चन्द्रगुप्त

 चतुर्थ अंक

(मगध में राजकीय उपवन – कल्याणी)
 
कल्याणीः मेरे जीवन के दो स्वप्न थे – दुर्दिन के बाद आकाशके नक्षत्र-विलास-सी चन्द्रगुप्त की छवि, और पर्वतेश्वर से प्रतिशोध, किन्तुमगध की राजकुमारी आज अपने ही उपवन में बन्दिनी है! मैं वही तोहूँ – जिसके संकेत पर मगध का साम्राज्य चल सकता था! वही शरीरहै, वही रूप है, वही हृदय है, पर छिन गया अधिकारी और मनष्य कामान दंड ऐश्वर्य। अब तुलना में सबसे छोटी हूँ। जीवन ज्जा की रंगभूमिबन रहा है। (सिर झुका लेती है) तो जब नन्दवंश का कोई न रहा, तबएक राजकुमारी बचकर क्या करेगी?
 
(मद्यप की-सी चेष्टा करती हुई पर्वतेश्वर को प्रवेश करते हुए देखचुप हो जाती है।)
 
पर्वतेश्वरः मगध मेरा है – आधा भाग मेरा है! और मुझसे कुछपूछा तक न गया! चन्द्रगुप्त अकेले सम्राट्‌ बन बैठा। कभी नहीं, यह मेरेजीते-जी नहीं हो सकता। (सामने देखकर) कौन है? यह कोई अप्सराहोगी! अरे कोई अपदेवता न हो! अरे!
 
(प्रस्थान)
 
कल्याणीः मगध के राज-मन्दिर उसी तरह खड़े हैं, गंगा शोणसे उसी स्नेह से मिल रही है, नगर का कोलाहल पूर्ववत्‌ है। परन्तु नरहेगा एक नन्दवंश! फिर क्या करूँ? आत्महत्या करूँ? नहीं, जीवन इतनासस्ता नहीं। अहा, देखो – वह मधुर आलोकवाला चन्द्र! उसी प्रकार नित्य- जसे एकटक इसी पृथ्वी को देख रहा हो। कुमद-बन्धु!
 
(गाती है)
 
सुधा-सीकर से नहला दो!
 
लहरें डूब रही हों रस में,
 
रह न जायँ वे अपने वश में,
 
रूप-राशि इस व्यथित हृदय-सागर कोब
 
हला दो!
 
अन्धकार उजला हो जाये,
 
हँसी हंसमाला मँडराए,
 
मधुराका आगमन कलरवों के मिस-
 
कहला दो!
 
करुणा के अंचल पर निखरे,
 
घायल आँसू हैं जो बिखरे,
 
ये मोती बन जायँ, मृदुल कर से लो-
 
सहला दो!
 
(पर्वतेश्वर का फिर प्रवेश)
 
पर्वतेश्वरः तुम कौन हो सुन्दरी? मैं भ्रमवश चला गया था।
 
कल्याणीः तुम कौन हो?
 
पर्वतेश्वरः पर्वतेश्वर।
 
कल्याणीः मैं हूँ कल्याणी, जिसे नगर-अवरोध के समय तुमनेबन्दी बनाया था।
 
पर्वतेश्वरः राजकुमारी! नन्द की दुहिता तुम्हीं हो?
 
कल्याणीः हाँ पर्वतेश्वर।
 
पर्वतेश्वरः तुम्हीं से मेरा विवाह होनेवाला था?
 
कल्याणीः अब यम से होगा!
 
पर्वतेश्वरः नहीं सुन्दरी, ऐसा भरा हुआ यौवन!
 
कल्याणीः सब छीन कर अपमान भी!
 
पर्वतेश्वरः तुम नहीं जानती हो, मगध का आधा राज्य मेरा है।तुम प्रियतमा होकर सुखी रहोगी।
 
कल्याणीः मैं अब सुख नहीं चाहती। सुख अच्छा है या दुःख…मैं स्थिर न कर सकी। तुम मुझे कष्ट न दो।
 
पर्वतेश्वरः हमारे-तुम्हारे मिल जाने से मगध का पूरा राज्य हमलोगों का हो जायगा। उपरापथ की संकटमयी परिस्थिति से अलग रहकरयहीं शान्ति मिलेगी।
 
कल्याणीः चुप रहो।
 
पर्वतेश्वरः सुन्दरी, तुम्हें देख लेने पर ऐसा नहीं हो सकता।
 
(उसे पकड़ना चाहता है, वह भागती है, परन्तु पर्वतेश्वर पकड़ही लेता है। कल्याणी उसी का छुरा निकाल कर उसका वध करती है,चीत्कार सुनकर चन्द्रगुप्त आ जाता है।)
 
चन्द्रगुप्तः कल्याणी! कल्याणी! यह क्या!!
 
कल्याणीः वही जो होना था। चन्द्रगुप्त! यह पशु मेरा अपमानकरना चाहता था – मुझे भ्रष्ट करके, अपनी संगिनी बनाकर पूरे मगधपर अधिकार करना चाहता था। परन्तु मौर्य! कल्याणी ने वरण लिया थाकेवल एक पुरुष को – वह था चन्द्रगुप्त।
 
चन्द्रगुप्तः क्या यह सच है कल्याणी?
 
कल्याणीः हाँ यह सच है। परन्तु तुम मेरे पिता के विरोधी हुए,इसलिए उस प्रणय को – प्रेम-पीड़ा को – मैं पैरों से कुचलकर, दबाकर खड़ी रही! अब मेरे लिए कुछ भी अवशिष्ट नहीं रहा, पिता! लोमैं भी आती हूँ।
 
(अचानक छुरी मार कर आत्महत्या करती है, चन्द्रगुप्त उसे गोदमें उठा लेता है।)
 
चाणक्यः (प्रवेश करके) चन्द्रगुप्त! आज तुम निष्कंटक हुए!
 
चन्द्रगुप्तः गुरुदेव! इतनी क्रूरता?
 
चाणक्यः महात्वाकांक्षा का मोती निष्ठुरता की सीपी में रहता है!चलो अपना काम करो, विवाद करना तुम्हारा काम नहीं। अब तुम स्वच्छंदहोकर दक्षिणापथ जाने की आयोजना करो। (प्रस्थान)
 
(चन्द्रगुप्त कल्याणी को लिटा देता है।)
 
(पथ में राक्षस और सुवासिनी)
 
सुवासिनीः राक्षस! मुझे क्षमा करो!
 
राक्षसः क्यों सुवासिनी, यदि वह बाधा एक क्षण और रुकी रहतीतो क्या हम लोग इस सामाजिक नियम के बन्धन से बँध न गये होते!अब क्या हो गया?
 
सुवासिनीः अब पिताजी की अनुमति आवश्यक हो गयी है।
 
राक्षसः (व्यंग्य से) क्यों? क्या अब वह तुम्हारे ऊपर अधिकारनियंत्रण रखते हैं? क्या उनका तुम्हारे विगत जीवन से कुछ सम्पर्क नहीं?क्या…
 
सुवासिनीः अमात्य! मैं अनाथ थी, जीविका के लिए मैंने चाहेकुछ भी किया हो, पर स्त्रीत्व नहीं बेचा।
 
राक्षसः सुवासिनी, मैंने सोचा था, तुम्हारे अंक में सिर रखकरविश्राम करते हुए मगध की भलाई से विपथगामी न हूँगा। पर तुमने ठोकरमार दिया? क्या तुम नहीं जानती कि मेरे भीतर एक दुष्ट प्रतिभा सदैवसचेष्ट रहती है? अवसर न दो, उसे न जगाओ! मुझे पाप से बचाओ!
 
सुवासिनीः मैं तुम्हारा प्रणय स्वीकार नहीं करती। किन्तु अबइसका प्रस्ताव पिताजी से करो। तुम मेरे रूप और गुण के ग्राहक हो,और सच्चे ग्राहक हो, परन्तु राक्षस! मैं जानती हूँ कि यदि ब्याह छोड़करअन्य किसी भी प्रकार से मैं तुम्हारी हो जाती तो तुम ब्याह से अधिकसुखी होते। उधर पिता ने – उनके लिए मेरा चारित्र्य, मेरी निष्कलंकतानितान्त वाञ्छनीय हो सकती है – मुझे इस मलिनता के कीचड़ से कमलके समान हाथों में ले लिया है! मेरे चिर दुःखी पिता! राक्षस, तुम वासनासे उपेजित हो, तुम नहीं देख रहे हो कि सामने एक जुड़ता हुआ घायलवृद्ध बिछुड़ जायगा, एक पवित्र कल्पना सहज ही नष्ट हो जायगी?
 
राक्षसः यह मैं मान लेता, कदाचित्‌ इस पर पूर्ण विश्वास भीकर लेता, परन्तु सुवसिनी, मुझे शंका है। चाणक्य का तुम्हारा बाल्यपरिचय है। तुम शक्तिशाली की उपासना…
 
सुवासिनीः ठहरो अमात्य! मैं चाणक्य को इधर तो एक प्रकारसे विस्मृत ही हो गयी थी, तुम इस सोयी हुई भ्रान्ति को न जगाओ!
 
(प्रस्थान)
 
राक्षसः चाणक्य भूल सकता है? कभी नहीं। वह राजनीति काआचार्यहो जाय, वह विरक्त तपस्वी हो जाय, परन्तु सुवासिनी का चित्र-यदि अंकित हो गया है तो उहूँ (सोचता है।)
 
(नेपथ्य से गान)
 
कैसी कड़ी रूप की ज्वाला?
 
पड़ता है पतंगा सा इसमें मन होकर मतवाला,
 
सान्ध्य-गगन-सी रागमयी यह बड़ी तीव्र है हाला,
 
लौह-श्रृंखला से न कड़ी क्या यह फूलों की माला?
 
राक्षसः (चैतन्य होकर) तो चाणक्य से फि मेरी टक्कर होगी,होने दो! यह अधिकारी सुखदायी होगा। आज से हृदय का यही ध्येयरहा। शकटार से किस मुँह से प्रस्ताव करूँ! वह सुवासिनी को मेरे हाथमें सौंप दे, यह असम्भव है! तो मगध में फिर एक आँधी आवे! चलूँ,चन्द्रगुप्त भी तो नहीं है, चन्द्रगुप्त सम्राट्‌ हो सकता है, तो दूसरे भी इसकेअधिकारी हैं। कल्याणी की मृत्यु से बहुत से लोग उपेजित हैं। आहुतिकी आवश्यकता है, बह्नि प्रज्वलित है।
 
(प्रस्थान)
 
(परिषद्‌-गृह)
 
राक्षसः (प्रवेश करके) तो आप लोगों की सम्मति है किविजयोत्सव न मनाया जाय? मगध का उत्कर्ष, उसके गर्व का दिन, योंही फीका रह जाय!
 
शकटारः मैं तो चाहता हूँ, परन्तु आर्य चाणक्य की सम्मति इसमेंनहीं है।
 
कात्यायनः जो कार्य बिना किसी आडम्बर के हो जाय, वही तोअच्छा है।
 
(मौर्य सेनापति और उसकी स्त्री का प्रवेश)
 
मौर्यः विजयी होकर चन्द्रगुप्त लौट रहा है, हम लोग आज भीउत्सव न मनाने पावेंगे? राजकीय आवरण में यह कैसी दासता है?
 
मौर्य-पत्नीः तब यही स्पष्ट हो जाना चाहिए कि कौन इस साम्राज्यका अधीश्वर है! विजयी चन्द्रगुप्त अथवा यह ब्राह्मण या परिषद्‌?
 
चाणक्यः (राक्षस की ओर देखकर) राक्षस, तुम्हारे मन में क्या है?
 
