(1)
सच्ची उदारता
संध्या का समय है, डूबने वाले सूर्य की सुनहरी किरणें रंगीन शीशो की आड़ से, एक अंग्रेजी ढंग पर सजे हुए कमरे में झॉँक रही हैं जिससे सारा कमरा रंगीन हो रहा है। अंग्रेजी ढ़ंग की मनोहर तसवीरें, जो दीवारों से लटक रहीं है, इस समय रंगीन वस्त्र धारण करके और भी सुंदर मालूम होती है। कमरे के बीचोंबीच एक गोल मेज़ है जिसके चारों तरफ नर्म मखमली गद्दोकी रंगीन कुर्सियॉ बिछी हुई है। इनमें से एक कुर्सी पर एक युवा पुरूष सर नीचा किये हुए बैठा कुछ सोच रहा है। वह अति सुंदर और रूपवान पुरूष है जिस पर अंग्रेजी काट के कपड़े बहुत भले मालूम होते है। उसके सामने मेज पर एक कागज है जिसको वह बार-बार देखता है। उसके चेहरे से ऐसा विदित होता है कि इस समय वह किसी गहरे सोच में डूबा हुआ है। थोड़ी देर तक वह इसी तरह पहलू बदलता रहा, फिर वह एकाएक उठा और कमरे से बाहर निकलकर बरांडे में टहलने लगा, जिसमे मनोहर फूलों और पत्तों के गमले सजाकर धरे हुए थे। वह बरांडे से फिर कमरे में आया और कागज का टुकड़ा उठाकर बड़ी बेचैनी के साथ इधर-उधर टहलने लगा। समय बहुत सुहावना था। माली फूलों की क्यारियों में पानी दे रहा था। एक तरफ साईस घोड़े को टहला रहा था। समय और स्थान दोनो ही बहुत रमणीक थे। परन्तु वह अपने विचार में ऐसा लवलीन हो रहा था कि उसे इन बातों की बिलकुल सुधि न थी। हॉँ, उसकी गर्दन आप ही आप हिलाती थी और हाथ भी आप ही आप इशारे करते थे—जैसे वह किसी से बातें कर रहा हो। इसी बीच में एक बाइसिकिल फाटक के अंदर आती हुई दिखायी दी और एक गोरा-चिटठा आदमी कोट पतलून पहने, ऐनक लगाये, सिगार पीता, जूते चरमर करता, उतर पड़ा और बोला, गुड ईवनिंग, अमृतराय।
अमृतराय ने चौंककर सर उठाया और बोले—ओ। आप है मिस्टर दाननाथ। आइए बैठिए। आप आज जलसे में न दिखायी दियें।
दाननाथ—कैसा जलसा। मुझे तो इसकी खबर भी नहीं।
अमृतराय—(आश्चर्य से) ऐं। आपको खबर ही नहीं। आज आगरा के लाला धनुषधारीलाल ने बहुत अच्छा व्याख्यान दिया और विरोधियो के दॉँत खटटे कर दिये।
दाननाथ—ईश्वर जानता है मुझे जरा भी खबर न थी, नहीं तो मैं अवश्य आता। मुझे तो लाला साहब के व्याख्यानों के सुनने का बहुत दिनों से शौंक है। मेरा अभाग्य था कि ऐसा अच्छा समय हाथ से निकल गया। किस बात पर व्याख्यान था?
अमृतराय—जाति की उन्नति के सिवा दूसरी कौन-सी बात हो सकती थी? लाला साहब ने अपना जीवन इसी काम के हेतु अर्पण कर दिया है। आज ऐसा सच्चा देशभक्त और निष्कास जाति-सेवक इस देश में नहीं है। यह दूसरी बात है कि कोई उनके सिद्वांतो को माने या न माने, मगर उनके व्याख्यानों में ऐसा जादू होता है कि लोग आप ही आप खिंचे चले आते है। मैंने लाला साहब के व्याख्यानों के सुनने का आनंद कई बार प्राप्त किया है। मगर आज की स्पीच में तो बात ही और थी। ऐसा जान पड़ता है कि उनकी ज़बान में जादू भरा है। शब्द वही होते है जो हम रोज़ काम में लाया करते है। विचार भी वही होते है जिनकी हमारे यहॉँ प्रतिदिन चर्चा रहती है। मगर उनके बोलने का ढंग कुछ ऐसा अपूर्व है कि दिलों को लुभा लेता है।
दाननाथ को ऐसी उत्तम स्पीच को न सुनने का अत्यंत शोक हुआ। बोले—यार, मैं जंम का अभागा हूँ। क्या अब फिर कोई व्याख्यान न होगा?
अमृतराय—आशा तो नहीं हैं क्योंकि लाला साहब लखनऊ जा रहे है, उधर से आगरा को चले जाएंगे। फिर नहीं मालूम कब दर्शन दें।
दाननाथ—अपने कर्म की हीनता की क्या कहूँ। आपने उसस्पीच कीकोई नकल की हो तो जरा दीजिए। उसी को देखकर जी को ढारस दूँ।
इस पर अमृतराय ने वही कागज का टुकड़ा जिसको वे बार-बार पढ़ रहे थे दाननाथ के हाथ में रख दिया और बोले—स्पीच के बीच-बीच में जो बाते मुझको सवार हो जाती है तो आगा-पीछा कुछ नहीं सोचते, समझाने लगे—मित्र, तुम कैसी लड़कपन की बातें करते हो। तुमको शायद अभी मालूम नहीं कि तुम कैसा भारी बोझ अपने सर पर ले रहे हो। जो रास्ता अभी तुमको साफ दिखायी दे रहा है वह कॉँटो से ऐसा भरा है कि एक-एक पग धरना कठिन है।
अमृतराय—अब तो जो होना हो सो हो। जो बात दिल में जम गयी वह तम गयीं। मैं खूबजानता हूं कि मुझको बड़ी-बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। मगर आज मेरा हिसाब ऐसा बढ़ा हुआ हैं कि मैं बड़े से बड़ा काम कर सकता हूं और ऊँचे से ऊँचे पहाड़ पर चढ़ सकता हूँ।
दाननाथ—ईश्वर आपके उत्साह को सदा बढ़ावे। मैं जानता हूँ कि आप जिस काम के लिए उद्योग करेगें उसे अवश्य पूरा कर दिखायेगें। मैं आपके इरादों में विध्न डालना कदापि नहीं चाहता। मगर मनुष्य का धर्म हैं कि जिस काम में हाथ लगावे पहले उसका ऊँच-नीच खूब विचार ले। अब प्रच्छन बातों से हटकर प्रत्यक्ष बातों की तरफा आइए। आप जानते हैकि इस शहर के लोग, सब के सब,पुरानी लकीर के फकीर है। मुझे भय है कि सामाजिक सुधार का बीज यहॉँ कदापि फल-फुल न सकेगा। और फिर, आपका सहायक भी कोई नजर नहीं आता। अकेले आप क्या बना लेंगे। शायद आपके दोस्त भी इस जोखिम के काम में आपका हाथ न बँटा सके। चाहे आपको बुरा लगे, मगर मैं यह जरूर कहूँगा कि अकेले आप कुछ भी न कर सकेंगे।
अमृतराय ने अपने परम मित्र की बातों को सुनकर सा उठाया और बड़ी गंभीरता से बोले—दाननाथ। यह तुमको क्या हो गया है। क्या मै तुम्हारे मुँह से ऐसी बोदेपन की बातें सुन रहा हूं। तुम कहते हो अकेले क्या बना लोगे? अकेले आदमियों की कारगुजारियों से इतिहास भरे पड़े हैं। गौतम बुद्व कौन था? एक जंगल का बसनेवाला साधु, जिसका सारे देश में कोई मददगार न था। मगर उसके जीवन ही में आधा हिन्दोस्तान उसके पैरों पर सर धर चुका था। आपको कितने प्रमाण दूँ। अकेले आदमियों से कौमों के नाम चल रहे है। कौमें मर गयी है। आज उनका निशान भी बाकी नहीं। मगर अकेले आदमियों के नाम अभी तक जिंदा है। आप जानते हैं कि प्लेटों एक अमर नाम है। मगर आपमें कितने ऐसे हैं जो यह जानते हों कि वह किस देश का रहने वाला है।
दाननाथ समझदार आदमी थे। समझ गये कि अभी जोश नया है और समझाना बुझाना सब व्यर्थ होगा। मगर फिर भी जी न माना। एक बार और उलझना आवश्यक ‘अच्छी जान पड़ी मैने उनको तुरंत नकल कर लिया। ऐसी जल्दी में लिखा है कि मेरे सिवा कोई दूसरा पढ़ भी न सकेगा। देखिए हमारी लापरवाही को कैसा आड़े हाथों लिया है:
सज्जनों ! हमारी इस दुर्दशा का कारण हमारी लापरवाही हैं। हमारी दशा उस रोगी की-सी हो रही है जो औषधि को हाथ में लेकर देखता है मगर मुँह तक नहीं ले जाता। हॉँ भाइयो। हम ऑंखे रचाते है मगर अंधे है, हम कान रखते है मगर बहरें है, हम जबान रखते है मगर गूँगे हैं। परंतु अब वह दिन नहीं रहे कि हमको अपनी जीत की बुराइयाँ न दिखायी देती हो। हम उनको देखते है और मन मे उनसे घृणा भी करते है। मगर जब कोई समय आ जाता है तो हम उसी पुरानी लकीर पर जाते है और नर्अ बातों को असंभव और अनहोनी समझकर छोड़ देते है। हमारे डोंगे का पार लगाना, जब कि मल्लाह ऐसे बाद और कादर है, कठिन ही नहीं प्रत्युत दुस्साध्य है।
अमृतराय ने बड़े ऊँचे स्वरों में उस कागज को पढ़ा। जब वह चुप हुए तो दाननाथ ने कहा—नि:संदेह बहुत ठीक कहा है। हमारी दशा के अनुकूल ही है।
अमृतराय—मुझकों रह-रहकर अपने ऊपर क्रोध आता है कि मैंने सारी स्पीच क्यों न नकल कर ली। अगर कहीं अंग्रेजी स्पीच होती तो सबेरा होते ही सारे समाचारपत्रों में छप जाती। नहीं तो शायद कहीं खुलासा रिपोर्ट छपे तो छपे। (रूककर) तब मैं जलसे से लौटकर आया हूँ तब से बराबर वही शब्द मेरे कान में गूँज रहे है। प्यारे मित्र। तुम मेरे विचारों को पहले से जानते हो, आज की स्पीच ने उनको और भी मजबूत कर दिया है। आज से मेरी प्रतिज्ञा है कि मै अपने को जाति पर न्यौछावर कर दूँगा। तन, मन, धन सब अपनी गिरी हुई जाति की उन्नति के निमित्त अर्पण कर दूँगा। अब तक मेरे विचार मुझ ही तक थे पर अब वे प्रत्यक्ष होंगे। अब तक मेरा हदय दुर्बल था, मगर आज इसमें कई दिलों का बल आ गया है। मैं खूब जानता हूँ कि मै कोई उच्च-पदवी नहीं रखता हूं। मेरी जायदाद भी कुछ अधिक नहीं है। मगर मैं अपनी सारी जमा जथा अपने देश के उद्वार के लिए लगा दूँगा। अब इस प्रतिज्ञा से कोई मुझको डिगा नहीं सकता। (जोश से)ऐ थककर बैठी हुई कौम। ले, तेरी दुर्दशा पर ऑंसू बहानेवालों में एक दुखियारा और बढ़ा। इस बात का न्याय करना कि तुझको इस दुखियारे से कोई लाभ हागा या नहीं, समय पर छोड़ता हूँ।
