परीक्षा गुरू

प्रकरण-21 : पतिब्रता

पतिके संग जीवन मरण पति हर्षे हर्षाय

स्‍नेहम ई कुलनारि की उपमा लखी न जाय[23]

शारंगधरे।

लाला ब्रजकिशोर न जानें कब तक इसी भँवर जाल मैं फंसे रहते परन्तु मदनमोहन की पतिब्रता स्‍त्री के पास सै उस्‍के दो नन्‍हें, बच्‍चों को लेकर एक बुढि़या आ पहुँची इस्‍सै ब्रजकिशोर का ध्‍यान बट गया।

उन बालकों की आंखों मैं नींद घुलरही थी उन्‍को आतेही ब्रजकिशोर नें बड़े प्‍यार सै अपनी गोद मैं बिठा लिया और बुढि़या सै कहा “इन्को इस्‍समय क्‍यों हैरान किया ? देख इन्‍की आंखों मैं नींद घुल रही है जिस्‍सै ऐसा मालूम होता है कि मानो यह भी अपनें बाप के काम काज की निर्बल अवस्‍था देखकर उदास हो रहे हैं” उन्‍को छाती सै लगाकर कहा “शाबास ! बेटे शाबास ! तुम अपनें बाप की भूल नहीं समझते तोभी उदास मालूम होते हो परन्‍तु वह सब कुछ समझता है तोभी तुम्‍हारी हानि लाभ का कुछ बिचार नहीं करता। झूंटी जिद अथवा हठधर्मी सै तुम्‍हारा वाजबी हक़ खोए देता है। तुम्‍हारे बाप को लोग बड़ा उदार और दयालु बताते हैं परन्‍तु वह कैसा कठोर चित्‍त है कि अपनें गुलाब जैसे कोमल, और गंगाजल जैसे निर्मल बालकों के साथ विश्‍वासघात करके उन्‍को जन्‍म भर के लिये दरिद्री बनाए देता है वह नहीं जान्‍ता कि एक हक़दार का हक़ छीनकर मुफ्तखोरों को लुटा देनेंमैं कितना पाप है ! कहो अब तुम्‍हारे बास्‍तै क्‍या मंगवायें ?”

“खिनोंनें” (खिलौनें) छोटे नें कहा “बप्‍फी” (बर्फी) बड़े बोले और दोनों ब्रजकिशोर की मूंछें पकड़ कर खेलनें लगे। ब्रजकिशोर नें बड़े प्‍यार सै उन्‍के गुलाबी गालों पर एक, एक मीठी चूमी लेली और नौकरों को आवाज देकर खिलौनें और बरफी लानें का हुक्‍म दिया।

“जी ! इन्की माँ नें ये बच्‍चे आप के पास भेजे हैं” बुढि़या बोली “और कह दिया है कि इन्कौ आप के पांओं मैं डालकर कह देना कि मुझ को आप के क्रोधित होकर चले जानें का हाल सुन्‍कर बड़ी चिन्ता हो रही है, मुझ को अपनें दु:ख सुख का कुछ बिचार नहीं मैं तो उन्‍के साथ रहनें मैं सब तरह प्रसन्‍न हूँ परन्‍तु इन छोटे, छोटे बच्‍चों की क्‍या दशा होगी ? इन्‍को विद्या कौन पढ़ायगा ? नीति कौन सिखायगा ? इन्‍की उमर कैसे कटेगी ? मैं नहीं जान्‍ती कि आपको इस कठिन समय मैं अपना मन मार कर उन्‍की बुद्धि सुधारनी चाहिये थी अथवा उन्‍को अधर धार मैं लटका कर चले जाना चाहिये था ? खैर ? आप उन्‍पर नहीं तो अपनें कर्तव्‍य पर दृष्टि करें, अपनें कर्तव्‍य पर नहीं तो इन छोटे, बच्‍चों पर दया करें ये अपनी रक्षा आप नहीं कर सक्‍ते। इन्‍का बोझ आपके सिर है आप इन्‍की खबर न लेंगे तो संसार मैं इन्‍का कहीं पता न लगेगा और ये बिचारे योंही झुर कर मर जायेंगे ?”

यह बात सुनकर ब्रजकिशोर की आंखें भर आईं। थोड़ी देर कुछ नहीं बोला गया फ़िर चित्‍त स्थिर कर के कहनें लगे “तुम बहन सै कह देना कि मुझको अपना कर्तव्‍य अच्‍छी तरह याद है परन्‍तु क्‍या करूं ? मैं बिबस हूँ। काल की कुटिल गति सै मुझको अपनें मनोर्थ के विपरीत आचरण (बरताव) करना पड़ता है तथापि वह चिन्‍ता न करे। ईश्‍वर का कोई काम भलाई सै खाली नहीं होता। उस्‍नें इस्‍मैं भी अपना कुछ न कुछ हित ही सोचा होगा” लड़कों की तरफ़ देखकर कहा “बेटे ! तुम कुछ उदास मत हो जिस तरह सूर्य चन्‍द्रमा को ग्रहण लग जाता है इसी तरह निर्दोष मनुष्‍यों पर भी क़भी, क़भी अनायास विपत्ति आ पड़ती है परन्‍तु उस समय उन्‍हें अपनी निर्दोषता का बिचार करके मनमैं धैर्य रखना चाहिये।”

उन अनसमझ बच्‍चों को इन बातों की कुछ परवा न थी बरफी और खिलोनों के लालच सै उन्‍की नींद उड़ गई थी इस वास्‍तै वह तो हरेक चीज की उठाया धरी मैं लग रहे थे और ब्रजकिशोर पर तकाजा जारी था।

थोड़ी देर में बरफी और खिलोनें भी आ पहुंचे। इस्‍समय उन्‍की खुशी की हद न रही। ब्रजकिशोर दोनों को बरफी बांटा चाहते थे इतनें मैं छोटा हाथ मार कर सब ले भागा और बड़ा उस्‍सै छीन्‍नें लगा तो सब की सब एक बार मुंह मैं रख गया। मुंह छोटा था इसलिये वह मुंह मैं नहीं समाती थी परन्‍तु यह खुशी भी कुछ थोड़ी न थी कनअंखियों से बड़े की तरफ़ देखकर मुस्‍कराता जाता था और नाचता जाता था वह। भोलीभोली सूरत ठुमक, ठुमक कर नाचना, छिप-छिप कर बड़े की तरफ़ देखना, सैन मारना उस्‍के मुस्‍करानें मैं दूध के छोटे, छोटे दांतों की मोती की सी झलक देखकर थोड़ी देर के लिये ब्रजकिशोर अपनें सब चारा बिचार भूल गए। परन्‍तु इस्‍को नाचता कूदता देखकर अब बड़ा मचल पड़ा। उस्‍नें सब खिलोनें अपनें कब्‍जे मैं कर लिये और ठिनक, ठिनक कर रोनें लगा। ब्रजकिशोर उस्‍को बहुत समझाते थे कि “वह तुम्‍हारा छोटा भाई है तुम्‍हारे हिस्‍से की बरफी खाली तो क्‍या हुआ ? तुम ही जानें दो” परन्‍तु यहां इन्‍बातों की कुछ सुनाई न थी। इधर छोटे खिलोनों की छीना झपटी मैं लग रहे थे ! निदान ब्रजकिशोर को बड़े के वास्‍तै बरफी छोटे के वास्‍तै खिलोनें फ़िर मंगानें पड़े। जब दोनों की रजामन्‍दी हो गई तो ब्रजकिशोर नें बड़े प्‍यार से दोनों की एक मिठ्ठी (मीठी चूमी) लेकर उन्‍हें बिदा किया और जाती बार बुढि़या को समझा दिया कि “बहन को अच्‍छी तरह समझा देना वह कुछ चिन्‍ता न करे।”

परन्‍तु बुढि़या मकान पर पहुंची जितनें वहां की तो रंगत ही बदल गई थी। मदनमोहन के साले जगजीवनदास अपनी बहन को लिवा लेजानें के लिये मेरठ सै आए थे। वह अपनी मां (अर्थात् मदनमोहन की सास) की तबियत अच्‍छी नहीं बताते थे और आज ही रात की रेल मैं अपनी बहन को मेरठ लिवा ले जानें की तैयारी करा रहे थे। मदनमोहन की स्‍त्री के मनमैं इस्‍समय मदनमोहन को अकेले छोड़ कर जानें की बिल्‍कुल न थी परन्‍तु एक तो वह अपनें भाई सै लज्‍जा के मारे कुछ नहीं कह सक्ती थी दूसरे मां की मांदगीका मामला था तीसरे मदनमोहन हुक्‍म दे चुके थे इसलिये लाचार होकर उस्‍नें दो, एक दिन के वास्‍तै जानें की तैयारी की थी।

मदनमो‍हन की स्‍त्री अपनें पतिकी सच्‍ची प्रीतिमान, शुभचिंतक दु:ख सुखकी साथन, और आज्ञा मैं रहनेंवाली थी और मदनमोहन भी प्रारंभ मैं उस्‍सै बहुत ही प्रीति रखता था परन्‍तु जब सै वह चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल आदि नए मित्रोंकी संगति मैं बैठनें लगा, नाचरंग की धुनलगी, बेश्‍याओंके झूंठे हावभाव देखकर लोट पोट होगया ? “अय ! सुभानअल्‍लाह ! क्‍या जोबन खिल रहा है !” “वल्‍लाह ! क्‍या बहार आ रही है ?” “चश्‍म बद्ददूर क्‍या भोली, भोली सूरत है !” “अय ! परे हटो !” “मैं सदकै ! मैं कुर्बान ! मुझे न छेड़ो !” “खुदाकी कसम ! मेरी तरफ़ तिरछी नजर सै न देखो !” बस यह चोचलेकी बातें चित्‍तमैं चुभ गईं। किसी बात का अनुभव तो था ही नहीं। तरुणाई की तरंग, शिंभूदयाल और चुन्‍नीलाल आदिकी संगति, द्रव्‍य और अधिकार के नशे मैं ऐसा चकचूर हुआ कि लोक- परलोक की कुछ खबर न रही।

यह बिचारी सीधी सादी सुयोग्‍य स्‍त्री अब गंवारी मालूम होनैं लगी। पहले-पहले कुछ दिन यह बात छिपी रही परन्‍तु प्रीति के फूलमैं कीड़ा लगे पीछै वह रस कहां रहसक्ता है ? उस्‍समय परस्‍पर के मिलाप सै किसी का जी नहीं भरताथा, बातों की गुलझटी क़भी सुलझनें नहीं पातीथी, आधी बात मुख मैं और आधी बात होठोंही मैं हो जाती थी, आँख सै आँख मिल्तेही दोनोंको अपनें आप हँसी आ जाती थी केवल हँसी नहीं उस हँसी मैं धूप छाया की तरह आधी प्रीति और आधी लज्‍जा की झलक दिखाई देती थी और सही प्रीति के कारण संसार की कोई वस्‍तु सुन्‍दरता मैं उस्‍सै अधिक नहीं मालूम होती थी। एक की गुप्‍त दृष्टि सदा दूसरे की ताक झाँक में लगी रहती थी। क्‍या चित्रपट देखनें मैं, क्‍या रमणीक स्‍थानों की सैर करनें मैं, क्‍या हँसी दिल्‍लगी की बातों मैं कोई मौका नोक झोंक सै खाली नहीं जाता था और संसार के सब सुख अपनें प्राण जीवन बिना उन्‍को फीके लगते थे परन्‍तु अब वह बातें कहां हैं ? उस्‍की स्‍त्री अबतक सब बातों मैं वैसी ही दृढ़ है बल्कि अज्ञान अवस्‍था की अपेक्षा अब अधिक प्रीति रखती है परन्‍तु मदनमोहन का चित्त वह न रहा। वह उस बिचारी सै कोसों भागता है उस्‍को आफत समझता है क्‍या इन बातों सै अनसमझ तरुणों की प्रीति केवल आंखों मैं नहीं मालूम होती ? क्‍या यह उस्‍की बेकदरी और झूंठी हिर्सका सबसै अधिक प्रमाण नहीं है ? क्‍या यह जानें पीछै कोई बु‍द्धिमान ऐसे अनसमझ आदमियों की प्रतिज्ञाओं का विश्‍वास कर सक्ता है ? क्‍या ऐसी पवित्र प्रीति के जोड़े मैं अन्‍तर डालनें वालों को बाल्‍मीकि ऋषि का शाप [24] भस्‍म न करेगा ? क्‍या एक हक़दार की सच्‍ची प्रीति के ऐसे चोरों को परमेश्‍वर के यहां सै कठिन दंड न होगा ?

मदनमोहन की पतिब्रता स्‍त्री अपनें पति पर क्रोध करना तो सीखी ही नहीं है। मदनमोहन उस्की दृष्टि मैं एक देवता है। वह अपनें ऊपर के सब दु:खों को मदनमोहन की सूरत देखते ही भूल जाती है और मदनमोहन के बड़े सै बड़े अपराधों को सदा जाना न जाना करती रहती है। मदनमोहन महीनों उस्‍की याद नहीं करता परन्‍तु वह केवल मदनमोहन को देखकर जीती है। वह अपना जीवन अपनें लिये नहीं; अपनें प्राणपति के लिये समझती है। जब वह मदनमोहन को कुछ उदास देखती है तो उस्‍के शरीर का रुधिर सूख जाता है। जब उस्‍को मदनमोहन के शरीर मैं कुछ पीड़ा मालूम होती है तो वह उस्‍की चिन्‍ता मैं बावली बन जाती है। मदनमोहन की चिन्‍ता सै उस्‍का शरीर सूखकर कांटा हो गया है। उस्‍को अपनें खानें पीनें की बिल्‍कुल लालसा नहीं है परन्‍तु वह मदनमोहन के खानें पीनें की सब सै अधिक चिन्‍ता रखती है। वह सदा मदनमोहन की बड़ाई करती रहती है और जो लोग मदनमोहन की ज़रा भी निन्‍दा करते हैं वह उन्‍की शत्रु बन जाती है। वह सदा मदनमोहन को प्रसन्‍न रखनें के लिये उपाय करती है उस्‍के सम्‍मुख प्रसन्‍न रहती है अपना दु:ख उस्‍को नहीं जताती और सच्‍ची प्रीति सै बड़प्‍पन का बिचार रखकर भय और सावधानी के साथ उस्की आज्ञा प्रतिपालन करती रहती है।

थोड़े खर्च मैं घर का प्रबन्‍ध ऐसी अच्‍छी तरह कर रक्‍खा है कि मदनमोहन को घर के कामों मैं ज़रा परिश्रम नहीं करना पड़ता। जिस्‍पर फुर्सत के समय खाली बैठकर और लोगों की पंचायत और स्त्रियों के गहनें गांठे की थोथी बातों के बदले कुछ कुछ लिखनें पढ़नें, कसीदा काढ़नें और चित्रादि बनानें का अभ्‍यास रखती है। बच्‍चे बहुत छोटे हैं परन्‍तु उन्को खेल ही खेल मैं अभी से नीति के तत्‍व समझाए जाते हैं और बेमालूम रीति सै धीरे, धीरे हरेक बस्‍तु का ज्ञान बढ़ाकर ज्ञान बढ़ानें की उन्‍की स्‍वाभाविक रुचि को उत्तेजत दिया जाता है परन्‍तु उन्‍के मन पर किसी तरह का बोझ नहीं डाला जाता उन्के निर्दोष खेलकूद और हंसनें बोलनें की स्‍वतन्‍त्रता मैं किसी तरह की बाधा नहीं होनें पाती।

मदनमोहन की स्‍त्री अपनें पतिको किसी समय मौकेसै नेंक सलाह भी देती है परन्‍तु बड़ोंकी तरह दबाकर नहीं: बराबर वालों की तरह झगड़ कर नहीं। छोटों की तरह अपनें प‍तिकी पदवीका बिचार करके, उन्‍के चित दु:खित होनें का बिचार करके, अपनी अज्ञानता प्रगट करके, स्त्रियोंकी ओछी समझ जता कर धीरजसै अपना भाव प्रगट करती है परन्‍तु क़भी लोटकर जवाब नहीं देती, बिवाद नहीं करती। वह बुद्धिमती चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल इत्‍यादि की स्‍वार्थपरतासै अच्‍छी तरह भेदी है परन्‍तु पति की ताबेदारी करना अपना कर्तव्‍य समझ कर समयकी बाट देख रही है और ब्रजकिशोर को मदनमोहनका सच्‍चा शुभचिंतक जान्‍कर केवल उसीसै मदनमोहनकी भलाईकी आशा रखती है। वह क़भी ब्रजकिशोर सै सन्मुख होकर नहीं मिली परन्‍तु उसको धर्म्मका भाई मान्‍ती हैं और केवल अपनें पतिकी भलाईके लिये जो कुछ नया वृत्तान्त कहलानें के लायक मालूम होता है वह गुपचुप उस्‍सै कहला भेजती है। ब्रजकिशोर भी उस्‍को धर्म्म की बहन समझता है इस कारण आज ब्रजकिशोरके अनायास क्रोध करके चले जानें पर उस्‍नें मदनमोहनके हक़मैं ब्रजकिशोर की दया उत्‍पन्‍न करनें के लिये इस्‍समय अपनें नन्हें बच्‍चों को टहलनीके साथ ब्रजकिशोरके पास भेज दिया था परन्‍तु वह लोटकर आए इतनें में अपनी ही मेरठ जानें की तैयारी होगई और रातों रात वहां जाना पड़ा।

प्रकरण-22 : संशय

अज्ञपुरुष श्रद्धा रहित संशय युत बिनशाय।।

बि ना श्रद्धा दुहुं लोकमैं ताकों सुख न लखाय।। [25]

श्रीमद्भगवद्गीता।।

लाला ब्रजकिशोर उठकर कपड़े भी नहीं उतारनें पाए थे इतनें मैं हरकिशोर आ पहुँचा।

“क्यों ! भाई ! आज तुम अपनें पुरानें मित्र सै कैसै लड़ आए ?” ब्रजकिशोर नें पूछा।

“इस्‍सै आपको क्‍या ? आपके हां तो घीके दिए जल गए होंगे” हरकिशोरनें जवाब दिया।

“मेरे हां घीके दिये जलनें की इस्‍मैं कौन्‍सी बात थी ?” ब्रजकिशोर नें पूछा।

“आप हमारी मित्रता देखकर सदैव जला करते थे आज वह जलन मिट गई”