राक्षसः मैं क्या जानूँ, जैसी सब लोगों की इच्छा।
 
चाणक्यः मैं अपने अधिकार और दायित्व को समझ कर कहताहूँ कि यह उत्सव न होगा।
 
मौर्य-पत्नीः तो मैं ऐसी पराधीनता में नहीं रहना चाहती (मौर्यसे) समझा न! हम लोग आज भी बन्दी हैं।
 
मौर्यः (क्रोध से) क्या कहा, बन्दी? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता?हम लोग चलते हैं। देखूँ किसी सामर्थ्य है जो रोके! अपमान से जीवितरहना मौर्य नहीं जानता है। चलो –
 
(दोनों का प्रस्थान)
 
(चाणक्य और कात्यायन को छोड़कर सब जाते हैं।)
 
कात्यायनः विष्णुगुप्त, तुमने समझकर ही तो ऐसा किया होगा।फिर भी मौर्य का इस तरह चले जाना चन्द्रगुप्त को…
 
चाणक्यः बुरा लगेगा! क्यों? भला लगने के लिए मैं कोई कामनहीं करता कात्यायन! परिणाम में भलाई ही मेरे कामों की कसौटी है।तुम्हारी इच्छा हो, तो तुम भी चले जाओ, बको मत
 
(कात्यायन का प्रस्थान)
 
चाणक्यः कारण समझ में नहीं आता – यह वात्याचक्र क्यों?(विचारता हुआ) क्या कोई नवीन अध्याय खुलने वाला है? अपनी विजयोंपर मुझे विश्वास है, फिर यह क्या? (सोचता है।)
 
(सुवासिनी का प्रवेश)
 
सुवासिनीः विष्णुगुप्त!
 
चाणक्यः कहो सुहासिनी!
 
सुवासिनीः अभी परिषद्‌-गृह से जाते हुए पिताजी बहुत दुःखी
 
दिखाई दिये, तुमने अपमान किया क्या?
 
चाणक्यः यह तुमसे किसने कहा? इस उत्सव को रोक देने सेसाम्राज्य का कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। मौर्यों का जो कुछ है, वह मेरेदायित्व पर है। अपमान हो या मान, मैं उसका उपरदायी हूँ। और,पितृत्व-तुल्य शकटार को मैं अपमानित करूँगा, यह तुम्हें कैसे विश्वासहुआ?
 
सुवासिनीः तो राक्षस ने ऐसा क्यों…?
 
चाणक्यः कहा? ऐं? सो तो कहना ही चाहिए। और तुहारा भी
 
उस पर विश्वास होना आवश्यक है, क्यों न सुवासिनी?
 
सुवासिनीः विष्णुगुप्त! मैं एक समस्या में ड़ाल दी गयी हूँ।
 
चाणक्यः तुम स्वयं पड़ना चाहती हो, कदाचित्‌ यह ठीक भी है।
 
सुवासिनीः व्यंग्य न करो, तुम्हारी कृपा मुझ पर होगी ही, मुझेइसका विश्वास है।
 
चाणक्यः मैं तुमसे बाल्य-काल से परिचित हूँ, सुवासिनी! तुमखेल में भी हारने कम समय रोते हुए हँस दिया करतीं और तब मैं हारस्वीकार कर लेता। इधर तो तुम्हारा अभिनय का अभ्यास भी बढ़ गयाहै! तब तो… (देखने लगता है।)
 
सुवासिनीः यह क्या, विष्णुगुप्त, तुम संसार को अपने वश मेंकरने का संकल्प रखते हो। फिर अपने को नहीं? देखो दर्पण लेकर -तुम्हारी आँखों में तुम्हारा यह कौन-सा नवीन चित्र है।
 
(प्रस्थान)
 
चाणक्यः क्या? मेरी दुर्बलता? नहीं! कौन है?
 
दौवारिकः (प्रवेश करके) जय हो आर्य, रथ पर मालविका आयी है।
 
चाणक्यः उसे सीधे मेरे पास लिवा लाओ!
 
(दौवारिक का प्रस्थान – एक चर का प्रवेश)
 
चरः आर्य सम्राट्‌ के पिता और माता दोनों व्यक्ति रथ पर अभीबाहर गये हैं (जाता है।)
 
चाणक्यः जाने दो! इनके रहने से चन्द्रगुप्त के एकाधिपत्य मेंबाधा होती। स्नेहातिरेक से वह कुछ-का-कुछ कर बैठता।
 
(दूसरे चर का प्रवेश)
 
दूसराः (प्रणाम करके) जय हो आर्य, वाल्हीक में नयी हलचलहै। विजेता सिल्यूकस अपनी पश्चिमी राजनीति से स्वतंत्र हो गया है, अबवह सिकन्दर के पूर्वी प्रान्तों की ओर दपचिप है। वाल्हीक सी सीमापर नवीन यवन-सेना के शस्त्र चमकने लगे हैं।
 
चाणक्यः (चौंककर) और गांधार का समाचार?
 
दूसराः अभी कोई नवीनता नहीं है।
 
चाणक्यः जाओ। (चर का प्रस्थान) क्या उसका भी समय आगया? तो ठीक है। ब्राह्मण! अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रह! कुछ चिन्तानहीं, सब सुयोग आप ही चले आ रहे हैं।
 
(ऊपर देखकर हँसता है, मालविका का प्रवेश)
 
मालविकाः आर्य, प्रणाम करती हूँ। सम्राट ने श्रीचरणों में सविनयप्रणाम करके निवेदन किया है कि आपके आशीर्वाद से दक्षिणापथ में अपूर्वसफलता मिली, किन्तु सुदूर दक्षिण जाने के लिए आपका निषेध सुनकरलौटा आ रहा हूँ। सीामन्त के राष्ट्रों ने भी मित्रता स्वीकार कर ली है।
 
चाणक्यः मालविका, विश्राम करो। सब बातों का विवरण एक-साथ ही लूँगा।
 
मालविकाः परन्तु आर्य, स्वागत का कोई उत्साह राजधानी मेंनहीं।
 
चाणक्यः मालविका, पाटलिपुत्र षड्‌यन्त्रों का केन्द्र हो रहा है।सावधान! चन्द्रगुप्त के प्राणों की रक्षा तुम्हीं को करनी होगी।
 
(प्रकोष्ठ में चन्द्रगुप्त का प्रवेश)
 
चन्द्रगुप्तः विजयों की सीमा है, परन्तु अभिलाषाओं की नहीं।मन ऊब-सा गया है। झंझटों से घड़ी भर अवकाश नहीं। गुरुदेव औरक्या चाहते हैं, समझ में नहीं आता। इतनी उदासी क्यों? मालविका!
 
मालविकाः (प्रवेश करके) सम्राट्‌ की जय हो!
 
चन्द्रगुप्तः मैं सब से विभिन्न, एक भय-प्रदर्शन-सा बन गया हूँ।कोई मेरा अन्तरंग नहीं, तुम भी मुझे सम्राट्‌ कहकर पुकारती हो!
 
मालविकाः देव, फिर मैं क्या कहूँ?
 
चन्द्रगुप्तः स्मरण आता है – मालव का उपवन और उसमेंअतिथि के रूप में मेरा रहना?
 
मालविकाः सम्राट्‌, अभी कितने ही भयानक संघर्ष सामने हैं!
 
चन्द्रगुप्तः संघर्ष! युद्ध देखना चाहो तो मेरा हृदय फाड़कर देखो।मालविका! आशा और निराशा का युद्ध, भावों और अभावों का द्वन्द्व! कोईकमी नहीं, फिर भी न जान कौन मेरी सम्पूर्ण सूची में रक्त-चिह्न लगादेता है। मालविका, तुम मेरी ताम्बूल-वाहिनी नहीं हो, मेरे विश्वास की,मित्रता की प्रतिकृति हो। देखो, मैं दरिद्र हूँ कि नहीं, तुमसे मेरा कोईरहस्य गोपनीय नहीं! मेरे हृदय में कुछ है कि नहीं, टटोलने से भी नहींजान पड़ता।
 
मालविकाः आप महापुरुष हैं, साधारणजन – दुर्लभ दुर्बलता नहोनी चाहिए आप में देव! बहुत दिनों पर मैंने एक माला बनायी है –
 
(माला पहनाती है।)
 
चन्द्रगुप्तः मालविका, इन फूलों का रस तो भौंरे ले चुके हैं!
 
मालविकाः निरीह कुसुमों पर दोषारोपण क्यों? उनका काम हैसौरभ विखेरना, यह उकना मुक्त दान है। उसे चाहे भ्रमर ले या पवन।
 
चन्द्रगुप्तः कुछ गाओ तो मन बहल जाय।
 
(मालविका गाती है।)
 
मधुप कब एक कली का है!
 
पाया जिसमें प्रेम रस, सौरभ और सुहाग,
 
बेसुध हो उस कली से, मिलता भर अनुराग,
 
विहारी कुञ्जगली का है!
 
कुसुम धूल से धूसरित, चलता है उस राह,
 
काँटों में उलझा, तदपि, रही लगन की चाह,
 
बावला रंगरली का है।
 
हो मल्लिका, सरोजिनी, या यूथी का पुञ्ज,
 
अलि को केवल चाहिए, सुखमय क्रीडा-कुञ्ज,
 
मधुप कब एक कली का है!
 
चन्द्रगुप्तः मालविका, मन मधुप से भी चंचल और पवन से भीप्रगतिशील है, वेगवान है।
 
मालविकाः उसका निग्रह करना ही महापुरुषों का स्वभाव है देव!
 
(प्रतिहारी का प्रवेश और संकेत – मालविका उससे बात करकेलौटती है।)
 
चन्द्रगुप्तः क्या है!
 
मालविकाः कुछ नहीं, कहती थीं कि यह प्राचीन राज-मन्दिरअभी परिष्कृत नहीं, इसलिए मैंने चन्द्रसौंध में आपके शयन का प्रबन्धकरने के लिए कह दिया है।
 
चन्द्रगुप्तः जैसी तुम्हारी इच्छा – (पान करता हुआ) कुछ औरगाओ मालविका! आज तुम्हारे स्वर में स्वर्गीय मधुरिमा है।
 
(मालविका गाती है।)
 
बज रही बंशी आठों याम की।
 
अब तक गूँज रही है बोली प्यारे मुख अभिराम की।
 
हुए चपल मृगनैन मोह-वश बजी विपंची काम की,
 
रूप-सुधा के दो दृग प्यालों ने ही मति बेकाम की!
 
बज रही बंशी-
 
(कुंचकी का प्रवेश)
 
कुंचकीः जय हो देव, शयन का समय हो गया।
 
(प्रतिहारी और कंचुकी के साथ चन्द्रगुप्त का प्रस्थान)
 
मालविकाः जाओ प्रियतम! सुखी जीवन बिताने के लिए और मैंरहती हूँ चिर-दुःखी जीवन का अन्त करने के लिए। जीवन एक प्रश्नहै, और मरण है उसका अटल उपर। आर्य चाणक्य की आज्ञा है -“आज घातक इस शयनगृह में आवेंगे, इसलिए चन्द्रगुप्त यहाँ न सोने पावें,और षड्‌यन्त्रकारी पकड़े जायँ।” (शय्या पर बैठकर) – यह चन्द्रगुप्त कीशय्या है। ओह, आज प्राणों में कितनी मादकता है! मैं… कहाँ हूँ? कहाँ?स्मृति, तू मेरी तरह सो जा! अनुराग, तू रक्त से भी रंगीन बन जा!
 
(गाती है।)
 
ओ मेरी जीवन की स्मृति! ओ अन्तर के आतुर अनुराग!
 
बैठ गुलाबी विजन उषा में गाते कौन मनोहर राग?
 
चेतन सागर उर्मिल होता यह कैसी कम्पनमय तान,
 
यों अधीरता से न भीड़ लो अभी हुए हैं पुलकित प्रान।
 
कैसा है यह प्रेम तुम्हारा युगल मूर्ति की बलिहारी।
 
यह उन्मप विलास बता दो कुचलेगा किसकी क्यारी?
 
इस अनन्त निधि के हे नाविक, हे मेरे अनंग अनुराग!
 
पाल सुनहला बन, तनती है, स्मृति यों उस अतीत में जाग।
 
कहाँ ले चले कोलाहल से मुखरित तट को छोड़ सुदूर,
 
आह! तुम्हारे निर्दय डाँडों से होती हैं लहरें चूर।
 
देख नहीं सकते तुम दोनों चकित निराशा है भीमा,
 
बहको मत क्या न है बता दो क्षितिज तुम्हारी नव सीमा?
 
