कहानी – राजपूतनी की राख

(चित्तौड़ की अद्वितीया सुन्दरी रानी पद्मिनी ने अपनी आन निभाने को चौदह सहस्र क्षत्राणियों के साथ चितारोहण कर जौहर करके साखा रचा था। उसके रूप के लोभी क्रूर सुलतान अलाउद्दीन ने रक्तरंजित तलवार लेकर जब रंगमहलों में प्रवेश किया, तो उसे राजपूतनी की राख ही मिली थी। यहां उसी घटना की एक रूपरेखा चित्रित की गई है।)

‘रणथम्भोर का दुर्जय दुर्ग उस दैत्य ने विजय कर लिया। सामन्त हम्मीर ने। एक वर्ष • वीरता युद्ध किया और अन्त में वीरगति को प्राप्त हुआ। वहां एक भी मर्द बच्चा जीवित नहीं है। लोथें गली-कूचों में सड़ रही हैं। चौबीस हज़ार स्त्रियों ने जौहर व्रत करके अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा की है। वह बड़ा भयानक, बड़ा ख़ूनी, बड़ा निर्दयी, बड़ा पतित पशु है । वह अब अन्धाधुन्ध चित्तौड़ पर चढ़ा आ रहा है। ‘

‘महाराज, आप अधिक भयभीत प्रतीत होते हैं। ‘

‘महारानी, मैंने राजपूतनी का दूध पिया है और मेरी रगों में राजपूत-रक्त बह रहा है। भय क्या होता है, यह मैंने कभी नहीं जाना, पर उस नीच का उद्देश्य अत्यन्त कुत्सित है।’

‘वह चित्तौड़ पर दांत रखता है न ? चित्तौड़ रणथम्भोर नहीं। क्या आपके पास राजपूतों का अभाव है?’

‘नहीं प्रिये ।’

‘क्या उन्हें प्राण प्यारे हो गए हैं। ‘

‘नहीं-नहीं, प्रिये, चित्तौड़ के सीसोदिया नाहरी के असल जाये हैं।’

‘फिर चिन्ता क्या है स्वामिन ?’

‘वह चित्तौड़ – विजय करने नहीं आ रहा । ‘

‘फिर किसलिए आ रहा है ?”

‘वह बात कहने योग्य नहीं है । ‘

‘फिर भी कहिए तो ! ‘

‘वह तुम्हारे लिए आ रहा है। ‘

‘उसका ऐसा साहस ?’

‘उसने गुजरात के राजा कर्ण को मारकार उसकी रानी और बेटी को बलपूर्वक अपने घर में डाल लिया है।’

‘परन्तु पद्मिनी गुजरात की रानी नहीं । सीसोदिया वंश की कुल-वधू है ।’

‘पर प्रिये, उसका प्रस्ताव अद्भुत है।’

‘वह क्या है, सुनूं ?’

‘वह केवल एक बार अपनी आंखों से तुम्हारा रूप निहारकर लौट जाना चाहता है। वह भी प्रत्यक्ष नहीं दर्पण में।’

‘परन्तु चित्तौड़ के धोबी भी अपनी स्त्री की अप्रतिष्ठा नहीं सह सकेंगे। ‘

‘पर प्रिये, सहस्रों प्राणों के वारे-न्यारे का प्रश्न है, कदाचित इस चित्तौड़ का भी । ‘

‘क्या महाराज उसके नीच प्रस्ताव से सहमत हैं ?’

‘नहीं, मैं सिंहल कुमारी की प्रतिष्ठा के लिए प्राण देने को अनायास ही तैयार हूं, यह साधारण बात है, और सीसोदिया भी नामर्द नहीं – पर क्या अपनी स्त्री की रक्षा के लिए मैं हज़ारों बेटियों-बहुओं को विधवा बनाऊं ? चित्तौड़ के दुर्ग को खंडहर होने दूं? इस तूफ़ान से यों ही टक्कर ले लूं ! प्रिये, राजपूत के लिए युद्ध में प्राण त्यागना उसक सौभाग्य है, पर राजा के लिए राजनीति ही सर्वोपरि है ।’

‘तब आपकी राजनीति कहती है कि इस अपमान का घूंट पी लिया जाए, पद्मिनी की मुख- छवि म्लेच्छ को दिखा दी जाए, और चित्तौड़ का संकट बिना रक्तपात के टाल दिया जाए ?’

