प्रकरण-11 : सज्जनता
सज्जनता न मिलै किये जतन करो किन कोय
ज्यों कर फार निहारियेलोचन बड़ो न होय
बृन्द
“आप भी कहां की बात कहां मिलानें लगे ! म्यूनिसिपेलीटी के मेम्बर होनें सै और इंतज़ाम की इन बातों सै क्या सम्बन्ध है ? म्यूनिसिपेलीटी के कार्य निर्बाह का बोझ एक आदमी के सिर नहीं है उसमैं बहुत सै मेम्बर होते हैं और उन्मैं कोई नया आदमी शामिल हो जाय तो कुछ दिन के अभ्यास सै अच्छी तरह वाकिफ़ हो सक्ता है, चार बराबरवालों सै बातचीत करनें मैं अपनें बिचार स्वत: सुधर जाते हैं और आज कल के सुधरे बिचार जान्नें का सीधी रास्ता तो इस्सै बढ़कर और कोई नहीं हैं” मुन्शी चुन्नीलाल नें कहा।
“जिस तरह समुद्र मैं नोका चलानेंवाले केवल समुद्र की गहराई नहीं जान सक्ते इसी तरह संसार मैं साधारण रीति सै मिलनें भेटनेंवाले इधर-उधर की निरर्थक बातों सै कुछ फायदा नहीं उठा सक्ते बाहर की सज धज और जाहिर की बनावट सै सच्ची सज्जनताका कुछ सम्बन्ध नहीं है वह तो दरिद्री-धनवान ओर मूर्ख-विद्वान का भेद भाव छोड़ कर सदा मन की निर्मलता के साथ रहती है और जिस जगह रहती है उस्को सदा प्रकाशित रखती है” लाला ब्रजकिशोर नें कहा।
“तो क्या लोगों के साथ आदर सत्कार सै मिलना जुलना और उन्का यथोचित शिष्टाचार करना सज्जनता नहीं है ?” लाला मदनमोहन नें पूछा।
“सच्ची सज्जनता मन के संग है” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे। कुछ दिन हुए जब अपनें गवर्नर जरनल मारक्विस आफ रिपन साहब नें अजमेर के मेयो कालिज मैं बहुत सै राजकुमारों के आगे कहा था कि “**हम चाहे जितना प्रयत्न करैं परन्तु तुम्हारी भविष्यत अवस्था तुम्हारे हाथ है। अपनी योग्यता बढ़ानी, योग्यता की कदर करनी, सत्कर्मों मैं प्रवृत्त रहना, असत्कर्मों सै ग्लानि करना तुम यहां सीख जाओगे तो निस्सन्देह सरकार मैं प्रतिष्ठा, और प्रजा की प्रीति लाभ कर सकोगे। तुम मैं सै बहुत सै राजकुमारोंको बड़ी जोखोंके काम उठानें पड़ेंगे और तुम्हारी कर्तव्यता पर हजारों लाखों मनुष्योंके सुख दु:ख का बल्कि जीनें मरनें का आधार रहैगा। तुम बड़े कुलीन हो और बड़े विभववान हो। फ्रेंच भाषा मैं एक कहावत है कि जो अपनें सत्कुल का अभिमान रखता हो उस्को उचित है कि अपनें सत्कर्मों सै अपना बचन प्रमाणिक कर दे। तुम जान्ते हो कि अंग्रेज लोग बड़े, बड़े खिताबों के बदले सज्जन (Gentleman) जैसे साधारण शब्दोंको अधिक प्रिय समझते हैं इस शब्द का साधारण अर्थ ये है कि मर्यादाशील, नम्र और सुधरे बिचार का मनुष्य हो, निस्सन्देह ये गुण यहांके बहुत सै अमीरों मैं हैं परन्तु इस्के अर्थपर अच्छी तरह दृष्टि की जाय तो इस्का आशय बहुत गंभीर मालूम देता है। जिस मनुष्य की मर्यादा, नम्र और सुधरे बिचार केवल लोगों को दिखानें के लिये न हों बल्कि मन सै हो-अथवा जो सच्चा प्रतिष्ठित, सच्चा बीर और पक्षपात रहित न्याय-परायण हो, जो अपनें शरीर को सुख देनें के लिये नहीं बल्कि धर्म सै औरों के हक़ मैं अपना कर्तव्य सम्पादन करनें के लिये जीता हो; अथवा जिसका आशय अच्छा हो, जो दुष्कर्मों सै सदैव बचता हो वह सच्चा सज्जन है **”
“निस्सन्देह सज्जनता का यह कल्पित चित्र अति बिचित्र है परन्तु ऐसा मनुष्य पृथ्वी पर तो क़भी कोई काहेको उत्पन्न हुआ होगा” मास्टर शिंभूदयालनें कहा।
हम लोग जहां खड़े हों वहां सै चारों तरफ़ को थोड़ी-थोड़ी दूर पर पृथ्वी और आकाश मिले दिखाई देते हैं परन्तु हकीकत मैं वह नहीं मिले इसी तरह संसार के सब लोग अपनी, अपनी प्रकृतिके अनुसार और मनुष्यों के स्वभाव का अनुमान करते हैं परन्तु दर असल उन्मैं बड़ा अन्तर है” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “देखो:-
“एथेन्स का निवासी आरिस्टाईडीज एक बार दो मनुष्यों का इन्साफ़ करनें बैठा तब उन्मैं सै एकनें कहा, “प्रतिपक्षीनें आप को भी प्रथम बहुत दु:ख दिया है,” आरिस्टाईडीज नें जवाब दिया कि “मित्र ! इस्नें तुमको दुख दिया हो वह बताओ क्योंकि इस्समय मैं अपना नहीं; तुम्हारा इन्साफ़ करता हूँ”
“प्रीवरनमके लोगोंनें रूमके बिपरीत बलवा उठाया उस्समय रूमकी सेना नें वहांके मुखिया लोगोंको पकड़कर राज सभामैं हाजिर किया उस्समय प्लाटीनियस नामी सभासदनें एक बंधुए सै पूछा कि “तुम्हारे लिये कौन्सी सजा मुनासिब है ?” बंधुएनें जवाब दिया कि “जो अपनी स्वतन्त्रता चाहनें वालोंके वास्ते मुनासिब हो” इस उत्तरसै और सभासद अप्रसन्न हुए पर प्लाटीनियस प्रसन्न हुआ और बोला “अच्छा ! राजसभा तुम्हारा अपराध क्षमा कर दे तो तुम कैसा बरताव रक्खो ?” “जैसा हमारे साथ राजसभा ररक्खे” बंधुआ कहनें लगा “जो राजसभा हमसे मानपूर्वक मेल करेगी तो हम सदा ताबेदार बनें रहैंगे परन्तु हमारे साथ अन्याय और अपमान सै बरताव होगा तो हमारी वफादारी पर सर्वथा विश्वास न रखना” इस जवाब सै और सभासद अधिक चिड़ गए और कहनें लगे कि “इस्मैं राजसभा को धमकी दी गई है” प्लाटीनियसनें समझाया कि “इस्मैं धमकी कुछ नहीं दी गई। यह एक स्वतन्त्र मनुष्य का सच्चा जवाब है” निदान प्लाटीनियस के समझानें सै राजसभा का मन फ़िर गया और उस्नें उन्हें कैदसै छोड़ दिया।
“मेसीडोनके बादशाह पीरसनें कैदियोंको छोड़ा उस्समय फ्रेबीशियस नामी एक रूमी सरदारको एकांतमैं लेजा कर कहा “मैं जान्ता हूँ कि तुम जैसा बीर, गुणवान स्वतन्त्र, और सच्चा मनुष्य रूमके राजभरमैं दूसरा नहीं है जिस्पर तुम ऐसे दरीद्री बनरहे हो यह बड़े खेदकी बात है ! सच्ची येग्यताकी कदर करना राजाऔं का प्रथम कर्तव्य है इस लिये मैं तुमको तुम्हारी पदवी के लायक धनवान बनाया चाहता हूँ परन्तु मैं इस्मैं तुम्हारे ऊपर कुछ उपकार नहीं करता अथवा इसके बदले तुमसै कोई अनुचित काम नहीं लिया चाहता। मेरी केवल इतनी प्रार्थना है कि उचित रीति सै अपना कर्तव्य सम्पादन किये पीछे न्यायपूर्वक मेरी सहायता होसके सो करना।” फ्रेबीशियसनें उत्तर दिया कि “निस्सन्देहमैं धनवान नहीं हूँ। मैं एक छोटे से मकान मैं रहता हूँ और जमीन का एक छोटासा किता मेरे पास है परन्तु ये मेरी ज़रूरत के लिये बहुत है और ज़रूरत सै ज्यादा लेकर मुझको क्या करना है ? मेरे सुखमैं किसी तरह का अन्तर नहीं आता मेरी इज्जत और धनवानों सै बढ़कर है, मेरी नेकी मेरा धन है मैं चाहता तो अबतक बहुतसी दौलत इकट्ठी करलेता परन्तु दौलतकी अपेक्षा मुझको अपनी इज्जत प्यारी है इस लिये तुम अपनी दौलत अपनें पास रक्खो और मेरी इज्जत मेरे पास रहनें दो।”
“नोशेरवां अपनी सेना का सेनापति आप था। एकबार उस्की मंजूरी सै खजान्चीनें तन्ख्वाह बांटनें के वास्तै सब सेना को हथियार बंद होकर हाजिर होनें का हुक्म दिया पर नोशेरवां इस हुक्मसै हाजिर न हुआ इस लिये खजान्चीनें क्रोध करके सब सेनाको उलटा फेर दिया और दूसरी बार भी ऐसा ही हुआ तब तीसरी बार खजान्चीनें डोंड़ी पिटवाकर नोशेरवांको हाजिर होनें का हुक्म दिया। नोशेरवां उस हुक्म के अनुसार हाजिर हुआ परन्तु उस्की हथियार बंदी ठीक न थी। खजान्चीनें पूछा “तुम्हारे धनुषकी फाल्तू प्रत्यंचा कहां है ?” नोशेरवांनें कहा “महलोंमैं भूल आया” खजान्चीनें कहा “अच्छा ! अभी जा कर ले आओ” इस्पर नोशेरवां महलोंमैं जाकर प्रत्यंचा ले आया तब सब की तनख्वाह बटी परन्तु नोशेरवां खजान्चीके इस अपक्षपात काम सै ऐसा प्रसन्न हुआ कि उसे निहाल कर दिया। इस प्रकार सच्ची सज्जनता के इतिहासमैं सैकड़ों दृष्टांत मिल्ते हैं परन्तु समुद्रमैं गोता लगाए बिना मोती नहीं मिलता”
“आप बार, बार सच्ची सज्जनता कहते हैं सो क्या सज्जनता सज्जनतामैं भी कुछ भेदभाव है ?” लाला मदनमोहननें पूछा।
‘हां सज्जनता के दो भेद हैं एक स्वाभाविक होती है जिस का वर्णन मैं अब तक करता चला आया हूँ। दूसरी ऊपरसै दिखानें की होती है जो बहुधा बड़े आदमियों मैं उन्के पास रहनें वालों मैं पाई जाती है बड़े आदमियों के लिये वह सज्जनता सुंदर वस्त्रों के समान समझनी चाहिए जिस्को वह बाहर जाती बार पहन जाते हैं और घर मैं आते ही उतार देते हैं। स्वाभाविक सज्जनता स्वच्छ स्वर्ण के अनुसार है जिस्को चाहे जैसे तपाओ, गलाओ परन्तु उस्मैं कोई अन्तर नहीं आता। ऊपर सै दिखानें वालों की सज्जनता गिल्टी के समान है जो रगड़ लगते ही उतर जाती है ऊपर के दिखानें वाले लोग अपना निज स्वभाव छिपाकर सज्जन बन्नें के लिये सच्चे सज्जनों के स्वभाव की नकल करते हैं परन्तु परीक्षा के समय उन्की कलई तत्काल खुल जाती है, उन्के मन मैं बिकास के बदले संकुचित भाव, सादगी के बदले बनावट, धर्म्म प्रबृत्ति के बदले स्वार्थपरता और धैर्य के बदले घबराहट इत्यादि प्रगट दिखनें लगते हैं। उन्का सब सदभाव अपनें किसी गूढ़ प्रयोजन के लिये हुआ करता है परन्तु उन्के मन को सच्चा सुख इस्सै सर्वथा नहीं मिल सक्ता।
प्रकरण-12 : सुख दु:ख
आत्मा को आधार अरु साक्षी आत्मा जान
निज आत्माको भूलहू करियेनहिंअपमान29
(29आत्मैव ह्यात्मन: साक्षी गति रात्मा तथात्मन:
भाव संस्था: स्वमात्मानं नृणां साक्षिण मुत्तमम् ।।)
मनुस्मृति।
“सुख दु:ख तो बहुधा आदमी की मानसिक बृत्तियों और शरीर की शक्ति के आधीन हैं।एक बात सै एक मनुष्य को अत्यन्त दु:ख और क्लेश होता है वही बात दूसरे को खेल तमाशे की सी लगती है इस लिये सुख दु:ख होनें का कोई नियम नहीं मालूम होता” मुन्शी चुन्नीलाल नें कहा।
“मेरे जान तो मनुष्य जिस बात को मन सै चाहता है उस्का पूरा होना ही सुख का कारण है और उस्मैं हर्ज पड़नें ही सै दुःख होता है” मास्टर शिंभूदयाल नें कहा।
“तो अनेक बार आदमी अनुचित काम करके दुःख मैं फँस जाता है और अपनें किये पर पछताता है इस्का क्या कारण ? असल बात यह है कि जिस्समय मनुष्य के मन मैं जो बृत्ति प्रबल होती है वह उसी के अनुसार काम किया चाहता है और दूरअंदेशी की सब बातों को सहसा भूल जाता है परन्तु जब वो बेग घटता है तबियत ठिकानें आती है तो वो अपनी भूल का पछतावा करता है और न्याय बृत्ति प्रबल हुई तो सब के साम्हनें अपनी भूल अंगीकार करकै उस्के सुधारनें का उद्योग करता है पर निकृष्ट प्रबृत्ति प्रबल हुई तो छल करके उस्को छिपाया चाहता है अथवा अपनी भूल दूसरे के सिर रक्खा चाहता है और एक अपराध छिपानें के लिये दूसरा अपराध करता है परन्तु अनुचित कर्म्म सै आत्मग्लानि और उचित कर्म्म सै आत्मप्रसाद हुए बिना सर्बथा नहीं रहता” लाला ब्रजकिशोर बोले।
“अपना मन मारनें सै किसी को खुशी क्यों कर हो सक्ती है ?” लाला मदनमोहन आश्चर्य सै कहनें लगे।
“सब लोग चित्तका संतोष और सच्चा आनन्द प्राप्त करनें के लिये अनेक प्रकार के उपाय करते हैं परन्तु सब बृत्तियों के अबिरोध सै धर्म्मप्रबृत्ति के अनुसार चलनेंवालों को जो सुख मिल्ता है और किसी तरह नहीं मिल सक्ता” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे मनुस्मृति मैं लिखा है “जाको मन अरु बचन शुचि बिध सों रक्षित होय ।। अति दुर्लभ वेदान्त फल जगमैं पावत सोय”30
(30यस्य वाङ्मनसी शुद्धे सम्यग्गुपते च सर्वदा ।
सनै सर्व मवाप्नोति वेदान्तोपगतम्फलम् ।।)
जो लोग ईश्वर के बांधे हुए नियमों के अनुसार सदा सत्कर्म्म करते रहते हैं उन्को आत्मप्रसाद का सच्चा सुख मिल्ता है उन्का मन विकसित पुष्पों के समान सदा प्रफुल्लित रहता है जो लोग कह सक्ते हैं कि हम अपनी सामर्थ्य भर ईश्वर के नियमों का प्रतिपालन करते हैं, यथा शक्ति परोपकार करते हैं, सब लोगों के साथ अनीत छोड़कर नीति पूर्वक सुहृद्भाव रखते हैं, अतिशय भक्ति और विश्वासपूर्वक ईश्वर की शरणागति हो रहे हैं वही सच्चे सुखी हैं। वह अपनें निर्मल चरित्रों को बारम्बार याद करके परम संतोष पाते हैं। यद्यपि उन्का सत्कर्म्म मनुष्य मात्र न जान्ते हों इसी तरह किसी के मुख सै एक बार भी अपनें सुयश सुन्नें की संभावना न हो, तथापि वह अपनें कर्तव्य काम मैं अपनें को कृत कार्य देखकर अद्वितीय सुख पाते हैं उचित रीति सै निष्प्रयोजन होकर किसी दुखिया का दु:ख मिटानें की, किसी मूर्ख को ज्ञानोंपदेश करनें की एक बात याद आनें से उन्को जो सुख मिलता है वह किसी को बड़े सै बड़ा राज मिलनें पर भी नहीं मिल सक्ता। उन्का मन पक्षपात रहित होकर सबके हितसाधन मैं लगा रहता है, इस्कारण वह सबके प्यारे होनें चाहिए। परन्तु मूर्ख जलन सै, हटसै, स्वार्थपरता सै अथवा उन्का भाव जानें बिना उन्सै द्वेषकरै। उन्का बिगाड़ करना चाहें तो क्या कर सक्ते हैं ? उन्का सर्वस्व नष्ट होजाय तो भी वह नहीं घबराते; उन्के ह्रदय में जो धर्म्म का ख़ज़ाना इकट्ठा हो रहा है उस्के छूनें की किस को सामर्थ्य है। आपनें सुना होगा कि:-