यह कहकर अमृतराय जमीन की ओर देखने लगे। दाननाथ, जो उनके बचपन के साथी थे और उनके बचपन के साथी थे और उनके स्वभाव से भलीभॉँति परिचित थे कि जब उनको कोई धुन मालूम हुआ। बोले—अच्छा मैंने मान लिया कि अकेले लोगों ने बड़ेबड़े काम किये हैं और आप भी अपनी जाति का कुछ न कुछ भला कर लेंगे मगर यह तो सोचिये कि आप उन लोगों को कितना दुख पहुँचायेंगे जिनका आपसे कोई नाता है। प्रेमा से बहुत जल्द आपका विवाह होनेवाला है। आप जानते है कि उसके मॉँ-बाप परले सिरे के कटटर हिन्दू है। जब उनको आपकी अंग्रेजी पोशाक और खाने-पीने पर शिकायत है तो बतलाइए जब आप सामजिक सुधार पर कमर बांधेगे तब उनका क्या हाल होगा। शायद आपको प्रेमा से हाथ धोना पड़े।
दाननाथ का यह इशारा कलेजे में चुभ गया। दो-तीन मिनट तक वह सन्नाटे में जमीन की तरफ ताकते रहे। जब सर उठाया तो ऑंखे लाल थीं और उनमें ऑंसू डबडबाये थे। बोले—मित्र, कौम की भलाई करना साधारण काम नहीं है। यद्यपि पहले मैने इस विषय पर ध्यान न दिया था, फिर भी मेरा दिल इस वक्त ऐसा मजबूत हो रहा है कि जाति के लिए हर एक दुख भोगने को मै कटिबद्व हूँ। इसमें संदेह नहीं कि प्रेमा से मुझको बहुत ही प्रेम था। मैं उस पर जान देता था और अगर कोई समय ऐसा आता कि मुझको उसका पति बनने का आनंद मिलता तो मैं साबित करता कि प्रेम इसको कहते है। मगर अब प्रेमा की मोहनी मूरत मुझ पर अपना जादू नहीं चला सकती। जो देश और जाति के नाम पर बिक गया उसके दिल मे कोई दूसरी चीज जगह नहीं पा सकती। देखिए यह वह फोटो है जो अब तक बराबर मेरे सीने से लगा रहता था। आज इससे भी अलग होता हूं यह कहते-कहते तसवीर जेब से निकली और उसके पुरजे-पुरजे कर डाले, ‘प्रेमा को जब मालूम होगा कि अमृतराय अब जाति पर जान देने लगा, उसके दिन में अब किसी नवयौवना की जगह नही रही तो वह मुझे क्षमा कर देगी।
दाननाथ ने अपने दोस्त के हाथों से तसवीर छीन लेना चाही। मगर न पा सके। बोले—अमृतराय बड़े शोक की बात है कि तुमने उस सुन्दरी की तसवीर की यह दशा की जिसकी तुम खूब जानते हो कि तुम पर मोहित है। तुम कैसे निठुर हो। यह वही सुंदरी है जिससे शादी करने का तुम्हारे वैकुंठवासी पिता ने आग्रह किया था और तुमने खुद भी कई बार बात हारी। क्या तुम नहीं जानते कि विवाह का समय अब बहुत निकट आ गया है। ऐसे वक्त में तुम्हारा इस तरह मुँह मोड़ लेना उस बेचारी के लिए बहुत ही शोकदायक होगा।
इन बातों को सुनकर अमृतराय का चेहरा बहुत मलिन हो गया। शायद वे इस तरह तस्वीर के फाड़ देने का कुछ पछतावा करने लगे। मगर जिस बात पर अड़ गये थे उस पर अड़े ही रहे। इन्हीं बातों में सूर्य अस्त हो गया। अँधेरा छा गया। दाननाथ उठ खड़े हुए। अपनी बाइसिकिल सँभाली और चलते-चलते यह कहा—मिस्टर राय। खूब सोच लो। अभी कुछ नहीं बिंगड़ा है। आओ आज तुमको गंगा की सैर करा लाये। मैंने एक बजरा किराये पर ले रक्खा है। उस पर चॉँदनी रात में बड़ी बहार रहेगी।
अमृतराय—इस समय आप मुझको क्षमा कीजिए। फिर मिलूँगा।
दाननाथ तो यह बातचीत करके अपने मकान को रवाना हुए और अमृतराय उसी अँधेरे में, बड़ी देर तक चुपचाप खड़े रहे। वह नहीं मालूम क्या सोच रहे थे। जब अँधेरा अधिक हुआ तो वह जमीन पर बैठ गये। उन्होंने उस तसवीर के पुर्जे सब एक-एक करके चुन लिये। उनको बड़े प्यार से सीने में लगा लिया और कुछ सोचते हुए कमरे में चले गए।
बाबू अमृतराय शहर के प्रतिष्ठित रईसों में समझे जाते थे। वकालत का पेशा कई पुश्तों से चला आता था। खुद भी वकालत पास कर चुके थे। और यद्यपि वकालत अभी तक चमकी न थी, मगर बाप-दादे ने नाम ऐसा कमाया था कि शहर के बड़े-बड़े रईस भी उनका दाब मानते थे। अंग्रेजी कालिज मे इनकी शिक्षा हुई थी और यह अंग्रेजी सभ्यता के प्रेमी थे। जब तक बाप जीते थे तब तक कोट-पतलून पहनते तनिक डरते थे। मगर उनका देहांत होते ही खुल पड़े। ठीक नदी के समीप एक सुंदर स्थान पर कोठी बनवायी। उसको बहुत कुछ खर्च करके अंग्रेजी रीति पर सजाया। और अब उसी में रहते थे। ईश्वर की कृपा से किसी चीज कीकमी न थी। धन-द्रव्य, गाड़ी-घोड़े सभी मौजूद थे।
अमृतराय को किताबों से बहुत प्रेम था। मुमकिन न था कि नयी किताब प्रकाशित हो और उनके पास न आवे। उत्तम कलाओं से भी उनकी तबीयत को बहुत लगाव था। गान-विद्या पर तो वे जान देते थे। गो कि वकालत पास कर चुके थे मगर अभी वह विवाह नहीं हुआ था। उन्होने ठान लिया था कि जब वह वकालत खूब न चलने लगेगी तब तक विवाह न करूँगा। उस शहर के रईस लाला बदरीप्रसाद साहब उनको कईसाल से अपनी इकलौती लड़की प्रेमा के वास्ते, चुन बैठे थे। प्रेमा अति सुंदर लड़की थी और पढ़ने लिखने , सीने पिरोने में निपुण थी। अमृतराय के इशारे से उसको थोड़ी सही अंग्रेजी भी पढ़ा दी गयी थी जिसने उसके स्वभाव में थोड़ी-सी स्वतंत्रता पैदा कर दी थी। मुंशी जी ने बहुत कहने-सुनने से दोनो प्रेमियों को चिटठी पत्री लिखने की आज्ञा दे दी थी। और शायद आपस में तसवीरों की भी अदला-बदली हो गये थी।
बाबू दाननाथ अमृतराय के बचपन के साथियों में से थे। कालिज मे भी दोनों का साथ रहा। वकालत भी साथ पास की और दो मित्रों मे जैसी सच्ची प्रीति हो सकती है वह उनमे थी। कोई बात ऐसी न थी जो एक दूसरे के लिए उठा रखे। दाननाथ ने एक बार प्रेमा को महताबी पर खड़े देख लिया था। उसी वक्त से वह दिल में प्रेमा की पूजा किया करता था। मगर यह बात कभी उसकी जबान पर नहीं आयी। वह दिल ही दिल में घुटकर रह जाता। सैकड़ों बार उसकी स्वार्थ दृष्टि ने उसे उभारा था कि तू कोई चाल चलकर बदरीप्रसाद का मन अमृतराय से फेर दे, परंतु उसने हर बार इस कमीनेपन के ख्याल को दबाया था। वह स्वभाव का बहुत निर्मल और आचरण का बहुत शुद्व था। वह मर जाना पसंद करता मगर किसी को हानि पहुँचाकर अपना मनोरथ कदापि पूरा नहीं कर सकता था। यह भी न था कि वह केवल दिखाने के लिए अमृतराय से मेल रखता हो और दिल में उनसे जलता हो। वह उनके साथ सच्चे मित्र भाव का बर्ताव करता था।
आज भी, जब अमृतराय ने उससे अपने इरादे जाहिर किये तब उसेन सच्चे दिल से उनको समझाकर ऊँच नीच सुझाया। मगर इसका जो कुछ असर हुआ हम पहले दिखा चुके है। उसने साफ साफ कह दिया कि अगर तुम रिर्फामरों कीमंडली में मिलोगे तो प्रेमा से हाथ धोना पडेगा। मगर अमृतराय ने एक न सुनी। मित्र का जो धर्म है वह दाननाथ ने पूरा कर दिया। मगर जब उसने देखा कि यह अपने अनुष्ठान पर अड़े ही रहेगें तो उसको कोई वजह न मालूम हुई कि मैं यह सब बातें बदरी प्रसाद से बयान करके क्यों न प्रेमा का पति बनने का उद्योग करूँ। यहां से वह यही सब बातें सोचते विचारते घर पर आये। कोट-पतलून उतार दिया और सीधे सादे कपड़े पहिन मुंशी बदरीप्रसाद के मकान को रवाना हुए। इस वक्त उसके दिन की जो हालत हो रही थी, बयान नही की जा सकती। कभी यह विचार आता कि मेरा इस तरह जाना, लोगों को मुझसे नाराज न कर दे। मुझे लोग स्वार्थी न समझने लगें। फिर सोचता कि कहीं अमृतराय अपना इरादा पलट दें और आश्चर्य नहीं कि ऐसा ही हो, तो मैं कहीं मुँह दिखाने योग्य न रहूँगा। मगर यह सोचते सोचते जब प्रेमा की मोहनी मूरत ऑंख के सामने आ गयी। तब यह सब शंकाए दूर हो गयी। और वह बदरीप्रसाद के मकान पर बातें करते दिखायी दिये।
(2)
जलन बुरी बला है