‘हां रानी, राजनीति यही कहती है ।’

‘तब मैं यह सोच देखूँ कि प्राण दूँ या प्रतिष्ठा ?’

‘नहीं, यह सोच देखो कि प्रतिष्ठा दूं, या सहस्रों सीसोदियों का रक्तपात बचाऊं, चित्तौड़ का सर्वनाश बचाऊ, सहस्रों कुल-बहुओं को विधवा होने और आग में जल मरने से बचाऊं ?’

‘सोच लिया स्वामिन, विलम्ब का काम नहीं । मैं अपनी प्रतिष्ठा का बलिदान दूंगी, चित्तौड़ को नष्ट करने की आवश्यकता नहीं है। राजपूत बालाओं के माथे का सौभाग्य- सिन्दूर अचल रहे। पद्मिनी के लिए उसके पति और पुत्रों का एक द रक्त भी न गिरने पाएगा। जाओ कह दो उस ख़ूनी पशु से, उस घृणित म्लेच्छ से, वह आकर अच्छी तरह इस कलंकिनी का मुख देख जाए ।’

‘रानी, मैंने उससे एक प्रस्ताव किया था । ‘

‘क्या स्वामिन ?’

‘यह कि यदि मैं उसे आत्म-समर्पण कर दूं, तो क्या वह सन्तुष्ट होगा ?”

‘नहीं स्वामी, आपके प्राणों को वह क्या करेगा। उसे चाहिए मेरा रूप-दर्शन जाइए दिखा दीजिए और सुनिए…’

‘क्या रानी ?’

‘क़िले को और अपने-आपको सर्वथा सुरक्षित रखिए। वह शत्रु निरस्त्र और एकाकी आए । ‘

‘ऐसा ही होगा रानी ।’

****

‘महाराज, देख लिया। आप बड़े ख़ुशकिस्मत हैं, ऐसी ख़ूबसूरत रानी आपने पाई | वाह ! क्या कहने हैं, जैसे सोने की मूर्ति हो । ‘

‘सुलतान, व्यर्थ रक्तपात से बचने और आपकी मित्रता के वचन पर भरोसा करके मैंने यह अपमान जनक काम किया है, जो सीसोदिया वंश के किसी अदने व्यक्ति ने भी न किया होगा ।’

‘महाराज, आप हमारी दोस्ती का भरोसा रखिए । ताज़िन्दगी यह कायम रहेगी। हम अब पगड़ी बदल भाई हुए। लीजिए हमारी पगड़ी, और दीजिए हमें अपनी ।’

‘सुलतान, मैं आपका विश्वास करता हूं। यदि इस अप्रतिष्ठा के बदले दिल्ली के तख्त की दोस्ती चित्तौड़ को मिल जाए तो मैं समझूँ कि मुझे मेरी अप्रतिष्ठा का बदला मिल गया।’

‘ओह, आप इसे बेइज़्ज़ती क्यों कहते हैं, जब हम भाई-भाई हुए । अरे! फाटक आ गया। महाराज, अब आप क्यों तकलीफ़ करते हैं? अरे, इतनी दूर आपको आना पड़ा, अब आप कहां तक चलते जाएंगे ?’

‘सुलतान, और ज़रा दूर सही, आप हमारे अतिथि हैं। अतिथि-सत्कार हमारा कुल- धर्म है। फिर आप दिल्ली के सुलतान हैं।’

‘आपकी शराफ़त और तवाज़ा का मैं बहुत ही कायल हूं। आप वाक़ई दोस्ती के क़ाबिल हैं। और अच्छा, अब मैं जल्द ही छावनी उठा लूंगा। आपकी क्या राय है, अरे, आप फाटक से बहुत दूर आ गए, (इधर-उधर देखकर ) कोई है ?’