“क्‍या तुम्‍हारे मनमैं अब तक यह झूंटा बहम समा रहा है ?” ब्रजकिशोरनें पूछा।

“इस्‍मैं कुछ संदेह नहीं” हरकिशोर हुज्‍जत करनें लगा। मैं ठेठसै देखता आता हूँ कि आप मुझको देखकर जल्‍ते हैं। मेरी और मदनमोहन की मित्रता देखकर आपकी छाती पर सांप लोटता है। आपनें हमारा परस्‍पर बिगाड़ करनेंके लिये कुछ थोड़े उपाय किये ? मदनमोहनके पिताको थोड़ा भड़काया ? जिस दिन मेरे लड़के की बारातमैं शहरके सब प्रतिष्ठित मनुष्‍य आये थे उन्‍को देखकर आपके जीमैं कुछ थोड़ा दु:ख हुआ ? शहरके सब प्रतिष्ठित मनुष्‍योंसै मेरा मेल देखकर आप नहीं कुढ़ते ? आप मेरी तारीफ सुनकर क़भी अपनें मनमैं प्रसन्‍न हुए ? आपनें किसी काममैं मुझको सहायता दी। जब मैंनै अपनें लड़के के बिबाहमैं मजलिस की थी आपनें मजलिस करनेंसै मुझे नहीं रोका ? लोगोंके आगे मुझको बावला नहीं बताया ? बहुत कहनें सै क्‍या है ? आज ही मदनमोहन का मेरा बिगाड़ सुन्‍कर कचहरीसै वहां झटपट दोड़गए और दो घण्‍टे एकांतमैं बैठकर उस्‍को अपनी इच्‍छानुसार पट्टी पढ़ा दी परन्‍तु मुझको इन बातोंकी क्‍या परवा है ? आप और वह दोनों मिल्‍कर मेरा क्‍या करसक्ते हो ? मैं सब समझलूंगा।”

लाला ब्रजकिशोर ये बातें सुन, सुनकर मुस्‍कराते जाते थे। अब वह धीरज सै बोले “भाई ! तुम बृथा बहम का भूत बनाकर इतना डरते हो। इस बहमका ठिकाना है ? तुम तत्‍काल इन बातोंकी सफाई करते चलेजाते तो मनमैं इतना बहम सर्वथा नहीं रहता। क्‍या स्‍वच्‍छ अन्त:करण का यही अर्थ है ? मुझको जलन किस बात पर होती ? तुम अपना सब काम छोड़कर दिन भर लोगोंकी हाज़री साधते फ़िरोगे, उन्‍की चाकरी करोगे, उन्‍को तोहफा तहायफ दोगे ? दस, दस बार मसाल लेकर उन्‍के घर बुलानें जाओगे तो वह क्‍या न आवेंगे ? अपनें गांठ की दौलत खर्च करके उन्‍को नाच दिखाओगे तो वह क्‍यों न तारीफ़ करेंगे ? परन्‍तु यह तारीफ़ कितनी देरकी, वाह वाह कितनी देर की ? क़भी तुम पर आफत आ पड़ेगी तो इन्‍मैंसै कोई तुम्‍हारी सहायता को आवेगा ? इस खर्चसै देशका कुछ भला हुआ ? तुम्‍हारा कुछ भला हुआ ? तुम्‍हारी संतान का कुछ भला हुआ ? यदि इस फ़िज़ूल ख़र्ची के बदले लड़के के पढ़ानें लिखानें मैं यह रुपया लगाया जाता, अथवा किसी देश हितकारी काममैं ख़र्च होता तो निस्सन्देह बड़ाई की बात थी परन्‍तु मैं इस्‍मैं क्‍या तारीफ करता, क्‍या प्रसन्‍न होता, क्‍या सहायता करता। मुझको तुम्‍हारी भोली -भोली बातोंपर बड़ा आश्चर्य था, इसी वास्तै मैंनें तुमको फ़िज़ूल ख़र्ची सै रोका था, तुमको बावला बताया था परन्‍तु तुम्‍हारी तरफ़की मेरी मनकी प्रीतिमैं कुछ अन्‍तर क़भी नहीं आया, क्‍या तुम यह बिचारते हो कि जिस्‍सै सम्बंध हो उस्‍की उचित अनुचित हरेक बातका पक्षपात करना चाहिये ? इन्साफ़ अपनें वास्‍ते नहीं केवल औरोंके वास्‍ते है ? क्‍या हाथ मैं डिम-डिम लेकर सब जगह डोंडी पीटे बिना सच्‍ची प्रीति नहीं मालूम होती ? इन सब बातों मैं कोई बात तुम्‍हारी बड़ाईके लायक न हो तो भी तुम को प्रसन्‍न देखकर प्रसन्‍न होना तो घर फूंक तमाशा देखना है। मैं यह नहीं कहता कि मनुष्‍य ऐसे कुछ काम न करे। समय, समय पर अपनें बूते मूजिब सबकाम करनें योग्‍य हैं परन्‍तु यह मामूली कारवाई है। जितना वैभव अधिक होता है उतनी ही धूमधाम बढ़ जाती है इस लिये इस्‍मैं कोई खास बात नहीं पाई जाती है। मैं चाहता हूँ कि तुम सै कोई देश ‍हितैषी ऐसा काम बनें जिस्मैं मैं अपनें मनकी उमंग निकाल सकूं। मनुष्‍य को जलन उस मौकेपर हुआ करती है जब वह आप उस लायक न हो परन्‍तु तुम को जो बड़ाई बड़े परिश्रम से मिली है वह ईश्‍वर की कृपा सै मुझ को बेमहनत मिल रही हैं। फ़िर मुझको जलन क्‍यों हो ? तुम्‍हारी तरह खुशामद कर के मदनमोहन सै मेल किया चाहता तो मैं सहज मैं करलेता। परन्‍तु मैंनें आप यह चाल पसन्‍द न की तो अपनी इच्‍छा सै छोड़ी हुई बातों के लिये मुझ को जलन क्‍यों हो ? जलन की वृत्ति परमेश्‍वर नें मनुष्‍य को इस लिये दी है कि वह अपनें सै ऊंची पदवी के लोगों को देखकर उचित रीति सै अपनी उन्‍नति का उद्योग करे परन्‍तु जो लोग जलन के मारे औरों का नुक्‍सान करके उन्‍हें अपनी बराबर का बनाया चाहते हैं, वह मनुष्‍य के नाम को धब्‍बा लगाते हैं, मुझ को तुम सै केवल यह शिकायत थी और इसी विषय मैं तुम्हारे विपरीत चर्चा करनी पड़ी थी कि तुमनें मदनमोहन सै मित्रता करके मित्र के करनें का काम न किया। तुमको मदनमोहन के सुधारनें का उपाय करना चाहिये था, परन्‍तु मैंनें तुम्‍हारे बिगाड़ की कोई बात नहीं की। हां इस बहम का क्‍या ठिकाना है ? खाते, पीते, बैठते, उठते, बिना जानें ऐसी सैंकड़ों बातें बन जाती हैं कि जिन्का बिचार किया करें तो एक दिन मैं बावले बन जायं। आए तो आए क्‍यों, बैठे तो बैठे क्‍यों, हँसे तो हँसे क्‍यों, फलानें सै क्‍या बात की। फलानें सै क्‍यों मिले ? ऐसी निरर्थक बातों का बिचार किया करें तो एक दिन काम न चले। छुटभैये सैंकड़ों बातें बीच की बीच मैं बनाकर नित्य लड़ाई करा दिया करें। पर नहीं अपनें मन को सदैव दृढ़ रखना चाहिये। निर्बल मन के मनुष्‍य जिस तरह की जरा जरासी बातों मैं बिगड़ खड़े होते हैं दृढ़ मन के मनुष्‍य को वैसी बातों की खबर भी नहीं होती इसलिये छोटी, छोटी बातों पर बिशेष बिचार करना कुछ तारीफ की बात नहीं है और निश्‍चय किए बिना किसी की निंदित बातों पर विश्‍वास न करना चाहिये। किसी बात मैं संदेह पड़ जाय तो स्‍वच्‍छ मन सै कह सुनकर उस्‍की तत्‍काल सफाई कर लेनी अच्छी है क्‍योंकि ऐसे झूंटे, झूंटे वहम संदेह और मन:कल्पित बातों सै अबतक हज़ारों घर बिगड़ चुके हैं।”

“खैर ! और बातों मैं आप चाहैं जो कहें परन्‍तु इतनी बात तो आप भी अंगीकार करते हैं कि मदनमोहन की और मेरी मित्रता के विषय मैं आपनें मेरे बिपरीत चर्चा की। बस इतना प्रमाण मेरे कहनें की सचाई प्रगट करनें के लिये बहुत है” हरकिशोर कहनें लगा “आप का यह बरताव केवल मेरे संग नहीं बल्कि सब संसार के संग है। आप सबकी नुक्तेचीनी किया करते हैं”

“अब तो तुम अपनी बात को सब संसारके साथ मिलानें लगे। परन्‍तु तुम्‍हारे कहनें सै यह बात अंगीकार नहीं हो सक्ती। जो मनुष्‍य आप जैसा होता है वैसाही संसार को समझता है। मैंनें अपना कर्तव्‍य समझकर अपनें मन के सच्‍चे, सच्‍चे बिचार तुम सै कह दिए। अब उन्‍को मानों या न मानों तुम्‍हैं अधिकार है” लाला ब्रजकिशोर नें स्‍वतन्‍त्रता सै कहा।

“आप सच्‍ची बात के प्रगट होनें सै कुछ संकोच न करैं। सम्‍बन्‍धी हो अथवा बिगाना हो जिस्‍सै अपनी स्‍वार्थ हानि होती है उस्‍सै मनमैं अन्‍तर तो पड़ही जाता है” हरकिशोर कहनें लगा “स्‍यमन्‍तक मणि के संदेह पर श्रीकृष्‍ण-बलदेव जैसे भाईयों मैं भी मन चाल पड़ गई। ब्रह्मसभा मैं अपमान होनें पर दक्ष और महादेव (ससुर-जंवाई) के बीच भी बिरोध हुए बिना न रहा।”

“तो यों साफ क्‍यों नहीं कहते कि मेरी तरफ़ सै अब तक तुम्‍हारे मन मैं वही बिचार बन रहे हैं। मुझको कहना था वह कह चुका अब तुम्‍हारे मन मैं आवे जैसे समझते रहो” लाला ब्रजकिशोर नें बेपरवाई सै कहा।

“चालाक आदमियों की यह तो रीति ही होती है कि वह जैसी हवा देखते हैं वैसी बात करते हैं। अबतक मदनमोहन सै आपकी अनबन रहती थी अब मुकदमों का समय आते ही मेल हो गया ! अबतक आप मदनमोहन सै मेरी मित्रता छुड़ानें का उपाय करते थे अब मुझको मित्रता रखनें के लिये समझानें लगे ! सच है। बुद्धिमान मनुष्‍य जो करना होता है वही करता है परन्‍तु ओरों का ओलंभा मिटानें के लिये उन्‍के सिर मुफ्त का छप्‍पर ज़रूर धर देता है। अच्‍छा आपको लाला मदनमोहन की नई मित्रता के लिये बधाई है और आपके मनोर्थ सफल करनें का उपाय बहुत लोग कर रहे हैं” हरकिशोर नें भरमा भरमी कहा।

“यह तुम क्‍या बक्‍ते हो मेरा मनोर्थ क्‍या है ? और मैंनें हवा देखकर कौन्‍सी चाल बदली ?” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “जैसे नावमैं बैठनें वाले को किनारे के बृक्ष चल्‍ते दिखाई देते हैं इसी तरह तुम्‍हारी चाल बदल जानें सै तुमको मेरी चाल मैं अन्‍तर मालूम पड़ता है। तुम्‍हारी तबियत को जाचनें के लिये तुमनें पहले सै कुछ नियम स्थिर कर रक्‍खे होते तो तुमको ऐसी भ्रांति क़भी न होती। मैं ठेठ सै जिस्‍तरह मदनमोहन को चाहता था, जिस तरह तुमको चाहता था, जिस्‍तरह तुम दोनों की परस्‍पर प्रीति चाहता था उसी तरह अब भी चाहता हूँ परन्‍तु तुम्‍हारी तबियत ठिकानें नहीं है इस्‍सै तुम को बारबार मेरी चाल पर संदेह होता है सौ खैर ! मुझै तो चाहै जैसा समझते रहो परन्‍तु मदनमोहन के साथ बैर भाव मत रक्‍खो। तुच्‍छ बातों पर कलह करना अनुचित है और बैरी सै भी बैर बढ़ानें के बदले उस्‍के अपराध क्षमा करनें मैं बड़ाई मिलती है।”

“जी हां ! पृथ्‍वीराज नें शहाबुद्दीन गोरीको क्षमा करके जैसी बड़ाई पाई थी वह सब को प्रगट है” हरकिशोर नें कहा।

“आगे को हानि का संदेह मिटे पीछे पहले के अपराध क्षमा करनें चाहियें परन्‍तु पृथ्‍वीराज नें ऐसा नहीं किया था इसी सै धोखा खाया और………”

“बस, बस यहीं रहनें दीजिये। मेरा मतलब निकल आया। आप अपनें मुख से ऐसी दशा मैं क्षमा करना अनुचित बता चुके उस्‍सै आगै सुन्‍कर मैं क्‍या करूंगा ?” यह कह कर हरकिशोर, ब्रजकिशोर के बुलाते, बुलाते उठ कर चला गया।

और ब्रजकिशोर भी इनहीं बातों के सोच बिचार मैं वहां सै उठ कर पलंगपर जा लेटे।

प्रकरण-23 : प्रामाणिकता

“एक प्रामाणिक मनुष्‍य परमेश्‍वर की सर्वोत्‍कृष्‍ट रचना है” [26]

पोप।

ब्रजकिशोर कौन् हैं ? मदनमोहन की क्‍यों इतनी सहानुभूति (हमदर्दी) करते हैं ?

अच्‍छा ! अब थोड़ी देर और कुछ काम नहीं है जितनें थोड़ा सा हाल इन्‍का सुनिये।

लाला ब्रजकिशोर गरीब माँ बाप के पुत्र हैं परन्‍तु प्रामाणिक, सावधान, विद्वान और सरल स्‍वभाव हैं। इन्‍की अवस्‍था छोटी है तथापि अनुभव बहुत है। यह जो कहते हैं उसी के अनुसार चलते हैं। इन्‍की बहुत सी बातें अब तक इस पुस्‍तक मैं आचुकी हैं इसलिये कुछ विशेष लिखनें की ज़रूरत नहीं है तथापि इतना कहे बिना नहीं रहा जाता कि यह परमेश्‍वर की सृष्टि का एक उत्तम पदार्थ है। यह वकील हैं परन्तु अपनी तरफ़ के मुकद्दमेवालों का झूंटा पक्षपात नहीं करते। झूंटे मुकद्दमे नहीं लेते। बूते सै ज्‍याद: काम नहीं उठाते, परन्‍तु जो मुकद्दमे लेते हैं उन्‍की पैरवी वाजबी तौर पर बहुत अच्‍छी तरह करते हैं और बहुधा अन्‍याय सै सताए हुए गरीबों के मुकद्दमों मैं बे महन्‍ताना लिये पैरवी किया करते हैं। हाकिम और नगरनिवासियों को इन्‍की बात पर बहुत विश्वास है। यह स्‍वतन्त्र मनुष्‍य हैं परन्‍तु स्‍वेच्‍छाचारी और अहंकारी नहीं हैं। अपनी स्‍वतन्त्रता को उचित मर्यादा सै आगे नहीं बढ़नें देते। परमेश्‍वर और स्‍वधर्म पर दृढ़ विश्‍वास रखते हैं। बात सच कहते हैं परन्‍तु ऐसी चतुराई सै कहते हैं कि इन्‍का कहना किसी को बुरा नहीं लगता और किसी की हक़तल्‍फी भी नहीं होनें पाती। यह थोथी बातों पर विवाद नहीं करते और इन्‍के कर्तव्‍य मैं अन्‍तर न आता हो तो ये दूसरे की प्रसन्‍नता के लिये अकारण भी चुप हो रहते हैं अथवा केवल संकेत सा कर देते हैं। जहां तक औरों के हक़मैं अन्‍तर न आया ये अपनें ऊपर दु:ख उठा कर भी परोपकार करते हैं; बैरी सै सावधान रहते हैं परन्तु अपनें मन मैं उन्की तरफ़ का बैर भाव नहीं रखते। अपनी ठसक किसी को नहीं दिखलाया चाहते, यह मध्‍यम भाव सै रहनें को पसन्‍द करते हैं और इन्‍की भलमनसात सै सब लोग प्रसन्‍न हैं। परन्‍तु मदनमोहन को इन्‍की बातें अच्‍छी नहीं लगतीं। और लोगों सै यह केवल इतनी बात करते हैं जिस्‍मैं वह प्रसन्‍न रहैं और इन्‍हें झूंट न बोलनी पड़े परन्‍तु मदनमोहन सै ऐसा सम्‍बन्‍ध नहीं है। उस्‍की हानि लाभ को यह अपनी हानि लाभ सै अधिक समझते हैं इसी वास्‍तै इन्‍की उस्सै नहीं बन्‍ती। यह कहते हैं कि “जब तक कुछ काम न हो; अपनें पल्‍ले मैं किसी तरह का दाग लगाए बिना हर हरह के आदमी सै अच्‍छी तरह मित्रता निभ सक्‍ती है परन्तु काम पड़े पर उचित रीति बिना काम नहीं चलता”

“यह अपनी भूल जान्‍ते ही प्रसन्‍नता सै उस्‍को अंगीकार करके उस्‍के सुधारनें का उद्योग करते हैं इसी तरह जो बात नहीं जान्‍ते उस्मैं अपनी झूंटी निपुणता दिखानें पर काम पड़नें पर उस्‍का अभ्‍यास करके जेम्‍सवाट की तरह अपनी सच्ची सावधानी सै लोगों को आश्‍चर्य मैं डालते हैं।

(बहुधा लोग जान्‍ते होंगे कि जेम्सवाट कलों के काम मैं एक प्रसिद्ध मनुष्‍य हो गया है उस्‍के समान काल मैं उस्‍की अपेक्षा बहुत लोग अधिक विद्वान थे परन्‍तु अपनें ज्ञान को काम मैं लानें के वास्‍ते जेम्‍सवाट नें जितनी महनत की उतनी और किसी नें नहीं की। उस्नें हरेक पदार्थ की बारीकियों पर दृष्टि पहुँचानें के लिये खूब अभ्‍यास बढ़ाया। वह बढई का पुत्र था जब वह बालक था तब ही अपनें खिालोनों मैं सै बिद्या विषय ढूंढ निकालता था। उस्के बाप की दुकान मैं ग्रहोंके देखनें की कलें रक्‍खी थीं जिस्‍सै उस्‍को प्रकाश और ज्‍योतिष बिद्या का ब्यसन हुआ। उस्‍के शरीर मैं रोग उत्‍पन्‍न होनें सै उस्‍को बैद्यक सीखनें की रुचि हुई। और बाहर गांव मैं एकांत फ़िरनें की आदत सै उस्‍नें बनस्‍पति बिद्या और इतिहास का अभ्‍यास किया। गणित शास्‍त्र के औज़ार बनाते बनाते उस्‍को एक आर्गन बाजा बनानें की फर्मायश हुई। परन्तु उस्‍को उस्‍समय तक गाना नहीं आता था इसलिये उस्‍नें प्रथम संगीत बिद्या का अभ्‍यास करके पीछे सै एक आर्गन बाजा बहुत अच्‍छा बना दिया। इसी तरह एक बाफ की कल उस्‍की दुकान पर सुधरनें आई तब उस्‍नें गर्मी और बाफ बिषयक बृतान्त् सीखनें पर मन लगाया और किसी तरह की आशा अथवा किसी के उत्तेजन बिना इस काम मैं दस बरस परिश्रम करके बाफ की एक नई कल ढूंढ निकाली जिस्‍सै उस्‍का नाम सदा के लिये अमर हो गया।)