(शयन)
 
(प्रभात-राज-मन्दिर का एक प्रान्त)
 
चन्द्रगुप्तः (अकेले टहलता हुआ) चतुर सेवक के समान संसारको जगा कर अन्धकार हट गया। रजनी की निस्तब्धता काकली से चंचलहो उठी है। नीला आकाश स्वच्छ होने लगा है, या निद्रा-क्लान्त निशा,उषा की शुभ्र चादर ओढ़ कर नींद की गोद में लेटने चली है। यहजागरण का अवसर है। जागरण का अर्थ है कर्मक्षेत्र में अवतीर्ण होना।और कर्मक्षेत्र क्या है? जीवन-संग्राम! किन्तु भीषण संघर्ष करके भी मैंकुछ नहीं हूँ। मेरी सपा एक कठपुतली सी है। तो फिर… मेरे पिता,मेरी माता, इनका तो सम्मान आवश्यक था। वे चले गये, मैं देखता हूँकि नागरिक तो क्या, मेरे आत्मीय भी आनन्द मनाने से वंचित किये गये।यह परतंत्रता कब तक चलेगी? प्रतिहारी!
 
प्रतिहारीः (प्रवेश करके) जय हो देव!
 
चन्द्रगुप्तः आर्य चाणक्य को शीघ्र लिवा लाओ!
 
(प्रतिहारी का प्रस्थान)
 
चन्द्रगुप्तः (टहलते हुए) प्रतिकार आवश्यक है।
 
(चाणक्य का प्रवेश)
 
चन्द्रगुप्तः आर्य, प्रणाम।
 
चाणक्यः कल्याण हो आयुष्मन, आज तुम्हारा प्रणाम भारी-सा है!
 
चन्द्रगुप्तः मैं कुछ पूछना चाहता हूँ।
 
चाणक्यः यह तो मैं पहले ही से समझता था! तो तुम अपनेस्वागत के लिए लड़कों के सदृश्य रूठे हो?
 
चन्द्रगुप्तः नहीं आर्य, मेरे माता-पिता – मैं जानता हूँ कि उन्हेंकिसने निर्वासित किया?
 
चाणक्यः जान जाओगे तो उसका वध करोगे! क्यों?
 
(हँसता है।)
 
चन्द्रगुप्तः हँसिए मत! गुरुदेव! आपकी मर्यादा रखनी चाहिए,यह मैं जानता हूँ। परन्तु वे मेरे माता-पिता थे, यह आपको भी जाननाचाहिए।
 
चाणक्यः तभी तो मैंने उन्हें उपयुक्त अवसर दिया। अब उन्हेंआवश्यकता थी शान्ति की, उन्होंने वानप्रस्थाश्रम ग्रहण किया है। इसमें खेदकरने की कौन बात है?
 
चाणक्यः यह अक्षुण्ण अधिकार आप कैसे भोग रहे हैं? केवलसाम्राज्य का ही नहीं, देखता हूँ, आप मेरे कुटुम्ब का भी नियंत्रण अपनेहाथों में रखना चाहते हैं।
 
चाणक्यः चन्द्रगुप्त! मैं ब्राह्मण हूँ! मेरा साम्राज्य करुणा का था,मेरा धर्म प्रेम का था। आनन्द-समुद्र में शान्ति-द्वीप का अधिवासी ब्राह्मणमैं, चन्द्र-सूर्य-नक्षत्र मेरे दीप थे, अनन्त आकाश वितान था, शस्यश्यामलाकोमला विश्वम्भरा मेरी शय्या थी। बौद्धिक विनोद कर्म था, सन्तोष धनथा। उस अपनी, ब्राह्मण की, जन्म-भूमि को छोड़कर कहाँ आ गया!
 
सौहार्द के स्थान पर कुचक्र, फूलों के प्रतिनिधि काँटे, प्रेम के स्थान मेंभय। ज्ञानामृत के परिवर्तन में कुमंत्रणा। पतन और कहाँ तक हो सकताहै! ले लो मौर्य चन्द्रगुप्त! अपना अधिकार, छीन लो। यह मेरा पुनर्जन्महोगा। मेरा जीवन राजनीतिक कुचक्रों से कुत्सित और कलंकित हो उठाहै। किसी छायाचित्र, किसी काल्पनिक महत्व के पीछे भ्रमपूर्ण अनुसंधानकरता दौड़ रहा हूँ! शान्ति खो गयी, स्वरूप विस्मृत हो गया? जान गया,मैं कहाँ और कितने नीचे हूँ।
 
(प्रस्थान)
 
चन्द्रगुप्तः जाने दो। (दीर्घ निश्वास लेकर) तो क्या मैं असमर्थहूँ? ऊँह, सब हो जायगा।
 
सिंहरणः (प्रवेश करके) सम्राट्‌ की जय हो! कुछ विद्रोही औरषड्‌यन्त्रकारी पकड़े गये हैं। एक बड़ी दुखद घटना भी हो गयी है!
 
चन्द्रगुप्तः (चौंककर) क्या?
 
सिंहरणः मालविका की हत्या… (गद्‌गद्‌ कंठ से) आपकापरिच्छद पहन कर वह आप ही की शय्या पर लेटी थी।
 
चन्द्रगुप्तः तो क्या, उसने इसीलिए मेरे शयन का प्रबन्ध दूसरेप्रकोष्ठ में किया! आह! मालविका!
 
सिंहरणः आर्य चाणक्य की सूचना पाकर नायक पूरे गुल्म केसाथ राज-मन्दिर की रक्षा के लिए प्रस्तुत था। एक छोटा-सा युद्ध होकरवे हत्यारे पकड़े गये। परन्तु उनका नेता राक्षस निकल भागा ।
 
चन्द्रगुप्तः क्या! राक्षस उनका नेता था?
 
सिंहरणः हाँ सम्राट्‌! गुरुदेव बुलाये जायँ!
 
चन्द्रगुप्तः वही तो नहीं हो सकता, वे चले गये। कदाचित्‌ नलौटेंगे।
 
सिंहरणः ऐसा क्यों? क्या आपने कुछ कह दिया?
 
चन्द्रगुप्तः हाँ सिंहरण! मैंने अपने माता-पिता के चले जाने काकारण पूछा था।
 
सिंहरणः (निःश्वास लेकर) तो नियति कुछ अदृष्ट का सृजन कररही है! सम्राट्‌, मैं गुरुदेव को खोजने जाता हूँ!
 
चन्द्रगुप्तः (विरक्ति से) जाओ, ठीक है – अधिक हर्ष, अधिकउन्नति के बाद ही तो अधिक दुःख और पतन की बारी आती है!
 
(सिंहरण का प्रस्थान)
 
चन्द्रगुप्तः पिता गये, माता गयी, गुरुदेव गये, कन्धे-से-कन्धाभिड़ाकर प्राण देने वाला चिर-सहचर सिंहरण गया! तो भी चन्द्रगुप्त कोरहना पड़ेगा, और रहेगा, परन्तु मालविका! आह, वह स्वर्गीय कुसुम!
 
(चिन्तित भाव से प्रस्थान)
 
(सिन्धु-तट पर्णकुटीर। चाणक्य और कात्यायन)
 
चाणक्यः कात्यायन, सो नहीं हो सकता! मैं अब मंत्रित्व नहींग्रहण करने का। तुम यदि किसी प्रकार मेरा रहस्य खोल दोगे, तो मगधका अनिष्ट ही करोगे।
 
कात्यायनः तब मैं क्या करूँ? चाणक्य, मुझे तो अब इस राज-काज में पड़ना अच्छा नहीं लगता।
 
चाणक्यः जब तक गांधारा का उपद्रव है, तब तक तुम्हें बाध्यहोकर करना पड़ेगा। बताओ, नया समाचार क्या है?
 
कात्यायनः राक्षस सिल्यूकस की कन्या को पढ़ाने के लिये वहींरहता है और यह सारा कुचक्र उसी का है! वह इन दिनों वाल्हीक कीओर गया है। मैं अपना वार्तिक पूरा कर चुका, इसीलिए मगध सेअवकाश लेकर आया था। चाणक्य, अब मैं मगध जाना चाहता हूँ। यवनशिविर में अब मेरा जाना असम्भव है।
 
चाणक्यः जितना शीघ्र हो सके, मगध पहुँचो। मैं सिंहरण कोठीक रखता हूँ। तुम चन्द्रगुप्त को भेजो। सावधान, उसे न मालूम हो किमैं यहाँ हूँ! अवसर पर मैं स्वयं उपस्थित हो जाऊँगा। देखो, शकटार औरतुम्हारे भरोसे मगध रहा है! कात्यायन, यदि सुवासिनी को भेजते तो कार्यमें आशातीत सफलता होती। समझे?
 
कात्यायनः (हँसकर) यह जानकर मुझे प्रसन्नता हुई कि तुम…सुवासिनी अच्छा… विष्णुगुप्त! गार्हस्थ्य जीवन कितना सुन्दर है!
 
चाणक्यः मूर्ख हो, अब हम-तुम साथ ही ब्याह करेंगे।
 
कात्यायनः मैं? मुझे नहीं… मरी गृहिणी तो है।
 
चाणक्यः (हँसकर) एक ब्याह और सही। अच्छा बताओ, कामकहाँ तक हुआ?
 
कात्यायनः (पत्र देता हुआ) हाँ, यह लो, यवन शिविर का विवरणहै। परन्तु, विष्णुगुप्त, एक बात कहे बिना न रह सकूँगा। यह यवन-बालासिर से पैर तक आर्य संस्कृति में पगी है। उसका अनिष्ट?
 
चाणक्यः (हँसकर) कात्यायन, तुम सच्चे ब्राह्मण हो! यह करुणाऔर सौहार्द का उद्रेक ऐसे ही हृदयों में होता है। परन्तु मैं निष्ठुर!हृदयहीन! मुझे तो केवल अपने हाथों खड़ा किये हुए एक साम्राज्य कादृश्य देख लेना है।
 
कात्यायनः फिर भी चाणक्य, उसका सरस मुख-मण्डल! उसलक्ष्मी का अमंगल!
 
चाणक्यः (हँसकर) तुम पागल तो नहीं हो गये हो?
 
कात्यायनः तुम हँसो मत चाणक्य! तुम्हारा हँसना तुम्हारे क्रोध सेभी भयानक है। प्रतिज्ञा करो कि उसका अनिष्ट न करूँगा। बोलो।
 
चाणक्यः कात्यायन! अलक्षेन्द्र कितने विकट परिश्रम से भारतवर्षके बाहर किया गया – यह तुम भूल गये? अभी है कितने दिनों कीबात। अब इस सिल्यूकस को क्या हुआ जो चला आया! तुम नहीं जानतेकात्यायन, इसी सिल्यूकस ने चन्द्रगुप्त की रक्षा की थी, नियति अब उन्हींदोनों को एक-दूसरे के विपक्ष में खड्‌ग खींचे हुए खड़ा कर रही है!
 
कात्यायनः कैसे आश्चर्य की बात है!
 
चाणक्यः परन्तु इससे क्या? वह तो होकर रहेगा, जिसे मैंने स्थिरकर लिया है! वर्तमान भारत की नियति मेरे हृद पर जलद-पटल मेंबिजली के समान नाच उठती है! फिर मैं क्या करूँ?
 
कात्यायनः तुम निष्ठुर हो।
 
चाणक्यः अच्छा, तुम सदय होकर एक बात कर सकोगे? बोलो!चन्द्रगुप्त और उस यवन-बाला के परिणय में आचार्य बनोगे?
 
कात्यायनः क्या कह रहे हो? यह हँसी!
 
चाणक्यः यही तै तुम्हारी दया की परीक्षा – देखूँ तुम क्या करतेहो! क्या इसमें यवन-बाला का अमंगल है?
 
कात्यायनः (सोचकर) मंगल है, मैं प्रस्तूत हूँ।
 
चाणक्यः (हँसकर) तब तुम निश्चय ही एक सहृदय व्यक्ति हो।
 
कात्यायनः अच्छा तो मैं जाता हूँ।
 
चाणक्यः हाँ जाओ। स्मरम रखना, हम लोगों के जीवन में यहअन्तिम संघर्ष है। मुझे आज आम्भीक से मिलना है। यह लोलुप राजा,देखूँ, क्या करता है।
 
(कात्यायन का प्रस्थान – चर का प्रवेश)
 
चरः महामात्य की जय हो!
 
चाणक्यः इस समय जय की बड़ी आवश्यकता है। आम्भीक कोयदि जय कर सका, तो सर्वत्र जय है। बोलो, आम्भीक ने क्या कहा?
 
चरः वे स्वयं आ रहे हैं।
 
चाणक्यः आने दो, तुम जाओ।
 
(चर का प्रस्थान, आम्भीक का प्रवेश)
 
आम्भीकः प्रणाम, ब्राह्मण देवता!
 
चाणक्यः कल्याण हो। राजन्‌, तुम्हें भय तो नहीं लगता? में एकदुर्नाम मनुष्य हूँ!
 