“महाराज रामचन्द्रजी को जब राजतिलक के समय चौदह वर्ष का बनवास हुआ उस्समय उन्के मुखपर उदासी के बदले प्रसन्नता चमकनें लगी।
“इंगलेण्ड की गद्दी बाबत एलीज़ाबेथ और मेरी के बीच विवाद हो रहा था उस्समय लेडी जेनग्रेको उस्के पिता, पति और स्वसुरनें गद्दीपर बिठाना चाहा परन्तु उस्को राज का लोभ न था वह होशियार, बिद्वान और धर्मात्मा स्त्री थी। उस्नें उन्को समझाया कि मेरी “निस्बत मेरी और एलीज़ाबेथ का ज्याद: हक़ है और इस काम सै तरह, तरह के बखेड़े उठनें की संभावना है। मैं अपनी वर्तमान अवस्था मैं बहुत प्रसन्न हूँ इस लिये मुझको क्षमा करो” पर अन्त मैं उस्को अपनी मरज़ी के उपरांत बड़ों की आज्ञासै राजगद्दी पर बैठना पड़ा परन्तु दस दिन नहीं बीते इतनेंमैं मेरी नें पकड़ कर उसै कैद किया और उस के पति समेत फांसी का हुक्म दिया। वह फांसी के पास पहुँची उस्समय उस्नें अपनें पति को लटकते देखकर तत्काल अपनी याददाश्त मैं यह तीन बचन लाटिन, यूनानी और अंग्रैजी मैं क्रम सै लिखे कि “मनुष्य जाति के न्याय नें मेरी देह को सजा दी परन्तु ईश्वर मेरे ऊपर कृपा करेगा, और मुझको किसी पाप के बदले यह सजा मिली होगी तो अज्ञान अवस्था के कारण मेरे अपराध क्षमा किए जायेंगे। और मैं आशा रखती हूँ कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर और भविष्य काल के मनुष्य मुझ पर कृपा दृष्टि रक्खेंगे” उस्नें फांसी पर चढ़कर सब लोगों के आगे एक वक्तृता की जिस्मैं अपनें मरनें के लिये अपनें सिवाय किसी को दोष न दिया वह बोली कि “इंगलेण्ड की गद्दी पर बैठनें के वास्तै उद्योग करनें का दोष मुझ पर कोई नहीं लगावेगा परन्तु इतना दोष अवश्य लगावेगा कि “वह औरों के कहनें सै गद्दी पर क्यों बैठी ? उस्नें जो भूल की वह लोभ के कारण नहीं, केवल बड़ों के आज्ञावर्ती होकर की थी” सो यह करना मेरा फर्ज था परन्तु किसी तरह करो जिस्के साथ मैंनें अनुचित व्यवहार किया उस्के साथमैं प्रसन्नतासै अपनें प्राण देनें को तैयार हूँ” यह कहक़र उस्नें बड़े धैर्यसै अपनी जान दी”
“दुखिया अपनें मनको धैर्य देनेंके लिये चाहे जैसे समझा करैं परन्तु साधारण रीति तो यह है कि उचित उपायसै हो अथवा अनुचित उपायसै हो जो अपना काम निकाल लेता है वही सुखी समझा जाता है, आप बिचार कर देखेंगे तो मालूम हो जायगा कि आज भूमंडल मैं जितनें अमीर और रहीस दिखाई देते हैं उन्के बड़ोंमैं सै बहुतों नें अनुचित कर्म करकै यह वैभव पाया होगा” मुन्शी चुन्नीलालनें कहा।
“क़भी अनुचित कर्म करनेंसै सच्चा सुख नहीं मिलता-प्रथम तो मनु महाराज और लोमेश ऋषि एक स्वरसै कहते हैं कि “कर अधर्म पहले बढ़त सुख पावत बहुत भांत ।। शत्रु न जय कर आप पुन मूलसहित बिनसात।।”31
(31अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति ।।
तत: सपत्नाम् जयतिस मुलस्तूविनस्यति ।।
वर्द्धत्य धर्मेण नरस्ततोभद्राणि पश्यति ।।
तत: मपत्नान् जयति समूलस्तू विनश्यति ।।)
फ़िर जिस तरह सत्कर्म का फल आत्म-प्रसाद है इसी तरह दुष्कर्म का फल आत्मग्लानि, आंतरिक दुःख अथवा पछतावा हुए बिना सर्वथा नहीं रहता मनुस्मृति मैं लिखा है “पापी समुझत पाप कर काहू देख्यो नाहिं ।। पैसुर अरुनिज आतमा निस दिन देखत जाहिं।।”32
(32मन्यन्ते वै पापकृतो न कश्चित्पश् यतीतिन: ।।
तांस्तु देवा: पप्रश्यन्ति स्वस्यै वान्तर पूरुष: ।।)
लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “जिस्समय कोई निकृष्ट प्रबृत्ति अत्यन्त प्रबल होकर धर्म्मप्रबृत्ति की रोक नहीं मान्ती उस्समय हम उस्की इच्छा पूरी करनेंके लिये पाप करते हैं परन्तु उस काम सै निवृत्ति होते ही हमारे मनमैं अत्यन्त ग्लानि होती है हमारी आत्मा हमको धिक्कारती है और लोक परलोकके भय सै चित्त बिकल रहता है जिस्नें अपनें अधर्म्म सै किसी का सुख हर लिया है अथवा स्वार्थपरता के बसवर्ती होकर उपकार के बदले अपकार किया है, अथवा छल बलसै किसी का धर्म्म भ्रष्ट कर दिया है, जो अपनें मन मैं समझता है कि मुझसे फलानें का सत्यानाश हुआ, अथवा मेरे कारण फलानें के निर्मल कुल मैं कलंक लगा, अथवा संसार मैं दु:ख के सोते इतनें अधिक हुए मैं उत्पन्न न हुआ होता तो पृथ्वी पर इतना पाप कम होता, केवल इन बातों की याद उस्का हृदय विदीर्ण करनें के लिये बहुत है और जो मनुष्य ऐसी अवस्था मैं भी अपनै मनका समाधान रख सकै उस्को मैं बज्रहृदय समझता हूँ जिस्नें किसी निर्धन मनुष्य के साथ छल अथवा विश्वासघात करके उस्की अत्यन्त दुर्दशा की है उस्की आत्मग्लानि और आंतरिक दु:ख का बरणन् कोन कर सक्ता है ? अनेक प्रकार के भोगविलास करनेंवालों को भी समय पाकर अवश्य पछतावा होता है। जो लोग कुछ काल श्रद्धा और यत्नपूर्वक धर्म्मका आनन्द लेकर इस दलदल मैं फस्ते हैं उन्सै आत्मग्लानि और आंतरिक दाहका क्लेश पूछना चाहिये।”
“टरकी का खलीफ़ा मौन्तासर अपनें बापको मरवाकर उस्के महल का कीमती सामान देख रहा था उस्समय एक उम्दा तस्वीर पर उस्की दृष्टि पड़ी जिस्मैं एक सुशोभित तरुण पुरुष घोड़े पर सवार था और रत्नजटित “ताज” उस्के सिर पर शोभायमान था। उस्के आसपास फारसी मैं बहुतसी इबारत लिखी थी ख़लीफ़ा नें एक मुन्शी को बुलाकर वह इबारत पढ़वाई। उस्मैं लिखा था कि “मैं सीरोज़ खुसरोका बेटा हूँ मैंनें अपनें बापका ताज़ लेनेंके वास्तै उसे मरवाडाला पर उस्के पीछें वह ताज मैं सिर्फ छ: महीनें अपनें सिर पर रखसका” यह बात सुन्तेही ख़लीफ़ा मौन्तासर के दिल पर चोट लगी और अपनें आंतरिक दु:खसै वह केवल तीन दिन राज करकै मर गया।”
“यह आत्मग्लानि अथवा आंतरिक क्लेश किसी नए पंछी को जाल मैं फसनैसै भलेही होता हो पुरानें खिलाड़ियों को तो इस्की ख़बर भी नहीं होती। संसार मैं इस्समय ऐसे बहुत लोग मौजूद हैं जो दूसरे के प्राण लेकर हाथ भी नहीं धोते” मास्टर शिंभूदयाल नें कहा।
“यह बात आपनें दुरूस्त कही। नि:संदेह जो लोग लगातार दुष्कर्म करते चलेजाते हैं और एक अपराधी सै बदला लेनें के लिये आप अपराधी बनजाते हैं अथवा एक दोष छिपानें के लिये दूसरा दूषितकर्म करनें लगते हैं या जिन्को केवल अपनें मतलब सै ग़र्ज रहती है उन्के मन सै धीरे, धीरे अधर्म की अरुचि उठती जाती हैं” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे जैसे दुर्गन्ध मैं रहनें वाले मनुष्यों के मस्तक मैं दुर्गंध समा जाती है तब उन्को वह दुर्गंध नहीं मालूम होती अथवा बार, बार तरवार को पत्थर पर मारनें सै उस्की धार अपनें आप भोंटी हो जाती है इसी तरह ऐसे मनुष्यों के मन सै अभ्यास बस अधर्म की ग्लानि निकल कर उन्के मन पर निकृष्टप्रबृत्तियों का पूरा अधिकार हो जाता है। बिदुरजी कहते हैं “तासों पाप न करत बुध किये बुद्धि कौ नाश ।।बुद्धि नासते बहुरि नर पापै करत प्रकाश ।।33
(33तस्मात् पापं न कुर्वीत पुरुष: शसितव्रत ।।
पापं प्रज्ञां नाशयति क्रियमार्ण पुन: पुन: ।।
वेदात्यागश्चयज्ञाथ नियमाश्च तपांसिच ।।
नविप्रभावदुष्टस्य सिद्धि गच्छन्ति कर्हिचित् ।।)
यह अवस्था बड़ी भयंकर है सन्निपात के समान इस्सै आरोग्य होनें की आशा बहुत कम रहती हैं। ऐसी अवस्था मैं निस्सन्देह शिंभूदयाल के कहनें मूजब उन्को अनुचित रीति सै अपनी इच्छा पूरी करनें मैं सिवाय आनन्द के कुछ पछतावा नहीं होता परन्तु उन्कों पछतावा हो या न हो ईश्वर के नियमानुसार उन्हैं अपनें पापों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। मनुस्मृति मैं लिखा है “बेद, यज्ञ, तप, नियम अरु बहुत भांति के दान ।। दुष्ट हृदय को जगत मैं करत न कुछ कल्यान।। 34
(34अकस्मा देव कुप्यंति प्रसीदंत्यंनिमित्तज्ञ: ।।
शीलमेतदसाधूनामभ्रं पारिप्लवं यथा ।।)
“ऐसे मनुष्यों को समाज की तरफ़ सै, राज की तरफ़ सै अथवा ईश्वर की तरफ़ सै अवश्य दंडमिल्ता है और बहुधा वह अपना प्राण देकर उस्सै छुट्टी पाते हैं इसलिये सुख-दु:खका आधार इच्छा फल की प्राप्ति पर नहीं बल्कि सत्कर्म और दुष्कर्म पर है।
इस्तरह अनेक प्रकार की बातचीत करते हुए लाला मदनमोहन की बग्गी मकान पर लौटआई और लाला ब्रजकिशोर वहां सै रुख़सत होकर अपनें घर गए।
प्रकरण-13 : बिगाड़का मूल-बिवाद
कोपैबिन अपराध । रीझै बिन कारन जुनर ।।
ताकोज्ञील असाध । शरदकालके मेघ जों ।।
बिदुरप्रजागरे।
लाला मदनमोहन हवा खाकर आए उस्समय लाला हरकिशोर साठन की गठरी लाकर कमरे मैं बैठे थे।
“कल तुमनें लाला हरदयाल साहब के साम्ने बड़ी ढिठाई की परन्तु मैं पुरानी बातोंका बिचार करके उस्समय कुछ नहीं बोला” लाला मदनमोहन नें कहा।
“आपनें बड़ी दया की पर अब मुझको आपसै एकान्त मैं कुछ कहना है, अवकाश हो तो सुन लीजिये” लाला हरकिशोर बोले।
“यहां तो एकांत ही है तुमको जो कुछ कहना हो निस्सन्देह कहो” लाला मदनमोहन नें जवाब दिया।
“मुझको इतना ही कहना है कि मैंनें अब तक अपनी समझ मुजिब आपको अप्रसन्न करनें की कोई बात नहीं की परन्तु मेरी सब बातें आपको बुरी लगती हैं तो मैं भी ज्याद: आवा जाई रखनें मैं प्रसन्न नहीं हूँ। किसी नें सच कहा है “जब तो हम गुल थे मियां लगते हजारों के गले ।। अब तो हम खार हुए सब सै किनारे ही भले ।।” संसार मैं प्रीति स्वार्थ परता का दूसरा नाम है। समय निकले पीछै दूसरे सै मेल रखनें की किसी को क्या गरज़ पड़ी है ? अच्छा ! महरबानी करके मेरे माल की कीमत मुझको दिलवा दें” हरकिशोर नें रूखाई सै कहा।
“क्या तुम कीमत का तकाजा करके लाला साहब को दबाया चाहते हो ?” मुन्शी चुन्नीलाल बोले।
“हरगिज़ नहीं मेरी क्या मजाल ?” हरकिशोर कहनें लगे – “सब जान्ते हैं कि मेरे पास गांठ की पूंजी नहीं है, मैं जहां तहां सै माल लाकर साहब के हुक्म की तामील कर देता था परन्तु अबकी बार रुपे मिलनें मैं देर हुई। कई एकरार झूठै हो गए इसलिये लोगों का विश्वास जाता रहा अब आज कल मैं उन्के माल की कीमत उन्के पास न पहुँचेगी तो वे मेरे ऊपर नालिश कर देंगे और मेरी इज्जत धूल मैं मिल जायगी।”
“तुम कुछ दिन धैर्य धरो तुम्हारे रुपे का भुगतान हम बहुत जल्दी कर देंगे” लाला मदनमोहन नें कहा।
जब मेरे ऊपर नालिश हो गई और मेरी साख जाती रही तो फ़िर रुपे मिलनें सै मेरा क्या काम निकला ? “देखो अवसर को भलो जासों सुधरे काम । खेती सूखे बरसवो धन कौ निपट निकाम ।।” मैं जानाता हूँ कि आप को अपनें कारण किसी गरीब की इज्जत मैं बट्टा लगाना हरगिज मंजूर न होगा” लाला हरकिशोर नें कुछ नरम पड़कर कहा।
“तुम्हारा रुपया कहां जाता है ? तुम जरा धैर्य रक्खो। तुमनें यहां सै बहुत कुछ फायदा उठाया है, फ़िर अबकी बार रुपे मिलनें मैं दो, चार दिनकी देर हो गई तो क्या अनर्थ हो गया ? तुमको ऐसा कड़ा तक़ाज़ा करनें मैं लाज नहीं आती ? क्या संसार सै मेल मुलाहजा बिल्कुल उठगया ?” मुन्शी चुन्नीलाल नें कहा।
“मैंभी इसी चारा बिचार मैं हूँ” हरकिशोर नें जवाब दिया “मैं तो माल देकर मोल चाहता हूँ। ज़रुरत के सबब सै तक़ाज़ा करता हूँ पर न जानें और लोगों को क्या होगया जो बेसबब मेरे पीछै पड़ रहे हैं ? मुझसै उन्को बहुत कुछ लाभ हुआ होगा परन्तु इस्समय वे सब ‘तोता चश्म’ होगए। उन्हीं के कारण मुझको यह तक़ाजा करना पड़ता है। जो आजकल मैं मेरे लेनदारोंका रुपया न चुका, तो वे निस्सन्देह मुझपर नालिश कर देंगे और मैं ग़रीब, अमीरोंकी तरह दबाव डालकर उन्को किसी तरह न रोक सकूंगा ?
“तुम्हारी ठगविद्या हम अच्छी तरह जान्ते हैं, तुम्हारी जिद सै इस्समय तुमको फूटी कौड़ी न मिलेगी, तुम्हारे मन मैं आवे सो करो।” मुन्शी चुन्नीलाल नें कहा।
“जनाब जबान सम्हाल कर बोलिये। माल देकर कीमत मांगना ठगविद्या है ?” गिरधर सच कहता है “साईं नदी समुद्रसों मिली बड़प्पन जानी ।। जात नास भयो आपनो मान महत की हानि ।। मान महत की हानि कहो अब कैसी कीजै ।। जलखारी ह्यै गयो ताहि कहो कैसैं पीजै ।। कह गिरधर कबिराय कच्छ मच्छ न सकुचाई ।। बड़ो फ़जीहत चार भयो नदियन को साईं ।।”
“बस अब तुम यहां सै चल दो। ऐसे बाजारू आदमियोंका यहां कुछ काम नहीं है” मास्टर शिंभूदयाल नें कहा।
“मैंनें किसी अमीर के लड़केको बहका कर बदचलनी सिखाई ? या किसी अमीर के लड़केको भोगबिलास मैं डाल कर उस्की दौलत ठग ली जो तुम मुझे बाजारू आदमी बताते हो ?”