लाला ब्रजकिशोर को संसारी सुख भोगनें की तृष्‍णा नहीं है और द्रव्‍य की आवश्‍यकता यह केवल सांसारिक कार्य निर्वाह के लिये समझते हैं। इस्‍वास्‍तै संसारी कामों की ज़रूरत के लायक परिश्रम और धर्म्म सै रुपया पैदा किये पीछै बाकी का समय यह विद्याभ्‍यास और देशोपकारी बातों मैं लगाते हैं।

इन्‍के निकट उन गरीबों की सहायता करनें मैं सच्‍चा पुन्‍य है। जो सचमुच अपना निर्वाह आप नहीं कर सक्‍ते, या जिन रोगियोंके पास इलाज करानें के लिये रुपया अथवा सेवा करनें के लिये कोई आदमी नहीं होता, ये उन अन्समझ बच्‍चों को पढ़ानें लिखानें मैं अथवा कारीगरी इत्‍यादि सिखा कर कमानें खानें के लायक बना देनें मैं सच्‍चा धर्म समझते हैं जिन्‍के मां बाप दरिद्रता अथवा मूर्खता सै कुछ नहीं कर सक्‍ते। ये अपनें देश मैं उपयोगी विद्याओं की चर्चा फैलनें, अच्‍छी, पुस्‍तकों का और भाषाओं सै अनुवाद करवा कर अथवा नई बनवा कर अपनें देश मैं प्रचार करनें, और देश के सच्‍चे शुभचिन्‍तक और योग्‍य पुरुषों को उत्तेजन देनें, और कलों की अथवा खेती आदि की सच्‍ची देश हितकारी बातों के प्रचलित करनें मैं सच्‍चा धर्म्म समझते हैं। परन्‍तु शर्त यह है कि इन सब बातों मैं अपना कुछ स्‍वार्थ न हो, अपनी नामवरी का लालच न हो, किसी पर उपकार करनें का बोझ न डाला जाय बल्कि किसी को खबर ही न होनें पाय।

इन्‍नें थोड़ी आमद मैं अपनें घरका प्रबन्‍घ बहुत अच्‍छा बांध रक्‍खा है। इन्‍की आमदनी मामूली नहीं है तथापि जितनी आमदनी आती है उस्‍सै खर्च कम किया जाता है और उसी खर्च मैं भावी विवाह आदि का खर्च समझ कर उनके वास्‍तै क्रम सै सीगेवार रकम जमा होती जाती है। बिवाहादि के खर्चों का मामूल बन्ध रहा है उन्‍मैं फिजूल खर्ची सर्वथा नहीं होनें पाती परन्‍तु वाजबी बातोंमैं कसर भी नहीं रहती, इन्‍के सिवाय जो कुछ थोड़ा बहुत बचता है वह बिना बिचारे खर्च और नुक्‍सानादि के लिये अमानत रक्‍खा जाता है और विश्‍वास योग्‍य फ़ायदे के कामों मैं लगानें सै उस्‍की वृद्धि भी की जाती है।

इन्‍के दो छोटे भाइयों के पढ़ानें-लिखानें का बोझ इन्‍के सिर है, इसलिये ये उन्‍को प्रचलित बिद्याभ्‍यास की रूढ़ी के सिबाय उन्‍के मानसिक बिचारोंके सुधारनें पर सब सै अधिक दृष्टि रखते हैं। ये कहते हैं कि “मनुष्‍य के मनके बिचार न सुधरे तो पढ़नें-लिखनें सै क्‍या लाभ हुआ ?” इन्‍नें इतिहास और वर्तमान काल की दशा दिखा, दिखा कर भले बुरे कामों के परिणाम और उन्‍की बारीकी उन्‍के मन पर अच्‍छी तरह बैठा दी तथापि ये अपनी दूर दृष्टि सै अपनी सम्‍हाल मैं गफलत नहीं करते उन्हैं कुसंगति मैं नहीं बैठनें देते। यह उन्‍के संग ऐसी युक्ति सै बरतते हैं जिस्‍मैं न वो उद्धत होकर ढिठाई करनें योग्‍य होनें पावैं न भय सै उचित बात करनें मैं संकोच करें। ये जान्‍ते हैं कि बच्‍चों के मनमैं गुरु के उपदेश सै इतना असर नहीं होता जितना अपनें बड़ों का आचरण देखनें सै होता है इस लिये उन्को मुखसैं उपदेश देकर उतनी बात नहीं सिखाते जितनी अपनी चालचलन सै उनके मन पर बैठाते हैं।

ब्रजकिशोर को सच्‍ची सावधानी सै हरेक काममैं सहायता मिल्‍ती है। सच्‍ची सावधानी मानों परमेश्वरकी तरफ़सै इन्‍को हरेक काम की राह बतानें वाली उपदेष्‍टा है परन्‍तु लोग सच्‍ची सावधानी और चालाकीका का भेद नहीं समझते। क्‍या सच्‍ची सावधानी और चालाकी एक है ?

मनुष्‍यकी प्रकृतिमैं बहुतसी उत्तमोत्तम वृत्ति मोजूद हैं परन्‍तु सावधानीके बराबर कोई हितकारी नहीं है। सावधान मनुष्‍य केवल अपनी तबियत पर ही नहीं औरोंकी तबियत पर भी अधिकार रखसक्ता है। वह दूसरेसै बात करते ही उसका स्‍वभाव पहचान जाता है और उस्‍सै काम निकालनें का ढंग जान्‍ता है यदि मनुष्‍यमैं और गुण साधारण हों और सावधानी अधिक हो तो वह अच्‍छी तरह काम चला सक्‍ता है परन्‍तु सावधानी बिना और गुणोंसे काम निकालना बहुत कठिन है।

जिस्‍तरह सावधानी उत्तम पुरुषोंके स्‍वभावमैं होती है इसी तरह चालाकी तुच्‍छ और कमीनें आदमियोंकी तबियतमैं पाई जाती है। सावधानी हमको उत्तमोत्तम बातें बताती है और उन्‍के प्राप्‍त करनेंके लिये उचित मार्ग दिखाती है। वह हर कामके परिणाम पर दृष्टि पहुंचाती है और आगे कुछ बिगाड़की सूरत मालूम हो तो झूंटे लालचके कामों को प्रारंभ सैं पहले ही अटका देती है परन्तु चालाकी अपनें आसपास की छोटी, छोटी चीजों को देख सक्‍ती है और केवल वर्तमान समय के फायदोंका बिचार रखती है, यह सदा अपनें स्वार्थ की तरफ़ झुकती है और जिस तरह हो सके, अपनें काम निकाल लेनें पर दृष्टि रखती है। सावधानी, आदमी की दृढ़ बुद्धिको कहते हैं और वह जों, लोगोंमैं प्रगट होती जाती है, सावधान मनुष्‍यकी प्रतिष्‍ठा बढ़ती जाती है परन्‍तु चालाकी प्रगट हुए पीछै उसकी बातका असर नहीं रहता। चालाकी होशियारीकी नकल है और वह बहुधा जान्‍वरों की सी-प्रकृतिके मनुष्योंमैं पाई जाती है इस लिये उस्‍मैं मनुष्‍य जन्‍मको भूषित करनें के लायक कोई बात नहीं है। वह अज्ञानियोंके निकट ऐसी समझी जाती है जैसे ठट्टेबाजी, चतुराई और भारी भरकमपना बुद्धिमानी समझे जायं।

लाला ब्रजकिशोर सच्‍ची सावधानी के कारण किसी के उपकार का बोझ अपनें ऊपर नहीं उठाया चाहते, किसी सै सिफारश आदि की सहायता नहीं लिया चाहते, कोई काम अपनें आग्रह सै नहीं कराया चाहते, किसी को कच्‍ची सलाह नहीं देते, ईश्‍वर के सिवाय किसी भरोसे पर काम नहीं उठाते, अपनें अधिकार सै बढ़कर किसी काम मैं दस्तंदाजी नहीं करते। औरों की मारफत मामला करनें के बदले रोबरू बातचीत करनें को अधिक पसंद करते हैं। वह लेनदेन मैं बड़े खरे हैं परन्‍तु ईश्‍वर के नियमानुसार कोई मनुष्‍य सबके उपकारों सै उऋण नहीं हो सक्ता। ईश्वर, गुरु और माता पितादि के उपकारों का बदला किसी तरह नहीं दिया जा सकता परन्‍तु ब्रजकिशोर पर केवल इन्‍हीं के उपकार का बोझ नहीं है वह इस्सै सिवाय एक और मनुष्‍य के उपकार मैं भी बँध रहे हैं।

ब्रजकिशोर का पिता अत्यन्त दरिद्री था। अपनें पास सै फीस देकर ब्रजकिशोर की मदरसे मैं पढ़ानें की उस्‍की सामर्थ्‍य न थी और न वह इतनें दिन खाली रखकर ब्रजकिशोर को विद्या मैं निपुण किया चाहता था। परन्‍तु मदनमोहन के पिता नें ब्रजकिशोर की बु‍द्धि और आचरण देखकर उसै अपनी तरफ़ सै ऊंचे दर्जे तक विद्या पढ़ाई थी, उस्‍की फीस अपनें पास सै दी थी। उस्की पुस्‍तकैं अपनें पास सै ले दी थीं बल्कि उस्‍के घर का खर्च तक अपनें पास सै दिया था और यह सब बातैं ऐसी गुप्‍त रीति सै हुईं कि इन्‍का हाल स्‍पष्‍ट रीति सै मदनमोहन को भी मालूम न होनें पाया था। ब्रजकिशोर उसी उपकार के बन्‍धन सै इस्‍समय मदनमोहन के लिये इतनी कोशिश करते हैं।

प्रकरण-24 : (हाथसै पैदा करनें वाले)

(और पोतड़ों के अमीर)

अमिल द्रव्‍यहू यत्‍नते मिलै सु अवसर पाय ।

संचित हू रक्षाबिना स्‍वत: नष्‍ट होजाय ।। [27]

हितोपदेशे

मदनमोहन का पिता पुरानी चाल का आदमी था। वह अपना बूतादेखकर काम करता था और जो करता था वह कहता नहीं फ़िरता था। उस्नें केवल हिन्‍दी पढ़ी थी। वह बहुत सीधा सादा मनुष्‍य था परन्‍तु व्‍यापार मैं बड़ा निपुण था, साहूकारे मैं उस्‍की बड़ी साख थी। वह लोगों की देखा-देखी नहीं अपनी बुद्धि सै व्‍यापार करता था। उस्नें थोड़े व्‍यापार मैं अपनी सावधानी सै बहुत दौलत पैदा की थी। इस्‍समय जिस्‍तरह बहुधा मनुष्‍य तरह, तरह की बनावट और अन्‍याय सै औरों की जमा मारकर साहूकार बन बैठते हैं, सोनें चान्दी के जगमगाहट के नीचे अपनें घोर पापों को छिपाकर सज्‍जन बन्नें का दावा करते हैं, धनको अपनी पाप वासना पूरी करनें का एक साधन समझते हैं ऐसा उस्‍नें नहीं किया था। वह व्‍यापार मैं किसी को कसर नहीं देता था पर आप भी किसी सै कसर नहीं खाता था। उन दिनों कुछ तो मार्ग की कठिनाई आदि के कारण हरेक धुनें जुलाहे को व्‍यापार करनें का साहस न होता था इसलिये व्‍यापार मैं अच्‍छा नफा था दूसरे वह वर्तमान दशा और होनहार बातों का प्रसंग समझकर अपनी सामर्थ्य मूजिब हरबार नए रोजगार पर दृष्टि पहुँचाया करता था इसलिये मक्‍खन उस्‍के हाथ लग जाता था, छाछ मैं और रह जाते थे। कहते हैं कि एकबार नई खानके पन्‍नेंकी खड़ बाजार मैं बिकनें आई परन्‍तु लोग उस्‍की असलियत को न पहचान सके और उस्‍सै खरीद कर नगीना बनवानें का किसी को हौसला न हुआ परन्‍तु उस्की निपुणाई सै उस्‍की ष्टि मैं यह माल जच गया था इसलिये उस्‍नें बहुत थोड़े दामों मैं खरीद लिया और उस्‍के नगीनें बनवाकर भली भांत लाभ उठाया। उसी समय सै उस्‍की जड़जमी और पीछै वह उसै और, और व्‍यापार मैं बढ़ाता गया। परन्‍तु वह आप क़भी बढ़कर न चला। वह कुछ तकलीफ सै नहीं रहता था परन्‍तु लोगों को झूंटी भड़क दिखानें लिये फिजूलखर्ची भी नहीं करता था उस्‍की सवारीमैं नागोरी बैलोंका एक सुशोभित तांगा था। और वह खासे मलमल सै बढ़कर क़भी वस्‍‍त्र नहीं पहनता था। वह अपनें स्‍थान को झाड़ पोंछकर स्‍वच्‍छ रखता था परन्तु झाड़फानूस आदि को फिज़ूलखर्ची मैं समझता था। उस्‍के हां मकान और दुकानपर बहुत थोड़े आदमी नोकर थे परन्तु हरेक मनुष्य का काम बटा रहता था इसलिये बड़ी सुगमता सै सब काम अपनें, अपनें समय होता चला जाता था, वह अपनें धर्म्म पर दृढ़ था। ईश्‍वर मैं बड़ी भक्ति रखता था। प्रतिदिन प्रात:- काल घन्टा डेढ़ घन्टा कथा सुन्‍ता था और दरिद्री, दुखिया, अपहाजों की सहायता करनें मैं बड़ी अभिरुचि रखता था परन्‍तु वह अपनी उदारता किसी को प्रगट नहीं होनें देता था। वह अपनें काम धंधे मैं लगा रहता था इसलिये हाकिमों और रहीसों सै मिलनें का उसे समय नहीं मिल सक्ता था परन्तु वह वाजबी राह सै चल्‍ता था इसलिये उसै बहुधा उन्सै मिलनें की कुछ अवश्‍यकता भी न थी क्‍योंकि देशोन्‍नतिका भार पुरानी रूढि़ के अनुसार केवल राजपुरुषों पर समझा जाता था। वह महनती था इसलिये तन्दुरुस्‍त था वह अपनें काम का बोझ हरगिज औरों के सिर नहीं डालता था; हां यथाशक्ति वाजबी बातों मैं औरों की सहायता करनें को तैयार रहता था।

परन्‍तु अब समय बदल गया इस्‍समय मदनमोहन के बिचार और ही होरहे हैं, जहां देखो; अमीरी ठाठ, अमीरी कारखानें, बाग की सजावट का कुछ हाल हम पहले लिख चुके हैं मकान मैं कुछ उस्‍सै अधिक चमत्‍कार दिखाई देता है, बैठक का मकान अंग्रेजी चाल का बनवाया गया है उस्‍मैं बहुमूल्‍य शीशे बरतन के सिवाय तरह, तरह का उम्‍दा सै उम्‍दा सामान मिसल सै लगा हुआ है। सहन इत्‍यादि मैं चीनी की ईंटों का सुशोभित फर्श कश्‍मीर के गलीचों को मात करता है। तबेलेमैं अच्‍छी सै अच्‍छी विलायती गाड़ियें और अरबी, केप, बेलर, आदिकी उम्‍दा उम्दा जोड़ियें अथवा जीनसवारी के घोड़े बहुतायत सै मौजूद हैं। साहब लोगों की चिट्ठियें नित्‍य आती जाती हैं। अंग्रेज़ी तथा देसी अखबार और मासिकपत्र बहुतसे लिये जाते हैं और उन्‍मैं सै खबरें अथवा आर्टिकलों को कोई देखे ना न देखे परन्‍तु सौदागरों के इश्‍तहार अवश्‍य देखे जाते हैं, नई फैशन की चीज़ें अवश्‍य मंगाई जाती हैं, मित्रोंका जलूसा सदैव बना रहता है और क़भी क़भी तो अंग्रेजों को भी बाल दिया जाता है, मित्रोंके सत्‍कार करनें मैं यहां किसी तरह की कसर नहीं रहती और जो लोग अधिक दुनियादार होते हैं उन्‍की तो पूजा बहुतही विश्‍वासपूर्वक की जाती है ! मदनमोहन की अवस्था पच्‍चीस, तीस बरस सै अधि‍क न होगी। वह प्रगट मैं बड़ा विवेकी और बिचारवान मालूम होता है। नए आदमियों सै बड़ी अच्‍छी तरह मिल्‍ता उस्‍के मुखपर अमीरी झलकती है। वह वस्त्र सादे परन्तु बहुमूल्य पहनता है। उस्के पिता को व्‍यापारी लोगों के सिवाय कोई नहीं जान्‍ता था परन्‍तु उस्‍की प्रशंसा अखबारों मैं बहुधा किसी न किसी बहानें छपती रहती है और वह लोग अपनी योग्‍यता सै प्रतिष्ठित होनें का मान उसे देते हैं।

अच्‍छा ! मदनमोहन नें उन्‍नति की अथवा अवनति की इस विषय मैं हम इस्‍समय विशेष कुछ नहीं कहा चाहते परन्‍तु मदनमोहन नें यह पदवी कैसे पाई ? पिता पुत्र के स्‍वभाव मैं इतना अन्‍तर कैसे होगया ? इसका कारण इस्समय दिखाया चाहते हैं।

मदनमोहन का पिता आप तो हरेक बात को बहुत अच्‍छी तरह समझता था परन्‍तु अपनें विचारों को दूसरे के मन मैं (उस्‍का स्वभाव पहिचान कर) बैठादेनें की सामर्थ्‍य उसे न थी। उस्‍नें मदनमोहन को बचपन मैं हिन्‍दी, फारसी और अंग्रेजी भाषा सिखानें के लिये अच्‍छे, अच्‍छे उस्‍ताद नौकर रख दिये थे परन्‍तु वह क्‍या जान्‍ता था कि भाषा ज्ञान विद्या नहीं, विद्या का दरवाजा है। विद्या का लाभ तो साधारण रीति सै बु्द्धि के तीक्ष्‍ण होनें पर और मुख्‍य करके विचारों के सुधरनें पर मिल्‍ता है। जब उस्‍को यह भेद प्रगट हुआ उस्‍नें मदनमोहन को धमका कर राह पर लानें की युक्ति विचारी परन्‍तु वह नहीं जान्‍ता था कि आदमी धमकानें सै आंख और मुख बन्‍द कर सक्ता है, हाथ जोड़ सक्ता है, पैरों मैं पड़ सक्ता है, कहो जैसे कह सक्ता है, परन्‍तु चित्त पर असर हुए बिना चित्त नहीं बदलता और सत्‍संग बिना चित्त पर असर नहीं होता जब तक अपनें चित्त मैं अपनी हालत सुधारनें की अभिलाषा न हो औरों के उपदेश सै क्‍या लाभ हो सक्ता है ? मदनमोहन का पिता मदनमोहन को धमका कर उस्‍के चित्तका असर देखनें के लिये कुछ दिन चुप हो जाता था परन्तु मदनमोहन के मन दुखनें के बिचार सै आप प्रबन्ध न करता था और इस देरदार का असर उल्‍टा होना था। हरकिशोर, शिंभूदयाल, चुन्‍नीलाल, वगैरे मदनमोहन की बाल्‍यावस्‍था को इसी झमेले मैं निकाला चाहते थे क्‍योंकि एक तो इस अवकाश मैं उन लोगों के संग का असर मदनमोहन के चित्त पर दृढ़ होता जाता था दूसरे मदनमोहन की अवस्‍था के संग उस्‍की स्‍वतन्त्रता बढ़ती जाती थी इसलिये मदनमोहन के सुधरनें का यह रस्‍ता न था। मदनमोहन के बिचार प्रतिदिन दृढ़ होते जाते थे परन्‍तु वह अपनें पिता के भय सै उन्‍हैं प्रगट न करता था। खुलासा यह है कि मदनमोहन के पितानें अपनी प्रीति अथवा मदनमोहन की प्रसन्‍नता के बिचार सै मदनमोहन के बचपन मैं अपनें रक्षक भाव पर अच्‍छी तरह बरताव नहीं किया अथवा यों कहो कि अपना कुछरती हक़ छोड़ दिया इस‍लिये इन्‍के स्‍वभाव मैं अन्‍तर पड़नें का मुख्‍य ये ही कारण हुआ।

