उन्होंने किया।

मुर्शिदाबाद के नवाब को जेबखर्च के लिए कम्पनी तीन लाख पौंड वार्षिक देती थी। इसे घटाकर एक लाख 62 हजार पौंड किया गया। क्लाइव ने दिल्ली के मुगल बादशाह से बंगाल की दीवानी प्राप्त करते समय बादशाह की ओर से बंगाल की प्रजा से हर प्रकार का कर वसूल करने का अधिकार प्राप्त किया था, तथा बादशाह को बंगाल की आय में से तीन लाख पौंड वार्षिक देते रहने का निश्चय हुआ था। परन्तु उसे अब बिल्कुल बन्द कर दिया। बादशाह पर दोष लगाया गया कि वह मराठों की कठपुतली बन गये हैं। इलाहाबाद और कड़ा के जिले पचास लाख रुपये में अवध के नवाब शुजाउद्दौला के हाथ बेच दिए गए। इतना सब करके भी कम्पनी के डाइरेक्टर और अधिक धन की माँग कर रहे थे।

सात 

जिस समय दिल्ली पर शाहआलम का अधिकार था, तब मद्रास की बस्ती अंग्रेजों के अधिकार में थी, और यही उस समय उनके भारतीय व्यापार का मुख्य केन्द्र था। डूप्ले ने मद्रास अंग्रेजों से छीन लेने का विचार किया। दोस्तअली खाँ का उत्तराधिकारी अनवरुद्दीन इस समय करनाटक का नवाब था, अंग्रेजों के विरुद्ध डूप्ले ने नवाब के खूब कान भरे। लाबूरदौने नामक एक फ्रांसीसी के अधीन कुछ जलसेना मद्रास विजय करने के लिए भेजी और नवाब को उसने यह समझाया कि अंग्रेजों को मद्रास से निकालकर नगर उनके हवाले कर दूँगा। लावूरदौने ने मद्रास विजय कर लिया,किन्तु इसके साथ ही अंग्रेजों से चालीस हजार पौंड नकद लेकर मद्रास फिर उनके हवाले कर देने का वादा कर लिया। इसके बाद डूप्ले ने अपने वादे के अनुसार मद्रास नवाब के हवाले कर देने की कोई चेष्टा न की और न लाबूरदौने के वादे के अनुसार उसे अंग्रेजों को वापस किया। नवाब को जब इस छल का पता चला, तो वह फौरन सेना लेकर मद्रास की ओर रवाना हुआ। डूप्ले अपनी सेना सहित नवाब को रोकने के लिए बढ़ा। 4 नवम्बर, 1746 ई० को मद्रास के निकट डूप्ले की सेना और नवाब करनाटक की सेना में संग्राम हुआ। डूप्ले की सेना में भी अधिकतर भारतीय सिपाही ही थे। सेना तथा अपने तोपखाने के बल से डूप्ले ने विजय प्राप्त की। इतिहास में यह पहली विजय थीं जो किसी यूरोपियन ने किसी भारतीय शासक के विरुद्ध प्राप्त की। इससे विदेशियों के हौसले और भी अधिक बढ़ गए।

फ्रांसीसी, अंग्रेजों तथा नवाब-करनाटक दोनों को धोखा दे चुके थे, इसलिए ये दोनों अब फ्रांसीसियों के विरुद्ध मिल गए। सन् 1748 ई० में अंग्रेजी सेना ने पांडिचेरी पर हमला किया, किन्तु डूप्ले की सेना ने इस बार भी अंग्रेजों को हरा दिया। इसी समय यूरोप में फ्रांस और इंगलिस्तान के बीच संधि हो गई, जिसमें एक बात यह तय हुई कि मद्रास फिर से अंग्रेजों के सुपुर्द कर दिया जाय। इस प्रकार अकस्मात् करनाटक से अंग्रेजों को निकाल देने की डूप्ले की आशा को एक जबरदस्त धक्का पहुँचा, जिससे फ्रांसीसियों की बरसों की मेहनत पर पानी फिर गया। किन्तु डूप्ले का हौसला इतनी जल्दी टूटने वाला न था। फ्रांसीसी और अंग्रेजी कम्पनियों में प्रतिस्पर्धी बराबर जारी रही। ये दोनों कम्पनियाँ इस देश में अपनी-अपनी सेनाएँ रखती थीं और जहाँ कहीं किसी दो भारतीय नरेशों में लड़ाई होती थी तो एक एक का और दूसरा दूसरे का पक्ष लेकर लड़ाई में शामिल हो जाता था। भारतीय नरेशों की सहायता के बहाने इनका उद्देश्य अपने यूरोपियन प्रतिस्पर्धा को समाप्त करना होता था।

दक्षिण भारत की राजनैतिक अवस्था इस समय अत्यन्त बिगड़ी हुई थी। मुगल-सम्राट की ओर से नाजिरजंग दक्षिण का सूबेदार था। नाजिरजंग का भतीजा मुजफ्फरजंग अपने चचा को मसनद से उतारकर स्वयं सूबेदार बनना चाहता था, इसलिए नाजिरजंग ने अपने भतीजे मुजफ्फरजंग को कैद कर रखा था। उधर अनवरुद्दीन करनाटक का नवाब था, किन्तु उससे पहले नवाब दोस्तअली खाँ का दामाद चन्दासाहब अनवरुद्दीन को गद्दी से उतारकर खुद करनाटक का नवाब बनना चाहता था। साहूजी तंजोर का राजा था और एक दूसरा उत्तराधिकारी प्रतापसिंह साहूजी को हटाकर तंजोर का राज्य लेना चाहता था। करनाटक का नवाब सूबेदार के अधीन था और तंजोर का राजा नवाब करनाटक का मालगुजार था। इन तीनों शाही घरानों की इस आपसी फूट से अंग्रेज, फ्रांसीसी और मराठे तीनों फायदा उठाने की कोशिशें कर रहे थे। दिल्ली के मुगल-दरबार में इतना बल न रह गया था कि साम्राज्य के एक दूर के कोने में इस तरह के झगड़ों को दबा सके। अंग्रेजों ने नाजिरजंग और अनवरुद्दीन का पक्ष लिया और फ्रांसीसियों ने मुजफ्फरजंग तथा चन्दासाहब का। सूत्रपात तंजोर से हुआ

सबसे पहले चन्दासाहब ने तंजोर के राजा साहूजी को गद्दी से उतार वहाँ का राज्य अपने अधीन कर लिया। मराठों ने तंजोर पर चढ़ाई रके चन्दासाहब को कैद कर लिया और प्रतापसिंह को वहाँ की गद्दी पर बैठा दिया। तंजोर की प्रजा साहू जी की अपेक्षा प्रतापसिंह से खुश थी। अंग्रेजों ने अब साहूजी का पक्ष लिया और साहूजी को फिर गद्दी पर बैठाने के बहाने कम्पनी की सेना फौरन मौके पर पहुँच गई। किन्तु वहाँ पहुँचने पर अंग्रेजों ने देखा कि प्रतापसिंह का पक्ष अधिक मजबूत था, इसलिए ऐन मौके पर साहूजी के साथ दगा करके वे प्रतापसिंह से मिल गए। इसके बदले में देबीकोटा का नगर और किला प्रतापसिंह ने अंग्रेजों को दे दिया। साहूजी को सदा के लिए पेंशन देकर अलग कर दिया गया और प्रतापसिंह तंजोर का राजा बना रहा। करनाटक में नवाब अनवरुद्दीन अंग्रेजों पर मेहरबान था ही, इसीलिए फ्रांसीसी अनवरुद्दीन की जगह चन्दासाहब को नवाब बनाना चाहते थे। डूप्ले ने चन्दासाहव की ओर से मराठों को नकद धन देकर चन्दासाहब को कैद से छुड़वा लिया और फिर अनवरुद्दीन की जगह चन्दासाहब को करनाटक की गद्दी पर बैठाने का प्रयत्न किया। 3 अगस्त सन् 1746 को आम्वूर की लड़ाई में फ्रांसीसियों की सहायता से अनवरुद्दीन का काम तमाम कर, चन्दासाहव करनाटक का नवाब बन गया। इसमें डूप्ले को सफलता प्राप्त हुई।

किन्तु तंजोर अभी तक प्रतापसिंह के अधिकार में था और प्रतापसिंह अंग्रेजों के पक्ष में था। डूप्ले ने इसके लिए नाजिरजंग के विरुद्ध मुजफ्फर-जंग के साथ साजिश की। चचा की कैद से भागकर मुजफ्फरजंग ने फ्रांसीसियों की सहायता से स्वयं को दक्षिण का सूबेदार घोषित कर दिया और चन्दासाहब के साथ मिलकर तंजोर पर चढ़ाई की। सूबेदार नाजिरजंग ने तंजोर और वहाँ के राजा प्रतापसिंह की सहायता के लिए सेना भेजी। दोनों पक्षों के बीच युद्ध हुआ, जिसमें मुजफ्फरजंग फिर से कैद कर लिया गया। चन्दासाहब की जगह अनवरुद्दीन का बेटा मुहम्मदअली करनाटक का नवाब बना दिया गया और नाजिरजंग सूबेदारी की मसनद पर कायम रहा। डूप्ले की सब कार्रवाई निष्फल गई। इस पर भी उसके प्रयत्न जारी रहे। जब खुले युद्ध में वह न जीत सका तो उसने अपने गुप्त अनुचरों द्वारा सूबेदार नाजिरजंग को कत्ल करा दिया और एक बार फिर मुजफ्फरजंग को दक्षिण का सूबेदार और चन्दासाहब को करनाटक का नवाब घोषित कर दिया। किन्तु त्रिचिनापल्ली का दृढ़ किला मुहम्मदअली के हाथों में था। त्रिचिनापल्ली में युद्ध हुआ, जिसमें दक्षिण के इन तीनों राजाओं, अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के भाग्य का फैसला हो गया। चन्दासाहब और फ्रान्सीसियों की सेनाएँ एक ओर थीं, मुहम्मदअली और अंग्रेजों की सेनाएँ दूसरी और। एक फ्रान्सीसी सेना इस समय डूप्ले की सहायता के लिए भेजी गई, किन्तु वह कहीं मार्ग में ही डूबकर खत्म हो गई। त्रिचिनापल्ली के संग्राम में फ्रांसीसियों की हार रही। इस युद्ध से अंग्रेज भारत में जम गए और फ्रांसीसी उखड़ गये। फ्रांसीसियों की भारत-विजय की आशा धूल-धूमिल हो गई।