“तुम कपड़ा बेचनें आएहो या झगड़ा करनें आएहो ?” मुन्शी चुन्नीलाल पूछनें लगे।
“न मैं कपड़ा बेचनें आया न मैं झगड़ा करनें आया। मैंतो अपना रुपया वसूल करनें आया हूँ। मेरा रुपया मेरी झोली मैं डालिये फ़िर मैं यहां क्षण भर न ठैरूंगा”
“नहीं जी, तुमको जबरदस्ती यहां ठैरनें का कुछ अखत्यार नहीं है, रुपे का दावा हो तो जाकर अदालत मैं नालिश करो।” मास्टर शिंभूदयाल बोले।
“तुम लोग अपनी गलीके शेरहो- यहां चाहे जो कहलो परन्तु अदालत मैं तुम्हारी गीदड़ भपकी नहीं चल सक्ती। तुम नहीं जान्ते कि ज्याद: घिस्नें पर चंदन सै भी आग निकलती है। अच्छे आदमी को ख़ातर शिष्टाचारी सै चाहे जितना दबालो परन्तु अभिमान और धमको सै वह क़भी नहीं दबता”
“तो क्या तुम हमको इन बातों सै दबा लोगे ?” लाला मदनमोहन नें त्योरी चढ़ाकर कहा।
“नहीं साहब, मेरा क्या मकदूर है ? मैं ग़रीब, आप अमीर। मुझको दिनभर रोज़गार धंधा करना पड़ता है, आपका सबदिन हँसी दिल्लगी की बातों मैं जाता है। मैं दिनभर पैदल भटकता हूँ, आप सवारी बिना एक कदम नहीं चल्ते। मेरे रहनें की एक झोंपड़ी, आप के बड़े बड़े महल। मुल्क मैं अकालहो, ग़रीब बिचारे भूखों मरतेहों, आप के यहां दिन रात ये ही हाहा, हीहो, रहैगी। सच है आप पर उन्का क्या हक़ है ? उन्सै आपका क्या सम्बन्ध है ? परमेश्वर नें आपको मनमानी मोज करनें के लिये दौलत देदी फ़िर औरों के दु:ख दर्द मैं पड़नें की आपको क्या ज़रूरत रही ? आपके लिये नीति अनीति की कोई रोक नहीं है आप-“
“क्यों जी ! तुम अपनी बकवाद नहीं छोड़ते-अच्छा जमादार इन्को हाथ पकड़ कर यहां सै बाहर निकालदो और इन्की गठरी उठाकर गलीं में फेंकदो” मुन्शी चुन्नीलाल नें हुक्म दिया।
“मुझको उठानें की क्या जरुरत है ? मैं आप जाता हूँ परन्तु तुमनें बेसबब मेरी इज्ज़त ली है इस्का परिणाम थोड़े दिन मैं देखोगे। जिस तरह राजा द्रुपद नें बचपन मैं द्रोणाचार्य सै मित्रता करके राज पानें पर उन्का अनादर किया तब द्रोणाचार्य नें कौरव पांडवों को चढ़ा ले जाकर उस्की मुश्कें बंधवा ली थीं और चाणक्यनें अपनें अपमान होनें पर नन्दबंश का नाश करके अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर दिखाई थी। पृथ्वीराज नें संयोगता के बसवर्ती होकर चन्द और हाहुली राय को लोंडियों के हाथ पिटवाया तब हाहुली राय नें उस्का बदला पृथ्वीराज सै लिया था, इसी तरह परमेश्वर नें चाहा तो मैं भी इस्का बदला आपसै लेकर रहूँगा” यह कहक़र हरकिशोर नें तत्काल अपनी गठरी उठाली और गुस्सै मैं मूछोंपर ताव देता चला गया।
“ये बदला लेंगे ! ऐसे बदला लेनेंवाले सैकड़ों झकमारते फ़िरते हैं” हरकिशोर के जाते ही मुन्शी चुन्नीलाल नें मदनमोहन को दिलासा देनें के लिये कहा।
“जो यौं किसी के बैर भाव सै किसी का नुक्सान होजाया करै तो बस संसार के काम ही बन्द होजायं” मास्टर शिंभूदयाल बोले।
“सूर्य चंद्रमा की तरफ़ धूल फैंकनें वाले अपनेंही सिर पर धूल डालते हैं” पंडित पुरुषोत्तमदास नें कहा। पर इनबातों सै लाला मदनमोहन को संतोष न हुआ।
“मैं हरकिशोर को ऐसा नहीं जान्ता था, वह तो आज आपे सै बाहर होगए। अच्छा ! अब वह नालिश कर दैं तो उन्की जवाब दिही किस तरह करनी चाहिये ? मैं चाहता हूँ कि चाहे जितना रुपया खर्च होजाय परन्तु हरकिशोर के पल्लै फूटी कौड़ी न पड़े” लाला मदनमोहन नें अपनें स्वभावानुसार कहा।
मदनमोहन के निकटबर्ती जान्ते थे कि मदनमोहन जैसे हठीले हैं वैसे ही कमहिम्मत हैं, जिस्समय उन्को किसी तरह का घबराहट हो हरेक आदमी दिलजमई की झूंटी सच्ची बातैं बना कर उन्को अपनें काबू पर चढ़ा सक्ता है और मन चाहा फायदा उठासक्ता है इस लिये अब चुन्नीलाल नें वह चाल डाली।
“यह मुकद्दमा क्या चीज है ! ऐसे सैंकड़ों मुकद्दमें आपके पुन्य प्रताप सै चुटकियों मैं उड़ा सक्ता हूँ परन्तु इस्समय मेरे चित्त को जरा उद्वेग होरहा है इसी सै अकल काम नहीं देती” मुन्शी चुन्नीलाल नें कहा।
“क्यों तुम्हारे चित्त के उद्वेग का क्या कारण है ? क्या हरकिशोर की धमकी सै डर गए ? ऐसा हो तो विश्वास रक्खो कि मेरी सब दौलत खर्च होजायगी तो भी तुम्हारे ऊपर आंच न आनें दूंगा” लाला मदनमोहन नें कहा।
“नहीं, महाराज ! ऐसी बातोंसै मैं कब डरता हूँ ? और आपके लिये जो तकलीफ मुझको उठानी पड़े उस्मैं तो और मेरी इज्जत है। आपके उपकारोंका बदला मैं किस तरह नहीं दे सक्ता, परन्तु लड़कीके ब्याहके दिन बहुत पास आ गये, तयारी अबतक कुछ नहीं हुई, ब्याह आपकी नामवरीके मूजिब करना पड़ेगा, इस्सै इन दिनों मेरी अकल कुछ गुमसी हो रही है” मुन्शी चुन्नीलालनें कहा।
“तुम धैर्य रक्खो तुम्हारी लड़कीके ब्याहका सब खर्च हम देंगे” लाला मदनमोहन नें एकदम हामी भर ली।
“ऐसी सहायता तो इस सरकार सै सब को मिलती ही है परन्तु मेरी जीविका का वृत्तान्त भी आप को अच्छी तरह मालूम है और घर का गृहस्थका खर्च भी आपसै छिपा नहीं है, भाई खाली बैठे हैं जब आपके यहांसै कुछ सहायता होगी तो ब्याहका काम छिड़ैगा कपड़े लत्ते वगैरे की तैयारी मैं महीनों लगते हैं” मुन्शी चुन्नीलालनें कहा।
“लो; ये दो सौ रुपेके नोट लेकर इस्समय तो काम चल्ता करो, और बातोंके लिये बंदोबस्त पीछेसै कर दिया जायगा” लाला मादनमोहननें नोट देकर कहा।
“जी नहीं हुजूर ! ऐसी क्या जल्दी थी” मुन्शी चुन्नीलाल नोट जेब मैं रखकर बोले,
“यह भी अच्छी बिद्या है” पंडितजीनें भरमा भरमी सुनाई।
“मैं जान्ता हूँ कि प्रथम तो हरकिशोर नालिश ही नहीं करेंगे और की भी तो दमभर मैं खारिज कर दी जायगी” मुन्शी चुन्नीलालनें कहा।
निदान लाला मदनमोहन बहुत देरतक इस प्रकारकी बातों सै अपनी छातीका बोझ हल्का करके भोजन करनें गए और गुपचुप बैजनाथके बुलानेंके लिये एक आदमी भेज दिया।
प्रकरण-14 : पत्रव्यवहार
अपनें अपनें लाभकों बोलतबैन बनाय
वेस्या बरस घटावही, जोगी बरस बढ़ाय।
बृन्द।
लाला मदनमोहन भोजन करके आए उस्समय डाकके चपरासीनें लाकर चिट्ठीयां दीं।
उन्मैं एक पोस्टकार्ड महरोलीसै मिस्टर बेलीनें भेजा था। उस्मैं लिखा था कि “मेरा बिचार कल शामको दिल्ली आनेंका है आप महरबानी करके मेरे वास्तै डाकका बंदोबस्त कर दें और लोटती डाकमैं मुझको लिख भेजैं” लाला मदनमोहननें तत्काल उस्का प्रबंध कर दिया।
दूसरी चिट्ठी कलकत्ते सै हमल्टीन कंपनी जुएलर (जोहरी) की आई थी उस्मैं लिखा था “आपके आरडरके बमूजिब हीरोंकी पाकट चेन बनकर तैयार हो गई है, एक दो दिनमैं पालिश करके आपके पास भेजी जायगी और इस्पर लागत चार हजार अंदाज रहैगी। आपनें पन्नेकी अंगूठी और मोतियोंकी नेकलेसके रुपे अब तक नहीं भेजे सो महरबानी करके इन तीनों चीजोंके दाम बहुत जल्द भेज दीजिये”
तीसरा फारसी ख़त अल्लीपूरसे अब्दुर्रहमान मेटका आया था। उस्मैं लिखा था कि “रुपे जल्दी भेजिये नहीं तो मेरी आबरूमैं फर्क आ जायगा और आपका बड़ा हर्ज होगा। कंकरवाले का रुपया बहुत चढ़ गया इस लिये उस्नें खेप भेजनी बंद कर दी। मज्दूरोंका चिट्ठा एक महीनेंसै नहीं बंटा इस लिये वह मेरी इज्जत लिया चाहते हैं, इस ठेके बाबत पांच हजार रुपे सरकारसै आपको मिलनें वाले थे वह मिले होंगे, महरबानी करके वह कुल रुपे यहां भेज दीजिये जिस्सै मेरा पीछा छूटे। मुझको बड़ा अफसोस है कि इस ठेकेमैं आपको नुक्सान रहैगा परन्तु मैं क्या करूं ? मेरे बसकी बात न थी। जमीन बहुत ऊंची नीची निकली, मज्दूर दूर, दूरसै दूनी मज्दूरी देकर बुलानें पड़े, पानी का कोसों पता न था मुझसै हो सका जहांतक मैंनें अपनी जान लड़ाई, खैर इस्का इनाम तो हुजूर के हाथ है परन्तु रुपे जल्दी भेजिये, रुपयों के बिना यहांका काम घड़ी भर नहीं चल सक्ता”
लाला मदनमोहन नोकरोंको काम बतानें, और उन्की तन्ख्वाहका खर्च निकालनेंके लिये बहुधा ऐसे ठेके वगैरा ले लिया करते थे। नोकरोंके विषयमैं उन्का बरताव बड़ा बिलक्षण था, जो मनुष्य एक बार नोकर हो गया वह हो गया। फ़िर उस्सै कुछ काम लिया जाय या न लिया जाय। उस्के लायक कोई काम हो या न हो। वह अपना काम अच्छी तरह करे या बुरी तरह करे, उस्के प्रतिपालन करनेंका कोई हक़ अपनें ऊपर हो या न हो, वह अलग नहीं हो सक्ता और उस्पर क्या है ? कोई खर्च एक बार मुकर्रर हुए पीछै कम नहीं हो सक्ता, संसारके अपयश का ऐसा भय समा रहा है कि अपनी अवस्थाके अनुसार उचित प्रबंध सर्वथा नहीं होनें पाता। सब नोकर सब कामोंमैं दखल देते हैं परन्तु कोई किसी कामका जिम्मेवार नहीं है, और न कोई संभाल रखता है, मामूली तनख्वाह तो उन लोगों नें बादशाही पेन्शन समझ रक्खी है, दस पंदरह रुपे महीनेंकी तनख्वाहमैं हजार पांच सो रुपे पेशगी ले रखना, दो, चार हजार पैदा कर लेना कौन बड़ी बात है ? पांच रुपे महीनेंके नोकर हों, या तीन रुपे महीनेंके नोकर हो विवाह आदिका खर्च लाला साहब के जिस्में समझते हैं, और क्यों न समझें ? लाला साहब की नोकरी करें तब विवाह आदिका खर्च लेनें कहां जायं ? मदत का दारोगा मदत मैं, चीजबस्त लानें वाले चीजबस्त मैं, दुकान के गुमाश्ते दुकान मैं, मनमाना काम बनारहे हैं जिसनें जिसकाम के वास्तै जितना रुपया पहले ले लिया वह उस्के बाप दादे का होचुका, फ़िर हिसाब कोई नहीं पूछता। घाटे नफे और लेन देन की जांच परताल करनें के लिये कागज कोई नहीं देखता। हाल मैं लाला मदनमोहन नें अपनें नोकरों के प्रतिपालन के लिये अल्लीपुर रोड का ठेका ले रक्खा था जिस्मैं सरकार सै ठेका लिया उस्सै दूनें रुपे अब तक खर्च हो चुके थे पर काम आधा भी नहीं बना था और खर्च के वास्तै वहां सै ताकीद पर ताकीद चली आती थी परमेश्वर जानें अब्दुर्रहमान को अपनें घर खर्चके वास्तै रुपे की ज़रूरत थी या मदद के वास्तै रुपे की ज़रूरत थी।
चोथा खत एक अखबार के एडीटर का था। उस्मैं लिखा था कि “आपनें इस महीनें की तेरहवीं तारीख का पत्र देखा होगा, उस्मैं कुछ वृत्तान्त आपका भी लिखा गया है। इस्समय के लोगों को खुशामद बहुत प्यारी हैं और खुशामदी चैन करते हैं परन्तु मेरा यह काम नहीं। मैंनें जो कुछ लिखा वह सच, सच लिखा है, आप से बुद्धिमान, योग्य, सच्चे, अभिज्ञ, उदार और देशहितैषी हिन्दुस्थान मैं बहुत कम हैं इसी सै हिन्दुस्थान की उन्नति नहीं होती, विद्याभ्यास के गुण कोई नहीं जान्ता, अखबारों की कदर कोई नहीं करता, अखबार जारी करनें वालों को नफेके बदले नुक्सान उठाना पड़ता है। हम लोग अपना दिमाग खिपा कर देश की उन्नति के लिये आर्टिकल लिखते हैं। परन्तु अपनें देश के लोग उस्की तरफ़ आंख उठाकर भी नहीं देखते इस्सै जी टूटा जाता है। देखिये अखबार के कारण मुझ पर एक हजार रुपे का कर्ज होगया और आगे को छापे खानें का खर्च निकालना भी बहुत कठिन मालूम होता है। प्रथम तो अखबार के पढ़नेंवाले बहुत कम, और जो हैं उन्मैं भी बहुधा कारस्पोन्डेन्ट बनकर बिना दाम दिये पत्र लिया चाहते हैं और जो गाहक़ बनते हैं उन्मैं भी बहुधा दिवालिये निकल जाते हैं। छापेखानें का दो हजार रुपया इस्समय लोगों मैं बाकी है परन्तु फूटी कौड़ी पटनें का भरोसा नहीं। कोई आपसा साहसी पुरुष देश का हित बिचार कर इस डूबती नाव को सहारा लगावे तो बेड़ा पार होसक्ता है नहीं तो खैर जो इच्छा परमेश्वर की।”
एक अखबार के एडीटर की इस लिखावट सै क्या, क्या बातें मालूम होती हैं ? प्रथम तो यह है कि हिन्दुस्थान मैं बिद्या का, सर्व साधारण की अनुमति जान्नें का, देशान्तर के वृत्तान्त जान्नें का, और देशोन्नति के लिये देश हितकारी बातों पर चर्चा करनें का व्यसन अभी बहुत कम है। बलायत की आबादी हिन्दुस्थान की आबादी सै बहुत ही थोड़ी है तथापि वहां अखबारों की इतनी बृद्धि है कि बहुत से अखबारों की डेढ़, डेढ़ दो, दो लाख कापियां निकलती हैं। वहां के स्त्री, पुरुष, बूढ़े, बालक, गरीब, अमीर, सब अपनें देश का वृत्तान्त जान्ते हैं और उस्पर वाद-विवाद करते हैं। किसी अखबार मैं कोई बात नई छपती है तो तत्काल उस्की चर्चा सब देश मैं फैल जाती हैं और देशान्तर को तार दौड़ जाते हैं। परन्तु हिन्दुस्थान मैं ये बात कहां ? यहां बहुत से अखबारों की पूरी दो, दो सौ कापियां भी नहीं निकलतीं ! और जो निकलती हैं उन्मैं भी जान्नें के लायक बातैं बहुत ही कम रहती हैं क्योंकि बहुतसे एडीटर तो अपना कठिन काम सम्पादन करनें की योग्यता नहीं रखते और बलायत की तरह उन्को और बिद्वानों की सहायता नहीं मिल्ती, बहुतसे जान बूझकर अपना काम चलानें के लिये अजान बनजाते हैं इस लिये उचित रीति सै अपना कर्तव्य सम्पादन करनें वाले अखबारों की संख्या बहुत थोड़ी है पर जो है उस्को भी उत्तेजन देनें वाला और मन लगाकर पढ़नें वाला कोई नहीं मिल्ता। बड़े, बड़े अमीर, सौदागर, साहूकार, जमींदार, दस्तकार, जिन्की हानि लाभ का और देशों सै बड़ा सम्बन्ध है वह भी मन लगाकर अखबार नहीं देखते बल्कि कोई, कोई तो अखबार के एडीटरों को प्रसन्न रखनें के लिये अथवा गाहकों के सूचीपत्र मैं अपना नाम छपानें के लिये अथवा अपनी मेज को नए, नए अखबारों सै सुशोभित करनें के लिये अथवा किसी समय अपना काम निकाललेनें के लिये अखबार खरीदते हैं ! जिस्पर अखबार निकालनेंवालों की यह दशा है ! लाला मदनमोहन इस खत को पढ़ कर सहायता करनें के लिये बहुत ललचाये परन्तु रुपे की तंगी के कारण तत्काल कुछ न कर सके।
“हुजूर ! मिस्टर रसलके पास रुपे आज भेजनें चाहियें” मुन्शी चुन्नीलाल नें डाक देख पीछै याद दिवाई।
“हां ! मुझको बहुत खयाल है परन्तु क्या करूं ? अबतक कोई बानक नहीं बना” लाला मदनमोहन बोले।
“थोड़ी बहुत रकमतो मिस्टर ब्राइट के यहां भी ज़रूर भेजनी पड़ेगी” मास्टर शिंभूदयाल नें अवसर पाकर कहा।
“हां और हरकिशोर नें नालिश करदी तो उस्सै जवाब दिही करनें के लिये भी रुपे चाहियेंगे” लाला मदनमोहन चिंता करनें लगे।
“आप चिन्ता न करें, जोतिष सै सब होनहार मालूम हो सक्ता है। चाणक्य नें कहा है “का ऐश्वर्य बिशाल मैं का मोटेदुख पाहिं । रस्सी बांध्यो होय जों पुरुष दैव बस माहिं ।।”35
(35ऐश्वर्यें वासुविरतीर्णे व्यसनें वापि दारुणे ।।
रज्जेव पुरुषो बद्ध: क्वतांतेनोपनीयते ।।)
इस लिये आपको कुछ आगे का बृतान्त जान्ना हो तो आप प्रश्न करिये, जोतिष सै बढ़कर होनहार जान्नें का कोई सुगम मार्ग नहीं है” पंडित पुरुषोत्तमदास नें लाला मदनमोहन को कुछ उदास देख कर अपना मतलब गांठनें के लिये कहा।वह जान्ता था कि निर्बल चित्त के मनुष्य सुखमैं किसी बात की गर्ज नहीं रखते परन्तु घबराहट के समय हर तरफ़ को सहारा तकते फ़िरते हैं।
“बिद्या का प्रकाश प्रतिदिन फैल्ता जाता है इसलिये अब आपकी बातों मैं कोई नहीं आवेगा” मास्टर शिंभूदयालनें कहा।
“यह तो आजकलके सुधरे हुओं की बात है परन्तु वे लोग जिस बिद्याका नाम नहीं जान्ते उस्मैं उन्की बात कैसे प्रमाण हो ?” पंडितजीनें जवाब दिया।
“अच्छा आप करेलेके सिवा और क्या जान्ते हैं ? आपको मालूम है कि नई तहकीकात करनें वालोंनें कैसी, कैसी दूरबीनें बनाकर ग्रहोंका हाल निश्चय किया है ?” मास्टर शिंभूदयाल बोले।
“किया होगा, परन्तु हमारे पुरुखोंनें भी इस विषयमैं कुछ कसर नहीं रक्खी” पंडित पुरुषोत्तमदास कहनें लगे। “इस समय के बिद्वानोंनें बड़ा खर्च करके जो कलें ग्रहों का बृतान्त निश्चय करनें के लिये बनाई हैं हमारे बड़ों नें छोटी, छोटी नालियों और बांसकी छड़ियों के द्वारा उन्सै बढ़कर काम निकाला था। संस्कृत की बहुतसी पुस्तकें अब नष्ट हो गईं, योगाभ्यास आदि बिद्याओं का खोज नहीं रहा परन्तु फ़िर भी जो पुस्तकें अब मौजूद हैं उन्मैं ढूंढ़नें वालों के लिये कुछ थोड़ा ख़जाना नहीं है। हां आप की तरह कोई कुछ ढूंढ़भाल करे बिना दूर ही सै “कुछ नहीं” “कुछ नहीं” कहक़र बात उड़ा दे तो यह जुदी बात है”
“संस्कृत बिद्या की तो आजकल के सब बिद्वान एक स्वर होकर प्रशंसा करते हैं परन्तु इस्समय जोतिष की चर्चा थी सो निस्सन्देह जोतिष मैं फलादेश की पूरी बिध नहीं मिल्ती शायद बतानेंवालों की भूल हो। तथापि मैं इस विषय मैं किसी समय तुमसै प्रश्न करूंगा और तुम्हारी बिध मिल जायगी तो तुम्हारा अच्छा सत्कार किया जायगा” लाला मदनमोहन नें कहा और यह बात सुनकर पंडितजी के हर्ष की कुछ हद न रही।
प्रकरण-15 : प्रिय अथवा पिय् ?