ब्रजकिशोर ठेठ सै मदनमोहन के विरुद्ध समझा जाता था। ब्रजकिशोर को वह लोग कपटी, चुगलखोर, द्वेषी और अभिमानी बताते थे। उन्‍के निकट मदनमोहन के पिता का मन बिगाड़नें वाला वह था। चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल उस्‍की सावधानी सै डर कर मदनमोहन का मन उस्‍की तरफ़ सै बिगाड़ते रहते थे और मदनमोहन भी उस्‍पर पिता की कृपा देख कर भीतर सै जल्‍ता था। हरकिशोर जैसे मुंह फट तो कुछ, कुछ भरमा भरमी उस्‍को सुना भी दिया करते थे परन्‍तु वह उचित जवाब देकर चुप हो जाता था। और अपनी निर्दोष चाल के भरोसे निश्चिन्‍त रहता था। हां उस्‍को इन्‍की चाल अच्‍छी नहीं लगती थी और इन्‍के मन का पाप भी मालूम था इसलिये वह इन्‍सै अलग रहता था इन्‍का बृतान्‍त जान्‍नें सै जान बूझकर बेपरवाई करता था उस्‍नें मदनमोहन के पिता सै इस विषय मैं बात -चीत करना बिल्‍कुल बन्‍द कर दिया था मदनमोहन के पिता का परलोक हुए पीछै निस्‍सन्‍देह उस्‍को मदनमोहन के सुधारनें की चटपटी लगी। उस्‍नें मदनमोहन को राह पर लानें के लिये समझानें मैं कोई बात बाकी नहीं छोड़ी परन्‍तु उस्‍का सब श्रम व्‍यर्थ गया उस्‍के समझानें सै कुछ काम न निकला।

अब आज हरकिशोर और ब्रजकिशोर दोनों इज्‍जत खोकर मदनमोहन के पास सै दूर हुए हैं। इन्‍मैं सै आगे चलकर देखैं कोन् कैसा बरताव करता है ?

प्रकरण-25 : साहसी पुरुष

सानु ब न्‍ध कारज करे सब अनुबन्‍ध निहार

करै न साहस, बुद्धि बल पंडित करै बि चार[28]

विदुरप्रजागरे।

हम प्रथम लिख चुके हैं कि हरकिशोर साहसी पुरुष था और दूर के सम्बन्ध मैं ब्रजकिशोर का भाई लगता था। अब तक उस्के काम उस्की इच्छानुसार हुए जाते थे वह सब कामों मैं बड़ा उद्योगी और दृढ़ दिखाई देता था। उस्का मन बढ़ता जाता था और व‍ह लड़ाई झगड़े वगैरे के भयंकर और साहसिक कामों मैं बड़ी कारगुजारी दिखलाया करता था। वह हरेक काम के अंग प्रत्यंग पर दृष्टि डालनें या सोच बिचार के कामों मैं माथा खाली करनें और परिणाम सोचनें या कागजी और हिसाबी मामलों मैं मन लगनें के बदले ऊपर, ऊपर सै इन्को देख भाल कर केवल बड़े, बड़े कामों मैं अपनें तांई लगाये रखनें और बड़े आदमियों सैं प्रतिष्ठा पानें की विशेष रुचि रखता था। उस्नें हरेक अमीर के हां अपनी आवा-जाई कर ली थी और वह सबसै मेल रखता था। उस्के स्वभाव मैं जल्दी होनें के कारण वह निर्मूल बातों पर सहसा बिश्वास कर लेता था और झट पट उन्का उपाय करनें लगता था। उस्के बिना बिचारे कामों सै जिस्तरह बिना विचारा नुक्सान हो जाता था इसी तरह बिना बिचारे फ़ायदे भी इतनें हो जाते थे जो बिचार कर करनें सै किस प्रकार सम्भव न थे। जब तक उस्के काम अच्छी तरह सम्पन्न हुए जाते थे, उस्को प्रति दिन अपनी उन्नति दिखाई देती थी, सब लोग उसकी बात मान्ते थे। उस्का मन बढ़ता जाता था और वो अपना काम सम्पन्न करनें के लिये अधिक, अधिक परिश्रम करता था। परन्तु जहां किसी बात मैं उस्का मन रुका उसकी इच्छानुसार काम न हुआ। किसीनें उस्‍की बात दुलख दी अथवा उस्‍को शाबासी न मिली वहां वह तत्‍काल आग हो जाता था। हरेक काम को बुरी निगाह सै देखनें लगता था। उस्‍की कारगुजारी मैं फर्क आ जाता था और वह नुकसान सै खुश होनें लगता था इसलिये उस्‍की मित्रता भय सै खाली न थी।

कोई साहसी पुरुष स्‍वार्थ छोड़ कर संसार के हितकारी कामों मैं प्रबृत्त हो तो कोलम्‍बसकी तरह बहुत उपयोगी हो सक्ता है और अब तक संसार की बहुत कुछ उन्‍नति ऐसे ही लोगों सै हुई है इस लिये साहसी पुरुष परित्‍याग करनें के लायक नहीं हैं परन्‍तु युक्ति सै काम लेनें के लायक हैं हां ! ऐसे मनुष्‍यों सै काम लेनें मैं उन्‍का मन बराबर बढ़ाते जांय तो आगै चल कर काबू सै बाहर हो जानें का भय रहता है इसलिये कोई बुद्धिमान तो उन्‍का मन ऐसी रीति सै घटाते-बढ़ाते रहते हैं कि उन्‍का मन बिगड़नें पावै न हद्दसै आगै बढ़नें पावै कोई अनुभवी मध्‍यम प्रकृति के मनुष्‍य को बीच मैं रखते हैं कि वह उन्‍को वाजबी राह बताते रहैं। परन्‍तु लाला मदनमोहन के यहां ऐसा कुछ प्रबन्‍ध न था। दूसरे उस्‍के बिचार मूजिब मदनमोहननें अपनें झूंटे अभिमान सै भलाई के बदले जान-बूझकर उस्‍की इज्‍जत ली थी इस्‍कारण हरकिशोर इस्‍समय क्रोध के आवेश मैं लाल हो रहा था और बदला लेनें के लिये उस्‍के मनमैं तरंगैं उठतीं थीं उस्नें मदनमोहन के मकान सै निकलते ही अपनें जी का गुबार निकालना आरंभ किया।

पहलै उस्‍को निहालचंद मोदी मिला। उस्नें पूछा “आज कितनें की बिक्री की ?”

“खरीदारी की तो यहां कुछ हद ही नहीं है परन्‍तु माल बेच कर दाम किस्‍सै लें ? जिस्‍को बहुत नफे का लालच हो वह भले ही बेचे मुझको तो अपनी रकम डबोनी मंजूर नहीं” हरकिशोरनें जवाब दिया।

“हैं ! यह क्‍या कहते हो ? लाला साहब की रकम मैं कुछ धोका है ?”

“धोके का हाल थोड़े दिन मैं खुल जायगा मेरे जान तो होना था वह हो चुका।”

“तुम यह बात क्‍या समझ कर कहते हो ?” मोदीनें घबरा कर पूछा “कम सै कम लाख, पचास हजार का तो शीशा बर्तन इस्‍समय इन्‍के मकान मैं होगा।”

“समय पर शीशे बर्तन को कोई नहीं पूछता। उस्‍की लागत मैं रुपे के दो आनें नहीं उठते। इन्‍हीं चीजों की खरीदारी मैं तो सब दौलत जाती रही। मैंनें निश्‍चय सुना है कि इन चीजों की कीमत बाबत पचास हजार रुपे तो ब्राइट साहबके देनें हैं और कल एक अंग्रेज दस हजार रुपे मागनें आया था न जानें उस्‍के लेनें थे कि कर्ज मांगता था परन्‍तु लाला साहब नें किसी सै उधार मांग कर देनें का करार किया है ? फ़िर जहां उधार के भरोसे सब काम भुगतनें लगा वहां बाकी क्‍या रहा ? मैंनें अपनी रकम के लिये अभी बहुत तकाजा किया पर वे फूटी कौड़ी नहीं देते इसलिये मैं तो अपनें रुपों की नालिश अभी दायर करता हूं तुम्‍हारी तुम जानों”

यह बात सुन्‍ते ही मोदी के होश उड़ गये। वह बोला “मेरे भी पांच हजार लेनें हैं मैंनें कई बार तगादा किया पर कुछ सुनाई न हुई मैं अभी जाकर अपनी रकम मांगता हूं जो सूधी तरह देदेंगे तो ठीक है नहीं तो मैं भी नालिश कर दूंगा। ब्योहार मैं मुलाहिजा क्‍या ?”

इस्‍तरह बतला कर दोनों अपनें, अपनें रस्‍ते लगै। आगै चल कर हरकिशोर को मिस्‍टर ब्राइट का मुन्‍शी मिला। वह अपनें घर भोजन करनें जाता था उसै देखकर हरकिशोर अपनें आप कहनें लगा “मुझै क्‍या है ? मेरे तो थोड़ेसे रुपे हैं मैं तो अभी नालिश करके पटा लूंगा। मुश्किल तो पचास, पचास हजार वालों की है देखैं वह क्‍या करते हैं ?”

“लाला हरकिशोर किस्‍पर नालिश की तैयारी कर रहे हैं ?” मुन्‍शी नें पूछा।

“कुछ नहीं साहब ! मैं आप सै कुछ नहीं कहता। मैं तो बिचारे मदनमोहन का बिचार कर रहा हूँ। हां ! उस्‍की सब दौलत थोड़े दिन में लुट गई अब उस्‍के काम मैं हलचल हो रही है, लोग नालिश करनें को तैयार हैं। मैंनें भी कम्‍बख्‍ती के मारे हजार दो एक का कपड़ा दे दिया था इसलिये मैं भी अपनें रुपे पटानें की राह सोच रहा हूँ। बिचारा मदनमोहन कैसा सीधा आदमी था ?”

“क्‍या सचमुच उस्‍पर तकाजा हो गया ? उस्‍पर तो हमारे साहब के भी पचास हजार रुपये लेनें हैं। आज सबेरे तो लाला मदनमोहन की तरफ़ सै बड़े काचों की एक जोड़ी खरीदनें के लिये मास्‍टर शिंभूदयाल हमारे साहब के पास गए थे फ़िर इतनी देर मैं क्‍या हो गया ? तुमनें यह बात किस्‍सै सुनी ?”

“मैं आप वहां सै आता हूँ। कल सै गड़बड़ हो रही है कल एक साहब दस हजार रुपे मांगनें आए थे। इस्‍पर मदनमोहननें स्‍पष्‍ट कह दिया कि मेरे पास कुछ नहीं हैं मैं कहीं सै उधार लेकर दो एक दिन मैं आपका बंदोबस्‍त कर दूंगा। मैंनें अपनें रुपे के लिये बहुत ताकीद की पर मुझको भी कोरा जवाब ही मिला। अब मैं नालिश करनें जाता हूँ और निहालचंद मोदी अभी पांच हजार के लिये पेट पकड़े गया है वह कहता था कि मेरे रुपे इस्समय न देंगे तो मैं भी अभी नालिश कर दूंगा जिस्‍की नालिश पहलै होगी उस्‍को पूरे रुपे मिलैंगे।”

“तो मैं भी जाकर साहब सै यह हाल कह दूं तुम्‍हारी रकम तो खेरीज है परन्‍तु साहब का कर्जा बहुत बड़ा है। जो साहब की इस रकम मैं कुछ धोका हुआ तो साहब का काम चलना कठिन हो जायगा।” ये कहक़र मिस्‍टर ब्राइट का मुन्‍शी घर जानें के बदले साहब के पास दौड़ गया।

लाला हरकिशोर आगे बढ़े तो मार्ग मैं लाला मदनमोहन की पचपनसो की खरीद के तीन घोड़े लिये हुए आगाहसनजान लाला मदनमोहन के मकान की तरफ़ जाता मिला। उस्‍को देखकर हरकिशोर कहनें लगे “ये ही घोड़े लाला मदनमोहन नें कल खरीदे थे। माल तो बड़े फ़ायदे सै बिका पर दाम पट जायं तब जानिये।”

“दामों की क्‍या है ? हमारा हजारों रुपे का काम पहलै पड़ चुका है” आगाहसनजान नें जवाब दिया और मन मैं कहा “हमारी रकम तो अपनें लालच सै चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल घर बैठे पहुँचा जायंगे”

“वह दिन गए। आज लाला मदनमोहन का काम डिगमिगा रहा है। उस्‍के ऊपर लोगों का तगादा जारी है जो तुम किसी के भरोसे रहोगे तो धोका खाऔगे जो काम करो : अच्‍छी तरह सोच समझकर करना।”

“कल शाम को तो लाला साहब नें हमारे यहां आकर ये घोड़े पसंद किये थे फ़िर इतनी देर मैं क्‍या होगया ?”

“जब तेल चुक जाता है तो दिये बुझनें मैं क्‍या देर लगती है ? चुन्‍नीलाल, शिंभूदयाल सब तेल चाट गए। ऐसे चूहों की घात लगे पीछै भला क्‍या बाकी रह सक्‍ता था ?”

“मैं जान्‍ता हूँ कि लाला साहब का बहुतसा रुपया लोग खागए परन्तु उन्‍के काम बिगड़नें की बात मेरे मन मैं अबतक नहीं बैठती। तुमनें यह हाल किस्से सुना है ?”

“मैं आप वहां सै आया हूँ। मुझको झूंट बोलनें सै क्‍या फायदा है ? मैं तो अभी जाकर नालिश करता हूँ। निहालचंद मोदी नालिश करनें को तैयार है ? ब्राइट साहब का मुन्‍शी अभी सब हकीकत निश्‍चय करके साहब के पास दौड़ा गया है। तुमको भरोसा न हो, निस्सन्देह न मानो। तुम न मानोगे इस्‍सै मेरी क्‍या हानि होगी” यह कहक़र हरकिशोर वहां सै चल दिया।”

पर अब मदनमोहन की तरफ़ सै आगाहसनजान को धैर्य न रहा। असल रुपे का लालच उस्‍को पीछे हटाता था और नफै का लालच आगे बढ़ाता था। पहले रुपे के बिचार से तबियत और भी घबराई जाती थी निदान यह राह ठैरी कि इस्‍समय घोड़ों को फेर ले चलो। मदनमोहन का काम बना रहैगा तो पहले रुपे वसूल हुए पीछे ये घोड़े पहुंचा देंगे, नहीं तो कुछ काम नहीं।”

इधर हरकिशोर को मार्गमैं जो मिल्ता था उस्‍सै वह मदनमोहन के दिवाले का हाल बराबर कहता चला जाता था और यह सब बातैं बाजार मैं होती थीं इसलिये एक सै कहनें मैं पांच और सुन लेते थे और उन पांच के मुख से पचासों को यह हाल तत्‍काल मालूम हो जाता था फ़िर पचास से पांच सौ मैं और पांच सौ से पांच हजार मैं फैलते क्‍या देर लगती थी ? और अधिक आश्‍चर्य की बात यह थी कि हरेक आदमी अपनी तरफ़ से भी कुछ, न कुछ नोंन मिर्च लगा ही देता था। जिस्‍को एक के कहनें से भरोसा न आया दो के कहनें से आगया। दो कहनेंसे न आया चार के कहनें से आगया मदनमोहन के चाल चलन से अनुभवी मनुष्‍य तो यह परिणाम पहले ही से समझ रहे थे जिस्‍पर मास्‍टर शिंभूदयाल नें मदनमोहन की तरफ़ से एक दो जगह उधार लेनें की बात चीत की थी इसलिये इस चर्चा मैं किसी को संदेह न रहा। बारूद बिछ रही थी बत्ती दिखाते ही तत्‍काल भभक उठी।

परन्‍तु लाला मदनमोहन या ब्रजकिशोर वगैरे को अबतक इस्‍का कुछ हाल मालूम न था।

प्रकरण-26 : दिवाला

कीजै समझ, न कीजिए बिना बि चार व्‍यवहार।।

आय रहत जानत नहीं ? सिरको पायन भार ।।

बृन्‍द।

लाला मदनमोहन प्रात:काल उठते ही कुतब जानें की तैयारी कर रहे थे। साथ जानेंवाले अपनें, अपनें कपड़े लेकर आते जाते थे, इतनें मैं निहालचंद मोदी कई तकाजगीरों को साथ लेकर आ पहुँचा।

इस्‍नें हरकिशोर से मदनमोहन के दिवाले का हाल सुना था। उसी समय से इस्को तलामली लग रही थी। कल कई बार यह मदनमोहन के मकान पर आया, किसी नें इस्‍को मदनमोहन के पास तक न जानें दिया और न इस्‍के आनें इत्तला की। संध्‍या समय मदनमोहन के सवार होनें के भरोसे वह दरवाजे पर बैठा रहा परन्‍तु मदनमोहन सवार न हुए इस्‍से इस्‍का संदेह और भी दृढ़ होगया। शहर मैं तरह-तरह की हजारों बातें सुनाई देती थी इस्‍से वह आज सवेरे ही कई लेनदारों को साथ लेकर एकदम मदनमोहन के मकान मैं घुस आया और पहुंचते ही कहनें लगा “साहब ! अपना हिसाब करके जितनें रुपे हमारे बाकी निकलें हमको इसी समय दे दीजिये। हमें आप का लेन-देन रखना मंजूर नहीं है। कल सै हम कई बार यहां आए परन्‍तु पहरे वालों नें आप के पास तक नहीं पहुँचनें दिया।”

“हमारा रुपया खर्च करके हमारे तकाजे से बचनें के लिये यह तो अच्‍छी युक्ति निकाली !” एक दूसरे लेनदार नें कहा “परन्‍तु इस्‍तरह रकम नहीं पच सक्‍ती। नालिश करके दमभर मैं रुपया धरा लिया जायगा।”

“बाहर पहरे चौकी का बंदोबस्‍त करके भीतर आप अस्‍बाब बांध रहे हैं !” तीसरे मनुष्‍य नें कहा “जो दो, चार घड़ी हम लोग और न आते तो दरवाजे पर पहरा ही पहरा रह जाता लाला साहब का पता भी न लगता।”

“इस्‍मैं क्‍या संदेह है ? कल रात ही को लाला साहब अपनें बाल बच्‍चों को तो मेरठ भेज चुके हैं” चोथे नें कहा “इन्‍सालवन्‍सी के सहारे से लोगों को जमा मारनें का इन दिनों बहुत होसला होगया है”

“क्‍या इस जमानें मैं रुपया पैदा करनें का लोगों नें यही ढंग समझ रक्‍खा है” एक और मनुष्‍य कहनें लगा “पहले अपनी साहूकारी, मातबरी, और रसाई दिखाकर लोगों के चित्त मैं बिश्‍वास बैठाना, अन्‍त मैं उन्की रकम मारकर एक किनारे हो बैठना”

“मेरी तो जन्‍म भर की कमाई यही है। मैंनें समझा था कि थोड़ीसी उमर बाकी रही है सो इस्मैं आराम सै कट जायगी परन्‍तु अब क्‍या करूं ?” एक बुड्ढा आंखों मैं आंसू भरकर कहनें लगा “न मेरी उमर मेहनत करनें की है न मुझको किसी का सहारा दिखाई देता है जो तुम से मेरी रकम न पटेगी तो मेरा कहां पता लगेगा ?”