अब अंग्रेजों की कृपा से मुहम्मदअली करनाटक का नवाब बना। इसके बदले में उसने 16 लाख की आय का इलाका अंग्रेजों को दिया। प्रारम्भ में मुहम्मदअली की अंग्रेजों में बड़ी प्रतिष्ठा थी। पर, वह शीघ्र ही बंगाल के नवाबों की भाँति दुरदुराया जाने लगा। उससे नित नई माँगें पूरी कराई जाती थीं, और नवाब को प्रत्येक नये गवर्नर को लगभग डेढ़ लाख रुपये नजर करने पड़े थे। अन्त में इस पर इतने खर्च बढ़ गये कि वह तंग हो गया और अंग्रेजों से जान बचाने का उपाय सोचने लगा। इस समय अंग्रेज व्यापारियों के कर्जे से वह बेतरह दबा हुआ था।

लार्ड कॉर्नवालिस ने नवाब से एक संधि की, जिसके कारण नवाब की तमाम सेना का प्रवन्ध अंग्रेजों के हाथ में आ गया। इसके खर्च के लिये नवाब से कुछ जिले रहन रखा लिये गये। इनकी आमदनी 30 लाख रुपया सालाना थी।

सन् 1765 में मुहम्मदअली की मृत्यु हुई और उस बेटा नवाब उमदतुलउमरा गद्दी पर बैठा। इस पर गवर्नर ने जोर दिया कि रहन रखे जिले और वह कम्पनी को दे दे। पर उसने साफ इन्कार कर दिया। परन्तु इसी बीच में अंग्रेजों ने प्रतापी टीपू को हरा डाला था और रंगपट्टन का अटूट खजाना उनके हाथ लगा था। उसमें गवर्नर को कुछ ऐसे प्रमाण भी मिले कि जिनमें करनटक के नवाब का टीपू के साथ षड्यन्त्र पाया जाता था। परन्तु नवाब के जीते-जी यह बात यों ही चलती रही। ज्योंही नवाब मृत्यु-शय्या पर पड़ा, कम्पनी की सेना ने महल को घेर लिया कुछ किले और यह कारण बताया कि नवाव की मृत्यु पर बदअमनी का भय है। नवाब बहुत गिड़गिड़ाया, पर अंग्रेजों ने उसे हर समय घेरे रखा और बराबर अपनी मित्रता का विश्वास दिलाते रहे। उस समय नवाब का बेटा शाहजादा अलीहुसैन उसी महल में था। ज्योंही नवाब के प्राण निकले कि शाहजादे को जबरदस्ती महल से बाहर ले जाकर अंग्रेजों ने कहा–“चूंकि तुम्हारे दादा और बाप ने अंग्रेजों के खिलाफ गुप्त पत्र-व्यवहार किया है, इसलिए गवर्नर-जनरल का यह फैसला है कि तुम बजाय अपने बाप की गद्दी पर बैठने के मामूली रिआया की भाँति जिन्दगी बिताओ और इस सन्धि-पत्र पर दस्तखत कर दो।” जहाँ यह बातें हो रही थीं–वहाँ अंग्रेजी सिपाही नंगी तलवारें लिये फिर रहे थे। परन्तु अलीहुसैन ने मंजूर न किया। तब नवाब के दूर के रिश्तेदार आजमुद्दौला से अंग्रेजों ने बातचीत की। उसने संधि की शर्ते स्वीकार कर लीं। तब उसे मसनद पर बैठा दिया गया। इस सन्धि के अनुसार तमाम करनाटक प्रान्त कम्पनी के हाथ आ गया और आजमुद्दौला केवल राजधानी अरकार और चिपोक के महलों का स्वामी रह गया। नवाब को चिपोक के महल में रखा गया और उसी में शाहजादा अलीहुसैन और उसकी विधवा माँ को कैद कर दिया। कुछ दिन बाद वह वहीं मर गया। सन्देह किया जाता है कि उसे जहर दिया गया।

मुगल-साम्राज्य में सूरत एक सम्पन्न बन्दरगाह और सूबा था। बहुत दिन से वहाँ बादशाह का सूबेदार रहता था। जब साम्राज्य की शक्ति ढीली पड़ी, तब वहाँ का हाकिम स्वतंत्र नवाब बन बैठा। पीछे जब योरोप की जातियों ने भारत में पैर फैलाये और अंग्रेजों की शक्ति बढ़ने लगी, तब सूरत के नवाब से भी अंग्रेजों ने संधि कर ली। धीरे-धीरे नवाब अंग्रेजों के हाथ की कठपुतली हो गया। चार नवाबों के जमाने में यही होता रहा। वेलेजली ने अपनी नीति के आधार पर नवाब को भी सेना भंग करने और कम्पनी की सेना रखने की सलाह दी। नवाब ने बहुत नाँ-नूं की, मगर अन्त में एक लाख रुपया वार्षिक और 30 हजार रुपये सालाना की और रियायतें करनी ही पड़ी। इसी समय नवाब मर गया। इसके बाद इसका चचा नसिरुद्दीन गद्दी पर बैठा। इसने शीघ्र ही सब दीवानी और फौजदारी अधिकार अंग्रेजों को दे दिये और स्वयं बे-मुल्क नवाब बन बैठा।

दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह के वजीर आसफजाह ने वजारत से इस्तीफा देकर दक्षिण में जा, हैदराबाद को अपनी राजधानी बनाकर एक नया राज्य स्थापित किया और 10 वर्ष तक मराठों से लड़कर अपने राज्य को दृढ़ कर लिया। धीरे-धीरे दक्षिण में तीन शक्तियाँ प्रबल हो गईं। एक निजाम, दूसरी पेशवा और तीसरी हैदरअली।

अंग्रेजी शक्ति ने इन तीनों को न मिलने देने में ही कुशल समझी। निजाम ने अंग्रेजी शान्ति के आधीन होकर बार-बार हैदरअली से विश्वासघात किया। ज्योंही टीपू की समाप्ति हुई, अंग्रेजी-शक्ति निजाम के पीछे लगी। पहले गुण्डर का इलाका उससे ले लिया गया।

इसके बाद एक गहरी चाल यह खेली गई कि वजीर से लेकर छोटे-छोटे अमीरों तक को रिश्वतें देकर इस बात पर राजी कर लिया गया कि नवाब की सब सेना, जो फ्रांसीसियों के अधीन थी, टुकड़े-टुकड़े करके बर्खास्त कर दी जाय और कम्पनी की सबसीडियरी सेना चुपके से हैदराबाद आकर उसका स्थान ग्रहण कर ले। इसकी नवाब को कानों-कान खबर नहीं हो।

वजीर यद्यपि सहमत हो गया था, घूस भी खा चुका था, परन्तु ऐसा भयानक काम करते झिझकता था। किन्तु अंग्रेजों ने सेना के भीतर ही जाल फैला दिये थे। फलतः निजाम की सेनाएँ विद्रोह कर बैठीं; क्योंकि उन्हें कई मास का वेतन नहीं मिला था। उचित अवसर देखकर कम्पनी की सेना ने हैदराबाद को घेर लिया और निजाम की सेना को बर्खास्त करके अपना आधिपत्य कर लिया।

शिवाजी की मृत्यु के 80 वर्ष बाद मरहठों की सत्ता बहुत बढ़ चुकी थी और मुगल साम्राज्य की शक्ति घट रही थी। एक बार तो समस्त भारत में मरहठों का प्रभुत्व छा चुका था। मरहठों में पेशवा सर्वोपरि शासक था, परन्तु धीरे-धीरे गायकवाड़, भोंसले, होल्कर और सिंधिया अपनी पृथक् सत्ता स्थापित करने लगे। उन्होंने पेशवा के स्वामित्व से स्वयं को पृथक् कर लिया।

वारेन हेस्टिग्स बंगाल और अवध को हस्तगत करने के साथ ही मराठा-मण्डल में भी फूट डालकर मध्य भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के प्रभुत्व की नींव डाल रहा था। उस समय मालवे का शासन महारानी अहिल्याबाई के हाथों में था। अहिल्याबाई अंग्रेजों की कूटनीति भली-भाति समझती थी और उसने इसका भारी विरोध किया। अत: वारेन हेस्टिग्स को पेशवा के विरुद्ध सिंधिया को फोड़ना पड़ा। उस समय होलकर और सिंधिया मराठा-साम्राज्य के सबसे अधिक शक्तिशाली सदस्य थे। महादजी सिंधिया ग्वालियर पर शासन कर रहा था और मल्हरराव होलकर मालवे और बुन्देलखण्ड पर।

मलहरराव होलकर के कुण्डीराव नामक एक ही पुत्र था, किन्तु वह असमय में ही कुम्भेरू की लड़ाई में मारा गया। कुण्डीराव का विवाह सिंधिया-परिवार की एक लड़की अहिल्याबाई के साथ हुआ था। अहिल्या-बाई की दो सन्तानें थीं। मालीराव पुत्र और मुक्ताबाई कन्या। मलहरराव की मृत्यु के पश्चात् उसका पौत्र मालीराव होलकर राज्य का स्वामी हुआ। किन्तु दुर्भाग्यवश मालीराव सिंहासन पर बैठने के नौ महीने बाद स्वर्गवासी हुआ। मालीराव निस्सन्तान मरा। अतः राज्य का सारा भार अहिल्याबाई के कन्धों पर आकर पड़ा।

सिंहासन पर बैठते ही अहिल्याबाई को एक विकट कठिनाई का सामना करना पड़ा। उसका गद्दी पर बैठना उसके एक ब्राह्मण मन्त्री गंगाधर यशवन्त को बहुत बुरा लगा। राघोवा दादा उस समय पेशवा की मध्य-भारत की सेना का प्रधान सेनापति था। गंगाधर ने राघोवा के सामने अपनी यह योजना पेश की कि अहिल्याबाई अपने एक दूर के रिश्ते के छोटे से लड़के को गोद ले–स्वयं गद्दी पर बैठने का इरादा छोड़ दे व गंगाधर उस लड़के का वारिश बनकर राज्य-भार सँभाले। इस कार्य के उपलक्ष में राघोवा को गंगाधर ने एक बहुत बड़ी रकम नजराने में देने का वादा किया। किन्तु अहिल्याबाई के सद्गुणों और प्रतिभा से उसकी प्रजा भली-भांति परिचित थी। इसलिए प्रजा कहीं असन्तुष्ट न हो जाय, इसका भय भी गंगाधर को था। फिर भी राघोवा ने गंगाधर की इस योजना पर अपनी स्वीकृति दे दी।