दमयन्ति बिलपतहुती बनमैं अहि भयपाइ
अहिबध बधिक अधिक भयो ताहूते दुखदाइ
नलोपाख्याने।
“ज्योतिष की बिध पूरी नहीं मिल्ती इसलिये उस्पर बिश्वास नहीं होता परन्तु प्रश्न का बुरा उत्तर आवे तो प्रथम हीसै चित्त ऐसा व्याकुल हो जाता है कि उस काम के अचानक होंनें पर भी वैसा नहीं होता, और चित्त का असर ऐसा प्रबल होता है कि जिस वस्तु की संसार मैं सृष्टि ही न हो वह भी वहम समाजानें सै तत्काल दिखाई देनें लगती है। जिस्पर जोतिषी ग्रहों को उलट पुलट नहीं कर सक्ते, अच्छे बुरे फल को बदल नहीं सक्ते, फ़िर प्रश्न करनें सै लाभ क्या ? कोई ऐसी बात करनी चाहिये जिस्सै कुछ लाभ हो” मुन्शी चुन्नीलाल नें कहा।
“आप हुक्म दें तो मैं कुछ अर्ज करूं ?” बिहारी बाबू बहुत दिन सै अवसर देख रहे थे वह धीरे सै पूछनें लगे।
“अच्छा कहो” मुन्शी चुन्नीलाल नें मदनमोहन के कहनें सै पहले ही कह दिया।
“भोजला पहाड़ी पर एक बड़े धनवान जागीरदार रहते हैं। उन्को ताश खेलनें का बड़ा व्यसन है। वह सदा बाजी बद कर खेल्ते हैं और मुझको इस खेल के पत्ते ऐसी राह सै लगानें आते हैं कि जब खेलैं तब अपनी ही जीत हो। मैंनें उन्को कितनी ही बार हरादिया इसलिये अब वह मुझको नहीं पतियाते परन्तु आप चाहैं तो मैं वह खेल आपको सिखा दूं फ़िर आप उन्सै निधड़क खेलैं। आप हार जायंगे तो वह रकम मैं दूंगा और जीतें तो उस्मैं सै मुझको आधी ही दें” बिहारी बाबू नें जुए का नाम छिपा कर मदनमोहन को आसामी बनानें के वास्ते कहा।
“जीतेंगे तो चौथाई देंगे, परन्तु हारनें केलिये रक़म पहले जमा करा दो” मुन्शी चुन्नीलाल मदनमोहन की तरफ़ सै मामला करनें लगें।
“हारनें के लिये पहले पांच सौ की थैली अपनें पास रख लीजिये परन्तु जीत मैं, आधा हिस्सा लूंगा” बिहारी बाबू हुज्जत करनें लगे।
“नहीं, जो चुन्नीलाल नें कह दिया वह हो चुका, उस्सै अधिक हम कुछ न देंगे” लाला मदनमोहन नें कहा।
और बड़ी मुश्किल सै बिहारी बाबू उस्पर कुछ, कुछ राजी हुए परन्तु सौभाग्य बस उस्समय बाबू बैजनाथ आ गए इस्सै सब काम जहां का तहां अटक गया।
“बिहारी बाबू सै किस बात का मामला हो रहा है ?” बाबू बैजनाथ नें पहुँचते ही पूछा।
“कुछ नहीं, यह तो ताश के खेल का जिक्र था” मुन्शी चुन्नीलाल नें साधारण रीति सै कहा।
बिहारी बाबू कहते हैं कि “मैं पत्ते लगानें सिखा दूं जिस्तरह पत्ते लगाकर आप एक धनवान जागीरदार सै ताश खेलैं, और बाजी बद लें। जो हारेंगे तो सब नुक्सान मैं दूंगा। और जीतेंगे तो उस्मैं सै चौथाई ही मैं लूंगा” लाला मदनमोहन नें भोले भाव सै सच्चा वृत्तान्त कह दिया।
“यह तो खुला जुआ है और बिहारी बाबू आपको चाट लगानें के लिये प्रथम यह सब्ज बाग दिखाते हैं” बाबू बैजनाथ कहनें लगे “जिस तरह सै पहलै एक मेवनें, आपको गड़ी दौलत का तांबेपत्र दिखाया था, और वह सब दौलत गुप चुप आपके यहां ला डालनें की हामी भरता था परन्तु आपसै खोदनें के बहानें सौ, पचास रुपे मार लेगया तब सै लौट कर सूरत तक न दिखाई ! आपको याद होगा कि आपके पास एक बदमाश स्याम का शाहजादा बनकर आया था, और उस्नें कहा था कि “मैं हिन्दुस्थान की सैर करनें आया हूँ मेरे जहाज़ नें कलकत्ते मैं लंगर कर रक्खा है मुझ को यहां खर्च की ज़रूरत है आप अपनें आढ़तिये का नाम मुझे बता दें मैं अपनें नोकरों को लिखकर उस्के पास रुपे जमा कर दूंगा जब उस्की इत्तला आप के पास आजाय तब आप रुपे मुझे देदें” निदान आप के आढ़तिये के नाम सै तार आप के पास आगया और आपनें रुपे उस्को दे दिये, परन्तु वह तार उन्हीं के किसी साथी नें आपके आढ़तिए के नाम सै आपको दे दिया था इसलिये यह भेद खुला उस्समय शाहज़ादे का पता न लगा ! एक बार एक मामला करानेंवाला एक मामला आपके पास लाया था जब उस्नें कहा था कि “सरकार मैं रसद के लिये लकड़ियों की खरीद है और तहसील मैं ढाई मन का भाव है। मैं सरकारी हुक्म आप को दिखा दूंगा आप चार मन के भाव मैं मेरी मारफ़त एक जंगलवाले की लकड़ी लेनी कर लें” यह कहक़र उस्नें तहसील सै निर्खनामे की दस्तख़ती नक़ल लाकर आपको दिखा दी पर उस भाव मैं सरकार की कुछ खरीददारी न थी ! इन्के सिवाय जिस्तरह बहुत से रसायनी तरह, तरह का धोखा देकर सीधे आदमियों को ठगते फ़िरते हैं इसी तरह यह भी जुआरी बनानें की एक चाल है, जिस काम मैं बे लागत और बे महनत बहुतसा फ़ायदा दिख़ाई दे उस्मैं बहुधा कुछ न कुछ धोकेबाज़ी होती है। ऐसे मामलेवाले ऊपर सै सब्जबाग दिखाकर भीतर कुछ न कुछ चोरी ज़रूर रखते हैं”
“बाबू साहब ! मैंनें जिस तरह राह सै ताश खेलनें के वास्ते कहा था वह हरगिज जुए मैं नहीं गिनी जा सकती परन्तु आप उस्को जुआ ही ठैराते हैं तो कहिये जुए मैं क्या दोष है ?” बिहारी बाबू मामला बिगड़ता देखकर बोले “दिवाली के दिनों मैं सब संसार जुआ खेल्ता है और असल मैं जुआ एक तरह का व्यापार है जो नुकसान के डर सै जुआ बर्जित हो तो और सब तरहके व्यापार भी बर्जित होनें चाहियें। और व्यापार मैं घाटा देनें के समय मनुष्य की नीयत ठिकानें नहीं रहती परन्तु जुए के लेन देन बाबत अदालत की डिक्री का डर नहीं है तोभी जुआरी अपना सब माल अस्बाब बेचकर लेनदारों की कौड़ी, कौड़ी चुका देता है। उस्के पास रुपया हो तो वह उस्के लुटानें मैं हाथ नहीं रोकता और अपनें काम मैं ऐसा निमग्न हो जाता है कि उसै खानें पीनें तक की याद नहीं रहती, उस्के पास फूटी कौड़ी न रहै तोभी वह भूखों नहीं मरता फडपर जातें ही जीते जुआरी दो, चार गंडे देकर काम अच्छी तरह चला देते हैं।”
“राम ! राम ! दिवाली पर क्या ? समझवार तो स्वप्न मैं भी जुए के पास नहीं जाते जुए सै व्यापार का क्या सम्बन्ध ? उस्की कुछ सूरत मिल्ती है तो बदनी सै मिल्ती है पर उस्को जुए से अलग कौन समझता है ? उस्को प्रतिष्ठित साहूकार कब करते हैं ? सरकार मैं उस्की सुनाई कहां होती है ? निरी बातों का जमा खर्च व्यापार मैं सर्वथा नहीं गिना जाता। व्यापार के तत्व ही जुदे हैं। भविष्यत काल की अवस्था पर दृष्टि पहुँचाना, परता लगाना, माल का खरीदना, बेचना या दिसावरको बीजक भेजकर माल मंगाना और माल भेजकर बदला भुगताना, व्यापार है परन्तु जुए में यह बातें कहां ? जुआ तो सब अधर्मों की जड़ है। मनु और बिदुरजी एक स्वर सै कहते हैं “सुनो पुरातन बात, जुआ कलह को मूल है ।। हाँसीहूँ मैं तात, तासों नहीं खेलैं चतुर।। “36
(36द्यूतमेत्तपुराकल्पे दृश्टं बैरकरम् महत ।।
तस्मात् द्यूतन्नसेवेत हास्यार्थमपि बुद्धिमान ।।)
बाबू बैजनाथ नें कहा।
“आप वृथा तेज होते हैं। मैं खुद जुए का तरफ़दार नहीं हूँ परन्तु विवाद के समय अच्छी, अच्छी युक्तियों सै अपना पक्ष प्रबल करना चाहिये। क्रोध करके गाली देनें सै जय नहीं होती। आप की दृष्टि मैं मैं झूंठा हूँ परन्तु मेरी सदुक्तियों को आप झूंठा नहीं ठैरा सक्ते। मुझ पर किस तरह का दोषारोपण किया जाय तो उस्को युक्ति पूर्वक साबित करना चाहिये और और बातों मैं मेरी भूल निकालनें सै क्या वह दोष साबित हो जायगा ?”
“जुए का नुक्सान साबित करनें के लिये विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ेगा। देखो नल और युधिष्ठिरादि की बरबादी इस्का प्रत्यक्ष प्रमाण है” बाबू बैजनाथ बोले।
“मैं आप सै कुछ अर्ज नहीं कर सक्ता परन्तु-“
“बस जी ! रहनें दो बाबू साहब कुछ तुम सै बहस करनें के लिये इस्समय यहां नहीं आए” यह कहक़र लाला मदनमोहन बाबू बैजनाथ को अलग लेगए और हरकिशोर की तकरार का सब वृतान्त थोड़े मैं उन्हैं सुना दिया।
“मैं पहले हरकिशोर को अच्छा आदमी समझता था। परन्तु कुछ दिन सै उस्की चाल बिल्कुल बिगड़ गई। उस्को आप की प्रतिष्ठा का बिल्कुल बिचार नहीं रहा और आज तो उस्नें ऐसी ढिठाई की कि उस्को अवश्य दंड होना चाहिये था सो अच्छा हुआ कि वह अपनें आप यहां सै चला गया, उस्के चले जानें सै उस्के सब हक़ जाते रहे। अब कुछ दिन धक्के खानें सै उस्की अकल अपनें आप ठिकानें आ जायगी”
“और उसनें नालिश कर दी तो ?” लाला मदनमोहन घबराकर बोले।
“क्या होगा ? उस्के पास सबूत क्या है ? उस्का गबाह कौन है ? वह नालिश करैगा तो हम क़ानूनी पाइन्ट सै उस्को पलट देंगे परन्तु हम जान्ते हैं कि यहांतक नोबत न पहुँचेगी अच्छा ! उस्के पास आप की कोई सनद है ?”
“कोई नहीं”
“तो फ़िर आप क्यों डरते हैं ? वह आप का क्या कर सक्ता है ?”
“सच है उस्को रुपे की गर्ज होगी तो वह नाक रगड़ता आप चला जायगा हम उस्के नीचे नहीं दबे वही कुछ हमारे नीचे दब रहा है”
“आप इस विषय मैं बिल्कुल निश्चिन्त रहैं”
“मुझको थोड़ासा खटका लाला ब्रजकिशोर की तरफ़ का है यह हरबात मैं मेरा गला घोटते हैं और मुझको तोतेकी तरह पिंजरे मैं बंद रक्खा चाहते हैं”
“वकीलों की चाल ऐसीही होती हैं। वह प्रथम धरती आकाशके कुल्लाबे मिलाकर अपनी योग्यता जताते हैं फ़िर दूसरे को तरह, तरह का डर दिखाकर अपना आधीन बनाते हैं और अन्त मैं आप उस्के घरबार के मालक बन बैठते हैं परन्तु चाहे जैसा फ़ायदा हो मैंतो ऐसी परतन्त्रता सै रहनें को अच्छा नहीं समझता”
“मेरा भी यही बिचार है मैं जोंजों दबता हूँ वह ज्याद: दबाते जाते हैं इसलिये अब मैं नहीं दबा चाहता”
“आपको दबनें की क्या ज़रूरत है ? जबतक आप इनको मुंहतोड़ जवाब न देंगे यह सीधे न होंगे, लाला ब्रजकिशोर आपके घर के टुकड़े खाखा कर बड़े हुए थे वह दिन भूल गए !”
लाला मदनमोहन नें बाबू बैजनाथ की नेकसलाहों का बहुत उपकार माना और वह लाला मदनमोहन सै रुख़सत होकर अपनें घर गए।
प्रकरण-16 : सुरा (शराब)
जेनिंदितकर्मंनडरहिं करहिंकाज शुभजान ।।
रक्षैं मंत्र प्रमाद तज करहिं न ते मदपान ।।37
बिदुरनीति।
(37अकार्य कारणा द्वौतः कार्याणांच विवर्जनात् ।।
अकाले मंत्र भेदाच्च येनमाद्येन्नतत्पिबेत् ।।)
“अब तो यहां बैठे, बैठे जी उखताता है चलो कहीं बाहर चलकर दस, पांच दिन सैर कर आवैं” लाला मदनमोहन नें कमरे मैं आकर कहा।
“मेरे मन मैं तो यह बात कई दिन सै फ़िर रही थी परन्तु कहनें का समय नहीं मिला” मास्टर शिंभूदयाल बोले।
“हुजूर ! आजकल कुतब मैं बड़ी बहार आ रही है, थोड़े दिन पहलै एक छींटा होगया था इस्सै चारों तरफ़ हरियाली छागई है। इस्समय झरनें की शोभा देखनें लायक है” मुन्शी चुन्नी लाल कहनें लगे।
“आहा ! वहां की शोभाका क्या पूछना है ? आमके मौर की सुगंधी सै सब अमरैयें महक़ रही हैं। उन्की लहलही लताओं पर बैठकर कोयल कुहुकती रहती है। घनघोर वृक्षों की घटासी छटा देखकर मोर नाचा करते हैं। नीचै झरनाझरता है ऊपर बेल और लताओं के मिलनें सै तरह, तरह की रमणीक कुंजै और लता मंडप बन गये है रंग, रंग के फूलों की बहार जुदी ही मनकों लुभाती है। फूलों पर मदमाते भौरों की गुंजार और भी आनंद बढ़ाती है। शीतल मंद सुगन्धित हवा सै मन अपनें आप खिला जाता है निर्मल सरोवरों के बीच बारहदरी मैं बैठकर चद्दर और फुआरों की शोभा देखनैं सै जी कैसा हरा हो जाता है ? बृक्षों की गहरी छाया मैं पत्थर के चटानों पर बैठकर यह बहार देखनें सै कैसा आनंद आता है ?” पंडित पुरुषोत्तमदास नें कहा।
“पहाड़ की ऊंची चोटियों पर जानें सै कुछ और विशेष चमत्कार दिखाई देता है जब वहां सै नीचे की तरफ़ देखते हैं कहीं बर्फ, कहीं पत्थर की चटानें, कहीं बड़ी बड़ी कंदराएँ, कहीं पानी बहनें के घाटों मैं कोसोंतक बृक्षों की लंगतार, कहीं सुअर, रीछ, और हिरनों के झुंड कहीं जोर सै पानी का टकराकर छींट, छींट हो जाना और उन्मैं सूर्य की किर्णों के पड़नें सै रंग, रंग के प्रतिबिंबों का दिखाई देना, कहीं बादलों का पहाड़ सै टकराकर अपनें आप बरस जाना, बरसा की झड़ अपनें आस पास बादलों का झूम झूम कर घिर आना अति मनोहर दिखाई देखा है” मास्टर शिंभूदयाल नें कहा।
“कुतब मैं ये बहार नहीं हो तोभी वो अपनी दिल्लगी के लिये बहुत अच्छी जगह है” मुन्शी चुन्नीलाल बोले।
“रात को चांद अपनी चांदनी सै सब जगत को रुपहरी बना देता है उस्समय दरिया किनारे हरियाली के बीच मीठी तान कैसी प्यारी लगती है ?” हकीम अहमदहुसैन नें कहा, “पानी के झरनें की झनझनाहट; पक्षियों की चहचहाहट, हवा की सन् सनाहट, बाजे के सुरों सै मिलकर गानेंवाले की लय को चौगुना बढ़ा देते हैं। आहा ! जिस्समय यह समा आंख के साम्नें हो स्वर्ग का सुख तुच्छ मालूम देता है”
“जिस्मैं यह बसंतऋतु तो इसके लिए सब सै बढ़कर है” पंडितजी कहनें लगे, “नई कोंपल, नयै पत्ते, नई कली, नए फूलों सै सज सजाकर वृक्ष ऐसे तैयार हो जाते हैं जैसे बुड्ढ़ों मैं नए सिर सै जवानी आजाय”
“निस्सन्देह वहां कुछ दिन रहना हो, सुख भोग की सब सामग्री मौजूद हो, और भीनी-भीनी रात मैं तालसुर के साथ किसी पिकबयनी की आवाज आकर कान मैं पड़े तो पूरा आनंद मिले” मास्टर शिंभूदयालनें कहा।
“शराब की चसबिना यह सब मज़ा फ़ीका है” मुन्शी चुन्नीलाल बोले।
“इसमैं कुछ संदेह नहीं” मास्टर शिंभूदयाल नें सहारा लगाया। “मन की चिन्ता मिटानें के लिये तो ये अक्सीर का गुण रखती है। इस्की लहरों के चढ़ाव उतार मैं स्वर्ग का सुख तुच्छ मालूम होता है। इस्के जोश मैं बहादुरी बढ़ती है बनावट और छिपाव दूर हो जाता है हरेक काम मैं मन खूब लगता है।”
“बस; विशेष कुछ न कहो ऐसी बुरी चीज की तुम इतनी तारीफ करते हो इस्सै मालूम होता है कि तुम इस्समय भी उसी के बसवर्ती हो रहे हो” बाबू बैजनाथ कहनें लगे। “मनुष्य बुद्धि के कारण और जीवों सै उत्तम है फ़िर भी जिस्के पान सै बुद्धि मैं विकार हो, किसी काम के परिणाम की खबर न रहैं हरेक पदार्थ का रूप और सै और जाना जाय। स्वेच्छाचार की हिम्मत हो, काम-क्रोधादि रिपु प्रबल हों, शरीर जर्जर हो, यह कैसे अच्छी समझी जाय ?”