एकदम झाड़ियों से सहस्र यवनों ने निकलकर राणा को देखते-देखते कैद कर लिया और घोड़े पर बांधकर तीर की भांति सुलतान सहित भाग गए। क़िले में हलचल मच गई।

‘काकी रानी, अब क्या करना है ?’

‘बेटा बादल, घबराओ नहीं, मैं महाराणा को लाऊंगी।’

‘काकी, हम लोग युद्ध के लिए प्रस्तुत हैं ।’

‘नहीं बेटे, यह युद्ध का अवसर नहीं, कांटे से कांटा निकाला जाएगा। गोरा को बुला लो।’

‘जुहार, काकी रानी । ‘

‘गोरा और बादल, सुनो पुत्रो तुम अल्पायु हो, पर मुझे तुम्हारी ही आवश्यकता है, कहो तुम्हारी भुजाओं में कितना बल है ?’

‘यथेष्ट है, काकी रानी ।’

‘अच्छी बात है, सुनो। सुलतान को लिख दो कि रानी अपनी सहेलियों सहित आपकी सेवा में आती हैं, युद्ध करने की आवश्यकता नहीं । महाराज को छोड़ दिया जाए।’

‘यह क्या काकी…. ?’

‘सुनो, सात सौ डोलियां इस समय क़िले में तैयार हैं। उन सबमें प्रत्येक में दो-दो सशस्त्र योद्धा बैठा दो। ऊपर परदा डाल दो। ये सात सौ मेरी सहेलियां रहेंगी।’

‘ये कैसी सहेलियां ?’

‘और सुनो, प्रत्येक डोली में चार-चार सावन्त कहार बनकर लगे चलेंगे। ये सब सशस्त्र होंगे और ऊपर वस्त्र से हथियारों को ढक रखेंगे।’

‘मैं समझ गया काकी।’

‘मैं भी समझ गया।’

‘ठहरो गोरा, तुम्हारा गोरा नाम क्यों है, जानते हो? तुम चित्तौड़ में सबसे गोरे और सुन्दर बालक हो। तुम काकी रानी के डोले में अपनी ढाल-तलवार लेकर जा डटो । ‘

‘जय रानी की, हम सूर्यास्त से प्रथम ही महाराज को ले आएंगे। ‘

‘वहां पहुंचकर तुम एकान्त में कनात के पर्दे में डोलियां ले जाना । और एक बार महाराजा से एकान्त में मुलाक़ात करके बन्धन मुक्त कर देना और म्लेच्छों पर टूट पड़ना। आगे तुम्हारा भुज-बल रहा । ‘

‘काकी, हम सूर्यास्त से प्रथम ही लौट आएंगे, आप निश्चिन्त रहें ।’

‘अभी पत्र लिख दो और तैयारी करो, सभी योद्धा चुने हुए हों । ‘

“ऐसा ही होगा, काकी रानी । ‘

****

‘जहांपनाह, क़ासिद आया है।’

‘किसका क़ासिद ?’

‘चित्तौड़ के क़िले वालों का ।’

‘उसे हाज़िर करो।’

‘जो हुक्म । ‘

‘राजपूत आकर खड़ा हो गया ।’

‘क्या चाहते हो ?’

‘मैं महारानी पद्मिनी का सन्देश लाया हूं।’

‘क्या सन्देश है?’

‘कुछ शर्तों पर रानी आपकी सेवा में आने को तैयार हैं।’

‘कौन-कौन सी शर्ते हैं ?’

‘यह कि उनके आने पर आप राणा भीमसिंह को छोड़ दें और उन्हें चित्तौड़ का राज्य और क़िला लौटा दें।’

‘मंजूर, और ?’

‘राजा से रानी को अन्तिम भेंट के लिए आधा घंटा समय दें।’

‘मंजूर, और ?’

‘रानी पर्दानशीन हैं, उनकी पद- मर्यादा भी मामूली नहीं, उनकी सात सौ ख़ास बांदियां साथ आएंगी, उन्हें साथ रहने की इजाज़त दें।’

‘मंजूर, और?’