किन्तु गंगाधर को अपनी भूल शीघ्र मालूम हो गई। जब उसने अहिल्याबाई को इस सारे विषय की सूचना दी, तो अहिल्याबाई ने उत्तर दिया कि तुम्हारी इस योजना को स्वीकार करना होलकर वंश के लिए नितान्त लज्जास्पद है, और मैं कभी इसमें अपनी सम्मति न दूंगी। उसने गंगाधर को भली-भाँति समझा दिया कि रानी और राज-माता की हैसियत से राज्य का शासन-प्रबन्ध करने का अधिकार केवल मुझे है, किसी अन्य को नहीं।

अहिल्याबाई ने राघोवा को भी सूचना भेज दी कि एक स्त्री से युद्ध छेड़ने में आपके पल्ले कलंक पड़ सकता है, प्रतिष्ठा नहीं। होलकर-राज्य की समस्त प्रजा अहिल्याबाई के पक्ष में थी।

राघोवा ने इसे अपना अपमान समझा। वह इसका बदला खून से लेने को तैयार हो गया। अहिल्याबाई भी शान्त होकर नहीं बैठी। होलकर राज्य में राघोवा के विरुद्ध युद्ध का ऐलान कर दिया गया। राज्य की समस्त सेना अपनी राज-माता के अपमान का बदला लेने को तैयार हो गई; विशेषकर जब सैनिकों को यह ज्ञात हुआ कि अहिल्याबाई स्वयं युद्ध के मैदान में अपनी सेना का नेतृत्व अपने हाथों में लेंगी, तो सैनिकों के उत्साह का पारावार न रहा। अहिल्याबाई ने अपने हाथी पर रत्न-जटित हौदा कसवाया। हौदे के चारों कोनों पर बाणों से भरे हुए तूणीर और चार धनुष रखवाए।

परिस्थिति गम्भीर होते देखकर महादजी सिंधिया और जन्नोजी भोंसले ने राघोवा का विरोध किया। उधर स्वयं पेशवा ने राघोवा को आज्ञा दी कि तुम अहिल्याबाई के विरुद्ध कोई कार्य न करो। राघोवा ने परिस्थिति विपरीत देखकर अहिल्याबाई के विरुद्ध युद्ध करने का विचार छोड़ दिया।

अपनी असाधारण क्षमता से प्रेरित होकर अहिल्याबाई ने राघोवा को राजधानी में बुलाकर आदर-सत्कार किया और गंगाधर यशवन्त को भी फिर बहाल कर दिया गया।

गद्दी पर बैठने के बाद अहिल्याबाई ने तुकाजी होलकर को अपना सेनापति नियुक्त किया और आज्ञा दी कि सेना को भली-भाँति संगठित किया जाय।

सेना के संगठित हो जाने पर अहिल्याबाई ने अपनी समस्त शक्तियाँ राज्य-प्रबन्ध की ओर लगा दी। मालवा और नीमाड़ का कर अहिल्याबाई ही वसूल करती थी और बुन्देलखण्ड तथा दक्षिण का कर तुकाजी वसूल करता था। फौजी और दीवानी खर्च निकालकर सारा धन सार्वजनिक खजाने में चला जाता था। अपने खर्च के लिए चार लाख रुपये सलाना की जागीर पृथक् रखी थी।

अहिल्याबाई ने दूत पूना, हैदराबाद, श्रीरंगपत्तनन, नागपुर, लखनऊ और कलकत्ता में थे। अहिल्याबाई के जितने सामन्त-राजा थे, सबके यहाँ उसके दूत रहा करते थे।

महाराष्ट्र-स्त्रियों में पर्दे की प्रथा कभी नहीं रही, इसलिए अहिल्याबाई स्वयं रोज खुले दरबार में बैठकर दरबार की कार्यवाही संचालन करती थी। अहिल्याबाई के शासन का पहला सिद्धान्त था कि प्रजा से हलका लगान लिया जाय। किसान और गरीबों पर उसकी बड़ी कृपा रहती थी। उसने प्रजा के न्याय के लिए अदालत और पंचायतें खोल रखी थीं, लेकिन फिर भी वह स्वयं उनकी प्रत्येक शिकायत सुना करती थी। प्रजा के हर मनुष्य की पहुँच उस तक थी।

महारानी अहिल्याबाई अत्यन्त परिश्रमशील थी। राज्य के कार्यों से अवकाश पाकर वह अपना सारा समय भक्ति और परोपकार में लगाती थी। उसके प्रत्येक काम पर धार्मिकता की गहरी छाप रहती थी। वह बहुधा कहा करती थी कि अपने शासन के एक-एक काम के लिए मुझे परमात्मा के सामने जवाब देना होगा।

जब उसके मन्त्री शत्रु पर किसी प्रकार की सख्ती करने की सलाह देते थे, तो अहिल्याबाई कहती-हम उस सर्व-शक्तिमान् के रचे हुए पदार्थों को नष्ट न करें।

महारानी अहिल्याबाई नित्य ब्रह्ममुहूर्त में उठा करती थी। नित्य कर्म से निवृत्त होने के उपरान्त वह ईश्वर की उपासना करती थी। फिर कुछ देर तक धार्मिक ग्रन्थों का पाठ सुनती थी। इसके बाद अपने हाथों से निर्धनों को दान देती और ब्राह्मणों को भोजन कराकर तब स्वयं भोजन करती थी। वह सर्वथा निरामिष-भोजी थी। भोजन के उपरान्त वह फिर ईश्वर-प्रार्थना करती थी। फिर थोड़ी देर के लिए विश्राम करती थी। इसके बाद उठकर कपड़े पहनकर मध्याह्न दो बजे दरबार में पहुँच जाती थी। दरबार में वह प्रायः छः बजे शाम तक रहती थी। दरबार समाप्त होने के पश्चात् पूजा-पाठ और थोड़े से आहार के बाद नौ बजे रात को वह फिर दरबार में आ जाती थी और ग्यारह बजे रात तक काम करती रहती थी। इसके बाद अहिल्याबाई के सोने का समय होता था। इस दैनिक कार्यक्रम में सिवाय, व्रतों, विशेष त्यौहारों अथवा राज्य की विशेष आवश्यकताओं के कभी परि-वर्तन न होता था।

महारानी अहिल्याबाई के राज्य की समृद्धि और शान्ति अधिक प्रशंसनीय थी। इसका केवल एक कारण था और वह यह कि उसे प्रजा पर शासन करना ज्ञात था। अहिल्याबाई अपनी शान्त प्रजा के साथ दयावान्थी और अपनी उपद्रवी प्रजा के साथ उसका व्यवहार कड़ा, किन्तु न्याय-पूर्ण होता था। राज्य के मन्त्रियों को वह कभी नहीं बदलती थी।

इन्दौर पहले एक छोटा-सा गाँव था। अहिल्याबाई की ही विशेष कृपा से वह बढ़ते-बढ़ते एक विशाल सम्पन्न नगर हो गया।

अपने सामन्त-नरेशों के साथ महारानी अहिल्याबाई का व्यवहार अत्यन्त उदार होता था। सामन्त-नरेश अहिल्याबाई की इस उदारता का लाभ उठाकर कभी-कभी खिराज भेजने में असाधारण देर कर देते थे। किन्तु दो-चार बार अहिल्याबाई की कड़ी ताड़ना पाकर फिर भेज देते थे। कई छोटे-मोटे राजपूत सरदार अहिल्याबाई के राज्य में उपद्रव मचाकर लोगों को लूट लेते थे। अहिल्याबाई ने उन्हें प्रेम से जीतकर अपने राज्य के अत्यन्त शान्त और स्वामिभक्त नागरिक बना दिया।

अहिल्याबाई अपने राज्य में चारों ओर खुशहाली पैदा करने का अथक प्रयत्न करती थी। जब वह अपने राज्य के महाजनों, व्यापारियों, किसानों और काश्तकारों को उन्नति करते देखती, तो उसे बड़ी प्रसन्नता होती। उन पर टैक्स बढ़ाने के बदले महारानी अहिल्याबाई की उन पर कृपा बढ़ती।

सतपुड़ा घाट के गोंड और भील होलकर-राज्य में अक्सर उपद्रव मचाया करते थे। अहिल्याबाई ने पहले उनसे प्रेम से काम चलाना चाहा, किन्तु जब समझौते से कार्य न चला, तो उसे विवश होकर कई आदमियों को पकड़कर सूली पर लटकाना पड़ा। गोंड, भील उसके इस भीषण दण्ड को देखकर काँप गए। उन्होंने क्षमा की प्रार्थना की। उदार रानी ने उन्हें क्षमा कर दिया। उन्हें खेती करने के लिए जमीनें दीं। उन्हें यह अधिकार दे दिया कि उनके पहाड़ों से जो माल से लदी हुई गाड़ियाँ गुजरें, उन पर वे दो पैसे प्रति गाड़ी कर वसूल करें। इस तरह धीरे-धीरे अहिल्याबाई ने उन्हें शान्त और सुखी नागरिक बनाने की चेष्टा की।

महारानी अहिल्याबाई ने अपने राज्य में कई किले बनवाए। उसने विन्ध्याचल पर्वत पर, ऐसी जगह जहाँ पर कि पहाड़ जमीन से विल्कुल सीधा ऊपर को जाता है, बड़ी लागत पर एक सड़क बनवाई और चोटी के ऊपर जौम नाम का किला बनवाया। अहिल्याबाई ने अपनी राजधानी माहेश्वर में बहुत-सा रुपया खर्च करके कई मन्दिर और धर्मशालाएँ बनवाईं। होलकर राज्य भर के अन्दर उसने सैकड़ों कुएँ खुदवाए। किन्तु उस की यह उदारता अपने राज्य तक ही परिमित न थी। उसने भारत के समस्त तीर्थ-स्थानों में द्वारिकापुरी से लेकर जगन्नाथ-धाम तक और केदारनाथ से लेकर रामेश्वरम् तक मन्दिर और धर्मशालाएँ बनवाई। साधुओं के लिए सदाव्रत खुलवाए। बनारस का प्रसिद्ध मणिकर्णिका घाट महारानी अहिल्याबाई का ही बनवाया हुआ है।

