परीक्षा गुरू

निवेदन

अबतक नागरी और उर्दू भाषा मैं अनेक तरह की अच्छी, अच्छी पुस्तकें तैयार हो चुकी हैं परन्तु मेरे जान इसरीतिसे कोई नहीं लिखी गई इसलिये अपनी भाषामैं यह नई चालकी पुस्तक होगी परंतु नई चाल होनेंसै ही कोई चीज अच्छी नहीं हो सक्ती बल्कि साधारण रीतिसै तो नई चालमैं तरह, तरह की भूल होनेंकी संभावना रहती है और मुझको अपनी मन्द बुद्धिसै और भी अधिक भूल होनेंका भरोसा है इसलिए मैं अपनी अनेक तरह की भूलोंसै क्षमा मिलने का आधार केवल सज्जनोंकी कृपा दृष्टि पर रखता हूं।

यह सच है कि नई चालकी चीज देखनेंको सबका जी ललचाता है परंतु पुरानी रीतिके मनमैं समाये रहने और नई रीतिको मन लगाकरर समझनेमैं थोड़ी मेहनत होनेंसै पहले पहल पढ़नेवाले का जी कुछ उलझनें लगता है और मन उछट जाता है इस्सै उसका हाल समझमैं आनेंके लिये मैं अपनी तरफसे यहां कुछ खुलासा किया चाहता हूं:-

पहलै तो पढ़नेंवाले इस पुस्तकमैं सौदागरकी दुकानका हाल पढ़ते ही चकरावेंगे क्योंकि अपनी भाषामैं अबतक वार्तारूपी जो पुस्तकें लिखी गई हैं उन्मैं अक्सर नायक, नायका वगैरैका हाल ठेटसै सिलसिलेवार (यथाक्रम) लिखा गया है “जैसै कोई राजा, बादशाह, सेठ, साहूकारका लड़का था उसके मनमैं इस बातसै यह रुचि हुई और उस्का यह परिणाम निकला” ऐसा सिलसिला इसमैं कुछभी नहीं मालूम होता ‘लाला मदनमोहन एक अग्रेजी सौदागरकी दूकान मैं अस्वाब देख रहे हैं लाला ब्रजकिशोर, मुन्शीचुन्नीलाल और मास्टर शिंभूदयाल उनके साथ हैं ”इन्मैं मदनमोहन कौन, ब्रजकिशोर कौन, चुन्नीलाल कौन और शिंभूदयाल कौन है ? इन्का स्वभाव कैसा है? परस्पर-सम्बन्ध कैसा है ? हरेककी हालत क्या है ? यहां इस्समय किस लिये इकठ्ठे हुए हैं? यह बातें पहलैसै कुछ भी नहीं जताई गई ! हां पढने वाले धैर्यसे सब पुस्तक पढ लेंगे तो अपने-अपने मौकेपर सब भेद खुल्ता चला जायगा और आदिसै अन्त तक सब मेल मिल जायगा परन्तु जो साहब इतना धैर्य न रक्खेंगे वह इस्का मतलब भी नहीं समझ सकेंगे

अलबत्ता किसी नाटकमैं यहरीति पहलैसै पाई जातीहै परंतु उस्की इस्की लिखनेंकी रीति जुदी जुदी है। नाटकोंमैं जिस्का बचन होता है उस्का नाम आदिमैं लिख देते हैं और वह पैरेग्राफ1 उस्का बचन समझा जाता है परंतु इस्मैं ऐसा नहीं होता इस्मैं ऐसा ” ” चिन्ह ( अर्थात इन्वरटेडकोमा या कुटेशन ) के भीतर कहनेंवालेका का वचन लिखा जाता है और कहनेंवाले का नाम बचनके बीचमैं या अंतमैं जहां पुस्तक रचने वालेको जगह मिल्ती है, वह लिख देता है अथवा नाम लिखे बिना पढ़नेवालेको कहनेंवालेका बचन मालूम हो सके तो नहीं भी लिखता। एक आदमीका बचन बहुत करके एक पैरेग्राफमैं पूरा होता है परंतु कहीं, कहीं किसी, किसीके बचन में और विषय आ जाते हैं तो ऐसे “चिन्ह (इन्वरटेड-कोमा ) से पहला वचन पूरा किये बिना दूसरे पैराग्राफ के आदि से ऐसे”चिन्ह लगाकर उसी का वचन जारी रखा जाताहै और वचन के बीच में दूसरे का वचन आ जाता है तो वहां उस वचन को अलग दिखाने के लिये उसपर भी अक्सर इन्वरटेडकोमा लगा दिये जाते हैं परंतु जो वचन ऐसे“ ” चिन्हों के भीतर नहीं होते वह पुस्तक रचने वाले की तरफ से होते हैं।