लाला बदरीप्रसाद अमृतराय के बाप के दोस्तों में थे और अगर उनसे अधिक प्रतिष्ठित न थे तो बहुत हेठे भी न थे। दोनो में लड़के-लड़की के ब्याह की बातचीत पक्की हो गयी थी। और अगर मुंशी धनपतराय दो बरस भी और जीते तो बेटे का सेहरा देख लेते। मगर कालवश हो गये। और यह अर्मान मन मे लिये वैकुण्ठ को सिधारे। हां, मरते मरते उनकी बेटे हो यह नसीहत थी कि मु० बदरीप्रसाद की लड़की से अवश्य विवाह करना। अमृतराय ने भी लजाते लजाते बात हारी थी। मगर मुंशी धनपतराय को मरे आज पॉंच बरस बीत चुके थे। इस बीच में उन्होने वकालत भी पास कर ली थी और अच्छे खासे अंग्रेज बन बैठे थे। इस परिवर्तन ने पब्लिक की ऑंखो में उनका आदर घटा दिया था। इसके विपरीत बदरीप्रसाद पक्के हिन्दू थे। साल भर, बारहों मास, उनके यहां श्रीमद्भागवत की कथा हुआ करती थी। कोई दिन ऐसा न जाता कि भंडार में सौ पचास साधुओं का प्रसाद न बनता हो। इस उदारता ने उनको सारे शहर मेंसव्रप्रिय बना दिया था। प्रतिदिन भोर होते ही, वह गंगा स्नान को पैदल जाया करते थे ओर रास्ते में जितने आदमी उनको देखते सब आदर से सर झुकाते थे और आपस में कानाफुसी करते कि दुखियारों का यह दाता सदा फलता फूलता रहे।
यद्यपि लाला बदरीप्रसाद अमृतराय की चाल-ढाल को पसंद न करते थे और कई बेर उनको समझा कर हार भी चुके थे, मगर शहर में ऐसा होनहार, विद्यावान, सुंदर और धनिक कोई दूसरा आदमी न था जो उनकी प्राण से अधिक प्रिय लड़की प्रेमा के पति बनने के योग्य हो। इस कारण वे बेबस हो रहे थे। लड़की अकेली थी, इसलिए दूसरे शहर में ब्याह भी न कर सकते थे। इस लड़की के गुण और सुंदरता की इतनी प्रशंसा थी कि उस शहर के सब रईस उसे चाहते थे। जब किसी काम काज के मौके पर प्रेमा सोलहों श्रंगार करके जीती तो जितनी और स्त्रियॉँ वहॉँ होतीं उसके पैरों तले आंखे बिछाती। बडी बूढी औरतें कहा करती थी कि ऐसी सुंदर लड़की कहीं देखने में नहीं आई। और जैसी प्रेमा औरतों में थी वैसे ही अमृतराय मर्दो में थे। ईश्वर ने अपने हाथ से दोनों का जोड़ मिलाया था।
हॉँ, शहर के पुराने हिन्दू लोग इस विवाह के खिलाफ थे। वह कहते कि अमृतराय सब गुण अगर सही, मगर है तो ईसाई। उनसे प्रेमा जैसी लड़की का विवाह करना ठीक नहीं है। मुंशी जी के नातेदार लोग भी इस शादी के विरूद्व थे। इसी खींचातानल में पॉँच बरस बीत चुके थे। अमृतराय भी कुछ बहुत उद्यम न मालूम होते थे। मगर इस साल मुंशी बदरीप्रसाद ने भी हियाब किया, और अमृतराय भी मुस्तैद हुए और विवाह की साइत निश्चय की गयी। अब दोनों तरफ तैयारियां हो रही थी। प्रेमा की मां अमृतराय के नाम पर बिकी हुई थी और लड़की के लिए अभी से गहने पाते बनवाने लगी थी, कि निदान आज यह महाभयानक खबर पहुँची कि अमृतराय ईसाई हो गया है और उसका किसी मेम से विवाह हो रहा है।
इस खबर ने मुंशी जी के दिल पर वही काम किया जो बिजली किसी हरे भरे पेड़ परगिर कर करती है। वे बूढ़े तो थे ही, इसधक्के को न सह सके और पछ़ाड खाकर जमीन पर गिर पड़े। उनका बेसुध होना था कि सारा भीतर बाहर एक हो गया। तमांम नौकर चाकर, अपने पराये इकटठे हो गये और ‘क्या हुआ’। ‘क्या हुआ’। का शोर मचने लगा। अब जिसको देखिये यही कहता फिरता है कि अमृतराय ईसाई हो गया है। कोई कहता है थाने में रपट करो, कोई कहता है चलकर मारपीट करो। बाहर से दम ही दम में अंदर खबर पहुँची। वहा भी कुहराम मच गया। प्रेमा की मां बेचारी बहुत दिनों से बीमार थी। और उन्हीं की जिद थी कि बेटी की शादी जहॉँ तक जल्द हो जाय अच्छा है। यद्यपि वह पुराने विचार की बूढ़ी औरत थी और उनको प्रेमा का अमृतराय के पास प्रेम पत्र भेजना एक ऑंख न भाता था। तथापि जब से उन्होने उनको एक बार अपने आंगन में खड़े देख लिया था तब से उनको यही धुन सवार थी कि मेरी ऑंखों की तारा का विवाह हो तो उन्हीं से हो। वह इस वक्त बैठी हुई बेटी से बातचीत कर रही थी कि बाहर से यह खबर पहूँची। वह अमृतराय को अपना दमाद समझने लगी थी—और कुछ तो न हो सका बेटी को गले लगाकर रोने लगी। प्रेमा ने आसू को रोकना चाहा, मगर न रोक सकी। उसकी बरसों की संचित आशारूपी बेल-क्षण मात्र में कुम्हला गयी। हाय। उससे रोया भी न गया। चित्त व्याकुल हो गया। मॉँ को रोती छोड़ वह अपने कमरे में आयी, चारपाई पर धम से गिर पड़ी। जबान से केवल इतना निकला कि नारायण, अब कैसे जीऊँगी और उसके भी होश जाते रहे। तमाम धर की लौड़ियॉँ उस पर जान देती थी। सब की सब एकत्र हो गयीं। और अमृतराय को ‘हत्यारे’ और ‘पापी’ की पदवियॉँ दी जाने लगी।
अगर घर में कोई ऐसा था कि जिसको अमृतराय के ईसाई होने का विश्वास न आया तो वह प्रेमा केभाई बाबू कमला प्रसाद थे। बाबू सहाब बड़े समझदार आदमी थे। उन्होंने अमृतराय के कई लेख मासिकपत्रों में देखे थे, जिनमें ईसाई मत का खंडन किया गया था। और ‘हिन्दू धर्म की महिमा’ नाम की जो पुस्तक उन्होंने लिखी थी उसकी तो बड़े-बड़े पंडितो ने तारीफ की थी। फिर कैसे मुमकिन था कि एकदम उनके खयाल पलट जाते और वह ईसाई मत धारण कर लेते। कमलाप्रसाद यही सोच रहे थे किदाननाथ आते दिखायी दिये। उनके चेहरे से घबराहट बरस रही थी। कमलाप्रसाद ने उनको बड़े आदर से बैठाया और पूछने लगे—यार, यह खबर कहॉं से उड़ी? मुझे तो विश्वास नहीं आता।
दाननाथ—विश्वास आने की कोई बात भी तो हो। अमृतराय का ईसाई होना असंभव है। हां वह रिफार्म मंडली में जा मिले है, मुझसे भूल हो गयी कि यही बात तुमसे न कही।
कमलाप्रसाद—तो क्या तुमने लाला जी से यह कह दिया?
दाननाथ ने संकोच से सर झुका कर कहा—यही तो भुल हो गई। मेरी अक्ल पर पत्थर पड़ गये थे। आज शाम को जब अमृतराय से मुलाकात करने गया तो उन्होने बात बात में कहा कि अब मैं शादी न करूँगा। मैंने कुछ न सोचा विचारा और यह बात आकर मुंशी जी से कह दी। अगर मुझको यह मालूम होता कि इस बात का यह बतंगड हो जायगा तो मैं कभी न कहता। आप जानते हैं कि अमृतराय मेरे परम मित्र है। मैंने जो यह संदेशा पहुँचाया तो इससे किसी की बुराई करने का आशय न था। मैंने केवल भलाइ की नीयत से यह बात कही थी। क्या कहूँ, मुंशी जी तो यह बात सुनते ही जोर से चिल्ला उठे—‘वह ईसाई हो गया। मैंने बहुतेरा अपना मतलब समझाया मगर कौन सुनता है। वह यही कहते मूर्छा खाकर गिर पड़े।
कमलाप्रसाद यह सुनते ही लपककर अपने पिता के पास पहूंचे। वह अभी तक बेसुध थे। उनको होश में लाये और दाननाथ का मतलब समझाया और फिर घर में पहूंचे। उधर सारे मुहल्ले की स्त्रियाँ प्रेमा के कमरे में एकत्र हो गयी थीं और अपने अपने विचारनुसार उसको सचेत करने की तरकीबें कर रही थी। मगर अब तक किसी से कुछ न बन पड़ा। निदान एक सुंदर नवयौवना दरवाजे से आती दिखायी दी। उसको देखते ही सब औरतो ने शोर मचाया जो पूर्णा आ गयी। अब रानी को चेत आ जायेगी। पूर्णा एक ब्राह्मणी थी। इसकी उम्र केवल बीस वर्ष की होगी। यह अति सुशीला और रूपवती थी। उसके बदन पर सादी साड़ी और सादे गहने बहुत ही भले मालूम होते थे। उसका विवाह पंडित बसंतकुमार से हुआ था जो एक दफ्तर में तीस रूपये महीने के नौकर थे। उनका मकान पड़ोस ही में था। पूर्णा के घर में दूसरा कोई नथा। इसलिए जब दस बजे पंडित जी दफ्तर को चले जाते तो वह प्रेमा के घर चली आती और दोनो सखिया शाम तक अपने अपने मन की बातें सुना करतीं। प्रेमा उसको इतना चाहती थी कि यदि वह कभी किसी कारण से न आ सकती तो स्वयं उसके धर चली जाती। उसे देखे बिना उसको कल न पड़ती थी। पूर्णा का भी यही हाल था।
पूर्णा ने आते ही सब स्त्रियों को वहॉँ से हटा दिया, प्रेमा को इत्र सुघाया केवडे और गुलाब का छींटा मुख पर मारा। धीरे धीरे उसके तलवे सहलाये, सब खिड़कियॉँ खुलवा दीं। इस तरह जब ठंडक पहुँची तो प्रेमा ने ऑंखे खोल दीं और चौंककर उठ बैठी। बूढ़ी मॉँ की जान में जान आई। वह पूर्णा की बलायें लेने लगी। और थोड़ी देर में सब स्त्रियाँ प्रेमा को आशीर्वाद देते हुए सिंधारी। पूर्णा रह गई। जब एकांत हुआ तो उसने कहा—प्यारी प्रेमा। ऑंखे खोलो। यह क्या गत बना रक्खी है।
प्रेमा ने बहुत धीरे से कहा—हाय। सखी मेरी तो सब आशाऍं मिटटी में मिल गयीं।
पूर्णा—प्यारी ऐसी बातें न करों। जरा दिल को सँभालो और बताओ तुमको यह खबर कैसे मिली?