आम्भीकः नहीं आर्य, आप कैसी बात कहते हैं!
 
चाणक्यः तो ठीक है, इसी तक्षशिला के मठ में एक दिन मैंनेकहा था – ‘सो कैसे होगा अविश्वासी क्षत्रिय! तभी तो म्लेच्छ लोगसाम्राज्य बना रहे हैं और आर्य-जाति पतन के कगार पर खड़ी एक धक्केकी राह देख रही है!’
 
आम्भीकः स्मरण है।
 
चाणक्यः तुम्हारी भूल ने कितना कुत्सित दृश्य दिखाया – इसेभी सम्भवतः तुम न भूले होगे।
 
आम्भीकः नहीं।
 
चाणक्यः तुम जानते हो कि चन्द्रगुप्त ने दक्षिणापथ के स्वर्णगिरिसे पंचनद तक, सौराष्ट्र से बंग तक एक महान्‌ साम्राज्य स्थापित कियाहै। यह साम्राज्य मगध का नहीं है, यह आर्य साम्राज्य है। उपरापथ केसब प्रमुख गणतंत्र मालव, क्षुद्रक और यौधेय आदि सिंहरण के नेतृत्व मेंइस साम्राज्य के अंग हैं। केवल तुम्हीं इससे अलग हो। इस द्वितीय यवन-आक्रमण से तुम भारत के द्वार की रक्षा कर लोगे, या पहले ही के समानउत्कोच लेकर, द्वार खोलकर, सब झंझटों से अलग हो जाना चाहते हो?
 
आम्भीकः आर्य, वही त्रुटि बार-बार न होगी।
 
चाणक्यः तब साम्राज्य झेलम-तट की रक्षा करेगा। सिन्धु घाटीका भार तुम्हारे ऊपर रहा।
 
आम्भीकः अकेले मैं यवनों का आक्रमण रोकने में असमर्थ हूँ।
 
चाणक्यः फिर उपाय क्या है?
 
(नेपथ्य से जयघोष। आम्भीक चकित होकर देखने लगता है।)
 
चाणक्यः क्या है, सुन रहे हो?
 
आम्भीकः समझ में नहीं आया। (नेपथ्य की ओर देखकर) वहएक स्त्री आगे-आगे कुछ गाती हुई आ रही है और उसके साथ बड़ी-सी भीड़ (कोलाहल समीप होता है।)
 
चाणक्यः आओ हम लोग हट कर देखएं (दोनों अलग छिप जातेहैं।)
 
(आर्य-पताका लिये अलका का गाते हुए, भीड़ के साथ प्रवेश)
 
अलकाः तक्षशिला के वीर नागरिको! एक बार, अभी-अभीसम्राट्‌ चन्द्रगुप्त ने इसका उद्धार किया था, आर्यावर्त-प्यारा देश-ग्रीकों कीविजय-लालसा से पुनः पद-दलित होने जा रहा है। तब तुम्हारा शासकतटस्थ रहने का ढोंग करके पुण्यभूमि को परतंत्रता की श्रृंखला पहनाने कादृश्य राजमहल के झरोखों से देखेगा। तुम्हारा राजा कायर है, और तुम?
 
नागरिकः हम लोग उसका परिणाम देख चुके हैं माँ! हम लोगप्रस्तुत हैं।
 
अलकाः यही तो – (समवेत स्वर से गायन)
 
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से
 
प्रबुद्ध शुद्ध भारती-
 
स्वयं प्रथा समुज्ज्वला
 
स्वतन्त्रता पुकारती-
 
अमर्त्य वीरपुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञा सोच लो,
 
प्रशस्त पुण्य पंथ है – बढ़े चलो बढ़े चलो।
 
असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ,
 
विकीर्ण दिव्य दाह-सी।
 
सपूत मातृभूमि के-
 
रुको न शूर साहसी!
 
अराति सैन्य सिन्धू में-सुवाडवाग्नि-से जलो,
 
प्रवीर हो जयी बनो – बढ़े चलो, बढ़े चलो।
 
(सब का प्रस्थान)
 
आम्भीकः यह अलका है। तक्षशिला में उपेजना फैलाती हुई -यह अलका!
 
चाणक्यः हाँ आम्भीक! तुम उसे बन्दी बनाओ, मुँह बन्द करो।
 
आम्भीकः (कुछ सोचकर) असम्भव! मैं भी साम्राज्य मेंसम्मिलित होऊँगा।
 
चाणक्यः यह मैं कैसे कहूँ? मेरी लक्ष्मी-अलका ने आर्यगौरव केलिए क्या-क्या कष्ट नहीं उठाये। वह भी तो इसी वंश की बालिका है।फिर तुम तो पुरुष हो, तुम्हीं सोचकर देखो।आम्भीकः व्यर्थ का अभिमान अब मुझे देश के कल्याण में बाधकन सिद्ध कर सकेगा। आर्य चाणक्य, मैं आर्य-साम्राज्य के बाहर नहीं हूँ।
 
चाणक्यः तब तक्षशिला-दुर्ग पर मगध-सेना अधिकार करेगी। यहतुम सहन करोगे?
 
(आम्भीक सिर निचा करके विचारता है।)
 
चाणक्यः क्षत्रिय! कह देना और बात है, करना और।
 
आम्भीकः (आवेश में) हार चुका ही हूँ, पराधीन हो ही चुकाहूँ। अब स्वदेश के अधीन होने में उससे अधिक कलंक तो मुझे लगेगानहीं, आर्य चाणक्य!
 
चाणक्यः तो इस गांधार और पंचनद का शासन – सूत्र होगाअलका के हाथ में और तक्षशिला होगी उसकी राजधानी, बोलो, स्वीकारहै?
 
आम्भीकः अलका?
 
चाणक्यः हाँ, अलका। और सिंहर इस महाप्रदेश के शासक होंगे।
 
आम्भीकः सब स्वीकार है, ब्राह्मण! मैं केवल एक बार यवनोंके सम्मुख अपना कलंक धोने का अवसर चाहता हूँ। रम-क्षेत्र में एकसैनिक होना चाहता हूँ। और कुछ नहीं।
 
चाणक्यः तुम्हारा अभीष्ट पूर्ण हो!
 
(संकेत करता है – सिंहरण और अलका का प्रवेश)
 
अलकाः भाई! आम्भीक!
 
आम्भीकः बहन! अलका! तू छोटी है, पर मेरी श्रद्धा का आधारहै। मैं भूल करता था बहन! तक्षशिला के लिए अलका पर्याप्त है,आम्भीक की आवश्यकता न थी!
 
अलकाः भाई, क्या कहते हो!
 
आम्भीकः मैं देशद्रोही हूँ। नीच हूँ। अधम हूँ। तून गांधार केराजवंश का मुख उज्ज्वल किया है। राज्यासन के योग्य तू ही है।
 
अलकाः भाई! अब भी तुम्हारा भ्रम नहीं गया! राज्य किसी कानहीं है, सुशासन का है! जन्मभूमि के भक्तों में आज जागरण है। देखतेनहीं, प्राच्य में सूर्योदय हुआ है! स्वयं सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त तक इस महानआर्य-साम्राज्य के सेवक हैं। स्वतंत्रता के युद्ध में सैनिक और सेनापति काभेद नहीं। जिसकी खड्‌ग-प्रभा में विजय का आलोक चमकेगा, वहीवरेण्य है। उसी की पूजा होगी। भाई! तक्षशिला मेरी नहीं और तुम्हारीभी नहीं, तक्षशिला आर्यावर्त का एक भू-भाग है, वह आर्यावर्त की होकरही रहे, इसके लिए मर मिटो। फिर उसके कणों में तुम्हारा ही नाम अंकितहोगा। मेरे पिता स्वर्ग में इन्द्र से प्रतिस्पर्धा करेंगे। वहाँ की अप्सराएँविजयमाला लेकर खड़ी होंगी, सूर्यमण्डल मार्ग बनेगा और उज्ज्वलआलोक से मण्डित होकर गांधार राजकुल अमर हो जायगा!
 
चाणक्यः साधु! अलके, साधु!
 
आम्भीकः (खड्‌ग खींचकर) खड्‌ग की शपथ – मैं कर्तव्य सेच्युत न होऊँगा!
 
सिंहरणः (उसे आलिंगन करके) मित्र आम्भीक! मनुष्य साधारण
 
धर्मा पशु है, विचारशील होने से मनुष्य होता है और निःस्वार्थ कर्म करनेसे वही देवता भी हो सकता है।
 
(आम्भीक का प्रस्थान)
 
सिंहरणः अलका, सम्राट्‌ किस मानसिक वेदना में दिन बितातेहोंगे?
 
अलकाः वे वीर हैं मालव, उन्हें विश्वास है कि मेरा कुछ कार्यहै, उसकी साधना के लिए प्रकृति, अदृष्ट, दैव या ईश्वर, कुछ-न-कुछअवलम्बन जुटा ही देगा! सहायक चाहे आर्य चाणक्य हों या मालव!
 
सिंहरणः अलका, उस प्रचण्ड पराक्रम को मैं जानता हूँ। परन्तुमैं यह भी जानता हूँ कि सम्राट्‌ मनुष्य हैं। अपने से बार-बार सहायताकरने के लिए कहने में, मानव-स्वभाव विद्रोह करने लगता है। यह सौहार्दऔर विश्वास का सुन्दर अभिमान है। उस समय मन चाहे अभिनय करताहो संघर्ष से बचने का, किन्तु जीवन अपना संग्राम अन्ध होकर लड़ताहै। कहता है – अपने को बचाऊँगा नहीं, जो मेरे मित्र हों, आवें औरअपना प्रमाण दें।
 
(दोनों का प्रस्थान)
 
(सुवासिनी का प्रवेश)
 
चाणक्यः सुवासिनी, तुम यहाँ कैसे?
 
सुवासिनीः सम्राट्‌ को अभी तक आपका पता नहीं, पिताजी नेइसीलिए मुझे भेजा है। उन्हों ने कहा – जिस खेल को आरम्भ कियाहै, उसका पूर्ण और सफल अन्त करना चाहिए।
 
चाणक्यः क्यों करें सुवासिनी, तुम राक्षस के साथ सुखी जीवनबिताओगी, यदि इतनी भी मुझे आशा होती… वह तो यवन-सेनानी है, औरतुम मगध की मन्त्रि-कन्या! क्या उससे परिणय कर सकोगी?
 
सुवासिनीः (निःश्वास लेकर) राक्षस से! नहीं, असम्भव! चाणक्यतुम इतने निर्दय हो!
 
चाणक्यः (हँसकर) सुवासिनी! वह स्वप्न टूट गया – इस विजनबालुका-सिन्धु मं एक सुधा की लहर दौड़ पड़ी थी, किन्तु तुम्हारे एकभू-भंग ने उसे लौटा दिया! मैं कंगाल हूँ (ठहरकर) सुवासिनी! मैं तुम्हेंदण्ड दूँगा। चाणक्य की नीति में अपराधों के दण्ड से कोई मुक्त नहीं।
 
सुवासिनीः क्षमा करो विष्णुगुप्त।
 
चाणक्यः असम्भव है। तुम्हें राक्षस से ब्याह करना ही होगा, इसीमें हमारा-तुम्हारा और मगध का कल्याण है।
 
सुवासिनीः निष्ठुर! निर्दय!!
 
चाणक्यः (हँसकर) तुम्हें अभिनय भी करना पड़ेगा। उसमें समस्तसञ्चित कौशल का प्रदर्शन करना होगा। सुवासिनी, तुम्हें बन्दिनी बन करग्रीक-शिविर में राक्षस और राजकुमारी के पास पहुँचना होगा – राक्षसको देशभक्त बनाने के लिए और राजकुामरी की पूर्वस्मृति में आहुति देनेके लिए। कार्नेलिया चन्द्रगुप्त से परिणीता होकर सुखी हो सकेगी कि नहीं,इनकी परीक्षा करनी होगी।
 
(सुवासिनी सिर पकड़ कर बैठ जाती है।)
 
चाणक्यः (उसके सिर पर हाथ रखकर) सुवासिनी! तुम्हारा प्रणय,स्त्री और पुरुष के रूप में केवल राक्षस से अंकुरित हुआ, और शैशवका वह सब, केवल हृदय की स्निग्धता थी। आज किसी कारण से राक्षसका प्रणय द्वेष में बदल रहा है, परन्तु काल पाकर वह अंकुर हरा-भराऔर सफल हो सकता है! चाणक्य यह नहीं मानता कि कुछ असम्भवहै। तुम राक्षस से प्रेम करके सुखी हो सकती हो, क्रमशः उस प्रेम कासच्चा विकास हो सकता है। और मैं, अभ्यास करके तुमसे उदासीन होसकता हूँ, यही मेरे लिए अच्छा होगा। मानवहृदय में यह भाव-सृष्टि तोहुआ ही करती है। यही हृदय का रहस्य है, तब हम लोग जिस सृष्टिमें स्वतंत्र हों, समें परवशता क्यों मानें? मैं क्रूर हूँ, केवल वर्तमान केलिए, भविष्य के सुख और शान्ति के लिए, परिणाम के लिए नहीं। श्रेयके लिए, मनुष्य को सब त्याग करना चाहिए, सुवासिनी! जाओ!
 