(1पैरग्राफके प्रारंभमें हर जगह नएसिरेसै से जरासी लकीर छोड़कर लिखा जाता है और वह पूरा होताहै वहां बाकी लकीर खाली छोड़ दी जातीहै, जैसे यह पैरेग्राफ ” “से प्रारम्भ होकर “होतेहैं” पर समाप्ति हुआ है।)

और चिन्हों में ऐसा , (कोमा) किंचित विश्राम,ऐसा;(सेमीकोलन) अथवा : (कोलन अर्ध बिश्राम,ऐसा।(फुलिस्टप) पूर्णविश्राम,ऐसा ? (इन्ट्रोगेशन) प्रश्न की जगह ऐसा ! (एक्सक्ल मेशन) आश्चर्य अथवा संबोधन वगैरे के जो शब्द जोर देकर बोलने चााहिए उन्के आगे ऐसा-चिन्ह बात अधूरी छोड़नें के समय लगाया जाता है और ऐसे () चिन्हों (पेरेन थिसेस) के भीतर पहले पद का खुलासा अर्थ या चलते प्रसंग में कोई दूतरफी अथवा विशेष बात जतानी होती है वह लिख देते हैं।

इस पुस्त्तक में दिल्ली के एक कल्पित (फर्जी) रईस का चित्र उतारा गया है और उस्को जैसे का तैसा (अर्थात्स्वा भाविक) दिखाने के लिये संस्कृत अथवा फारसी अरबी के कठिन कठिन,शब्दों की बनाई हुई भाषाके बदले दिल्लीके रहनेंवालोंकी साधारण बोलचाल पर ज्यादः दृष्टि रखी गई है। अलबत्ता जहां कुछ बिद्या- बिषय आ गया है वहां विवस होकर कुछ,कुछ शब्द संस्कृत आदि के लेने पड़े हैं परंतु जिनको ऐसी बातों समझने में कुछ झमेल मालूम हो उनकी सुगमता के लिये ऐसे प्रकरणों पर ऐसा[ 4 ]चिन्ह लगा दिया गया है जिस्सै उन प्रकरणों को छोड़कर हरेक मनुष्य सिलसिले वार वृतान्त पढ़ सक्ता है।

इस पुस्तक में संस्कृत, फारसी अंग्रेजी की कविता का तर्जुमा अपनी भाषा के छंदो में हुआ है परंतु छंदों के नियम और दूसरे देशों का चाल चलन जुदा होने की कठिनाई से पूरा तर्जुमा करने के बदले कहीं,कहीं भावार्थ ले लिया गया है।

अब इस पुस्तक गुणदोंषो पर विशेष विचार करने का काम बुद्धिमानों की बुद्घिपर छोड़कर मैं केवल इतनी बात निवेदन किया चाहता हूँ कि कृपा करके कोई महाशय पूरी पुस्तक बांचे बिना अपना विचार प्रकट करने की जल्दी न करैं और जो सज्जन इस विषय में अपना विचार प्रगट करैं बह कृपा करके उस्की एक नकल मेरे पास भी भेजदें ( यदी कोई अखबार वाला उस अंक की कीमत चाहेगा तो वह तत्काल उसके पास भेज दी जायगी ) जो सज्जन तरफदारी ( पक्षपात ) छोडकर इस विषय मैं , स्वतंत्रता से अपना विचार प्रगट करैंगे मैं उनका बहुत उपकार मानूंगा।

इस पुस्तक के रचनें मैं मुझको महाभारतदि संस्कृत, गुलिस्तां बगैरे फारसी, स्पेक्टेटर, लार्ड बेकल,गोल्डस्मिथ,विलियमकूपर आदि के पुराने लेखों और स्त्री बोध आदि के बर्तमान रिनालों से बड़ी सहायता मिली है इसलिये इन सबका मैं बहुत उपकार मानता हूं और दीनदयाल परमेश्वर की निर्हेतुक कृपा का सच्चे मन से अमित उपकार मानकर यह लेख समाप्त करता हूं।

सज्जनोंका कृपाभिलाषी

श्रीनिवासदास,दिल्ली।

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