दक्षिण के अनेक दूर-दूर के मन्दिरों में मूर्तियों के स्नान के लिए प्रति-दिन गंगाजल पहुँचने का प्रबन्ध अहिल्याबाई ने अपने खर्च पर कर रखा था। वह रोज गरीबों को खाना खिलाती थी और विशेष त्यौहारों पर छोटी से छोटी जातियों के लिए खेल तमाशे और आमोद-प्रमोद का प्रबन्ध किया करती थी। गर्मी के मौसम में प्यासों को ठण्डा जल पिलाने का प्रबन्ध करती थी और जाड़े में गरीबों को कम्बल बँटवाती थी। नदियों में मछलियों को खाना खिलवाती थी और गर्मी के दिनों में उसके आदमी किसान के हल में जुते बैलों को रोककर पानी पिलाते थे। चूंकि किसान पक्षियों को अपने खेत से उड़ा देते हैं, इसलिए उसने पक्षियों के लिए फल के अनेक बाग लगवा दिए थे, ताकि पक्षी स्वतन्त्रतापूर्वक उसमें अपना पेट भर सकें।

इन्हीं कार्यों के कारण लोग उससे शत्रुता करना पाप समझते थे। इतना ही नहीं, वरन् किसी भी शत्रु के विरुद्ध अहिल्याबाई की सहायता करना अपना धार्मिक कर्तव्य समझते थे। अन्य राजा भी उसका आदर करते थे। दक्षिण के निजाम और टीपू सुल्तान अहिल्याबाई का उतना ही आदर करते थे, जितना कि पेशवा करता था; और मुसलमान एवं हिन्दू-दोनों अहिल्याबाई के चिरजीवी होने और उसकी सौख्य—वृद्धि की ईश्वर से प्रार्थना करते थे।

60 वर्ष की अवस्था में 30 वर्ष तक राज्य करने के बाद सन् 1795 में महारानी अहिल्याबाई की मृत्यु हुई। कड़े उपवास और व्रतों ने उसके शरीर को दुर्बल बना दिया था।

अहिल्याबाई मध्यम कद की दुबली-पतली स्त्री थी। रंग उसका गहरा गेहुआँ था और जीवन की अन्तिम घड़ी तक उसके चेहरे से शान्ति और भलाई झलकती थी। अहिल्याबाई बड़ी हँसमुख थी, किन्तु लोगों के जुल्म और ज्यादतियों से जब उसे क्रोध आता था तो लोग काँपने लगते थे। धार्मिक ग्रन्थों से उसे विशेष प्रेम था। वह उन्हें पढ़ और समझ लेती थी। अहिल्याबाई राज्य-प्रबन्ध में अत्यन्त चतुर और दक्ष थी। अहिल्याबाई जब बीस वर्ष की भी न थी, उसके पति युद्ध में मारे गये। पुत्र भी उसका केवल नौ महीने राज्य करके मर गया। पति-वियोग और अपने पुत्र की असामयिक मृत्यु का उसके हृदय पर बड़ा गहरा असर पड़ा। पति-मृत्यु के बाद उसने कभी रंगीन कपड़े नहीं पहने; और सिवाय एक हीरों की माला के कोई दूसरा आभूषण भी नहीं पहना। खुशामद से उसे सख्त नफरत थी।

एक ब्राह्मण कवि उसकी प्रशंसा में एक पुस्तक लिखकर लाया। अहिल्याबाई ने उसे बड़े धैर्य के साथ सुना। जब वह समाप्त कर चुका तो कहने लगी—“मैं तो एक पापी और दुर्बल स्त्री हूँ। मैं इस प्रशंसा की पात्र नहीं।”

यह कहकर कवि की पुस्तक नर्मदा नदी में फिकवा दी गई।

उसमें अभिमान न था। वह अपने धर्म की कट्टर विश्वासी थी, किन्तु उसमें अनुदारता न थी। अपनी प्रजा के उन लोगों के साथ, जिनके धार्मिक विश्वास उससे भिन्न थे, अहिल्याबाई का व्यवहार विशेष अनुग्रह और उदारता का होता था।अहिल्याबाई की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने मालवा पर अधिकार कर लिया।

आठ 

सत्रहवीं शताब्दी के मध्यकाल में इंगलैंड ने अपने राजा चार्ल्स प्रथम का सिर कुल्हाड़े से काट डाला। उस समय वहाँ रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेन्ट सम्प्रदायों में झगड़े बढ़े हुए थे। राजसत्ता सुदृढ़ नहीं थी। ईसाई सम्प्रदाय दो भागों में विभक्त था। एक सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदाय से बैर रखता था, इसी कारण चार्ल्स प्रथम को अपना सिर कटाना पड़ा। 1625 ई० में जेम्स प्रथम की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र चार्ल्स प्रथम के नाम से इंगलैंड के सिंहासन पर बैठा। उस समय इंगलैंड की राजनैतिक अवस्था प्रोटेस्टेन्ट और रोमन कैथोलिकों के झगड़ों के कारण अत्यन्त डांवाडोल हो रही थी। चार्ल्स स्वयं अनुभवहीन था, इस पर उसे मन्त्रि-मण्डल भी उदण्ड तथा स्वेच्छाचारी मिला। परिणाम यह हुआ कि प्रजा पर नाना प्रकार के अत्याचार होने लगे। लोगों में क्रान्ति की लहर फैलने लगी। चार्ल्स ने क्रान्ति को निर्दयतापूर्वक कुचलना चाहा, परन्तु कृतकार्य न हुआ, उलटे प्रजा कुचले हुए सर्प की भाँति उसे नष्ट करने पर उतारू हो गई। राज्य-क्रान्ति हुई। पार्लियामेण्ट के नेता कामवेल ने जैसे-तैसे शान्ति स्थापित की, परन्तु चार्ल्स के प्रति उनके घृणा के भाव कम न हुए। सेनाओं का क्रोध इतना बढ़ गया कि वे चार्ल्स के सब साथियों को मार डालने पर भी तृप्त न हुईं। सब लोग चार्ल्स के लहू के प्यासे बन गये तथा उस पर अभियोग चलाने का आयोजन करने लगे। पार्लियामेण्ट के अधिकांश सदस्यों ने इसका विरोध किया, परन्तु कर्नल प्राइड ने तलवार के बल पर से सब विरोधियों को बाहर निकाल दिया तथा बचे हुए सभासदों से चार्ल्स पर अभियोग चलाने का बिल पास करवा दिया। बाद में, चिढ़ाने के लिए, इस बची हुई पार्लियामेण्ट का नाम रम्प रख दिया गया। बिल पास हो गया, परन्तु हाईकोर्ट के अनेक विचारकों ने इस कार्य में भाग लेने की अनिच्छा प्रकट की। इतने पर भी 150 सदस्यों की एक विचार-सभा बनाई गई तथा जॉन ब्राडशा को उसका सभापति नियुक्त किया गया।

चार्ल्स ने विचार सभा में आते ही ललकारकर कहा—”प्रजा का उस पर अभियोग चलाने का कोई अधिकार नहीं है। क्योंकि राजा की नियुक्ति परमात्मा की ओर से होती है, अतएव मनुष्य को तथा विशेषतया उसकी प्रजा को उसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं हो सकता।”

उसने अपने पक्ष में कोई प्रमाण देने से इन्कार कर दिया। परन्तु शत्रु तो तुले हुए बैठे थे। विचार-सभा में पाँच दिन बहस के बाद उसे मृत्युदण्ड दिया गया और व्हाहटहाल जेल भेज दिया गया। विचार-सभा के फैसले को पालियामेन्ट ने भी पास कर दिया और अपने राजा को मृत्यु-दण्ड देने की आज्ञा दे दी।

यद्यपि चार्ल्स के मित्रों को ऐसी आशंका थी, पर उन्हें इस निर्णय पर बड़ा दुख हुआ। राजा के परम मित्र डी आर्टगनन ने ऐसे संकट और नाजुक समय में बड़ी धीरता और विचार से प्रतिज्ञा की कि मैं यथाशक्ति यह कत्ल न होने दूंगा। पर किस प्रकार? इस समस्या को वह अभी तक सुलझा न पाया। यह सब कुछ अवसर पर निर्भर था। पर इतना समय ही कहाँ था? यदि किसी प्रकार बधिक को वहाँ से एक दिन के लिये हटा दिया जाता तो भी यथेष्ठ समय मिल सकता था। वास्तव में उसकी प्राण-रक्षा का एकमात्र उपाय बधिक को लन्दन से बाहर हटा देना था। पर उसे लन्दन से बाहर ले कैसे जाए, डी आर्टगनन के सामने यही सबसे कठिन समस्या थी।

अपने इस प्रयत्न को चार्ल्स स्टुअर्ट पर व्हाइटहाल जेल में पहुंचकर प्रकट करना अनिवार्य था, जिससे वह निकल भागने में सावधान रहे। एक दूसरे मित्र अरेमिस ने यह नाजुक काम अपने जिम्मे लिया। चार्ल्स को पादरी जुक्सन से जेल में मुलाकात करने की आज्ञा मिल गई थी। अरेमिस ने इस अवसर पर लाभ उठाना चाहा और यह सलाह ठहरी कि वह जुक्सन के कपड़े पहनकर और उसका पूरा भेष बनाकर उसकी जगह मिलने जाय और इस बात के लिये जुक्सन किसी न किसी प्रकार राजी कर लिया जाय। व्हाइट-हाल जेल पर तीन पलटनों का पहरा रखा गया था।

राजा के कमरे में सिर्फ दो मोमबत्तियाँ जल रही थीं। धीमा प्रकाश उसमें फैल रहा था। राजा उदास भाव से बैठे हुए अपने जीवन पर विचार कर रहे थे। मृत्यु-शय्या परपड़े मनुष्य को अपना जीवन कितना ज्योतिमय और आनन्ददायक दीखता है, ठीक वही दशा इस समय उनकी थी। उनका सेवक पेरी अब भी अपने स्वामी के साथ था और कत्ल की आज्ञा सुनने के समय से ही रो रहा था।

चार्ल्स स्टुअर्ट मेज पर झुके हुए अपने तमगे की ओर देख रहे थे, जिस पर उनकी स्त्री और लड़की के चित्र अंकित थे। वे दोनों की प्रतीक्षा में थे–पहले जुक्सन की और फिर मृत्यु की। स्वप्न-जैसी दशा में वे फ्रेंच वीरों का स्मरण कर रहे थे। कभी-कभी वे स्वयं ही प्रश्न कर बैठते थे—क्या यह सब कुछ स्वप्न नहीं है? क्या मैं पागल हूँ?