‘उनके उतरने के लिए पर्दे का पूरा प्रबन्ध किया जाए, कोई सैनिक उन्हें देख न सके। दासियां भी पर्दानशीन हैं।’

‘मंजूर है, और ?”

‘उनके आने के दो घंटे के भीतर आप चित्तौड़ का घेरा उठाकर दिल्ली को कूच कर दें।’

‘मंजूर है।’

‘तो मैं जाकर महारानी को सन्देश देता हूं। आप पर्दे का प्रबन्ध कर दीजिए।’

‘इत्मीनान रखो, सब जैसा कहा है वैसा ही हो जाएगा।’

****

‘पहरेदार! यह कोलाहल कैसा है ?’

‘आपकी रानी साहिबा, सुलतान की ख़िदमत में आई हैं। बाप रे – कितनी लौंडियां हैं। शायद तमाम फ़ौज के सिपाहियों को बांटी जाएंगी, जनाब उसी की ख़ुशी में जश्न हो रहा है।’

‘यह तू क्या बकता है – पाजी ।’

‘जनाब महाराज जुबान संभालिए, यह आपका क़िला नहीं, यहां पाजी कोई नहीं – बन्दा पठान है।’

‘क्या यह सच है ?’

‘नहीं तो नाच, गाना और शराब यों ही उड़ रही है ?’

‘रानी कहां है?’

‘सुलतान की बगल में होंगी।’

‘हरामजादे, क्या तूने देखा है ?”

‘हज़रत दुपहर से डोलों का तांता बंधा है, क्या हमारी आंखें फूट गई हैं। सभी को मालूम है।’

इतने में ही एक सैनिक ने आकर कहा – महाराज, रानी साहिबा आपसे मुलाक़ात करने आई हैं। डोला हाज़िर है।

‘मुलाक़ात की ज़रूरत नहीं उसे मेरे सामने से हटाओ ।’

‘मैं सुलतान का हुक्म बजा लाता हूं, आपका नहीं – बन्दा रुख़सत होता है। पहरेदार, तुम भी हट जाओ । सुलतान का हुक्म है कि मुलाक़ात अकेले में होगी । महाराज ! सिर्फ आधा घंटा ।’

एक डोली आई। महाराणा ने उसे अग्निमय नेत्रों से देखा । भीतर से गोरा ने निकलकर महाराणा को जुहार किया ।

‘यह क्या ?’

‘चुप, लीजिए हथियार । ठाकरां, तुम महाराज की बेड़ियां काट दो । रेती है ?’

‘है।’

‘गोरा ! ‘

‘महाराणा, सात सौ डोलियों में चौदह सौ योद्धा हैं। ढाई हज़ार कहार के वेश में हैं। आइए म्लेच्छों पर टूट पड़ें।’

‘लाओ मेरी तलवार, क्या शत्रु बेसुध हैं ?’

‘सब शराब और नाच- तमाशे में मस्त हैं । ‘

‘तब चलो।’

‘चलो। ‘

‘जय एकलिंग !’

‘जय एकलिंग ! ‘ ( प्रचंड घोष )

‘मारो।’

‘काटो।’

‘पाजी।’

‘म्लेच्छ ।’

‘हाय-हाय ! ‘

‘तोबा तोबा ! ‘

‘ले दुष्ट, यह मारा!’

‘आह! मरा!’

‘पानी-पानी!’

‘मारो मारो!’

‘जय एकलिंग की ! ‘

‘जय महाराणा की ! ‘

‘अरे भागो!’

‘भागो भागो!’

‘गोरा ?’

‘राणा!’

‘तुम कहां हो?’