सुवासिनीः (दीनता से चाणक्य का मुँह देखती है।) तो विष्णुगुप्त,तुम इतना बड़ा त्याग करोगे। अपने हाथों बनाया हुआ, इतने बड़े साम्राज्यका शासन हृदय की आकांक्षा के साथ अपने प्रतिद्वन्द्वी को सौंप दोगे! औरसो भी मेरे लिए!
 
चाणक्यः (घबड़ाकर) मैं बड़ा विलम्ब कर रहा हूँ। सुवासिनी,आर्य दाण्ड्यायन के आश्रम में पहुँचने के लिए मैं पथ भूल गया हूँ।मेघ के समान मुक्त वर्षा-सा जीवन-दान, सूर्य के समान अबाध आलोकविकीर्ण करना, सागर के समान कामना, नदियों को पचाते हुए सीमा केबाहर न जाना, यही तो ब्राह्मण का आदर्श है। मुझे चन्द्रगुप्त को मेघमुक्तचन्द्र देख कर, इस रंग-मंच से हट जाना है।
 
सुवासिनीः महापुरुष! मैं नमस्कार करती हूँ। विष्णुगुप्त, तुम्हारीबहन तुमसे आशीर्वाद की भिखारिन है। (चरण पकड़ती है।)
 
चाणक्यः सुखी रहो। (सजल नेत्र से उसके सिर पर हाथ फेरतेहुए)
 
(प्रस्थान)
 
(कपिशा में एलेक्जेंड्रिया का राज-मन्दिर)
 
(कार्नेलिया और उसकी सखी का प्रवेश)
 
कार्नेलियाः बहुत दिन हुए देखा था! वही भारतवर्ष! वही निर्मलज्योति का देश, पवित्र भूमि, अब हत्या और लूट से बीभत्य बनायी जायगी- ग्रीक-सैनिक इस शस्यश्यामला पृथ्वी को रक्त-रंजित बनावेंगे! पिताअपने साम्राज्य से सन्तुष्ट नहीं, आशा उन्हें दौड़ावेगी। पिशाची की छलनामें पड़ कर लाखों प्राणियों का नाश होगा। और, सुना है यह युद्ध होगाचन्द्रगुप्त से!
 
सखीः सम्राट तो आज स्कन्धावार में जानेवाले हैं!
 
(राक्षस का प्रवेश)
 
राक्षसः आयुष्मती! मैं आ गया।
 
कार्नेलियाः नमस्कार। तुम्हारे देश में तो सुना है कि ब्राह्मण जातिबड़ी तपस्वी और त्यागी है।
 
राक्षसः हाँ कल्याणी, वह मेरे पूर्वजों का गौरव है, किन्तु हमलोग तो बौद्ध हैं।
 
कार्नेलियाः और तुम उसके ध्वंसावशेष हो। मेरे यहाँ ऐसे हीलोगों को देशद्रोही कहते हैं। तुम्हारे यहाँ इसे क्या कहते हैं?
 
राक्षसः राजकुमारी! मैं कृतघ्न नहीं, मेरे देश में कृतज्ञता पुरुषत्वका चिह्न है। जिसके अन्न से जीवन-निर्वाह होता है उसका कल्याण…
 
कार्नेलियाः कृतज्ञता पाश है, मनुष्य की दुर्बलताओं के फंदे उसेऔर भी दृढ़ करते हैं। परन्तु जिस देश ने तुम्हारा पालन-पोषण करकेपूर्व उपकारों का बोझ तुम्हारे ऊपर ड़ाला है, उसे विस्मृत करके क्या तुमकृतघ्न नहीं हो रहे हो? सुकरात का तर्क तुमने पढ़ा है?
 
राक्षसः तर्क और राजनीति में भेद है, मैं प्रतिशोध चाहता हूँ।राजकुमारी! कर्णिक ने कहा है –
 
कार्नेलियाः कि सर्वनाश कर दो! यदि ऐसा है, तो मैं तुम्हारीराजनीति नहीं पढ़ना चाहती।
 
राक्षसः पाठ थोड़ा अवशिष्ट है। उसे भी समाप्त कर लीजिए,आपके पिता की आज्ञा है।
 
कार्नेलियाः मैं तुम्हारे उशना और कर्णिक से ऊब गयी हूँ, जाओ!
 
(राक्षस का प्रस्थान)
 
कार्नेलियाः एलिस! इन दिनों जो ब्राह्मण मुझे रामायण पढ़ाता था,वह कहाँ गया? उसने व्याकरण पर अपनी नयी टिप्पणी प्रस्तुत की है।वह कितना सरल और विद्वान है।
 
एलिसः वह चला गया राजकुमारी।
 
कार्नेलियाः बड़ा ही निर्लोभी सच्चा ब्राह्मण था। (सिल्यूकस काप्रवेश) – अरे पिताजी!
 
सिल्यूकसः हाँ बेटी! अब तुमने अध्ययन बन्द कर दिया, ऐसाक्यों? अभी वह राक्षस मुझसे कह रहा था।
 
कार्नेलियाः पिताजी! उसके देश ने उसका नाम कुछ समझ करही रक्खा है – राक्षस! मैं उससे डरती हूँ।
 
सिल्यूकसः बड़ा विद्वान है बेटी! मैं उसे भारतीय प्रदेश का क्षत्रपबनाऊँगा।
 
कार्नेलियाः पिताजी! वह पाप की मलिन छाया है। उसकी भँवोंमें कितना अन्धकार है, आप देखते नहीं। उससे अलग रहिए। विश्रामलीजिए। विजयों की प्रवंचना में अपने को न हारिए। महाप्वाकांक्षा केदाँव पर मनुष्यता सदैव हारी है। डिमास्थनीज ने…
 
सिल्यूकसः मुझे दार्शनिकों से तो विरक्ति हो गयी है। क्या हीअच्छा होता कि ग्रीस में दार्शनिक न उत्पन्न हो कर, केवल योद्धा ही होता!
 
कार्नेलियाः सो तो होता ही है। मेरे पिता किससे कम वीर हैं।मेरे विजेता पिता! मैं भूल करती हूँ, क्षमा कीजिए।
 
सिल्यूकसः यही तो मेरी बेटी! ग्रीक रक्त वीरता के परमाणु सेसंगठित है। तुम चलोगी युद्ध देखने? सिन्धु-तट के स्कन्धावार में रहना।
 
कार्नेलियाः चलूँगी।
 
सिल्यूकसः अच्छा तो प्रस्तुत रहना। आम्भीक – तक्षशिला काराजा – इस युद्ध में तटस्थ रहेगा, आज उसका पत्र आया है। और राक्षसकहता था कि चाणक्य – चन्द्रगुप्त का मंत्री – उससे क्रुद्ध हो कर कहींचला गया है। पंचनद में चन्द्रगुप्त का कोई सहायक नहीं! बेटी, सिकन्दरसे बड़ा साम्राज्य – उससे बड़ी विजय! कितना उज्ज्वल भविष्य है।
 
कार्नेलियाः हाँ पिताजी।
 
सिल्यूकसः हाँ पिताजी। – उल्लास की रेखा भी नहीं – इतनीउदासी! तू पढ़ना छोड़ दे। मैं कहता हूँ कि तू दार्शनिक होती जा रहीहै – ग्रीक-रत्न!
 
कार्नेलियाः वही तो कह रही हूँ। आप ही तो कभी पढ़ने केलिए कहते हैं, कभी छोड़ने के लिए।
 
सिल्यूकसः तब ठीक है, मैं ही भूल कर रहा हूँ।
 
(प्रस्थान)
 
(पथ में चन्द्रगुप्त और सैनिक)
 
चन्द्रगुप्तः पंचनद का नायक कहाँ है?
 
एक सैनिकः वह आ रहे हैं, देव!
 
(नायक का प्रवेश)
 
नायकः जय हो देव!
 
चन्द्रगुप्तः सिंहरण कहाँ है?
 
(नायक विनम्र होकर पत्र देता है, पत्र पढ़कर उसे फाड़ते हुए)
 
चन्द्रगुप्तः हूँ! सिंहरण इस प्रतीक्षा में है कि कोई बलाधिकृत जायतो वे अपना अधिकार सौंप दें। नायक! तुम खड्‌ग पकड़ सकते हो, औरउसे हाथ में लिए सत्य से विचलित तो नहीं हो सकते? बोलो, चन्द्रगुप्तके नाम से प्राण दे सकते हो? मैंने प्राण देनेवाले वीरों को देखा है।चन्द्रगुप्त युद्ध करना जानता है। और विश्वास रक्खो, उसके नाम काजयघोष विजयलक्ष्मी का मंगल-गान है। आज से मैं ही बलाधिकृत हूँ,मैं आज सम्राट नहीं, सैनिक हूँ। चिन्ता क्या? सिंहरण और गुरुदेव नसाथ दें, डर क्या! सैनिकों! सुन लो, आज से मैं केवल सेनापति हूँ,और कुछ नहीं। जाओ, यह लो मुद्रा और सिंहरण को छुट्टी दो। कहदेना कि तुम दूर खड़े होकर देख लो सिंहरण! चन्द्रगुप्त कायर नहीं है।जाओ।
 
(नायक जाने लगता है।)
 
चन्द्रगुप्तः ठहरो। आम्भीक की क्या लीला है?
 
नायकः आम्भीक ने यवनों से कहा है कि ग्रीक-सेना मेरे राज्यसे जा सकती है, परन्तु युद्ध के लिए सैनिक न दूँगा, क्योंकि मैं उन परस्वयं विश्वास नहीं करता।
 
चन्द्रगुप्तः और वह कर भी क्या सकता था, कायर! अच्छाजाओ, देखो, वितस्ता के उस पार हम लोगों को शीघ्र पहुँचना चाहिए।तुम सैन्य लेकर मुझसे वहीं मिलो।
 
(नायक का प्रस्थान)
 
एक सैनिकः मुझे क्या आज्ञा है, मगध जाना होगा?
 
चन्द्रगुप्तः आर्य शकटार को पत्र देना, और सब समाचार सुनादेना। मैंने लिख तो दिया है, परन्तु तुम भी उनसे इतना कह देना किइस समय मुझे सैनिक और शस्त्र तथा अन्न चाहिए। देश में डौंडी फेरदें कि आर्यावर्त में शस्त्र ग्रहण करने में जो समर्थ हैं, सैनिक हैं औरजितनी सम्पपि है, युद्ध-विभाग की है। जाओ।
 
(सैनिक का प्रस्थान)
 
दूसरा सैनिकः शिविर आज कहाँ रहेगा देव?
 
चन्द्रगुप्तः अश्व की पीठ पर सैनिक! कुछ खिला दो, और अश्वबदलो। एक क्षण विश्राम नहीं। हाँ ठहरो तो, सब सेना-निवेशों में आज्ञा-पत्र भेज दिये गये?
 
दूसरा सैनिकः हाँ देव!
 
चन्द्रगुप्तः तो अब मैं बिजली से भी शीघ्र पहुँचना चाहता हूँ।चलो, शीघ्र प्रस्तुत हो।
 
(सबका प्रस्थान)
 
चन्द्रगुप्तः (आकाश की ओर देखकर) अदृष्ट! खेल न करना!चन्द्रगुप्त मरण से अधिक भयानक को आलिंगन करने के लिए प्रस्तुत है!विजय – मेरे चिर सहचर!
 