“हमारे तो पांच हजार रुपे लेनें हैं परन्‍तु लाओ इस्‍समय हम चार हजार मैं फैसला करते हैं” एक लेनदार नें कहा।

“औरों की जमा मारकर सुख भेगनें मैं क्‍या आनन्‍द आता होगा ?” एक और मनुष्‍य बोल उठा।

इतनें में और बहुतसे लोगों की भीड़ आगई। वह चारों तरफ़ मदनमोहन को घेरकर अपनी, अपनी कहनें लगे। मदनमोहन की ऐसी दशा क़भी काहे को हुई थी ? उस्‍के होश उड़ गए। चुन्‍नीलाल, शिंभूदयाल वगैरे लोगों को धैर्य देनें की कोशिश करते थे परन्‍तु उन्‍को कोई बोलनें ही नहीं देता था। जब कुछ देर खूब गड़बड़ हो चुकी लोगों का जोश कुछ नरम हुआ तब चुन्‍नीलाल पूछनें लगा “आज क्‍या है ? सब के सब एका एक ऐसी तेजी मैं कैसे आ गए ? ऐसी गड़बड़ सै कुछ भी लाभ न होगा। जो कुछ कहना हो धीरे सै समझा कर कहो”

“हम को और कुछ नहीं कहना हम तो अपनी रकम चाहते हैं” निहालचंद नें जवाब दिया।

“हमारी रकम हमारे पल्‍ले डालो फ़िर हम कुछ गड़बड़ न करेंगे” दूसरे नें कहा।

“तुम पहले अपनें लेनें का चिट्ठा बनाओ। अपनी, अपनी दस्‍तावेज दिखाओ, हिसाब करो, उस्‍समय तुम्‍हारा रुपया तत्‍काल चुका दिया जायगा” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें जवाब दिया।

“यह लो हमारे पास तो यह रुक्‍का है” हमारा हिसाब यह रहा” “इस रसीद को देखिये” हमनें तो अभी रकम भुगताई है” यह तरह पर चारों तरफ़ सै लोग कहनें लगे।

“देखो जी ! तुम बहुत हल्‍ला करोगे तो अभी पकड़ कर कोतवाली मैं भेज दिए जाओगे और तुम पर हतक इज़्जत की नालिश की जायगी नहीं तो जो कुछ कहना हो धीरज से कहो” मास्‍टर शिंभूदयाल नें अवसर पाकर दबानें की तजवीज की।

“हमको लड़नें झगड़नें की ज़रूरत है ? हम तो केवल जवाब चाहते हैं। जवाब मिले पीछे आप सै पहले हम नालिश कर देंगे” निहालचंद नें सबकी तरफ़ सै कहा।

“तुम बृथा घबराते हो। हमारा सब माल मता तुम्हारे साम्हनें मौजूद है। हमारे घर मैं घाटा नहीं है ब्याज समेत सबको कौड़ी, कौड़ी चुका दी जायगी” लाला मदनमोहन नें कहा।

“कोरी बातों से जी नहीं भरता” निहालचंद कहनें लगा “आप अपना बही खाता दिखादें, क्‍या लेना है ? क्या देना है ? कितना माल मौजूद है ? जो अच्‍छी तरह हमारा मन भर जायगा तो हम नालिश नहीं करेंगे”

“कागज तो इस्‍समय तैयार नहीं है” लाला मदनमोहन नें लजा कर कहा।

“तो खातरी कैसे हो ? ऐसी अँधेरी कोठरी मैं कौन रहै ? (ब्रंद) जो पहल करिये जतन तो पीछे फल होय । आग लगे खोदे कुआ कैसे पावे तोय ।। इस काठ कबाड़ के तो समय पर रुपे मैं दो आनें भी नहीं उठते” एक लेनदार नें कहा।

“ऐसे ही अनसमझ आदमी जल्‍दी करके बेसबब दूसरों का काम बिगाड़ दिया करते हैं” मास्‍टर शिंभूदयाल कहनें लगे।

इतनें मैं हरकिशोर अदालत के एक चपरासी को लेकर मदनमोहन के घर पर आ पहुँचे और चपरासी नें सम्‍मन पर मदनमोहन सै कायदे मूजिब इत्तला लिखा ली। उस्‍को गए थोड़ी देर न बीतनें पाई थी कि आगाहसनजान के वकील की नोटिस आ पहुँची। उस्‍मैं लिखा था कि “आगाहसनजान की तरफ़ सै मुझको आपके जतानें के लिये यह फ़र्मायश हुई है कि आप उस्‍के पहले की ख़रीद के घोड़ों की कीमत का रुपया तत्‍काल चुका दैं और कल की खरीद के तीन घोड़ों की कीमत चौबीस घन्टे के भीतर भेजकर अपनें घोड़े मंगवालें जो इस मयाद के भीतर कुल रुपया न चुका दिया जायगा तो ये घोड़े नीलाम कर दिये जायंगे और इन्‍की क़ीमत मैं जो कमी रहैगी पहले की बाकी समेत नालिश करके आप सै वसूल की जायगी”

थोड़ी देर पीछे मिस्‍टर ब्राइट का सम्‍मन और कच्‍ची कुरकी एक साथ आ पहुँची इस्‍सै लोगों के घरबराहट की कुछ हद न रही। घर मैं मामला हल होनें की आशा जाती रही। सबको अपनी, अपनी रक़म ग़लत मालूम होनें लगी और सब नालिश करनें के लिये कचहरी को दौड़ गए।

“यह क्‍या है ? किस दुष्ट की दुष्‍टता सै हम पर यह ग़जब का गोला एक साथ आ पड़ा ?” लाला मदनमोहन आंखों मैं आंसू भर कर बड़ी कठिनाई से इतनी बात कह सके।

“क्‍या कहूँ ? कोई बात समझ मैं नहीं आती” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल कहनें लगे “कल लाला ब्रजकिशोर यहां से ऐसे बिगड़ कर गए थे कि मेरे मन मैं उसी समय खटका हो गया था शायद उन्‍हीं नें यह बखेड़ा उठाया हो। बाजे आदमियों को अपनी बात का ऐसा पक्ष होता कि वह औरों की तो क्‍या ? अपनी बरबादी का भी कुछ बिचार नहीं करते। परमेश्‍वर ऐसे हठीलों से बचाय। हरकिशोर का ऐसा होसला नहीं मालूम होता और वह कुछ बखेड़ा करता तो उस्‍का असर कल मालूम होना चा‍हिये था अब तक क्‍यों न हुआ ?”

प्र‍थम तो निहालचंद कल से अपनें मन मैं घबराट होनें का हाल आप कह चुका था, दूसरे हरकिशोर की तरफ़ से नालिश दायर होकर सम्‍मन आगया, तीसरे चुन्‍नीलाल ब्रजकिशोर के स्‍वभाव को अच्‍छी तरह जान्‍ता था इस्लिये उस्‍के मन मैं ब्रजकिशोर की तरफ़ से जरा भी संदेह न था परन्‍तु वह हरकिशोर की अपेक्षा ब्रजकिशोर से अधिक डरता था इसलिये उस्‍नें ब्रजकिशोर ही को अपराधी ठैरानें का बिचार किया। अफ़सोस ! जो दुराचारी अपनें किसी तरह के स्‍वार्थ से निर्दोष और धर्मात्‍मा मनुष्‍यों पर झूंटा दोष लगाते हैं अथवा अपना कसूर उन्‍पर बरसाते हैं उन्‍के बराबर पापी संसार मैं और कौन होगा ?

लाला मदनमोहन के मन मैं चुन्‍नीलाल के कहनें का पूरा विश्‍वास होगया। उस्‍नें कहा “मैं अपनें मित्रों को रुपे की सहायता के लिये चिट्ठी लिखता हूँ। मुझको विश्‍वास है कि उन्‍की तरफ़ से पूरी सहायता मिलेगी परन्‍तु सबसे पहले ब्रजकिशोर के नाम चिट्ठी लिखूंगा कि वह मुझको अपना काला मुंह जन्‍म भर न दिखलाय” यह कह कर लाला मदनमोहन चिट्ठियां लिखनें लगे।

प्रकरण-27 : लोक चर्चा (अफ़वाह)

निन्‍दा, चुगली, झूंठ अरु पर दुखदायक बात ।

जे न कर हिं तिन पर द्रवहिं स र्बे श्‍वर बहुभांत ।।[1]

विष्‍णुपुराणों।

उस तरफ़ लाला ब्रजकिशोर नें प्रात:काल उठ कर नित्‍य नियम से निश्चिन्‍त होते ही मुन्‍शी हीरालाल को बुलानें के लिये आदमी भेजा।

हीरालाल मुन्‍शी चुन्‍नीलाल का भाई है। यह पहले बंदोबस्‍त के महक़मे मैं नौकर था। जब से वह काम पूरा हुआ इस्‍की नौकरी कहीं नहीं लगी थी।

“तुमनें इतनें दिन से आकर सूरत तक नहीं दिखाई। घर बैठे क्‍या किया करते हो ?” हीरालाल के आते ही ब्रजकिशोर कहनें लगे “दफ्तर मैं जाते थे जब तक खैर अवकाश ही न था परन्‍तु अब क्यों नहीं आते ?”

“हुज़ूर ! मैं तो हरवक्त हाजिर हूँ परन्तु बेकाम आनें मैं शर्म आती थी। आज आपनें याद किया तो हाजिर हुआ। फरमाइये क्या हुक्म है ?” हीरालाल नें कहा।

“तुम ख़ाली बैठे हो इस्‍की मुझे बड़ी चिन्‍ता है। तुम्‍हारे बिचार सुधरे हुए हैं इस्‍सै तुमको पुरानें हक़ का कुछ ख़याल हो या न हो (!) परन्‍तु मैं तो नहीं भूल सक्‍ता। तुम्‍हारा भाई जवानी की तरंग में आकर नौकरी छोड़ गया परन्‍तु मैं तो तुम्हैं नहीं छोड़ सक्ता। मेरे यहां इन दिनों एक मुहर्रिर की चाह थी। सब से पहले मुझको तुम्‍‍हारी याद आई। (मुस्‍करा कर) तुम्‍हारे भाई को दस रुपे महीना मिल्‍ता था परन्‍तु तुम उस्सै बड़े हो इसलिये तुम को उस्से दूनी तनख्‍वाह मिलेगी”

“जी हां ! फ़िर आप को चिन्‍ता न होगी तो और किस्‍को होगी ? आपके सिवाय हमारा सहायक कौन है ? चुन्‍नीलाल नें निस्सन्देह मूर्खता की परन्‍तु फ़िर भी तो जो कुछ हुआ आप ही के प्रताप ही से हुआ।”

“नहीं मुझको चुन्‍नीलाल की मूर्खता का कुछ बिचार नहीं है मैं तो यही चाहता हूँ कि वह जहां रहै प्रसन्‍न रहै। हां मेरी उपदेश की कोई, कोई बात उस्को बुरी लगती होगी। परन्‍तु मैं क्‍या करूं ? जो अपना होता है उस्‍का दर्द आता ही है।”

“इस्मैं क्‍या संदेह है ? जो आपको हमारा दर्द न होता तो आप इस समय मुझको घर सै बुलाकर क्या इतनी कृपा करते ? आपका उपकार मान्‍नें के लिये मुझ को कोई शब्‍द नहीं मिल्‍ते। परन्तु मुझको चुन्‍नीलाल की समझ पर बड़ा अफसोस आता है कि उस्‍नें आप जैसे प्रतिपालक के छोड़ जानें की ढिठाई की। अब वह अपनें किये का फल पावेगा तब उस्की आंखें खुलेंगी।”

“मैं उस्‍के किसी-किसी काम को निस्‍सन्‍देह नापसन्‍द करता हूँ परन्‍तु यह सर्बथा नहीं चाहता कि उस्‍को किसी तरह का दु:ख हो।”

“यह आपकी दयालुता है परन्‍तु कार्य कारण के सम्‍बन्‍ध को आप कैसे रोक सक्‍ते हैं ? आज लाला मदनमोहन पर तकाज़ा हो गया। जो ये लोग आपका उपदेश मान्‍ते तो ऐसा क्‍यों होता ?”

“हाय ! हाय ! तुम यह क्‍या कहते हो ? मदनमोहन पर तकाज़ा होगया ! तुमनें यह बात किस्‍सै सुनी ? मैं चाहता हूँ कि परमेश्‍वर करे यह बात झूंट निकले” लाला ब्रजकिशोर इतनी बात कह कर दु:ख सागर मैं डूब गये। उन्‍के शरीर मैं बिजली का सा एक झटका लगा, आंसू भर आए, हाथ पांव शिथिल हो गये। मदनमोहन के आचरण से बड़े दु:ख के साथ वह यह परिणाम पहले ही समझ रहे थे इसलिये उन्‍को उस्‍का जितना दु:ख होना चाहिए पहले होचुका था। तथापि उन्‍को ऐसी जल्‍दी इस दुखदाई ख़बर के सुन्‍नें की सर्बथा आशा न थी इस लिये यह ख़बर सुन्‍ते ही उन्‍का जी एक साथ उमड़ आया परन्‍तु वह थेड़ी देर में अपनें चित्त का समाधान करके कहनें लगे :-

“हा ! कल क्‍या था ! आज क्‍या हो गया ! ! ! श्रृंगाररसका सुहावनां समां एका एक करुणा से बदल गया ! बेलजिअम की राजधानी ब्रसेलस पर नैपोलियन नें चढ़ाई की थी उस्‍समय की दुर्दशा इस्‍समय याद आती है, लार्डबायरन लिखता है:-

“निशि मैं बरसेलस गाजि रह्यो ।।

बल, रूप बढ़ाय बिराजि रह्यो

अति रूपवती युवती दरसैं ।।

बलवान सुजान जवान लसैं

सब के मुख दीपनसों दमकैं ।।

सब के हिय आनन्‍द सों धमकैं

बहुभांति बिनोद प्रमोद करैं ।।

मधुर सुर गाय उमंग भरैं

जब रागन की मृदु तान उड़ैं ।।

प्रियप्रीतम नैनन सैन जुडै

चहुँओर सुखी सुख छायरह्यो ।।

जनु ब्‍यहान घंट निनाद भयो

पर मौनगहो ! अबिलोक इतै ।।

यह होत भयानक शब्‍द कितै ?

डरपौ जिन चंचल बायु बहै ।।

अथवा रथ दौरत आवत है

प्रिय ! नाचहु, नाचहु ना ठहरो ।।

अपनें सुख की अवधी न करो

जब जोबन और उमंग मिलैं ।।

सुख लुटन को दुहु दोर चलै

तब नींद कहूँ निशआवत है ? ।।

कुछ औरहु बात सुहावत है ?

पर कान लगा; अब फेर सुनो ।।

वह शब्‍द भयानक है दुगुनो !

घनघोरघटा गरजी अब ही ।।

तिहँ गूंज मनो दुहराय रही

यह तोप दनादन आवत हैं ।।

ढिंग आवत भूमि कँपावत हैं

“सब शस्‍त्रसजो, सबशस्‍त्रसजो” ।।

घबराहट बढ़ो सुख दूर भजो

दुखसों बिलपै कलपैं सबही ।।

तिनकी करूणा नहिं जाय कही

निज कोमलता सुनि लाज गए ।।

सुकपोल ततक्षण पीत भए

दुखपाय कराहि बियोग लहैं ।।

जनु प्राण बियोग शरीर सहैं

किहिं भाति करों अनुमान यहू ।।

प्रिय प्रीतम नैन मिलैं कबहू ?

जब वा सुख चैनहि रात गई ।।

इहिं भांत भयंकर प्रात भई !!!”[2]

हां यह खबर तुमनें किस्सै सुनी ?”

“चुन्‍नीलाल अभी घर भोजन करनें आया था वह, कहता था”

“वह अबतक घर हो तो उसे एक बार मेरे पास भेज देना। हम लोग खुशी प्रसन्‍नता मैं चाहें जितनें लड़ते झगड़ते रहें परन्‍तु दु:ख दर्द सब मैं एक हैं। तुम चुन्‍नीलाल सै कह देना कि मेरे पास आनेंमैं कुछ संकोच न करे मैं उस्‍सै जरा भी अप्रसन्‍न नहीं हूँ”

“राम, राम ! यह हजूर क्‍या फरमाते हैं ? आपकी अप्रसन्नता का बिचार कैसे हो सक्ता है ? आप तो हमारे प्रतिपालक हैं। मैं जाकर अभी चुन्‍नीलाल को भेजता हूँ। वह आकर अपना अपराध क्षमा करायगा और चला गया हो तो शाम को हाजिर होगा” हीरालाल नें उठते उठते कहा।

अच्‍छा ! तुम कितनी देर मैं आओगे ?”