अँधेरी रात थी। पास वाले चर्च से घण्टा बजने की आवाज आ रही थी। कमरे में मन्द प्रकाश फैला हुआ था। उन्हें कुछ प्रतिबिम्बित मूर्तियाँ दिखाई दीं, पर वास्तव में कुछ था नहीं। बाहर कोयले की आग जल रही थी, उसी का यह प्रतिबिम्ब था।

अचानक किसी के पैरों की आहट सुनाई दी। दरवाजा खुला और मशालों के प्रकाश से कमरा चमक उठा। श्वेत वस्त्र धारण किये हुए एक शान्त मूर्ति अन्दर आई।

“जुक्सन” चार्ल्स ने कहा- “धन्यवाद, मेरे अन्तिम बन्धु! तुम खूब मौके पर आये।”

पादरी ने सशंक भाव से कोने की ओर देखा, जहाँ पेरी सुबक-सुबककर रो रहा था।

राजा ने कहा-“पेरी, अब रोओ मत। पवित्र पिता हमारे पास आए हैं।”

पादरी ने कहा-“यदि यह पेरी है तो फिर डरने का कोई कारण नहीं! श्रीमान्, मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं आपको अभिवादन करूं। आज्ञा हो तो मैं अपना परिचय भी दूँ और आने का कारण बताऊँ।”

आवाज को पहचानकर चार्ल्स चिल्लाने ही वाला था कि अरेमिस ने उसका मुँह बन्द कर दिया और झुककर अभिवादन किया।

चार्ल्स ने धीरे से कहा-“क्या तुम?”

“जी हाँ श्रीमान्, आपकी इच्छानुसार पादरी जुक्सन हाजिर है।”

“यहाँ कैसे आ पहुँचे? यदि वे तुम्हें पकड़ लें तो तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े कर डालेंगे?”

अरेमिस खड़ा था। उसकी आकृति इस समय देव-तुल्य थी। उसने कहा-“श्रीमान्, मेरी चिन्ता न कीजिये। आप अपनी फिक्र कीजिए। आपके मित्रों की दृष्टि आपके ऊपर लगी हुई है। हम क्या करेंगे, यह अभी तक मैं भी नहीं जान पाया हूँ, पर हम चार आदमी हैं और चारों ही आपकी रक्षा करने पर तुले हुए हैं। रात-भर का समय है। आप सोइये, किसी बात पर चौंकिये भी नहीं। क्षण-क्षण की प्रतीक्षा कीजिये।”

चार्ल्स ने सिर हिलाकर स्वीकृति दी।

फिर कहा-“मित्र, तुम्हें ज्ञात है कि तुम्हारे पास व्यर्थ समय नहीं है। यदि तुम्हें कुछ करना ही है तो बहुत जल्दी करो। कल प्रातः दस बजे मैं जरूर मर जाऊँगा।”

“श्रीमान्, इसी बीच में कोई ऐसी घटना हो जायेगी, जिससे आपका वध असम्भव हो जायेगा।”

राजा ने अरेमिस की ओर विस्मित दृष्टि से देखा। उसी समय नीचे खिड़की के पास लकड़ी के लट्ठे के उतारने की आवाज सुनाई दी।

राजा ने कहा- “यह आवाज सुनते हो?”

आवाज के साथ-साथ चिल्लाने का शोर भी था।

अरेमिस ने कहा-“सुन रहा हूँ। पर यह शोर कैसा है, यह नहीं समझ आता।”

“क्या जाने, पर यह आवाज कैसी है, यह मैं बता सकता हूँ। तुम जानते हो कि मेरा कत्ल इसी खिड़की के बाहर होगा?”

“हाँ श्रीमान्, यह तो जानता हूँ।”

“तो ये लट्ठे मेरी पाड़ बनाने के लिए लाए जा रहे हैं। कई मजदूरों को तो इन्हें उतारते-उतारते चोट लग चुकी है।”

अरेमिस काँप उठा।

राजा ने कुछ ठहरकर कहा- “देखो, जीवन की आशा व्यर्थ है। मुझे प्राण-दण्ड की आज्ञा मिल चुकी है। तुम मुझे मेरे भाग्य पर छोड़ दो।”

अरेमिस ने कहा-“श्रीमन्, वे लोग पाड़ बना सकते हैं, पर बधिक को कहाँ से लायेंगे?”

“इसका क्या मतलब?”

“यही कि अब तक तो बधिक बहुत दूर निकल गया होगा, इसलिये आपका बध अगले दिन के लिये स्थगित करना पड़ेगा।”

“अच्छा?”

“कल रात को हम लोग आपको यहाँ से ले भागेंगे?”

“किस तरह?”–राजा ने चौंककर पूछा। उसका चेहरा प्रसन्नता से खिला हुआ था।

पेरी ने हाथ जोड़कर कहा-“आपको और आपके साथियों को ईश्वर सफलता दे।”

“मुझे तुम्हारी बातें तो मालूम होनी चाहिए, ताकि मैं भी तुम्हारी कुछ सहायता कर सकूँ।”

“सो तो मैं नहीं जानता श्रीमन्। लेकिन हम चारों में जो सबसे अधिक चतुर, वीर और धुन का पक्का आदमी है, उसी ने चलते वक्त मुझसे कहा था कि महाराज से कह देना कि कल रात को दस बजे हम उन्हें भगा लायेंगे। जब उसने यह कहा है तो वह अवश्य पूरा करेगा।”

“मुझे उस उदार सज्जन का नाम तो बताओ, ताकि मैं अन्त समय तक उसे धन्यवाद देता रहूँ, चाहे वह अपने काम में सफल हो या न हो।”

“डी आर्टगनन श्रीमन्। ये वही सज्जन हैं जो आपको उस समय बचाने में असफल रहे थे, जबकि कर्नल हैं रीसन महलों में घुस आये थे।”

“तुम सचमुच विचित्र आदमी हो। यदि मुझसे कोई ऐसी बात कहे तो मैं कभी विश्वास न करूँ।”

“श्रीमान् हम प्रत्येक क्षण आपकी रक्षा के लिए प्रयत्नशील हैं। छोटी-से-छोटी चेष्टाएँ धीमी से धीमी कानाफूसी और गुप्त से गुप्त संकेत, जो शत्रु आपकी बाबत करते रहते हैं, हमसे छिपा नहीं रह सकता।”

“ओह! मैं क्या करूँ? मेरे अन्तस्तल से कोई शब्द नहीं निकलता है। मैं तुम्हें कैसे धन्यवाद दूँ? यदि तुम अपने कार्य में सफल हुए तो मैं यही नहीं कहूँगा कि तुमने एक राजा को बचाया है, बल्कि तुमने एक स्त्री का पति बचाया है, बच्चों का पिता बचाया है। अरेमिस मेरा हाथ तो दबाओ यह हाथ तुम्हारे ऐसे मित्र का है, जो अन्तिम श्वास तक तुम्हें प्यार करता रहेगा।”

अरेमिस ने चाहा कि राजा के हाथ चूम लूँ। पर उसने तुरन्त हाथ खींचकर अपने हृदय पर रख लिया।

अकस्मात एक व्यक्ति ने बिना द्वार खटखटाए अन्दर प्रवेश किया। बहुत से गुप्तचर आस-पास लगे रहते थे। उन्हीं में से एक यह भी था। यह पादरी था।

राजा ने उससे पूछा-“आप क्या चाहते हैं?”

“मैं जानना चाहता हूँ कि चार्ल्स स्टुअर्ट की स्वीकृति खत्म हुई या नहीं?”

“इससे आपका क्या मतलब है? हम लोग तो एक ही पन्थ के मानने वाले नहीं हैं न?”

“सब आदमी भाई-भाई हैं। मेरा एक भाई मरने वाला है और मैं उसे मृत्यु के लिए तैयार करने आया हूँ!”

पेरी ने कहा- “हमारे स्वामी को शिक्षा की जरूरत नहीं है।”

अरेमिस ने धीरे से राजा से कहा-“इनसे नर्मी का व्यवहार करें, यह तो एक सेवक मात्र हैं।”

राजा ने कहा-“पवित्र पिता से मुलाकात करने के बाद मैं आपसे प्रसन्नता से बातें कर सकूँगा।”

एक संदिग्ध दृष्टि फेरता हुआ वह व्यक्ति वहाँ से चला गया। जुक्सन वेशधारी पादरी को भी उसने सन्देह की दृष्टि से देखा है, यह बात राजा से छिपी न रही।

दरवाजा बन्द हो जाने पर राजा ने कहा- “मुझे विश्वास हो गया कि तुम ठीक कहते थे। यह आदमी किसी बुरे भाव से आया था। जब तुम लौटो तो सावधान रहना। कोई आपत्ति न आ जाए।”

“श्रीमन्, मैं आपको धन्यवाद देता हूँ, पर आप व्याकुल न हों। इस लबादे के नीचे मैं एक कवच पहने हुए हूँ और एक खंजर भी मेरे पास है।”

“तब जाओ मन्शेर। ईश्वर तुम्हें सकुशल रखे। यही आशीर्वाद जब मैं राजा था, तब भी दिया करता था।”

अरेमिस बाहर चला गया। चार्ल्स द्वार तक पहुँचाने आए। अरेमिस ने आशीर्वाद दिया। पहरेदारों ने मस्तक झुका दिए, और बड़ी शान के साथ सैनिकों से भरे उस कमरे में से निकलकर वह अपनी गाड़ी में आ बैठा। गाड़ी पादरी साहब के घर की ओर चल दी।

जुक्सन व्याकुलता से उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। अरेमिस को देखकर उसने कहा-“आ गए?”

अरेमिस ने कहा-“जी हाँ, “मेरी इच्छानुसार सब कुछ सफल हुआ। सिपाही, पहरेदार, सभी ने मुझे समझा कि आप ही हैं। राजा ने आपको आशीस दी है और आपकी आशीस के लिए भी वे व्याकुल हैं।”

“मेरे पुत्र, ईश्वर ने तुम्हारी रक्षा की है। तुम्हारे इस कार्य से मुझे बहुत-कुछ आशा और साहस हुआ है।”

अरेमिस ने फिर अपने कपड़े पहने और जुक्सन से यह कहकर कि मैं फिर आऊँगा, चल दिया।

वह मुश्किल से दस गज गया होगा कि एक आदमी को लबादा पहने हुए उसने अपनी ओर आते देखा। वह सीधा आकर उसके पास खड़ा हो गया! वह पोरथस था।

पोरथस ने अरेमिस के हाथ में हाथ मिलाते हुए कहा- “मैं तुम्हारी देख-रेख कर रहा था। क्या तुम राजा से मुलाकात कर चुके?”

“हाँ, सब ठीक है। पर हमारे और साथी कहाँ हैं?”

“हमने उस होटल में ग्यारह बजे मिलने का निश्चय किया था न?”

“तो फिर अब समय नष्ट न करना चाहिए।”

गिरजे की घड़ी ने साढ़े दस का घण्टा बजाया। वे जल्दी-जल्दी चले और वहाँ सबसे पहले पहुँच गए। इनके बाद अथस पहुँचा।

अथस ने पूछा-“सब ठीक है न?”