“यों तो गुणदोष सै खाली कोई चीज नहीं है परन्तु थोड़ी शराब लेनें सै शरीर मैं बल और फुर्ती तो ज़रूर मालूम होती है” मुन्शी चुन्नीलाल नें कहा।
“पहले थोड़ी शराब पीनें सै नि:संदेह रुधिर की गति तेज होती है, नाड़ी बलवान होती है और शरीर मैं फुर्ती पायी जाती है परन्तु पीछै उतनी शराब का कुछ असर नहीं मालूम होता इसलिये वह धीरे, धीरे बढ़ानी पड़ती है। उस्के पान किये बिना शरीर शिथिल हो जाता है, अन्न हजम नहीं होता। हाथ-पांव काम नहीं देते। पर बढ़ानें सै बढ़ते, बढ़ते वोही शराब प्राण घातक हो जाती है। डाक्टर पेरेरा लिखते हैं कि शराब सै दिमाग और उदर आदि के अनेक रोग उत्पन्न होते हैं डाक्टर कार्पेन्टर नें इस बाबत एक पुस्तक रची है जिस्मैं बहुत सै प्रसिद्ध डाक्टरों की राय सै साबित किया कि शराब सै लक़वा, मंदाग्नि, बात, मूत्ररोग, चर्मरोग, फोड़ाफुन्सी, और कंपवायु आदि अनेक रोग उत्पन्न होते हैं, शराबियों की दुर्दशा प्रतिदिन देखी जाती है, क़भी, क़भी उनका शरीर सूखे काठ की तरह अपनें आप भभक उठता है, दिमाग मैं गर्मी बढ़नें सै बहुधा लोग बावले हो जाते हैं।”
“शराब मैं इतनें दोष होते तो अंग्रेजों मैं शराब का इतना रिवाज़ हरगिज न पाया जाता” मास्टर शिंभूदयाल बोले।
“तुम को मालूम नहीं है। वलायत के सैकड़ों डाक्टरों नें इस्के बिपरीत राय दी है और वहां सुरापान निवारणी सभा के द्वारा बहुत लोग इसे छोड़ते जाते हैं परन्तु वह छोड़ें तो क्या और न छोड़ें तो क्या ? इन्द्र के परस्त्री (अहिल्या) गमन सै क्या वह काम अच्छा समझ लिया जायगा ? अफसोस ! हिन्दुस्थान मैं यह दुराचार दिन दिन बढ़ता जाता है यहां के बहुत सै कुलीन युवा छिप छिपकर इस्मैं शामिल होनें लगे हैं पर जब इङ्गलैंड जैसे ठंडे मुल्क मैं शराब पीनें सै लोगों की यह गत होती हैं तो न जानें हिन्दुस्थानियों का क्या परिणाम होगा और देश की इस दुर्दशा पर कौन्सै देश हितैषी की आंखों सै आंसू न टपकैंगे।”
“अब तो आप ह्यदसै आगे बढ़ चले” मुन्शी चुन्नीलाल नें कहा।
“नहीं, हरगिज नहीं मैं जो कुछ कहता हूँ यथार्थ कहता हूँ देखो इसी मदिरा के कारण छप्पन कोटि यादवों का नाश घड़ी भर मैं हो गया, इसी मदिरा के कारण सिकंदर नें भर जवानी मैं अपनें प्राण खो दिये। मनुस्मृति मैं लिखा है “द्विजघाती, मद्यप बहुरि चोर, गुरु, स्त्री, मीत ।। महापातकी है सोउ जाकी इनसों प्रीति ।। × इसी तरह कुरान मैं शराब के स्पर्शतक का महा दोष लिखा है।”
“आज तो बाबू साहब नें लाला ब्रजकिशोर की गद्दी दबा ली” मुन्शी चुन्नीलाल नें मुस्करा कर कहा।
“राम, राम उन्का ढंग दुनिया सै निराला है। वह क्या अपनी बात चीत मैं किसी को एक अक्षर बोलनें देते हैं” मास्टर शिंभूदयाल बोले।
“उन्की कहन क्या है अर्गन बाजा है। एक बार चाबी दे दी घन्टों बजता रहा,” मुन्शी चुन्नीलाल नें कहा।
“मैंनें तो कल ही कह दिया था कि ऐसे फ़िलासफर विद्या सम्बन्धी बातों मैं भलेही उपकारी हों संसारी बातों मैं तो किसी काम के नहीं होते” मास्टर शिंभूदयाल बोले।
“मुझ को तो उन्का मन भी अच्छा नहीं मालूम देता” लाला मदनमोहन आप ही बोल उठे।
“आप उन्सै जरा हरकिशोर की बाबत बातचीत करैंगे तो रहासहा भेद और खुल जायगा देखैं इस विषय मैं वह अपनें भाई की तरफ़दारी करते हैं या इन्साफ़ पर रहते हैं” मुन्शी चुन्नीलाल नें पेच सै कहा।
“क्या कहैं ? हमारी आदत निन्दा करनें की नहीं है। परसों शाम को लाला साहब मुझ सै चांदनीचौक मैं मिले थे आंख की सैन मारकर कहनें लगे “आजकल तो बड़े गहरों मैं हो, हम पर भी थोड़ी कृपादृष्टि रक्खा करो” मास्टर शिंभूदयाल नें मदनमोहन का आशय जान्ते ही जड़ दी।
“हैं ! तुम सै ये बात कही ?” लाला मदनमोहन आश्चर्य सै बोले।
“मुझ सै तो सैंकड़ों बार ऐसी नोंक झोंक हो चुकी है परन्तु मैं क़भी इन्बातो का बिचार नहीं करता” मुन्शी चुन्नीलाल नें मिल्ती मैं मिलाई।
“जब वह मेरे पीछे मेरा ठट्टा उड़ाते हैं तो मेरे मित्र कहां रहे ? जब तक वह मेरे कामों के लिये केवल मुझ सै झगड़ते थे मुझ को कुछ बिचार न था परन्तु जब वह मेरे पासवालों को छेड़नें लगे तो मैं उन्को अपना मित्र क़भी नहीं समझ सकता” लाला मदनमोहन बोल उठे।
“सच तो ये है कि सब लोग आप की इस बरदास्त पर बड़ा आश्चर्य करते हैं” मुन्शी चुन्नीलालनें अवसर पाकर बात आगै बढ़ाई।
“आपको लाला ब्रजकिशोर का इतना क्या दबाव है ? उन्सै आप इतनें क्यों दबते हैं ?” मास्टर शिंभूदयाल नें कहा।
“सच है मैं अपनी दौलत खर्च करता हूँ इस्मैं उन्की गांठ का क्या जाता है ? और वह बीच, बीच मैं बोलनेंवाले कौन हैं ?” लाला मदनमोहन तेज होकर कहनें लगे।
“इस्तरह पर हर बात मैं रोक टोक होनें सै बात का गुमर नहीं रहता; नोकरों को मुक़ाबला करनें का होसला बढ़ता जाता है और आगै चलकर कामकाज मैं फ़र्क आनें की सूरत हो चली है” मुन्शी चुन्नीलाल लै बढ़ानें लगे।
“मैं अब उन्सै हरगिज नहीं दबूंगा। मैंनें अब तक दब, दब कर वृथा उन्को सिर चढ़ा लिया” लाला मदनमोहन नें प्रतिज्ञा की।
“जो वह झरनें के सरोवरों मैं अपना तैरना और तिवारी के ऊपर सै कलामुंडी खा खाकर कूदना देखेंगे तो फ़िर घंटों तक उन्का राग काहेको बन्द होगा ?” पंडित पुरुषोत्तमदास बड़ी देर सै बोलनें के लिये उमाह रहै थे, वह झट पट बोल उठे।
“उन्का वहां चलनें का क्या काम है ? उन्कों चार दोस्तों मैं बैठ कर हंसनें बोलनें की आदतही नहीं है। वह तो शाम सबेर हवा खा लेते हैं और दिन भर अपनें काम मैं लगे रहते हैं या पुस्तकों के पन्ने उलट पुलट किया करते हैं ! वह संसारका सुख भोगनें के लिये पैदा नहीं हुए। फ़िर उन्हें लेजाकर हम क्या अपना मज़ा मट्टी करैं ?” लाला मदनमोहन नें कहा।
“बरसात में तो वहां झूलों की बड़ी बहार रहती है” हकीम अहमदहुसैन बोले।
“परन्तु यह ऋतु झूलों की नहीं है आज कल तो होली की बहार है” पंडित पुरुषोत्तमदास नें जवाब दिया।
“अच्छा फ़िर कब चलनें की ठैरी और मैं कितनें दिन की रुख़सत ले आऊं” मास्टर शिंभूदयाल नें पूछा।
“बृथा देर करनें सै क्या फ़ायदा है ? चलनाही ठैरा तो कल सबेरे यहां सै चलदैंगे और कम सै कम दस बारह दिन वहां रहैंगे” लाला मदनमोहन नें जवाब दिया।
लाला मदनमोहन केवल सैर के लिये कुतब नहीं जाते। ऊपर सै यह केवल सैर का बहाना करते हैं परन्तु इन्के जीमैं अब तक हरकिशोर की धमकी का खटका बनरहा है। मुन्शी चुन्नीलाल और बाबू बैजनाथ वगैरै इन्को हिम्मत बंधानें मैं कसर नहीं रक्खी परन्तु इन्का मन कमजोर है इस्सै इन्की छाती अब तक नहीं ठुकती, यह इस अवसर पर दस पांच दिन के लिये यहां सै टलजाना अच्छा समझते हैं इन्का मन आज दिन भर बेचैन रहा है इसलिये और कुछ फायदा हो या न हो यह अपना मन बहला नें के लिये, अपनें मनसै यह डरावनें बिचार दूर करनें के लिये दस पांच दिन यहां सै बाहर चले जाना अच्छा समझते हैं और इसी बास्तै ये झट पट दिल्ली सै बाहर जानें की तैयारी कर रहे हैं।
प्रकरण-17 : स्वतन्त्रता और स्वेच्छाचार
जो कंहु सब प्राणीन सों होय सरलता भाव।
सब तीरथ अभिषेक ते ताको अधिक प्रभाव 38
बिदुरप्रजागरे।
(38सर्वतीर्थेषु वा स्नानं सर्व भूतेषू चार्जवम् ।।
उभे त्वेते सने स्याता मार्जवं वा विशिष्यते ।।)
लाला मदनमोहन कुतब जानें की तैयारी कर रहे थे इतनें मैं लाला ब्रजकिशोर भी आ पहुँचे।
“आपनें लाला हरकिशोर का कुछ हाल सुना ?” ब्रजकिशोर के आते ही मदनमोहन नें पूछा।
“नहीं ! मैं तो कचहरी सै सीधा चला आया हूँ”
“फ़िर आप नित्य तो घर होकर आते थे आज सीधे कैसे चले आए ?” मास्टर शिंभूदयाल नें संदेह प्रगट करके कहा।
“इस्मैं कुछ दोष हुआ ? मुझको कचहरी मैं देर होगई थी इस्वास्तै सीधा चला आया तुम अपना मतलब कहो”
“मतलब तो आपका और मेरा लाला साहब खुद समझते होंगे परन्तु मुझको यह बात कुछ नई, नईसी मालूम होती है” मास्टर शिंभूदयाल नें संदेह बढ़ानें के वास्तै कहा।
“सीधी बात को बे मतलब पहेली बनाना क्या ज़रूर है ? जो कुछ कहना हो साफ़ कहो।”
“अच्छा ! सुनिये” लाला मदनमोहन कहनै लगे “लाला हरकिशोर के स्वभाव को तो आप जान्तेही हैं आपके और उन्के बीच बचपन सै झगड़ा चला आता है-“
“वह झगड़ा भी आपही की बदौलत है परन्तु खैर ! इस्समय आप उस्का कुछ बिचार न करें अपना बृतान्त सुनाएँ और औरों के काम मैं अपनी निजकी बातोंका सम्बन्ध मिलाना बड़ी अनुचित बात है ?” लाला ब्रजकिशोर नें कहा।
“अच्छा ! आप हमारा बृतान्त सुनिये” लाला मदनमोहन कहनें लगे। “कई दिन सै लाला हरकिशोर रूठे रूठेसे रहते थे। कल बेसबब हरगोविंद सै लड़ पड़े। उस्की जिदपर आप पांच, पांच रुपये घाटेसै टोपियें देनें लगे। शामको बाग मैं गए तो लाला हरदयाल साहब सै वृथा झगड़ पड़े, आज यहां आए तो मुझको और चुन्नीलाल को सैकड़ों कहनी न कहनी सुनागए !”