प्रेमा—कुछ न पूछो सखी, मैं बड़ी अभागिनी हूँ (रोकर) हाय, दिल बैठा जाता है। मैं कैसे जीऊँगी।
पूर्णा—प्यारी जरा दिल को ढारस तो दो। मै अभी सब पता लगये देती हूँ। बाबू अमृतराय पर जो दोष लोगों ने लगाया है वह सब झूठ है।
प्रेमा—सखी, तुम्हारे मुँह में घी शक्कर। ईश्वर करें तुम्हारी बातें सच हों। थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह फिर बोली—कहीं एक दम के लिए मेरी उस कठकलेजिये से भेट हो जाती तो मैं उनका क्षेम कुशल पूछती। फिर मुझे मरने का रंज न होता।
पूर्णा—यह कैसी बात कहती हो सखी, मरे वह जो तुमको देख न सके। मुझसे कहो मैं तांबे के पत्र पर लिख दूं कि अमृतराय अगर ब्याह करेंगे तो तुम्हीं से करेंगे। तुम्हारे पास उनके बीसियो पत्र पड़े है। मालूम होता है किसी ने कलेजा निकाल के धर दिया है। एक एक शब्द से सच्चा प्रेम टपकता है। ऐसा आदमी कभी दगा नहीं कर सकता। प्रेमा—यही सब सोच सोच कर तो आज चार बरस से दिल को ढारस दे रही हूं। मगर अब उनकी बातों का मुझे विश्वास नहीं रहा। तुम्हीं बताओ, मैं कैसे जानू कि उनको मुझसे प्रेम है? आज चार बरस के दिन बीत गयें । मुझे तो एक एक दिन काटना दूभर हो रहा है और वहॉँ कुछ खबर ही नहीं होती। मुझे कभी कभी उनके इस टालमटोल पर ऐसी झुँझलाहट होती है कि तुमसे क्या कहूं। जी चाहता है उनको भूल जाऊँ। मगर कुछ बस नहीं चलता। दिल बेहया हो गया।
यहॉँ अभी यही बातें हो रही थी कि बाबू कमलाप्रसाद कमरे में दाखिल हुए। उनको देखते ही पूर्णा ने घूघँट निकाल ली और प्रेमा ले भी चट ऑंखो से ऑंसू पोंछ लिए और सँभल बैठी। कमलाप्रसाद—प्रेमा, तुम भी कैसी नादान हो। ऐसी बातों पर तुमको विश्वास क्योंकर आ गया? इतना सुनना था कि प्रेमा का मुखड़ा गुलाब की तरह खिल गया। हर्ष के मारे ऑंखे चमकने लगी। पूर्णा ने आहिस्ता से उसकी एक उँगली दबायी। दोनों के दिल धड़कने लगे कि देखें यह क्या कहते है।
कमलाप्रसाद—बात केवल इतनी हुई कि घंटा भर हुआ, लाला जी के पास बाबू दाननाथ आये हुए थे। शादी ब्याह की चर्चा होने लगी तो बाबू साहब ने कहा कि मुझे तो बाबू अमृतराय के इरादे इस साल भी पक्के नहीं मालू होते। शायद वह रिफार्म मंडली में दाखिल होने वाले है। बस इतनी सी बात लोगों ने कुछ का कुछ समझ लिया। लाला जी अधर बेहोश होकर गिर पड़े। अम्मा उधर बदहवास हो गयी। अब जब तक उनको संभालू कि सारे घर में कोलाहल होने लगा। ईसाई होना क्या कोई दिल्लगी हैं। और फिर उनको इसकी जरूरत ही क्या है। पूजा पाठ तो वह करते नहीं तो उन्हें क्या कुत्ते ने काटा है कि अपना मत छोड़ कर नक्कू बनें। ऐसी बे सर-पैर की बातों पर एतबार नहीं करना चाहिए। लो अब मुँह धो डालो। हँसी-खुशी की बातचीत की। मुझे तुम्हारे रोने-धोने से बहुत रंज हुआ। यह कहकर बाबू कमलाप्रसाद बाहर चले गये और पूर्णा ने हंसकर कहा—सुना कुछ मैं जो कहती थी कि यह सब झूठ हैं। ले अब मुंह मीठा करावो।
प्रेमा ने प्रफुल्लित होकर पूर्णा को छाती से लिपटा लिया और उसके पतले पतले होठों को चूमकर बोली—मुँह मीठा हुआ या और लोगी?
पूर्णा—यह मिठाइयॉँ रख छोडो उनके वास्ते जिनकी निठुराई पर अभी कुढ़ रही थी। मेरे लिए तो आगरा वाले की दुकान की ताजी-ताजी अमृतियॉँ चाहिए।
प्रेमा—अच्छा अब की उनको चिटठी लिखँगी तो लिख दूँगी कि पूर्णा आपसे अमृतियॉँ मॉँगती है। पूर्णा—तुम क्या लिखोगी, हॉँ, मैं आज का सारा वृतांत लिखूँगी। ऐसा-ऐसा बनाऊँगी कि तुम भी क्या याद करो। सारी कलई खोल दूँगी।
प्रेमा—(लजाकर) अच्छा रहने दीजिए यह सब दिल्लगी। सच मानो पूर्णा, अगर आज की कोई बात तुमने लिखी तो फिर मैं तुमसे कभी न बोलूगी।
पूर्णा—बोलो या न बोलो, मगर मैं लिखूँगी जरूर। इसके लिए तो उनसे जो चाहूँगी ले लूँगी। बस इतना ही लिख दूँगी कि प्रेमा को अब बहुत न तरसाइए।
प्रेमा—(बात काटकर) अच्छा लिखिएगा तो देखूँगी। पंडित जी से कहकर वह दुर्गत कराऊँ कि सारी शरारत भूल जाओ। मालूम होता है उन्होंने तुम्हें बहुत सर चढ़ा रखा है।
अभी दोनों सखियॉँ जी भर कर खुश न होने पायी थीं कि उनको रंज पहुँचाने का फिर सामानहो गया। प्रेमा की भावज अपनी ननद से हरदम जला करती थी। अपने सास-ससुर से यहॉँ तक कि पति से भी, क्रद रहती कि प्रेमा में ऐसे कौन से चॉँद लगे कि सारा घराना उन पर निछावर होने को तैयार रहता है। उनका आदर सब क्यों करते है मेरी बात तक कोइ नहीं पूछता। मैं उनसे किसी बात मे कम नहीं हूँ। गोरेपन में, सुंदरता में, श्रृंगार मे मेरा नंबर उनसे बराबर बढ़ा-चढ़ा रहता है। हॉँ वह पढ़ी-लिखी है। मैं बौरी इस गुण को नहीं जानती। उन्हें तो मर्दो में मिलना है, नौकरी-चाकरी करना है, मुझ बेचारी के भाग में तो घर का काम काज करना ही बदा है। ऐसी निरलज लड़की। अभी शादी नहीं हुई, मगर प्रेम-पत्र आते-जाते है।, तसवीरें भेजी जाती है। अभी आठ-नौ दिन होते है कि फूलों के गहने आये है। ऑंखो का पानी मर गया है। और ऐस कुलवंती पर सारा कुनबा जान देता है। प्रेमा उनके ताने और उनकी बोली-ठोलियो को हँसी में उड़ा दिया करती और अपने भाई के खातिर भावज को खुश रखने की फिक्र में रहती थी। मगर भाभी का मुँह उससे हरदम फूला रहता। आज उन्होंने ज्योही सुना कि अमृतराय ईसाई हो गये है तो मारे खुशी के फूली नहीं समायी। मुसकराते, मचलते, मटकते, प्रेमा के कमरे में पहुँची और बनावट की हँसी हँसकर बोली—क्यों रानी आज तो बात खुल गयी। प्रेमा ने यह सुनकर लाज से सर झुका लिया मगर पूर्णा बोली—सारा भॉँडा फूट गया। ऐसी भी क्या कोई लड़की मर्दो पर फिसले। प्रेमा ने लजाते हुए जवाब दिया—जाओ। तुम लोगों की बला से । मुझसे मत उलझों।
भाभी—नहीं-नहीं, दिल्लगी की बात नहीं। मर्द सदा के कठकलेजी होते है। उनके दिल में प्रेम होता ही नहीं। उनका जरा-सा सर धमकें तो हम खाना-पीना त्याग देती है, मगर हम मर ही क्यों न जायँ उनको जरा भी परवा नहीं होती। सच है, मर्द का कलेजा काठ का।
पूर्णा—भाभी। तुम बहुत ठीक कहती हो। मर्दो का कलेजा सचमुच काठ का होता है। अब मेरे ही यहॉँ देखों, महीने में कम-सेकम दस-बारह दिन उस मुये साहब के साथ दोरे पर रहते है। मै तो अकेली सुनसान घर में पड़े-पड़े कराहा करती हूँ। वहॉँ कुछ खबर ही नहीं होती। पूछती हूँ तो कहते है, रोना-गाना औरतों का काम है। हम रोंये-गाये तो संसार का काम कैसे चले।
भाभी—और क्या, जानो संसार अकेले मर्दो ही के थामे तो थमा है। मेरा बस चले तो इनकी तरफ ऑंख उठाकर भी न देखू। अब आज ही देखो, बाबू अमृतराय का करतब खुला तो रानी ने अपनी कैसी गत बना डाली। (मुस्कराकर) इनके प्रेम का तो यह हाल है और वहॉँ चार वर्ष से हीला हवाला करते चले आते है। रानी। नाराज न होना, तुम्हारे खत पर जाते है। मगर सुनती हूँ वहॉँ से विरले ही किसी खत का जवाब आता है। ऐसे निमोहियों से कोई क्या प्रेम करें। मेरा तो ऐसों से जी जलता है। क्या किसी को अपनी लड़की भारी पड़ी है कि कुऍं में डाल दें। बला से कोई बड़ा मालदार है, बड़ा सुंदर है, बड़ी ऊँची पदवी पर है। मगर जब हमसे प्रेम ही न करें तो क्या हम उसकी धन-दौलत को लेकर चाटै? संसार में एक से एक लाल पड़े है। और, प्रेमा जैसी दुलहिन के वास्ते दुलहों का काल।
प्रेमा को यह बातें बहुत बुरी मालूम हुई, मगर मारे संकोच के कुछ बोल न सकी। हॉँ, पूर्णा ने जवाब दिया—नहीं, भाभी, तुम बाबू अमृतराय पर अन्याय कर रही हो। उनको प्रेमा से सच्चा प्रेम है। उनमें और दूसरे मर्दो मे बड़ा भेद है।
भाभी—पूर्ण अब मुंह न खुलवाओ। प्रेम नहीं पत्थर करते है? माना कि वे बड़े विद्यावाले है और छुटपने में ब्याह करना पसंद नहीं करते। मगर अब तो दोनो में कोई भी कमसिन नहीं है। अब क्या बूढे होकर ब्याह करेगे? मै तो बात सच कहूंगी उनकी ब्याह करने की चेष्ठा ही नहीं है। टालमटोल से काम निकालना चाहते है। यही ब्याह के लक्षण है कि प्रेमा ने जो तस्वीर भेजी थी वह टुकड़े-टुकड़े करके पैरों तले कुचल डाली। मैं तो ऐसे आदमी का मुँह भी न देखूँ।
प्रेमा ने अपनी भावज को मुस्कराते हुए आते देखकर ही समझ लिया था कि कुशल नहीं है। जब यह मुस्कराती है, तो अवश्य कोई न कोई आग लगाती है। वह उनकी बातचीत का ढंग देखकर सहमी जाती थी कि देखे यह क्या सुनावनी सुनाती है। भाभी की यह बात तीर की तरह कलेजे के पार हो गई हक्का बक्का होकर उसकी तरफ ताकने लगी, मगर पूणा को विश्वास न आया, बोली यह क्या अनर्थ करती हो, भाभी। भइया अभी आये थे उन्होने इसकी कुछ भी चर्चा नही की। मै। तो जानती हूं कि पहली बात की तरह यह भी झूठी है। यह असंभव है कि वह अपनी प्रेमा की तसवीर की ऐसी दुर्गत करे।