‘महाराज, बादल मारे गए, आप धीरे-धीरे क़िले की ओर बढ़िए, वहां पहुंचते ही संकेत कर दीजिए। ‘

‘तुम पीछे हटते जाओ गोरा, तुम बालक हो, म्लेच्छों से मैं निबट लूंगा।’

‘अन्नदाता, यह तो असली युद्ध नहीं, जाइए, चित्तौड़ की रक्षा कीजिए। ‘

‘गोरा, बेटा, सावधान – मैं नई सेना भेजता हूं।’

‘महाराणा काका, जुहार, निर्भय जाइए। क़िले में पहुंचकर संकेत कर दीजिए ।’

‘महारानी, अब दुर्ग की रक्षा असम्भव है, मैंने सेना का विसर्जन कर दिया है। केसर के कड़ाह चढ़ गए हैं, जिसे मरना हो केसरिया धारण करे, प्यारी अब तुम भी अपनी तैयारी करो।’

‘स्वामी, इतना शोक न करो; हम तैयार हैं। हमारे लिए कौन सा स्थान नियत किया है ?’

क़िले की गुप्त सुरंग में यथासम्भव ज्वलनशील पदार्थ इकट्ठे कर दिए हैं। पूर्वी द्वार पर लोह-फाटक बन्द कर दिया गया है। आग दे दी गई है । तुम सब कितनी हो ? ‘कुल चौदह हज़ार !’

‘आज चित्तौड़ को यह दिन देखना पड़ा प्रिये ! हम शीघ्र मिलेंगे।’

‘स्वामिन, इस भांति मरने में तो मुझे गर्व है, पर शोक यही है कि चित्तौड़ का विध्वंस मेरे लिए हुआ। मैं प्रतिष्ठा बेचकर छल करके भी उसे न बचा सकी। मैं सीसोदिया वंश की राहु बनी। ‘

‘ऐसा न कहो प्रिये – आह ! वह कौन है ? राजदुलारी ! उसे मेरे सामने न आने दो – जाओ, ले जाओ! रानी, अब समय नहीं है । ‘

राजकुमारी ने दौड़कर अन्दर आकर पूछा :

‘मां, यह इतनी आग कैसी है ?’

‘चलो बेटी, हमें वहीं चलना है।’

‘मां, मुझे भय लगता है, मैं जल जाऊंगी।’

‘चलो बेटी, क्षत्रिय – पुत्री भय नहीं किया करतीं।’

‘जय महारानी, हम प्रस्तुत हैं। ‘

‘आओ राजपूत बालाओ, गले मिल लो, जिससे स्वर्ग में हम फिर मिलेंगे।’

‘अरे, तुम रोती हो ?’

‘और तू ? प्यारी बच्ची । ‘

‘कोई भयभीत न हो। ‘

‘बहू, मेरा हाथ दृढ़ता से पकड़; आज अग्निदेव से हमारा ब्याह होगा ।’

‘जय अग्निदेव !’

‘जय मां वसुन्धरे ! ‘

‘जय पद्मिनी रानी । ‘

‘जय सीसोदिया वंश ! ‘

‘जय चित्तौड़ – जय चित्तौड़ – जय – जय – जय !’

****

‘वीरो, तुम कितने हो ?’

‘महाराणा तीन सौ दस । ‘

‘तलवारें तो सब पर हैं न?”

‘हां, अन्नदाता !’

‘जिसे प्राण प्यारे हों, वह अवश्य चला जाए। ‘

‘जय चित्तौड़ की – हम आज अमर होंगे।’

‘सरदारो, तुम्हारा नाम सदा जागता रहेगा!’

‘जय सीसोदिया वंश की !’

‘देखो, राजमहल भस्म हो गया। वह लपटें उठ रही हैं, हमारी पुत्रियां, वधुएं, माताएं, सब स्वर्ग में पहुंच चुकीं, चलो अब हम चलें।’

‘चलो दरबार । ‘

‘जय एकलिंग ! फाटक खोल दो ।’

‘जय एकलिंग । ‘

‘मारो!’

‘मारो !’

‘मारो!’

‘वह काटा ! ‘

‘वह मारा !’

‘हाय-हाय ! ‘

‘जय एकलिंग । ‘

‘जय चित्तौड़ ।’

‘जय सीसोदिया वंश, जय जय जय !’

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