“बेसबब तो कोई बात नहीं होती आप इस्का अस्ली सबब बताइये ? और लाला हरकिशोर पांच, पांच रुपेके घाटेपर प्रसन्नता सै आपको टोपियां देते थे तो आपनें उन्मैं सै दस पांच क्यों नहीं लेलीं ? इन्मैं आप सै आप हरकिशोर पर बीस-पच्चीस रुपे का जुर्माना हो जाता” लाला ब्रजकिशोर नें मुस्करा कर कहा।
“तो क्या मैं हरकिशोर की जिदपर उस्की टोपियें लेलेता और दसबीस रुपेके वास्तै हरगोविंद को नीचा देखनें देता ? मैं हरगोविंद की भूल अपनें ऊपर लेनेंको तैयार हूँ परन्तु अपनें आश्रितुओं की ऐसी बेइज्जती नहीं किया चाहता” लाला मदनमोहन नें जोर देकर कहा।
“यह आपका झूंठा पक्षपात है” लाला ब्रजकिशोर स्वतन्त्रता सै कहनें लगे “पापी आप पाप करनें सै ही नहीं होता। पापियों की सहायता करनें वाले, पापियों को उत्तेजन देनेंवाले, बहुत प्रकार के पापी होते हैं; कोई अपनें स्वार्थ सै, कोई अपराधी की मित्रता सै, कोई औरोंकी शत्रुता सै, कोई अपराधी के संबंधियों की दया सै, कोई अपनें निजके सम्बन्ध सै, कोई खुशामद सै महान् अपराधियों का पक्ष करनेंवाले बन जाते हैं, परन्तु वह सब पापी समझे जाते हैं और वह प्रगट मैं चाहे जैसा धर्मात्मा, दयालु, कोमल चित्त हों, भीतर सै वह भी बहुधा वैसे ही पापी और कुटिल होते हैं”
“तो क्या आपकी राय मैं किसी की सहायता नहीं करनी चाहिये ?” लाला मदनमोहन नें तेज होकर पूछा।
“नहीं, बुरे कामोंके लिये बुरे आदमियों की सहायता क़भी नहीं करनी चाहिये” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे। “रशिया का शहन्शाह पीटर एक बार भरजवानी मैं ज्वर सै मरनें लायक हो गया था। उस्समय उस्के वजीर नें पूछा कि “नो अपराधियों को अभी लूट, मार के कारण कठोरदंड दिया गया है क्या वह भी ईश्वर प्रार्थना के लिये छोड़ दिये जायँ ?” पीटर नें निर्बल आवाज सै कहा “क्या तुम यह समझते हो कि इन अभागों को क्षमा करनें और इन्साफ़ की राह मैं कांटे बोनें सै मैं कोई अच्छा काम करूंगा ? और जो अभागे माया जाल मैं फंसकर उस सर्व शक्तिमान ईश्वर कोही भूल गए हैं मेरे फ़ायदे के लिये ईश्वर उन्की प्रार्थना अंगीकार करैगा ? नहीं हरगिज नहीं; जो कोई काम मुझ सै ईश्वर की प्रसन्नता लायक बन पड़े तो वह यही इन्साफ़ का शुभ काम है”
“मैं तो आप के कहनें सै इन्साफ़ के लिये परमार्थ करना क़भी नहीं छोड़ सक्ता” लाला मदनमोहन तमक कर कहनें लगे।
“जो जिस्के लिये करना चाहिये सो करना इन्साफ़ मैं आ गया परन्तु स्वार्थ का काम परमार्थ कैसे हो सक्ता है ? एक के लाभ के लिये दूसरों की अनुचित हानि परमार्थ मैं कैसे समझी जा सक्ती है ? किसी तरह के स्वार्थ बिना केवल अपनें ऊपर परिश्रम उठाकर, आप दु:ख सहक़र, अपना मन मारकर औरों को सुखी करना सच्चा धर्म समझा जाता है जैसे यूनान मैं कोडर्स नामी बादशाह राज करता था उस्समय यूनानियों पर हेरेकडिली लोगों नें चढ़ाई की। उस्समय के लोग ऐसे अवसर पर मंदिर मैं जाकर हार जीत का प्रश्न किया करते थे। इसी तरह कोडर्सनें प्रश्न किया तब उसै यह उत्तर मिला कि “तू शत्रु के हाथ सै मारा जायेगा तो तेरा राज स्वदेशियोंके हाथ बना रहेगा और तू जीता रहैगा तो शत्रु प्रबल होता जायगा” कोडर्स देशोपकार के लिये प्रसन्नता सै अपनें प्राण देनेंको तैयार था परन्तु कोडर्स के शत्रु को भी यह बात मालूम हो गई इसलिये उसनें अपनी सेनामैं हुक्म दे दिया कि कोडर्स को कोई न मारे। तथापि कोडर्स नें यह बात लोग दिखाईके लिये नहीं की थी इससै वह साधारण सिपाही का भेष बनाकर लड़ाई में लड़ मरा परन्तु अपनें देशियों की स्वतन्त्रता शत्रु के हाथ न जानें दी।”
“जब आप स्वतन्त्रता को ऐसा अच्छा पदार्थ समझते हैं तो आप लाला साहब को इच्छानुसार काम करनें सै रोककर क्यों पिंजरेका पंछी बनाया चाहते हैं ?” मास्टर शिंभूदयाल नें कहा।
“यह स्वतन्त्रता नहीं स्वेच्छाचार है; और इन्कों एक समझनें सै लोग बारम्बार धोखा खाते हैं” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे ‘ईश्वर नें मनुष्यों को स्वतन्त्र बनाया है पर स्वेच्छाचारी नहीं बनाया क्योंकि उस्को प्रकृति के नियमों मैं अदलबदल करनें की कुछ शक्ति नहीं दी गई वह किसी पदार्थ की स्वाभाविक शक्ति मैं तिलभर घटा बढ़ी नहीं करसक्ता जिन पदार्थो मैं अलग, अलग रहनें अथवा रसायनिक संयोग होनें सै जो, जो शक्ति उत्पन्न होनें का नियम ईश्वर नें बना दिया है बुद्धि द्वारा उन पदार्थों की शक्ति पहचानकर केवल उन्सै लाभ लेनें के लिये मनुष्य को स्वतन्त्रता मिली है इसलिये जो काम ईश्वर के नियमानुसार स्वाधीन भाव सै किया जाय वह स्वतन्त्रता मैं समझा जाता है और जो काम उस्के नियमों के विपरीत स्वाधीन भाव सै किया जाय वह स्वेच्छाचार और उस्का स्पष्ट दृष्टांत यह है कि शतरंज के खेल मैं दोनों खिलाडि़यों को अपनी मर्जी मूजब चाल चलनें की स्वतन्त्रता दी गई है परन्तु वह लोग घोड़े को हाथी की चाल या हाथी को घोड़े की चाल नहीं चल सक्ते और जौ वे इस्तरह चलैं तो उन्का चलना शतरंज के खेल सै अलग होकर स्वेच्छाचार समझा जायगा यह स्वेच्छाचार अत्यन्त दूषित है और इस्का परिणाम महा भयंकर होता है इसलिये वर्तमान समय के अनुसार सब के फ़ायदे की बातों पर सत् शास्त्र और शिष्टाचार की एकता सै बरताव करना सच्ची स्वतन्त्रता है और बड़े लोगों नें स्वतन्त्रता की यह हद बांध दी है। मनुमहाराज कहते हैं “बिना सताए काहु के धीरे धर्म्म बटोर।। जों मृत्तिका दीमक हरत क्रम क्रमसों चहुं ओर।।” [1]
महाभारत कर्णपर्व मैं युधिष्ठर और अर्जुन का बिगाड़ हुआ उस्समय श्रीकृष्णनें अर्जुन सै कहा कि “धर्म ज्ञान अनुमानते अतिशय कठिन लखाय ।। एक धर्म्म है बेद यह भाषत जनसमुदाय ।।[2]1 कोमैं कछु संशय नहीं पर लख धर्म्म अपार ।। स्पष्टकरन हित कहुँ, कहूँ पंडित करत बिचार ।। [3] 2
जहां न पीडि़त होय कोउ सोसुधर्म्म निरधार ।। हिंसक हिंसा हरनहित भयो सुधर्म्म प्रचार ।। [4]3 प्राणिनकों धारण करे ताते कहियत धर्म्म ।। जासो जन रक्षित रहैं सो निश्चय शुभकर्म ।।[5]4 जे जन परसंतोष हित करैं पाप शुभजान ।। तिनसो कबहुं न बोलिये श्रुति विरुद्ध पहिचान ।। [6]5″ इसलिये दूसरेकी प्रसन्नता के हेतु अधर्म्म करनें का किसी को अधिकार नहीं है इसी तरह अपनें या औरों के लाभ के लिये दूसरे के वाजबी हकों मैं अन्तर डालनें का भी किसी को अधिकार नहीं है जिस्समय महाराज रामचन्द्रजी नें निर्दोष जनकनंदनी का परित्याग किया जानकीजी को कुछ थोड़ा दु:ख था ? परन्तु वह गर्भनाश के भय सै अपना शरीर न छोड़ सकीं। हां जिस्तरह उन्नें अकारण अत्यन्त दु:ख पानें पर भी क़भी रघुनाथजी के दोष नहीं विचारे थे, इस तरह सब प्राणियों को अपनें विषय मैं अपराधी के अपराध क्षमा करनें का पूरा अधिकार है और इस तरह अपनें निज के अपराधों का क्षमा करना मनुष्यमात्र के लिये अच्छे सै अच्छा गुण समझा जाता है परन्तु औरों को किसी तरह की अनुचित हानि हो वहां यह रीति काम मैं नहीं लाई जा सक्ती”
“मैं तो यह समझता हूँ कि मुझसै एक मनुष्य का भी कुछ उपकार हो सके तो मेरा जन्म सफल है” लाला मदनमोहन नें कहा।
“जिस्मैं नामवरी आदि स्वार्थका कुछ अंश हो वह परोपकार नहीं और परोपकार करनें मैं भी किसी खास मनुष्य का पक्ष किया जाय तो बहुधा उस्के पक्षपात सै औरों की हानि होनें का डर रहता है इसलिये अशक्त अपाहजों का पालन पोषण करना, इन्साफ़ का साथ देना और हर तरह का स्वार्थ छोड़कर सर्व साधारण के हित मैं तत्पर रहना मेरे जान सच्चा परोपकार है” लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया।
प्रकरण-18 : क्षमा
नरको भूषण रूप है रूपहुको गुणजान।
गुणको भूषण ज्ञान है क्षमा ज्ञान को मान ।। 1 ।।[7]
सुभाषितरत्नाकरे।
“आप चाहे स्वार्थ समझैं चाहे पक्षपात समझैं हरकिशोर नें तो मुझे ऐसा चिढ़ाया है कि मैं उस्सै बदला लिये बिना क़भी नहीं रहूँगा” लाला मदनमोहन नें गुस्से सै कहा।
“उस्का कसूर क्या है ? हरेक मनुष्य सै तीन तरह की हानि हो सक्ती है। एक अपवाद करके दूसरे के यश मैं धब्बा लगाना, दूसरे शरीर की चोट, तीसरे माल का नुकसान करना। इन्मैं हरकिशोर नें आप की कौनसी हानि की ?” लाला ब्रजकिशोर नें कहा।
लाला मदनमोहन के मन मैं यह बात निश्चय समा रही थी कि हरकिशोर नें कोई बड़ा भारी अपराध किया है परन्तु ब्रजकिशोर नें तीन तरह के अपराध बताकर हरकिशोर का अपराध पूछा तब वह कुछ न बता सके क्योंकि मदनमोहन की वाकफ़ियत मैं ऐसा कोई अपराध हरकिशोर का न था। मदनमोहन को लोगों नें आस्मान पर चढ़ा रक्खा था इसलिये केवल हरकिशोर के जवाब देनें सै उस्के मन मैं इतना गुस्सा भर रहा था।
“उस्नें बड़ी ढिटाई की। वह अपनें रुपे तत्काल मांगनें लगा और रुपया लिये बिना जानें सै साफ इन्कार किया” लाला मदनमोहन नें बड़ी देर सोच बिचार कर कहा।
“बस उस्का यही अपराध है ? इस्मैं तो उस्नें आप की कुछ हानि नहीं की। मनुष्य को अपना सा जी सबका समझना चाहिये। आपका किसी पर रुपया लेना हो और आप को रुपे की ज़रूरत हो अथवा उस्की तरफ़ सै आप के जीमैं किसी तरहका शक आजाय अथवा आप के और उस्के दिल मैं किसी तरह का अन्तर आजाय तो क्या आप उस्सै ब्यवहार बन्द करनें के लिये अपनें रुपेका तकाजा न करेंगे ? जब ऐसी हालातों मैं आप को अपनें रुपे के लिये औरों पर तकाजा करनें का अधिकार है तो औरों को आप पर तकाजा करनें का अधिकार क्यों न होगा ? आप बेसबब जरा, जरासी बातों पर मुंह बनायं, वाजबी राह सै जरासी बात दुलख देनें पर उस्को अपना शत्रु समझनें लगें और दूसरे को वाजबी बात कहनें का भी अधिकार न हो !” लाला ब्रजकिशोर नें जोर देकर कहा।
“लाला साहब को उस्का स्वभाव पहचान्कर उस्सै व्यवहार डालना चाहिये था अथवा उस्का रुपया बाकी न रखना चाहिए था। जब उस्का रुपया बाकी है तो उस्को तकाज़ा करनें का निस्सन्देह अधिकार है और उस्नें कड़ा तकाज़ा करनें मैं कुछ अपराध भी किया हो तो उस्के पहले कामोंका सम्बन्ध मिलाना चाहिये” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे। प्रल्हादजीनें राजा बलिसै कहा है “पहलो उपकारी करै जो कहुँ अतिशय हान।। तोहू ताकों छोडि़ये पहले गुण अनुमान।। [8]1।। “बिना समझे आश्रित करै सोऊ क्षमिये तात।। सब पुरुषनमैं सहज नहिं चतुराई की बात ।।[9]2।।
×यह सब सच है कि छोटे आदमी पहले उपकार करकै पीछे उस्का बदला बहुधा अनुचित रीतिसै लिया चाहतें हैं परन्तु यहां तो कुछ ऐसा भी नहीं हुआ।”
“उपकार हो या न हो ऐसे आदमियोंको उन्की करनी का दंड तो अवश्य मिलना चाहिये” मास्टर शिंभूदयाल कहनें लगे। जो उन्को उन्की करनी का दंड न मिलेगा तो उन्की देखा देखी और लोग बिगड़ते चले जायंगे और भय बिना किसी बात का प्रबन्ध न रह सकेगा। सुधरे हुए लोगों का यह नियम है कि किसीको कोई नाहक़ न सतावै और सतावै तो दंड पावै। दंडका प्रयोजन किसी अपराधी सै बदला लेनें का नहीं है बल्कि आगेके लिये और अपराधों सै लोगों को बचानें का है”
“इस वास्तै मैं चाहता हूँ कि मेरा चाहै जितना नुकसान हो जाय परन्तु हरकिशोर के पल्ले फूटी कौड़ी न पड़नें पावै” लाला मदनमोहन दांत पीसकर कहनें लगे।
“अच्छा ! लाला साहबनें कहा, इस रीति सै क्या मास्टर साहब के कहनें का मतलब निकल आवैगा ?” लाला ब्रजकिशोर पूछनें लगे। आप जान्ते हैं कि दंड दो तरह का है एक तो उचित रीति सै अपराधी को दंड दिवाकर औरों के मनमैं अपराधकी अरुचि अथवा भय पैदा करना, दूसरे अपराधी सै अपना बैर लेना और अपनें जी का गुस्सा निकालना। जिस्नें झूठी निंदा करके मेरी इज्जत ली उस्को उचित रीति सै दंड करानेंमैं अपनें देशकी सेवा करता हूँ परन्तु मैं यह मार्ग छोड़कर केवल उस्की बरबादी का बिचार करूं अथवा उस्का बैर उस्के निर्दोष सम्बन्धियों सै लिया चाहूँ, आधीरात के समय चुपके सै उस्के घर मैं आग लगा दूं और लोगों को दिखानें के लिये हाथ मैं पानी लेकर आग बुझानें जाऊं तो मेरी बराबर नीच कौन होगा ? बिदुरजी नें कहा है “सिद्ध होत बिनहू जतन मिथ्या मिश्रित काज। अकर्तव्यते स्वप्नहू मन न धरो महाराज।।[10]1” ऐसी कारवाई करनेंवाला अपनें मनमैं प्रसन्न होता है कि मैंनें अपनें बैरीको दुखी किया परन्तु वह आप महापापी बन्ता है और देश का पूरा नुकसान करता है। मनु महाराज नें कहा है “दुखित होय भाखै न तौ मर्म बिभेदक बैन।। द्रोह भाव राखै न चित करै न परहि अचैन।। [11]2”
“जो अपराध केवल मन को सतानें वाले हों और प्रगट मैं साबित न हों सकैं तो उन्का बदला दूसरे सै कैसे लिया जाय ?” लाला मदनमोहन नें कहा।
“प्रथम तो ऐसा अपराध हो हीं नहीं सक्ता और थोड़ा बहुत हो भी तो वह ख़याल करनें लायक नहीं है क्योंकि संदेह का लाभ सदा अपराधी को मिल्ता है इस्के सिवाय जब कोई अपराधी सच्चे मन सै अपनें अपराध का पछताव कर ले तो वह भी क्षमा करनें योग्य हो जाता है और उस्सै भी दंड देनें के बराबर ही नतीजा निकल आता है:”
“पर एक अपराधी पर इतनी दया करनी क्या जरूरी है ?” लाला मदनमोहन नें ताज्जुब सै पूछा।
“जब हम लोग सर्व शक्तिमान परमेश्वर के अत्यन्त अपराधी होकर उस्सै क्षमा करनें की आशा रखते हैं तो क्या हम को अपनें निज के कामों के लिये, अपनें अधिकार के कामों के लिये, आगे की राह दुरुस्त हुए पीछै, अपराधी के मन मैं शिक्षा के बराबर पछतावा हुए पीछै क्षमा करना अनुचित है ? यदि मनुष्य के मन मैं क्षमा और दया का लेश भी न हो तो उस्मैं और एक हिंसक जन्तु मैं क्या अन्तर है ? पोप कहता है “भूल करना मनुष्य का स्वभाव है परन्तु उस्को क्षमा करना ईश्वर का गुण है[12]”× एक अपराधी अपना कर्तव्य भूल जाय तो क्या उस्की देखा देखी हमको भी अपना कर्तव्य भूल जाना चाहिये। सादीनें कहा है “होत हुमे याही लिये सब पक्षिन को राय।।अस्थिभक्ष रक्षे तनहि काहू कों न सताय।।[13]” दूसरे का उपकार याद रखना वाजबी बात है परन्तु अपकार याद रखनें मैं या यों कहो कि अपनें कलेजे का घाव हरा रखनें मैं कौन-सी तारीफ है ? जो दैव योग सै किसी अपराधी को औरों के फ़ायदे के लिये दंड दिवानें की ज़रूरत हो तो भी अपनें मन मैं उस्की तरफ़ दया और करुणा ही रखनी चाहिये”
“ये सब बातें हँसी खुशी मैं याद आती हैं। क्रोध मैं बदला लिये बिना किसी तरह चित्त को सन्तोष नहीं होता” लाला मदनमोहन नें कहा।
“बदला लेनें का तो इस्सै अच्छा दूसरा रास्ता ही नहीं है कि वह अपकार करे और उस्के बदले आप उपकार करो” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “जब वह अपनें अपराधों के बदले आप की महेरबानी देखेगा तो आप लज्जित होगा और उस्का मन ही उस्को धि:कारनें लगेगा। बैरी के लिये इस्सै कठोर दंड दूसरा नहीं है परन्तु यह बात हर किसी सै नहीं हो सक्ती। तरह, तरह का दु:ख नुक्सान और निन्दा सहनें के लिये जितनें साहस, धैर्य और गम्भीरता की जरुरत है बैरी सै बैर लेनें के लिये उन्की कुछ भी जरुरत नहीं होती। यह काम बहुत थोड़े आदमियों सै बन पड़ता है पर जिनसै बन पड़ता है वही सच्चे धर्मात्मा हैं:-
“जिस्समय साइराक्यूजवालों नें एथेन्स को जीत लिया साइराक्यूज की कौन्सिल मैं एथीनियन्स को सजा देनें की बावत बिबाद होनें लगा। इतनें मैं निकोलास नामी एक प्रसिद्ध गृहस्थ बुढ़ापे के कारण नौकरों के कंधेपर बैठकर वहां आया और कौन्सिल को समझाकर कहनें लगा “भाइयों ! मेरी ओर दृष्टि करो मैं वह अभागा बाप हूँ जिस्की निस्बत ज्याद: नुक्सान इस लड़ाई मैं शायद ही किसी को हुआ होगा। मेरे दो जवान बेटे इस लड़ाई मैं देशोपकार के लिये मारे गए। उन्सै मानो मेरे सहारे की लकड़ी छिन गई मेरे हाथपांव टूट गए, जिन एथेन्सवालों नें यह लड़ाई की उन्को मैं अपनें पुत्रों के प्राणघातक समझ कर थोड़ा नहीं धिक्कारता तथापि मुझको अपनें निज के हानि लाभ के बदले अपनें देश की प्रतिष्ठा अधिक प्यारी है, बैरियों सै बदला लेनें के लिये जो कठोर सलाह इस्समय हुई है वह अपनें देश के यश को सदा सर्वदा के लिये कलंकित कर देगी, क्या अपनें बैरियों को परमेश्वर की ओर सै कठिन दण्ड नहीं मिला ? क्या उन्के युद्ध मैं इस तरह हारनैं सै अपना बदला नहीं भुगता ? क्या शत्रुओं नें अपनी प्राणरक्षा के भरोसे पर तुमको हथियार नहीं सोंपें ? और अब तुम उन्सै अपना वचन तोड़ोगे तो क्या तुम विश्बासघाती न होगे ? जीतनें से अविनाशी यश नहीं मिल सक्ता परन्तु जीते हुए शत्रुओं पर दया करनें सै सदा सर्वदा के लिये यश मिलता है” साइराक्यूज की कौन्सिल के चित्त पर निकोलास के कहनें का ऐसा असर हुआ कि सब एथीनियन्स तत्काल छोड़ दिये गए”