भाभी—तुम्हारे न पतियाने को मै क्या करूं, मगर यह बात तुम्हारे भइया खुद मुझसे कह रहे थे। और फिर इसमें बात ही कौन-सी है, आज ही तसवीर मँगा भेजो। देखो क्या जवाब देते है। अगर यह बात झूठी होगी तो अवश्य तसवीर भेज देगे। या कम से कम इतना तो कहेगे कि यह बात झूठी है। अब पूर्णा को भी कोई जवाब न सूझा। वह चुप हो गयी। प्रेमा कुछ न बोली। उसकी ऑंखो से ऑंसुओ की धारा बह निकली। भावज का चेहरा ननद की इस दशा पर खिल गया। वह अत्यंत हर्षित होकर अपने कमरे में आई, दर्पण में मुहँ देखा और आप ही आप मग्न होकर बोली—‘यह घाव अब कुछ दिनों में भरेगा।’
(3)
झूठे मददगार
बाबू अमृतराय रात भर करवटें बदलते रहे। ज्यों-ज्यों उन्होने अपने नये इरादों और नई उमंगो पर विचार किया त्यों-त्यों उनका दिल और भी दृढ़ होता गया और भोर होते-होते देशभक्ति का जोश उनके दिल में लहरें मारने लगा। पहले कुछ देर तक प्रेमा से नाता टूट जाने की चिंता इस लहर पर बॉँध का काम करती रही। मगर अंत में लहरे ऐसी उठीं कि वह बॉँध टूट गया।
सुबह होते ही मुँह-हाथ धो, कपड़े पहिन और बाइसिकिल पर सवार होकर अपने दोस्तों की तरफ चले। पहले पहिल मिस्टर गुलजारीलालबी.ए. एल.एल.बी. के यहॉँ पहुँचे। यह वकील साहब बड़े उपकारी मनुष्य थे और सामाजिक सुधार का बड़ा पक्ष करते है। उन्होंने जब अमुतराय के इरादे ओर उनके पूरे होने की कल्पनाए सुनी तो बहुत खुश हुए और बोले—आप मेरी ओर से निश्चिंत रहिए और मुझे अपना सच्चा हितैषी समझिए। मुझे बहुत हर्ष हुआ कि हमारे शहर में आप जैसे योग्य पुरूष ने इस भारी बोझ को अपने सार लिया। आप जो काम चाहें मुझे सौप दीजिए, मै उसको अवश्य पूरा करूगा और उसमें अपनी बड़ाई समझूँगा।
अमृतराय वकील साहब की बातों पर लटू हो गये। उन्होंने सच्चे दिल से उनको धन्यवाद दिया और कहा कि मैं इश शहर में एक सामाजिक सुधार की सभा स्थापित करना चाहता हूँ। वकील साहब इस बात पर उछल पड़े और कहा कि आप मुझे उस सभा का सदस्य और हितचिन्तक समझें। मैं उसकी मदद दिलोजान से करुँगा। उमृतराय इस अच्छे शगुन होते हुए दाननाथ के घर पहूँचे। हम पहले कह चुके हैं कि दाननाथ के घर पहूँचे। हम पहले कह चुके है कि दाननाथ उनके सच्चे दोस्तों में थे। वे दनको देखते ही बड़े आदर से उठ खड़े हुए और पूछा-क्यों भाई, क्या इरादे हैं?
अमृतराय ने बहुत गम्भीरत से जवाब दिया—मैं अपने इरादे आप पर प्रकट कर चका हूँ और आप जानते हैं कि मैं जो कुछ कहता हूँ वह कर दिखाता हूँ। बस आप के पास केवल इतना पूछना के लिए आया हूँ कि आप इस शुभ कार्य में मेरी कुछ मदद करेंगे या नहीं? दाननाथ सामजिक सुधार को पंसद तो करता था मगर उसके लिए हानी या बदनामी लेना नहीं चाहता था। फिर इस वक्त तो, वह लाला बदरी प्रसाद का कृपापात्र भी बनना चाहता था, इसलिए उसने जवाब दिया—अमृतराय तुम जानते हो कि मैं हर काम में तुम्हारा साथ देने को तैयार हूँ। रुपया पैसा समय, सभी से सहायता करुगॉँ, मगर छिपे-छिपे। अभी मैं इस सभा में खुल्लम-खुल्ला सम्मिलित होकर नुकसान उठाना उचित नहीं समझता। विशेष इस कारण से कि मेरे सम्मिलत होने से सभा को कोई बल नहीं पहुँचेगा।
बाबू अमृतराय ने अधिक वादानुवाद करना अनुचित समझा। इसमें सन्देह नहीं कि उनको दाननाथ से बहुत आशा थी। मगर इस समय वह यहॉँ बहुत न ठहरे और विद्या के लिए प्रसिद्ध थे। जब अमृतराय ने उनसे सभा संबंध बातें कीं तो वह बहुत खुश हुए। उन्होंने अमृतराय को गले लगा लिया और बोले—मिस्टर अमृराय, तुमने मुझे सस्ते छोड़ दिया। मैं खुद कई दिन से इन्हीं बातों के सोच-विचार में डूबा हुआ हूँ। आपने मेरे सर से बोझ उतार लिया। जैसी याग्ता इस काम के करने की आपमें है वह मुझे नाम को भी नहीं। मैं इस सभा का मेम्बर हूँ।
बाबू अमृतराय को पंडित जी से इतनी आशा न थी। उन्होंने सोचा था कि अगर पंडित जी इस काम को पसंद करेंगे तो खुल्लमखुल्ला शरीक होते झिझकेंगे। मगर पंडित जी की बातों ने उनका दिल बहुत बढ़ा दिया। यहॉँ से निकले तो वह अपनी ही ऑंखों में दो इंच ऊँचे मालूम होते थे। अपनी अर्थसिद्धि के नशे में झूमते-झामते और मूँछों पर ताव देते एन.बी. अगरवाल साहब की सेवा में पहुँचें मिस्टर अगरावाला अंग्रेजी और संस्कृत के पंडित थे। व्याख्यान देने में भी निपुण थे और शहर में सब उनका आदर करते थे। उन्होंने भी अमृतराय की सहायता करने का वादा किया और इस सभा का ज्वाइण्ट सेक्रटेरी होना स्वीकार किया। खुलासा यह कि नौ बजते-बजते अमृतराय सारे शहर के प्रसिद्ध और नई रोशनीवाले पुरुषों से मिल आये और ऐसा कोई न था जिसने उनके इरादे की पशंसा न की हो, या सहायता करने का वादा न किया हो। जलसे का समय चार बजे शाम को नियत किया गया।
दिन के दो बजे से अमृतराय के बँगले पर लजसे की तैयारियॉँ होने लगीं। पर्श बिछाये गये। छत में झाड़-फानूस, हॉँडियाँ लटकायी गयीं। मेज और कुर्सियॉँ सजाकर धरी गयी और सभासदों के लिए खाने-पीने का भी प्रबंध किया गया। अमृतराय ने सभा के लिए एक लिए एक नियमावली बनायी। एक व्याख्यान लिखा और इन कामों को पूरा करके मेम्बरों की राह देखने लगे। दो बज गये, तीन बज गये, मगर कोई न आया। आखिर चार भी बजे, मगर किसी की सवारी न आयी। हॉँ, इंजीनियर साहब के पास से एक नौकर यह संदेश लेकर आया कि मैं इस समय नहीं आ सकता।
अब तो अमृराय को चिंता होने लगी कि अगर कोई न आया तो मेरी बड़ी बदनामी होगी और सबसे लज्जित होना पड़ेगा निदान इसी तरह पॉँच बज गए और किसी उत्साही पुरुष की सूरत न दिखाई दी। तब ता अमृतराय को विश्वास हो गया कि लोगों ने मुझे धोखा दिया। मुंशी गुलजरीलाल से उनको बहुत कुछ आशा थी। अपना आदमी उनके पास दौड़ाया। मगर उसने लौटकर बयान किया कि वह घर पर नहीं है, पोलो खेलने चले गये। इस समय तक छ: बजे और जब अभी तक कोई आदमी न पधारा तो अमृतराय का मन बहुत मलिन हो गया। ये बेचारें अभी नौजवान आदमी थे और यद्यपि बात के धनी और धुन के पूरे थे मगर अभी तक झूठे देशभक्तों और बने हुए उद्योगियों का उनको अनुभव न हुआ था। उन्हें बहुत दु:ख हुआ। मन मारे हुए चारपाई पर लेट गये और सोचने लगे की अब मैं कहीं मुँह दिखाने योग्य नहीं रहा। मैं इन लोगों को ऐसा कटिल और कपटी नहीं समझता था। अगर न आना था तो मुझसे साफ-साफ कह दिया होता। अब कल तमाम शहर में यह बात फैल जाएगी कि अमृतराय रईसों के घर दौड़ते थे, मगर कोई उनके दरवाजे पर बात पूछने को भी न गया। जब ऐसा सहायक मिलेगे तो मेरे किये क्या हो सकेगा। इन्हीं खयालों ने थोड़ी देर के लिए उनके उत्साह को भी ठंडा कर दिया।
मगर इसी समय उनको लाला धनुषधारीलाल की उत्साहवर्धक बातें याद आयीं। वही शब्द उन्होंने लोगो के हौसले बढ़या थे, उनके कानों में गूँजने लगे—मित्रो, अगर जाति की उन्नति चाहते हो तो उस पर सर्वस्व अर्पण कर दो। इन शब्दों ने उनके बैठते हुए दिल पर अंकुश का काम किया। चौंक कर उठ बैठे, सिगार जला लिया और बाग की क्यारियों में टहले लगे। चॉँदनी छिटकी हुई थी। हवा के झोंके धीरे-धीरे आ रहे थे। सुन्दर फूलों के पौधे मन्द-मन्द लहरा रहे थे। उनकी सुगन्ध चारों ओर फैली हुई थी। अमृतराय हरी-हरी दूब पर बैठ गये और सोचने लगे। मगर समय ऐसा सुहावना था और ऐसा अनन्ददायक सन्नाटा छाया हुआ था कि चंचल चित्त प्रेमा की ओर जा पहुँचा। जेब से तसवीर के पुर्जें निकाल लिये और चॉँदनी रात में उसी बड़ी देर तक गौर से देखते रहे। मन कहता था—ओ अभागे अमृतराय तू क्योंकर जियेगा। जिसकी मूरत आठों पहर तेरे सामने रहती थी, जिसके साथ आनन्द भोगने के लिए तू इतने दिनों विराहागिन में जला, उसके बिना तेरी जान कैसी रहेगी? तू तो वैराग्य लिये है। क्या उसको भी वैरागिन बनायेगा? हत्यारे उसको तुझे सच्चा प्रेम हैं। क्या तू देखता नहीं कि उसके पत्र प्रेम में डूबे हुए रहते है। अमृतराय अब भी भला है। अभी कुछ नहीं बिगड़ा। इन बातों को छोड़ो। अपने ऊपर तरस खाओ। अपने अर्मानों के मिट्टी में न मिलाओ। संसार में तुम्हारे जैसे बहुत-से उत्साही पुरुष पड़े हुए है। तुम्हारा होना न होना दोनों बराबर है। लाला बदरीप्रसाद मुँह खोले बैठे है। शादी कर लो और प्रेमा के साथ प्रेम करो। (बेचैन होकर) हा मैं भी कैसा पागल हूँ। भला इस तस्वरी ने मेरा क्या बिगाड़ा था जो मैंने इसे फाड़ा डाला। हे ईश्वर प्रेमा अभी यह बात न जानती हो।
अभी इसी उधेड़बुन में पड़े हुए थे कि हाथों में एक ख़त लाकर दिया। घबराकर पूछा—किसका ख़त है?