(हँसते हुए प्रस्थान)
 
(ग्रीक-शिविर)
 
कार्नेलियाः एलिस! यहाँ आने पर जैसे मन उदास हो गया है।इस संध्या के दृश्य ने मेरी तन्मयता में एक स्मृति की सूचना दी है।सरला संध्या, पक्षियों के नाद से शान्ति को बुलाने लगी है। देखते-देखते,एक-एक करके दो-चार नक्षत्र उदय होने लगे। जैसे प्रकृति, अपनी सृष्टिकी रक्षा, हीरों की कील से जड़ी हुई काली ढाल लेकर कर रही है औरपवन किसी मधुर कथा का भार लेकर मचलता हुआ जा रहा है। यहकहाँ जाएगा एलिस?
 
एलिसः अपने प्रिय के पास!
 
कार्नेलियाः दुर! तुझे तो प्रेम-ही-प्रेम सूझता है।
 
(दासी का प्रवेश)
 
दासीः राजकुमारी! एक स्त्री बन्दी होकर आयी है।
 
कार्नेलियाः (आश्चर्य से) तो उसे पिताजी ने मेरे पास भेजा होगा,उसे शीघ्र ले आओ।
 
(दासी का प्रस्थान, सुवासिनी का प्रवेश)
 
कार्नेलियाः तुम्हारा नाम क्या है?
 
सुवासिनीः मेरा नाम सुवासिनी है। मैं किसी को खोजने जा रहीथी, सहसा बन्दी कर ली गयी। वह भी कदाचित्‌ आपके यहाँ बन्दी हो!
 
कार्नेलियाः उसका नाम?
 
सुवासिनीः राक्षस।
 
कार्नेलियाः ओहो, तुमने उससे ब्याह कर लिया है क्या? तब तोतुम सचमुच अभागिनी हो!
 
सुवासिनीः (चौंककर) ऐसा क्यों? अभी तो ब्याह होने वाला है,क्या आप उसके सम्बन्ध में कुछ जानती हैं?
 
कार्नेलियाः बैठो, बताओ, तुम बन्दी बनकर रहना चाहती हो यामेरी सखी? झटपट बोलो!
 
सुवासिनीः बन्दी बनकर तो आयी हूँ, सखी हो जाऊँ तोअहोभाग्य!
 
कार्नेलियाः प्रतिज्ञा करनी होगी कि मेरी अनुमति के बिना तुमब्याह न करोगी!
 
सुवासिनीः स्वीकार है।
 
कार्नेलियाः अच्छा, अपनी परीक्षा दो, बताओ, तुम विवाहितास्त्रियों को क्या समझती हो?
 
सुवासिनीः धनियों के प्रमोद का कटा-छँटा हुआ शोभा-वृक्ष। कोईडाली उल्लास से आगे बढ़ी, कुतर दी गयी। माली के मन से सँवरे हुएगोल-मटोल खड़े रहो।
 
कार्नेलियाः वाह, ठीक कहा। यही तो मैं भी सोचती थी। क्योंएलिस! अच्छा, यौवन और प्रेम को क्या समझती हो?
 
सुवासिनीः अकस्मात्‌ जीवन-कानन में, एक राका-रजनी की छायामें छिप कर मधुर वसन्त घुस आता है। शरीर की सब क्यारियाँ हरी-भरी हो जाती हैं। सौन्दर्य का कोकिल ‘कौन?’ कहकर सब को रोकनेटोकने लगता है, पुकारने लगता है। राजकुमारी! फिर उसी में प्रेम कामुकुल लग जाता है, आँसू-भरी स्मृतियाँ मकरंद-सी उसमें छिपी रहती हैं।
 
कार्नेलियाः (उसे गले लगाकर) आह सखी! तुम तो कवि हो।तुम प्रेम करना जानती हो और जानती हो उसका रहस्य। तुमसे हमारीपटेगी। एलिस! जा, पिताजी से कह दे, कि मैंने उस स्त्री को अपनीसखी बना लिया।
 
(एलिस का प्रस्थान)
 
सुवासिनीः राजकुमारी! प्रेम में स्मृति का ही सुख है। एक टीसउठती है, वही तो प्रेम का प्राण है। आश्चर्य तो यह है कि प्रत्येक कुमारीके हृदय में वह निवास करती है। पर, उसे सब प्रत्यक्ष नहीं कर सकतीं,सबको उसका मार्मिक अनुभव नहीं होता।
 
कार्नेलियाः तुम क्या कहती हो?
 
सुवासिनीः वही स्त्री-जीवन का सत्य है। जो कहती है कि मैंनहीं जानती- वह दूसरे को धोखा देती ही है, अपने को भी प्रवंचित करतीहै। धधकते हुए रमणी-वक्ष पर हाथ रख कर उसी कम्पन में स्वरमिलाकर कामदेव गाता है। और राजकुमारी! वही काम-संगीत की तानसौन्दर्य की रंगीन लहर बन कर, युवतियों के मुख में लज्जा और स्वास्थ्यकी लाली चढ़ाया करती है।
 
कार्नेलियाः सखी! मदिरा की प्याली में तू स्वप्न-सी लहरों कोमत आन्दोलित कर। स्मृति बड़ी निष्ठुर है। यदि प्रेम ही जीवन का सत्यहै, तो संसार ज्वालामुखी है।
 
(सिल्यूकस का प्रवेश)
 
सिल्यूकसः तो बेटी, तुमने इसे अपने पास रख ही लिया। मनबहलेगा, अच्छा तो है। मैं भी इसी समय जा रहा हूँ, कल ही आक्रमणहोगा। देखो, सावधान रहना।
 
कार्नेलियाः किस पर आक्रमण होगा पिताजी?
 
सिल्यूकसः चन्द्रगुप्त की सेना पर। वितस्ता के इश पार सेना आपहुँची है, अब युद्ध में विलम्ब नहीं।
 
कार्नेलियाः पिताजी, उसी चन्द्रगुप्त से युद्ध होगा, जिसके लिएउस साधु ने भविष्यवाणी की थी? वही तो भारत का राजा हुआ न?
 
सिल्यूकसः हाँ बेटी, वही चन्द्रगुप्त।
 
कार्नेलियाः पिताजी, आप ही ने मृत्यु-मुख से उसका उद्धार कियाथा और उसी ने आपके प्राणों की रक्षा की थी?
 
सिल्यूकसः हाँ, वही तो।
 
कार्नेलियाः और उसी ने आपकी कन्या के सम्मान की रक्षा कीथी? फिलिप्स का वह अशिष्ट आचरण पिताजी!
 
सिल्यूकसः तभी तो बेटी, मैंने साइवर्टियस को दूत बनाकरसमझाने के लिए भेजा था। किन्तु उसने उपर दिया कि मैं सिल्यूकस काकृतज्ञ हूँ, तो भी क्षत्रिय हूँ, रणदान जो भी माँगेगा, उसे दूँगा। युद्ध होनाअनिवार्य है।
 
कार्नेलियाः तब मैं कुछ नहीं कहती।
 
सिल्यूकसः (प्यार से) तू रूठ गयी बेटी। भला अपनी कन्या केसम्मान की रक्षा करने वाले का मैं वध करूँगा?
 
सुवासिनीः फिलिप्स को द्वंद्व-युद्ध में सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त ने मारडाला। सुना था, इन लोगों का कोई व्यक्तिगत विरोध…
 
सिल्यूकसः चुप रहो, तुम! (कार्नेलिया से) बेटी, मैं चन्द्रगुप्त कोक्षत्रप बना दूँगा, बदला चुक जायगा। मैं हत्यारा नहीं, विजेता सिल्यूकसहूँ।
 
(प्रस्थान)
 
कार्नेलियाः (दीर्घ निःश्वास लेकर) रात अधिक हो गयी, चलोसो रहें! सुवासिनी, तुम कुछ गाना जानती हो?
 
सुवासिनीः जानती थी, भूल गयी हूँ। कोई वाद्य-यन्त्र तो आपन बजाती होंगी? (आकाश की ओर देखकर) रजनी कितने रहस्यों कीरानी है – राजकुमारी!
 
कार्नेलियाः रजनी! मेरी स्वप्न-सहचरी!
 
सुवासिनीः (गाने लगती है) –
 
सखे! वह प्रेममयी रजनी।
 
आँखों में स्वप्न बनी,
 
सखे! वह प्रेममयी रजनी।
 
कोमल द्रुमदल निष्कम्प रहे,
 
ठिठका-सा चन्द्र खड़ा।
 
माधव सुमनों में गूँथ रहा,
 
तारों की किरन-अनी।
 
सखे! वह प्रेममयी रजनी।
 
नयनों में मदिर विलास लिये,
 
उज्ज्वल आलोक खिला।
 
हँसती-सी सुरभि सुधार रही,
 
अलकों की मृदुल अनी।
 
सखे! वह प्रेममयी रजनी।
 
मधु-मन्दिर-सा यह विश्व बना,
 
मीठी झनकार उठी।
 
केवल तुमको थी देख रही-
 
स्मृतियों की भीड़ घनी।
 
सखे! वह प्रेममयी रजनी।
 
(युद्ध-क्षेत्र के समीप चाणक्य और सिंहरण)
 
चाणक्यः तो युद्ध आरम्भ हो गया?
 
सिंहरणः हाँ आर्य! प्रचण्डविक्रम से सम्राट ने आक्रमण किया है।यवन-सेना थर्रा उठी है। आज के युद्‌ में प्राणों को तुच्छ गिन कर वेभीम पराक्रम का परिचय दे रहे हैं। गुरुदेव! यदि कोई दुर्घटना हुई तो?आज्ञा दीजिए, अब मैं अपने को नहीं रोक सकता। तक्षशिला और मालवोंकी चुनी हुई सेना प्रस्तुत है, किस समय काम आवेगी?
 
चाणक्यः जब चन्द्रगुप्त की नासीर सेना का बल क्षय होने लगे औरसिन्धु के इस पार की यवनों की समस्त सेना युद्ध में सम्मिलत हो जाय,उस समय आम्भीक आक्रमण करे। और तुम चन्द्रगुप्त का स्थान ग्रहण करो।दुर्ग की सेना सेतु की रक्षा करेगी, साथ ही चन्द्रगुप्त को सिन्धु के उस पारजाना होगा – यवन-स्कन्धावार पर आक्रमण करने! समझे?
 
(सिंहरण का प्रस्थान)
 
(चर का प्रवेश)
 
चरः क्या आज्ञा है?
 
चाणक्यः जब चन्द्रगुप्त की सेना सिन्धु के उस पार पहुँच जाय,तब तुम्हें ग्रीकों के प्रधान-शिविर की ओर उस आक्रमण को प्रेरित करनाहोगा। चन्द्रगुप्त के पराक्रम की अग्नि में घी डालने का काम तुम्हारा है।
 
चरः जैसी आज्ञा (प्रस्थान)
 
(दूसरे चर का प्रवेश)
 
चरः देव! राक्षस प्रधान-शिविर में है।
 
चाणक्यः जाओ, ठीक है। सुवासिनी से मिलते रहो।
 
(दोनों का प्रस्थान)
 
(एक ओर से सिल्यूकस, दूसरी ओर से चन्द्रगुप्त)
 
सिल्यूकसः चन्द्रगुप्त, तुम्हें राजपद की बधाई देता हूँ।
 
चन्द्रगुप्तः स्वागत सिल्यूकस! अतिथि की-सी तुम्हारी अभ्यर्थनाकरने में हम विशेष सुखी होते, परन्तु क्षात्र-धर्म बड़ा कठोर है। आर्यकृतघ्न नहीं होते। प्रमाण यही है कि मैं अनुरोध करता हूँ, यवन-सेना बिनायुद्ध के लौट जाय।
 
सिल्यूकसः वाह! तुम वीर हो, परन्तु मुझे भारत-विजय करनाही होगा। फिर चाहे तुम्हीं को क्षत्रप बना दूँ।
 
चन्द्रगुप्तः यही तो असम्भव है। तो फिर युद्ध हो।
 
(रण-वाद्य, युद्ध, लड़ते हुए उन लोगों का प्रस्थान, आम्भीक केसैन्य का प्रवेश)
 
आम्भीकः मगध-सेना प्रत्यावर्तन करती है। ओह, कैसा भीषणयुद्ध है। अभी ठहरें? अरे, देखो कैसा परिवर्तन! यवन सेना हट रही है,लो, वह भागी।
 
(चर का प्रवेश)
 
चरः आक्रमण कीजिए, जिसमें सिन्धु तक यह सेना लौट नसके। आर्य चाणक्य ने कहा है, युद्ध अवरोधात्मक होना चाहिए।
 
(प्रस्थान)
 
(रण-वाद्य बजता है। लौटती हुई यवन-सेना का दूसरी ओर सेप्रवेश)
 
सिल्यूकसः कौन? प्रपंचक आम्भीक! कायर!
 