“आप जान्ते हैं कि शरीर के घाव औषधि सै रुज जाते हैं परन्तु दुखती बातों का घाव कलेजे पर सै किसी तरह नहीं मिटता” मुन्शी चुन्नीलाल नें कहा।
“क्षमाशील के कलेजे पर ऐसा घाव क्यों होनें लगा है ? वह अपनें मन मैं समझता है कि जो किसी नें मेरा सच्चा दोष कहा तो बुरे मान्नें की कौन्सी बात हुई ? और मेरे मतलब को बिना पहुँचे कहा तो नादान के कहनें सै बुरा मान्नें कि कौन्सी बात रही ? और जानबूझ कर मेरा जी दुखानें के वास्तै मेरी झूंटी निन्दा की तो मैं उचित रीति सै उस्को झूंटा डाल सक्ता हूँ ? सजा दिवा सक्ता हूँ फ़िर मन मैं द्वेष और प्रगट मैं गाली गलौज लड़नें की क्या ज़रूरत है ? आप बुरा हो और लोग अच्छा कहैं इस्की निस्बत आप अच्छा हो और लोग बुरा कहैं यह बहुत अच्छा है” लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया।
प्रकरण-19 : स्वतन्त्रता
“स्तुति निन्दा कोऊ करहि लक्ष्मी रहहि की जाय
मरै कि जियै न धीरजन ध रै कू मारग पाय ।।[14]
प्रसंगरत्नावली।
“सच तो यह है कि आज लाला ब्रजकिशोर साहब नें बहुत अच्छी तरह भाईचारा निभाया। इन्की बातचीत मैं यह बड़ी तारीफ है कि जैसा काम किया चाहते हैं वैसा ही असर सब के चित्त पर पैदा कर देते हैं” मास्टर शिंभूदयाल नें मुस्करा कर कहा।
“हरगिज नहीं, हरगिज नहीं, मैं इन्साफ़ के मामले मैं भाई चारे को पास नहीं आनें देता जिस रीति सै बरतनें के लिये मैं और लोगों को सलाह देता हूँ उस रीति बरतना मैं अपनें ऊपर फर्ज समझता हूँ। कहना कुछ और, करना कुछ और नालायकों का काम है और सचाई की अमिट दलीलों को दलील करनेंवाले पर झूंटा दोषारोपण करके उड़ा देनें वाले और होते हैं” लाला ब्रजकिशोर नें शेर की तरह गरज कर कहा और क्रोध के मारे उन्की आंखें लाल होगईं।
लाला ब्रजकिशोर अभी मदनमोहन को क्षमा करनें के लिये सलाह देरहे थे इतनें मैं एका एक शिंभूदयाल की ज़रासी बात पर गुस्से मैं कैसे भर गए ? शिंभूदयाल नें तो कोई बात प्रगट मैं ब्रजकिशोर के अप्रसन्न होनें लायक नहीं कही थी ? निस्सन्देह प्रगट मैं नहीं कही परन्तु भीतर सै ब्रजकिशोर का ह्रदय विदीर्ण करनें के लिये यह साधारण बचन सबसै अधिक कठोर था। ब्रजकिशोर और सब बातों में निरभिमानी परन्तु अपनी ईमानदारी का अभिमान रखते थे इस लिये जब शिंभूदयाल नें उन्की ईमानदारी मैं बट्टा लगाया तब उन्को क्रोध आये बिना न रहा। ईमानदार मनुष्य को इतना खेद और किसी बात सै नहीं होता जितना उस्को बेईमान बतानें सै होता है।
“आप क्रोध न करें। आपको यहां की बातों मैं अपना कुछ स्वार्थ नहीं है तो आप हरेक बात पर इतना जोर क्यों देते हैं ? क्या आप की ये सब बातें किसी को याद रह सक्ती हैं ? और शुभचिन्तकी के बिचार सै हानि लाभ जतानें के लिये क्या एक इशारा काफ़ी नहीं है ?” मुन्शी चुन्नीलाल नें मास्टर शिंभूदयाल की तरफ़दारी करके कहा।
“मैंनें अबतक लाला साहब सै जो स्वार्थ की बात की होगी वह लाला साहब और तुम लोग जान्ते होगे। जो इशारे मैं काम होसक्ता तो मुझको इतनें बढ़ा कर कहनें सै क्या लाभ था ? मैंनें कहीं हैं वह सब बातें निस्सन्देह याद नहीं रह सक्तीं परन्तु मन लगा कर सुन्नें सै बहुधा उन्का मतलब याद रह सक्ता है और उस्समय याद न भी रहै तो समय पर याद आ जाता है। मनुष्य के जन्म सै लेकर वर्तमान समय तक जिस, जिस हालत मैं वह रहता है उस सब का असर बिना जानें उस्की तबियत मैं बना रहता है इस वास्ते मैंनें ये बातें जुदे, जुदे अवसर पर यह समझ कर कह दीं थीं कि अब कुछ फायदा न होगा तो आगे चल कर किसी समय काम आवेंगी” लाला ब्रजकिशोरनें जवाब दिया।
“अपनी बातोंको आप अपनें पास ही रहनें दीजिये क्योंकि यहां इन्का कोई ग्राहक़ नहीं है” लाला मदनमोहन कहनें लगे आपके कहनेंका आशय यह मालूम होता है कि आपके सिवाय सब लोग अनसमझ और स्वार्थपर हैं।”
“मैं सबके लिये कुछ नहीं कहता परन्तु आपके पास रहनें वालों मैं तो निस्सन्देह बहुत लोग नालायक और स्वार्थपर हैं” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “ये लोग दिनरात आपके पास बैठे रहते हैं, हरबात मैं आपकी बड़ाई किया करते हैं, हर काम मैं अपनी जान हथेली पर लिये फ़िरते हैं पर यह आपके नहीं; आप के रुपे के दोस्त हैं। परमेश्वर न करे जिस दिन आपके रुपे जाते रहेंगे इन्का कोसों पता न लगेगा। जो इज्जत, दौलत और अधिकार के कारण मिल्ती है वह उस मनुष्य की नहीं होती। जो लोग रुपेके कारण आपको झुक, झुक कर सलाम करते हैं वही अपनें घर बैठकर आपकी बुद्धिमानीका ठट्टा उड़ाते हैं ! कोई काम पूरा नहीं होता जबतक उस्मैं अनेक प्रकारके नुक्सान होनें की सम्भावना रहती है पूरे होनें की उम्मेद पर दस काम उठाये जाते हैं जिस्मैं मुश्किल सै दो पूरे पड़ते हैं परन्तु आपके पास वाले खाली उम्मेद पर बल्कि भीतरकी नाउम्मेदी पर भी आपको नफेका सब्ज बाग़ दिखा कर बहुतसा रुपया खर्च करा देते हैं ! मैं पहले कह चुका हूँ कि आदमी की पहचान जाहिरी बातों सै नहीं होती उस्के बरतावसै होती है। इस्मैं आपका सच्चा शुभचिंतक कौन है ? आपके हानि लाभका दर्सानें वाला कौन है ? आपके हानिलाभ का बिचार करनें वाला कौन है ? क्या आपकी हांमैं हां मिलानै सै सब होगया ? मुझको तो आपके मुसाहिबों मैं सिवाय मसख़रापनके और किसी बातकी लियाक़त नहीं मालूम होती। कोई फबतियां कहक़र इनाम पाता है, कोई छेड़ छाड़कर गालियें खाता है, कोई गानें बजानें का रंग जमाता है, कोई धोलधप्पे लड़ाकर हंसता हंसाता है पर ऐसे अदमियोंसै किसी तरह की उम्मेद नहीं हो सक्ती।”
“मेरी दिल्लगी की आदत है। मुझसै तो हंसी दिल्लगी बिना रोनी सूरत बनाकर दिनभर नहीं रहा जाता परन्तु इन बातोंसै काम की बातों मैं कुछ अन्तर आया हो बताईये” लाला मदनमोहननें पूछा।
“आपके पिताका परलोक हुआ जबसै आपकी पूंजीमैं क्या घटा-बढ़ी हुई ? कितनी रकम पैदा हुई ? कितनी अहंड (बर्बाद) हुई कितनी ग़लत हुई, कितनी खर्च हुई इन बातोंका किसीनें बिचार किया है ? आमदनीसै अधिक खर्च करनें का क्या परिणाम है ? कौन्सा ख़र्च वाजबी है, कौन्सा गैरवाजबी है, मामूली खर्चके बराबर बंधी आमदनी कैसे हो सक्ती है ? इन बातों पर कोई दृष्टि पहुँचाता है ? मामूली आमदनी पर किसीकी निगाह है ? आमदनी देखकर मामूली खर्चके वास्ते हरेक सीगेका अन्दाजा पहलेसै क़भी किया गया है, गैर मामूली खर्चोंके वास्ते मामूली तौरपर सीगेवार कुछ रक़म हरसाल अलग रक्खी जाती है ? बिनाजानें नुक्सान, खर्च और आमदनी कमहोनें के लिये कुछ रकम हरसाल बचाकर अलग रक्खी जाती है ? पैदावार बढ़ानें के लिये वर्तमान समयके अनुसार अपनें बराबर वालों की कारवाई देशदेशान्तर का बृतान्त और होनहार बातों पर निगाह पहुँचाकर अपनें रोज़गार धंदेकी बातोंमैं कुछ उन्नति की जाती है ? व्यापारके तत्व क्या हैं। थोड़े खर्च, थोड़ी महनत और थोड़े समयमैं चीज़ तैयार होनेंसै कितना फायदा होता है, इन बातोंपर किसीनें मन लगाया है ? उगाहीमैं कितनें रुपे लेनें हैं, पटनें की क्या सूरत है, देनदारों की कैसी दशा है। मियादके कितनें दिन बाकी हैं इन बातों पर कोई ध्यान देता है ? व्योपार सिगा के मालपर कितनी रकम लगती है, माल कितना मोजूद है किस्समय बेचनेंमें फायदा होगा इन बातों पर कोई निगाह दौड़ाता है ? ख़र्च सीगाके मालकी क़भी बिध मिलाई जाती है ? उस्की कमी बेशीके लिये कोई जिम्मेदार है ? नौकर कितनें हैं, तनख्वाह क्या पाते हैं, काम क्या करते हैं, उन्की लियाक़त कैसी है, नीयत कैसी है, कारवाई कैसी है, उन्की सेवाका आप पर क्या हक़ है, उन्के रखनें न रखनेंमैं आपका क्या नफ़ा नुक्सान है इनबातों को क़भी आपनें मन लगा कर सोचा है ?”
“मैं पहले ही जान्ता था कि आप हिर फ़िरकर मेरे पासके आदमियों पर चोट करेंगे परन्तु अब मुझको यह बात असह्य है। मैं अपना नफ़ा नुक्सान समझता हूँ आप इस विषय मैं अधिक परिश्रम न करै” लाला मदनमोहननें रोककर कहा।
“मैं क्या कहूँगा पहलेसै बुद्धिमान कहते चले आये हैं” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “विलियम कूपर कहता है :-
जिन नृपनको शिशुकालसै सेवहिं छली तनमन दिये।।
तिनकी दशा अबिलोक करुणाहोत अति मेरे हिये।।
आजन्मों अभिषेकलों मिथ्या प्रशंसा जानकरैं।।
बहु भांत अस्तुति गाय, गाय सराहि सिर स्हेरा धरैं।।
शिशुकालते सीखत सदा सजधज दिखावन लोक मैं।।
तिनको जगावत मृत्यु बहुतिक दिनगए इहलोक मैं।।
मिथ्या प्रशंसी बैठ घुटनन, जोड़ कर, मुस्कावहीं।।
छलकी सुहानी बातकहि पापहि परम दरसावहीं।।
छबिशालिनी, मृदुहासिनी अरु धनिक नितघेरैं रहैं।।
झूंटी झलक दरसाय मनहि लुभाय कुछ दिनमैं लहैं।।
जे हेम चित्रित रथन चढ़, चंचल तुरंग भजावहीं।।
सेना निरख अभिमानकर, यों ब्यर्थ दिवस गमावहीं।।
तिनकी दशा अबिलोक भाखत फरेहूँ मनदुख लिये।।
नृपकी अधमगति देख करुणा होत अति मेरे हिये।।[15]
“लाला साहब अपनें सरल स्वभाव सै कुछ नहीं कहते इस वास्ते आप चाहे जो कहते चले जांय परन्तु कोई तेज़ स्वभाव का मनुष्य होता तो आप इस तरह हरगिज न कहनें पाते” मास्टर शिंभूदयाल नें अपनी जात दिखाई।
सच है ! बिदुरजी कहते हैं “दयावन्त लज्जा सहित मृदु अरु सरल सुभाई।। ता नर को असमर्थ गिन लेत कुबुद्धि दबाइ।। [16]” इस लिये इन गुणों के साथ सावधानी की बहुत ज़रूरत है। सादगी और सीधेपन सै रहनें में मनुष्य की सच्ची अशराफत मालूम होती है। मनुष्य की उन्नति का यह सीधा मार्ग है परन्तु चालाक आदमियोंकी चालाकी सै बचनें के लिये हर तरह की वाकंफ़ियत भी ज़रूर होनी चाहिये” लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया।
“दोषदर्शी मनुष्यों के लिये सब बातों मैं दोष मिल सक्ते हैं क्योंकि लाला साहबके सरल स्वभाव की बड़ाई सब संसार मैं हो रही है परन्तु लाला ब्रजकिशोर को उस्मैं भी दोष ही दिखाई दिया !” पंडित पुरुषोत्तमदास बोले।
“द्रब्य के लालचियों की बड़ाई पर मैं क्या विश्वास करूं ? बिदुरजी कहते हैं कि “जाहि सराहत हैं सब ज्वारी। जाहि सराहत चंचल नारी।। जाहि सराहत भाट बृथा ही। मानहु सो नर जीवत नाही।।[17]” लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया।
“मैं अच्छा हूँ या बुरा हूँ आपका क्या लेता हूँ ? आप क्यों हात धोकर मेरे पीछे पड़े हैं ? आपको मेरी रीति भांति अच्छी नहीं लगती तो आप मेरे पास न आय” लाला मदनमोहन नें बिगड़ कर कहा।
“मैं आपका शत्रु नहीं; मित्र हूँ परन्तु आपको ऐसा ही जचता है तो अब मैं भी आपको अधिक परिश्रम नहीं दिया चाहता। मेरी इतनी ही लालसा है कि आपके बड़ों की बदौलत मैंनें जो कुछ पाया है वह मैं आपकी भेंट करता जाऊं” लाला ब्रजकिशोर लायकी सै कहनें लगे “मैंनें आपके बड़ों की कृपा सै विद्या धन पाया है जिस्का बड़ा हिस्सा मैं आपके सन्मुख रख चुका तथापि जो कुछ बाकी रहा है उस्को आप कृपा करके और अंगीकार कर लें। मैं चाहता हूँ कि मुझसै आप भले ही असप्रन्न रहें, मुझको हरगिज़ अपनें पास न रक्खें परन्तु आपका मंगल हो। यदि इस बिगाड़ सै आपका कुछ मंगल हो तो मैं इसै ईश्वर की कृपा समझूंगा। आप मेरे दोषोंकी ओर दृष्टि न दें। मेरी थोथी बातों मैं जो कुछ गुण निकलता हो उसे ग्रहण करें। हज़रत सादी कहते हैं “भींत लिख्यो तिख्यो उपदेशजू कोऊ ।। सादर ग्रहण कीजिये सोऊ।। [18]” इस लिये आप स्वपक्ष और विपक्ष का बिचार छोड़कर गुण संग्रह करनें पर दृष्टि रक्खैं। आपका बरताव अच्छा होगा तो मैं क्या हूँ ? बड़े-बड़े लायक आदमी आपको सहज मैं मिल जायंगे। परन्तु आपका बरताव अच्छा न हुआ तो जो होंगे वह भी जाते रहेंगे। एक छोटेसे पखेरू की क्या है ? जहां रात हो जाय वहीं उस्का रैन बसेरा हो सक्ता है परन्तु वह फलदार वृक्ष सदा हरा भरा रहना चाहिये जिस्के आश्रय से पक्षी जीते हों।”
बहुत कहनें सै क्या है ?आपको हमसै सम्बन्ध रखना हो तो हमारी मर्जी के मूजिब बरताब रक्खो, नहीं तो अपना रस्ता लो। हमसै अब आपके तानें नहीं सहे जाते” लाला मदनमोहन नें ब्रजकिशोर को नरम देख कर ज्याद: दबानें की तजबीज़ की।
“बहुत अच्छा ! मैं जाता हूँ। बहुत लोग जाहरी इज्जत बनानें के लिये भीतरी इज्जत खो बैठते हैं परन्तु मैं उन्मैं का नहीं हूँ। तुलसीकृतरामायण मैं रघुनाथजीनें कहा है “जो हम निदरहि बिप्रवद्ध सत्यसुनहु भृगुनाथ ।। तो अस को जग सुभटतिहिं भाय बस नावहिं मांथ ।।” सोई प्रसंग इस्समय मेरे लिये वर्तमान है। एथेन्समैं जिन दिनों तीस अन्याइयोंकी कौन्सिल का अधिकार था, एकबार कौन्सिलनें सेक्रिटीज़ को बुलाकर हुक्म दिया कि तुम लिओ नामी धनवान को पकड़ लाओ जिस्सै उस्का माल जब्त किया जाय।” सेक्रिटीज़ नें जवाब दिया कि “एक अनुचित काममैं मैं अपनी प्रसन्नतासै क़भी सहायता न करूंगा” कौन्सिल के प्रेसिन्डेन्टनें धमकी दी कि “तुम को आज्ञा उल्लंघन करनें के कारण कठोर दंड मिलेगा” सेक्रिटीज़नें कहा कि “यह तो मैं पहले हीसै जान्ता हूँ परन्तु मेरे निकट अनुचित काम करनें के बराबर कोई कठोर दंड नहीं है” लाला ब्रजकिशोर बोले।
“जब आप हमको छोड़नें का ही पक्का बिचार कर चुके तो फ़िर इतना बादबिवाद करनेंसै क्या लाभ ? हमारे प्रारब्धमैं होगा वह हम भुगतलेंगे, आप अधिक परिश्रम न करैं” लाला मदनमोहननें त्योरीं बदलकर कहा।
“अब मैं जाता हूँ। ईश्वर आपका मंगल करे। बहुत दिन पास रहनें के कारण जानें बिना जानें अबतक जो अपराध हुए हों वह क्षमा करना” यह कह कर लाला ब्रजकिशोर तत्काल अपनें मकानको चले गए।
“लाला ब्रजकिशोर के गए पीछै मदनमोहनके जीमैं कुछ, कुछ पछतावा सा हुआ। वह समझे कि “मैं अपनें हठसै आज एक लायक आदमीको खो बैठा परन्तु अब क्या ? अब तो जो होना था हो चुका। इस्समय हार माननें सै सबके आगे लज़्जित होना पड़ेगा और इस्समय ब्रजकिशोरके बिना कुछ हर्ज भी नहीं, हां ब्रजकिशोरनें हरकिशोरको सहायता दी तो कैसी होगी ? क्या करैं ? हमको लज़्जित होना न पड़े और सफाई की कोई राह निकल आवे तो अच्छा हो” लाला मदनमोहन इसी सोच बिचार मैं बड़ी देर बैठे रहे मन की निर्बलता सै कोई बात निश्चय न कर सके।
प्रकरण-20 : कृतज्ञता
तृणहु उतारे जनगनत कोटि मुहर उपकार
प्राण दियेहू दुष्टजन करत बै र व्यवहार।।[19]
भोजप्रबंधसार।
लाला ब्रजकिशोर मदनमोहन के पास सै उठकर घर को जानें लगे उस्समय उन्का मन मदनमोहन की दशा देखकर दु:ख सै बिबस हुआ जाता था। वह बारम्बार सोचते थे कि मदनमोहन नें केवल अपना ही नुक्सान नहीं किया अपनें बाल बच्चों का हक़ भी डबो दिया। मदनमोहन नें केवल अपनी पूंजी ही नहीं खोई अपनें ऊपर क़र्ज भी कर लिया।
भला ! लाला मदनमोहनको क़र्ज करनें की क्या ज़रूरत थी ? जो यह पहलै ही सै प्रबंध करनें की रीति जान्कर तत्काल अपनें आमद खर्च का बंदोबस्त कर लेते तो इन्को क्या, इन्के बेटे पोतों को भी तंगी उठानें की कुछ ज़रूरत न थी। मैं आप तकलीफ़ सै रहनें को, निर्लज्जता सै रहनें को, बदइन्तज़ामी सै रहनें को, अथवा किसी हक़दार के हक़ मैं कमी करनें को पसंद नहीं करता, परन्तु इन्को तो इन्बातों के लिये उद्योग करनें की भी कुछ ज़रूरत न थी। यह तो अपनी आमदनी का बंदोबस्त करके असल पूंजी के हाथ लगाए बिना अमीरी ठाठ सै उमरभर चैन कर सक्ते थे। बिदुरजी नें कहा है “फल अपक्क जो बृक्ष ते तोर लेत नर कोय।। फल को रस पावै नहीं नास बीजको होय।। नासबीज को होय यहै निज चित्त विचारै।। पके, पके फललेई समय परिपाक निहारै।।पके, पके फललेई स्वाद रस लहै बुद्धिबल।। फलते पावै बीज, बीजते होइ बहुरिफल।।”[20] यह उपदेश सब नीतिका सार है परन्तु जहां मालिक को अनुभव न हो, निकटवर्ती स्वार्थपर हों वहां यह बात कैसे हो सक्ती है ? “जैसे माली बाग को राखत हितचित चाहि।। तैसै जो कोला करत कहा दरद है ताहि ?”