नौकर ने जवाब दिया—लाला बदरीप्रसाद का आदमी लाया है।
अमृतराय ने कॉँपते हुए हाथों से पत्री ली और पढ़ने लगे। उसमें लिखा था—
‘‘बाबू अमृतराय, आशीर्वाद
हमने सुना है कि अब आप सनात धर्म को त्याग करके ईसाइसायों की उस मंडली में जो मिले हैं जिसको लोग भूल से सामाजिक सुधार सभा कहते है। इसलिए अब हम अति शोक के साथ कहते हैं कि हम आपसे कोई नाता नहीं कर सकते।
आपका शुभचिंतक
बदरीप्रसाद ।’’
इस चिट्टी को अमृतराय ने कई बार पढ़ा और उनके दिल में अग खींचातानी होने लगी। आत्मस्वार्थ कहता था कि इस सुन्दरी को अवश्य ब्याहों और जीवन के सुख उठाइओ। देशभक्ति कहती थी जो इरादा किया है उस पर अड़े रहो। अपना स्वार्थ तो सभी चाहते है। तुम दूसरों का स्वार्थ करो। इस अनित्य जीवन को व्यतीत करने का इससे अच्छा कोई ढंग नहीं है। कोई पन्द्रह मिनट तक यह लड़ाई होती रही। इसका निर्णय केवल दो अक्षर लिखने पर था। देशभक्त ने आत्मसवार्थ को परास्त कर दिया था। आखिर वहॉँ से उठकर कमरे मे गये और कई पत्र कागज ख़बर करने के बाद यह पत्र लिखा—
‘‘महाशय, प्रणाम
कृपा पत्र आया। पढ़कर बहुत दु:ख हुआ। आपने मेरी बहुत दिनों की बँधी हुई आशा तोड़ दी। खैर जैसा आप उचित समझे वैसा करें। मैंने जब से होश सँभाला तब से मैं बराबर सामाजिक सुधार का पक्ष कर सकता हूँ। मुझे विश्वास है कि हमारे देश की उन्नती का इसके सिवाय और कोई उपाय नहीं है। आप जिसको सनातन धर्म समझे हुए बैठै है, वह अविद्या और असभ्यता का प्रत्यक्ष सवरुप है।
आपका कृपाकांक्षी
अमृतराय।
(4)
जवानी की मौत
समय हवा की तरह उड़ता चला जाता है। एक महीना गुजर गया। जाड़े का कूँच हुआ और गर्मी की लैनडोरी होली आ पहुँची। इस बीच में अमृतराय ने दो-तीन जलसे किये और यद्यपि सभासद दस से ज्यादा कभी न हुए मगर उन्होंने हियाव न छोड़ा। उन्होंने प्रतिज्ञा कर ली थी कि चाहे कोई आवे या न आवे, मगर नियत समय पर जलसा जरुर किया करुगॉँ। इसके उपरान्त उन्होंने देहातों में जा-जाकर सरल-सरल भाषाओं में व्याख्यान देना शुरु किया और समाचार पत्रों में सामाजिक सुधार पर अच्छे-अच्छे लेख भी लिखे। इनकों तो इसके सिवाय कोई काम न था। उधर बेचारी प्रेमा का हाल बहुत बेहाल हो रहा था। जिस दिन उसे-उनकी आखिरी चिट्टी पहुँची थी उसी दिन से उसकी रोगियों की-सी दशा हो रही थी। हर घड़ी रोने से काम था। बेचारी पूर्ण सिरहाने बैठे समझाया करती। मगर प्रेमा को जरा भी चैन न आता। वह बहुधा पड़े-पड़े अमृतराय की तस्वीर को घण्टों चुपचाप देखा करती। कभी-कभी जब बहुत व्याकुल हो जाती तो उसके जी मे आता कि मौ भी उनकी तस्वीर की वही गत करुँ जो उन्होंने मेरी तस्वीर की की है। मगर फिर तुरन्त यह ख्याल पलट खा जाता। वह उस तसवी को ऑंखों से लेती, उसको चूमती और उसे छाती से चिपका लेती। रात में अकेले चारपाई पर पड़े-पड़े आप ही आप प्रेम और मुहब्ब्त की बातें किया करती। अमृराय के कुल प्रेम-पत्रों को उसने रंगीन कागज पर, मोटे अक्षरों, में नकल कर लिया था। जब जी बहुत बेचैन होता तो पूर्ण से उन्हें पढ़वाकर सुनती और रोती। भावज के पास तो वह पहले भी बहुत कम बैठती थी, मगर अब मॉँ से भी कुछ खिंची रहती। क्योंकि वह बेटी की दशा देख-देख कुढ़ती और अमृतराय को इसका करण समझकर कोसती। प्रेमा से यह कठोर वचन न सुने जाते। वह खुद अमृतराय का जिक्र बहुत कम करती। हॉँ, अब पूर्णा या कोई और दूसरी सहेली उनकी बात चलाती तो उसको खूब कान लगाकर सुनाती। प्रेमा एक ही मास में गलकर कॉँटा हो गयी। हाय अब उसको अपने जीवन की कोई आशा न थी। घर के लोग उसकी दवा-दारू में रुपया ठीकरी की तरह फूक रहे थे मगर उसको कुछ फयदा न होता। कई बार लाला बदरीप्रसाद जी के जी में यह बात आई कि इसे अमृतराय ही से ब्याह दूँ। मगर फिर भाई-बहन के डर से हियाव न पड़ता। प्रेमा के साथ बेचारी पूर्णा भी रोगिणी बनी हुई थी।
आखिर होली का दिन आया। शहर में चारों ओर अबीर और गुलाल उड़ने लगा, चारों तरफ से कबीर और बिरादरीवालों के यहॉँ से जनानी सवारियॉँ आना शुरु हुई और उसे उनकी खातिर से बनाव-सिगार करना, अच्छे-अच्छे कपड़ा पहनना, उनका आदर-सम्मान करना और उनके साथ होली खेलना पड़ा। वह हँसने, बोलने और मन को दूसरी बातों में लगाने के लिए बहुत कोशिश करती रही। मगर कुछ बस न चला। रोज अकेल में बैठकर रोया करती थी, जिससे कुछ तसकीन हो जाती। मगर आज शर्म के मारे रो भी न सकती थी। और दिन पूर्ण दस बजे से शाम तक बैठी अपनी बातों से उसका दिल बहलाया करती थी मगर थी मगर आज वह भी सवेरे ही एक झलक दिखाकर अपने घर पर त्योहार मना रही थी। हाय पूर्णा को देखते ही वह उससे मिलने के लिए ऐसी झपटी जैसे कोई चिड़िया बहुत दिनों के बाद अपने पिंजरे से निकल कर भागो। दोनो सखियॉँ गले मिल गयीं। पूर्णा ने कोई चीज मॉँगी—शायद कुमकुमे होंगे। प्रेमा ने सन्दूक मगाया। मगर इस सन्दूक को देखते ही उसकी ऑंखों में ऑंसू भर आये। क्योंकि यह अमृतराय ने पर साल होली के दिन उसके पास भेजा था। थोड़ी देर में पूर्णा अपने घर चली गयी मगर प्रेमा घंटो तक उस सन्दूक को देख-देख रोया की।
पूर्णा का मकान पड़ोसी ही में था। उसके पति पण्डित बसंतकुमार बहुत सीधे मगर शैकीन और प्रेमी आदमी थे। वे हर बात स्त्री की इच्छानुसार करते। उन्होंने उसे थोड़ा-बहुत पढ़या भी था। अभी ब्याह हुए दो वर्ष भी न होने पाये थे, प्रेम की उमंगे दोनों ही दिलों में उमड़ हुई थी, और ज्यों-ज्यों दिन बीतते थे त्यों-त्यों उनकी मुहब्बत और भी गहरी होती जाती थी। पूर्णा हरदस पति की सेवा प्रसन्न रहती, जब वह दस बजे दिन को दफ्तर जाने लगते तो वह उनके साथ-साथ दरवाजे तक आती और जब तक पण्डित जी दिखायी देते वह दरवाजे पर खड़ी उनको देखा करती। शाम को जब उनके आने का समय हाता तो वह फिर दरवाजे पर आकर राह देखने लगती। और ज्योंही व आ जाते उनकी छाती से लिपट जाती। और अपनी भोली-भाली बातों से उनकी दिन भर की थकन धो देती। पंडित जी की तरख्वाह तीस रुपये से अधिक न थी। मगर पूर्णा ऐसी किफ़यात से काम चलाती कि हर महीने में उसके पास कुछ न कुछ बच रहता था। पंडित जी बेचारे, केवल इसलिए कि बीवी को अच्छे से अच्छेगहने और कपड़े पहनावें, घर पर भी काम किया करते। जब कभी वह पूर्णा को कोई नयी चीज बनवाकर देते वह फूली न समाती। मगर लालची न थी। खुद कभी किसी चीज के लिए मुँह न खोलती। सच तो यह है कि सच्चे प्रेम के आन्नद ने उसके दिल में पहनने-ओढ़ने की लालसा बाकी न रक्खी थी।
आखिर आज होली का दिन आ गया। आज के दिन का क्या पूछना जिसने साल भर चाथड़ों पर काटा वह भी आज कहीं न कहीं से उधार ढूँढ़कर लाता है और खुशी मनाता है। आज लोग लँगोटी में फाग खेलते है। आज के दिन रंज करना पाप है। पंडित जी की शादी के बाद यह दूसरी होली पड़ी थी। पहली होली में बेचारे खाली हाथ थे। बीवी की कुछ खातिर न कर सके थे। मगर अब की उन्होंने बड़ी-बड़ी तैयारियाँ की थी। कोई डढ़ सौ, रुपया ऊपर से कमाया था, उसमें बीवी के वास्ते एक सुन्दर कंगन बनवा था, कई उत्तम साड़ियाँ मोल लाये थे और दोस्तों को नेवता भी दे रक्खा था। इसके लिए भॉँति-भॉँति के मुरब्बे, आचार, मिठाइयॉँ मोल लाये थे। और गाने-बजाने के समान भी इकट्टे कर रक्खे थे। पूर्णा आज बनाव-चुनाव किये इधर-उधर छबि दिखाती फिरती थी। उसका मुखड़ा कुन्दा की तरह दमक रहा था उसे आज अपने से सुन्दर संसार में कोई दूसरी औरत न दिखायी देती थी। वह बार-बार पति की ओर प्यार की निगाहों से देखती। पण्डित जी भी उसके श्रृंगार और फबन पर आज ऐसी रीझे हुए थे कि बेर-बेर घर में आते और उसको गले लगाते। कोई दस बजे होंगे कि पण्डित जी घर में आये और मुस्करा कर पूर्णा से बोले—प्यारी, आज तो जी चाहता है तुमको ऑंखों में बैठे लें। पूर्णा ने धीरे से एक ठोका देकर और रसीली निगाहों से देखकर कहा—वह देखों मैं तो वहॉँ पहले ही से बैठी हूँ। इस छबि ने पण्डित जी को लुभा लिया। वह झट बीवी को गले से लगाकर प्यार करने। इन्हीं बातों में दस बजे तो पूर्णा ने कहा—दिन बहुत आ गया है, जरा बैठ जाव तो उबटन मल दूँ। देर हो जायगी तो खाने में अबेर-सबेर होने से सर दर्द होने लेगेगा।