“मैं अभी भोजन करके हाजिर होता हूँ” यह कह कर हीरालाल रुख़सत हुआ।

लाला ब्रजकिशोर अपनें मन मैं बिचारनें लगे कि “अब चुन्‍नीलाल सै सहज मैं मेल हो जायगा परन्‍तु यह तकाजा कैसे हुआ ? कल हरकिशोर क्रोधमैं भर रहाथा। इस्से शायद उसीनें यह अफ़वाह फैलाई हो। उस्‍नें ऐसा किया तो उस्‍के क्रोधनें बड़ा अनुचित मार्ग लिया और लोगोंनें उस्‍के कहनें मैं आकर बड़ा धोका खाया।

“अफ़वाह वह भयंकर वस्‍तु है जिस्‍से बहुत से निर्दोष दूषित बन जाते हैं। बहुत लोगों के जीमैं रंज पड़ जाते हैं, बहुत लोगों के घर बिगड़ जाते हैं। हिन्‍दुस्‍थानियोंमैं अबतक बिद्याका ब्यसन नहीं है, समय की कदर नहीं है, भले बुरे कामों की पूरी पहचान नहीं है इसी सै यहांके निवासी अपना बहुत समय ओरों के निज की बातों पर हासिया लगानें मैं और इधर उधरकी जटल्‍ल हांकनेंमैं खो देतेहैं जिस्‍से तरह, तरह की अफ़वाएं पैदा होती हैं और भलेमानसोंकी झूंटी निंदा अफ़वाहकी ज़हरी पवन मैं मिल्‍कर उनके सुयश को धुंधला करती है। इन अफवाह फैलानें मालोंमैं कोई, कोई दुर्जन खानें कमानें वाले हैं कोई कोई दुष्‍ट बैर और जलन सै औरों की निंदा करनें वाले हैं और कोई पापी ऐसे भी हैं जो आप किसी तरह की योग्‍यता नहीं रखते इस लिये अपना भरम बढ़ानें को बड़े बड़े योग्‍य मनुष्‍यों की साधारण भूलों पर टीका करकै आप उन्‍के बराबर के बना चाहते हैं अथवा अपना दोष छिपानें के लिये दूसरे के दोष ढूंढ़ते फ़िरते हैं या किसी की निंदित चर्चा सुन्कर आप उस्‍सै जुदे बन्नें के लिये उस्‍की चर्चा फैलानें मैं शामिल होजाते हैं या किसी लाभदायक वस्तु सै केवल अपना लाभ स्थिर रखनें के लिये औरों के आगे उस्‍की निंदा किया करते हैं पर बहुतसै ठिलुए अपना मन बहलानें के लिये औरों की पंचायत ले बैठते हैं। बहुतसै अन्‍समझ भोले भावसै बात का मर्म जानें बिना लोगों की बनावट मैं आकर धोका खाते हैं। जो लोग औरों की निंदा सुन्‍कर कांपते हैं वह आप भी अपनें अजानपनें मैं औरोंकी निंदा करते हैं ! जो लोग निर्दोष मनुष्‍यों की निंदा सुन्‍कर उन्‍पर दया करते हैं वह आप भी थीरे सै, कान मैं झुककर, औरों सै कहनें के वास्‍ते मनै करकर औरोंकी निंदा करते हैं ! जिन लोगोंके मुख सै यह वाक्‍य सुनाई देते हैं कि “बड़े खेद की बात है” “बड़ी बुरी बात है” “बड़ी लज्‍जा की बात है” “यह बात मान्‍नें योग्‍य नहीं” “इस्मैं बहुत संदेह है” “इन्‍बातों सै हाथ उठाओ” वह आप भी औरों की निंदा करते हैं ! वह आप भी अफवाह फैलानें वालोंकी बात पर थोड़ा बहुत विश्वास रखते है ! झूंटी अफ़वासै केवल भोले आदमियों के चित्त पर ही बुरा असर नहीं होता वह सावधान सै सावधान मनुष्‍यों को भी ठगती है। उस्‍का एक, एक शब्‍द भले मानसों की इज्‍जत लूटता है। कल्‍पद्रुम मैं कहा है “होत चुगल संसर्ग ते सज्‍जन मनहुं विकार ।। कमल गंध वाही गलिन धूल उड़ावत ब्‍यार।।”[3] जो लोग असली बात निश्‍चय किये बिना केवल अफ़वाके भरोसे किसी के लिये मत बांध लेते हैं वह उस्‍के हक़ में बड़ी बेइन्‍साफी करते हैं। अफ़वाह के कारण अबतक हमारे देशको बहुत कुछ नुकसान हो चुका है। नादिरशाह सै हारमानकर मुहम्‍मदशाह उसै दिल्‍ली मैं लिवा लाया नगर निवासियोंनें यह झूंटी अफ़वाह उड़ा दी की नादिरशाह मरगया। नादिरशाह नें इस झूंटी अफ़वाह को रोकनें के लिये बहुत उपाय किये परन्‍तु अफ़वाह फैले पीछै कब रुक सक्‍ती थी ! लाचार होकर नादिरशाह नें विजन बोल दिया। दोपहरके भीतर लाख मनुष्‍यों सै अधिक मारे गए ! तथापि हिन्‍दुस्‍थानियों की आंख न खुली।”

“हिन्‍दुस्थानियों को आज कल हर बात मैं अंग्रेजों की नक़ल करनें का चस्‍का पड़ ही रहा है तो वह भोजन वस्‍त्रादि निरर्थक बातौं की नक़ल करनें के बदले उन्‍के सच्‍चे सद्गुणों की नकल क्‍यों नहीं करते ? देशोपकार, कारीगरी और व्‍यापारादि मैं उन्‍की सी उन्‍नति क्‍यों नहीं करते ? अपना स्वभाव स्थिर रखनें मैं उन्‍का दृष्‍टांत क्‍यों नहीं लेते ? अंग्रेजों की बात चीत मैं किसी की निजकी बातों का चर्चा करना अत्यन्त दूषित समझा जाता है। किसी की तन्‍ख्‍वाह या किसी की आमदनी, किसी का अधिकार या किसी का रोजगार, किसी की सन्‍तान या किसी के घर का वृत्तान्त पूछनें मैं, पूछा होय तो कहनें मैं, कहा होय तो सुन्‍नें मैं वह लोग आनाकानी करते हैं और किसी समय तो किसी का नाम, पता और उम्र पूछना भी ढिटाई समझा जाता है। अपनें निज के सम्‍बन्धियों की बातों सै भी अज्ञान रहना वह लोग बहुधा पसंद करते हैं। रेल मैं, जहाज मैं खानें पीनें के जलसों मैं, पास बैठनें मैं और बातचीत करनें मैं जान पहचान नहीं समझी जाती। वह लोग किराए के मकान मैं बहुत दिन पास रहनें पर बल्कि दुख दर्द मैं साधारण रीति सै सहायता करनें पर भी दूसरे की निज की बातों सै अजान रहते हैं। जब तक पहचान स्थिर रखनें के लिये दूसरे की तरफ़ सै सवाल न हो, अथवा किसी तीसरे मनुष्‍य नें जान पहचान न कराई हो, नित्‍य की मिला भेटी और साधारण रीति सै बात चीत होनें पर भी जान पहचान नहीं समझी जाती और जान पहचान हुए पीछै भी मित्रता नहीं करते पर मित्रता हुए पीछै भी दूसरे की निजकी बातों सै अजान रहना अधिक पसन्‍द करते हैं। उन्‍के यहां निज की बातों के पूछनें की रीति नहीं है। उन्‍को देश सम्‍बन्‍धी बातैं करनें का इतना अभ्‍यास होता है कि निज के वृत्तान्त पूछनें का अवकाश ही नहीं मिल्‍ता परन्‍तु निजकी बातों सै अजान रहनें के कारण उन्की प्रीति मैं कुछ अन्‍तर नहीं आता। मनुष्‍य का दुराचार साबित होनें पर वह उसै तत्‍काल छोड़ देते हैं परन्‍तु केवल अफ़वाह पर वह कुछ ख्‍याल नहीं करते बल्कि उस्‍का अपराध साबित न हो जबतक वह उसको अपना बचाव करनें के लिये पूरा अवकाश देते हैं और उचित रीति सै उस्‍का पक्ष करते हैं”

प्रकरण-28 : फूट का काला मुंह

फूट गए हीरा की बिकानी कनी हाट, हाट ।।

काहू घाट मोल काहू बाढ़ मोल कों लयो ।।

टूट गई लंका फूट मिल्‍यो जो विभीषण है ।।

रावण समेत बंस आसमान को गयो ।।

कहे कविगंग दुर्योधन सो छत्रधारी ।।

तनक के फूटेते गुमान वाको नै गयो ।।

फूटेते नर्द उठ जात बाजी चौपर की ।।

आपस के फूटे कहु कौन को भलो भयो ।।?।।

गंग।

थोड़ी देर पीछै मुन्शी चुन्‍नीलाल आ पहुँचा परन्‍तु उस्‍के चेहरे का रंग उड़ रहा था। लाला सै उस्‍की आंख ऊँची नहीं होती थी। प्रथम तो उस्‍की सलाह सै मदनमोहन का काम बिगड़ा दूसरे उस्‍की कृतघ्नता पर ब्रजकिशोर नें उस्‍के साथ ऐसा उपकार किया इसलिये वह संकोच के मारे धरती मैं समाया जाता था।

“तुम इतनें क्‍यों लजाते हो ? मैं तुम सै जरा भी अप्रसन्‍न नहीं हूँ बल्कि किसी, किसी बात मैं तो मुझको अपनी ही भूल मालूम होती है। मैं लाला मदनमोहनकी हरेक बात पर हदसै ज्‍यादा: जिद करनें लगता था। परन्‍तु मेरी वह जिद अनुचित थी। हरेक मनुष्‍य अपनें बिचार का आप धनी है। मैं चाहता हूँ कि आगे को ऐसी सूरत न हो और हम सब एक चित्‍त होकर रहैं। परन्‍तु मैंनें तुमको इस्समय इस सलाह के लिये नहीं बुलाया था। इस बिषय मैं तो जब तुम्‍हारी तरफ़ सै चाहना मालूम होगी देखा जायगा” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “इस्समय तो मुझको तुम सै हीरालाल की नौकरी बाबत सलाह करनी है। यह बहुत दिन सै खाली है। और मुझको अपनें यहां इस्‍समय एक मुहर्रिर की ज़रूरत मालूम होती है। तुम कहो तो इन्हैं रख लूं ?”

“इस्‍मैं मुझ सै क्‍या पूछते हैं ? इसके आप मालिक हैं” मुन्शी चुन्‍नीलाल कहनें लगा “मेरी तो इतनी ही प्रार्थना है कि आप मेरी मूर्खता पर दृष्टि न करैं अपनें बड़प्‍पन का बिचार रक्‍खें पहली बातों के याद करनें सै मुझको अत्‍यन्‍त लज्‍जा आती है। आपनें इस्‍समय लाला हीरालाल को नौकर रखकर मुझे मौत कर दिया।”

“मैं तुमको लज्जित करनें के लिये यह बात नहीं कहता। मैंनें अपनें मन का निज भाव तुमको इसलिये समझा दिया है कि तुम मुझे अपना शत्रु न समझो” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे। “हिन्‍दुस्तान के सत्‍यानाश की जड़ प्रारम्‍भ सै यही फूट है। इसी के कारण कौरव पांडवों का घोर युद्ध हुआ, इसी के कारण नन्‍द वंश की जड़ उखड़ी, पृथ्‍वीराज और जयचन्‍द की फूट सै हिन्‍दुस्‍थान मैं मुसल्‍मानों का राज आया और मुसल्‍मानों का राज भी अन्त मैं इसी फूट के कारण गया। सौ सवा सौ बरस सै लेकर अबतक हिन्‍दुस्‍थानमैं कुछ ऐसे अप्रबन्‍ध, फूट और स्‍वेच्‍छाचारकी हवा चली कि बहुधा लोग आपस मैं कट मरे। साहूजी नें ईस्‍ट इंडियन कम्‍पनी को देवी कोटे का किला और जिला देकर उस्‍के द्वारा अपनें भाई प्रताप सिंह सै तंजोर का राज छीन लिया। बंगाल के सूबेदार सिराजुद्दौला सै अधिकार छीन्‍नें के लिये उस्‍के बखशी मीर जाफर और दिवान राय दुल्‍लभ आदि नें कंपनी को दक्षिण काल्‍पी तक की जमीदारी, एक करोड़ रुपया नक़द और कलकत्ते के अंग्रेजों को पचास लाख, फौज को पचास लाख और और लोगों को चालीस लाख अनुमान देनें किये। जब मीर जाफर सूबेदार हुआ तब उस्‍सै अधिकार छीन्नें के लिये उस्‍के जँवाई कासम अलीखां नें कंपनी को बर्दवान, मेदनीपुर, चट गांव के जिले, पांच लाख रुपे नक़द और कौन्सिल वालों को बीस लाख रुपे देनें किये। जब कासम अलीखां सूबेदार हो गया और महसूल बाबत उसका कंपनी सै बिगाड़ हुआ तब मीर जाफर नें कंपनी को तीस लाख रुपे नक्‍द और बारह हजार सवार और बारह हजार पैदलों का खर्च देकर फ़िर अपना अधिकार जमा लिया। उधर अवध का सूबेदार शुजाउद्दौला कंपनी को चालीस लाख रुपे नक्‍द और लड़ाई का खर्च देना करके उस्‍की फौज रुहेलों पर चढ़ा ले गया। दखन मैं बालाजी राव पेशवा के मरते ही पेशवाओं के घरानें मैं फूट पड़ी। दो थोक हो गए। अब तक पंजाब बच रहा था। रणजीतसिंह की उन्‍नति होती जाती थी परन्‍तु रणजीतसिंह के मरते ही वहां फूट नें ऐसे पांव फैलाए कि पहले सब झगड़ों को मात कर दिया। राजा ध्‍यानसिंह मन्त्री और उसके बेटे हीरा सिंह आदि की स्‍वार्थपरता, लहनासिंह और अजीतसिंह सिंधां वालों का छल अर्थात् कुंवर शेरसिंह और राजा ध्‍यानसिंह के जी मैं एक दूसरे की तरफ़ सै संदेह डालकर विरोध बढाना, और अन्‍त मैं दोनों के प्राण लेना, राजकुमार खड़गसिंह उसका बेटा नोनिहालसिंह, राजकुमार शेरसिंह उस्‍का बेटा प्रतापसिंह आदि की अन्‍समझी सै आपस मैं यह कटमकटा हुई कि पांच बरस के भीतर भीतर उस्‍के बंश मैं सिवाय दिलीपसिंह नामी एक बालक के कोई न रहा और उस्‍का राज भी कंपनी के राज मैं मिल गया। किसी नें सच कहा है, “अल्‍पसार हू बहुत मिल करैं बड़ो सो जोर ।। जों गज को बंधन करे तृणकी निर्मित डोर ।। [4] इसलिये मैं आपस की फूट को सर्वथा अच्‍छा नहीं समझता। तुम मेरे पास सै गए थे इसलिये मुझको तुम्‍हारे कामों पर विशेष दृष्टि रखनी पड़ती थी परन्‍तु तुम अपनें जीमैं कुछ और ही समझते रहे। खैर ! अब इन बातों की चर्चा करनें सै क्‍या लाभ है।”

“आप यह क्‍या कहते हैं ? आप मेरे बड़े हैं। मैं आपका बरताव और तरह कैसे समझ सक्‍ता था ?” चुन्‍नी लाल कहनें लगा “आप नें बचपन मैं मेरा पालन किया, मुझको पढ़ा लिखा कर आदमी बनाया इस्‍सै बढ़ कर कोई क्‍या उपकार करेगा ? मैं अच्‍छी तरह जान्‍ता हूँ कि आप नें मुझ से जो कुछ भला बुरा कहा मेरी भलाई के लिये कहा। क्‍या मैं इतना भी नहीं जान्‍ता कि दंगा करनें से मां अपनें बालक को मारती है दूसरे से कुछ नहीं कहती यदि आपको हमारे प्रतिपालन की चिन्ता मन से न होती तो ऐसे कठिन समय मैं लाला हीरालाल को घर से बुलाकर क्‍यों नौकर रखते ?”

“भाई ! अब तो तुमनें वही खुशामद की लच्‍छेदार बातैं छेड़ दीं” लाला ब्रजकिशोर नें हँस कर कहा।

“आपके जी मैं मेरी तरफ़ का संदेह हो रहा है इस्सै आप को ऐसा ही भ्‍यास्‍ता होगा। परन्‍तु इस्‍मैं सै कौन्‍सी बात आप को खुशामद की मालूम हुई ?”

मनुस्‍मृति मैं कहा है “आकृति, चेष्‍टा, भाव, गति, बचन, रीति, अनुमान ।।

नैन सैंन, मुखकांति लख मन की रुचि पहिचान ।।[5]” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “तुम कहते हो कि आप नें जो कुछ भला बुरा कहा मेरी भलाई के लिये कहा” परन्‍तु उस्‍समय तुम यह सर्वथा नहीं समझते थे। तुम्‍हारे कामों सै यह स्‍पष्‍ट जाना जा‍ता था कि तुम मेरी बातों सै अप्रसन्‍न हो और तुम्‍हारा अप्रसन्‍न होना अनुचित न था क्‍योंकि मेरी बातों सै तुम्‍हारा नुक्सान होता था। मुझको इस्बात का पीछै बिचार आया। मुझको इस्समय इन बातों के जतानें की ज़रूरत न थी परन्‍तु मैंनें इसलिये जतादी कि मैं भी सच झूँट को पहचान्ता हूँ। सच्‍चाई बिना मुझ सै सफाई न होगी”

“आप की मेरी सफाई क्‍या ? सफाई और बिगाड़ बराबर वालों में हुआ करता है, आप तो मेरे प्रतिपालक हैं। आप की बराबरी मैं कैसे कर सकता हूँ ?” मुन्‍शी चुन्‍नी लाल नें गम्‍भीरता सै कहा।

“यह तो बहानें बाजी की बात हैं। सफ़ाई के ढंग और ही हुआ करते हैं। मुझको तुम्‍हारा सब भेद मालूम है परन्‍तु तुमनें अबतक कौन्‍सी बात खुल के कही ?” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “मैं पूछता हूँ कि तुमनें मदनमोहन के यहां सै सिवाय तनख्‍वाह के और कुछ नहीं लिया तो तुम्‍हारे पास आठ दस हजार रुपे कहां सै आगए ? मिस्‍टर ब्राइट इत्‍यादि सै तुम जो कमीशन लेते हो उस्‍का हाल मैं उन्‍के मुख सै सुन चुका हूँ तुम्‍हारी और शिंभूदयाल की हिस्‍सा पत्ती का हाल मुझे अच्‍छी तरह मालूम है। हरकिशोर और निहालचंद गली, गली तुम्‍हारी धूल उड़ाते फ़िरते हैं। मैं नहीं जान्‍ता कि जब इस्‍की चर्चा अदालत तक पहुँचेगी तो तुम्‍हारे लिये क्‍या परिणाम होगा ? मैंनें केवल तुम सै सलाह करनें के लिये यह चर्चा छेड़ी थी परन्‍तु तुम इस्‍के छिपानें मैं अपनी सब अकलमन्‍दी खर्च करनें लगे तो मुझको पूछनें सै क्‍या प्रयोजन है ? जो कुछ होना होगा समय पर अपनें आप हो रहैगा”

“आप क्रोध न करैं मैंनें हर काम मैं आप को अपना मालिक और प्रतिपालक समझ रक्‍खा है। मेरी भूल क्षमा करैं और मुझको इस्‍समय सै अपना सच्‍चा सेवक समझते रहैं” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल नें कुछ, कुछ डरकर कहा “आप जान्‍ते हैं कि कुन्बे का बड़ा खर्च है इस्‍के वास्तै मनुष्‍य को हजार तरह के झूंट सच बोलनें पड़ते हैं (वृन्द) “उदर भरन के कारनें प्राणी करत इलाज ।। नाचे, बांचे, रणभिरे, राचे काज अकाज ।।”

”संसार की यही रीति है। प्रसंग रत्‍नावली मैं लिखा है “ज्ञान बृद्ध तपबृद्ध अरु बयके बृद्ध सुजान । धनवान के द्वार कों सेवैं भृत्‍य समान।।” [6] लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “तुमको मेरी एकाएक राय पलटनें का आश्‍चर्य होगा। परन्‍तु आश्‍चर्य न करो। जिस तरह शतरंज मैं एक चाल चलनें सै बाजी का नक्‍शा पलटता जाता है इसी तरह संसार मैं हरेक बात मैं काम काज की रीति भांति बदलती रहती है। अबतक यह समझता था कि मुझको मदनमोहन सै अवश्‍य इन्‍साफ़ मिलेगा परन्तु वह समय निकल गया। अब मैं फायदा उठाऊँ या न उठाऊँ मदनमोहन को फायदा पहुँचाना सहज नहीं। मेरा हाल तु‍म अच्‍छी तरह जान्‍ते हो। मैं केवल अपनी हिम्‍मत के सहारे सब तरह का दु:ख झेल रहा हूँ परन्‍तु मेरे कर्तव्य काम मुझको जरा भी नहीं उभरनें देते। कहते हैं कि अत्यन्त विपत्ति काल मैं महर्षि विश्‍वामित्र नें भी चंडाल के घर सै कुत्ते का मांस चुराया था ! फ़िर मैं क्‍या करूं ? क्‍या न करूं कुछ बुद्धि काम नहीं करती”

“समय बीते पीछै आप इन सब बातों की याद करते हैं अब तो जो होना था हो चुका यदि आप पहले इन बातों को बिचार करते तो केवल आप को ही नहीं आप के कारण हम लोगों को भी बहुत कुछ फ़ायदा हो जाता”

“तुम अपनें फ़ायदे के लिये तो बृथा खेद करते हो !” लाला ब्रजकिशोर नें हंस; कर जवाब दिया “अलबत्‍ता मैं मदनमोहन सै साफ जवाब पाए बिना कुछ नहीं कर सक्‍ता था क्‍योंकि मुझको प्रतिज्ञा भंग करना मंजूर न था। क्‍या तुम को मेरी तरफ़ सै अब तक कुछ संदेह है ?”