लाला मदनमोहन अबतक क़र्जदारी की दुर्दशा का बृतान्त नहीं जान्ते।
जिस्समय क़र्जदार वादे पर रुपया नहीं दे सक्ता उसी समय सै लेनदार को अपनें कर्ज के अनुसार क़र्जदार की जायदाद और स्वतन्त्रता पर अधिकार हो जाता है। वह क़र्जदार को कठोर से कठोर वाक्य “बेईमान” कह सक्ता है, रस्ता चलते मैं उस्का हाथ पकड़ सक्ता है। यह कैसी लज्जा की बात है कि एक मनुष्य को देखते ही डर के मारे छाती धड़कनें लगे और शर्म के मारे आंखें नीची हो जायें, सब लोग लाला मदनमोहन की तरह फ़िजूल खर्ची और झूंठी ठसक दिखानें मैं बरबाद नहीं होते सौ मैं दो, एक समझवार भी किसीका काम बिगड़ जानें सै, या किसी की जामनी कर देनें सै या किसी और उचित कारण सै इस आफ़त मैं फंस जाते हैं परन्तु बहुधा लोग अमीरों की सी ठसक दिखानेंमैं और अपनें बूते सै बढ़कर चलनें मैं क़र्जदार होते हैं।
क़र्जदारी मैं सबसै बड़ा दोष यह है कि जो मनुष्य, धर्मात्मा होता है वह भी क़र्जमैं फंसकर लाचारी सै अधर्म की राह चलनें लगता है। जब सै कर्ज़ लेनें की इच्छा होती है तब ही सै कर्ज़ लेनेंवाले को ललचानें, ओर अपनी साहूकारी दिखानें के लिये तरह, तरह की बनावट की जाती हैं। एकबार कर्ज़ लिये पीछै कर्ज़ लेनें का चस्का पड़ जाता है और समय पर कर्ज़ नहीं चुका सक्ता तब लेनदार को धीर्य देनें और उस्की दृष्टि मैं साहूकार दीखनें के लिये ज्यादा: ज्यादा: कर्ज़ मैं जकड़ता जाता है और लेनदार का कड़ा तकाज़ा हुआ तो उस्का कर्ज चुकानें के लिये अधर्म करनें की रुचि हो जाती है। कर्ज़दार झूठ बोलनें सै नहीं डरता और झूठ बोले पीछै उस्की साख नहीं रहती। वह अपनें बाल बच्चों के हक़ मैं दुश्मन सै अधिक बुराई करता है। मित्रों को तरह, तरह की जोखों मैं फंसाता है अपनी घड़ी भर की मौज के लिये आप जन्मभर के बंधन मैं पड़ता है और अपनी अनुचित इच्छा को सजीवन करनें के लिये आप मर मिटता है।
बहुत सै अबिचारी लोग कर्ज़ चुकानें की अपेक्षा उदारता को अधिक समझते हैं। इस्का कारण यह है कि उदारता सै यश मिल्ता है, लोग जगह, जगह उदार मनुष्य की बड़ाई करते फ़िरते हैं परन्तु कर्ज़ चुकाना केवल इन्साफ़ है इसलिये उस्की तारीफ़ कोई नहीं करता। इन्साफ़ को लोग साधारण नेंकी समझते हैं, इस कारण उस्की निस्बत उदारता की ज्याद: कदर करते हैं जो बहुधा स्वभाव की तेजी और अभिमान सै प्रगट होती है परन्तु बुद्धिमानी सै कुछ सम्बन्ध नहीं रखती। किसी उदार मनुष्य सै उस्का नौकर जाकर कहैकि फलाना लेनदार अपनें रुपेका तकाजा करनें आया है और आप के फलानें गरीब मित्र अपनें निर्बाह के लिये आप की सहायता चाहते हैं तो वह उदार मनुष्य तत्काल कह देगा कि लेनदार को टाल दो और उस गरीब को रुपे देदो क्योंकि लेनदार का क्या ? वह तो अपनें लेनें लेता इस्के देनें सै वाह वाह होगी।
परन्तु इन्साफ़ का अर्थ लोग अच्छी तरह नहीं समझते क्योंकि जिस्के लिये जो करना चाहिए वह करना इन्साफ़ है इसलिये इन्साफ़ मैं सब नेंकियें आगईं। इन्साफ़ का काम वह है जिस्मैं ईश्वर की तरफ़ का कर्तव्य, संसार की तरफ़ का कर्तव्य, और अपनी आत्मा की तरफ़ का कर्तव्य अच्छी तरह सम्पन्न होता हो। इन्साफ़ सब नेंकियों की जड़ है और सब नेंकियां उस्की शाखा-प्रशाखा हैं इन्साफ़ की सहायता बिना कोई बात मध्यम भाव सै न होगी तो सरलता अविवेक, बहादुरी, दुराग्रह, परोपकार, अन्समझी और उदारता फिजूलखर्ची हो जायँगी।
कोई स्वार्थ रहित काम इन्साफ़ के साथ न किया जाय तो उस्की सूरत ही बदल जाती है और उसका परिणाम बहुधा भयंकर होता है। सिवाय की रकम मैं सै अच्छे कामों मैं लगाए पीछै कुछ रुपया बचै और वो निर्दोष दिल्लगी की बातों मैं खर्च किया जाय तो उस्को कोई अनुचित नहीं बता सक्ता परन्तु कर्तव्य कामों को अटका कर दिल्लगी की बातों मैं रुपया या समय खर्च करना अभी अच्छा नहीं हो सक्ता। अपनें बूते मूजब उचित रीति सै औरों की सहायता करनी मनुष्य का फर्ज है परन्तु इस्का यह अर्थ नहीं है कि अपनें मन की अनुचित इच्छाओं को पूरा करनें का उपाय करै अथवा ऐसी उदारता पर कमर बांधे कि आगै को अपना कर्तव्य सम्पादन करनें के लिये और किसी अच्छे काम मैं खर्च करनें के लिये अपनें पास फूटी कौड़ी न बचे बल्कि सिवाय मैं कर्ज़ होजाय।
अफसोस ! लाला मदनमोहन की इस्समय ऐसी ही दशा हो रही है। इन्पर चारों तरफ़ सै आफत के बादल उमड़े चले आते हैं परन्तु इन्हैं कुछ खबर नहीं है
विदुर जी नें सच कहा है :-
“बुद्धिभ्रंशते लहत बिनासहि।।ताहि अनीति नीतिसी भासहि।।” [21]
इस तरह सै अनेक प्रकार के सोच बिचार में डूबे हुए लाला ब्रजकिशोर अपनें मकान पर पहुंचे परन्तु उन्के चित्त को किसी बात सै जरा भी धैर्य न हुआ।
लाला ब्रजकिशोर कठिन सै कठिन समय मैं अपनें मन को स्थिर रख सक्ते थे परन्तु इस्समय उन्का चित्त ठिकानें न था। उन्नें यह काम अच्छा किया कि बुरा किया ? इस बात का निश्चय वह आप नही कर सक्ते थे। वह कहते थे कि इस दशा मैं मदनमोहन का काम बहुत दिन नहीं चलेगा और उस्समय ये सब रुपे के मित्र मदनमोहन को छोड़कर अपनें, अपनें रस्ते लेगेंगे परन्तु मैं क्या करूँ ? मुझको कोई रास्ता नहीं दिखाई देता और इस्समय मुझ सै मदनमोहन की कुछ सहायता न हो सकी तो मैंनें संसार मैं जन्म लेकर क्या किया ?
फ्रांस के चौथे हेन्री नें डी ला ट्रेमाइल को देशनिकाला दिया था और काउन्ट डी आविग्नी उस्सै मेल रखता था। इस्पर एक दिन चौथे हेन्री नें डी आविग्नी सै कहा कि “तुम अबतक डी ला ट्रेमाइल की मित्रता कैसे नहीं छोड़ते ?” डी आविग्नी नें जवाब दिया कि मैं ऐसी हालत मैं उस्की मित्रता नहीं छोड़ सक्ता क्योंकि मेरी मित्रता के उपयोग करनें का काम तो उस्को अभी पड़ा है।”
पृथ्वीराज महोबेकी लड़ाई मैं बहुत घायल होकर मुर्दों के शामिल पड़े थे और संजमराय भी उन्के बराबर उसी दशा मैं पड़ा था। उस्समय एक गिद्ध आके पृथ्वीराज की आंख निकालनें लगा। पृथ्वीराज को उस्के रोकनें की सामर्थ्य न थी इसपर संजमराय पृथ्वीराजको बचानें के लिये अपनें शरीर का माँस काट, काट कर गिद्धके आगे फैकनें लगा जिस्सै पृथ्वीराजकी आंखैं बच गईं और थोड़ी देर मैं चन्द वगैर आ पहुंचें।
हेन्री रिचमन्ड, पीटरके भय सै ब्रीटनी छोड़ कर फ्रान्सको भागनें लगा उस्समय उस्के सेवक सीमारनें उस्के वस्त्र पहन कर उस्की जोखों अपनें सिर ली और उस्को साफ निकाल दिया।
क्या इस्सतरहसै मैं मदनमोहन की कुछ सहायता इस्समय नहीं कर सक्ता ! यदि हम इस काम मैं मेरी जान भी जाती रहै तो कुछ चिन्ता नहीं। जब मैं उन्को अनसमझ जान कर उन्के कहनें सै उन्हैं छोड़ आया तो मैंनें कौन्सी बुद्धिमानी की ? पर मैं रह कर क्या करता ? हां मैं हां मिला कर रहना रोगी को कुपथ्य देनें सै कम न था और ऐसे अवसर पर उन्का नुक्सान देख कर चुप हो रहना भी स्वार्थपरता सै क्या कम था ? मेरा बिचार सदेव सै यह रहता है कि काम रहता तो विधि पूर्वक करना। न होसके तो चुप हो रहना, बेगार तक को बेगार न समझना परन्तु वहां तो मेरे वाजबी कहनें सै उल्टा असर होता था और दिनपर दिन जिद बढ़ती जाती थी। मैंनें बहुत धैर्य सै उन्को राह पर लानें के उपाय किये पर उन्नें किसी हालत मैं अपनी हद्द सै आगै बढ़ना मंजूर न किया।
असल तो ये है कि अब मदनमोहन बच्चे नहीं रहे। उन्की उम्रपक गई। किसी का दबाब उन्पर नहीं रहा, लोगोंनें हां मैं हां मिला कर उन्की भूलों को और दृढ़ कर दिया। रुपे के कारण उन्को अपनी भूलों का फल मिला और संसारके दु:ख सुखका अनुभव न होनें पाया बस रंग पक्का हो गया। बिदुरजी कहते हैं कि “सन्त असन्त तपस्वी चोर। पापी सुकृति ह्रदय कठोर।। तैसो होय बसे जिहि संग। जैसो होत बसन मिल रंग।।” [22]
यदि सावधान हों तो अंगद हनुमान की तरह उन्की आज्ञा पालन करनें मैं सब कर्तव्य संपादन हो जाते हैं परन्तु जहां ऐसा होता वहीं बड़ी कठिनाई पड़ती है। सकड़ी गली मैं हाथी नहीं चल्ता तब महावत कूढ़ बाजता है। वृन्द कहता है कि “ताकों त्यों समझाइये जो समझे जिहिं बानि।। बैन कहत मग अन्धकों अरु बहरेको पानि।।” जिस तरह सुग्रीव भोग विलास मैं फंस गया तब रघुनाथ जी केवल उस्को धमकी देकर राह पर ले आए थे इस तरह लाला मदनमोहन के लिये क्या कोई उपाय नहीं होसक्ता ? हे जगदीश ! इस कठिन काम मैं तू मेरी सहायता कर।
लाला ब्रजकिशोर इन्बातों के बिचार मैं ऐसे डूबे हुए थे कि उन्को अपना देहानुसन्धान न था। एक बार वह सहसा कलम उठा कर कुछ लिखनें लगे और किसी जगह को पूरा महसूल देकर एक जरूरी तार तत्काल भेज दिया। परन्तु फ़िर उन्हीं बातों के सोच बिचार मैं मग्न होगए। इस्समय उन्के मुखसै अनायास कोई, कोई शब्द बेजोड़ निकल जाते थे जिन्का अर्थ कुछ समझ मैं नहीं आता था। एक बार उन्नें कहा “तुलसीदासजी सच कहते हैं ” षटरस बहु प्रकार ब्यंजन कोउ दिन अरु रैन बखानें।। बिन बोले सन्तोष जनित सुख खाय सोई पै जानें।।” थोड़ी देर पीछै कहा “मुझको इस्समय इस बचन पर बरताव रखना पड़ेगा (वृन्द) झूंटहु ऐसो बोलिये सांच बराबर होय।। जो अंगुरी सों भीत पर चन्द्र दिखावे कोए।।” परन्तु पानी जैसा दूध सै मिल जाता है तेल सै नहीं मिल्ता। विक्रमोर्बशी नाटक मैं उर्वशी के मुख सै सच्ची प्रीति के कारण पुरुषोत्तम की जगह पुरूरवा का नाम निकल गया था इसी तरह मेरे मुख सै कुछका कुछ निकल गया तो क्या होगा ? थोड़ी देर पीछै कहा “लोक निन्दा सै डरना तो वृथा है जब वह लोग जगत जननी जनक नन्दिनी की झूंटी निन्दा किये बिना नहीं रहे ! श्रीकृष्णचन्द्र को जाति वालों के अपवाद का उपाय नारदजी सै पूछना पड़ा ! तो हम जैसे तुच्छ मनुष्यों की क्या गिन्ती है ? सादीनें लिखा है “एक विद्वान सै पूछा गया था कि कोई मनुष्य ऐसा होगा जो किसी रूपवान सुन्दरी के साथ एकांत मैं बैठा हो दरवाजा बन्द हो, पहरे वाला सोता हो मन ललचा रहा हो काम प्रबल हो++ और वह अपनें शम दम के बल सै निर्दोष बच सकै ?” उसनें कहा कि “हां वह रूपवान सुन्दरी सै बच सक्ता है परन्तु निन्दकों की निन्दा सै नहीं बच सक्ता” फ़िर लोक निन्दा के भय सै अपना कर्तव्य न करना बड़ी भूल है धर्म्म औरों के लिये नहीं अपनें लिये और अपनें लिये भी फल की इच्छा सै नहीं, अपना कर्तव्य पूरा करनें के लिये करना चाहिये परन्तु धर्म्म अधर्म होजाय, नेंकी करते बुराई पल्ले पड़े, औरों को निकालती बार आप गोता खानें लगें तो कैसा हो ? रूपेका लालच बड़ा प्रबल है और निर्धनोंको तो उन्के काम निकालनें की चाबी होनें के कारण बहुत ही ललचाता है” थोड़ी देर पीछै कहा “हलधरदास नें कहा है “बिन काले मुख नहिं पलाश को अरुणाई है।। बिन बूड़े न समुद्र काहु मुक्ता पाई है।।” इसी तरह गोल्ड स्मिथ कहता है कि “साहस किये बिना अलभ्य वस्तु हाथ नहीं लग सक्ती” इसलिये ऐसे साहसी कामों मैं अपनी नीयत अच्छी रखनी चाहिये यदि अपनी नीयत अच्छी होगी तो ईश्वर अवश्य सहायता करैगा और डूब भी जायंगे तो अपनी स्वरूप हानि न होगी।”