यह प्राचीन भक्तिमार्ग एकदेशीय आधार पर स्थित नहीं, यह एकांगदर्शी नहीं। यह हमारे हृदय को ऐसा नहीं करना चाहता कि हम केवल व्रत उपवास करनेवालों और उपदेश करनेवालों ही पर श्रद्धा रखें और जो लोग संसार के पदार्थों का उचित उपभोग करके अपनी विशाल भुजाओं से रणक्षेत्र में अत्याचारियों का दमन करते हैं, या अपनी अंतर्दृष्टि की साधना और शारीरिक अध्यवसाय के बल से मनुष्य जाति के ज्ञान की वृद्धि करते हैं, उनके प्रति उदासीन रहें। गोस्वामीजी की रामभक्ति वह दिव्य वृत्ति है जिससे जीवन में शक्ति सरसता, प्रफुल्लता, पवित्रता, सब कुछ प्राप्त हो सकती है। आलंबन की महत्त्व भावना से प्रेरित दैन्य के अतिरिक्त भक्ति के और जितने अंग हैं भक्ति के कारण अंत:करण की जो और और शुभ वृत्तियाँ प्राप्त होती हैं सबकी अभिव्यंजना गोस्वामीजी के ग्रंथों के भीतर हम पा सकते हैं। राम में सौंदर्य, शक्ति और शील तीनों की चरम अभिव्यक्ति एक साथ समन्वित होकर मनुष्य के संपूर्ण हृदय को उसके किसी एक ही अंश को नहीं आकर्षित कर लेती है। कोरी साधुता का उपदेश पाषंड है, कोरी वीरता का उपदेश उद्दंडता है, कोरे ज्ञान का उपदेश आलस्य है और कोरी चतुराई का उपदेश धूर्तता है।
सूर और तुलसी को हमें उपदेशक के रूप में न देखना चाहिए। वे उपदेशक नहीं हैं, अपनी भावुकता और प्रतिभा के बल से लोक व्यापार के भीतर भगवान् की मनोहर मूर्ति प्रतिष्ठित करनेवाले हैं। हमारा प्राचीन भक्ति मार्ग उपदेशकों की सृष्टि करनेवाला नहीं है। सदाचार और ब्रह्मज्ञान के रूखे उपदेशों द्वारा इसके प्रचार की व्यवस्था नहीं है। न भक्तों के राम और कृष्ण उपदेशक, न उनके अनन्य भक्त तुलसी और सूर। लोक व्यवहार में मग्न होकर जो मंगल ज्योति इन अवतारों ने उसके भीतर जगाई, उसके माधुर्य का अनेक रूपों में साक्षात्कार करके मुग्ध होना और मुग्ध करना ही इन भक्तों का प्रधान व्यवसाय है। उनका शस्त्र भी मानव हृदय है और लक्ष्य भी। उपदेशों का ग्रहण ऊपर ही ऊपर से होता है। न वे हृदय के मर्म को ही भेद सकते हैं, न बुद्धि की कसौटी पर ही स्थिर भाव से जमे रह सकते हैं। हृदय तो उनकी ओर मुड़ता ही नहीं और बुद्धि उनको लेकर अनेक दार्शनिक वादों के बीच जा उलझती है। उपदेशवाद या तर्क गोस्वामीजी के अनुसार ‘वाक्यज्ञान’ मात्र कराते हैं, जिससे जीव कल्याण का लक्ष्य पूरा नहीं होता-
वाक्य ज्ञान अत्यंत निपुन भव पार न पावै कोई।
निसि गृह मध्यन दीप की बातन तम निवृत्त नहिं होई।।
‘वाक्य ज्ञान’ और बात है, ‘अनुभूति’ और बात। इसी से प्राचीन परंपरा के भक्त लोग उपदेश, वाद या तर्क की अपेक्षा चरित्र श्रवण और चरित्र कीर्तन आदि का ही अधिक नाम लिया करते हैं।
प्राचीन भागवत संप्रदाय के बीच भगवान् के उस लोक रंजनकारी रूप की प्रतिष्ठा हुई जिसके अवलंबन से मानव हृदय अपने पूर्ण भावसंघात के साथ कल्याण मार्ग की ओर आप से आप आकर्षित हो सके। इसी लोक रंजनकारी रूप का प्रत्यक्षीकरण प्राचीन परंपरा के भक्तों का लक्ष्य है; उपदेश देना नहीं। उसी मनोहर रूप की अनुभूति से गद्गद और पुलकित होना उसी रूप की एक एक छटा को औरों के सामने भी रखकर उन्हें मानव जीवन के सौंदर्य साधन में प्रवृत्ता करना, भक्तों का काम है।