पण्डित जी ने कहा—नहीं-नहीं दो। मैं उबटन नहीं मलवाऊँगा। लाओ धोती दो, नहा आऊँ।
पूर्णा—वाह उबटन मलवावैंगे। आज की तो यह रीति ही है। आके बैठ जाव।
पण्डित—नहीं, प्यारी, इसी वक्त जी नहीं चाहता, गर्मी बहुत है।
पूर्णा ने लपककर पति का हाथ पकड़ लिया और चारपाई पर बैठकर उबटन मलने लगी।
पण्डित—मगर ज़रा जल्दी करना, आज मैं गंगा जी नही जाना चाहता हूँ।
पूर्णा-अब दोपहर को कहॉँ जाओगे। महरी पानी लाएगी, यहीं पर नहा लो।
पण्डित—यही प्यारी, आज गंगा में बड़ी बहार रहेगी।
पूर्णा—अच्छा तो ज़रा जल्दी लौट आना। यह नहीं कि इधर-उधर तैरने लगो। नहाते वक्त तुम बहुत तुम बहुत दूर तक तैर जाया करते हो।
थोड़ी देर मे पण्डित जी उबटन मलवा चुके और एक रेश्मी धोती, साबुन, तौलिया और एक कमंडल हाथ मे लेकर नहाने चले। उनका कायदा था कि घाट से जरा अलग नहा करते यह तैराक भी बहुत अच्छे थे। कई बार शहर के अच्छे तैराको से बाजी मार चुके थे। यद्यपि आज घर से वादा करके चले थे कि न तैरेगे मगर हवा ऐसी धीमी-धीम चल रही थी और पानी ऐसा निर्मल था कि उसमे मद्धिम-मद्धिम हलकोरे ऐसे भले मालूम होते थे और दिल ऐसी उमंगों पर था कि जी तैरने पर ललचाया। तुरंत पानी में कूद पड़े और इधर-उधर कल्लोंले करने लगे। निदान उनको बीच धारे में कोई लाल चीजे बहती दिखाया दी। गौर से देखा तो कमल के फूल मालूम हुए। सूर्य की किरणों से चमकते हूए वह ऐसे सुन्दर मालम होते थे कि बसंतकुमार का जी उन पर मचल पड़ा। सोचा अगर ये मिल जायें तो प्यारी पूर्णा के कानों के लिए झुमके बनाऊँ। वे मोटे-ताजे आदमी थे। बीच धारे तक तैर जाना उनके लिए कोई बड़ी बात न थी। उनको पूरा विश्वास था कि मैं फूल ला सकता हूँ। जवानी दीवानी होती है। यह न सोचा था कि ज्यों-ज्यों मैं आगे बढूँगा त्यों-त्यों फूल भी बढ़ेंगे। उनकी तरफ चले और कोई पन्द्रह मिनट में बीच धारे में पहूँच गये। मगर वहॉँ जाकर देखा तो फूल इतना ही दूर और आगे था। अब कुछ-कुछ थकान मालूम होने लगी थी। मगर बीच में कोई रेत ऐसा न था जिस पर बैठकर दम लेते। आगे बढ़ते ही गये। कभी हाथों से ज़ोर मारते, कभी पैरों से ज़ोर लगाते, फूलों तक पहूँचे। मगर उस वक्त तक हाथ-पॉँव दोनों बोझल हो गये थे। यहॉँ तक कि फूलों को लेने के लिए जब हाथ लपकाना चाहा तो उठ न सका। आखिर उनको दॉँतों मे दबाया और लौटे। मगर जब वहॉँ से उन्होंने किनारों की तरफ देखा तो ऐसा मालूम हुआ मानों हजार कोस की मंजिल है। बदन में जरा भी शक्ति बाकी न रही थी और पानी भी किनारे से धारें की तरफ बह रहा था। उनका हियाव छूट गया। हाथ उठाया तो वह न उठे। मानो वह अंग में थे ही नहीं। हाय उस वक्त बसंतकुमार के चेहरे पर जो निराशा और बेबसी छायी हुई थी, उसके खयाल करने ही से छाती फटती है। उनको मालूम हुआ कि मैं डूबा जा रहा हूँ। उस वक्त प्यारी पूर्णा की सुधि आयी कि वह मेरी बाट देख रही होगी। उसकी प्यारी-प्यारी मोहनी सूरत ऑंखें के सामने खड़ी हो गयी। एक बार और हाथ फेंका मगर कुछ बस न चला। ऑंखों से ऑंसू बहने लगे और देखते-देखते वह लहरों में लोप हा गये। गंगा माता ने सदा के लिए उनको अपनी गोद मे लिया। काल ने फूल के भेस मे आकर अपना काम किया।
उधर हाल का सुलिए। पंडित जी के चले आने के बाद पूर्णा ने थालियॉँ परसीं। एक बर्तन में गुलाल घोली, उसमें मिलाया। पंडित जी के लिए सन्दूक से नये कपड़े निकाले। उनकी आसतीनों में चुन्नटें डाली। टोपी सादी थी, उसमें सितारें टॉँके। आज माथे पर केसर का टीका लगाना शुभ समझा जाता है। उसने अपने कोमल हाथों से केसर और चन्दन रगड़ा, पान लगाये, मेवे सरौते से कतर-कतर कटोरा में रक्खे। रात ही को प्रेमा के बग़ीचे से सुन्दर कलियॉँ लेती आयी थी और उनको तर कपड़े में लपेट कर रख दिया था। इस समय वह खूब खिल गयी थीं। उनको तागे में गुँथकर सुन्दर हार बनाया और यह सब प्रबन्ध करके अपने प्यारे पति की राह देखने लगी। अब पंडित जी को नहाकर आ जाना चाहिए था। मगर नहीं, अभी कुछ देर नहीं हुई। आते ही होगें, यही सोचकर पूर्णा ने दस मिनट और उनका रास्ता देखा। अब कुछ-कुछ चिंता होने लगी। क्या करने लगे? धूप कड़ी हो रही है। लौटने पर नहाया-बेनहाया एक हो जाएगा। कदाचित यार दोस्तों से बातों करने लगे। नहीं-नहीं मैं उनकों खूब जानती हूँ। नदी नहाने जाते हैं तो तैरने की सुझती है। आज भी तैर रहे होंगे। यह सोचकर उसने आधा घंटे और राह देखी। मगर जब वह अब भी न आये तब तो वह बैचैन होने लगी। महरी से कहा—‘बिल्लों जरा लपक तो जावा, देखो क्या करने लगे। बिल्लों बहुत अच्छे स्वाभव की बुढ़िया थी। इसी घर की चाकरी करते-करते उसके बाल पक गये थे। यह इन दोनों प्राणियों को अपने लड़कों के समान समझती थी। वह तुरंत लपकी हुई गंगा जी की तरफ चली। वहॉँ जाकर क्या देखती है कि किनारे पर दो-तीन मल्लाह जमा हैं। पंडित जी की धोती, तौलिया, साबुन कमंडल सब किनारे पर धरे हुए हैं। यह देखते ही उसके पैर मन-मन भर के हो गए। दिल धड़-धड़ करने लगा और कलेजा मुँह को आने लगा। या नारायण यह क्या ग़जब हो गया। बदहवास घबरायी हुई नज़दीक पहूँची तो एक मल्लाह ने कहा—काहे बिल्लों, तुम्हारे पंडित नहाय आवा रहेन।
बिल्लो क्या जवाब देती उसका गला रुँध गया, ऑंखों से ऑंसू बहने लगे, सर पीटने लगी। मल्लाहों ने समझाया कि अब रोये-पीटे का होत है। उनकी चीज वस्तु लेव और घर का जाव। बेचारे बड़े भले मनई रहेन। बिल्लो ने पंडित जी की चीजें ली और रोते-पीटती घर की तरफ चली। ज्यों-ज्यों वह मकान के निकट आती त्यों-त्यों उसके कदम पिछे को हटे आते थे। हाय नाराण पूर्णा को यह समाचार कैसे सुनाऊँगी वह बिचारी सोलहो सिंगार किये पति की राह देख रही है। यह खबर सुनकर उसकी क्या गत होगी। इस धक्के से उसकी तो छाती फट जायगी। इन्हीं विचारों में डूबी हुई बिल्लो ने रोते हुए घर में कदम रक्खा। तमाम चीजें जमीन पर पटक दी और छाती पर दोहत्थड़ मार हाय-हाय करने लगी। बेचारी पूर्णा इस वक्त आईना देख रही थी। वह इस समय ऐसी मगन थी और उसका दिल उमंगों और अरमानों से ऐसा भरा हुआ था कि पहले उसको बिल्लो के रोने-पीटने का कारण समझ में न आया। वह हकबका कर ताकने लगी कि यकायक सब मजारा उसकी समझ में आ गया। दिल पर एक बिजली कौंध गयी। कलेजा सन से हो गया। उसको मालूम हो गया कि मेरा सुहाग उठ गया। जिसने मेरी बॉँह पकड़ी थी उससे सदा के लिए बिछड़ गयी। उसके मुँह से केवल इतना निकला—‘हाय नारायण’ और वह पछाड़ खाकर धम से ज़मीन पर गिर पड़ी। बिल्लो ने उसको सँभाला और पंखा झलने लगी। थोड़ी देर में पास-पड़ोस की सैंकड़ों औरते जमा हो गयीं। बाहर भी बहुत आदमी एकत्र हो गये। राय हुई कि जाल डलवाया जाय। बाबू कमलाप्रसाद भी आये थे। उन्होंने पुलिस को खबर की। प्रेमा को ज्योंही इस आपत्ति की खबर मिली उसके पैर तले से मिट्टी निकल गयी। चटपट आढकर घबरायी हुई कोठे से उतरी और गिरती-पड़ती पूर्णा की घर की तरफ चली। मॉँ ने बहुत रोका मगर कौन सुनता है। जिस वक्त वह वहॉँ पहुँची चारों ओर रोना-धोना