आम्भीकः हाँ सिल्यूकस! आम्भीक सदा प्रपंचक रहा, परंतु यहप्रवंचना कुछ महत्व रखती है। सावधान!
 
(युद्ध – सिल्यूकस को घायल करते हुए आम्भीक की मृत्यु।यवन-सेना का प्रस्थान। सैनिकों के साथ सिंहरण का प्रवेश।)
 
“सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त की जय!”
 
(चन्द्रगुप्त का प्रवेश)
 
चन्द्रगुप्तः भाई सिंहरण, बड़े अवसर पर आये!
 
सिंहरणः हाँ सम्राट्‌! और समय चाहे मालव न मिलें, पर प्राणदेने का महोत्सव-पर्व वे नहीं छोड़ सकते। आर्य चाणक्य ने कहा किमालव और तक्षशिला की सेना प्रस्तुत मिलेगी। आप ग्रीकों के प्रधानशिविर का अवरोध कीजिए।
 
चन्द्रगुप्तः गुरुदेव ने यहाँ भी मेरा ध्यान नहीं छोड़ा! मैं उनकाअपराधी हूँ सिंहरण!
 
सिंहरणः मैं देख लूँगा, आप शीघ्र जाइए; समय नहीं है! मैं भीआता हूँ।
 
सेनाः महाबलाधिकृत सिंहरण की जय!
 
(चन्द्रगुप्त का प्रस्थान, दूसरी ओर से सिंहरण आदि का प्रस्थान)
 
(शिविर का एक अंश)
 
(चिन्तित भाव से राक्षस का प्रवेश)
 
राक्षसः क्या होगा? आग लग गयी है, बुझ न सकेगी? तो मैंकहाँ रहूँगा? क्या हम सब ओर से गये?
 
सुवासिनीः (प्रवेश करके) सब ओर से गये राक्षस! समय रहतेतुम सचेत न हुए।
 
राक्षसः तुम कैसे सुवासिनी!
 
सुवासिनीः तुम्हें खोजते हुए बन्दी बनायी गी। अब उपाय क्याहै। चलोगे?
 
राक्षसः कहाँ सुवासिनी? इधर खाई, उधर पर्वत! कहाँ चलूँ?
 
सुवासिनीः मैं इस युद्ध-विप्लव से घबरा रही हूँ। वह देखो, रण-वाद्य बज रहे हैं। यह स्थान भी सुरक्षित नहीं। मुझे बचाओ राक्षस –
 
(भय का अभिनय करती है।)
 
राक्षसः (उसे आश्वासन देते हुए) मेरा कर्तव्य मुझे पुकार रहाहै। प्रिये, मैं रणक्षेत्र से भाग नहीं सकता, चन्द्रगुप्त के हाथों से प्राण देनेमें ही कल्याण है! किन्तु तुमको…
 
(इधर-उधर देखता है, रण-कोलाहल)
 
सुवासिनीः बचाओ!
 
राक्षसः (निःश्वास लेकर) अदृष्ट! दैव प्रतिकूल है। चलोसुवासिनी!
 
(दोनों का प्रस्थान)
 
(एकाकिनी कार्नेलिया का प्रवेश)
 
(रण-शब्द)
 
कार्नेलियाः यह क्या! पराजय न हुई होती तो शिविर परआक्रमण कैसे होता? (विचार करके) चिन्ता नहीं, ग्रीक-बालिका भी प्राणदेना जानती है। आत्म-सम्मान – ग्रीस का आत्म-सम्मान जिये! (छुरीनिकालती है) तो अन्तिम समय एक बार नाम लेने में कोई अपराध है?- चन्द्रगुप्त!
 
(विजयी चन्द्रगुप्त का प्रवेश)
 
चन्द्रगुप्तः यह क्या। (छुरी ले लेता है) राजकुमारी!
 
कार्नेलियाः निर्दयी हो चन्द्रगुप्त! मेरे बूढ़े पिता की हत्या कर चुकेहोंगे! सम्राट्‌ हो जाने पर आँखें रक्त देखने की प्यासी हो जाती है न!
 
चन्द्रगुप्तः राजकुमारी! तुम्हारे पिता आ रहे हैं।
 
(सैनिकों के बीच में सिल्यूकस का प्रवेश)
 
कार्नेलियाः (हाथों में मुँह छिपाकर) आह! विजेता सिल्यूकस कोभी चन्द्रगपुत के हाथों से पराजित होना पड़ा।
 
सिल्यूकसः हाँ बेटी!
 
चन्द्रगुप्तः यवन-सम्राट्‌! आर्य कृतघ्न नहीं होते। आपको सुरक्षितस्थान पर पहुँचा देना ही मेरा कर्तव्य था। सिन्धु के इस पार अपने सेना-निवेश में आप हैं, मेरे बन्दी नहीं। मैं जाता हूँ।
 
सिल्यूकसः इतनी महानता!
 
चन्द्रगुप्तः राजकुमारी! पिताजी को विश्राम की आवश्यकता है।फिर हम लोग मित्रों से समान मिल सकते हैं।
 
(चन्द्रगुप्त का सैनिकों के साथ प्रस्थान, कार्नेलिया उसे देखतीरहती है।)
 
(पथ में साइवर्टियस और मेगास्थनीज)
 
साइवर्टियसः उसने तो हम लोगों को मुक्त कर दिया था, फिरअवरोध क्यों?
 
मेगास्थनीजः समस्त ग्रीक-शिविर बन्दी है। यह उनके मन्त्रीचाणक्य की चाल है। मालव और तक्षशिला की सेना हिरात के पथ मेंखड़ी है, लौटना असम्भव है।
 
साइवर्टियसः क्या चाणक्य! वह तो चन्द्रगुप्त से क्रुद्ध होकर कहींचला गया था न? राक्षस ने यही कहा था, क्या वह झुठा था
 
मेगास्थनीजः सब षड्‌यंत्र में मिले थे। शिविर को अरक्षितअवस्था में छोड़, बिना कहे सुवासिनी को लेकर खिसक गया। अभी भीन समझे। इधर चाणक्य ने आज मुझसे यह भी कहा है कि मुझएऔंटिगोनस के आक्रमण की भी सूचना मिली है।
 
(सिल्यूकस का प्रवेश)
 
सिल्यूकसः क्या? औंटिगोनस!
 
मेगास्थनीजः हाँ सम्राट्‌, इस मर्म से अवगत होकर भारतीय कुछनियमों पर ही मैत्री किया चाहते हैं।
 
सिल्यूकसः तो क्या ग्रीक इतने कायर हैं! युद्ध होगा साइवर्टियस।हम सब को मरना होगा।
 
मेगास्थनीजः (पत्र देकर) इसे पढ़ लीजिए, सीरिया परऔंटिगोनस की चढ़ाई समीप है। आपको उस पूर्व-संचित और सुरक्षितसाम्राज्य को न गँवा देना चाहिए।
 
सिल्यूकसः (पत्र पढ़कर विषाद से) तो वे क्या चाहते हैं?
 
मेगास्थनीजः सम्राट्‌! सन्धि करने के लिए तो चन्द्रगुप्त प्रस्तुतहै, परन्तु नियम बड़े कड़े हैं। सिन्धु के पश्चिम के प्रदेश आर्यावर्त कीनैसर्गिक सीमा निषध पर्वत तक वे लोग चाहते हैं। और भी…
 
सिल्यूकसः चुप क्यों हो गये? कहो, चाहे वे शब्द कितने हीकटु हों, मैं उन्हें सुनना चाहता हूँ।
 
मेगास्थनीजः चाणक्य ने एक और भी अड़ंगा लगाया है। उसनेकहा है, सिकन्दर के साम्राज्य में जो भावी विप्लव है, वह मुझे भलीभाँतिअवगत है। पश्चिम का भविष्य रक्त-रंजित है, इसलिए यदि पूर्व मेंस्थायी शान्ति चाहते हो तो ग्रीक-सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त को अपना बन्धु बनालें।
 
सिल्यूकसः सो कैसे?
 
मेगास्थनीजः राजकुमारी कार्नेलिया का सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त से परिणयकरके।
 
सिल्यूकसः अधम! ग्रीक तुम इतने पतित हो!
 
मेगास्थनीजः क्षमा हो सम्राट्‌! वह ब्राह्मण कहता है कि आर्यावर्तकी सम्राज्ञी भी तो कार्नेलिया ही होगी।
 
साइवर्टियसः परन्तु राजकुमारी की भी सम्मति चाहिए।
 
सिल्यूकसः असम्भव! घोर अपमानजनक!
 
मेगास्थनीजः मैं क्षमा किया जाऊँ तो सम्राट्‌…! राजकुमारी काचन्द्रगुपत से पूर्व-परिचय भी है। कौन कह सकता है कि प्रणय अदृश्यसुनहली रश्मियों से एक-दूसरे को न खींच चुका हो। सम्राट्‌ सिकन्दर केअभियान का स्मरण कीजिए – मैं उस घटना को भूल नहीं गया हूँ।
 
सिल्यूकसः मेगास्थनीज! मैं यह जानता हूँ। कार्नेलिया ने इशयुदध में जितनी बाधाएँ उपस्थित कीं, वे सब इसकी साक्षी हैं कि उसकेमन में कोई भाव है, पूर्व-स्मृति है, फिर भी – फिर भी, न जाने क्यों!वह देखो, आ रही है! तुम लोग हट तो जाओ!
 
(साइवर्टियस और मेगास्थनीज का प्रस्थान और कार्नेलिया काप्रवेश)
 
कार्नेलियाः पिताजी!
 
सिल्यूकसः बेटा कार्नी!
 
कार्नेलियाः आप चिन्तित क्यों हैं?
 
सिल्यूकसः चन्द्रगुप्त को दण्ड कैसे दूँ? इसी की चिन्ता है।
 
कार्नेलियाः क्यों पिताजी, चन्द्रगुप्त ने क्या अपराध किया है?
 
सिल्यूकसः हैं! अभी बताना होगा कार्नेलिया! भयानक युद्ध होगा,इसमें चाहे दोनों का सर्वनाश हो जाय!
 
कार्नेलियाः युद्ध तो हो चुका। अब मेरी प्रार्थना आप सुनेंगेपिताजी! विश्राम लीजिए। चन्द्रगुप्त का तो कोई अपराध नहीं, क्षमाकीजिए पिताजी! (घुटने टेकती है।)
 
सिल्यूकसः (बनावटी क्रोध से) देखता हूँ कि, पिता को पराजितकरने वाले पर तुम्हारी असीम अनुकम्पा है।
 
कार्नेलियाः (रोती हुई) मैं स्वयं पराजित हूँ। मैंने अपराध कियाहै पिताजी! चलिए, इस भारत की सीमा से दूर ले चलिए, नहीं तो मैंपागल हो जाऊँगी।
 
सिल्यूकसः (उसे गले लगाकर) तब मैं जान गया कार्नी, तू सुखीहो बेटी! तुझे भारत की सीमा से दूर न जाना होगा – तूम भारत कीसम्राज्ञी होगी।
 
कार्नेलियाः पिताजी!
 
(प्रस्थान)
 
(दाण्ड्यायन का तपोवन, ध्यानस्थ चाणक्य)
 
(भयभीत भाव से राक्षस और सुवासिनी का प्रवेश)
 
राक्षसः चारों ओर आर्य-सेना! कहीं से निकलने का उपाय नहीं।क्या किया जाय सुवासिनी!
 
सुवासिनीः यह तपोवन है, यहीं कहीं हम लोग छिप रहेंगे।
 
राक्षसः मैं देशद्रोही, ब्राह्मण-द्रोही बौद्ध! हृदय काँप रहा है! क्याहोगा?
 
सुवासिनीः आर्यों का तपोवन इन राग-द्वेषों से पर है।
 
राक्षसः तो चलो कहीं। (सामने देखकर) सुवासिनी! वह देखो- वह कौन?
 
सुवासनीः (देखकर) आर्य चाणक्य।
 
राक्षसः आर्य साम्राज्य का महामन्त्री इस तपोवन में!
 