“जी नहीं, आप की तरफ़ का तो मुझ को कुछ संदेह नहीं है परन्तु इतना ही बिचार है कि खल मैं सै तेल आप किस तरह निकालैंगे !” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल नें जीमैं संदेह करके कहा।

“इस्‍की चिन्‍ता नहीं, ऐसे काम के लिये लोग यह समय बहुत अच्‍छा समझते हैं”

“बहुत अच्‍छा ? अब मैं जाता हूँ परन्‍तु——” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल कहते, कहते रुक गया।

“परन्‍तु क्‍या ? स्‍पष्‍ट कहो, मैं जान्‍ता हूँ कि तुम्‍हारे मन का संदेह अब तक नहीं गया। तुम्‍हारी हजार बार राजी हो तो तुम सफ़ाई करो, नहीं तो न करो। अभी कुछ नहीं बिगड़ा। मेरा कौन्‍सा काम अटक रहा है ? तुम अपना नफा नुक्‍सान आप समझ सक्ते हो”

“आप अप्रसन्‍न न हों, मुझको आपपर पूरा भरोसा है। मैं इस कठिन समय मैं केवल आप पर अपनें निस्‍तार का आधार समझता हूँ। मेरी लायकी-नालायकी मेरे कामों सै आप को मालूम हो जायगी। परन्‍तु मेरी इतनीही विनती है कि आप भी जरा नरम ही रहैं इन्की बातों मैं बढ़ावा देकर इन्‍सै सब तरह का काम ले सक्‍ते हैं परन्‍तु इन पर एतराज करनें सै यह चिढ़ जाते हैं। कल के झगड़े के कारण आजके तक़ाजे का संदेह इन्‍को आप पर हुआ है परन्‍तु अब मैं जाते ही मिटा दूंगा” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल नें बात पलटकर कहा और उठकर जानें लगा।

“तुम किया चाहोगे तो सफाई होनी कौन कठिन है? (बृन्द) प्रेरक ही ते होत है कारज सिद्ध निदान ।। चढ़े धनुष हू ना चले बिना चलाए बान ।।1 सुजन बीच पर दुहुनको हरत कलह रस पूर ।। करत देहरी दीप जों घर आंगन तम दूर ।।2” यह कहक़र लाला ब्रजकिशोर नें चुन्‍नीलाल को रुख़सत किया।

चुन्‍नीलाल के चित्त पर ब्रजकिशोर की कहन और हीरालाल की नौकरी सै बड़ा असर हुआ था परन्तु अबतक ब्रजकिशोर की तरफ़ सै उस्का मन पूरा साफ न था। यह बातें ब्रजकिशोर के स्‍वभाव सै इतनी उल्‍टी थीं कि ब्रजकिशोर के इतनें समझानें पर भी चुन्‍नीलाल का मन न भरा। वह संदेह के झूले मैं झोटे खा रहा था और बड़ा बिचार करके उस्‍नें यह युक्ति सोची थी कि “कुछ दिन दोनों को दम मैं रक्‍खूं, ब्रजकिशोर को मदनमोहन की सफाई की उम्‍मेद पर ललचाता रहूँ और इस काम की कठिनाई दिखा, दिखाकर अपना उपकार जताता रहूँ। मदनमोहन को अदालत के मुकदमों मैं ब्रजकिशोर सै मदद लेनें की पट्टी पढ़ाऊँ पर बेपरवाई जतानें के बहानें सै दोनों मैं परस्‍पर काम की बात खुल कर न होनें दूं जिस्‍मैं दोनों का मिलाप होता रहै। उन्‍के चित्त को धैर्य मिलनें के लिये सफाई के आसार, शिष्‍टाचार की बातें दिन, दिन बढ़ती जायं परन्‍तु चित्त की सफाई न होनें पाए, और दोनों की कुंजी मेरे हाथ रहै।”

ब्रजकिशोर चुन्‍नीलाल की मुखचर्या से उस्‍के मन की धुकड़ धुकड़ पहचान्‍ता था इसलिये उस्‍नें जाती बार हीरालाल के भेजनें की ताकीद कर दी थी। वह जान्ता था कि हीरालाल बेरोजगारी सै तंग है वह अपनें स्‍वार्थ सै चुन्‍नीलाल को सच्‍ची सफाई के लिये बिवस करेगा और उस्‍की जिद के आगे चुन्‍नीलाल की कुछ न चलेगी। निदान ऐसाही हुआ। हीरालाल नें ब्रजकिशोर की सावधानी दिखाकर चुन्‍नीलाल को बनावट के बिचार सै अलग रक्‍खा, ब्रजकिशोर की प्रामाणिकता दिखाकर उसै ब्रजकिशोर सै सफाई रखनें के वास्‍तै पक्‍का किया, मदनमोहन के काम बिगड़नें की सूरत बताकर आगे को ब्रजकिशोर का ठिकाना बनानें की सलाह दी और समझाकर कहा कि “एक ठिकानें पर बैठे हुए दस ठिकानें हाथ आ सक्‍ते हैं जैसे एक दिया जल्‍ता हो तो उस्से दस दिये जल सक्ते हैं परन्‍तु जब यह ठिकाना जाता रहैगा तो कहीं ठिकाना न लगेगा।” अदालत मैं मदनमोहन पर नालिश होनें से चुन्‍नीलालके भेद खुलनें का भय दिखाया और अन्‍त मैं ब्रजकिशोर से चुन्‍नीलाल नें सच्‍ची सफाई न की तो हीरालाल की चोरी साबित करनें की धमकी दी और इन बातौं से परवस होकर चुन्‍नीलाल को ब्रजकिशोर से मन की सफाई करनें के लिये दृढ़ प्रतिज्ञा करनी पड़ी।

परन्‍तु आज ब्रजकिशोर की वह सफाई और सचाई कहां है ? हरकिशोर का कहना इस्‍समय क्‍या झूंट है ? इस्‍के आचरण सै इस्‍को धर्मात्‍मा कौन बता सक्ता है ? और जब ऐसे खर्तल मनुष्‍य का अन्‍तमैं यह भेद खुला तो संसार मैं धर्मात्‍मा किस्‍को कह सक्ते हैं ? काम, क्रोध, लोभ, मोह का बेग कौन रोक सक्ता है ? परन्‍तु ठैरो ! जिस मनुष्‍य के जाहिरी बरताब पर हम इतना धोखा खा गए कि सवेरे तक उस्‍को मदनमोहन का सच्‍चा मित्र समझते रहे हर जगह उस्‍की सावधानी, योग्‍यता, चित्त की सफाई और धर्मप्रवृति की बड़ाई करते रहे उस्के चित्त मैं और कितनी बातें गुप्‍त होगी यह बात सिवाय परमेश्‍वर के और कौन जान सक्ता है ? और निश्‍चय जानें बिना हमलोगों को पक्‍की राय लगानें का क्‍या अधिकार है ?

प्रकरण-29 : बातचीत

सीख्‍यो धन धाम सब कामके सुधारि वे को

सीख्‍यो अभिराम बाम राखत हजूरमैं ।।

सीख्‍यो सराजाम गढ़कोटके गिराइबेको

सीख्‍यो समसेर बां धि काटि अरि ऊरमैं ।।

सीख्‍यो कुल जंत्र मंत्र तन्त्र हू की बात

सीख्‍यो पिंगल पुरान सीख वो बह्यौ जात कूरमैं ।।

कहै कृपाराम सब सीखबो गयो निकाम

एक बोल वो न सीख्‍यो गयो धूरमैं ।।

श्रृंगार संग्रह।

“आज तो मुझ से एक बड़ी भूल हुई” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल नें लाला मदनमोहन के पास पहुँचते ही कहा “मैं समझा था कि यह सब बखेड़ा लाला ब्रजकिशोर नें उठाया है परन्‍तु वह तो इस्‍सै बिल्‍कुल अलग निकले। यह सब करतूत तो हरकिशोर की थी। क्‍या आपनें लाला ब्रजकिशोर के नाम चिट्ठी भेज दी ?”

“हां चिट्ठी तो मैं भेज चुका” मदनमोहन नें जवाब दिया।

“यह बड़ी बुरी बात हुई। जब एक निरपराधी को अपराधी समझ कर दण्ड दिया जायगा तो उस्‍के चित्त को कितना दु:ख होगा” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें दया करके कहा (!)

“फ़िर क्‍या करें ? जो तीर हाथ सै छुट चुका वह लौटकर नहीं आसक्ता” लाला मदनमोहन नें जवाब दिया।

“निस्‍सन्‍देह नहीं आ सक्ता परन्‍तु जहां तक हो सके उस्‍का बदला देना चाहिये” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल कहनें लगा “कहते हैं कि महाराज दशरथ नें धोके सै श्रवण के तीर मारा परन्‍तु अपनी भूल जान्‍ते ही बड़े पछतावे के साथ उस्‍सै अपना अपराध क्षमा कराया। उसै उठाकर उस्‍के माता पिता के पास पहुँचाया उन्‍को सब तरह धैर्य दिया और उन्‍का शाप प्रसन्‍नता सै अपनें सिर चढ़ा लिया।”

“ब्रजकिशोर की यह भूल हो या न हो परन्‍तु उस्‍नें पहले जो ढिटाई की है वह कुछ कम नहीं है। गई बला को फ़िर घर मैं बुलाना अच्‍छा नहीं मालूम होता। जो कुछ हुआ सो हुआ चलो अब चुप हो रहो” मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।

“इस्‍समय ब्रजकिशोर सै मेल करना केवल उन्‍की प्रसन्‍नताके लिये नहीं है बल्कि उस्सै अदालत मैं बहुत काम निकलनें की उम्‍मेद की जाती है” मुन्शी चुन्‍नीलालनें मदनमोहन को स्‍वार्थ दिखाकर कहा।

“कल तो तुमनें मुझसै कहा था कि उन्की विकालत अपनें लिये कुछ उपकारी नहीं हो सक्ती” मदनमोहन नें याद दिवाई।

यह बात सुन्‍कर चुन्‍नीलाल एकबार ठिठका परन्‍तु फ़िर तत्‍काल सम्‍हल कर बोला “वह समय और था यह समय और है। मामूली मुकद्दमौं का काम हम हरेक वकील सै ले सक्ते थे परन्‍तु इस्‍समय तो ब्रजकिशोर के सिवाय हम किसी को अपना विश्‍वासी नहीं बना सक्ते।”

“यह तुम्‍हारी लायकी है। परन्‍तु ब्रजकिशोर का दाव लगे तो वह तुम को घड़ी भर जीता न रहनें दे” मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।

“मैं अपनें निज के सम्‍बन्‍ध का बिचार करके लाला साहब को कच्‍ची सलाह नहीं दे सक्ता” चुन्‍नीलाल खरे बनें।

“अच्‍छा तो अब क्‍या करें ? ब्रजकिशोर को दूसरी चिट्ठी लिख भेजें या यहां बुलाकर उन्‍की खातिर कर दें ?” निदान लाला मदनमोहन नें चुन्‍नीलाल की राह सै राह मिलाकर कहा।

“मेरे निकट तो आप को उन्‍के मकान पर चलना चाहिये और कोई कीमती चीज तोहफ़ा मैं देखकर ऐसे प्रीति बढ़ानी चाहिये जिस्‍सै उन्‍के मनमैं पहली गांठ बिल्‍कुल रहै न और आप के मुकद्दमों मैं सच्‍चे मन सै पैरवी करें। ऐसे अवसर पर उदारता से बड़ा काम निकलता है। सादी नें कहा है “द्रब्य दीजिये बीर कों तासों दे वह सीस ।। प्राण बचावेगा सदा बिनपाये बखशीस।।”[7] मुन्‍शी चुन्‍नीलाल नें कहा।

“लाला सा‍हब को ऐसी क्‍या गरज पड़ी है जो ब्रजकिशोर के घर जायं और कल जिसै बेइज्‍जत करके निकाल दिया था आज उस्‍की खुशामद करते फिरें ?” मास्‍टर शिंभूदयाल बोले।

“असल मैं अपनी भूल है और अपनी भूलपर दूसरे को सताना बहुत अनुचित है” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल संकेत सै मास्‍टर शिंभूदयाल को धमकाकर कहनें लगा “बैठनें उठनें, और आनें जानें की साधारण बातोंपर अपनी प्रतिष्‍ठा, अप्रतिष्‍ठा का आधार समझना संसार मैं अपनी बराबर किसी को न गिन्‍ना, एक तरह का जंगली बिचार है। इस्‍की निस्बत सादगी और मिलनसारी सै रहनें को लोग अधिक पसन्‍द करते हैं। लाला ब्रजकिशोर कुछ ऐसे अप्रतिष्ठित नहीं हैं कि उन्‍के हां जानें सै लाला साहब की स्‍वरूप हानि हो”

“यह तो सच है परन्‍तु मैंमैं उनका दुष्‍ट स्‍वभाव समझ कर इतनी बात कही थी” मास्‍टर शिंभूदयाल चुन्‍नीलाल का संकेत समझ कर बोले।

“ब्रजकिशोरके मकान पर जानें मैं मेरी कुछ हानि नहीं है परन्‍तु इतना ही बिचार है कि मेल के बदले कहीं अधिक बिगाड़ न हो जाय” लाला मदनमोहन नें कहा।

“जी नहीं, लाला ब्रजकिशोर ऐसे अनसमझ नहीं हैं। मैं जानता हूँ कि वह क्रोधसै आग हो रहे होंगे तो भी आपके पहुँचते ही पानी हो जायंगे क्‍योंकि गरमीमैं धूप के सताए मनुष्‍य को छाया अधिक प्‍यारी होती है” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल नें कहा।

निदान सबकी सलाहसै मदनमोहन का ब्रजकिशोर के हां जाना ठैर गया। चुन्‍नीलाल नैं पहलेसै खबर भेजदी, ब्रजकिशोर वह खबर सुन्‍कर आप आनें को तैयार होते थे इतनें मैं चुन्‍नीलाल के साथ लाला मदनमोहन वहां जा पहुँचे। ब्रजकिशोर नें बड़ी उमंगसै इन्‍का आदर सत्‍कार किया।

इस छोटीसी बात सै मालूम हो सक्ता है कि लाला मदनमोहन की तबियत पर चुन्नीलाल का कितना अधिकार था।

“आपनें क्‍यों तकलीफ की ? मैं तो आप आनें को था” लाला ब्रजकिशोर नें कहा।

“हरकिशोर के धोखे मैं आज आप के नाम एक चिट्ठी भूल सै भेज दी गई थी इसलिये लाला साहब चल कर यह बात कहनें आए हैं कि आप उस्‍का कुछ खयाल न करें” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल नें कहा।

“जो बात भूल सै हो और वह भूल अंगीकार कर ली जाय तो फ़िर उस्में खयाल करनें की क्‍या बात है ? और इस छोटेसे काम के वास्‍तै लाला साहब को परिश्रम उठाकर यहां आनें की क्‍या ज़रूरत थी ?” लाला ब्रजकिशोर नें कहा।

“केवल इतना ही काम न था। मुझ सै कल भी कुछ भूल हो गई थी और मैं उस्‍का भी एवज दिया चाहता था” यह कहक़र लाला मदनमोहन नें एक बहुमूल्‍य पाकेटचेन (जो थोड़े दिन पहले हैमिल्‍टन कम्‍पनी के हां सै फ़र्मायशी बनकर आई थी) अपनें हा‍थ सै ब्रजकिशोर की घड़ीमैं लगा दी।

“जी ! यह तो आप मुझको लज्जित करते हैं। मेरा एवज़ तो मुझ को आप के मुख सै यह बात सुन्‍ते ही मिल चुका। मुझ को आपके कहनें का क़भी कुछ रंज नहीं होता इस्‍के सिवाय मुझे इस अवसर पर आप की कुछ सेवा करनी चाहिये थी सो मैं उल्‍टा आप सै कैसे लूं ? जिस मामले मैं आप अपनी भूल बताते हैं केवल आपही की भूल नहीं है आप सै बढ़कर मेरी भूल है और मैं उस्‍के लिये अन्त:करण सै क्षमा चाहता हूँ” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “मैं हर बात मैं आप सै अपनी मर्जी मूजिब काम करानेंके लिये आग्रह करता था परन्‍तु वह मेरी बड़ी भूल थी। बृन्‍दनैं सच कहा है “सबको रसमैं राखिये अन्त लीजिये नाहिं ।। बिष निकस्‍यो अति मथनते रत्‍नाकरहू मांहिं ।।” मुझको विकालत के कारण बढ़ाकर बात करनें की आदत पड़ गई है और मैं क़भी क़भी अपना मतलब समझानें के लिये हरेक बात इतनी बढ़ाकर कहता चला जाता हूँ कि सुन्‍नें वाले उखता जाते हैं मुझको उस अवसर पर जितनी बातें याद आती हैं मैं सब कह डालता हूँ परन्‍तु मैं जान्‍ता हूँ कि यह रीति बात चीतके नियमों सै बिपरीत है और इन्‍का छोड़ना मुझ पर फ़र्ज है। बल्कि इन्‍हें छोड़नें के लिये मैं कुछ कुछ उद्योग भी कर रहा हूँ”