हो रहा था। घर में ऐसा न था जिसकी ऑंखों से ऑंसू की धारा न बह रही हो। अभगिनी पूर्णा का विलाप सुन-सुनकर लोगों के कलेजे मुँह को आय जाते थे। हाय पूर्णा पर जो पहाड़ टूट पड़ा वह सातवे बैरी पर भी न टूटे। अभी एक घंटा पहले वह अपने को संसार की सबसे भाग्यवान औरतों में समसझती थी। मगर देखते ही देखते क्या का क्या हो गया। अब उसका-सा अभागा कौन होगा। बेचारी समझाने-बूझाने से ज़रा चुप हो जाती, मगर ज्योंही पति की किसी बात की सुधि आती त्यों ही फिर दिल उमड़ आता और नयनों से नीर की झड़ी लग जाती, चित्त व्याकुल हो जाता और रोम-रोम से पसीना बहने लगता। हाय क्या एक-दो बात याद करने की थी। उसने दो वर्ष तक अपने प्रेम का आन्नद लूटा था। उसकी एक-एक बात उसका हँसना, उसका प्यार की निगाहों से देखना उसको याद आता था। आज उसने चलते-चलते कहा था—प्यारी पूर्णा, जी चाहता हैं, तुझे ऑंखों में बिठा लूँ। अफसोस हे अब कौन प्यार करेगा। अब किसकी पुतलियों में बैठूँगी कौन कलेजे में बैठायेगा। उस रेशमी धोती और तोलिया पर दृष्टि पड़ी तो जोर से चीख उठी और दोनों हाथों से छाती पीटने लगी। निदान प्रेमा को देखा तो झपट कर उठी और उसके गले से लिपट कर ऐसी फूट-फूट कर रोयी कि भीतर तो भीतर बाहर मुशी बदरीप्रसाद, बाबू कमलाप्रसाद और दूसरे लोग आँखों से रुमाल दिये बेअख्तियार रो रहे थे। बेचारी प्रेमा के लिए महीने से खाना-पीना दुर्लभ हो रहा था। विराहनल में जलते-जलते वह ऐसी दूर्बल हो गयी थी कि उसके मुँह से रोने की आवाज तक न निकलती थी। हिचकियॉँ बँधी हुई थीं और ऑंखों से मोती के दाने टपक रहे थे। पहले व समझती थी कि सारे संसार में मैं ही एक अभागिन हूँ। मगर इस समय वह अपना दु:ख भूल गयी। और बड़ी मुश्किल से दिल को थाम कर बोली—प्यारी सखी यह क्या ग़ज़ब हो गया? प्यारी सखी इ़सके जवाब में अपना माथा ठोंका और आसमान की ओर देखा। मगर मुँह से कुछ न बोल सकी।
इस दुखियारी अबला का दु:ख बहुत ही करुणायोग्य था। उसकी जिन्दगी का बेड़ा लगानेवाला कोई न था दु:ख बहुत ही करुणयोग्या था उसकी जिन्दगी का बेड़ा पार लगानेवाला कोई न था। उसके मैके में सिर्फ एक बूढ़े बाप से नाता था और वह बेचारा भी आजकल का मेहमान हो रहा था। ससुराल में जिससे अपनापा था वह परलोक सिधारा, न सास न ससुर न अपने न पराये। काई चुल्लू भर पानी देने वाला दिखाई न देता था। घर में इतनी जथा-जुगती भी न थी कि साल-दो साल के गुजारे भर को गुजारे भर हो जाती। बेचारी पंडित जी को अभी-नौकरी ही करते कितने दिन हुए थे कि रुपया जमा कर लेते। जो कमाया वह खाया। पूर्णा को वह अभी वह बातें नहीं सुझी थी। अभी उसको सोचने का अवकाश ही न मीला था। हॉँ, बाहर मरदाने में लोग आपस में इस विषय पर बातचीत कर रहे थे।
दो-ढ़ाई घण्टे तक उस मकान में स्त्रियों का ठट्टा लगा रहा। मगर शाम होते-होते सब अपने घरों को सिधारी। त्योहार का दिन था। ज्यादा कैसे ठहरती। प्रेमा कुछ देर से मूर्छा पर मूर्छा आने लगी थी। लोग उसे पालकी पर उठाकर वहाँ से ले गये और दिया में बत्ती पड़ते-पड़ते उस घर में सिवाय पूर्णा और बिल्ली के और कोई न था। हाय यही वक्त था कि पंडित जी दफ्तर से आया करते। पूर्णा उस वक्त द्वारे पर खड़ी उनकी राह देखा करती और ज्योंही वह ड्योढ़ी में कदम रखते वह लपक कर उनके हाथों से छतरी ले लेती और उनके हाथ-मुँह धोने और जलपान की सामग्री इकट्टी करती। जब तक वह मिष्टान्न इत्यादि खाते वह पान के बीड़े लगा रखती। वह प्रेम रस का भूख, दिन भर का थका-मॉँदा, स्त्री की दन खातिरदारियों से गदगद हो जाता। कहाँ वह प्रीति बढ़ानेवाले व्यवहार और कहॉँ आज का सन्नटा? सारा घर भॉँय-भॉँय कर रहा था। दीवारें काटने को दौड़ती थीं। ऐसा मालूम होता कि इसके बसनेवालो उजड़ गये। बेचारी पूर्णा ऑंगन में बैठी हुई। उसके कलेजे में अब रोने का दम नहीं है और न ऑंखों से ऑंसू बहते हैं। हॉँ, कोई दिल में बैठा खून चूस रहा है। वह शोक से मतवाली हो गयी है। नहीं मालूम इस वक्त वह क्या सोच रही है। शायद अपने सिधारनेवाले पिया से प्रेम की बातें कर रही है या उससे कर जोड़ के बिनती कर रही है कि मुझे भी अपने पास बुला लो। हमको उस शोकातुरा का हाल लिखते ग्लानि होती है। हाय, वह उस समय पहचानी नहीं जाती। उसका चेहरा पीला पड़ गया है। होठों पर पपड़ी छायी हुई हैं, ऑंखें सूरज आयी हैं, सिर के बाल खुलकर माथे पर बिखर गये है, रेशमी साड़ी फटकार तार-तार हो गयी है, बदन पर गहने का नाम भी नहीं है चूड़िया टूटकर चकनाचूर हो गयी है, लम्बी-लम्बी सॉँसें आ रही हैं। व चिन्ता उदासी और शोक का प्रत्यक्ष स्वरुप मालूम होती है। इस वक्त कोई ऐसा नहीं है जो उसको तसल्ली दे। यह सब कुछ हो गया मगर पूर्णा की आस अभी तक कुछ-कुछ बँधी हुई है। उसके कान दरवाजे की तरफ लगे हुए हुए है कि कहीं कोई उनके जीवित निकल आने की खबर लाता हो। सच है वियोगियों की आस टूट जाने पर भी बँधी रहती है।
शाम होते-होते इस शोकदायक घटना की ख़बर सारे शहर में गूँज उठी। जो सुनता सिर धुनता। बाबू अमृतराय हवा खाकर वापस आ रहे थे कि रासते में पुलिस के आदमियों को एक लाश के साथ जाते देखा। बहुत-से आदमियों की भीड़ लगी हुई थी। पहले तो वह समझे कि कोई खून का मुकदमा होगा। मगर जब दरियाफ्त किया तो सब हाल मालूम हो गया। पण्डित जी की अचानक मृत्यु पर उनको बहुत रोज हुआ। वह बसंतकुमार को भली भॉँति जानते थे। उन्हीं की सिफारिश से पंडित जी दफ्तर में वह जग मिली थी। बाबू साहब लाश के साथ-साथ थाने पर पहुँचे। डाक्टर पहले से ही आया हुआ था। जब उसकी जॉँच के निमित्त लाश खोली गयी तो जितने लोग खड़े थे सबके रोंगेटे खड़े हो गये और कई आदमियों की ऑंखों से ऑंसू निकल आये। लाश फूल गयी थी। मगर मुखड़ा ज्यों का त्यों था और कमल के सुन्दर फूल होंठों के बीच दॉँतों तले दबे हुए थे। हाय, यह वही फूल थे जिन्होंने काल बनकर उसको डसा था। जब लाश की जॉँच हो चुकी तब अमृतराय ने डाक्टर साहब से लाश के जलाने की आज्ञा मॉँगी जो उनको सहज ही में मिल गयी। इसके बाद वह अपने मकान पर आये। कपड़े बदले और बाईसिकिल पर सवार होकर पूर्णा के मकान पर पहुँचे। देखा तो चौतरफासन्नाटा छाया हुआ है। हर तरफ से सियापा बरस रहा है। यही समय पंडित जी के दफ्तर से आने का था। पूर्णा रोज इसी वक्त उनके जूते की आवजे सुनने की आदी हो रही थी। इस वक्त ज्योंही उसने पैरों की चाप सुनी वह बिजली की तरह दरवाजे की तरफ दौड़ी। मगर ज्योंही दरवाजे पर आयी और अपने पति की जगी पर बाबू अमृतराय को खड़े पाया तो ठिठक गयी। शर्म से सर झुका लिया और निराश होकर उलटे पॉँव वापास हुई। मुसीबत के समय पर किसी दु:ख पूछनेवालो की सूरत ऑंखों के लिए बहाना हो जाती है। बाबू अमृतराय एक महीने में दो-तीन बार अवश्य आया करते थे और पंडित जी पर बहुत विश्वास रखते थे। इस वक्त उनके आने से पूर्णा के दिल पर एक ताज़ा सदमा पहुँचा। दिल फिर उमड़ आया और ऐसा फूट-फूट कर रोयी कि बाबू अमृतराय, जो मोम की तरह नर्म दिल रखते थे, बड़ी देर तक चुपचाप खड़े बिसुरा किये। जब ज़रा जी ठिकाने हुआ तो उन्होंने महीर को बुलाकर बहुत कुछ दिलासा दिया और देहलीज़ में खड़े होकर पूर्णा को भी समझया और उसको हर तरहा की मदद देने का वादा करके, चिराग जलते-जलते अपने घर की तरफ रवाना हुए। उसी वक्त प्रेमा अपनी महताबी पर हवा खाने निकली थी। सकी ऑंखें पूर्णा के दरवाजे की तरफ लगी हुई थीं। निदान उसने किसी को बाइसिकिल पर सवार उधार से निकलते दखा। गौर से देखा तो पहिचान गई और चौंककर बोली—’अरे, यह तो अमृतराय है।’