गोस्वामीजी ने अनंत सौंदर्य का साक्षात्कार करके उसके भीतर ही अनंत शक्ति और अनंत शील की वह झलक दिखाई है जिसके प्रकाश में लोक का प्रमोदपूर्ण परिचालन हो सकता है। सौंदर्य, शक्ति और शील तीनों में मनुष्य मात्र के लिए आकर्षण विद्यमान है। रूप लावण्य के बीच प्रतिष्ठित होने से शक्ति और शील को और भी अधिक सौंदर्य प्राप्त हो जाता है, उनमें एक अपूर्व मनोहरता आ जाती है। जिसे शक्ति सौंदर्य की झलक मिल गई, उसके हृदय में सच्चे वीर होने की अभिलाषा जीवन भर के लिए जग गई, जिसने शील, सौंदर्य की यही झाँकी पाई उसके आचरण पर इसके मधुर प्रतिबिंब की छाप बैठी। प्राचीन भक्ति के इन तत्त्वों की ओर ध्याणन न देकर जो लोग भगवान् की लोक मंगलविभूति के द्रष्टा तुलसी को कबीर, दादू आदि की श्रेणी में रखकर देखते हैं वे बड़ी भारी भूल करते हैं।
अनंत शक्ति सौंदर्य समन्वित अनंत शील की प्रतिष्ठा करके गोस्वामीजी को पूर्ण आशा होती है कि उसका आभास पाकर जो पूरी मनुष्यता को पहुँचा हुआ हृदय होगा वह अवश्य द्रवीभूत होगा-
सुनि सीतापति सील सुभाउ।
मोद न मन, तन पुलक, नयन जल सो नर खेहर खाउ।।
इसी हृदय द्वारा ही मनुष्य में शील और सदाचार का स्थायी संस्कार जम सकता है। दूसरी कोई पद्धति है ही नहीं। अनंत शक्ति और अनंत सौंदर्य के बीच से अनंत शील की आभा फूटती देख जिसका मन मुग्ध न हुआ, जो भगवान् की लोकरंजन मूर्ति के मधुर ध्या न में कभी लीन न हुआ, उसकी प्रकृति की कटुता बिलकुल नहीं दूर हो सकती।
सूर, सुजान, सपूत, सुलच्छन, गनियत गुन गरुआई।
बिनु हरिभजन इँदारुन के फल, तजत नहीं करुआई।।
चरम महत्त्व के इस भव्य मनुष्य ग्राह्य रूप के सम्मुख भावविह्नल भक्त हृदय के बीच जो जो तरंगें उठती हैं उन्हीं की माला विनयपत्रिका है। महत्त्व के नाना रूप और इन भाव तरंगों की स्थिति परस्पर बिंब प्रतिबिंब समझनी चाहिए। भक्ति में दैन्य, आशा, उत्साह, आत्मग्लानि, अनुताप, आत्मनिवेदन आदि की गंभीरता उस महत्त्व की अनुभूति की मात्रा के अनुसार समझिए। महत्त्व का जितना ही सान्निध्यत प्राप्त होता जाएगा, उसका जितना ही स्पष्ट साक्षात्कार होता जाएगा, उतना ही अधिक स्फुट भावों का विकास होता जाएगा और इन पर भी महत्त्व की आभा चढ़ती जाएगी। मानो ये भाव महत्त्व की ओर बढ़ते जाते हैं और महत्त्व इन भावों की ओर बढ़ता जाता है। इस प्रकार लघुत्व का महत्त्व में लय हो जाता है।
सारांश यह कि भक्ति का मूल तत्त्व है महत्त्व की अनुभूति। इस अनुभूति के साथ ही दैन्य अर्थात् अपने लघुत्व की भावना का उदय होता है। इस भावना को दो ही पंक्तियों में गोस्वामीजी ने बड़े ही सीधे सादे ढंग से व्यक्त कर दिया है-
राम सों बड़ो है कौन, मोसों कौन छोटो?