“क्‍या बातचीत के भी कुछ नियम हैं ?” लाला मदनमोहन नें आश्‍चर्य से पूछा-

“हां ! इस्‍को बुद्धिमानों नें बहुत अच्‍छी तरह बरणन किया है” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “सुलभा नाम तपस्विनी नें राजा जनक सै बचन के यह लक्षण कहे हैं – “अर्थ सहित, संशय रहित, पूर्वापर अविरोध ।। उचित, सरल, संक्षिप्‍त पुनि कहो वचन परिशोध ।।1।। प्राय: कठिन अक्षर रहित, घृणा अमंगल हीन ।। सत्‍य, काम, धर्मार्थयुत शुद्धनियम आधीन ।।2।। संभव कूट न अरुचिकर, सरस, युक्ति दरसाय ।। निष्‍कारण अक्षर रहित खंडितहू न लखाय ।।3।। [8]” संसार मैं देखा जाता है कि कितनें ही मनुष्‍यों को थोड़ीसी मामूली बातें याद होती हैं जिन्हैं वह अदल बदलकर सदा सुनाया करते हैं जिस्से सुन्‍नेवाला थोड़ी देरमैं उखता जाता है। बातचीत करनें की उत्तम रीति यह है कि मनुष्‍य अपनी बातको मौकेसै पूरी करके उस्‍पर अपना अपना, बिचार प्रगट करनें के लिये औरों को अवकाश दे और पीछैसै कोई नई चर्चा छेड़ें और किसी विषय मैं अपना बिचार प्रगट करे तो उस्‍का कारण भी साथही समझाता जाय, कोई बात सुनी सुनाई हो तो वह भी स्‍पष्‍ट कहदे। हँसीकी बातों मैं भी सच्‍चाई और गम्‍भीरता को न छोड़े, कोई बात इतनी दूर तक खेंचकर न ले जाय जिस्सै सुन्‍नें वालों को थकान मालूम हो। धर्म, दया, और प्रबन्‍ध की बातों मैं दिल्‍लगी न करे। दूसरेके मर्म की बातों को दिल्‍लगी मैं जबान पर न लाय। उचित अवसर पर वाजबी राह सै पूछ पूछकर साधारण बातों का जान लेना कुछ दूषित नहीं है परन्‍तु टेढ़े और निरर्थक प्रश्‍न कर‍के लोगों को तंग करना अथवा बकवाद करके औरोंके प्राण खा जाना, बहुत बुरी आदत है। बातचीत करनें की तारीफ यह है कि सबका स्‍वभाव पहिचान कर इस ढबसै बात कहै जिस्मैं सब सुन्‍नें वाले प्रसन्‍न रहैं। जची हुई बात कहना मधुर भाषण सै बहुत बढ़कर है खासकर जहां मामलेकी बात करनी हो। शब्‍द विन्‍यास के बदले सोच बिचार कर बातचीत करना सदैव अच्‍छा समझा जाता है और सवाल जवाब बिना मेरी तरह लगातार बात कहते चले जाना कहनें वाले की सुस्‍ती और अयोग्‍यता प्रगट करता है। इसी तरह असल मतलब पर आनें के लिये बहुतसी भूमिकाओं सै सुन्नें वालेका जी घबरा जाता है परन्तु थोड़ी सी भूमिका बिना भी बातका रंग नहीं जमता इसलिये अब मैं बहुतसी भूमिकाओं के बदले आपसै प्रयोजन मात्र कहता हूँ कि आप गई बीती बातों का कुछ खयाल न करें ?”

“जो कुछ भी खयाल होता तो लाला साहब इस तरह उठकर क्‍या चले आते ? अब तो सब का आधार आप की कारगुजारी (अर्थात् कार्य कुशलता) पर है” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल नें कहा।

“मेरे ऐसे भाग्‍य कहां ?” लाला ब्रजकिशोर प्रेम बिबस होकर बोले।

“देखो हरकिशोर नें कैसा नीचपन किया है !” लाला मदनमोहन नें आंसू भरकर कहा।

“इस्‍सै बढ़कर और क्‍या नीचपन होगा ?” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “मैनें कल उस्‍के लिये आप को समझाया था इस्सै मैं बहुत लज्जित हूँ। मुझको उस्समय तक उस्के यह गुन मालूम न थे। अब अफवाह किसी तरह झूठ हो जाय तो मैं उसे मजा दिखाऊं”

“निस्सन्देह आप की तरफ़ सै ऐसेही उम्‍मेद है। ऐसे समय मैं आप साथ न दोगे तो और कौन् देगा ?” लाला मदनमोहन नें करुणा सै कहा।

“इस्‍समय सब सै पहले अदालत की जवाब दिहीका बंदोबस्‍त होना चाहिये क्‍योंकि मुकद्दमों की तारीखें बहुत पास-पास लगी हैं” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा।

“अच्‍छा ! आप अपना कागज तैयार करानें के वास्‍तै तीन चार गुमाश्‍ते तत्‍काल बढ़ा दें और अदालत की कार्रवाई के वास्‍ते मेरे नाम एक मुख्‍त्‍यार नामा लिखते जायं बस फ़िर मैं समझ लूंगा” लाला ब्रजकिशोर नें कहा।

निदान लाला मदनमोहन ब्रजकिशोर के नाम मुख्‍त्‍यार नामा लिखकर अपनें मकान को रवानें हुए।

प्रकरण-30 : नैराश्‍य (नाउम्‍मेदी)

फलहीन मही रू ह कों खगवृन्‍द तजै बन कों मृग भस्‍म भए ।

मकरन्‍द पिए अरविन्‍द मिलिन्‍द तजै सर सारस सूख गए ।।

धन हीन मनुष्‍य तजैं गणिका नृपकों सठ सेवक राज हुए ।

बिन स्‍वारथ कौन सखा जग मैं ? सब कारज के हित मीत भए ।।[9]

भर्तृहरि।

सन्‍ध्‍या समय लाला मदनमोहन भोजन करनें गए तब मुन्शी चुन्‍नीलाल और मास्‍टर शिंभूदयाल को खुलकर बात करनें का अवकाश मिला। वह दोनों धीरे, धीरे बतलानें लगे।

“मेरे निकट तुमनें ब्रजकिशोरसै मेल करनें मैं कुछ बुद्धिमानी नहीं की। बैरी के हाथ मैं अधिकार देकर कोई अपनी रक्षा कर सक्ता है ?” मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।

“क्‍या करूं ? इस्‍समय इस युक्ति के सिवाय अपनें बचाव को कोई रास्‍ता न था। लोगों की नालिशें हो चुकीं, अपनें भेद खुलनें का समय आ गया। ब्रजकिशोर सब बातों सै भेदी थे इसलिये मैंनें उन्‍हीं के जिम्‍मे इन बातों के छिपानें का बोझ डाल दिया कि वह अपनें विपरीत कुछ न करनें पायं !” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें हीरालाल की बात उड़ाकर कहा,

“परन्तु अब ब्रजकिशोर तुम्हारा भेद खोल दें तो तुम कैसे अपना बचाव करो ? हर काम मैं आदमी को पहले अपनें निकास का पूरा रस्ता सोचना चाहिये। अभिमन्यु की तरह धुन बांध कर चकाबू (चक्रव्यूह) मैं घुसे चले जाओगे तो फ़िर निकलना बहुत कठिन होगा, पतंग उड़ाकर डोर अपनें हाथ मैं न रक्खोगे तो उस्के हाथ लगनें की क्या उम्मेद रहेगी ?” मास्टर शिंभूदयाल नें कहा।

“मैंनें अपनें निकास की उम्मेद केवल ब्रजकिशोर के विश्वास पर बांधी है परन्तु उन्की दो एक बातों सै मुझको अभी संदेह होनें लगा। प्रथम तो उन्होंनें इस गए बीते समय में मदनमोहन सै मेल करनें मैं क्या फायदा बिचारा है ? और महन्तानें के लालच सै मेल किया भी था तो ऐसी जलदी कागज तैयार करानें की क्या ज़रूरत थी ? मैं जान्ता हूँ कि वह नालिश करनेंवालों सै जवाबदिहि करनें के वास्तै यह उपाय करते होंगे परन्तु जब वह जवाबदिहि करेंगे तो नालिश करनेंवालों की तरफ़ सै हमारा भेद अपनें आप खुल जायगा और जिस बात को हम दूर फेंका चाहते हैं वही पास आजावेगी” मुन्शी चुन्नीलाल नें कहा।

“वकीलों के यही तो पेच होते हैं। जिस बात को वह अपनी तरफ़ सै नहीं कहा चाहते उल्टे सीधे सवाल करके दूसरे के मुख सै कहा लेते हैं और आप भलेके भले बनें रहते हैं। बिचारो तो सही हमनें ब्रजकिशोर के साथ कौन्सी भलाई की है जो वह हमारे साथ भलाई करेंगे ? वकीलों के ढंग बड़े पेचीदा होते हैं। वह एक मुक़द्दमे मैं तुम्हारे वकील बनते हैं तो दूसरे मैं तुम्हारे बैरी के वकील बन जाते हैं परन्तु अपना मतलब किसी तरह नहीं जानें देते।”

“सच है इस काम मैं लाला ब्रजकिशोर की चाल पर अवश्य संदेह होता है परन्तु क्या करें ? अपनें वकील न करेंगे तो वह प्रतिपक्षी के वकील हो जायंगे और अपना भेद खोलनें मैं किसी तरह की कसर न रक्खेंगे” मुन्शी चुन्नीलाल कहनें लगा “असल तो यह है कि अब यहां रहनें मैं कुछ मजा नहीं रहा। प्रथम तो आगे को कोई बुर्द नहीं दिखाई देती फ़िर जिन लोगों सै हजारों रुपे खाए पीए हैं उन्हीं के सामनें होकर बिवाद करना पड़ेगा और जब हम उन्सै बिवाद करेंगे तो वह हमसै मुलाहजा क्यों रक्खेंगे। हमारा भेद क्यों छिपावेंगे ? क़भी, क़भी हम उन्सै लाला साहब के हिसाब मैं लिखवाकर बहुतसी चीजें घर लेगए हैं इसी तरह उन्के यहां जमा करानें के वास्तें लाला साहब जो रुपे लेगए थे वह उन्के यहां जमा नहीं कराए ऐसी रकमों की बाबत पहले, पहले तो यह बिचार था कि इस्समय अपना काम चला लें फ़िर जहांकी तहां पहुँचा देंगे परन्तु पीछे सै न तो अपनें पास रुपे की समाई हुई न कोई देखनें भालनें वाला मिला, बस सब रकमें जहां की तहां रह गईं अब अदालत मैं यह भेद खुलेगा तो कैसी आफत आवेगी ? और हम लाला साहब की तरफ़ सै बिवाद करेंगे तो यह भेद कैसे छिप सकेगा ? क्या करें ? कोई सीधा रस्ता नहीं दिखाई देता।”

यदि ऐसै ही पाप करके लोग बच जाया करते तो संसार मैं पाप पुण्यका बिचार काहेको रहता ?

“मुझको तो अब सीधा रास्ता यही दिखाई देता है कि जो हाथ लगे सो ले लिवाकर यहां सै रफूचक्कर हो। ब्रजकिशोर तुम्हारे भाग्य सै इस्समय आफंसा है। इस्के सिर मुफ्त का छप्पर रख कर अलग हो बैठो” मास्टर शिंभूदयाल कहनें लगा “जिस तरह अलिफलैला मैं अबुलहसन और शम्सुल्निहार के परस्पर प्रेम बिवस हुए पीछे बखेड़ा उठनें की सूरत मालूम हुई तब उन्का मध्यस्थ इब्नतायर उन्को छिटकाकर अलग हो बैठा आउट एक जौहरी नें मुफ्त मैं वह आफत अपनें सिर लेकर अपनें आपको जंजाल मैं फंसा दिया। इसी तरह इस्समय तुम्हारी और ब्रजकिशोर की दशा है ब्रजकिशोर को काम सोंप कर तुम इस्समय अलग हो जाओ तो सब बदनामी का ठीकरा ब्रजकिशोर के सिर फूटेगा और दूध मलाई चखन वाले तुम रहोगे !”

“यह तो बड़े मजे की बात है। ब्रजकिशोर पर तो हम यह बोझ डालेंगे कि तुम्हारे लिये हम अलग होते हैं पीछे से हमारा भेद न खुलनें पाय। लेनदारों सै यह कहेंगे कि तुम्हारे वास्ते लाला साहब सै हमारी तकरार हो गई उन्होंनें हमारा कहा नहीं माना अब तुम भी कहीं हमको धोका न देना” मुन्शी चुन्नीलाल नें कहा।

“आज तो दोनों मैं बड़ी घुट, घुट कर बातें हो रही हैं” लाला मदनमोहन नें आते ही कहा। तुम्हारी सलाह क़भी पूरी नहीं होती। न जानें कौन्से किले लेनें का बिचार किया करते हो !”

“जी हुजूर ! कुछ नहीं, मिस्टर रसल के मामले की चर्चा थी उस की जायदाद की नीलाम की तारीख मैं केवल दो दिन बाकी हैं परन्तु अब तक रुपे का कुछ बंदोबस्त नहीं हुआ” मुन्शी चुन्नीलाल नें तत्काल बात पलट कर कहा। “इस बिना बिचारी आफत का हाल किस्‍को मालूम था ? तुम उन्‍हें लिख दो कि जिस तरह हो सके थोड़े दिन की मुहलत लेलें। हम उस्‍के भीतर, भीतर रुपे का प्रबन्‍घ अवश्‍य कर देंगे” लाला मदनमोहन नें कहा।

“मुहलत पहले कई बार लेचुके हैं इस्‍सै अब मिलनी कठिन है। परन्‍तु इस्‍समय कुछ गहना गिरवे रखकर रुपे का प्रबन्‍ध कर दिया जाय तो उस्‍की जायदाद बनी रहै और धीरे, धीरे रुपया चुका कर गहना भी छुड़ा लिया जाय” मास्‍टर शिंभूदयाल नें जाते जाते सिप्‍पा लगानें की युक्ति की। उस्का मनोर्थ था कि यह रकम हाथ लग जाय तो किसी लेनदार को देकर भलीभांति लाभ उठायें अथवा मदनमोहन मांगनें योग्‍य न रहै तो सबकी सब रकम आप ही प्रसाद कर जायें। अथवा किसी के यहां गिरवी भी धरें तो लेनदारों को कुर्की करानें के लिये उस्‍का पता बता कर उनसै भली भांति हाथ रंगें। अथवा माल अपनें नीचे दबे पीछे और किसी युक्ति सै भर पूर फ़ायदे की सूरत निकालें। परन्‍तु मदनमोहन के सौभाग्‍य सै इस्‍समय लाला ब्रजकिशोर आ पहुँचे इसलिये उस्‍की कुछ दाल न गली।

“क्‍या है ? किस काम के लिये गहना चाहते हो ?” लाला ब्रजकिशोर नें शिंभूदयाल की उछटतीसी बात सुनी थी, इस्‍पर आते ही पूछा।

“जी कुछ नहीं, यह तो मिस्‍टर रसल की चर्चा थी” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें बात उड़ानें के वास्‍ते गोल-मोल कहा।

“उस्‍का क्‍या लेनदेन है ? उस्‍का मामला अब तक अदालत मैं तो नहीं पहुँचा ?” लाला ब्रजकिशोर पूछनें लगे।

“वह एक नीलका सौदागर है और उस्‍पर बीस, पच्‍चीस हजार रुपे अपनें लेनें हैं। इस्‍समय उस्‍की नीलकी कोठी और कुछ बिस्वै बिस्‍वान्सी दूसरे की डिक्री मैं नीलाम पर चढ़े हैं और नीलाम की तारीख मैं केवल दो दिन बाकी हैं। नीलाम हुए पीछै अपनें रुपे पटनें की कोई सूरत नहीं मालूम होती इसलिये ये लोग कहते थे कि गहना गिरवी रखकर उस्‍का कर्ज चुका दो परन्‍तु इतना बंदोबस्‍त तो इस्‍समय किसी तरह नहीं हो सक्ता” लाला मदनमोहन नें लजाते हुए कहा।

“अभी आप को अपनें कर्जेका प्रबन्‍ध करना है और यह मामला केवल मुहलत लेनें सै कुछ दिन टल सक्ता है” लाला ब्रजकिशोर नें अपनें मनका संदेह छिपाकर कहा।

“मैं जान्ता हूँ कि मेरा कर्ज चुकानें के लिये तो मेरे मित्रों की तरफ़ सै आज कल मैं बहुत रुपया आ पहुँचेगा” लाला मदनमोहन नें अपनी समझ मूजिब जवाब दिया।

“और मुहलत कई बार लेली गई है इस्‍सै अब मिलनी कठिन है” मास्‍टर शिंभूदयाल बोले।

“मैं खयाल करता हूँ कि अदालत को विश्‍वास योग्‍य कारण बता दिया जायगा तो मुहलत अवश्‍य मिल जायगी” लाला ब्रजकिशोर नें कहा।

“और जो न मिली ?” शिंभूदयाल हुज्‍जत करनें लगा।

“तो मैं अपनी जामिनी देकर जायदाद नीलाम न होनें दूंगा” ब्रजकिशोर नें जवाब दिया और अब शिंभूदयाल को बोलनें की कोई जगह न रही।

“कल कई मुकद्दमों की तारीखैं लगरही हैं और अबतक मैं उन्‍के हाल सै कुछ भेदी नहीं हूँ। तुमको अवकाश हो तो लाला साहब सै आज्ञा लेकर थोड़ी देरके लिये मेरे साथ चलो” लाला ब्रजकिशोर नें मुन्शी चुन्‍नीलाल सै कहा।

“हां, हां तुम साथ जाकर सब बातें अच्‍छी तरह समझा आओ” लाला मदनमोहन नें मुन्शी चुन्‍नीलाल को हुक्‍म दिया।

“आप इस्‍समय किसी काम के लिये किसीको अपना गहना न दें। ऐसे अवसरपर ऐसी बातों मैं तरह, तरहका डर रहता है” लाला ब्रजकिशोर नें जाती बार मदनमोहन सै संकेत मैं कहा और मुन्शी चुन्‍नीलाल को साथ लेकर रुख़सत हुए।

आज लाला मदनमोहन की सभा मैं वह शोभा न थी। केवल चुन्‍नीलाल शिंभूदयाल आदि दो चार आदमी दिखाई देते थे परन्‍तु उन्‍के मन भी बुझे हुए थे। हँसी चुहल की बातें किसी के मुखसै नहीं सुनाई देती थीं। खास्कर ब्रजकिशोर और चुन्‍नीलाल के गए पीछे तो और भी सुस्‍ती छागई। मकान सुन्‍सान मालूम होनें लगा। शिंभूदयाल ऊपर के मन सै हँसी चुहल की कुछ, कुछ बातें बनाता था परन्‍तु उन्‍मैं मोमके फूलकी तरह कुछ रस न था। निदान थोड़ी देर इधर-उधर की बातें बनाकर सब अपनें, अपनें रस्‍ते लगे और लाला मदनमोहन भी मुर्झाए चित्तसै पलंग पर जा लेटे।

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