अरेमिस ने कहा-“हाँ, तुम क्या कर आए?”

“मैंने एक नाव किराए पर तय की है। वह नाव बहुत तेज चलने वाली है। डाग्स टापू के ठीक सामने ग्रीनविच पर वह हमारी प्रतीक्षा करेगी। उस पर एक कप्तान है और चार सिपाही हैं। तीन रात के लिए पचास पौण्ड में तय हुए हैं। वे हमारी इच्छानुसार काम करेंगे। पहले तो हम टेम्स में दक्षिण दिशा को चलेंगे, फिर करीब दो घण्टे में खुले समुद्र में पहुँच जावेंगे। वहाँ पहुँचकर असली समुद्री डाकुओं की तरह किनारे-किनारे, और यदि समुद्र अनुकूल हुआ तो बोलोगने की ओर चलेंगे। कप्तान का नाम रागर्स है और नाव का नाम लाइटनिंग है। निशानी के लिए एक रूमाल है, जिसके कोनों में गाँठे बँधी हुई हैं।”

थोड़ी देर पीछे ही आर्टगनन ने प्रवेश किया।

उसने कहा-“अपनी जेबों में से निकलो क्या है, और सौ पौण्ड इकट्ठ करके मुझे दो।”

रकम फौरन इकट्ठी कर दी गई। डी आर्टगनन बाहर चला गया और जल्दी ही लौट आया। उसने कहा-“अच्छा, यह काम भी पूरा हुआ।”

अथस ने पूछा-“क्या बधिक लन्दन छोड़कर चला गया?”

“वह एक द्वार से जा सकता था, और दूसरे से आ सकता था। इसलिए सावधानी की दृष्टि से बन्द कर दिया है।”

“वह है कहाँ?”

“होटल में एक कोठरी में कैद है। मोसक्येटन दरवाजे पर बैठा है। यह लो उसकी ताली।”

अरेमिस ने कहा, “शाबास, पर तुमने उसे बाहर आने तक राजी कैसे किया?”

“रुपये से। इसमें खर्च तो बहुत हुआ।”

अथस ने कहा- “यद्यपि बधिक! सम्बन्धी काम खत्म हो चुका है, पर उसके सहायक भी तो बहुत हैं।”

“हाँ, हैं तो पर इस समय भाग्य हमारे साथ है।”

“कैसे?”

“जब मैं यह सोच रहा था कि अब क्या करूँ, तभी कई आदमी मेरे नौकर को, जिसकी टाँग टूट गई थी, लेकर मेरे घर पर गये। जोश में उन्मत होकर वह एक गाड़ी के पीछे-पीछे हो लिया था। इसमें पाड़ बनाने के लिये लकड़ी का सामान जा रहा था। उसमें से एक लट्ठा निकलकर उसकी टाँग पर गिर पड़ा और वह टूट गई।”

अरेमिस ने कहा-“ओह, यह वही व्यक्ति था जिसकी चिल्लाने की आवाज मैंने राजा के कमरे में सुनी थी।”

आर्टगनन ने कहा–“सम्भव है, उसने चलते समय उनसे यह वादा किया कि तुम्हारा काम पूरा करने के लिए मैं चार आदमी शीघ्र ही भेजूंगा। और घर पहुंचते ही अपने एक दोस्त बढ़ई को जिसका नाम मिस्टर होमलो है, लिखा कि मेरे वादे के अनुसार तुम तुरन्त व्हाइटहॉल पहुंचो। देखो, यह पत्र है जिसे एक विश्वासपात्र आदमी के हाथों दस पेन्स देकर भेजा गया उसका था। और उस आदमी से वह पत्र अधिक मुद्रा देकर मैंने खरीद लिया है।”

अथस ने पूछा–“उस पन से हमें क्या ?”

“नहीं समझ सके?”

“नहीं तो।”

“अथस, जॉनबुल की तरह अंग्रेजी बोल सकने योग्य तुम मिस्टर होमलो बन जाओ और हम उसके तीनों साथी बन जाएँ । अब समझे?”

अथस प्रसन्नता से उछल पड़ा।

चारों ने मजदूरों जैसा भेष बना लिया और पाड़ बनाने चले। अथस के कन्धे पर आरी थी, पोरथस पर रन्दा, अरेमिस पर कुल्हाड़ी और डी आर्टगनन पर हथौड़ा और कीलें थीं।

आधी रात के समय राजा ने खिड़की के नीचे बहुत शोर-गुल सुना। यह सब कुछ हथोड़े की चोटों और चीरने-फाड़ने से हो रहा था। उस अन्धकार और निस्तब्धता में वह पहले से ही भयभीत हो रहे थे। इस शोर-गुल से उनकी रही-सही हिम्मत भी जाती रही । उन्होंने पेरी को द्वारपाल के पास यह कहला भेजा कि “जरा इन मजदूरों से कह दो, कम शोर मचावें। कम से कम इस अन्तिम रात्रि में तो मुझे सुख से सो लेने दे।”

पेरी ने बाहर जाकर पहरेदार से कहा परन्तु वह अपनी ड्यूटी से हट नहीं सकता था। इसलिए पेरी को ही वहाँ जाकर मना कर आने की आज्ञा उसने दे दी। महल का चक्कर काटकर पेरी ने उस खिड़की के नीचे पहुँच-कर देखा कि पाड़ अभी पूरी नहीं हो पाई है और वे लोग उसमें कीलों से काला कपड़ा लटका रहे हैं।

पाड़ की ऊँचाई जमीन से 20 फीट ऊँची खिड़की तक थी। इसमें नीचे दो मंजिलें थीं। पेरी घृणा से उन आठ-दस मजदूरों को, जो अभी तक शीघ्रता से काम कर रहे थे, देखने लगा। वह देखना चाहता था कि किस आदमी के कार्य से राजा कष्ट पा रहे हैं। दूसरी मंजिल की ओर उसने देखा कि दो आदमी लोहे की कमानी सरका रहे हैं। हथौड़े की चोट पड़ते ही पत्थर खोल-खील होकर बिखर जाता है और एक आदमी घुटने टेके इधर-उधर पड़े हुए कंकड़ों को हटाता जाता है। उसे निश्चय हो गया कि यहीं के शोर की राजा शिकायत कर रहे थे।

पेरी जीने पर चढ़कर उनके पास गया और कहने लगा- “दोस्तो, अपना काम जरा धीरे-धीरे करो, जिससे शोर न मचे। मैं आप से यही प्रार्थना करने आया हूँ। राजा इस समय सो रहे हैं और उन्हें पूरे विश्राम की जरूरत है।”

हथौड़े से काम करने वाला व्यक्ति रुक गया और पीठ फेरकर उधर देखने लगा, पर अँधेरे के कारण पेरी उसका मुंह न देख सका। दूसरा आदमी जो घुटने टेके काम कर रहा था, वह भी मुड़ा। यह कम लम्बा था, अतः इसका चेहरा लालटेन के प्रकाश में दिखलाई पड़ रहा था। उस आदमी ने पेरी पर एक कड़ी दृष्टि डाली और उसके मुंह पर उँगलियाँ रख दीं। पेरी हड़बड़ाकर पीछे हट गया।

उस मजदूर ने कहा–“राजा से कह दो कि यदि आज रात को सुख से न सो सकेंगे तो कल रात को सुख से सो लेंगे।”

दूसरे मजदूरों ने भी कठोरता से हाँ में हाँ मिलाई। पेरी वहाँ से चल दिया। उसे ऐसा मालूम पड़ता था, मानो वह स्वप्न देख रहा है।

चार्ल्स बेचैनी से पेरी की बाट देख रहे थे। जब पेरी अन्दर आया तो पहरेदार ने यह जानने की इच्छा से कि राजा क्या कर रहे हैं, अन्दर झाँका। राजा कुहनी के सहारे पलंग पर लेटे हुए थे पेरी ने दरवाजा बन्द कर दिया। उसका चेहरा प्रसन्नता से लाल हो रहा था।

पेरी ने धीरे से कहा–“श्रीमन्, आपको पता है इतना शोर मचाने वाले वे मजदूर कौन हैं?”

राजा ने उदास भाव से सिर हिलाकर उत्तर दिया–“नहीं, मैं कैसे जान सकता हूँ? क्या वे आदमी मेरे परिचित हैं?”

पेरी ने पलंग पर झुककर जरा और धीरे से कहा–“श्रीमन्, वे हैं अथस और उनके साथी।”

“मेरी पाड़ क्या वे बना रहे हैं?”

“हाँ, और साथ ही साथ दीवार में सूराख भी कर रहे हैं?”

राजा ने चारों ओर भयभीत दृष्टि से देखते हुए कहा–“सच! क्या तुमने देखा?”

“मैं तो बात भी कर आया।”

राजा ने दोनों हाथ जोड़कर ईश्वर से प्रार्थना की। वे खिड़की के पास गये और परदों को हटा दिया। पहरेदार अव भी पहरे पर थे। ठीक उसी के नीचे एक काले से चबूतरे पर वे परछाईं की तरह घूमते नजर आते थे। चार्ल्स को अपने पैरों के नीचे चोट पड़ने की आवाज सुनाई दी।

पेरी ने अथस को पहचान लिया था। यह पोरथस की सहायता से लट्ठा रखने के लिए दीवार में छेद कर रहा था। इस छेद का सम्बन्ध राजा के कमरे से था। कन्धा लगाकर कमरे के फर्श की ईंटें निकाली जा सकती थीं और राजा इस छेद में होकर बाहर निकल सकते थे और पाड़ के एक कोने में, जहाँ काला कपड़ा ढका हुआ था, छिप सकते थे। वहाँ छिपे ही छिपे मजदूर-जैसे कपड़े पहनकर वे अपने चारों साथियों सहित भाग सकते थे। पहरेदार बिना सन्देह किए ही उन मजदूरों को चले जाने की आज्ञा दे सकते थे, क्योंकि ये लोग पाड़ बनाने वाले थे। इधर काम भी खतम होने ही वाला था। उनके भागने की युक्ति सीधी, सच्ची और सरल थी। अथस के कोमल हाथ पत्थर निकालते-निकालते छिल गए थे, इसलिए पोरथस इस काम को करने लगा। आर्टगनन ने फ्रेंच कारीगर का छद्म-वेश बना रखा था। उसने कीलें ऐसी तरकीब से लगाई थीं कि एक चतुर कारीगर मालूम पड़ता था। अरेमिस ने ऐसा लबादा पहन रखा था जो जमीन तक लटकता था उसकी पीठ पर पाड़ का नक्शा कढ़ा हुआ था।