सुवासिनीः यही तो ब्राह्मण की महपा है राक्षस! यों तो मूर्खोंकी निवृपि भी प्रवृपिमूलक होती है। देखो, यह सूर्य-रश्मियों का-सा रस-ग्रहण कितना निष्काम, कितना निवृपिपूर्ण है!
 
राक्षसः सचमुच मेरा भ्रम था सुवासिनी! मेरी इच्छा होती है किचल कर इस महात्मा के सामने अपना अपराध स्वीकार कर लूँ और क्षमामाँग लूँ!
 
सुवासिनीः बड़ी अच्छी बात सोची तुमने। देखो –
 
(दोनों छिप जाते हैं।)
 
चाणक्यः (आँख खोलता हुआ) कितना गौरवमय आज काअरुणोदय है! भगवान्‌ सविता, तुम्हारा आलोक, जगत्‌ का मंगल करे। मैंआज जैसे निष्काम हो रहा हूँ। विदित होता है कि आज तक जो कुछकिया, वह सब भ्रम था, मुख्य वस्तु आज सामने आयी। आज मुझे अपनेअन्तर्निहित ब्राह्मणत्व की उपलब्धि हो रही है। चैतन्य-सागर निस्तरंग हैऔर ज्ञान-ज्योति निर्मल है। तो क्या मेरा कर्म कुलाल-चक्र अपना निर्मितभाण्ड उतारकर धर चुका? ठीक तो, प्रभात-पवन के साथ सब की सुख-कामना शान्ति का आलिंगन कर रही है। देव! आज मैं धन्य हूँ।
 
(दूसरी ओर झाड़ी में मौर्य)
 
मौर्यः ढोंग है! रक्त और प्रतिशोध, क्रूरता और मृत्यु का खेलदेखते ही जीवन बीता, अब क्या मैं इस सरल पथ पर चल सकूँगा?यह ब्राह्मण आँख मूँदने-खोलने का अभिनय भले ही करे, पर मैं! असम्भवहै। अरे, जैसे मेरा रक्त खौलने लगा। हृदय में एक भयानक चेतना, एकअवज्ञा का अट्टहास, प्रतिहिंसा जैसे नाचने लगी! यह एक साधारण मनुष्य,दुर्बल कंकाल, विश्व के समूचे शस्त्रबल को तिरस्कृत किये बैठा है! रखदूँ गले पर खड्‌ग, फिर देखूँ तो यह प्राण-भिक्षा माँगता है या नहीं। सम्राट्‌चन्द्रगुप्त के पिता की अवज्ञा! नहीं-नहीं, ब्राह्महत्या होगी, हो, मेराप्रतिशोध और चन्द्रगुप्त का निष्कंटक राज्य!-
 
(छुरी निकाल कर चाणक्य को मारना चाहता है, सुवासिनीदौड़कर उसका हाथ पकड़ लेती है। दूसरी ओर से अलका, सिंहरण,अपनी माता के साथ चन्द्रगुप्त का प्रवेश)
 
चन्द्रगुप्तः (आश्चर्य और क्रोध से) यह क्या पिताजी! सुवासिनी!बोलो, बात क्या है?
 
सुवासिनीः मैंने देखा कि सेनापति, आर्य चाणक्य को मारना हीचाहते हैं, इसलिए मैंने इन्हें रोका।
 
चन्द्रगुप्तः गुरुदेव, प्रणाम! चन्द्रगुप्त क्षमा का भइखारी नहीं, न्यायकरना चाहता है। बतलाइए, पूरा विवरण सुनना चाहता हूँ, और पिताजी,आप शस्त्र रख दीजिए। सिंहरण! (सिंहरण आगे बढ़ता है।)
 
चाणक्यः (हँसकर) सम्राट्‌! न्याय करना तो राजा का कर्तव्य है,परन्तु यहाँ पिता और गुरु का सम्बन्ध है, कर सकोगे?
 
चन्द्रगुप्तः पिताजी!
 
मौर्यः हाँ चन्द्रगुप्त, मैं इस उद्धत ब्राह्मण का – सब की अवज्ञाकरने वाले महप्वाकांक्षी का – वध करना चाहता था। कर न सका, इसकादुःख है। इस कुचक्रपूर्ण रहस्य का अन्त न कर सका।
 
चन्द्रगुप्तः पिताजी, राज्य-व्यस्था आप जानते होंगे – वध केलिए प्राणदण्ड होता है, और आपने गुरुदेव का – इस आर्य-साम्राज्य केनिर्माणकर्ता ब्राह्मण का – वध करने जाकर कितना गुरुतर अपराध कियाहै!
 
चाणक्यः किन्तु सम्राट्‌, वह वध हुआ नहीं, ब्राह्मण जीवित है।अब यह उसकी इच्छा पर है कि वह व्यवहार के लिए न्यायाधिकरण सेप्रार्थना करे या नहीं।
 
चन्द्रगुप्त-जननीः आर्य चाणक्य!
 
चाणक्यः ठहरो देवी! (चन्द्रगुप्त से) मैं प्रसन्न हूँ वत्स! यह मेरेअभिनय का दण्ड था। मैंने आज तक जो किया, वह न करना चाहिएथा, उसी का महाशक्ति-केन्द्र ने प्रायश्चित करना चाहा। मैं विश्वस्त हूँकि तुम अपना कर्तव्य कर लोगे। राजा न्याय कर सकता है, परन्तु ब्राह्मणक्षमा कर सकता है।
 
राक्षसः (प्रवेश करके) आर्य चाणक्य! आप महान्‌ हैं, मैं आपकाअभिनन्दन करता हूँ। अब न्यायाधिकरण से, अपने अपराध-विद्रोह कादण्ड पाकर सुखी रह सकूँगा। सम्राट्‌ आपकी जय हो!
 
चाणक्यः सम्राट्‌, मुझे आज का अधिकार मिलेगा?
 
चन्द्रगुप्तः आज वही होगा, गुरुदेव, जो आज्ञा होगी।
 
चाणक्यः मेरा किसी से द्वेष नहीं, केवल राक्षस के सम्बन्ध मेंअपने पर सन्देह कर सकता था, आज उसका भी अन्त हो। सम्राट्‌सिल्यूकस आते ही होंगे, उसके पहले ही हमें अपना सब विवाद मिटादेना चाहिए।
 
चन्द्रगुप्तः जैसी आज्ञा।
 
चाणक्यः आर्य शकार के भावी जामाता अमात्य राक्षस के लिएमैं अपना मन्त्रित्व छोड़ता हूँ। राक्षस! सुवासिनी को सुखी रखना।
 
(सुवासिनी और राक्षस चाणक्य को प्रणाम करते हैं)
 
मौर्यः और मेरा दण्ड? आर्य चाणक्य, मैं क्षमा ग्रहण न करूँ,तब? आत्महत्या करूँगा!
 
चाणक्यः मौर्य! तुम्हारा पुत्र आज आर्यावर्त का सम्राट्‌ है – अबऔर कौन-सा सुख तुम देखना चाहते हो? काषाय ग्रहण कर लो, इसमेंअपने अभिमान को मारने का तुम्हें अवसर मिलेगा। वत्स चन्द्रगुप्त! शस्त्रदो आमात्य राक्षस को!
 
(मौर्य शस्त्र फेंक देता है। चन्द्रगुप्त शस्त्र देता है। राक्षस सविनयग्रहण करता है।)
 
सबः सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त मौर्य की जय!
 
(प्रतिहारी का प्रवेश)
 
प्रतिहारीः सम्राट्‌ सिल्यूकस शिविर से निकल चुके हैं।
 
चाणक्यः उनकी अभ्यर्थना राज-मन्दिर में होनी चाहिए, तपोवनमें नहीं।
 
चन्द्रगुप्तः आर्य, आप उस समय न उपस्थित रहेंगे!
 
चाणक्यः देखा जायगा।
 
(सबका प्रस्थान)
 
(राज-सभा)
 
(एक ओर से सपरिवार चन्द्रगुप्त, और दूसरी ओर सेसाइवर्टियस, मेगास्थनीज, एलिस और कार्नेलिया के साथसिल्यूकस का प्रवेश, सब बैठते हैं।)
 
चन्द्रगुप्तः विजेता सिल्यूकस का मैं अभिनन्दन करता हूँ -स्वागत!
 
सिल्यूकसः सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त! आज मैं विजेता नहीं, विजित सेअधिक भी नहीं! मैं सन्धि और सहायता के लिए आया हूँ।चन्द्रगुप्तः कुछ चिन्ता नहीं सम्राट्‌, हम लोग शस्त्र-विराम करचुके, अब हृदय का विनिमय…
 
सिल्यूकसः हाँ, हाँ, कहिए!
 
चन्द्रगुप्तः राजकुमारी, स्वागत! मैं उस कृपा को नहीं भूल गया,जो ग्रीक-शिविर में रहने के समय मुझे आप से प्राप्त हुई थी।
 
सिल्यूकसः हाँ कार्नी! चन्द्रगुप्त उसके लिए कृतज्ञता प्रगट कररहे हैं।
 
कार्नेलियाः मैं आपको भारतवर्ष का सम्राट्‌ देखकर कितनी प्रसन्नहूँ।
 
चन्द्रगुप्तः अनुगृहीत हुआ (सिल्यूकस से) औंटिगोनस से युद्धहोगा। सम्राट्‌ सिल्यूकस, गज-सेना आपकी सहायता के लिए जायगी।
 
हिरात में आपके जो प्रतिनिधि रहेंगे, उनसे समाचार मिलने पर और भीसहायता के लिए आर्यावर्त प्रस्तुत है।
 
सिल्यूकसः इसके लिए धन्यवाद देता हूँ। सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त, आजसे हम लोग दृढ़ मैत्री के बन्धन में बँधे! प्रत्येक का दुःख-सुख, दोनोंका होगा, किन्तु अभिलाषा मन में रह जायगी।
 
चन्द्रगुप्तः वह क्या?
 
सिल्यूकसः उस बुद्धिसागर, आर्य-साम्राज्य के महामंत्री, चाणक्यको देखने की बड़ी अभिलाषा थी।
 
चन्द्रगुप्तः उन्होंने विरक्त होकर, शान्तिमय जीवन बिताने कानिश्चय किया है।
 
(सहसा चाणक्य का प्रवेश, अभ्युत्थान देखकर प्रणाम करते हैं।)
 
सिल्यूकसः आर्य चाणक्य, मैं आपका अभिनन्दन करता हूँ।
 
चाणक्यः सुखी रहो सिल्यूकस, हम भारतीय ब्राह्मणों के पाससबकी कल्याण-कामना के अतिरिक्त और क्या है, जिससे अभ्यर्थना करूँ?
 
मैं आज का दृश्य देखकर चिर-विश्राम के लिए संसार से अलग होनाचाहता हूँ।
 
सिल्यूकसः और मैं सन्धि करके स्वदेश लौटना चाहता हूँ। आपकेआशीर्वाद की बड़ी अभिलाषा थी। सन्धि-पत्र…
 
चाणक्यः किन्तु संधि-पत्र स्वार्थों से प्रबल नहीं होते, हस्ताक्षरतलवारों को रोकने में असमर्थ प्रमाणित होंगे। तुम दोनों ही सम्राट्‌ हो,शस्त्र-व्यवसायी हो, फिर भी संघर्ष हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहोगी। अतएव, दो बालुका-पूर्ण कगारों के बीच में एक निर्मल-स्रोतस्विनीका रहना आवश्यक है।
 
सिल्यूकसः सो कैसे?
 
चाणक्यः ग्रीस की गौरव-लक्ष्मी कार्नेलिया को मैं भारत कीकल्याणी बनाना चाहता हूँ। यही ब्राह्मण की प्रार्थना है।
 
सिल्यूकसः मैं तो इससे प्रसन्न ही हूँगा, यदि…
 
चाणक्यः यदि का काम नहीं, मैं जानता हूँ, इसमें दोनों प्रसन्नऔर सुखी होंगे।
 
सिल्यूकसः (कार्नेलिया की ओर देखता है, वह सलज्ज सिर झुकालेती है।) तब आओ बेटी… आओ चन्द्रगुप्त!
 
(दोनों ही सिल्यूकस के पास जाते हैं, सिल्यूकस उनका हाथमिलाता है। फूलों की वर्षा और जय-ध्वनि)
 
चाणक्यः (मौर्य का हाथ पकड़कर) चलो, अब हम लोग चलें!
 
यवनिका
 
।। समाप्त ।।
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