राम सों खरो है कौन, मोसों कौन खोटो?
प्रभु के महत्त्व के सामने होते ही भक्त के हृदय में अपने लघुत्व का अनुभव होने लगता है। उसे जिस प्रकार प्रभु का महत्त्व वर्णन करने में आनंद आता है, उसी प्रकार अपना लघुत्व वर्णन करने में भी। प्रभु की अनंत शक्ति के प्रकाश में उसकी असामर्थ्य का, उसकी दशा का बहुत साफ चित्र दिखाई पड़ता है और वह अपने ऐसा दीन हीन संसार में किसी को नहीं देखता। प्रभु के अनंत शील और पवित्रता के सामने उसे अपने में दोष ही दोष और पाप दिखाई पड़ने लगते हैं। इस अवस्था को प्राप्त भक्त अपने दोषों, पापों और त्रुटियों को अत्यंत अधिक परिमाण में देखता है और उनका जी खोलकर वर्णन करने में बहुत कुछ संतोष लाभ करता है। दंभ, अभिमान, छल, कपट आदि में से कोई उस समय बाधक नहीं हो सकता। इस प्रकार अपने पापों की पूरी सूचना देने से जी का बोझ ही नहीं, सिर का बोझ भी कुछ हलका हो जाता है। भक्त के सुधार का भार उसी पर न रहकर बँट सा जाता है।
ऐसी उच्च मनोभूमि की प्राप्ति, जिसमें अपने दोषों को झुक झुककर देखने ही की नहीं, उठा उठाकर दिखाने की भी प्रवृत्ति होती है; ऐसी नहीं जिसे कोई कहे कि यह कौन बड़ी बात है। लोक की सामान्य प्रवृत्ति तो प्राय: इसके विपरीत ही होती है, जिसे अपनी ही मानकर गोस्वामीजी कहते हैं-
जानत हू निज पाप जलधि जिय,
जल सीकर सम सुनत लरौं।
रज सम पर अवगुन सुमेरु करि,
गुन गिरि सम रज तें निदरौं।।
ऐसे बचनों के संबंध में यह समझ रखना चाहिए कि ये दैन्य भाव के उत्कर्ष की व्यंजना करनेवाले उद्गार हैं। ऐतिहासिक खोज की धुन में इन्हें आत्मवृत्त समझ बैठना ठीक न होगा। इन शब्द प्रवाहों में लोक की सामान्य प्रवृत्ति की व्यंजना हो जाती है, इससे इनके द्वारा प्रत्येक मनुष्य अपने दोषों और बुराइयों की ओर दृष्टि ले जाने का साहस प्राप्त कर सकता है। दैन्य भक्तों का बड़ा भारी बल है।
परम महत्त्व के सान्निध्य। से हृदय में उस महत्त्व में लीन होने के जो अनेक प्रकार के आंदोलन उत्पन्न होते हैं, वे ही भक्तों के भाव हैं। कभी भक्त अनंत रूपराशि के अनुभव से प्रेम पुलकित हो जाता है, कभी अनंत शक्ति की झलक पाकर आश्चर्य और उत्साह से पूर्ण होता है, कभी अनंत शील की भावना से अपने कर्मों पर पछताता है और कभी प्रभु के दया दाक्षिण्य को देख मन में इस प्रकार का ढाँढस बँधाता है-
कहा भयो जो मन मिलि कलिकालहि कियों भौंतुवा भौंर को हौं।
तुलसिदास सीतल नित एहि बल, बड़े ठेकाने ठौर को हौं।।
दिन रात स्वामी के पास रहते रहते जिस प्रकार सेवक की कुछ धड़क खुल जाती है, उसी प्रकार प्रभु के सतत ध्याुन से जो सान्निध्य की अनुभूति भक्त के हृदय में उत्पन्न होती है, उसके कारण वह कभी कभी मीठा उपालंभ भी देता है।