प्रभात हुआ। सर्दी के दिन थे। कारीगर लोग अपना काम छोड़-छोड़-कर आग जलाकर तापने के लिए वहाँ आ बैठे। केवल अथस और पोरथस ने अपना काम अभी तक नहीं छोड़ा था। सवेरा होने तक उन्होंने सूराख पूरा कर लिया। एक काले कपड़े में राजा के पहनने योग्य कपड़े लपेटकर अथस घुस गया। पोस्याले में कुश्मी पूकड़ा दी, और डी आर्टगनन ने कीलों से अथस को सुराख के अन्दर रहकर अभी दूसरी दीवार और फोड़नी थी, तब कहीं जाकर वह राजा के पास तक पहुँच सकता था। इन चारों ने सोचा कि अभी तो सारा दिन पड़ा है, बधिक तो आवेगा ही नहीं, चलो बिस्टल से एक साथी और पकड़ लावें।

आर्ट गनन और पोरथस अपने-अपने कपड़े बदलने चले गए, और अरे-मिस पादरी से सहायता प्राप्त करने की आशा से उनके पास चला गया।

तीनों ने व्हाइटहॉल के सामने दोपहर को मिलने का निश्चय किया ताकि वे वहाँ की कार्यवाही देख सकें। पाड़ छोड़ने से पहले अरेमिस उस सुराख के पास, जहाँ अथस छिपा हुआ था, गया और उससे बोला कि मैं जाता हूँ। एक बार मैं चार्ल्स से मिलने का फिर प्रयत्न करूँगा।

अथस ने कहा–“साहस न खोना। राजा से सारा मामला कह सुनाना। उनसे कहना कि जब वे अकेले हों तो फर्श पर खटखटा दें ताकि मैं निश्चय-पूर्वक अपना काम करता रहूँ। अगर पेरी चिमनी का पत्थर हटाने में मेरी सहायता करे तो और भी अच्छा है। यदि कमरे में कोई पहरेदार हो तो फौरन उसे मार डालो। और जो दो हों तो एक को पेरी मार डालेगा और एक को तुम मार डालना। पर यदि तीन हों तो चाहे तुम मर भी क्यों न जाओ, किसी न किसी प्रकार राजा की रक्षा करना।”

अरेमिस ने कहा–“मैं दो कटार ले आऊँगा। इनमें से एक पेरी को दे दूंगा।”

“हाँ, अब जाओ पर राजा को सावधान कर देना कि खुशी में बहुत फूल नहीं। जब तुम लड़ रहे हो और उन्हें मौका मिले तो उनसे कह देना कि वे भाग जावें। फिर तुम चाहे मरना या जीना। दस मिनट तक तो सुराख का पता लग ही न सकेगा कि राजा किधर भाग गए। इन दस मिनटों में हम अपने रास्ते लगेंगे और राजा की प्राण-रक्षा हो जायगी|”

“जैसा तुम कहते हो, वह तो होगा ही अथस। लाओ हाथ मिलाओ। शायद अब हम कभी न मिलेंगे।”

अथस ने अपनी बाँहें अरेमिस के गले में डाल दी और दोनों बगलगीर होकर मिले।

उसने कहा–“तुम्हारी खातिर अब यदि मैं मर भी जाऊँ तो आर्टगनन से कहना कि मैं उसे अपने बच्चे की तरह प्यार करता था। मेरी तरफ से उसे गले लगा लेना। हमारे वीर पोरथस को भी गले लगाना।”

अरेमिस ने कहा- “इन जैसे राजभक्त शायद ही संसार में कोई हों।”

अरेमिस चल दिया और होटल में पहुँचा। वहाँ उसके दोनों साथी आग के सामने बैठे हुए शराब पी रहे थे और नाश्ता कर रहे थे। पोरथस खाता जाता था और पार्लियामेण्ट वालों को उनकी करतूतों के ऊपर कोस रहा था। आर्टगनन चुपचाप बैठा हुआ कुछ विचार कर रहा था।

अरेमिस ने सब हाल कह सुनाया। आर्टगनन ने सिर हिला दिया।

पोरथस ने कहा-“ठीक है, परन्तु राजा के भागने के समय हमें वहाँ हाजिर होना चाहिए। पाड़ के नीचे छिपने की अच्छी जगह है। आर्टगनन, मैं, ग्रीमोड और मास्कोटन, हम सब उनके आठ आदमियों को मार सकते है।

अरेमिस ने जल्दी से एक ग्रास खाकर एक गिलास शराब पी और अपने कपड़े बदल लिए|उसने कहा-“अब मैं पादरी के घर जाता हूं। हथियारों को संभाल लो। बधिक के ऊपर निगाह रखना आर्टगनन।” अरेमिस ने आर्टगनन को गले लगाया और चल दिया। चलकर वह पादरी जुक्सन के घर पहुँचा और अपने आने की खबर दी। पादरी महाशय उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने उसे तुरन्त अन्दर बुला भेजा।

कुछ बातचीत कर चुकने पर वे दोनों गाड़ी में बैठकर चल दिए। अभी नौ भी न बजे होंगे कि गाड़ी व्हाइट हॉल के सामने पहुँच गई। इस बीच में कोई विशेष घटना नहीं हो पाई थी। दो सिपाही तो दरवाजों पर तैनात थे और दो पाड़ के तख्तों पर इधर-उधर टहल रहे थे।

राजा अरेमिस को देखकर प्रसन्न हुए। उन्होंने जुक्सन को गले लगा लिया। पादरी जुक्सन ने पहरेदारों से वहाँ से हट जाने को कहा। सब चले गए।

दरवाजा बन्द होने पर अरेमिस ने कहा-“श्रीमान्, आप बच गए हैं। लन्दन का बधिक गायब है। उसके सहायक ने उसकी जाँघ तोड़ दी है। हमें पूरा निश्चय है कि बधिक यहाँ नहीं है और दूसरा बधिक ब्रिस्टल के सिवा यहाँ कहीं आस-पास मिल भी नहीं सकता। उसे वहाँ से बुलाने के लिए काफी समय चाहिए। इस हिसाब से कल तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।”

राजा ने कहा-“लेकिन अथस?”

“आपसे दो फीट दूर है श्रीमान्। लोहे का डण्डा लेकर तीन बार खट-खटाइए। देखिए, वह आपको इसका उत्तर देता है कि नहीं।”

राजा ने ऐसा ही किया और उत्तर में तुरन्त ही फर्श के नीचे से खटखट की आवाज सुनाई दी।

राजा ने पूछा-“क्या वही उत्तर दे रहा है?”

“जी हाँ, अथस ही रास्ता बना रहा है, जिससे श्रीमान् निकल भागेंगे। पेरी यदि चिमनी के पत्थर को उठा लेगा तो आर-पार रास्ता बन जायगा।”

पेरी ने कहा-“पर मेरे पास औजार कहाँ हैं?”

अरेमिस ने कहा-“लो, यह खंजर लो पर इसकी धार बिगड़ने न पावे, क्योंकि इससे अभी और काम है।”

नीचे अथस अपना काम कर रहा था। उसकी ध्वनि प्रतिक्षण पास आती मालूम होती थी। पर अचानक कुछ शोर सुनाई दिया। अरेमिस ने लोहे का डण्डा लेकर खटखटा दिया और अथस को काम बन्द करने का संकेत किया।

शोर बढ़ता ही गया। अब पैरों की आवाज स्पष्ट आने लगी। चारों व्यक्ति चुपचाप खड़े हो गए। उनकी आँखें दरवाजे पर लग रही थीं। दरवाजा धीरे से खुला।

कुछ पहरेदार एक कतार बाँधे राजा के कमरे में आकर खड़े हो गए। पार्लियामेण्ट का एक कमिश्नर काली वर्दी पहने गम्भीर भाव से अन्दर आया। उसने राजा का अभिवादन किया और चमड़े की बसली को खोलकर एक वाक्य पढ़कर सुना दिया। पाड़ पर मरने के लिए जब कोई जाता है तो उसे इसी प्रकार यह वाक्य सुनाने का नियम है।

अरेमिस ने जुक्सन से पूछा- “इसका क्या अर्थ है?”

जुक्सन ने संकेत द्वारा उत्तर दिया कि मैं भी नहीं जानता।

राजा ने जुक्सन और अरेमिस की ओर देखते-देखते पूछा-“तब क्या आज का ही वध निश्चय रहा?”

कमिश्नर ने कहा-“क्या आपसे पहले ही नहीं कह दिया गया था श्रीमान, कि आज का ही दिन निश्चय हुआ है।”

राजा ने कहा-“क्या मैं एक साधारण व्यक्ति की भाँति लन्दन के एक बधिक के हाथों मारा जाऊँगा?”

“राज्य के बधिक का तो कुछ पता नहीं। पर एक अन्य व्यक्ति ने यह काम अपने हाथ में ले लिया है। वध कुछ समय के लिए रोक दिया है, ताकि आप इहलोक और परलोक का भली-भाँति चिन्तन कर लें।”

यह सुनकर राजा के रोम-रोम से पसीना बहने लगा, और अरेमिस का रंग एकदम काला पड़ गया। उसके हृदय की धड़कन मानो बंद हो गई। उसने आँखें बंद कर मेज पर हाथ टेक दिए। उनके इस गहरे दुख को चार्ल्स ने देखा। वह अपना दुख भूल गए और उसे गले लगा लिया।

उन्होंने उदास भाव से मुस्कराहट के साथ कहा-“धैर्य रखो।”

फिर कमिश्नर की ओर मुड़कर कहा-“महोदय। मैं तैयार हूँ। दो बातों की मेरी इच्छा है। आपको इसमें कुछ देर न लगेगी। एक तो मैं कॉम्यूनियन का स्वागत करूं और दूसरे अपने बच्चों को गले लगाकर अंतिम विदा ले लूं। क्या मुझे इनकी आज्ञा मिलेगी?”