भक्ति में लेन देन का भाव नहीं रह जाता। भक्ति के बदले में उत्तम गति मिलेगी, इस भावना को लेकर भक्ति हो ही नहीं सकती। भक्त के लिए भक्ति का आनंद ही उसका फल है। वह शक्ति, सौंदर्य और शील के अनंत समुद्र के तट पर खड़ा होकर नहीं लेने में ही जीवन का परम फल मानता है।
गोस्वामीजी एक बार वृंदावन गए थे। वहाँ किसी कृष्णोपासक ने उन्हें छेड़कर कहाआपके राम तो बारह ही कला के अवतार हैं। आप श्रीकृष्ण की भक्ति क्यों नहीं करते जो सोलह कला के अवतार हैं? गोस्वामीजी बड़े भोलेपन के साथ बोलेहमारे राम अवतार भी हैं, यह हमें आज मालूम हुआ। राम भगवान् के अवतार हैं, इससे उत्तम फल या उत्तम गति दे सकते हैं, बुद्धि के इस निर्णय पर तुलसी राम से भक्ति करने लगे हों, यह बात नहीं है। राम तुलसी को अच्छे लगते हैं, उनके प्रेम का यदि कोई कारण है तो यही।
जो जगदीश तौ अति भलों, जौ महीस तौ भाग।
तुलसी चाहत जनम भरि, रामचरन अनुराग।।
तुलसी को राम का लोकरंजन रूप वैसा ही प्रिय लगता है जैसा चातक को मेघ का लोकसुखदायी रूप। राम प्रिय लगने लगे, राम की भक्ति प्राप्त हो गई, इसका पता कैसे लग सकता है? इसका लक्षण है मन का आप से आप सुशीलता की ओर ढल पड़ना
तुम अपनायो, तब जनिहौं जब मन फिर परिहै।
इस प्रकार शील को राम प्रेम का लक्षण ठहराकर गोस्वामीजी ने अपने व्यापक भक्तिक्षेत्र के अंतर्भूत कर लिया है।
भक्त यही चाहता है कि प्रभु के सौंदर्य, शक्ति आदि की अनंतता की जो मधुर भावना है वह अबाध रहे उसमें किसी भी प्रकार की कसर न आने पाए। अपने ऐसे पापी की सुगति को वह प्रभु की शक्ति का एक चमत्कार समझता है। अत: उसे यदि सुगति न प्राप्त हुई तो उसे इसका पछतावा न होगा, पछतावा होगा इस बात का कि प्रभु की अनंत शक्ति की भावना बाधित हो गई
नाहिन नरक परत मो कहँ डर जद्यपि हौं अति हारो।
यह बड़ि त्रास दास तुलसी प्रभु नामहु पाप न जारो।।
प्रभु के सर्वगत होने का ध्या न करते करते भक्त अंत में जाकर उस अवस्था को प्राप्त करता है जिसमें वह अपने साथ साथ समस्त संसार को उस एक अपरिछिन्न सत्ता में लीन होता हुआ देखने लगता है और दृश्य भेदों का उसके ऊपर उतना जोर नहीं रह जाता। तर्क या युक्ति ऐसी अवस्था की सूचना भर दे सकती हैं ‘वाक्य ज्ञान’ भर करा सकती है। संसार में परोपकार और आत्मत्याग के जो उज्ज्वल दृष्टांत कहीं कहीं दिखाई पड़ा करते हैं, वे इसी अनुभूति मार्ग में कुछ न कुछ अग्रसर होने के हैं। यह अनुभूति मार्ग या भक्तिमार्ग बहुत दूर तक तो लोक कल्याण की व्यवस्था करता दिखाई पड़ता है; पर और आगे चलकर यह निस्संग साधक को सब भेदों से परे ले जाता है।