“हाँ श्रीमान।” कमिश्नर यह कहकर चला गया।

राजा ने अपने घुटने टेककर कहा-“जुक्सन मेरी स्वीकृति सुन लीजिये।”

अरेमिस जाने लगा, परन्तु राजा ने उसे रोककर कहा-“ठहरो पेरी, स्वीकृति तुम भी सुन लो।”

जुक्सन बैठ गये और राजा सेवक की भाँति अपनी स्वीकृति कहने लगे।

स्वीकृति समाप्त कर चुकने पर चार्ल्स अपने बच्चों से मिलने दूसरे कमरे में चले गये। कुछ देर बाद वे लौट आए।

जनता की भीड़ इकट्ठी हो चुकी थी, वध का समय ठीक दस बजे रखा गया था। आसपास की गलियों में भी लोग भर गये थे। राजा उनके शोरगुल को खेदपूर्ण दृष्टि से देखने लगे। वे सोचने लगे, यह भयंकर कोलाहल जनता की अपार भीड़ का है या समुद्र का? जनता उत्तेजित अवस्था में और समुद्र अपने तूफान के समय ही ऐसा कोलाहल करता है।

राजा के चारों ओर सिपाही खड़े हुए थे। उन्हें भय हुआ कि कहीं आहट होते ही अथस अपना काम शुरू न कर दे, इसीलिए वे मूर्तिवत चुपचाप खड़े रहे।

राजा का अनुमान ठीक था। अथस ठीक उनके नीचे था। राजा ने सुना कि वह संकेत पाने की बाट में है। कभी-कभी तो वह बेचैन होकर पत्थर काटने लगता था। पर कोई सुन न ले, इस भय से तुरन्त ही बन्द भी कर देता था। दो घण्टे तक यही भयानक क्रम चलता रहा। मृत्यु की निस्तब्धता उस बन्दीगृह में छा गई।

अथस ने सोचा, मैं देखू तो, लोगों ने कैसा शोरगुल मचा रखा है। वह परदा खोलकर पाड़ की पहली मंजिल में उतर आया। यहीं पाड़ थी। उसे शोरगुल अब और भी जोर-जोर से सुनाई देने लगा। वह पाड़ के किनारे पहुँचा और काले कपड़े को खोला। उसने देखा कि सिर काटने का यन्त्र तैयार है। उसके पीछे बन्दुकधारी सिपाही हैं।

अथस ने भयभीत हो मन ही मन कहा-“यह क्या मामला है?” आदमी बढ़े चले जा रहे हैं, सिपाही हथियारबन्द हैं? और ये दर्शक लोग खिड़की की ओर एकटक क्या देख रहे हैं? मैं डी आर्टगनन को भी देख रहा हूँ, वह क्या घूमता है? हे भगवान्, क्या बधिक भाग निकला?”

अचानक ढोल बजा। उसके सिर के ऊपर पैरों की भारी आवाज सुनाई दी। उसे ऐसा लगा जैसे व्हाइटहॉल में कोई जुलूस निकल रहा है। फिर उसने किसी को पाड़ पर उतरते भी सुना। आशा, भय और विस्मय उसे परेशान कर रहे थे। वह कुछ समझ नहीं सका।

भीड़ की गुनगुनाहट बिलकुल बन्द हो गई थी। सबकी आँखें व्हाइटहॉल की खिड़की की ओर लगी हुई थीं। अधखुले मुख और रह-रहकर साँस यह बताती थी कि कुछ अनिष्ट होने वाला है।

लोगों ने देखा कि एक आदमी चला आ रहा है। उसके हाथ में नरघाती कुल्हाड़ी थी। इसी से वह बधिक मालूम पड़ता था। तख्ते पर पहुँचकर उसने कुल्हाड़ी रख दी।

बधिक के पीछे शान्त भाव से दो पादरियों के बीच चार्क्स आए।

बधिक को देखते ही सब लोग सब कुछ समझ गये। सबको यह जानने की उत्सुकता थी कि यह अजनबी बधिक कौन है, जो ठीक मौके पर इस भयानक खून के लिए तैयार हुआ है। लोगों का विचार था कि बात कल के लिए टल गई है। बधिक मझले कद का था। उसके वस्त्र काले थे। उसकी उमर पक चुकी थी। उसकी पेशानी पर सफेद बाल लटक रहे थे।

राजा की शान्त सुन्दर और सजी हुई मूर्ति देखकर निस्तब्धता छा गई। लोग उनकी अन्तिम अभिलाषा सुनना चाहते थे।

चार्ल्स ने अधिकारी से कहा-“मैं लोगों से कुछ कहना चाहता हूँ।”

उन्हें आज्ञा दे दी गई।

राजा ने कहना शुरू किया। उन्होंने जनता को समझाया कि मेरा तुम्हारे प्रति कैसा व्यवहार रहा है। उन्होंने उसे इंगलैण्ड की शुभकामना मनाने की सलाह दी।

बधिक ने कुल्हाड़ी संभाली, परन्तु राजा ने उससे कहा-“कुल्हाड़ी को अभी मत उठाओ।” और फिर कुछ कहने लगे।

अथस के सिर पर जैसे वज्र गिरा। उसके माथे पर पसीने की बूंदें झलक रही थीं। जनता चुप और शान्त थी।

राजा ने दया-भाव से भीड़ पर दृष्टि डाली। फिर उन्होंने अपना लिबास उतारा, जिसे वे पहने हुए थे। यह वही हीरे का स्टार था, जिसे रानी ने उनके पास भेजा था। इसे जुक्सन के साथी पादरी को दे दिया गया। फिर उन्होंने छाती पर लटकता हुआ हीरे का क्रास निकाला। यह भी रानी ने भेजा था।

उन्होंने पादरी से कहा- “मैं इस क्रास को अन्तिम क्षण तक अपने हाथ में रखूँगा। जब मैं मर जाऊँ, तब इसे आप ले लें।”

“जो आज्ञा।” एक आवाज आई, जिसे अथस ने पहचान लिया कि यह अरेमिस की है।

चार्ल्स ने अपना टोप उतार लिया। इसके बाद उन्होंने एक-एक करके बटन खोल डाले और कोट भी उतारकर फेंक दिया। सर्दी का समय था, इसलिये उन्होंने अपना ऊनी बनियान पहनने को मांगा, जो दे दिया गया। ऐसा प्रतीत होता था कि राजा शय्या पर सोने को जा रहे हैं।

अन्त में अपने बाल उठाये हुए राजा ने बधिक से कहा-“यदि ये तुम्हारे कार्य में बाधा डालें तो उन्हें बाँध सकते हो।” यह कहकर उन्होंने एक दृष्टि उस पर डाली। कैसी चितवन थी, शान्त और सौजन्य से परिपूर्ण!

बधिक आँख से आँख न मिला सका। उसने पीठ फेर ली। अरेमिस उसकी ओर ज्वालामय नेत्रों से देख रहा था।

राजा ने जब देखा कि मेरी बात का बधिक कुछ भी उत्तर नहीं देता है, तो उन्होंने फिर दुबारा वही प्रश्न किया।

बधिक ने भर्राई हुई आवाज में कहा-“यदि आप इन्हें गर्दन पर से हटा लें तब भी काम चल जायगा।”

राजा ने अपने हाथों से बालों को गर्दन के दोनों ओर इकट्ठा कर लिया और सिर काटने की लकड़ी देखकर बोले-“यह तो बहुत नीची दीखती है। क्या जरा ऊँची न हो सकेगी?”

“यह तो जैसी होती है, वैसी ही है।” बधिक ने कहा।

“क्या तुम्हें निश्चय है कि एक ही चोट से तुम मेरा सिर काट लोगे?”

“मुझे तो यही आशा है।”

“ठीक है। अच्छा, जरा सुनो तो।”

बधिक राजा की ओर चला और अपनी कुल्हाड़ी के बल झुक गया।

“मैं प्रार्थना करने को झुकूँगा, उसी समय मुझ पर चोट मत करना।”

“तो मैं कब चोट करूं?”

“जब मैं अपना सिर टिकटी पर रख दूँ और अपने हाथ फैला दूँ और कहूँ-‘सावधान’ मेरे कहते ही तुम जोर से चोट करना।”

बधिक ने झुककर स्वीकार किया।

राजा ने अपने पास खड़े लोगों से कहा- “संसार-त्याग करने का समय आ गया है। मैं तुम्हें मँझदार में छोड़े जाता हूँ और स्वयं उस देश में जाता हूँ, जहाँ से फिर कोई नहीं लौटता। विदा।”

उन्होंने अरेमिस की ओर देखा और सिर हिलाकर एक विशेष संकेत किया। उन्होंने कहा-“अब सब चले जाओ और मुझे प्रार्थना कर लेने दो।”

बधिक की तरफ मुंह करके कहा-“मैं तुमसे भी यही विनती करता हूँ। जरा सी देर की बात है, फिर मैं तुम्हारा ही हो जाऊंगा।”

चार्ल्स झुक गये। क्रास का संकेत हुआ। उन्होंने तख्त को चूमना चाहा।

उन्होंने फ्रेंच भाषा में कहा-“अथस! क्या तुम वहाँ हो? मैं बोल सकता हूँ?”

अथस के हृदय को इस आवाज ने ठेस पहुँचाई। उसने कांपते हुए कहा-“हाँ श्रीमान।”

“दोस्त, मैं अब किसी प्रकार भी बच नहीं सकता। मैंने ऐसे पुण्य ही नहीं किये थे। मैं इन सबसे बोल चुका हूँ, ईश्वर से भी बोल चुका हूँ, अब अन्त में तुमसे बोलता हूँ। एक पवित्र हेतु को दृढ़ रखने के कारण ही मेरे पूर्वजों की, मेरे बच्चों की राजगद्दी मुझसे छीनी जा रही है। सोने की एक लाख मोहरें न्यूकासिल की छत में, वहाँ से चलते समय छिपाकर रख दी थीं। इस रुपये से तुम मेरे बड़े बेटे की व्यवस्था करना। अथस! अब विदा दो।”

“विदा। बलिदान होने वाले पवित्र राजा, विदा।” अथस ने काँपती हुई आवाज में धीरे से कहा।

कुछ देर तक सन्नाटा रहा। फिर राजा ने गरजती आवाज में कहा-“सावधान।”

कठिनता से यह शब्द निकले होंगे कि एक भयानक चोट से पाड़ हिल गई। नीचे की धूल उड़ने लगी। तुरन्त ही अथस ने अपना सिर उठाया। खून की गरम बूंद उसके मस्तक पर पड़ी। पर वह अन्दर हो गया। खून की बूंदें अब जमीन पर गिर रही थीं।

अथस घुटने के बल गिर पड़ा; और थोड़ी देर तक पागलों की भांति पड़ा रहा। कोलाहल कम हो गया था, भीड़ चली गई थी। अथस फिर उधर चला और अपने रूमाल का छोर मृतक राजा के खून से रंग लिया। भीड़ कम होती जा रही थी। वह नीचे उतरा। कपड़े को खोला और दो घोड़ों के बीच में धीरे-से खिसककर भीड़ में मिल गया।

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